बुधवार

अरु...भाग-९


अभी तक आपने पढ़ा कि अलंकृता अपनी मम्मी के द्वारा लिखे पन्नों को पढ़ती है और भावुक हो जाती है...

आगे पढ़िए..

यह सभी की समझ से परे था कि वह इतनी हिम्मत लाती कहाँ से थी! एक ओर उसके हमउम्र बच्चे थे कि जरा-सा किसी बच्चे ने धक्का भी दे दिया तो रोते हुए पहुँच जाते थे अपनी मम्मी के पास, दूसरी ओर वो थी कि उसके छोटे भाइयों को भी कोई जरा सा डाँट भी देता तो लड़ जाती उससे, जैसे माँ अपने बच्चों के लिए लड़ती है। हाँ माँ ही तो थी अपने छोटे भाइयों की वह, जबसे माँ से दूर पापा के साथ रहना शुरू किया था तबसे अपने छोटे भाइयों की देखभाल माँ की तरह ही तो करती थी जबकि स्वयं ग्यारह-बारह वर्ष की ही तो रही होगी वह। यह उस नन्हीं सी जान का दुर्भाग्य ही तो था कि वह माँ के होते हुए भी माँ से कोसों दूर रहती थी। पापा गाँव के होते हुए भी, पुराने विचारों के होते हुए भी बच्चों को अपनी तरह अनपढ़ नहीं रखना चाहते थे, इसलिए अपने साथ शहर में रखकर उनको शिक्षा दिलवाने लगे। हालांकि ये था तो उसकी भलाई के लिए ही लेकिन इस पढ़ाई ने उससे उसका बचपन छीन लिया था। लेकिन शायद यही उसके लिए आवश्यक था। यह अजीब बात थी कि एक ओर तो उसके पापा पुराने ख्यालों के होते हुए भी अपने बेटों के साथ-साथ बेटी को भी पढ़ाना चाहते थे वहीं दूसरी ओर समाज की बाल-विवाह रूपी कुरीति में फँसकर अपनी इकलौती बेटी का विवाह आठ-नौ वर्ष की उम्र में ही कर दिया। किन्तु इस कुप्रथा में भी एक ही अच्छाई थी कि दुल्हन की विदाई तब तक नहीं होती थी जब तक वह बड़ी न हो जाए। इसी कारण उसका विवाह तो हो गया किंतु अभी माँ-बाप की छत्रछाया में रहना उसके नसीब में था या फिर शायद उसके पापा ने इसीलिए उसका विवाह करवा दिया था क्योंकि उन्हें पता था कि अभी उनकी बेटी उनसे दूर नहीं होगी। विवाह के बाद वह वापस आकर अपनी पढ़ाई करने लगी थी। वहाँ उनके परिवार के कुछ नजदीकी लोगों को छोड़कर किसी और को उसके विवाहिता होने की बात नहीं पता थी। उसे खुद भी कहाँ इस बात का अहसास था! वह तो इन सबसे अनजान स्वच्छंद लहर की तरह बस बहे जा रही थी, उसे देखकर यह बात कोई समझ नहीं पाता था कि वह कितनी कमजोर कितनी अकेली महसूस करती होगी, जब अपने हमउम्र बच्चों को अपनी माँ की ममता के संरक्षण में देखती होगी।
जब कभी उसकी मम्मी गाँव से आतीं तब वह इतनी खुश होती थी कि मानो पागल हो गई हो, उस समय सब सचमुच उसे पागल ही समझते थे। स्कूल में उस दिन खुशी के मारे दूसरे बच्चों को छेड़ती कभी किसी की चोटी खींच लेती तो कभी किसी की पुस्तक लेकर भाग जाती। कभी कक्षा में पढ़ाते हुए मास्टर जी के पीछे-पीछे चलकर उनकी नकल उतारती तो कभी अपनी सहेलियों की घड़ियाँ उतरवा कर अपने दोनों हाथों में पहनकर बैठी रहती और मास्टर जी के पूछने पर खुश होकर कहती कि "आज मेरा टाइम बहुत-बहुत-बहुत अच्छा हो गया, इसीलिए एक घड़ी से पूरा नहीं हो रहा था न इसलिए।" इन सबके बाद भी आखिर थी तो बच्ची ही, जब कोई बच्चा उससे लड़ता और फिर उसी की शिकायत अपनी माँ से करके उल्टा उसे ही डाँट खिलाता तब वह बहुत दुखी होती थी। उसके सामने तो निडर बन कर खड़ी हो जाती, जवाब भी दे देती थी लेकिन घर में आकर अकेले में खूब रोती थी। उस समय उसका भी जी मचलता कि मम्मी होतीं तो मैं भी उनके आँचल में दुबक जाती, फिर किसी का साहस नहीं होता कि मुझ पर झूठा इल्जाम लगा पाता। उस समय उसे अपनी मम्मी की बहुत याद आती थी।
बच्चों के खेलने खाने और पढ़ने की उम्र में वह घर के काम के साथ-साथ अपनी पढ़ाई भी करती और साथ ही अपने पापा की अनुपस्थिति में पूरा दिन छोटे भाइयों की देखभाल भी करती थी। मजाल है जो कोई उसके भाइयों को कुछ कह देता, वह बड़ों की तरह लड़ जाती थी। कहती थी "मेरी मम्मी यहाँ नहीं हैं तो क्या कोई भी मेरे भाइयों को डाँट लेगा? मैं तो हूँ न।"
किताबें उसका परिवार थीं और चित्रकारी उसकी सखियाँ। चित्र कला के माध्यम से ही वह अपने मन के भावों को अंकित कर दिया करती और फिर जब उसके अध्यापक और सहपाठियों से उसकी कला की प्रशंसा मिलती तो खुश हो जाती। वह समाज की अधिकतर रीतियों-कुरीतियों से अंजान ही थी और जाति-पाति से उसे कोई मतलब ही नहीं था। बस जिसका स्वभाव अच्छा हो, वह झूठ न बोलता/बोलती हो, तो उसे अरुंधती पसंद करती थी। खुद वह पिछड़े वर्ग से आती थी लेकिन दोस्ती अधिकतर ठाकुरों और ब्राह्मणों की लड़कियों से ही होती थी क्योंकि उसे उनके रहन-सहन और व्यवहार ही पसंद आते थे।  स्त्रियों का स्वभाव अधिक लचीला व सरल होता है इसलिए वह अवसर देखकर बात कहती हैं तथा किसी का दिल न दुखे ऐसा व्यवहार करती हैं। वह आदर्शवादिता से अधिक व्यावहारिकता पर ध्यान देती हैं किंतु अरुंधती  पर पापा के विचारों और स्वभाव का प्रभाव अधिक था। वह झूठ तब तक नहीं बोलती थी जब तक उसके सत्य से किसी का नुक़सान न हो। वह जो बात एक बार कह देती उसके लिए वह पत्थर की लकीर हो जाती। किन्तु किसी की बुराई न करना लेकिन अपनी बर्दाश्त भी न करना उसकी आदत थी। कुल मिलाकर उसके व्यवहार में आदर्शवादिता की छाप अधिक थी।
वह भाग्य को नहीं मानती थी, कहती थी "अगर निवाले को उठाकर मुँह में डालने के लिए अपने हाथ नहीं हिलाओगे तो वह भाग्य के सहारे चलकर तुम्हारे मुँह में नहीं आएगा। भोजन का वह निवाला अपनी तकदीर में लाने के लिए हाथों को हिलाने की तदवीर करनी पड़ती है, तदवीर से ही तकदीर बनती है।"
पर उसे कहाँ पता था कि जिस तकदीर को वह तदवीर से सँवारना चाहती थी, अपने जिस भाग्य को वह अपने कर्मों की स्याही से लिखना चाहती थी, उसे तो भगवान ने पहले ही लिख दिया था जो कि उसकी तदवीरों से बदलने वाला नहीं था। जिन कुरीतियों को वह नहीं मानती थी, उन्हीं में फँसना उसका भाग्य था।
वह गलत बातों को चुपचाप नहीं सहती थी उसकी यही आदत कभी-कभी उसके लिए मुसीबत बन जाती थी। अपने पड़ोस में ही रहने वाली कमली दीदी ने एक बार उससे अपने ब्वॉयफ्रेंड के साथ भाग जाने की मंशा जाहिर की, तो उसने घर आकर उसकी माँ से यह सोचकर शिकायत कर दी कि कहीं सचमुच उसने ऐसा कर लिया तो इल्जाम उस पर भी लगेगा कि उसने जानते हुए भी क्यों नहीं बताया, पर परिणाम क्या हुआ? उल्टा उस पर उनकी बेटी को बदनाम करने का आरोप लगा दिया और पापा ने अरुंधती की पिटाई कर दी। हालांकि उसके मम्मी-पापा जानते थे कि उनकी बेटी झूठ नहीं बोल रही है परंतु वह अपनी बेटी को सजा देकर कमली की माँ का मुँह बंद करना चाहते थे। बाद में मम्मी ने समझाया कि कोई भी बात पहले अपने मम्मी-पापा को बताना चाहिए न कि किसी और को। खैर वह बात तो आई-गई हो गई।

अक्सर हमारे समाज में लोग किसी को असहाय कमजोर देखते हैं तो उसके प्रति सहानुभूति दर्शाते हैं, उसकी मदद भी करते हैं किंतु उसी के बिल्कुल विपरीत जो उनके विचार से कमजोर होना चाहिए परंतु वास्तव में नहीं होता उसके प्रति उनके मन में घृणा या उसे नीचा दिखाने की भावना पैदा हो जाती है। कुछ ऐसी ही स्थिति थी अरुंधती की। उसके गाँव के वो लोग जो उसके पड़ोसी थे उन्हें उसके सक्षम होने से समस्या थी इसलिए वह उसे नीचा दिखाने का कोई अवसर नहीं छोड़ते। माँ के बिना सब संभाल कैसे लेती है, माँ के न होने पर भी पढ़ाई में उनके बच्चों से आगे कैसे रहती है, उनके बच्चों से डरती क्यों नहीं वगैरह... वगैरह। यही वजह थी कि सब ताक में रहते कि कब उसमें कोई कमी दिखाई दे और वह उसका तिल का ताड़ बनाएँ। उन्हें अवसर मिल भी गया। जब वह दसवीं कक्षा में पढ़ती थी तभी उसकी एकमात्र सबसे अच्छी सहेली इमली अपने प्रेमी से अन्तर्जातीय विवाह करना चाहती थी, उसने अपने घर में बताया तो घर में कोहराम मच गया। उसके माँ-बाप का रो-रोकर बुरा हाल था। संयोग की बात है कि अरुंधती के पापा वहाँ से गुजर रहे थे तो उनके घर चले गए और जब उन्हें सब पता चला और साथ ही उस लड़की के पिता ने यह इल्जाम भी अरुंधती पर मढ़ दिया कि "तुम्हारी बेटी सब जानती थी पर उसने कभी नहीं बताया, आज अगर हमारी बेटी कुछ उल्टा-सीधा कर लेती तब भी तुम्हारी बेटी नहीं बताती।"

फिर क्या था, एक बेटी के बाप का रोना अरुंधती के पिता से देखा नहीं गया और घर आकर उन्होंने अपनी ही बेटी की पिटाई कर दी। वह बेचारी बिलख-बिलखकर रोते हुए यही सोचती रही कि 'जब एक बार बताया था... तब भी पिटी थी और अब, जब नहीं बताया तब भी मैं ही पिटी। जिसने सब किया उसके माँ-बाप ने तो अपनी बेटी के सारे इल्जाम झाड़-फूँक करवाकर ऊपरी चक्कर के बहाने धो दिए... लेकिन दोषी साबित हुई मैं..... क्या यह सब तब भी होता जब मेरी भी मम्मी साथ में होतीं? शायद नहीं….. पर इसमें मेरा क्या दोष था.... मैंने तो कुछ किया ही नहीं.... मुझे सिर्फ पता ही तो था..... तो पता तो और सहेलियों को भी था.... फिर उन पर कोई उँगली क्यों नहीं उठी?' इन्हीं सवालों से लड़ती-जूझती, रोती सिसकती अरुंधती को उस समय अपनी माँ की दूरी बहुत खल रही थी। 'काश... मम्मी होतीं तो किसी की हिम्मत नहीं होती उस पर दोष लगाने की... पापा क्यों नहीं समझते कि मैं ऐसा कुछ नहीं कर सकती जिससे उनका सिर झुके.... क्यों हमेशा वो दूसरों के किए की सजा मुझे ही देते हैं...सब जानते थे... पर उनके मम्मी-पापा ने उन्हें कुछ नहीं कहा और मेरे पापा!!!'

ऐसी ही न जाने कितनी बातें उसके दिल में टीस उठाती रहीं और वह सिसकते-सिसकते सो गई।

सत्येंद्र प्रसाद भी जानते थे कि उनकी बेटी ने इतनी बड़ी गलती नहीं की है, जितनी उन्होंने सजा दे दी। पर वो भी क्या करते! वह ठहरे उसूलों वाले व्यक्ति, एक बेटी के पिता हैं इसलिए बेटी के पिता का दर्द महसूस कर सकते हैं, यही कारण था कि इमली के पिता का रोना उनसे बर्दाश्त नहीं हुआ और साथ ही कोई उनकी बेटी की बुराई करे, उसे गलत कहे यह भी वो सहन नहीं कर पाते। परंतु अपनी यह कमजोरी वह किसे बताते! इसलिए उनका दुख गुस्सा बनकर टूट पड़ा और उन्होंने अपनी ही बेटी को सजा दे दी। अब वह पछता रहे थे, नींद आँखों से कोसों दूर थी। करवटें बदलते रात्रि का दूसरा प्रहर भी बीत गया तब उनसे रहा न गया, वह उठे और रो-रोकर सो चुकी अरुंधती के सिरहाने बैठकर उसके मासूम चेहरे की ओर देखा तो उनका दिल भर आया। गालों पर सूख चुके आँसुओं के निशान उसके मन की व्यथा बयाँ कर रहे थे। वह प्यार से उसका सिर सहलाते हुए बुदबुदाए "मुझे माफ़ कर दे मेरी बच्ची।" 

बहुत देर तक उसे यूँ ही निहारते रहने के बाद वह वापस अपने बिस्तर पर जाकर सोने की कोशिश करने लगे।

इस तूफान का असर अरुंधती पर कई महीनों तक रहा, वह स्कूल जाती पर अपनी सहेली से दूरी बनाकर रखती अब पहले की तरह उसके पास नहीं बैठती। लेकिन उसे महसूस हुआ कि उसकी वह सहेली इमली भी उससे दूर रहने की कोशिश करती है तो उसे बहुत दुख हुआ। उसे ऐसा लगा जैसे वह गलती करके अपनी गलती का ठीकरा उस पर फोड़ रही हो और दूसरों की नजरों में उसे गलत सिद्ध करने के लिए खुद उससे दूर रहने का दिखावा कर रही है। 'आखिर मेरी क्या गलती है...मैंने क्या किया...ये तो ऐसे जता रही है जैसे इसने जो कुछ भी किया उसकी दोषी मैं ही हूँ।' अरुंधती के मस्तिष्क में बार-बार यही ख्याल आता। अब उसने और अधिक दूरी बना ली थी पर उसे कहाँ पता था कि सही मायने में इस अनकिए अपराध की सजा तो उसे अब मिलने वाली है जो उसके जीवन की दिशा और दशा दोनों ही बदल देगी। 

मई माह में पड़ने वाले अवकाश में पूरा परिवार गाँव आया तब गाँव में परिवार के सदस्यों तथा अन्य मिलने-जुलने वालों की आँखों में संदेह की लकीरें उसने पढ़ ली थीं। गाँव की ही एक महिला जो कि अरुंधती की मम्मी इरावती की सहेली भी थीं उन्होंने बताया कि अरुंधती के बारे में गाँव में लोगों में अफवाह फैला था कि वह भाग गई और इसकी पुष्टि उसकी सहेली इमली ने भी की थी। सभी के संदेह का कारण सत्येंद्र प्रसाद को पता चल गया तो सारी बातें भी साफ हो गईं। लेकिन यह गाँव है यहाँ बात फैलते देर नहीं लगती और यही कारण था कि ये अफवाह अरुंधती की ससुराल तक भी पहुँच गई थी। कानों में खबर पड़ते ही मास्टर जी (उसके ससुर) अरुंधती के घर आ पहुँचे। गाँव वालों ने और सत्येंद्र जी ने उनको सत्य बताकर संतुष्ट तो कर दिया लेकिन अब वह ऐसा कोई मौका नहीं देना चाहते थे जिससे उनकी बदनामी हो, या फिर ये भी कहा जा सकता था कि वह हाथ आए अवसर को छोड़ना नहीं चाहते थे।

यूँ तो जब से अरुंधती ने होश संभाला था तब से ही तकदीर से वह टकराती ही आई थी परंतु अब सही मायने में भाग्य से उसकी आँख-मिचौली शुरू हो चुकी थी। जिस बाल-विवाह का असर उस पर उस समय नहीं हुआ था जब यह विवाह संपन्न हुआ था, उसकी आँच अब उस पर पड़ने लगी और दूर से ही उसके कोमल किशोर सपनों को झुलसाने लगी। अब तो वह सोलह वर्ष की ही सही पर समझदार बालिका थी, पहले की तरह नासमझ बच्ची नहीं थी कि इसे गुड़िया-गुड्डा का खेल समझकर खुशी-खुशी खेलने के लिए उद्यत हो जाती। अब वह अपनी शिक्षा के पूर्ण होने को लेकर चिंतित थी, इसलिए उसने अपनी माँ को समझाने का प्रयास किया परंतु असफल रही। 

अरुंधती के गौना की तैयारी होने लगी, उसने भी अपने-आप को तकदीर के हाथों में छोड़ दिया। 

घर में रिश्तेदारों की चहल-पहल से माहौल खुशनुमा बना हुआ था। कल बारात आने वाली है और आज सुबह से एक-एक करके रिश्तेदारों का आना लगा हुआ है। उसका गौना है, कल वह विदा हो जाएगी और आज रिश्तेदारों की खातिरदारी में भी वही लगी हुई है। उसे ऐसे काम में लगी देखकर माँ का दिल भी दुखता है पर वह भी असहाय हैं, क्या करतीं शादी-ब्याह के घर में काम की कोई सीमा नहीं होती, जब तक एक काम करो तब तक दस और तैयार हो जाते हैं, यही वजह थी कि वह अरुंधती को मना नहीं कर पा रही थीं। वो आज ही थोड़ी न काम कर रही है, अपने गौने के अवसर पर अधिकतर तैयारियाँ उसने ही तो की थीं, माँ अकेली क्या-क्या करतीं! इकलौती बुआ हैं वो तो मायके में सिर्फ मेहमान नवाजी करवाने आती हैं चाहे अवसर कोई भी हो, इसलिए किसी को उनसे कोई आशा भी नहीं थी। इकलौती मौसी हैं वो भी अपना घर छोड़कर पहले कैसे आतीं तो अब आई हैं एक दिन पहले। उन्होंने अरुंधती की माँ के काम में तो हाथ बँटा लिया पर अरुंधती की स्थिति तो ज्यों की त्यों रही। 

शाम होते-होते रिश्तेदारों की संख्या बहुत बढ़ गई पर आने वाले रिश्तेदारों में महिलाओं की संख्या बेहद कम थी। घर के छोटे-छोटे कामों से लेकर खाना बनाने तक में महिलाएँ ही अग्रणी होती हैं और यहाँ वही नहीं थीं। 

अत: रात के भोजन की तैयारी में अरुंधती ने ही पहल की और फिर धीरे-धीरे उसकी चाचियों, बुआ और मौसी को शायद अपनी भी कुछ जिम्मेदारी का अहसास हुआ और सबने मिलकर खाना बनाना शुरू किया। भाई-पट्टीदारों और रिश्तेदार सभी को मिलाकर कम से कम सत्तर-अस्सी लोगों का खाना तो बनना ही था, इसलिए बड़ी-बड़ी हाँडियाँ और कड़ाह चढ़े थे। चूल्हे पर रखे इन बड़े-बड़े बर्तनों को देखकर अरुंधती के पापा अपने छोटे भाई से बोले- 

"मैं कह रहा था कि खाना बनाने के लिए एक दिन पहले से ही हलवाई लगा लेते हैं पर तुम लोग नहीं माने, अब देखो इतना खाना ये औरतें बना पाएँगीं? कुछ गड़बड़ हुई तो शर्मिन्दा होना पड़ेगा।" 

"आप तो खामख्वाह परेशान हो रहे हो, सभी के घर में शादी-ब्याह होता है और घर की औरतें ही बनाती खिलाती हैं, सिर्फ बारात वाले दिन हलवाई लगवाते हैं। आप ने तो सुबह से लगवाया है जबकि औरों के वहाँ तो खाली बारात के लिए लगवाते हैं और तब भी किसी को शर्मिंदगी नहीं उठानी पड़ती।" अरुंधती के चाचा जी बोले। 

"ठीक है बस देख लो कोई गड़बड़ नहीं होनी चाहिए।" पापा जी बोले।

खाना बना सभी नाते-रिश्तेदारों ने और पट्टीदारों ने खाया-पिया और अपने-अपने बिस्तर पर बैठकर देर रात तक गप-शप करते रहे।

महिलाओं के मध्य भी देर रात तक बातें होती रहीं लेकिन कल क्या कैसे होगा, इस विषय पर अधिक चर्चा हुई साथ ही अरुंधती की मम्मी बात करते-करते रोने लगतीं, उनकी इकलौती लाडली बिटिया कल अपनी ससुराल जो चली जाएगी। चाची, मौसी सब उन्हें समझातीं और फिर खुद ही दुबारा उसकी विदाई की बातें शुरू करके फिर रुला देतीं। उस बेटी की माँ को तो बस याद दिलाने भर की देर है कि उनकी आँखें फिर गंगा-यमुना बन जातीं। रात्रि के तीसरे पहर के बीतते-बीतते औरतों को नींद आई। 

अगले दिन सुबह से ही कोई न कोई महिला अरुंधती  के आस-पास ही रहती कभी किसी काम से तो कभी किसी काम से जैसे आज सभी अपना सारा प्यार उस पर उड़ेल देना चाहती थीं, उसने कुछ खाया या नहीं, उसको किसी चीज की जरूरत तो नहीं? सभी को आज उसकी बहुत परवाह थी और कुछ न हुआ तो कोई सामान पूछने ही आ जाती कि फलां सामान कहाँ रखा है? आखिर सभी सामान भी तो उसी ने रखे थे। मम्मी जब भी उसके आसपास से होकर गुजरतीं तो कातर नजरों से उसे देखती हुई जातीं। वह उनकी आँखों में छिपे दर्द को महसूस कर रही थी, उसे भी उनसे दूर होने का दुख हो रहा था लेकिन दूसरे ही पल अपनी शिक्षा अधूरी छूटने का भी दर्द टीस बनकर सीने में उभर आता और उस दूर होने के दर्द के अहसास को कम कर देता। 

नाई ठाकुर की पत्नी आ गई थी उसे उबटन लगाने। उसने उनसे कह दिया कि बस शगुन के लिए हाथ-पैरों का जितना भाग खुला हुआ है बस उतने में ही लगाए, वह पूरे शरीर पर नहीं लगवाएगी। उसने भी बात मानकर सिर्फ हाथ-पैर में ही लगाया, वैसे तो रीति के नाम पर वह सभी के पूरे शरीर पर उबटन लगाती है पर अरुंधती की मम्मी ने पहले ही समझा दिया था कि वह अरुंधती की इच्छा के विपरीत कुछ न करे। गाँव में गौना के दिन विदाई से पहले दुल्हन को उबटन तो लगाया जाता है पर स्नान निषेध है, लेकिन चाहे सिर्फ हाथ-पैर में ही क्यों न हो पर उबटन तो लगा ही था इसलिए अरुंधती ने नाइन से कह दिया कि उसे तो नहाना ही है। अब नाइन ठकुराइन मना कैसे करती अत: अरुंधती को नहाने की भी अनुमति मिल गई। शाम होते-होते विदाई की घड़ी आ गई। बुआ और गाँव की कुछ लड़कियों ने मिलकर उसे तैयार किया। वह निश्चेष्ट बिना रुचि दर्शाए तैयार हुई। उसे बहुत अजीब लग रहा था, आज वह इस घर से ही नहीं अपने माँ-पापा से भी दूर हो जाएगी साथ ही अपने सपनों से भी, जो उसने उच्च शिक्षा का स्वप्न देखा था वह भी उससे दसवीं के बाद ही सदा-सदा के लिए छूट रहा था। वह मम्मी-पापा से दूर होने के कारण अधिक दुखी थी या शिक्षा अधूरी छूटने के कारण अधिक दुखी थी, इसका ठीक-ठीक अनुमान तो वह खुद नहीं लगा पा रही थी। 

विदाई का समय आया उसने आधे बंद दरवाजे से बाहर बरामदे में देखा उसकी मम्मी उसके पति के समक्ष बिलखकर रो रही थीं, आज उनकी वो इकलौती बेटी पराई हो रही थी जिसको वो कभी अपने साथ रख ही नहीं पाईं। मम्मी को रोते देख उसके मन में तुरंत यही बात कौंध गई कि पहले भी तो एक-दो महीने के लिए ही साथ रहती थीं अब भी वैसे ही रह लेंगे और शायद इसी सोच ने उसकी आँखों के आँसू सुखा दिए। मम्मी को रोते देख वो रोना चाहती थी, मन दुखी भी था पर आँसू नदारद थे। 

जब विदाई के समय माँ ने उसे गले लगाया तब अचानक ही धैर्य का बाँध टूट गया और वह बाकी सारी बातें भूल बस माँ की बेटी बन ममता की लहर में बह चली। 

वो सखियाँ तो नहीं थीं उसकी जिनके सहारे वह लंबे से घूँघट में बिना धरती देखे अपने कदम आगे बढ़ाते हुए डोली की तरह सजी गाड़ी की ओर बढ़ती जा रही थी। यहाँ गाँव में जान-पहचान और बोलना-बतियाना तो सबसे है पर उसकी कोई सखी नहीं है तो उसे यह भी पता नहीं चल पा रहा था कि उसे किसने पकड़ रखा है। दो-चार लड़कियाँ जो उसके साथ पढ़ती थीं, जिन्हें वह सखी कह भी सकती थी, उनमें से तो शायद कोई भी नहीं है जिसने उसे सहारा दिया हो। खैर! वह कार में बैठा दी गई और चल पड़ी एक अनजाने सफर पर, एक ऐसे हमसफ़र के साथ जिसे न कभी देखा न जाना। पहले जब गाँव से शहर जाती थी तब मन में उल्लास होता था। दादी और माँ से दूर होने का दुख जरूर होता था पर उतना नहीं, जितना इस समय हो रहा था। ऐसा लग रहा था उसके अस्तित्व का एक भाग उससे सदा के लिए छूट रहा था। उसका मन किया कि जोर-जोर से रोये पर अनजान लोगों के बीच वह ऐसा नहीं कर सकती थी, भले ही उन अनजाने लोगों में एक स्वयं उसका पति ही था जो ठीक उसके बगल में बैठा हुआ था। आगे की सीट पर ड्राइवर के पास कोई व्यक्ति था जो शायद रिश्ते में उसके पति का बड़ा भाई था। उसने उनकी बातों से ही यह अनुमान लगाया। उसकी सिसकियाँ धीरे-धीरे थमती गईं, आँसू आँखों में ही जब्त होने लगे। अपनों को देखकर अपनों के लिए रोना आता है परंतु अनजानों के बीच रोकर अपनी कमजोरी क्यों दिखाना। आखिर थी तो वही अरुंधती न! जो भीतर से कितनी भी डरी हुई हो पर अपना डर किसी को दिखाकर उसे अपने ऊपर हावी नहीं होने देती थी तो आज क्यों अपनी कमजोरी दिखाती, इसलिए किसी को चुप कराने का मौका दिए बगैर खुद ही चुप हो गई। 

क्रमशः 

चित्र साभार- गूगल से

मालती मिश्रा 


मंगलवार

अरु..भाग-८- २


प्रिय पाठक अब तक आपने पढ़ा कि अरुंधती ट्रेन में अपनी बर्थ पर पैर फैलाकर बैठ गई और डायरी खोलकर पढ़ने लगी... डायरी के पहले पन्ने पर ही लिखा था..

अब गतांक से आगे....

"बची न वजह अब जीने की कोई

फिर भी घूँट-घूँट साँसों को

पिए जा रही हूँ..

जिए जा रही हूँ

जिए जा रही हूँ.."

यह कैसी जीवन यात्रा है! जो सर्वथा औचित्यहीन है, अस्तित्वहीन है, जो न चलती है न थमती है। ऐसा जीवन जो दुनिया के लिए नहीं है फिर भी इन हवाओं में उसके साँसों की सरगोशी है। बहुधा हम मानवीय जीवन यात्रा को प्रकृति की निरंतरता से जोड़ने का प्रयास करते हैं..कहते हैं कि सूरज उदय होता हैै तो अस्त भी होता है, दिन के उजाले के बाद रात का अंधकार और गहन अंधकार के बाद सुबह का सूर्योदय अवश्य होता है, उसी प्रकार जीवन में सुख और दुख की निरंतरता बनी रहती है परंतु आज स्वयं को देख रही हूँ तो सोचती हूँ क्या ये निरंतरता अब मेरे जीवन में संभव है? क्या अब तक ये निरंतरता सचमुच थी? अगर थी.. तो मुझे अंधकार के पीछे की प्रकाशित किरणें क्यों नहीं दिखाई दीं? आज मेरी शारीरिक और मानसिक स्थिति जिस मोड़ पर है, उसी मोड़ पर उसकी भी थी.. नहीं..नहीं..ईश्वर न करे वैसी स्थिति किसी के जीवनकाल में आए...

इंसान शारीरिक व्याधि से लड़ सकता है, मानसिक और सामाजिक संघर्षों पर विजित हो सकता है परंतु वह रिश्तों और विश्वास की व्याधियों से नहीं लड़ सकता, यही तो जाना है मैंने। उसने सोचा ही नहीं होगा कि एक बड़ी जंग जीतते ही वह इस प्रकार हार जाएगी। उसने बड़ी बीमारी को हरा दिया था पर अपने दिल से, अपने रिश्तों से, अपनी ममता से और स्वयं से हार गई।

उसकी दास्तां है ही ऐसी कि जो सुन ले भीतर तक हिल जाए, भगवान दुश्मन को भी ऐसे दिन न दिखाए। मेरा तो उससे कोई व्यक्तिगत या सामाजिक रिश्ता न होते हुए भी एक ऐसा रिश्ता जुड़ गया जो इन सबसे अधिक गहरा और अपनेपन का हो गया, वो है सम-व्याधिक रिश्ता, एक ऐसा रिश्ता जिसमें हम बिना बताए एक दूसरे की शारीरिक और मानसिक पीड़ा को समझ सकते हैं, महसूस कर सकते हैं। इसके साथ रिश्ते की गहराई का एक और कारण है कि हम दोनों ने अपने सबसे करीबी रिश्ते से विश्वासघात का आघात झेला है..पर सोचती हूँ तो महसूस कर पाती हूँ कि नहीं उसका दर्द मुझसे कहीं अधिक, सहनशक्ति के परे था और मुझसे दुगना...हाँ मुझसे दुगना था या शायद कई गुना अधिक..जिसका अनुमान लगा पाना असंभव है, इसीलिए तो वह आज भी भटक रही है, आज भी तड़प रही है। इस संसार को छोड़कर भी छोड़ नहीं पाई, उसकी आत्मा घायल हुई है, वह विश्वासघात के उस जख्म से उठने वाली टीस को हर पल महसूस करती है। काश! मैं उसके लिए कुछ कर पाती, काश!!"

"मम्मा काश कि मैं आपका दर्द दूर कर पाती, काश! मैं आपको आपकी खुशियाँ लौटा पाती..." डायरी पढ़ते हुए अलंकृता बुदबुदाई और आँखों से निकलकर गालों पर ढुलक आए आँसुओं को हथेली से पोंछकर आगे पढ़ने लगी।

"इतना तो समझ गई हूँ कि वह विश्वासघात के दर्द से जितना तड़प रही है, उस दर्द को किसी से न बाँट पाने के दर्द से भी उतना ही तड़प रही है। शायद यही कारण है कि वह आज भी रो-रोकर अपने दर्द को आँसुओं में बहाने की कोशिश करती रहती है। 

शायद मैं पहली इंसान हूँ जिसे उसने अपना हमराज बनाया लेकिन उसके जख्मों की टीस मुझसे सहन नहीं हो रही, उसकी हर बात से मुझे अनिरुद्ध की बेवफ़ाई, उनका विश्वासघात याद आ रहा है और ऐसा महसूस हो रहा है जैसे सब कुछ मेरे साथ ही घटित हो रहा हो... आखिर कोई कितना बर्दाश्त कर सकता है... कैसे???" 

उसकी कहानी जानकर यह विश्वास करना मुश्किल हो रहा है कि वह वही अरुंधती है जो उसके स्वयं के बताने के अनुसार बहुत ही निडर, साहसी, खुले विचारों की, अत्यंत मेधावी, आत्मविश्वास से भरी हुई और कभी ग़लत बात को बर्दाश्त न करने वाली हुआ करती थी। लेकिन अविश्वास का कोई कारण भी नहीं है..."

वह एक मध्यमवर्गीय परिवार में दो सगे और पाँच चचेरे भाइयों की इकलौती बहन थी। पिता सत्येंद्र प्रसाद सरकारी कर्मचारी थे इसलिए बचपन से ही उसने कभी अभाव नहीं देखा था।  वह मात्र तीन या चार वर्ष की अबोध बालिका थी जब सत्येंद्र प्रसाद ने उसे स्कूल भेजना शुरू किया था। वह नहीं चाहते थे कि उनके बच्चे उनकी तरह अनपढ़ रहें। पहले तो गाँव के ही कुछ सहकर्मी मित्रों ने उन्हें समझाने की कोशिश की कि लड़की जात को पढ़ाने का कोई लाभ नहीं आखिर उसे चूल्हा-चौका ही तो करना है। परंतु उन्होंने किसी की एक न सुनी और अरुंधती की पढ़ाई जारी रखा। बाद में उन्हीं सहकर्मियों ने भी उनका अनुसरण किया और अपनी बेटियों को स्कूल भेजने लगे। उनमें एक हरिजन सहकर्मी भी थे, उनकी इकलौती बेटी इमली अरुंधती की बहुत अच्छी सहेली बन गई।

दोनों साथ ही स्कूल आते-जाते, एक साथ बैठते और साथ में ही लंच करते। अरुंधती उसे अपनी सबसे अच्छी सहेली मानती थी जबकि अरुंधती से तो कक्षा की सभी लड़कियाँ दोस्ती करना चाहती थीं। वो थी ही ऐसी...अत्यंत मेधावी थी सभी विषयों में कक्षा के अन्य बच्चों से आगे रहती बिल्कुल बिंदास, चुलबुली और निडर। पढ़ाई में तो आगे थी ही स्कूल में होने वाले सभी कार्यक्रम चाहे वह एन. सी. सी. से संबंधित हो चाहे सांस्कृतिक हो, वह बढ़-चढ़कर भाग लेती, इसीलिए सभी अध्यापकों की चहीती भी थी। एक और बहुत बड़ी खूबी थी उसमें कि वह किसी की बुराई पीठ पीछे न करके उसके सामने ही करती थी। कभी-कभी उसकी सहेलियाँ उसे समझातीं कि ऐसा मत किया करो नहीं तो सब तुमसे चिढ़ने लगेंगे। तब उसका जवाब होता "जो मेरी सच में दोस्त होंगी वो नहीं चिढ़ेंगी, मैं किसी की बुराई पीठ पीछे करके उसकी छवि नहीं खराब करती, सामने से कहती हूँ किसी को अच्छा लगे या बुरा।" बच्चे तो बच्चे वह तो बड़ों को भी नहीं छोड़ती थी। उसके अंग्रेजी के अध्यापक कुछ बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते थे। उनकी एक बुरी आदत थी कि जिन्हें वह ट्यूशन पढ़ाते थे उन बच्चों को अपने विषय के परीक्षा के प्रश्न-पत्र में आने वाले सभी प्रश्न पहले ही बताकर उनके अभ्यास करवा दिया करते थे। यह बात अन्य बच्चों को पता चल जाती थी तो स्वाभाविक है कि उन्हें बुरा लगता था पर सब मन मसोस कर रह जाने के अलावा कुछ कर नहीं पाते थे। एक बार परीक्षा चल रही थी, उस दिन भूगोल विषय की परीक्षा थी। अरुंधती जिस परीक्षा कक्ष में बैठी थी, उसमें उन्हीं मास्टर जी की ड्यूटी थी। परीक्षा के दौरान मास्टर जी के ट्यूशन के किसी बच्चे ने उनसे किसी प्रश्न का उत्तर पूछा तो उन्होंने बताया। अरुंधती की आदत थी कि परीक्षा के समय वह किसी से बात नहीं करती थी, उसे जितना आता था उतना ही करती पर न किसी से पूछती और न ही बताती। पर जब उसने मास्टर जी को बताते हुए देखा तो उससे रहा नहीं गया, उसे न जाने क्या सूझा कि उसने भी मास्टर जी से एक प्रश्न पूछा। मास्टर जी ने कहा कि "यह मेरा विषय नहीं है इसलिए मुझे नहीं पता।" 

"लेकिन सर अगर आप को नहीं आता तो दूसरे बच्चों को कैसे बता रहे हैं?" उसने कहा।

"तुम चुप रहो और पूछने की बजाय चुपचाप परीक्षा दो, पढ़कर नहीं आईं क्या?" मास्टर जी ने कह तो दिया पर उन्हें कहाँ पता था कि किससे उलझ गए। 

"सर ये तो गलत है न कि आप एक बच्चे को बता कर चीटिंग करवा रहे हैं और मुझे डाँट रहे हैं। या तो सबको बताइए या किसी को भी मत बताइए।" उसने कहा।

"तुम बहुत बहस कर रही हो, मैं उत्तर पुस्तिका छीन कर घर भेज दूँगा तब समझ में आएगा कि टीचर से बहस का नतीजा क्या होता है।" 

मास्टर जी ने क्रोध में आकर कहा।

"सर छीन लीजिए, अब मैं भी नकल करूँगी वो भी कॉपी से और आप छीनिए ताकि मैं प्रिंसिपल सर से शिकायत कर सकूँ कि आप कैसे अपने ट्यूशन के बच्चों को बताते हैं और प्रश्न-पत्र भी लीक करते हैं।" आवेश में आकर बोलती हुई वह उठी और कक्षा से बाहर रखे अपने बस्ते से भूगोल की कॉपी निकाल कर अपनी सीट पर बैठकर उसे डेस्क के ऊपर रखकर खोल लिया और लिखने लगी। मास्टर जी ने तो सोचा भी नहीं होगा कि उनको छठीं कक्षा की एक छोटी सी बच्ची से ऐसा जवाब मिल सकता है। वह झल्लाकर बाहर चले गए और किसी और अध्यापक को भेज दिया। उनके जाते ही अरुंधती ने कॉपी बंद करके खिड़की से बाहर की तरफ रखे बैग पर रख दिया और चुपचाप लिखने लगी। यह बात सबको पता थी कि उसे नकल की जरूरत नहीं थी पर जब मेहनत करने वाले से ज्यादा अच्छे नंबर उन लोगों के आएँ जो उसके हकदार नहीं होते तब मन आहत होता है और ऐसा बार-बार होता आ रहा था इसीलिए उसके सब्र का बाँध टूट गया और वह न चाहते हुए भी धृष्टता कर बैठी। परंतु मास्टर जी को एक बात बखूबी समझ आ गई थी कि वो ग़लत बात बर्दाश्त नहीं कर सकती चाहे मास्टर जी उसके लिए उसे सजा ही क्यों न दे दें। 

सत्रह वर्ष पूर्व अपनी मम्मी के द्वारा अचेतन अवस्था में लिखे गए पन्नों में से यह पहला पन्ना था जिसे अलंकृता बार-बार पढ़ती है।

आगे के पन्नों में क्या लिखा है जानने के लिए हमारे साथ बने रहिए। अगला भाग अगले सप्ताह...

क्रमशः 

चित्र साभार- गूगल से

मालती मिश्रा 'मयंती'



गुरुवार

हिन्दी दिवस पर हिन्दी


 हिन्दी दिवस पर हिन्दी

हिन्दी दिवस का आज हम सब
खूब प्रदर्शन करते हैं,
बीत जाएगी जब ये घड़ी
दम इंग्लिश का भरते हैं।

हिन्दी हम सबकी माता है
शान से ये बताते हैं,
दूजे दिन से इस माता को
माँ कहते शर्माते हैं।

हिन्दुस्तां की शान है हिन्दी
कह कर खुशी मनाते हैं,
नाना विधि से मान दिखाते
हिन्दी मय हो जाते हैं।

बीत गया ये हिन्दी दिवस फिर
अगले साल हि आएगा,
तब तक हर इक भारतवासी
जेंटलमेन बन जाएगा।।

सभी को हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ 💐
मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

बुधवार

अरु..भाग-८ (१)

 


गतांक से आगे..

सिद्धार्थ और अलंकृता एक ही कॉलेज में थे, सिद्धार्थ उससे एक साल सीनियर था। अलंकृता की कविताएँ कहानियाँ मैगज़ीन और कभी-कभी अखबारों में छपती रहती थीं। जिससे सिद्धार्थ उसकी ओर आकृष्ट हुआ, धीरे-धीरे दोनों में दोस्ती हो गई। दोनों ही एक-दूसरे को पसंद करते हैं। कभी सिद्धार्थ

उससे विवाह करना चाहता था लेकिन अब इस विषय में उससे बात नहीं करता। उसे आज भी याद है जब लगभग दस साल पहले उसने अलंकृता के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा था तब अलंकृता बेहद गंभीर हो गई थी और उसने कहा था- 

"सिद ये सच है कि मैं भी तुमसे उतना ही प्यार करती हूँ जितना कि तुम मुझसे लेकिन प्यार को लेकर हमारा नजरिया भिन्न है। तुम मुझसे प्यार करते हो इसलिए मुझसे शादी करके मुझे पाना चाहते हो, पूरा जीवन मेरे साथ बिताना चाहते हो पर मैं तुमसे प्यार करती हूँ और हमारा प्यार पूरी जिंदगी इतना ही निश्छल, निष्पाप और नि:स्वार्थ बना रहे, इसके लिए मैं तुमसे शादी नहीं करना चाहती। मुझे पता है कि तुम्हें मेरी बात अजीब लगेगी पर यही सही है, मेरा मानना ही नहीं मेरा अनुभव भी यही कहता है कि शादी के बाद प्यार का स्वरूप बदल जाता है और मैं हमारे प्यार के स्वरूप को जरा-सा भी नहीं बदलना चाहती, शादी के बाद आपस के नोंक-झोंक कब तू-तू-मैं-मैं में बदल जाते हैं पता ही नहीं चलता, हमेशा अपने हमसफ़र की खुशियों का ख्याल रखने का वचन देने वाला कब अपनी खुशियों के लिए अपने ही हमसफ़र को धोखा देने लगता है, इसका अहसास उसे खुद भी नहीं होता। कभी-कभी तो प्यार से बँधे इस रिश्ते में प्यार बचता ही नहीं और ताउम्र मरे हुए रिश्ते के शव को कंधे पर ढोते रहना होता है या अलग होकर समाज की हँसी या उपेक्षा का पात्र बन जाना होता है, इसलिए मैं हमारे प्यार के इस सुंदरता और नि:स्वार्थ भाव को सदैव जीवित रखने के लिए शादी नहीं करूँगी। उम्मीद करती हूँ कि तुम मुझसे फिर शादी के लिए नहीं कहोगे। और हाँ सिद मैं तुमसे शादी नहीं कर रही इसका ये तात्पर्य बिल्कुल नहीं कि तुम कभी किसी से भी शादी ना करो, बल्कि तुम किसी से भी शादी करने के लिए आजाद हो, मैं प्यार को बाँधकर रखने में विश्वास नहीं रखती।" 

उसी दिन से सिद्धार्थ ने उससे दुबारा शादी के लिए नहीं कहा। अलंकृता को जब भी उसके साथ की, उसकी सहायता की जरूरत होती वह हमेशा उसके साथ खड़ा रहता। दोनों अच्छे दोस्त की तरह एक-दूसरे का साथ निभाते हैं पर इस दोस्ती को रिश्ते में बदलने का ख्वाब नहीं देखते। 

अलंकृता अस्सी-नब्बे की स्पीड से गाड़ी चला रही थी लेकिन उसके भीतर जल्दी पहुँचने का मानो तूफान मचा था। उसका मन कर रहा था कि अभी गाड़ी से निकले और भाग कर अपने गंतव्य को पहुँच जाए पर वह धैर्य का दामन पकड़े गाड़ी ड्राइव करती रही। सोसाइटी के गेट से प्रवेश करते ही उसने जल्दी से गाड़ी पार्क की  और लिफ्ट की ओर भागी। दसवीं मंजिल पर पहुँचकर उसने अपने अपार्टमेंट की चाबी से जो कि लिफ्ट में ही उसने अपने पर्स से निकाल लिया था, दरवाजा खोला और लिविंग रूम के सोफे पर ही अपना बैग फेंककर सीधे अपने बेडरूम में चली गई। अपनी अलमारी से कुछ कपड़े निकालकर एक सूटकेस में रखे और कुछ अन्य जरूरी सामान जैसे मेकअप किट आदि रखा और अलमारी का ड्रॉअर खोला, उसमें एक काले रंग की मोटी सी डायरीनुमा फाइल थी, उसका लेदर का कवर ऐसा था जैसे उसके अंदर मुलायम फॉम भरा हो। उसमें इतने पन्ने थे कि उन्हें पंच करके लगाने के बाद यह दो-ढाई इंच मोटी डायरी बन गई थी। अलंकृता ने उसे उठाया और बड़े गौर से देखने लगी। उसकी आँखों से दो बूँद आँसू उस डायरी पर गिरे और ढुलककर अस्तित्वहीन हो गए। वह डायरी को बड़े ही धीरे से स्नेहिल हाथों से सहलाने लगी और फिर सीने से लगाकर दोनों हाथों से ऐसे भींच लिया मानो अब उसे कभी अपने से अलग नहीं होने देगी।

तभी उसकी नज़र वॉल क्लॉक पर पड़ी और उसने डायरी को जल्दी से अपने बड़े से पर्स में डाला साथ ही अपनी आज ही विमोचित दो पुस्तकें भी सूटकेस में रखा और सूटकेस लेकर बाहर आई और बाहर खड़ी कैब में बैठकर बोली- "रेलवे स्टेशन चलो।" 

गाड़ी प्लेटफॉर्म पर लगी हुई थी अलंकृता कोच और बर्थ नंबर देखकर फर्स्ट ए.सी. कोच में चढ़ी और बर्थ नंबर देखकर अपना ट्रॉली बैग बर्थ के नीचे खिसका दिया और अपनी बर्थ पर बैठ गई। 

🌺*******************************🌺

एक तेज हॉर्न के साथ गाड़ी सरकने लगी और देखते ही देखते तेज गति से दौड़ने लगी। अलंकृता बहुत बेचैन दिखाई दे रही थी, वह जल्द से जल्द अपने गंतव्य तक पहुँच जाना चाहती थी। 'काश बाई एयर जा पाती लेकिन सुबह आठ बजे की फ्लाइट की टिकट मिल रही थी और मैं..मैं इतनी प्रतीक्षा नहीं कर सकती थी, कई सालों से प्रतीक्षा ही तो कर रही हूँ..अब और नहीं कर सकती।' वह मन ही मन सोचते हुए बर्थ पर लेट गई लेकिन अगले ही पल फिर उठ बैठी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि कैसे ये समय काटे। अचानक जैसे कुछ याद आया और उसने सूटकेस खोलकर वो डायरीनुमा फाइल निकाल ली। वह बर्थ पर पैर फैलाकर आराम से बैठ गई और डायरी खोलकर पढ़ने लगी...

पहले ही पन्ने पर लिखा था...

क्रमशः

चित्र- साभार गूगल से

मालती मिश्रा 

शुक्रवार

अरु...भाग-७

 


गतांक से आगे..

"नहीं..मैं ऐसा नहीं कहती कि पुरुष का जीवन बेहद सरल होता है बल्कि मैं तो ये कहूँगी कि यदि पुरुष न हो तो किसी नारी की कहानी पूरी ही नहीं होगी। रही विचार योग्य होने की तो इसका जवाब तो आप ने यह प्रश्न पूछकर ही दे दिया।"
वह महिला पत्रकार के चेहरे पर आश्चर्य मिश्रित सवालिया भाव देखकर पुन: बोली, 
"जी हाँ देखिए न आप एक महिला होते हुए भी पुरुष के विषय में विचार कर रही हैं न! तो कैसे कह सकती हैं कि पुरुष का योगदान विचार योग्य नहीं होता? इस उपन्यास में महिला के जीवन के हर पहलू पर विचार करने के साथ ही प्रयास यही किया है कि पुरुष पात्र के भी सभी पहलुओं को दिखाएँ लेकिन उन पात्रों के साथ न्याय या अन्याय का निर्णय तो आप और पाठक स्वयं ही कीजिए।" अलंकृता ने मुस्कुराते हुए कहा।

सबको चुप होते देख कॉफी का घूँट भरकर कप मेज पर रखते हुए 'नई दुनिया नया समाज' के वरिष्ठ पत्रकार दुष्यंत मीणा ने अपना सवाल दागा..
"लेखिका महोदया! बहुधा लेखक समाज की हर छोटी-बड़ी घटना पर नजर रखते हैं और अपने लेखन के द्वारा उन्हें प्रकाश में लाते हैं, फिर आप क्यों हाथ धोकर सिर्फ 'नारी मुक्ति' के पीछे पड़ी हैं? आपको नहीं लगता कि ये विषय अब बहुत पुराना हो चुका है इस पर काफी विचार-विमर्श हो चुका है तो अब आपको अपना विषय बदल देना चाहिए?"

अलंकृता की नजरें कुछ पल तक दुष्यंत मीणा पर गड़ी रहीं फिर उसने बोलना शुरू किया- "महोदय! समाज की हर छोटी-बड़ी घटना पर नजर रखना और उसे प्रकाश में लाना आप पत्रकारों का काम है और मैं पत्रकार नहीं हूँ।"

हॉल में कहीं-कहीं से हँसने की आवाजें आने लगीं, तभी उसने आगे बोलना शुरू किया।
"हाँ मानती हूँ कि एक लेखिका होने के नाते मुझे भी अपनी आँखें खुली रखनी चाहिए और समाज और देश की प्रथाओं-कुप्रथाओं, रीतियों-कुरीतियों को अनावृत करते रहना चाहिए, तो मैं वही तो कर रही हूँ। दैनिक और सामयिक घटनाओं को प्रकाश में लाने के लिए आप लोग हैं और जो अच्छाइयाँ-बुराइयाँ समाज की धमनियों में लहू बनकर बह रही हैं, उनके हर पहलू पर विचार-विमर्श करना उन पर सवाल उठाना हमारा काम है, तो मैं वही कर रही हूँ। अब रही नारी-विमर्श के विषय के पुराने होने की बात, तो आप बताइए न! क्या समस्या खत्म हो गई? और अगर नहीं, तो जब तक खत्म न हो जाए तब तक इस पर विचार-विमर्श तो होते ही रहना चाहिए.....
मैं मानती हूँ कि सदियाँ बीत गईं स्त्री को विमर्श का मुद्दा बने हुए, हम अलग-अलग समय में अलग-अलग तरीके से स्त्री की परिस्थितियों पर विचार-विमर्श करते हैं, लोगों का ध्यान उस ओर आकृष्ट करते हैं ताकि उनकी परिस्थितियों में सुधार आए। मैं ये नहीं कहती कि कोई सुधार नहीं हुआ है, पर कितना? क्या आज भी स्त्री हर क्षेत्र में बराबर का अधिकार रखती है? चलिए मान लिया रखती है पर क्या उसे समान परिस्थिति में समान निर्णय के लिए समान सम्मान मिलता है??? एक छोटा सा उदाहरण..... सोच कर देखिए, क्या दूसरा विवाह करने वाले पुरुष और स्त्री को समान सम्मान मिलता है?? क्यों पुरुष अपने से दस-बीस साल छोटी लड़की से विवाह कर सकता है, उसे समाज की पूरी स्वीकृति होती है परंतु एक स्त्री दस-बीस तो छोड़ो कुछ साल छोटे पुरुष से भी विवाह नहीं कर सकती और अगर कर ले तो समाज में वह सम्मान नहीं पाती। क्यों दूसरे विवाह के उपरांत  स्त्री तो पति के बच्चों को पूरी मर्यादा के साथ अपना लेती है परंतु पुरुष के लिए पत्नी के बच्चे सदैव पराए ही रहते हैं??? आप ही बताइए क्या हमारा समाज आज भी इन परिस्थितियों को सामान्य रूप से स्वीकृति दे पाया है???? नहीं न!! तो क्यों न हम इस मुद्दे को जीवित रखें??"

अलंकृता चुप हो गई लेकिन पूरे हॉल में इस प्रकार सन्नाटा छा गया जैसे लोग अभी उसी की बातों में इस तरह उलझे हुए हैं कि अभी तक बाहर नहीं निकल पाए हैं। तभी पीछे किसी ने ताली बजाई और एक ही पल में पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।

कुछ ही देर में प्रकाशक द्वारा जाने-माने वरिष्ठ साहित्यकारों को मंच पर बुलाकर पुस्तक का लोकार्पण करवाया गया। वहाँ उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति अरुंधती की चर्चा में मशगूल था, कोई कहानी की चर्चा कर रहा था तो कोई भाषा-शैली की, कोई कवर पेज की सुंदरता और सार्थकता की बात कर रहा था तो कोई शिल्प सौंदर्य और विषय-वस्तु की। अलंकृता एक ओर खड़ी मोबाइल पर किसी से बात कर रही थी। उसके चेहरे पर संजीदगी ने अपना आधिपत्य जमा लिया था। कुछ दूरी पर खड़ा सिद्धार्थ एकटक देखते हुए उसके चेहरे पर बनते-बिगड़ते भावों को पढ़ने की कोशिश कर रहा था।
फोन काटते ही उसने प्रकाशक महोदय से कुछ कहा और जल्दी-जल्दी हॉल से बाहर की ओर जाने लगी। उसे बाहर जाते देख सिद्धार्थ भी उसके पीछे-पीछे तेजी से बाहर आ गया। "अलंकृता!! कृति रुको!"

सिद्धार्थ की आवाज सुनते ही अलंकृता अपनी जगह पर ठिठक गई और पीछे मुड़कर देखा तो सिद्धार्थ तेजी से उसकी ओर ही आ रहा था।

"क्या हुआ पत्रकार महोदय मेरे पीछे क्यों? कोई और प्रश्न बाकी है क्या?" उसने मुस्कुराते हुए कहा।

"ह..हाँ मैडम..बाकी है, अब ये बताओ कि कार्यक्रम अधूरा छोड़कर इतनी जल्दी-जल्दी में कहाँ जा रही हो? तुम्हारी कृति का लोकार्पण समारोह है और तुम ही नहीं होगी! कुछ अजीब नहीं है।" सिद्धार्थ ने शिकायती लहजे में कहा हालांकि वह भी जानता था कि कुछ अति आवश्यक कार्य ही होगा जिसकी वजह से उसे जाना पड़ रहा है।

"कुछ बहुत अर्जेंट है सिद, जाना जरूरी है। लौटकर तुमसे मिलती हूँ।" कार का दरवाजा खोलते हुए उसने कहा।

"ओके ध्यान रखना अपना और मेरी किसी सहायता की जरूरत हो तो फोन कर देना, टेक केयर।" सिद्धार्थ ने कहा और तब तक वहीं खड़ा रहा जब तक कि अलंकृता की गाड़ी बड़े से गेट से बाहर नहीं चली गई।

क्रमशः

चित्र- साभार गूगल से

मालती मिश्रा 'मयंती'

रविवार

संस्कारों का कब्रिस्तान बॉलीवुड

 


संस्कारों का कब्रिस्तान बॉलीवुड

हमारा देश अपनी गौरवमयी संस्कृति के लिए ही विश्व भर में गौरवान्वित रहा है परंतु हम पाश्चात्य सभ्यता की चकाचौंध में अपनी संस्कृति भुला बैठे और सुसंस्कृत कहलाने की बजाय सभ्य कहलाना अधिक पसंद करने लगे। जिस देश में धन से पहले संस्कारों को सम्मान दिया जाता था, वहीं आजकल अधिकतर लोगों के लिए धन ही सर्वेसर्वा है। धन-संपत्ति से ही आजकल व्यक्ति की पहचान होती है न कि संस्कारों से। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा भी है...
*वित्तमेव कलौ नॄणां जन्माचारगुणोदयः ।
धर्मन्याय व्यवस्थायां कारणं बलमेव हि॥
*
अर्थात् "कलियुग में जिस व्यक्ति के पास जितना धन होगा, वो उतना ही गुणी माना जाएगा और कानून, न्याय केवल एक शक्ति के आधार पर ही लागू किया जाएगा।"

आजकल यही सब तो देखने को मिल रहा है, जो ज्ञानी हैं, संस्कारी हैं, गुणी हैं किन्तु धनवान नहीं हैं, उनके गुणों का समाज में कोई महत्व नहीं, लोगों की नजरों में उनका कोई अस्तित्व नहीं है न ही उनके कथनों का कोई मोल परंतु यदि कोई ऐसा व्यक्ति कुछ कहे जो समाज में धनाढ्यों की श्रेणी में आता हो तो उसकी कही छोटी से छोटी बात न सिर्फ सुनी जाती है बल्कि अनर्गल होते हुए भी लोगों के लिए बहुत महत्वपूर्ण बन जाती है और यही कारण है कि निम्नता की सीमा पार करके कमाए गए पैसे से भी ये बॉलीवुड के कलाकार प्रतिष्ठित सितारे कहलाते हैं। आज भी हमारी संस्कृति में स्त्रियाँ अपने पिता, भाई और पति के अलावा किसी अन्य पुरुष के गले भी नहीं लगतीं (ये गले लगने की परंपरा भी बॉलीवुड की ही देन है) न ही ऐसे वस्त्र धारण करती है जो अधिक छोटे हों या स्त्री के संस्कारों पर प्रश्नचिह्न लगाते हों, परंतु हमारे इसी समाज का एक ऐसा हिस्सा भी है जहाँ पुरुष व स्त्रियाँ खुलेआम वो सारे कृत्य करते हैं जिससे न सिर्फ स्त्रियों के चरित्र पर प्रश्नचिह्न लगता है बल्कि समाज में नैतिकता का स्तर भी गिरता है।
आजादी के नाम पर निर्वस्त्रता की मशाल यहीं से जलती है और समाज में बची-खुची आँखों की शर्म को भी जलाकर राख कर देती है और शर्मोहया की चिता की वही राख बॉलीवुड की आँखों का काजल बनती है।
पैसे कमाने के लिए ये मनोरंजन और कला के नाम पर समाज में अश्लीलता और अनैतिकता परोसते हैं और आम जनता मुख्यत: युवा पीढ़ी  इनकी चकाचौंध में फँसकर धीरे-धीरे अंजाने ही वो सब करने लगती है जिससे समाज में नैतिकता का स्तर गिरता जा रहा है।
महात्मा गाँधी ने अपनी जीवनी में लिखा था कि उन्होंने एक बार बाइस्कोप में राजा हरिश्चंद्र की कहानी देखी और उसका उनके मन पर इतना गहरा असर हुआ कि उन्होंने उसी समय से हमेशा सत्य बोलने की प्रतिज्ञा की। अब प्रश्न उठता है कि यदि चित्र के रूप में देखी गई कोई कहानी एक बार में किसी किशोर हृदय पर इतना असर छोड़ सकती है, तो वर्तमान समय में जब बच्चे, किशोर और युवा चलचित्र के रूप में अश्लीलता को  रोज-रोज देखते हैं तब उनके हृदय पर कितना असर पड़ता होगा!!! यह समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के लिए काफी है।

एक समय था जब हमारे ही देश में पहली हिन्दी फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' में हिरोइन के लिए कोई महिला नहीं मिली तो पुरुष ने महिला का रोल निभाया था और आज का समय है कि जितने कम वस्त्र उतने अधिक पैसे वाली थ्योरी पर चल रहे बॉलीवुड में थोड़े से पैसे और नाम के लिए अभिनेत्रियाँ कम से कम वस्त्रों में फोटो खिंचवाती हैं। वही बॉलीवुड कलाकार युवा पीढ़ी के आदर्श बन जाते हैं जिनका स्वयं का कोई आदर्श, कोई उसूल नहीं या फिर ये कहें कि उनके आदर्श और उसूल बस पैसा ही है परंतु विडंबना यह है कि जनता और सरकार सभी इनकी सुनते हैं।
ये मनोरंजन के नाम पर नग्नता और व्यभिचार दर्शा कर जहाँ एक ओर समाज के युवा पीढ़ी को बरगलाते हैं वहीं आजकल टीवी, सिनेमा, मोबाइल, लैपटॉप जैसे आधुनिक तकनीक छोटे-छोटे बच्चों के हाथों में किताबों की जगह ले चुके हैं, फिर इंटरनेट और सोशल मीडिया से कोई कब तक अछूता रह सकता है। चाहकर भी बच्चों को इनसे दूर नहीं रखा जा सकता और इनमें संस्कार और नैतिकता के पाठ नहीं पढ़ाए जाते बल्कि स्त्रियों की आजादी के नाम पर अंग प्रदर्शन, युवाओं की आजादी के नाम पर खुलेआम अश्लीलता फैलाना, ये सब आम बात हो चुकी है। इतना ही नहीं वामपंथी विचारधारा के समर्थक और प्रचारक बॉलीवुड में भरे पड़े हैं और ये समाज में होने वाले सभी प्रकार के देश विरोधी गतिविधियों का समर्थन करके उन्हें मजबूती देते हैं।
मेहनत तो एक आम नागरिक भी करता है और अपनी मेहनत से कमाए गए उन थोड़े से पैसों से ही अपना परिवार पालता है परंतु अधिक पैसों के लालच में अपने संस्कार नहीं छोड़ता अपनी लज्जा को नहीं छोड़ता परंतु उस सम्मानित किंतु साधारण व्यक्ति की बातों का कोई महत्व नहीं वह कुछ भी कहे किसी को सुनाई नहीं देता लेकिन यही अनैतिक और संस्कार हीन सेलिब्रिटी यदि छींक भी दें तो अखबारों की सुर्खियाँ और न्यूज चैनल के ब्रेकिंग न्यूज बन जाते हैं, इसीलिए तो इनका साहस इतना बढ़ जाता है कि ये ग़लत चीजों या घटनाओं का खुलकर समर्थन करते हैं और चाहते हैं कि सरकार उनकी अनर्गल बातों का आदेशों की भाँति पालन करे। बॉलीवुड से राजनीति में आना तो आजकल चुटकी बजाने जितना आसान हो गया है क्योंकि सब पैसों और प्रसिद्धि का ही खेल है। जिसके पास बॉलीवुड और राजनीतिक कुर्सी दोनों का बल होता है, वो अपने आप को ही राज्य या देश मान बैठे हैं, इसीलिए तो बिना सोचे समझे ही निर्णय सुना देते हैं कि जिसने हमारे विरुद्ध कुछ कहा उसने अमुक राज्य का अपमान किया और उसे अमुक राज्य में रहने का कोई अधिकार नहीं। किसी को लगता है कि महाराष्ट्र के बाहर से आए  बॉलीवुड में काम करने वाले सभी सितारे उनकी दी हुई थाली (बॉलीवुड) में खाते हैं अर्थात् बॉलीवुड रूपी थाली उन्होंने ही दिया था, दिन-रात जी-तोड़ परिश्रम का कोई महत्व नहीं, इसलिए यदि ये दिन को रात और रात को दिन या ड्रग्स को टॉनिक कहें तो उस बाहरी सितारे को भी ऐसा ही करना चाहिए, नहीं किया तो किसी का घर तोड़ दिया जाएगा या किसी की हत्या कर दी जाएगी।
देश के किसी भी कोने में देश के हित में लिए गए किसी निर्णय का विरोध करना हो या हिन्दुत्व विरोधी प्रदर्शन करना हो या सरकार को अस्थिर करने के लिए किसी असामाजिक कार्य का समर्थन करना हो तो ये जाने-माने सितारे हाथों में तख्तियाँ लेकर फोटो खिंचवा कर अपना विरोध प्रदर्शन करते हैं किंतु जब कहीं सचमुच अन्याय हो रहा हो या कोई अनैतिक कार्य हो रहा हो तब ये तथाकथित प्रतिष्ठित लोग कहीं नजर नहीं आते।
समाज में नैतिकता के गिरते स्तर का जिम्मेदार बॉलीवुड ही है और उदाहरणार्थ सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु की जाँच के दौरान नशालोक की सच्चाई सामने आने लगी और बॉलीवुड के नशा गैंग की संख्या द्रौपदी के चीर की तरह बढ़ती ही जा रही है। जहाँ बाप-बेटी के रिश्ते की मर्यादा नहीं होती, जहाँ दिन-रात गांजा ड्रग्स के धुएँ के बादल घिरे रहते हैं, जहाँ इन वाहियात कुकृत्यों का समर्थन न करने वालों के लिए मौत को गले लगाने के अलावा कोई स्थान नहीं...हम उसी बॉलीवुड की फिल्मों को देखने के लिए पैसे खर्च करते हैं और इनकी अनैतिकता को मजबूती प्रदान करते हैं। ये बॉलीवुड हमारी संस्कृति हमारे संस्कारों का कब्रिस्तान है। इसकी शुद्धि जनता के ही हाथ में है नहीं तो कहते हैं न कि 'अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता।' यदि जनता एक साथ इन्हें सबक नहीं सिखाती तो अकेले आवाज उठाने वाला कब कहाँ अदृश्य हो जाए कुछ पता नहीं होता, या फिर उसका घेराव करके उसकी आवाज को ही नकारात्मक सिद्ध कर दिया जाता है। 
जनता मुख्यत: आज की युवा पीढ़ी को इन्हें बताना होगा कि उन्हें आदर्शविहीन अनैतिक सामग्री से भरी फिल्में स्वीकार नहीं और न ही ऐसी अश्लीलता परोसने वाले फिल्मी सितारों को अपना आदर्श मान सकते हैं। देश को अनैतिक संस्कारहीन सेलिब्रिटी की नहीं बल्कि ऐसे नागरिकों की आवश्यकता है जो हमारे देश की संस्कृति के रक्षक बन सके न कि उसे विकृत करके इसकी छवि को धूमिल करें।

चित्र- साभार गूगल से 

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

शुक्रवार

अरु..भाग- ६ (२)

 


गतांक से आगे..

१७ वर्ष बाद.......

दिल्ली का होटल....(कोहिनूर) का भव्य हॉल, मंच पर सामने की दीवार पर बड़ा सा बैनर लगा हुआ है जिसमें एक पुस्तक का बेहद आकर्षक कवर पेज प्रिंट है और साथ ही नीचे लेखिका का नाम। उसके नीचे ही कई जाने-माने वरिष्ठ साहित्यकारों के नाम के साथ उनकी फोटो जो पुस्तक लोकार्पण के लिए बतौर अतिथि आमंत्रित किए गए हैं। हॉल में मुख्य प्रवेश द्वार पर तथा भीतर भी कई होर्डिंग्स लगे हुए हैं। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर कुर्सी-मेज रखकर अतिथियों के बैठने की व्यवस्था है। शहर के जाने-माने प्रकाशन 'भारत प्रकाशन' से प्रकाशित पुस्तक के लोकार्पण समारोह में शहर के जाने-माने प्रकाशक, लेखक/लेखिकाएँ, विचारक, समीक्षक और मीडिया के कई चेहरे इस समारोही अंबर के तारे हैं, अब सभी प्रतीक्षा कर रहे थे इस समारोह के चाँद अर्थात लेखिका का....

अलंकृता अपने जीवन के पैंतीस वसंत पार कर चुकी एक ऐसी लेखिका, जो स्त्री विमर्श पर अपने बेबाक लेखन के लिए प्रसिद्ध है... आज उसके उपन्यास.….. 'अरुन्धती..(एक कलंक कथा)'....... का लोकार्पण हो रहा है।
उसका प्रवेश होता है, अनुपम सौंदर्य और आकर्षक व्यक्तित्व की धनी है। उस पर पड़ने वाली हर नज़र दिशा बदलने को तैयार ही नहीं होती, फिर चाहे वह नजर पुरुष की हो या स्त्री की। इसके बावजूद उसके चेहरे पर दृढ़ता और आत्मविश्वास के भाव उसे औरों से अलग करते हैं, कोई सहजता से बिना कुछ सोचे उससे कुछ कहने का साहस नहीं कर पाता।
प्रकाशक महोदय उसका परिचय करवाते हुए उससे उपन्यास के विषय-वस्तु पर प्रकाश डालने का आग्रह करते हैं।
वह दशकों से समाज में स्त्रियों की स्थिति के बारे में चर्चा करते हुए अपने पुस्तक के विषय वस्तु पर प्रकाश डालते हुए कहती है-

"आप सभी जानते हैं कि मेरी कहानी का विषयवस्तु हमेशा की भाँति इस बार भी एक नारी ही है। जी हाँ यह कहानी है अरुंधती की, अरुंधती जो सिर्फ एक नाम नहीं है यह पूरी नारी जाति का प्रतीक है...यह एक ऐसी लड़की की दास्तां है जिसका जन्म एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ। जिसके पालन-पोषण पर माता से अधिक पिता के स्वभाव और संस्कारों की छाप थी, जो उसे आदर्शवाद की ओर ले जाते थे। जिसके जीवन पर किताबों से प्राप्त ज्ञान का अधिक महत्व था। जो बाल-विवाह के बंधन में जकड़ी होने के बावजूद इसको मानने से इंकार कर समाज के नियमों को तोड़ इससे छुटकारा पाने के लिए ऐसा कदम उठा लेती है, जिसे समाज में किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं माना जाता और इसी कारण सभी अपनों के द्वारा ठुकरा दी जाती है।
एक ऐसी लड़की जिसके विचार जाति-पाति के बंधनों से परे थे, जो आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग की होने के बाद भी ऊँचे विचार रखती थी, किसी को अपने से ऊँचा और नीचा नहीं मानती थी, सदैव कर्म को प्रधानता देती थी, ऐसी लड़की जो पिछड़ी मानसिकता वाले लोगों के बीच रहते हुए भी ऊँची उड़ान के सपने देखती, जो स्वच्छंद होकर जीना चाहती किंतु समाज और परिवार के समक्ष हार मान लेती क्योंकि अपने कारण परिवार को शर्मिंदा नहीं करना चाहती, ऐसी लड़की जो स्वतंत्र विचारों की और स्वाभिमानी होने के कारण अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए किसी से भी लड़ जाती। और इसी स्वच्छंदता के चलते रूढ़िवादिता का विरोध करते हुए अपने लिए राह स्वयं चुनती है परंतु वहाँ भी वह जितना ही समाज के निष्ठुर नियमों  से छूट कर स्वतंत्र होने का प्रयास करती उतना ही रूढ़ियों के बंधन में जकड़ती जाती है। वह अपनी स्वतंत्रता के लिए जितना समाज से या दूसरों से लड़ती उतना ही अपने-आप से बंधनों में जकड़ती जाती। वह समाज के शिकंजे से जितना स्वयं को आजाद करती स्वयं के विचारों के बंधन में उलझती जाती।
एक ऐसी लड़की जो बचपन से स्वतंत्र, निर्भीक, वाक्पटु, आत्मविश्वास से भरी हुई, स्वाभिमानी तो है परंतु कभी लोगों का भरोसा न जीत सकी। बार-बार अपनों से ही धोखा खाने के बाद उसका आत्मविश्वास कुछ इस प्रकार आहत हुआ कि फिर वह किसी पर विश्वास करने के लायक ही नहीं रही। यही है मेरे उपन्यास की विषयवस्तु।"

उपन्यास प्रकाशित होने से पहले ही काफी चर्चा में है, वहाँ आए प्रत्येक व्यक्ति को जिज्ञासा है ये जानने की कि क्या यह उपन्यास किसी की जिंदगी पर आधारित है या काल्पनिक है? इसी जिज्ञासा के वशीभूत 'नया भारत' समाचार-पत्र के सीनियर रिपोर्टर सिद्धार्थ ने पूछा-
"अलंकृता जी आपने अपने उपन्यास में कहीं भी यह जिक्र नहीं किया है कि यह सत्य घटना पर आधारित है या काल्पनिक है जबकि उपन्यास ऐसे विषय पर आधारित है कि ऐसी घटनाओं या परिस्थितियों की कल्पना करना ही बेहद दुष्कर है।"

अलंकृता ने सिद्धार्थ की ओर ऐसे देखा जैसे उसके प्रश्न के पीछे कोई अन्य मंतव्य ढूँढ़ रही हो। उसके चेहरे पर ही अपनी नजरें गड़ाए हुए ही उसने कहा- "मिस्टर सिद्धार्थ! आप और मैं जिस समाज में रहते हैं उस समाज की कहानी हमारी कहानी है, आपने इस उपन्यास को पढ़ा है तो क्या आप कह सकते हैं कि इसमें कुछ ऐसा है जो हमारे समाज में आज तक कभी न हुआ हो? आप भी जानते हैं और सभी ये जानते हैं कि ऐसी घटनाएँ आजकल हमारे समाज में होती रहती हैं, इसलिए मेरी ये कहानी सत्य आधारित है या काल्पनिक ये तो आप लोग ही तय करें। मैं तो बस इतना ही कहूँगी कि हम कहानीकार समाज के हर व्यक्ति के सुख-दुख को ही ओढ़ते और बिछाते हैं, हम समाज में रहते हैं और यह समाज हमारे भीतर रहता है इसलिए समाज की हर कहानी हमारी अपनी कहानी होती है, हम इसी समाज को जीते हैं, इसी समाज में जीते हैं इसलिए हम जो भी लिखते हैं उसको मानसिक तौर पर जीते भी हैं, एक आम व्यक्ति किसी को रोते देखकर दुखी होता है, उसके आँसूओं को देखकर कुछ पल के लिए उसके दर्द को महसूस भी करता है पर मैं... नहीं प्रत्येक कहानीकार उन आँसुओं के पीछे के दर्द को जीते हुए उन आँसुओं में बहता है।"

"मैडम अब तक आपकी जितनी भी कहानियाँ और उपन्यास मैंने पढ़ी हैं वो सभी नारी प्रधान ही हैं, मेरा मतलब है नारी जीवन पर ही आधारित होती हैं तो क्या आपको ऐसा लगता है कि पुरुष का जीवन बेहद सरल और सीधा होता है, वह विचार-विमर्श के योग्य ही नहीं होता?" अलंकृता की बात पूरी होते ही वहाँ बैठी महिला पत्रिका ने सवाल दागा।

क्रमशः

चित्र- साभार गूगल से

मालती मिश्रा 'मयंती'

शनिवार

अरु..भाग-६ (१)

 


गतांक से आगे..

उसकी चीख सुनकर अस्मि भागती हुई आई। उसने देखा सौम्या मेज के ऊपर बेसुध पड़ी है, बाल बिखरे हुए थे, उसके हाथ में पेन था और मेज पर तथा नीचे फर्श पर बहुत सारे पन्ने बिखरे पड़े थे। अलंकृता उसे झिंझोड़कर उठाने की कोशिश कर रही थी, अस्मि को देखकर उससे पानी लाने के लिए बोली। वह भागकर पानी ले आई, अलंकृता ने पानी छिड़क कर उसे होश में लाने का प्रयास किया। धीरे-धीरे उसकी चेतना लौटने लगी और वह उठकर बैठ गई लेकिन उसकी आँखों में दिखाई देने वाले सूनेपन से कृति काँप गई।

वह दोनों बच्चों को ऐसे देख रही थी जैसे अजनबी हों। अस्मि के पुकारने पर उसकी ओर ऐसे देखा जैसे कुछ सुना ही नहीं। दोनों उसे पकड़कर बेडरूम में लाए और लिटा दिया। घबराई हुई अलंकृता ने अनिरुद्ध को फोन करके सारी बात बता दी। अनिरुद्ध ने उसे समझाया कि वह किसी पड़ोसी से वहाँ के किसी डॉक्टर का पता करके उसे घर पर बुला ले और वह तुरंत वापस आ रहा है। 

दो महीने हो गए, अनिरुद्ध ने सौम्या को अच्छे से अच्छे डॉक्टर को दिखाया पर उसकी दशा में जरा भी सुधार नहीं हुआ। वह पूरा दिन निश्चेष्टता की स्थिति में बैठी शून्य में निहारती रहती। लाख कोशिशों के बाद भी किसी को नहीं पहचानती। इतना ही नहीं सभी के हरपल ध्यान रखने के बावजूद पता नहीं कब जाती लेकिन रोज सबेरे स्टडी रूम में उसी अवस्था में मिलती थी, बेसुध सी, हाथ में पेन पकड़े और आसपास ढेर सारे पन्ने बिखरे हुए। अलंकृता ने एक फाइल बना ली और वे सारे पन्ने सहेजती जा रही थी। अनिरुद्ध ने सौम्या को अस्पताल में भर्ती करवा दिया और बच्चों की देखरेख के लिए रेणुका को उनकी केयर टेकर बनाकर  बंगले में ले आया। परंतु उसे कहाँ पता था कि रेणुका को यह घर रास नहीं आने वाला था। एक सप्ताह भी नहीं बीते थे, रेणुका को न जाने क्या हुआ वह कभी अनिरुद्ध से झगड़ने लगती, कभी बच्चों को डाँटती तो कभी गुस्से में सामान उठाकर फेंकने लगती। बच्चे जो कभी उसके साथ इतने प्यार से घुल-मिल कर रहा करते थे, उसका यह रूप देखकर भय से आशंकित रहने लगे। आखिर परेशान होकर एक दिन अलंकृता ने कह ही दिया, "डैड हम अपनी और अपनी मम्मी की देखभाल खुद कर सकते हैं, आप प्लीज इन्हें इनके घर छोड़ आइए। इन्हें पता नहीं क्या हो गया है, कहीं ऐसा न हो कि ये गुस्से में हममें से ही किसी के साथ कुछ अनिष्ट कर दें।" 

रेणुका के व्यवहार से अनिरुद्ध भी बहुत निराश और आश्चर्यचकित था, उसे अलंकृता की बात सही लगी और वह रेणुका को वापस उसके घर छोड़ आया। अब उसे जब भी उससे मिलना होता तो उसी के घर चला जाता था परंतु रेणुका के मन में न जाने कौन सा भय समा गया था कि उसने उस घर में आना बंद कर दिया।

🌺*******************************🌺

17 वर्ष बाद

क्रमशः

चित्र साभार गूगल से

मालती मिश्रा 'मयंती'

बुधवार

अनकहे जख्म

 


जरूरी नहीं कि दर्द उतना ही हो जितना दिखाई देता है,

नहीं जरूरी कि सत्य उतना ही हो जितना सुनाई देता है।

जरूरी नहीं कि हर व्यथा को हम अश्कों से कह जाएँ,

नहीं जरूरी कि दर्द उतने ही हैं जो चुपके से अश्रु में बह जाएँ।

दिल में रहने वाले ही जब अपना बन कर छलते हों,

संभव है कुछ अनकही आहें उर अंतस में पलते हों।

अधरों पर मुस्कान सजाए हरपल जो खुश दिखते हैं,

हो सकता है उनके भीतर कुछ अनकहे जख्म हर पल चुभते रिसते हैं।

जरूरी नहीं कि हर मुस्कान के पीछे खुशियों की फुलवारी हो,

गुलाब तभी मुस्काता है जब कंटक से उसकी यारी हो।


मालती मिश्रा 'मयंती'

चित्र साभार गूगल से


सोमवार

अरु.. भाग -५

 


गतांक से आगे

दूर कहीं से कुत्ते के रोने की आवाज अमावस्या की स्याह रात की नीरवता को भंग कर रही थी। सौम्या को ऐसा लगा जैसे किसी ने उसे झिंझोड़कर जगा दिया हो। उसकी नजर खिड़की से बाहर कालिमा की चादर ओढ़े आसमान पर गई। पूरा आसमां उसके खाली जीवन की तरह सूना था, बहुत दूर कहीं एक अकेला धुंधला सा तारा अपने अस्तित्व की जंग लड़ता हुआ हारने की कगार पर बेजान-सा होता दिखाई पड़ रहा था। तभी उसके कानों में एक मधुर संगीत की धुन सुनाई पड़ी। वह ध्यान से सुनने लगी कि यह आवाज कहाँ से आ रही थी, शायद हॉल से!! बेसुध सी उठकर उसने शॉल ओढ़ी और पैरों में चप्पल डालते हुए कमरे से निकलकर आवाज की दिशा में बढ़ने लगी। अगले कुछ ही क्षणों में वह स्टोर-रूम के बाहर खड़ी थी। उसने दरवाजा खोला तो देखकर सन्न रह गई, वही बॉक्स जो उससे गिर गया था और सारा सामान बिखर गया था, इस समय वहीं फर्श पर खुला रखा था और उसमें से सामान नीचे बिखरे हुए नहीं लग रहे थे बल्कि ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने निकालकर करीने से रखे हैं। 'लेकिन ये कैसे हो सकता है..उस दिन तो जब मैं यहाँ इसे रखने आई थी तो यह पहले से ही सहेजकर अपनी जगह रखा हुआ था।' सोचती हुई वह ये देखने लगी कि ये संगीत की धुन कहाँ से आ रही है??

तभी उसकी नज़र वहीं पास में रखे एक जूलरी-बॉक्स पर पड़ी, जो खुला हुआ था और उसमें एक लड़के और लड़की का युगल नृत्य की मुद्रा में घूम रहा था, यह संगीत की मीठी सी धुन उसी में से आ रही थी। सौम्या वहीं बैठ गई और उन सामानों को एक-एक करके देखने लगी.. उसमें सुंदर-सी छोटी-सी डायरी थी जिसके कवर पर गुलाब की पंखुड़ियाँ बनी थीं, उसे खोलते ही उसमें अंग्रेजी में लिखा था...I 

"L❤️ve U Janu...

The WHOLE world is nothing Without u.

So Happy Valentine's Day...

For just My Aru..."

उसके साथ ही दो और डायरी थीं लेकिन उन पर उस डायरी की भाँति प्रेम संदेश नहीं था। कुछ ग्रीटिंग कार्ड्स थे, कुछ सुंदर-सुंदर फ्रैंडशिप बैंड भी थे। एक लाल रंग का पेन होल्डर जिसे छोटे से खरगोश ने पकड़ रखा था। कुछ नकली गुलाब के फूल थे। इन सब सामानों के साथ एक बड़ा-सा ग्रीटिंग कार्ड था। सौम्या ने उसे लिफाफे में से निकाला, यह बहुत सुंदर-सा कार्ड था, इसमें भिन्न-भिन्न आकार के छोटे-छोटे से खाँचे बने हुए थे जिनपर एक कवर पड़ा हुआ था जिस पर अंग्रेजी के अक्षर अंकित थे। उस कवर को उठाकर देखते तो उसी अक्षर से कोई न कोई प्यार भरा संदेश लिखा था।

सौम्या बड़े ही ध्यान से एक-एक सामान देख रही थी। वह ये भी सोचना भूल गई कि यह बॉक्स इस वक्त यहाँ कैसे! अचानक उसे ऐसा लगा जैसे किसी ने उसका हाथ पकड़कर उसे उठाया और एक ओर लेकर चल दिया। वह निर्विरोध उसके साथ चल दी। अब वह स्टडी रूम में थी। कमरे के बीचों-बीच रखें मेज के एक ओर रखी कुर्सी पर वह चेतना शून्य सी बैठ गई। 

अचानक बत्ती चली गई वह हड़बड़ाकर खड़ी हो गई, ऐसा लगा उसकी चेतना लौट आई। कमरे में घुप्प अँधेरा था, अपनी आँखों के सामने रखकर देखने पर भी अपना ही हाथ दिखाई न दे ऐसा अँधेरा था। धीरे-धीरे कमरे में बेहद मद्धिम सा प्रकाश हुआ और यह प्रकाश धीरे-धीरे बढ़ते-बढ़ते एक जीरो वॉट के बल्ब की रोशनी से भी कम रोशनी पर रुक गया। सौम्या ने अपने अब तक के जीवन में कभी भी रोशनी ऐसे बढ़ते नहीं देखी थी। अचानक कमरे में धुआँ सा भरने लगा। वह इधर-उधर देखने लगी लेकिन उसे समझ नहीं आया कि धुआँ कहाँ से आ रहा है। दाँत बजा देने वाली सर्दी में भी सौम्या पसीने से भीग गई। 

"बैठ जाओ!" एक सरसराती सी बेहद सर्द आवाज कमरे में गूँजी। वह डर के मारे यंत्रचालित सी वहीं बैठ गई। उसे ऐसा लगा जैसे उसके सामने मेज के दूसरी ओर कोई स्त्री बैठी है परंतु वह साफ दिखाई नहीं पड़ रही थी। उसका चेहरा और शरीर कुछ भी स्पष्ट नहीं हो रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वह धुएँ की बनी हुई है, धुएँ के हवा में इधर-उधर तैरने के साथ ही उसकी आकृति भी तैरती हुई प्रतीत हो रही थी। 

अकस्मात् वह रोने लगी, उसकी सिसकियाँ कमरे में गूँजने लगीं, सौम्या ने देखा कि उस धुएँ की आकृति के अस्पष्ट चेहरे से आँसुओं के स्थान पर एक आँख से खून और दूसरी आँख से चिंगारियाँ निकल रही थीं। सौम्या को अपना शरीर पत्ते की मानिंद काँपता हुआ महसूस हुआ। उसने अपने दोनों बाजुओं को जोर से भींच कर पकड़ लिया।

अचानक रोने की आवाज आनी बंद हो गई और एक सरसराती-सी आवाज मानों कानों के पास से सरगोशी करती निकल गई, "मेरे बारे में जानना चाहती है?"

"त्..तुम कौन हो? क..क्या चाहती हो म्मुझसे?" 

सौम्या ने बड़ी मुश्किल से साहस बटोर कर पूछा।

"मैं तुझे पहले ही बता चुकी हूँ कि ये घर मेरा है, मैं तो तुझे कब का निकालकर फेंक चुकी होती लेकिन यहाँ आने के बाद दूसरे ही दिन तुम दोनों पति-पत्नी की बहस सुनकर मुझे पता चल गया कि जिस आग में मैं जली हूँ, उसी आग में तू भी जल रही है। न सिर्फ मेरा रोग बल्कि विश्वासघात से उत्पन्न मेरी व्यथा को भी तूने भी भोगा है। तू भी तड़प रही है मेरी तरह, इसीलिए मैंने तुझे यहाँ रहने दिया लेकिन तू तो मेरे ही घर में ऐसे जताती है जैसे मैं यहाँ अवांछित हूँ। तू भी मेरी उपेक्षा करती है, मुझसे घृणा करती है।" कहते हुए वह आकृति फिर रोने लगी। 


"मैं तुमसे भला क्यों घृणा करूँगी? मैं तो बस जानना चाहती हूँ कि तुम कौन हो, रोती क्यों हो और मुझसे क्या चाहती हो, क्या मैं तुम्हारे लिए कुछ कर सकती हूँ?" 

न जाने सौम्या में इतना साहस कैसे आया कि उसने एक ही साँस में पूछ लिया। एकाएक कमरे में फिर से घुप्प अँधेरा छा गया, अजीब सी महक कमरे में भरने लगी, उस गहरे अंधेरे में उसे अपने सामने अँधेरे से भी गहरे काले रंग की आकृति दिखाई देने लगी। सौम्या को लगा जैसे उस आकृति का सर्द हाथ उसके हाथ के ऊपर है, वह अपने आप को हवा में तैरती हुई महसूस कर रही थी, मस्तिष्क बोझिल हो चला था। आँखों के समझ सिवाय अँधेरे और दूर-दूर तक खालीपन के अहसास के सिवा कुछ नहीं था, बस उसे ऐसा लग रहा था कि उसके कानों में कुछ आवाजें आ रही हैं और दिमाग में कुछ घटनाएँ चलचित्र की भाँति चल रही हैं, हाथ पता नहीं क्या कर रहा था पर कागज पर पेन के चलने की आवाज आ रही थी। धीरे-धीरे सब कुछ शून्य में विलीन होने लगा, कुछ शेष था तो बस कागज पर पेन चलने की आवाज और सिसकियाँ।

******  *****    *******    *****  ******

सुबह के छः बज चुके थे, अलंकृता आँखें मलती हुई अपने कमरे से बाहर आई तो उसे यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ कि आज पूरा घर अँधेरे में डूबा हुआ था। उसे आश्चर्य हुआ कि मम्मी तो इतनी देर तक कभी नहीं सोतीं। उसने कॉरीडोर की बत्ती जलाई और नीचे हॉल में आकर वहाँ की भी बत्ती जला दी। अब वह सौम्या को खोजने लगी। पर सौम्या न तो अपने कमरे में थी और न ही कहीं और दिखाई दे रही थी। घबराकर उसने अस्मि को भी जगा दिया। मम्मी को कहीं न पाकर वह रोने लगी। रोना तो अलंकृता को भी आ रहा था पर वह रोएगी तो अस्मि को कैसे संभालेगी? स्टोर रूम और स्टडी रूम बंद होने के कारण अभी तक उसने वहाँ नहीं देखा था। अब उसके पास ढूँढ़ने के लिए कोई जगह नहीं बची तो वह स्टडी रूम की ओर भागी।

दरवाजे में बाहर से कुंडी नहीं लगी थी, उसने धक्का देकर दरवाजा खोला और चीख पड़ी..

मम्मी!!!!!

क्रमशः 
चित्र- साभार गूगल से
मालती मिश्रा 'मयंती'

शनिवार

अरु... भाग-४

 

"मैं पहले सोचती थी कि आत्महत्या करने वाले कायर होते हैं वो अपनी सारी जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ाकर मर जाते हैं। अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने की खातिर परिस्थितियों से लड़ते हुए जूझते हुए जीना बहुत मुश्किल होता है न! लेकिन आज मुझे समझ आ रहा है कि मैं ग़लत थी, आत्महत्या करना उतना भी आसान नहीं जितना मैं सोचती थी। आत्महत्या करने के लिए अपने बेहद अपनों से मोह को त्यागना पड़ता है, अपने ही अंश अपनी संतानों के वर्तमान और भविष्य की चिंता त्यागकर उनसे विमुख होना पड़ता है, हमारे बाद वो कितना तड़पेंगे, जीने के लिए पल-पल कितने संघर्षों से कितने तानों फिक्र और प्रताड़नाओं से गुजरना पड़ेगा, इस खयाल को मन से निकालना पड़ता है। फूलों की तरह सहेजकर रखे गए बच्चों के जीवन का हर क्षण काँटों भरा हो जाएगा, उनका भविष्य अँधेरे में डूब जाएगा, ऐसी चिन्ताओं से मुक्त होना पड़ता है इसीलिए आज मैं आत्महत्या करना चाहती हूँ पर माँ हूँ न! बच्चों को ऐसे भँवर में छोड़कर मरने का साहस नहीं जुटा पा रही हूँ। मैं मर गई तो मेरे बच्चे किसके सहारे जिएँगे! उस इंसान के, जो भेड़ की खाल में भेड़िया है? मेरे बच्चों की फ़िक्र मुझे मरने नहीं दे रही और इस इंसान का धोखा, उसकी बेशर्मी और मेरे टूटे विश्वास, तार-तार हो चुके दिल का जख्म मुझे जीने नहीं दे रहे।

पढ़ते-पढ़ते उसे ऐसा लगा जैसे उसके गालों पर गरम-गरम नमी ढुलक रही है। उसने झट से अपनी हथेलियों से अपने आँसू पोंछे और डायरी बंद कर दी। वह डायरी लेकर अपने बेडरूम में आ गई। बेडरूम की बालकनी का दरवाजा खोलकर भोर की छिटकती लाली को निहारने लगी।

यह नयनाभिराम सुबह हृदय में उल्लास भरने के लिए परिपूर्ण थी, रात्रि का गमन और अरुणोदय की बेला धरती पर मद्धिम सा धुँधलका और अंबर में अरुण की छिटकती लाली दोनों मिलकर एक अनुपम सौंदर्य उत्पन्न कर रहे थे। सोने पर सुहागा ये कि मंद-मंद पवन की शीतलता जहाँ शरीर में हल्की सी सर्द लहर दौड़ा देती वहीं अरुणोदय की छटा देखकर ही उसकी आने वाली मीठी सी गुनगुनी धूप का अहसास ही शरीर में मीठी सी गरमाहट उत्पन्न कर देता। 

अपने बेडरूम की बालकनी में खड़ी-खड़ी वह कभी आसमान में उड़ते पक्षियों के झुंड देखती कभी बिल्डिंगों से निकलकर सोसायटी के गेट तक जाती सड़क के दोनों ओर मस्तक ऊँचा किए खड़े रहने वाले वृक्षों को मस्ती से झूमते देखती। सूर्योदय की आवभगत को आतुर सड़क के किनारे पार्क में खिले रंग-बिरंगे पुष्पों को देखकर उनका सौंदर्य अपने भीतर महसूस करने का प्रयास करते हुए सोच रही थी कि 'ये रंग-बिरंगे फूल, ये कोमल हरियाली और हर एक परिस्थिति के अनुसार अपने को ढाल लेने वाले ये वृक्ष, यही सब तो मेरे लिए प्रेरणा स्रोत हैं, मुझे सिखाते हैं कि परिस्थितियाँ कैसी भी हों डटकर उनका सामना करना चाहिए।' 

तभी उसकी नजर उस डहलिया के फूल पर पड़ी, जिसका आधा हिस्सा सूखा हुआ था। वह अन्य फूलों के समक्ष कुरूप सा महसूस हो रहा था, उसमें उसे अपना अक्श नजर आया और सोचने लगी कि 'मैं भी तो उसी की मानिंद हूँ, अपूर्ण और कुरूप काया साथ ही विश्वासघात के आघात से आहत। मैं अपने शारीरिक अधूरेपन को तो बर्दाश्त कर लूँ पर रिश्ते के अधूरेपन को बर्दाश्त करने की क्षमता कभी-कभी कम पड़ जाती है। शरीर की कुरूपता रिश्तों की कुरूपता से अधिक पीड़ादायी नहीं होती। विश्वासघात के वार से जख्मी सड़ चुके रिश्तों से रिसता मवाद रह-रहकर दिल में जहर फैलाने लगता है और यही जहर मन को इतनी पीड़ा पहुँचाता है कि वह असहनीय हो जाता है, ऐसी परिस्थिति में उस जहर को आँखों के रास्ते बाहर निकालने के लिए एकांत तलाशना ही पड़ता है।'

सोचते हुए उसे अपने गालों पर ढुलक आए आँसुओं को उसने तुरंत अपनी दोनों हथेलियों से उसे साफ कर लिया अपनी आँखों को भी पोंछा ताकि उनमें नमी न रह जाए। वह नहीं चाहती थी कि उसके बच्चे उसके कभी न भरने वाले घावों की ताजगी को महसूस कर सकें।

अपनी ओर से ध्यान हटते ही उसका ध्यान हाथ में पकड़ी डायरी पर गया और उसे देखते हुए सोचने लगी कि क्या हुआ होगा उसके साथ, जिसकी यह डायरी है? सोचते हुए सौम्या वहीं कुर्सी पर बैठ गई और अगला पन्ना पलटा, जैसे ही पढ़ना शुरू किया वहाँ लिखे सारे शब्द धुआँ बनकर उड़ने लगे। वह जिस क्रम में शब्दों को पढ़ती उसी क्रम में उसके देखने से पहले वे शब्द एक के बाद एक धुआँ बन उड़ने लगे। वह अवाक् सी बैठी बस देखती ही रह गई। उसे समझ नहीं आ रहा था कि यह हो क्या रहा था! ऐसा तो उसने न कभी देखा न सुना था। आखिर किसकी डायरी है यह? कौन है जो नहीं चाहती कि मैं यह डायरी पढ़ूँ?💐💐💐💐

अभी वह भय और असमंजस की स्थिति में निष्चेष्ट सी बैठी ही थी कि तभी डायरी उसके हाथ की पकड़ से निकलकर ऊपर उठने लगी और देखते ही देखते हवा में तैरने लगी। वह सौम्या के सिर के ऊपर दाएँ से बाएँ तैर रही थी लेकिन उसे पकड़ने के लिए सौम्या जैसे ही हाथ बढ़ाती वह और ऊपर उठ जाती। सर्दी के मौसम में भी वह डर के मारे पसीने-पसीने हो रही थी। उसने तिरछी नजर से कमरे की ओर देखा, वह वहाँ से भाग जाना चाहती थी पर अपनी जगह से हिलने का साहस नहीं जुटा पा रही थी। 

जैसे-तैसे उसने हिम्मत बटोरा और कुर्सी पीछे खिसका कर उठी ही थी कि तभी उसे उसी कमरे में किसी स्त्री के सिसकने की आवाज सुनाई देने लगी। वह एकदम झटके से खड़ी तो हो गई पर अपनी जगह से हिल नहीं सकी। उसका दिल उसकी पसलियों में जोर-जोर से ठोकरें मार रहा था, साँसों की गति बढ़ गई थी। नथुने ऐसे फूल-पिचक रहे थे जैसे सीने में धौंकनी चल रही हो। 

सिसकने की आवाज तेज होती जा रही थी, बहुत मुश्किल से अपने काँपते हाथ-पैरों पर काबू करने की कोशिश करते हुए सौम्या कंपकंपाती आवाज में बोली- "क..क..क्कौन..ह..ह्हो..त..त्..तुम, कक्क्या..च्चाहती हो?"

सिसकियों की आवाज बंद हो गई और कमरे में एक सरसराती सी आवाज आई……

"यह मेरा घर है..ये मेरी डायरी है...तेरी हिम्मत कैसे हुई इसे हाथ लगाने की?" 

"ल्लेकिन ह..हमने इस घ..घ्घर को खरीदा ह्है, त..तो अब तो य..य्यह घ्घर हमारा ह..हुआ ना?" सौम्या बहुत साहस करके बोली। 

"नहीं..इस घर में कोई नहीं रह सकता..इस घर में खुशियाँ कभी नहीं आ सकतीं..जिस घर में मैं खून के आँसू रोई हूँ वहाँ कोई हँस कैसे सकता है?? मैं ऐसा होने नहीं दूँगी। चली जा यहाँ से...चली जा..."  आवाज एकदम से तेज और तेज होती जा रही थी, सौम्या कुर्सी धकेलकर बेतहाशा वहाँ से भागी। भागती हुई वह सीधे अलंकृता के कमरे में आकर काउच पर धम्म से गिर पड़ी। अस्मि और अलंकृता रजाई की गर्माहट में गहरी नींद में सो रहे थे। उसकी साँसें धौंकनी की मानिंद चल रही थीं, कभी इस तरह की चीजों को न मानने वाली सौम्या को अपनी ही आपबीती पर विश्वास नहीं हो रहा था। उसने अपनी बाँह पर चुटकी काटकर देखा कि कहीं वह सपना तो नहीं देख रही। वह उठकर बच्चों के पास गई और ध्यान से उन्हें देखा फिर आश्वस्त होकर वापस वहीं काउच पर लेट गई। नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी, उसके कान किसी भी आहट को सुनने के लिए सतर्क थे। मन में न जाने कितने सवाल उभर रहे थे, जिनके जवाब उसके पास नहीं थे। 'आखिर कौन होगी वह स्त्री जिसकी आत्मा मरने के बाद भी रो रही है...ऐसा कौन सा गम होगा उसे कि वह उसके दर्द से मुक्त नहीं हो पाई...और क्या चाहती है वह...हमें यहाँ से भगाना चाहती तो हमारे आते ही हमें सताना शुरू कर देती, पर उसने ऐसा नहीं किया...उसने बच्चों को भी नहीं डराया...सिर्फ मुझे ही क्यों उसके होने का आभास होता है..और अब तो उसने बात भी की...वो चाहती तो डायरी का एक भी पन्ना ना पढ़ने देती पर ऐसा भी नहीं हुआ...फिर क्या चाहती है वह? आखिर क्या चाहती है???' ऐसे ही न जाने कितने प्रश्न उसके दिमाग में हथौड़े की तरह वार कर रहे थे। बैठे-बैठे उसने दो घंटे बिता दिए, अब उसके सिर में बहुत तेज दर्द हो रहा था। वह उठी और चाय बनाने के उद्देश्य से रसोई की ओर चल दी। 

चाय का पानी गैस पर रखकर वह शेल्फ से चीनी और चायपत्ती के डब्बे निकाल ही रही थी तभी उसे हॉल के वॉशरूम से शॉवर चलने की आवाज आई और घबराहट में चायपत्ती का डिब्बा उसके हाथ से छूट गया। वह जाकर वॉशरूम में देखना चाहती थी पर साहस नहीं जुटा पाई। उसने गैस की नॉब बंद किया और तेजी से ऊपर बच्चों के कमरे में चली गई और पुनः काउच पर लेट गई। 

"क्या हुआ मम्मी, आप यहाँ क्यों लेटी हुई हैं?" उसके पैरों की आहट से अलंकृता की आँख खुल गई और उसे ऐसे लेटी हुई देखकर उसने आँखें मलते हुए पूछा।

"कुछ नहीं बेटा वो आँख खुल गई तो फिर नींद ही नहीं आ रही थी इसलिए यहाँ चली आई। सोचा थोड़ी देर यहीं तुम लोगों के पास ही लेट जाऊँ।" सौम्या सच बताकर अपनी बेटी को परेशान नहीं करना चाहती थी। 

अलंकृता के जागने के पश्चात् सौम्या नीचे आ गई, उसके पैर स्वत: वॉशरूम की ओर उठ गए। वॉशरूम का फर्श रोज की तरह गीला था जैसे किसी ने अभी-अभी वाइपर से पानी खींचा हो। 

वह चुपचाप रसोई में चली गई और साफ-सफाई में व्यस्त हो गई परंतु उसका दिमाग उन्हीं घटनाओं में ही उलझा हुआ तरह-तरह की कहानियाँ गढ़कर उसे उस स्त्री से जोड़ने की कोशिश कर रहा था और कभी वह अपनी परिस्थितियों पर भी विचार करने को विवश हो जाती। क्या उसका बच्चों के साथ यहाँ रहना उचित होगा? लेकिन अगर यहाँ नहीं रहेगी तो कहाँ जाएगी? सोच-सोच कर उसके सिर का दर्द बढ़ गया था, उसने गोली खाई और अनिरुद्ध को फोन करके सारी बात बताकर उसे जल्द से जल्द वापस आने के लिए कहा। 

"ठीक है मैं शाम तक आता हूँ।" कहकर उसने फोन काट दिया। 

सौम्या शाम सात-आठ बजे तक अनिरुद्ध के आने का इंतजार करती रही फिर समझ गई कि वह आज नहीं आने वाला है। वह खुद को ही कोसने लगी कि आखिर उसने मान भी कैसे लिया कि अनिरुद्ध उसकी किसी परेशानी से परेशान होगा! उसका सारा प्यार और परवाह तो बस बच्चों को दिखाने के लिए ही होता है। सोचते हुए उसकी आँखें बरस पड़ीं और वह अतीत की अंधेरी गलियों में भटकने लगी। जबसे अनिरुद्ध और उसका विवाह हुआ, तब से ही उसने कदम-कदम पर अनिरुद्ध का साथ दिया, उसे ही अपनी दुनिया बना लिया। जब उसकी नौकरी छूटी और वह हताश होने लगा तब उसने प्राइवेट स्कूल में अध्यापिका की नौकरी कर ली तथा बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाने लगी। उसके ऊपर काम का चाहे कितना भी दबाव होता पर घर के कामों में अनिरुद्ध ने कभी हाथ नहीं बँटाया, जबकि आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपैया वाली कहावत को हमेशा चरितार्थ करता था। पूरे दिन मशीन की भाँति बिना रुके काम करते-करते वह शाम तक थक कर चूर होती और ऐसे में अनिरुद्ध की अपनी फरमाइशें अलग। कभी-कभी उसकी शारीरिक और मानसिक अवस्था इतनी दुरुह हो जाती कि वह बिस्तर पर लेटते ही सो जाती। अनिरुद्ध नौकरी करता था तो ऑफिस जाने से पहले और आने के बाद एक गिलास पानी तक खुद लेकर नहीं पीता था, जबकि सौम्या घर-बाहर दोनों जगह के काम संभालती थी लेकिन अनिरुद्ध ने कभी उसकी शारीरिक और मानसिक दशा को समझने की कोशिश नहीं की बल्कि उसमें ही कमियाँ निकालने लगा और बात-बात पर उस पर चिल्लाना और लड़ना शुरू कर दिया। वह बात-बात पर उस पर चिल्लाता, यहाँ तक कि बच्चों का भी लिहाज नहीं करता था उनके सामने ही उस पर चिल्लाने लगता था। उसके इस व्यवहार से सौम्या धीरे-धीरे अपना आत्मविश्वास खोती जा रही थी, वह अनिरुद्ध के समक्ष कुछ बोलते हुए भी हिचकिचाने लगी कि पता नहीं किस बात पर वह चिल्लाने लगे। बच्चों के सामने उसका चिल्लाना सौम्या को हजार मौत मारता था, वह शर्म से नजरें चुराने लगती और जब आँसू नहीं रोक पाती तो बाथरूम में जाकर मुँह दबाकर रो लेती। अब यही उसकी नियति बन गई थी। लड़-झगड़कर दोनों अलग-अलग सोने लगते और साल-छ: महीने अलग ही सोते जब तक कि सौम्या खुद ही उसे वापस साथ में सोने को नहीं कहती। 

उसे आश्चर्य भी होता कि जो व्यक्ति अपनी शारीरिक भूख के लिए उससे लड़ता था वह अब महीनों उसे छूता तक नहीं था। पर वह जब अनिरुद्ध से यह पूछती थी तो वह कहता कि "तुमने आदत डाल दी।" 

उसकी मानसिक व्यथा ने धीरे-धीरे कब शारीरिक व्याधि का रूप ले लिया उसे पता ही न चला। उसकी तो यह आशा भी मर गई कि बीमार होने पर उसका पति उससे उसका हाल पूछेगा या उसके लिए चिंतित होगा। 

वह स्वयं ही अस्पतालों के चक्कर लगाने लगी, तरह-तरह की जाँच हुई पर अनिरुद्ध ने कभी उससे नहीं पूछा कि वह अस्पताल क्यों जाती है या उसे क्या परेशानी है? शारीरिक व्याधि से ज्यादा तो उसे उपेक्षा और तिरस्कार के अहसास ने तोड़ दिया। जाँच का परिणाम आने के बाद कैंसर का पता चला पर अनिरुद्ध के माथे पर शिकन तक नहीं आया लेकिन समाज में अपनी शाख बनाए रखने और बच्चों की खुशी के लिए उसने उसका पूरा इलाज करवाया। वह उसे अस्पताल लेकर जाता लेकिन कभी उससे सहानुभूति के दो शब्द नहीं बोला। बच्चों को खुश करने के लिए उन्हें बुलाकर उनसे उनकी माँ का हाल पूछता पर खुद कभी नजर भरकर उसकी ओर नहीं देखता था। बीमारी से लड़ने की जद्दोजहद में ही सौम्या ने अनिरुद्ध और अपनी सहेली रेणुका को ऐसी अवस्था में देख लिया कि उसके पैरों तले की जमीन खिसक गई। उसे वर्षों से अपने मन में उठने वाले सारे सवालों के जवाब एक ही पल में मिल गए। वह लड़खड़ा कर गिर गई पर अनिरुद्ध ने उसे संभालने की भी जहमत नहीं उठाई। बल्कि अपनी इस चरित्रहीनता का आरोप भी सौम्या पर ही डाल दिया। 

वह दहाड़ मारकर रोना चाहती थी पर बच्चों के सामने उनके पिता का घिनौना चेहरा लाने का साहस नहीं जुटा पा रही थी। अनिरुद्ध की तरह वह अपना जमीर नहीं मार पा रही थी। उस समय अनिरुद्ध ने उससे वादा किया कि वह बच्चों को कुछ न बताए, उसका इलाज वह पहले की ही भाँति करवाएगा और घर भी चलाएगा परंतु रेणुका को नहीं छोड़ सकता। जो रिश्ता हाथ से फिसलकर किसी और के दामन में जा गिरा था उसे पाने की आस उसने भी छोड़ दिया और तब से ही बच्चों के लिए जीना शुरू कर दिया। जब दर्द अपनी सीमा तोड़ देता है तब वह अकेले किसी कमरे में या वॉशरूम में एकांत का सहारा लेकर सारा गुबार निकाल लेती है और फिर बच्चों के सामने सामान्य हो जाती है। सिर्फ वही जानती है कि अनिरुद्ध हफ्ते के पाँच दिन ऑफिस टूर के बहाने रेणुका के साथ रहता है। बच्चों की नजर में वह अब भी एक आदर्श पति और आदर्श पिता है। 

"मम्मी! अस्मि पढ़ नहीं रही है, अभी भी मोबाइल पर गेम खेल रही है।" अलंकृता की आवाज सुनकर सौम्या अतीत की रेखा पार करके वर्तमान में आ गई और बच्चों के पास स्टडी रूम की ओर भागी, वह बच्चों को वहाँ अकेले नहीं छोड़ सकती थी। 

उसके पहुँचने से पहले ही अस्मि मोबाइल बंद करके एक ओर रख चुकी थी और पढ़ने लगी। सौम्या ने चुपचाप मोबाइल अपने पास रख लिया और वहीं कुर्सी खींचकर बैठ गई। थोड़ी देर के बाद अलंकृता बोली- 

"मम्मी खाना नहीं बनेगा क्या?"

"हाँ क्यों नहीं, लेकिन मैं सोच रही थी कि क्यों नहीं तुम लोग वहीं हॉल में या अपने कमरे में बैठकर पढ़ते! मेरा भी मन लगा रहता।" वह बोली।

अलंकृता ने बड़े ध्यान से उसे देखा, जैसे उसके ऐसा कहने के पीछे का मकसद जानना चाहती हो और उदास होकर बोली, "डैड नहीं हैं इसलिए आप अकेलापन महसूस कर रही हो न?" 

"अरे नहीं बच्चा, मैं तो बस यूँ ही कह रही थी, यहाँ बैठकर पढ़ो या वहाँ क्या फर्क पड़ता है! टी. वी. भी नहीं चल रहा है तो व्यवधान भी नहीं होगा। वैसे अगर तुम्हारी बात पर गौर करें तो फिर यही कहूँगी कि चहल-पहल किसे अच्छी नहीं लगती।" उसने मुस्कुराते हुए कहा। 

दोनों बच्चे उसके साथ ही नीचे आ गए और हॉल में बैठकर पढ़ने लगे। अब वह निश्चिंतता से खाना बना सकती थी। 

कुछ देर के बाद तीनों ने साथ बैठकर खाना खाया। गपशप थी कि खत्म ही नहीं हो रही थी। स्कूल और नए दोस्तों के बारे में बातें करते-करते अस्मि को नींद आने लगी। दोनों बहनें कमरे में जाकर सो गईं। बर्तन और रसोई साफ करके सौम्या भी अपने कमरे में जाकर सो गई।

क्रमशः

मालती मिश्रा 'मयंती'

बुधवार

अरु..भाग-3

गतांक से आगे..


सौम्या शब्दों की गहराई में खोती जा रही थी, वह अगला पन्ना पलटती है तभी बाहर से जोर की आवाज आई। जैसे कुछ गिरा हो और वह आवाज की दिशा में भागी। उसने देखा रसोईघर में कुछ डिब्बे गिरे हुए थे, उसे आश्चर्य हुआ कि आखिर ये कैसे गिर सकते हैं! ये तो शेल्फ में रखे थे। सोचते हुए उसने उन डिब्बों को उठाकर जगह पर रखा और फिर स्टडी रूम में वापस आ गई। वह आगे की डायरी पढ़ना चाहती थी लेकिन डायरी वहाँ नहीं थी, जहाँ वह रखकर गई थी। 

'य..ये क्या हो रहा है भगवान! बार-बार ऐसा लगता है जैसे कोई है यहाँ पर जो हमें दिखाई नहीं दे रहा... लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है, कोई होता तो दिखता भी।' सोचते हुए न जाने क्यों उसे डर महसूस हुआ और वह स्टडी रूम से बाहर आ गई। अभी वह सीढ़ियों पर ही थी कि तभी उसे हॉल वाले कॉमन वॉशरूम से पानी गिरने की आवाज आई, जैसे शॉवर चल रहा हो। वह फिर नीचे आई और पानी बंद करने के लिए वॉशरूम का दरवाजा खोलते ही चौंक गई। पिछली रात की तरह आज भी वॉशरूम धुला हुआ लग रहा था जैसे किसी ने अभी-अभी वाइपर से पानी खींचा हो। वह डर गई और भागकर एक ही साँस में सीढ़ियाँ चढ़कर अपने कमरे में पहुँच गई। बेड पर बैठकर वह अपनी साँसे दुरुस्त करने लगी। सुबह के पाँच बजे का अलार्म बजने लगा। उसने अलार्म बंद किया, खुद को समझाकर थोड़ा साहस एकत्र किया और रोज के नियमित कार्यों में व्यस्त हो गई।


पूरे घर की साफ-सफाई करते-करते सात बज गए, रविवार था इसलिए बच्चे अभी सो रहे थे। सौम्या लॉन में पौधों को पानी देने चली गई। पानी देते हुए पाइप कहीं अटक गया उसने झटके से उसे खींचा,

 "संभाल के, एक भी पौधा टूटा तो छोड़ूँगी नहीं तुझे।" 

अपने पीछे से किसी की सरसराती-सी आवाज सुनकर वह झटके से पीछे मुड़ी, पर वहाँ कोई नहीं था। वह इधर-उधर देखने लगी लेकिन पूरे लॉन में उसे कहीं कोई नजर नहीं आया। उसने बचे हुए पौधों में जल्दी-जल्दी पानी डाला और अंदर आ गई। अलंकृता को सोफे पर अलसाई सी बैठी देखकर उसने कहा- "बेटा अस्मि को भी जगा दो और नहा-धोकर तुम दोनों नीचे आ जाना नाश्ते के लिए, तब तक मैं भी नहाकर पूजा कर लेती हूँ। कहकर वह अपने कमरे में चली गई। उसके कानों में रह-रहकर अब भी वही आवाज सरगोशी कर रही थी और कभी डायरी का खयाल आ जाता। अब वह परेशान सी होने लगी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर यह सब हो क्या रहा है, सच में यहाँ कोई है या उसके मन का वहम है!! इसी उधेड़-बुन में उसने सब काम कर लिया, बच्चों के साथ नाश्ता करके उसने अलंकृता से पुस्तकें लगाने में मदद के लिए कहा और स्टडी रूम में चली गई। 

पुस्तकें लगाते हुए उसने अलंकृता को भी बताया कि कैसे उसे डायरी मिली और फिर गायब भी हो गई। 

"आपने खोलकर देखा उस डायरी को? कुछ खास था क्या उसमें?" अलंकृता ने कहा।

"किसी की पर्सनल डायरी लग रही थी, पहला और दूसरा पृष्ठ ही पढ़ा था मैंने, रोचक था और उदासी भरा भी।" सौम्या ने कहा।

"कोई बात नहीं मम्मी यहीं कहीं होगी मिल जाएगी।" अलंकृता ने कहा और एक-एक पुस्तक को झाड़-पोंछ कर शेल्फ में लगाती रही। 


पुस्तकें रखकर दोनों बाहर आ गईं, और घर के लिए कुछ सामान लेने बाजार जाना तय करके अलंकृता सामान की लिस्ट बनाने लगी, सौम्या उसे बताती जाती और वह लिखती जाती। तभी अस्मि ने कहा- "मेरे लिए बास्केटबॉल और बैडमिंटन भी ले आना।" 

"ठीक है, मम्मी और कुछ?" 

ह..हाँ..डायरी..मेरा मतलब है कि....।" सौम्या ने बात अधूरी छोड़ दी।

अनजाने में सौम्या के मुँह से वही शब्द निकल गया जो उसके मस्तिष्क में चल रहा था। 'आखिर डायरी अपने-आप जा कहाँ सकती है?'  सोचते हुए अचानक सौम्या को कुछ याद आया और वह झटके से खड़ी हो गई। 

"क्या हुआ मम्मी?" अलंकृता ने उसे ऐसे खड़े होते देखकर पूछा।

"कुछ नहीं, अभी आई।" कहती हुई सौम्या तेज कदमों से स्टडी-रूम की ओर बढ़ गई। 

कमरे में खड़े होकर उसने बड़े ध्यान से चारों ओर नजर दौड़ाई फिर उसे ध्यान आया कि उसे डायरी कहाँ से मिली थी, उसने शेल्फ में उसी जगह आगे की पुस्तकें हटाईं, पुस्तकों के पीछे डायरी पूर्व अवस्था में रखी हुई थी। सौम्या ने एक गहरी साँस ली डायरी को वहीं रखकर  पुस्तकें फिर से वैसे ही रखकर बाहर आ गई। अब डायरी कहाँ रखी है, यह उसे पता है अतः जब भी समय मिलेगा तब वह आकर पढ़ सकती है, यह सोचकर वह आश्वस्त तो हो गई लेकिन डायरी वहाँ कैसे पहुँची, यह खयाल आते ही फिर से उलझन में पड़ गई। 

****** ******   ********   ****** ****** 


बच्चों को खाना खिलाकर सौम्या जल्दी-जल्दी रसोई साफ कर रही थी, इस समय उसके दिलो-दिमाग में बस डायरी घूम रही थी। आखिर क्यों यह डायरी पहेली बन गई... क्यों उस पर धूल नहीं जमती... कैसे वह अपने-आप वापस शेल्फ में पहुँच गई...और ठीक उसी स्थान पर जहाँ से उसे उठाया था... आखिर ऐसा क्या है उसमें जिसे जानने को वह स्वयं इतनी व्यग्र हो रही है? इन्हीं प्रश्नों के जाल में उलझी उसने सारा काम खत्म कर लिया और बच्चों के कमरे में झाँककर तसल्ली किया कि वे  सो गए या नहीं! दोनों को सोते देख वह स्टडी-रूम में गई और डायरी निकालकर वहीं बैठ गई। डायरी खोलते हुए न जाने क्यों उसके हाथ कंपकंपा रहे थे। अपनी उंगलियों को नियंत्रित करते हुए उसने आगे का पन्ना पलटा..


समझ नहीं आता...

क्यों जिए जा रही हूँ?

जीवन का हलाहल 

क्यों घूँट-घूँट पिए जा रही हूँ?

क्यों नहीं समापन कर लेती मैं...

नरक भरे इस जीवन का,

और कौन सा जख्म है बाकी...

जो रोज नया एक सिए जा रही हूँ????


उसकी उँगलियों ने बेसाख्ता अगला पन्ना पलट दिया...


"माना कि मैं साहसी हूँ, माना कि मैं मजबूत हूँ, आसानी से हार नहीं मानती, माना कि मैं सहनशील हूँ सब सह जाती हूँ और लोगों के सामने उफ तक नहीं करती...पर मैं भी इंसान हूँ यार, मेरे सीने में भी दिल है जो दुखता है। बहुत दर्द होता है और तब मुझे मेरी मजबूती अभिशाप लगती है। मैं तड़पती हूँ भीतर ही भीतर, मेरा भी मन करता है कि मैं भी कुछ पलों के लिए कमजोर पड़ जाऊँ और कोई हो जो मेरा संबल बने, मेरा हौसला बढ़ाए, जिसके कंधे पर अपना सिर रखकर मैं अपने मन का सारा बोझ हल्का कर दूँ। अंदर ही अंदर बिखर रही हूँ काश कोई तो ऐसा हो जिसके सीने से लगकर खूब जी भरकर रो लूँ काश मैं भी किसी के सामने अपनी मजबूती भूलकर खुलकर रो सकती। नहीं चाहिए ऐसी सहन शक्ति यार जो मेरे लिए ही सजा बन गई। थक गई हूँ, कमजोर हो गई हूँ अब नहीं चला जाता, मुझे भी सहारा चाहिए।


जब से होश संभाला तब से छोटे भाई-बहन को संभाला, घर की जिम्मेदारी संभाली अपना बचपन भूल ही गई, बस यही ख्याल हर पल रहता कि भाइयों को पढ़ाना है, उनके कपड़े धोने हैं, घर की सफाई करनी है , खाना बनाना है, अपनी भी पढ़ाई करनी है। पापा ने भी घर की मालकिन ही बना दिया था, बच्ची रही कहाँ मैं। कमजोर होती तो कैसे संभालती! भाइयों को कोई कुछ कहता तो आगे से खड़ी हो जाती उन्हें बचाने, माँ की तरह। सबकी माएँ अपने बच्चों के गलत होने पर भी हमें गलत ठहरा देतीं तब बड़ा दुख होता था, मम्मी की बड़ी याद आती थी लेकिन पता होता था कि वो अभी बहुत दूर हैं, मुझे ही सब संभालना है तो अड़ जाती थी उम्र से बड़ी बनकर, इसीलिए सबकी आँखों में खटकती भी थी। कभी छोटी बनकर उन बड़ों के सामने अपनी कमजोरी जाहिर भी करती तो मजबूती का टैग जो लग गया था, यही सुनने को मिलता अरे तुम कैसे हार सकती हो, तुम कैसे थक सकती हो, तुम कैसे फेल हो सकती हो, तुम कैसे पीछे रह सकती हो... वगैरा.. वगैरा। 

आज तक उसी मजबूती का बोझ उठाए जी रही हूँ, लड़खड़ाती हूँ, थककर चूर हो गई हूँ, पर गिरने का हारने का हक खो चुकी हूँ। चीख-चीखकर रोना चाहती हूँ पर आवाज मजबूती के बोझ तले दब गई है। 

बहुत मन करता है कोई तो हो जो मेरे कमजोर पलों में मेरा सहारा बने, जो आकर पूछे कि मेरे दिल में इस समय क्या चल रहा है, मैं कितनी डरी हुई हूँ, कितनी असहाय महसूस कर रही हूँ.. पर आसपास लोग दिखाई तो पड़ते हैं पर इनमें मेरा कोई नहीं, इनमें तो क्या पूरी दुनिया में ऐसा कोई नहीं जो मुझे समझ सके, जिसे मेरी टूटन दिखाई पड़े। जो मेरा बिखरना देख सके, मुझे समेटने की कोशिश करे।"


सौम्या डायरी पढ़ते हुए मानों उसी में डूब चुकी थी, कभी किसी के व्यक्तिगत चीजों को न छूने वाली सौम्या को यह भी याद नहीं था कि वह किसी और की डायरी पढ़ रही है। एक पन्ना पढ़ते ही उसकी उँगलियाँ स्वत: अगला पन्ना पलट देतीं...


"प्यार हमें लड़ने की हिम्मत देता है, प्यार जीने के लिए प्रेरित करता है, प्यार हमें हौसला देता है...

लेकिन जब आप धीरे-धीरे मौत की ओर बढ़ रहे हों और आपको उसी प्यार के सहारे की जरूरत हो आपको पूरा विश्वास होता है कि आपका प्यार आपको हाथ पकड़कर मौत के दरवाजे से खींच लाएगा और उसी समय आपका वही प्यार एक झटके से अपना हाथ खींचकर आपके सामने किसी और का हाथ थाम ले तब......

यही प्यार एक ऐसा नासूर बन जाता है जो न तो जीने देता है और न ही मरने देता है। इसी प्यार के नासूर से विश्वासघात का विष मवाद बन रोज सुबह-शाम आँखों से ढुरता है और शरीर एक ऐसा शापित पिंजरा बन जाता है जिसमें से आत्मा बाहर निकलने को पंख फड़फड़ाती है, तड़पती है, इसकी तीलियों से सिर पटकती है पर यह पिंजरा तोड़ नहीं पाती और वह पिंजरा समाज, परंपरा और लोग क्या कहेंगे का आलंबन पा मजबूत और मजबूत होता जाता है और इसमें कैद विश्वासघात के आघात से जख्मी मन और छली गई आत्मा दिन-ब-दिन उपेक्षाओं और तिरस्कारों के तीर सह-सहकर बेबस, निरीह और कमजोर और कमजोर होती जाती है।"


पढ़ते-पढ़ते उसकी उँगलियाँ यंत्रचालित सी स्वत: पन्ने पलटती जातीं और वह निर्बाध आगे पढ़ती जा रही थी..

क्रमशः

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

रविवार

अरु..भाग-२

 

प्रिय पाठक!

प्रथम भाग में आपने पढ़ा कि सौम्या को किसी स्त्री के सिसकने की आवाज आती है और वह डर जाती है। धीरे-धीरे आवाज आनी बंद हो जाती है और बहुत प्रयत्न करके वह भी नींद के आगोश में समा जाती है....

अब आगे...

अलार्म की आवाज सुनकर उसकी नींद खुली। सुबह के छः बज रहे थे, उसे ध्यान आया कि उसने रात को रसोई भी साफ नहीं किया था, बच्चों के स्कूल जाने से पहले उसे रसोई साफ करके नाश्ता तैयार करना है। वह हड़बड़ाकर  जल्दी से उठी और बालों का जूड़ा बनाते हुए लगभग भागती हुई नीचे आई। रसोई में जाने से पहले वह कॉमन वॉश रूम की ओर मुड़ गई क्योंकि जल्दबाजी में वह वॉशरूम जाना भी भूल गई थी। जैसे ही उसने वॉशरूम की बत्ती जलाई उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं। वह पीछे मुड़कर कभी ऊपर की ओर बच्चों के कमरों की ओर देखती तो कभी इधर-उधर देखती पर बच्चों के कमरों का दरवाजा बंद था और नीचे हॉल में भी कोई नहीं था, फिर वॉशरूम में कौन आया?? उसका दिमाग घूम गया..ऐसा लग रहा था जैसे अभी-अभी किसी ने वॉशरूम के फर्श को धोकर वाइपर लगाया है, उसकी नजर ऊपर गई, शावर भी गीला था। तो क्या कोई नहाकर गया है यहाँ से? वह उल्टे पाँव रसोई में आ गई और रसोई की हालत देखते ही ठिठक गई। उसने तो रात को रसोई साफ ही नहीं किया था, सारे बर्तन फैले हुए थे..फिर साफ किसने किया? सबकुछ अपनी जगह पर था, स्लैब चमक रहा था जैसे अभी कोई साफ करके गया हो। 

अलंकृता..हाँ.. उसी ने किया होगा..। सोचते हुए वह फिर ऊपर गई और अलंकृता के कमरे में झाँककर देखा, वह सो रही थी। 'कोई बात नहीं, जब उठेगी तब पूछूँगी।' सोचते हुए वह अपने कमरे में आ गई और अलमारी में से कपड़े लेकर वॉशरूम में चली गई। 


अनिरुद्ध और दोनों बच्चों को नाश्ता परोसते हुए सौम्या ने अलंकृता से पूछा- "कृति आज तू सुबह जल्दी उठ कर नहा-धोकर फिर क्यों सो गई?" 

"क्या! जल्दी उठी, मैं?..और नहा-धोकर फिर सो गई! आप भी ना मम्मी, अरे मजाक भी ऐसा करती हो जिस पर बिल्कुल हँसी नहीं आती।" अलंकृता पहले तो हैरान हुई फिर सौम्या की बात को मजाक समझकर बोली।


"तूने सुबह मेरे उठने से पहले रसोई नहीं साफ की?" अब सौम्या अनजाने भय से आशंकित हो उठी थी।

"मम्मी आप क्या कह रही हो? मैं आज तक कभी आपसे पहले जागी हूँ जो आज जागकर रसोई साफ कर दूँगी?" 

"आज रात से तुम्हारी मम्मी को अजीब-अजीब से सपने आ रहे हैं, तुम लोग इन बातों पर ध्यान मत दो नाश्ता खत्म करो तो मैं तुम्हें स्कूल छोड़ दूँ।" अनिरुद्ध ने सौम्या की ओर देखते हुए कहा। सौम्या बच्चों को डराना नहीं चाहती थी इसलिए वह चुप हो गई। 

बच्चों के जाने के बाद वह फिर से बचे हुए कार्टन में से एक को खोलकर उसमें से डेकोरेशन का सामान निकालकर स्टोर रूम में रखने लगी। तभी अलमारी के ऊपर रखा एक प्लास्टिक का अटैचीनुमा बॉक्स गिर पड़ा। सौम्या ने उसे उठा कर फिर से वहीं ऊपर रखना चाहा लेकिन वह बॉक्स खुल गया और उसमें रखा सामान बिखर गया। एक और काम बढ़ जाने के अहसास से ही वह खीझ गई और उसे ज्यों का त्यों छोड़कर बाहर आ गई और दूसरे बॉक्स खोलकर उनके सामान लगाने लगी। उसके दिमाग में अब भी बार-बार यही प्रश्न घूम रहा था कि रसोई और वॉशरूम किसने साफ किया? पर उसके पास इसका कोई जवाब नहीं था। 

सौम्या को पढ़ने में रुचि थी इसलिए उसके पास तरह-तरह की पुस्तकों का संग्रह था। ये आखिरी कार्टन पुस्तकों का बचा हुआ था, लेकिन इसे उठाकर ले जाना उसके लिए संभव नहीं था। उसने थोड़ी-थोड़ी पुस्तकें ले जाना उचित समझा। उसने पहले जाकर स्टडी रूम का दरवाजा खोला। यह कमरा मध्यम आकार का था। 

दरवाजे वाली दीवार पर बुक शेल्फ बने थे जिनमें पुस्तकों का अच्छा-खासा संग्रह था।  नीचे की तरफ केबिनेट बने हुए थे। दरवाजे के ठीक सामने लगभग आधी दीवार में शो-केस था जिसमें कई शील्ड, सर्टिफिकेट, मोमेंटो आदि रखे थे। बैठकर पढ़ने के लिए मेज और दो कुर्सियाँ थीं। सौम्या अब जितना उठा सकती थी उतनी ही पुस्तकें लाकर मेज पर रखती जाती ताकि जब सारी पुस्तकें आ जाएँगी तब एक साथ ही उन्हें लगाएगी। 

शाम हो गई, बच्चे स्कूल और कॉलेज से आकर सो गए थे, सौम्या ने उन दोनों को जगाकर पढ़ने के लिए कहा और खाना बनाने की तैयारी करने लगी। 


मॉम! स्टडी टेबल पर तो आपने पुस्तकों की इमारत बना रखी है, फिर हम वहाँ कैसे पढ़ें?" अस्मि ने कहा।

"बेटा आज आप लोग अपने कमरे में मैनेज कर लो, कल मैं सारी पुस्तकें रख दूँगी।" सौम्या ने कहा और खाना बनाने में व्यस्त हो गई। बच्चों के साथ खाना खाकर उसने रसोई साफ की और अपने कमरे में जाते हुए बच्चों के कमरे में झाँककर देखा, दोनों सो रही थीं।

अनिरुद्ध आज ऑफिस के किसी काम से आउट ऑफ स्टेशन गया है। सौम्या को नींद नहीं आ रही थी तो वह शॉल लपेटती हुई बालकनी में आकर खड़ी हो गई और अतीत के पथरीले पथ पर ख्यालों के अश्व निर्बाध दौड़ने लगे....


आज वह अपने शारीरिक व्याधि से मुक्त हो चुकी है, कैंसर ने शरीर के जिस अंग को सड़ा दिया था उसे काटकर शरीर से अलग कर दिया गया पर अब उस कैंसर रूपी रिश्ते का क्या करे जो सड़ चुका है, जिसे वह न तो अपना पा रही है न ही काटकर अलग कर पा रही है। हर पल हर घड़ी उस मृतप्राय रिश्ते के बोझ तले दबी घुटती रहती है उसकी आँखों के समक्ष रह-रहकर वो दृश्य घूमने लगता है, जिसने उसके रिश्ते को, उसके विश्वास को लहुलुहान कर दिया था। उसकी आँखें भर आईं, सीने में अजीब सा दर्द हुआ और वह सिसक पड़ी, तभी हवा के झोंके संग उड़ता हुआ एक पीत वर्ण पत्ता आकर उसके गाल पर ऐसे चिपक गया मानो उसके आँसू पोंछते हुए कह रहा हो 'मत रो पगली, मुझे देख मैं भी तो अपनी शाख से विलगित हो गया, पर रोया नहीं बल्कि खुद को हालातों पर छोड़ दिया। तू तो इंसान है, सशक्त है, फिर क्यों नहीं बनाती नए आयाम? क्यों जी रही है भूत में? थाम वर्तमान की उँगली और रच डाल अपना नया भविष्य।'

उसने अपने गीले कपोल से वह पत्ता हटाया और उसे हाथ में पकड़ कर अपलक निहारने लगी। वह मुरझाया हुआ सा पीला पत्ता अपनी चमक, हरियाली और ताजगी खो चुका था इसीलिए अपनी शाख से अलग कर दिया गया परंतु मैं तो अब मुरझाई, कांतिहीन और कुरूप हुई हूँ पर अपनी शाख से तो वर्षों पहले अलग कर दी गई। बस मैं ही जबरन उस शाख से लिपटी रही और जान ही न पाई कि मैं कब की त्यागी जा चुकी हूँ। सोचते हुए उसके हाथ से पत्ता कब छूटकर गिर गया उसे पता ही न चला।  उसे अपने पैर बेजान और उसके शरीर का बोझ उठाने में असक्षम से महसूस हुए, वह वहीं रखी कुर्सी पर धम्म से बैठ गई। यह वही अनिरुद्ध है जो उसे हर हाल में खुश रखना चाहता था, कभी उसकी आँखों में आँसू नहीं देख पाता था, आज उसी ने उसे हमेशा के लिए रोने के लिए छोड़ दिया। वह कुर्सी पर पीछे की ओर सिर टिकाकर आँखें बंद करके बैठ गई और धीरे-धीरे अतीत की गहराइयों में खोने ही लगी थी कि अचानक उसे महसूस हुआ कि कहीं से किसी के जोर-जोर से रोने की आवाज आ रही थी। आज यह आवाज कल से अधिक तेज और स्पष्ट थी। उसे डर लगने लगा इसलिए वह उठी और आकर चुपचाप लेट गई। रोने की आवाज लगातार आ रही थी, उसे ऐसा लगा जैसे कोई उसके कमरे में झाँककर गया है। अब उससे रहा नहीं गया, कहीं बच्चों के कमरे में तो नहीं गया कोई! वह उठी और शॉल ओढ़ती हुई बाहर आई। उसने बच्चों के कमरों में जाकर देखा, वो दोनों गहरी नींद में सो रहे थे। किसी स्त्री के सिसकने की आवाज लगातार आ रही थी। जीरो वॉट के बल्ब की मद्धिम रोशनी में उसे ऊपर कॉरीडोर में और नीचे हॉल में कहीं कोई दिखाई नहीं दिया। उसने बाहर की बत्तियाँ जला दीं और आवाज  की दिशा में चलती हुई स्टोर रूम के बाहर पहुँच गई। स्टोर रूम का दरवाजा खुला था, पर ये कैसे हो सकता है? उसे याद है कि उसने दरवाजा बाहर से बंद किया था फिर इसे खोला किसने? सिसकने की आवाज लगातार आ रही थी। सौम्या भीतर जाने का साहस नहीं कर पा रही थी लेकिन ऐसे किसी को रोते सुनकर अनसुना भी तो नहीं कर सकती थी। उसने हिम्मत करके दरवाजे पर खड़े होकर अंदर की ओर दरवाजे के बगल में लगे स्विच बोर्ड को टटोलकर बत्ती जला दी। पूरा कमरा रोशनी में नहा गया। वह वहीं खड़ी होकर बड़े ध्यान से इधर-उधर नजरें दौड़ाते हुए वहाँ रखे सामानों के पीछे देखने की कोशिश कर रही थी पर कहीं कोई नहीं था तभी अचानक उसे याद आया कि यहाँ तो बॉक्स का सामान फैला हुआ था!!! 'य..ये कैसे हो सकता है... व..वो बॉक्स कहाँ गया?' वह अपने-आप से ही बड़बड़ाई और कमरे में नजर दौड़ाने लगी तो यह देखकर और अधिक चौंक गई कि वह बॉक्स तो उसी स्थान पर रखा हुआ है जहाँ पहले था। 

"ये किसने किया होगा?"  उसके मुँह से निकला। तभी उसे ध्यान आया कि रोने की आवाज तो बंद हो चुकी थी। उसने बाहर निकलते हुए बत्ती बंद कर दिया और कमरे का दरवाजा बंद करके कॉरीडोर की बत्तियाँ भी बंद कर दीं और अपने कमरे में चली गई। 

उसकी आँखों से नींद अब उड़ चुकी थी, कानों में वही सिसकियाँ गूँज रही थीं, मन ही मन अब डर लग रहा था कि कहीं यह घर भूतिया तो नहीं?? यह ख्याल आते ही वह झटके से उठ बैठी। 

"धत् मैं भी क्या-क्या सोचने लगी!" अगले ही पल अपने सिर पर हल्के से धौल जमाते हुए वह बड़बड़ाई।

"भूत-प्रेत वो भी आज के जमाने में! जहाँ इंसानों को रहने की जगह नहीं मिल रही वहाँ बेचारे भूत-प्रेत कैसे रहेंगे? मैं आज के जमाने की पढ़ी-लिखी महिला होकर भी क्या सोचने लगी! सच कहते हैं कि अगर दिमाग पर डर हावी हो जाए तो इंसान कुछ भी सोचने लग जाता है।" वह मुस्कुराते हुए अपने-आप से ही बड़बड़ाई। 


उसने दीवार घड़ी पर नज़र डाली, साढ़े तीन बजे रहे थे। 'नींद तो अब आएगी नहीं, क्यों न स्टडी रूम ही साफ कर लूँ।' सोचते हुए वह उठी और स्टडी रूम की ओर चल दी। वहाँ शेल्फ में पहले से रखी पुस्तकों को साफ करके दूसरी ओर की शेल्फ में लगाने लगी, तभी उसे एक पुरानी डायरी मिली। उसने डायरी को बड़े ध्यान से देखा, जहाँ दूसरी पुस्तकों पर धूल जमी हुई थी वहीं इस डायरी पर धूल का एक कण भी नहीं था, जैसे किसी ने अभी ही इसे झाड़ पोंछ कर रखा हो। जिज्ञासा वश वह वहीं बैठकर डायरी के पन्ने पलटने लगी...

पहले पन्ने पर ही लिखा था...


"अनकही बातें कई...

जो सदा मेरे दिल में रहीं,

आज उतार रही पन्नों पर

जो शायद कभी न जाएँ पढ़ी

बातें...जो मेरी अपनी हैं...

दूजे से बाँट सकती नहीं,

मुस्कुराहटों की है जो चिलमन

वो चिलमन हटा सकती नहीं..."


पंक्तियों को पढ़ते ही सौम्या आगे पढ़ने से खुद को रोक नहीं पाई और उसकी उँगलियों ने स्वत: पन्ना पटल दिया...


"नैतिकता अनैतिकता के दो राहे पर अटकी मेरी यह जीवन गाथा कब पूर्णतः अनैतिक हो गई मैं खुद भी न समझ सकी। लाख कोशिश की, अपनी पूरी क्षमता लगा दी यहाँ तक कि अपना तन-मन दोनों इस नैतिकता पर न्योछावर कर दिया पर आज खाली, कुरूप और व्याधियुक्त तन लिए नितांत शून्य मन के साथ अपनी दोनों खाली हथेलियाँ अपने समक्ष पसारे सोच रही हूँ कि जिस नैतिकता का बीजारोपण करने का भ्रम पाल रखा था वो कहाँ है...आज तो मैं स्वयं को भुजाहीन पाती हूँ, जो मेरा गर्व था वो खंडित ही नहीं हुआ बल्कि नैतिकता के दाह संस्कार में धुआँ बनकर उड़ गया। पीछे मुड़कर देखती हूँ तो खुद को दीन-हीन लाचार सी सुनसान सड़क के किनारे खड़े उस वृक्ष की भाँति पाती हूँ, जो निर्जन मार्ग पर सूखी टहनियों, सूखे दरख्त के रूप में खड़ा है। जिस पर न तो नैतिकता के पत्ते हैं न संस्कारों के फल, जो न तो पक्षियों को आश्रय देने में समर्थ है, न ही थके मांदे पथिकों को दो पल की छाँव। सोचती हूँ कि क्या अर्थ रह जाता है उस वृक्ष का? क्यों निरर्थक ही स्थान घेरे खड़ा है? हाँ..उसके समक्ष दो-तीन नव पल्लवित और युवा होते वृक्ष जरूर उस स्थान के खाली होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं, तो क्यों न मुझे उस स्थान को खाली कर देना चाहिए।"

'कितना दर्द है, ऐसा लगता है कि एक-एक शब्द दिल की गहराई से निकालकर आँसुओं में भिगो कर पन्ने पर उतारे गए हैं।' सोचते हुए उसने पन्ना पलटा..

क्रमशः 

मालती मिश्रा 'मयंती'

चित्र- साभार... गूगल से

यदि पूरा उपन्यास एक साथ पढ़ना चाहते हैं तो नीचे दिए लिंक पर क्लिक करके पूरा उपन्यास एक साथ पढ़ें...

https://pratilipi.page.link/rUwjM2zKmFScd8zy8