रविवार

अरु..भाग-२

 

प्रिय पाठक!

प्रथम भाग में आपने पढ़ा कि सौम्या को किसी स्त्री के सिसकने की आवाज आती है और वह डर जाती है। धीरे-धीरे आवाज आनी बंद हो जाती है और बहुत प्रयत्न करके वह भी नींद के आगोश में समा जाती है....

अब आगे...

अलार्म की आवाज सुनकर उसकी नींद खुली। सुबह के छः बज रहे थे, उसे ध्यान आया कि उसने रात को रसोई भी साफ नहीं किया था, बच्चों के स्कूल जाने से पहले उसे रसोई साफ करके नाश्ता तैयार करना है। वह हड़बड़ाकर  जल्दी से उठी और बालों का जूड़ा बनाते हुए लगभग भागती हुई नीचे आई। रसोई में जाने से पहले वह कॉमन वॉश रूम की ओर मुड़ गई क्योंकि जल्दबाजी में वह वॉशरूम जाना भी भूल गई थी। जैसे ही उसने वॉशरूम की बत्ती जलाई उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं। वह पीछे मुड़कर कभी ऊपर की ओर बच्चों के कमरों की ओर देखती तो कभी इधर-उधर देखती पर बच्चों के कमरों का दरवाजा बंद था और नीचे हॉल में भी कोई नहीं था, फिर वॉशरूम में कौन आया?? उसका दिमाग घूम गया..ऐसा लग रहा था जैसे अभी-अभी किसी ने वॉशरूम के फर्श को धोकर वाइपर लगाया है, उसकी नजर ऊपर गई, शावर भी गीला था। तो क्या कोई नहाकर गया है यहाँ से? वह उल्टे पाँव रसोई में आ गई और रसोई की हालत देखते ही ठिठक गई। उसने तो रात को रसोई साफ ही नहीं किया था, सारे बर्तन फैले हुए थे..फिर साफ किसने किया? सबकुछ अपनी जगह पर था, स्लैब चमक रहा था जैसे अभी कोई साफ करके गया हो। 

अलंकृता..हाँ.. उसी ने किया होगा..। सोचते हुए वह फिर ऊपर गई और अलंकृता के कमरे में झाँककर देखा, वह सो रही थी। 'कोई बात नहीं, जब उठेगी तब पूछूँगी।' सोचते हुए वह अपने कमरे में आ गई और अलमारी में से कपड़े लेकर वॉशरूम में चली गई। 


अनिरुद्ध और दोनों बच्चों को नाश्ता परोसते हुए सौम्या ने अलंकृता से पूछा- "कृति आज तू सुबह जल्दी उठ कर नहा-धोकर फिर क्यों सो गई?" 

"क्या! जल्दी उठी, मैं?..और नहा-धोकर फिर सो गई! आप भी ना मम्मी, अरे मजाक भी ऐसा करती हो जिस पर बिल्कुल हँसी नहीं आती।" अलंकृता पहले तो हैरान हुई फिर सौम्या की बात को मजाक समझकर बोली।


"तूने सुबह मेरे उठने से पहले रसोई नहीं साफ की?" अब सौम्या अनजाने भय से आशंकित हो उठी थी।

"मम्मी आप क्या कह रही हो? मैं आज तक कभी आपसे पहले जागी हूँ जो आज जागकर रसोई साफ कर दूँगी?" 

"आज रात से तुम्हारी मम्मी को अजीब-अजीब से सपने आ रहे हैं, तुम लोग इन बातों पर ध्यान मत दो नाश्ता खत्म करो तो मैं तुम्हें स्कूल छोड़ दूँ।" अनिरुद्ध ने सौम्या की ओर देखते हुए कहा। सौम्या बच्चों को डराना नहीं चाहती थी इसलिए वह चुप हो गई। 

बच्चों के जाने के बाद वह फिर से बचे हुए कार्टन में से एक को खोलकर उसमें से डेकोरेशन का सामान निकालकर स्टोर रूम में रखने लगी। तभी अलमारी के ऊपर रखा एक प्लास्टिक का अटैचीनुमा बॉक्स गिर पड़ा। सौम्या ने उसे उठा कर फिर से वहीं ऊपर रखना चाहा लेकिन वह बॉक्स खुल गया और उसमें रखा सामान बिखर गया। एक और काम बढ़ जाने के अहसास से ही वह खीझ गई और उसे ज्यों का त्यों छोड़कर बाहर आ गई और दूसरे बॉक्स खोलकर उनके सामान लगाने लगी। उसके दिमाग में अब भी बार-बार यही प्रश्न घूम रहा था कि रसोई और वॉशरूम किसने साफ किया? पर उसके पास इसका कोई जवाब नहीं था। 

सौम्या को पढ़ने में रुचि थी इसलिए उसके पास तरह-तरह की पुस्तकों का संग्रह था। ये आखिरी कार्टन पुस्तकों का बचा हुआ था, लेकिन इसे उठाकर ले जाना उसके लिए संभव नहीं था। उसने थोड़ी-थोड़ी पुस्तकें ले जाना उचित समझा। उसने पहले जाकर स्टडी रूम का दरवाजा खोला। यह कमरा मध्यम आकार का था। 

दरवाजे वाली दीवार पर बुक शेल्फ बने थे जिनमें पुस्तकों का अच्छा-खासा संग्रह था।  नीचे की तरफ केबिनेट बने हुए थे। दरवाजे के ठीक सामने लगभग आधी दीवार में शो-केस था जिसमें कई शील्ड, सर्टिफिकेट, मोमेंटो आदि रखे थे। बैठकर पढ़ने के लिए मेज और दो कुर्सियाँ थीं। सौम्या अब जितना उठा सकती थी उतनी ही पुस्तकें लाकर मेज पर रखती जाती ताकि जब सारी पुस्तकें आ जाएँगी तब एक साथ ही उन्हें लगाएगी। 

शाम हो गई, बच्चे स्कूल और कॉलेज से आकर सो गए थे, सौम्या ने उन दोनों को जगाकर पढ़ने के लिए कहा और खाना बनाने की तैयारी करने लगी। 


मॉम! स्टडी टेबल पर तो आपने पुस्तकों की इमारत बना रखी है, फिर हम वहाँ कैसे पढ़ें?" अस्मि ने कहा।

"बेटा आज आप लोग अपने कमरे में मैनेज कर लो, कल मैं सारी पुस्तकें रख दूँगी।" सौम्या ने कहा और खाना बनाने में व्यस्त हो गई। बच्चों के साथ खाना खाकर उसने रसोई साफ की और अपने कमरे में जाते हुए बच्चों के कमरे में झाँककर देखा, दोनों सो रही थीं।

अनिरुद्ध आज ऑफिस के किसी काम से आउट ऑफ स्टेशन गया है। सौम्या को नींद नहीं आ रही थी तो वह शॉल लपेटती हुई बालकनी में आकर खड़ी हो गई और अतीत के पथरीले पथ पर ख्यालों के अश्व निर्बाध दौड़ने लगे....


आज वह अपने शारीरिक व्याधि से मुक्त हो चुकी है, कैंसर ने शरीर के जिस अंग को सड़ा दिया था उसे काटकर शरीर से अलग कर दिया गया पर अब उस कैंसर रूपी रिश्ते का क्या करे जो सड़ चुका है, जिसे वह न तो अपना पा रही है न ही काटकर अलग कर पा रही है। हर पल हर घड़ी उस मृतप्राय रिश्ते के बोझ तले दबी घुटती रहती है उसकी आँखों के समक्ष रह-रहकर वो दृश्य घूमने लगता है, जिसने उसके रिश्ते को, उसके विश्वास को लहुलुहान कर दिया था। उसकी आँखें भर आईं, सीने में अजीब सा दर्द हुआ और वह सिसक पड़ी, तभी हवा के झोंके संग उड़ता हुआ एक पीत वर्ण पत्ता आकर उसके गाल पर ऐसे चिपक गया मानो उसके आँसू पोंछते हुए कह रहा हो 'मत रो पगली, मुझे देख मैं भी तो अपनी शाख से विलगित हो गया, पर रोया नहीं बल्कि खुद को हालातों पर छोड़ दिया। तू तो इंसान है, सशक्त है, फिर क्यों नहीं बनाती नए आयाम? क्यों जी रही है भूत में? थाम वर्तमान की उँगली और रच डाल अपना नया भविष्य।'

उसने अपने गीले कपोल से वह पत्ता हटाया और उसे हाथ में पकड़ कर अपलक निहारने लगी। वह मुरझाया हुआ सा पीला पत्ता अपनी चमक, हरियाली और ताजगी खो चुका था इसीलिए अपनी शाख से अलग कर दिया गया परंतु मैं तो अब मुरझाई, कांतिहीन और कुरूप हुई हूँ पर अपनी शाख से तो वर्षों पहले अलग कर दी गई। बस मैं ही जबरन उस शाख से लिपटी रही और जान ही न पाई कि मैं कब की त्यागी जा चुकी हूँ। सोचते हुए उसके हाथ से पत्ता कब छूटकर गिर गया उसे पता ही न चला।  उसे अपने पैर बेजान और उसके शरीर का बोझ उठाने में असक्षम से महसूस हुए, वह वहीं रखी कुर्सी पर धम्म से बैठ गई। यह वही अनिरुद्ध है जो उसे हर हाल में खुश रखना चाहता था, कभी उसकी आँखों में आँसू नहीं देख पाता था, आज उसी ने उसे हमेशा के लिए रोने के लिए छोड़ दिया। वह कुर्सी पर पीछे की ओर सिर टिकाकर आँखें बंद करके बैठ गई और धीरे-धीरे अतीत की गहराइयों में खोने ही लगी थी कि अचानक उसे महसूस हुआ कि कहीं से किसी के जोर-जोर से रोने की आवाज आ रही थी। आज यह आवाज कल से अधिक तेज और स्पष्ट थी। उसे डर लगने लगा इसलिए वह उठी और आकर चुपचाप लेट गई। रोने की आवाज लगातार आ रही थी, उसे ऐसा लगा जैसे कोई उसके कमरे में झाँककर गया है। अब उससे रहा नहीं गया, कहीं बच्चों के कमरे में तो नहीं गया कोई! वह उठी और शॉल ओढ़ती हुई बाहर आई। उसने बच्चों के कमरों में जाकर देखा, वो दोनों गहरी नींद में सो रहे थे। किसी स्त्री के सिसकने की आवाज लगातार आ रही थी। जीरो वॉट के बल्ब की मद्धिम रोशनी में उसे ऊपर कॉरीडोर में और नीचे हॉल में कहीं कोई दिखाई नहीं दिया। उसने बाहर की बत्तियाँ जला दीं और आवाज  की दिशा में चलती हुई स्टोर रूम के बाहर पहुँच गई। स्टोर रूम का दरवाजा खुला था, पर ये कैसे हो सकता है? उसे याद है कि उसने दरवाजा बाहर से बंद किया था फिर इसे खोला किसने? सिसकने की आवाज लगातार आ रही थी। सौम्या भीतर जाने का साहस नहीं कर पा रही थी लेकिन ऐसे किसी को रोते सुनकर अनसुना भी तो नहीं कर सकती थी। उसने हिम्मत करके दरवाजे पर खड़े होकर अंदर की ओर दरवाजे के बगल में लगे स्विच बोर्ड को टटोलकर बत्ती जला दी। पूरा कमरा रोशनी में नहा गया। वह वहीं खड़ी होकर बड़े ध्यान से इधर-उधर नजरें दौड़ाते हुए वहाँ रखे सामानों के पीछे देखने की कोशिश कर रही थी पर कहीं कोई नहीं था तभी अचानक उसे याद आया कि यहाँ तो बॉक्स का सामान फैला हुआ था!!! 'य..ये कैसे हो सकता है... व..वो बॉक्स कहाँ गया?' वह अपने-आप से ही बड़बड़ाई और कमरे में नजर दौड़ाने लगी तो यह देखकर और अधिक चौंक गई कि वह बॉक्स तो उसी स्थान पर रखा हुआ है जहाँ पहले था। 

"ये किसने किया होगा?"  उसके मुँह से निकला। तभी उसे ध्यान आया कि रोने की आवाज तो बंद हो चुकी थी। उसने बाहर निकलते हुए बत्ती बंद कर दिया और कमरे का दरवाजा बंद करके कॉरीडोर की बत्तियाँ भी बंद कर दीं और अपने कमरे में चली गई। 

उसकी आँखों से नींद अब उड़ चुकी थी, कानों में वही सिसकियाँ गूँज रही थीं, मन ही मन अब डर लग रहा था कि कहीं यह घर भूतिया तो नहीं?? यह ख्याल आते ही वह झटके से उठ बैठी। 

"धत् मैं भी क्या-क्या सोचने लगी!" अगले ही पल अपने सिर पर हल्के से धौल जमाते हुए वह बड़बड़ाई।

"भूत-प्रेत वो भी आज के जमाने में! जहाँ इंसानों को रहने की जगह नहीं मिल रही वहाँ बेचारे भूत-प्रेत कैसे रहेंगे? मैं आज के जमाने की पढ़ी-लिखी महिला होकर भी क्या सोचने लगी! सच कहते हैं कि अगर दिमाग पर डर हावी हो जाए तो इंसान कुछ भी सोचने लग जाता है।" वह मुस्कुराते हुए अपने-आप से ही बड़बड़ाई। 


उसने दीवार घड़ी पर नज़र डाली, साढ़े तीन बजे रहे थे। 'नींद तो अब आएगी नहीं, क्यों न स्टडी रूम ही साफ कर लूँ।' सोचते हुए वह उठी और स्टडी रूम की ओर चल दी। वहाँ शेल्फ में पहले से रखी पुस्तकों को साफ करके दूसरी ओर की शेल्फ में लगाने लगी, तभी उसे एक पुरानी डायरी मिली। उसने डायरी को बड़े ध्यान से देखा, जहाँ दूसरी पुस्तकों पर धूल जमी हुई थी वहीं इस डायरी पर धूल का एक कण भी नहीं था, जैसे किसी ने अभी ही इसे झाड़ पोंछ कर रखा हो। जिज्ञासा वश वह वहीं बैठकर डायरी के पन्ने पलटने लगी...

पहले पन्ने पर ही लिखा था...


"अनकही बातें कई...

जो सदा मेरे दिल में रहीं,

आज उतार रही पन्नों पर

जो शायद कभी न जाएँ पढ़ी

बातें...जो मेरी अपनी हैं...

दूजे से बाँट सकती नहीं,

मुस्कुराहटों की है जो चिलमन

वो चिलमन हटा सकती नहीं..."


पंक्तियों को पढ़ते ही सौम्या आगे पढ़ने से खुद को रोक नहीं पाई और उसकी उँगलियों ने स्वत: पन्ना पटल दिया...


"नैतिकता अनैतिकता के दो राहे पर अटकी मेरी यह जीवन गाथा कब पूर्णतः अनैतिक हो गई मैं खुद भी न समझ सकी। लाख कोशिश की, अपनी पूरी क्षमता लगा दी यहाँ तक कि अपना तन-मन दोनों इस नैतिकता पर न्योछावर कर दिया पर आज खाली, कुरूप और व्याधियुक्त तन लिए नितांत शून्य मन के साथ अपनी दोनों खाली हथेलियाँ अपने समक्ष पसारे सोच रही हूँ कि जिस नैतिकता का बीजारोपण करने का भ्रम पाल रखा था वो कहाँ है...आज तो मैं स्वयं को भुजाहीन पाती हूँ, जो मेरा गर्व था वो खंडित ही नहीं हुआ बल्कि नैतिकता के दाह संस्कार में धुआँ बनकर उड़ गया। पीछे मुड़कर देखती हूँ तो खुद को दीन-हीन लाचार सी सुनसान सड़क के किनारे खड़े उस वृक्ष की भाँति पाती हूँ, जो निर्जन मार्ग पर सूखी टहनियों, सूखे दरख्त के रूप में खड़ा है। जिस पर न तो नैतिकता के पत्ते हैं न संस्कारों के फल, जो न तो पक्षियों को आश्रय देने में समर्थ है, न ही थके मांदे पथिकों को दो पल की छाँव। सोचती हूँ कि क्या अर्थ रह जाता है उस वृक्ष का? क्यों निरर्थक ही स्थान घेरे खड़ा है? हाँ..उसके समक्ष दो-तीन नव पल्लवित और युवा होते वृक्ष जरूर उस स्थान के खाली होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं, तो क्यों न मुझे उस स्थान को खाली कर देना चाहिए।"

'कितना दर्द है, ऐसा लगता है कि एक-एक शब्द दिल की गहराई से निकालकर आँसुओं में भिगो कर पन्ने पर उतारे गए हैं।' सोचते हुए उसने पन्ना पलटा..

क्रमशः 

मालती मिश्रा 'मयंती'

चित्र- साभार... गूगल से

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शनिवार

उठो लाल

 शीर्षक- उठो लाल


उठो लाल अब सुबह हो गई 

देखो कलियाँ भी खिल आईं,

चिड़िया चहक उठीं डाली पर

तुमको गीत सुनाने आईं।


पूरी रात नींद भर सोकर

मन से तमस दूर कर डाला,

बाल सूर्य ने आँखें खोलीं

पूरा विश्व लाल कर डाला।


भीनी खुश्बू ले पुरवैया

द्वार तुम्हरे दस्तक देती,

नवल प्रभात की ये ताजगी

मन के सब विकार हर लेती।


आज तो मुझे सोने दो माँ

सन्डे का सुख लेने दो माँ,

हर दिन सुबह विद्यालय भागूँ 

अपनी मधुर नींद को त्यागूँ।


तब भी सूरज आता होगा

कलियों को महकाता होगा,

मंद पवन भी बहती होगी

सभी उठें ये कहती होगी।


पर चिड़ियों की मधुर चहक को 

क्या कोई सुन पाता होगा,

सुरभित बयार की खुश्बू से

मन कैसे महकाता होगा।


भाग दौड़ से भरी जिन्दगी

कैसे उगता सूरज देखें,

वातावरण की दूषित हवा

कब सौरभ पुष्पों का निरखे।


सुन लो प्यारे सूरज दादा 

इतनी तो तुम दया दिखाते,

हफ्ते भर संग किया परिश्रम 

आज आप रविवार मनाते ।।


मालती मिश्रा, दिल्ली✍️

गुरुवार

खाली बेंच सी जिंदगी

 खाली बेंच सी जिंदगी


उस पुराने से दिखते मकान के बाहर

पेड़ों के झुरमुटों के बीच

कुछ छोटे-बड़े पेड़ों के नीचे

रखे उस खाली बेंच सी है जिंदगी

आँधी-तूफानों से घिरी हुई

धूप में तपती और वर्षा में सिहरती

सर्दियों की ठिठुरन में 

सर्द पड़ी हुई

हवाओं की लाई गर्द तन पर लपेटे

पतझड़ के पत्तों

से ढकी-सी जिंदगी

अंबर के साए में घर के आँचल से

अनछुई

धरती में जिद के पैर जमाए

बोझिल-सी

परित्यक्त जिंदगी 

इस खाली बेंच सी जिंदगी।


मालती मिश्रा 'मयंती'✍️


मंगलवार

उपन्यास कैसे लिखें

 उपन्यास लिखने के चरण


एक उपन्यास लिखना एक कठिन काम हो सकता है, लेकिन इसे प्रबंधनीय चरणों में विभाजित करने से प्रक्रिया को और अधिक प्रबंधनीय बनाने में मदद मिल सकती है। उपन्यास लिखते समय विचार करने के लिए यहां कुछ बुनियादी कदम दिए गए हैं:


विचार-मंथन और रूपरेखा: 

अपनी कहानी के लिए विचार-मंथन करके शुरुआत करें। प्लॉट, पात्रों, सेटिंग और थीम के बारे में सोचें जिन्हें आप एक्सप्लोर करना चाहते हैं। एक बार जब आप अपनी कहानी के बारे में सामान्य विचार प्राप्त कर लेते हैं, तो अपनी लेखन प्रक्रिया का मार्गदर्शन करने के लिए एक रूपरेखा तैयार करें।


चरित्रों का विकास करना: 

बैकस्टोरी, व्यक्तित्व लक्षण और प्रेरणाएँ बनाकर अपने मुख्य पात्रों को बाहर निकालें। यह आपको यथार्थवादी और भरोसेमंद चरित्र बनाने में मदद करेगा जिसकी पाठक परवाह करेंगे।

पहला मसौदा लिखना: 

एक बार जब आपके पास एक रूपरेखा और विकसित चरित्र तैयार हों, तो पहला मसौदा लिखना शुरू करने का समय आ गया है। इस स्तर पर अपने लेखन को बेहतर बनाने के बारे में ज्यादा चिंता न करें, बस अपने विचारों को कागज पर उतारने पर ध्यान दें।


संशोधन और संपादन: 

एक बार जब आप अपना पहला मसौदा पूरा कर लेते हैं, तो नए परिप्रेक्ष्य प्राप्त करने के लिए अपने काम से कुछ समय निकाल लें। फिर, वापस आकर अपने काम की समीक्षा करें, प्लॉट की खामियों, विसंगतियों और अन्य मुद्दों पर ध्यान दें जिन्हें ठीक करने की आवश्यकता है।


प्रतिक्रिया माँगना: 

उद्योग में बीटा पाठकों, लेखन समूहों या पेशेवरों से प्रतिक्रिया प्राप्त करें। अतिरिक्त संशोधन करने और अपनी कहानी को बेहतर बनाने के लिए इस फ़ीडबैक का उपयोग करें।


पॉलिश करना और प्रकाशित करना: 

एक बार जब आप अपनी कहानी से खुश हो जाते हैं, तो अपने लेखन को चमकाने और उसे प्रकाशन के लिए तैयार करने पर काम करें। इसमें एक पेशेवर संपादक को काम पर रखना, अपनी पांडुलिपि को प्रारूपित करना और अपने बुक कवर और मार्केटिंग योजना पर काम करना शामिल हो सकता है।


याद रखें, एक उपन्यास लिखने की प्रक्रिया लंबी और चुनौतीपूर्ण होती है, लेकिन इसे प्रबंधनीय चरणों में तोड़कर और लगातार बने रहने से, आप एक महान पुस्तक लिखने के अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। 


मालती मिश्रा 'मयंती'

रविवार

अरु.. (भाग-१)

उपन्यास...


इस उपन्यास के माध्यम से आइए चलते हैं अरुंधती के साथ उसके सफर पर.. 

दिसंबर की कड़ाके की सर्द शाम थी अभी सिर्फ छ: बजे थे लेकिन ऐसा प्रतीत हो रहा था कि बहुत रात हो गई है। सड़क के मध्य डिवाइडर पर लगे बिजली के खंभों में लगे मरकरी की दूधिया रोशनी और गाड़ियों की हेड लाइट्स न सिर्फ आसमान में इक्का-दुक्का चमकते तारों को धुंधला कर रही थी बल्कि चंद्रमा के अस्तित्व को भी नकार रही थी। कुछ तो सर्दी का असर और कुछ शनिवार होने के कारण अन्य दिनों की तुलना में सड़क पर ट्रैफिक कुछ कम था इसलिए अनिरुद्ध अस्सी की गति से कार ड्राइव कर रहा था। 
"अभी और कितनी दूर है अनिरुद्ध?" बगल में बैठी सौम्या ने कहा।
"हाँ डैड, हम तो बैठे-बैठे थक गए।" पीछे की सीट पर बैठी अट्ठारह वर्षीया अलंकृता बोली।
"अरे तो कोई भी अच्छी चीज पाने के लिए थोड़ा कष्ट तो उठाना पड़ता है ना! है ना डैड?" अलंकृता के साथ बैठी उसकी छोटी बहन अस्मिता बोली। अस्मिता की उम्र बारह वर्ष थी लेकिन घर में सबसे छोटी होने के कारण उसमें बचपना कुछ ज्यादा ही था। सभी उसे अस्मि कहकर बुलाते थे।
"बिल्कुल बेटे, इन दोनों माँ-बेटी को कहाँ पता है ये बात।" अनिरुद्ध ने अपनी बेटी का हौसला बढ़ाते हुए कहा तो अस्मि ने अपने दाएँ हाथ से अपनी कॉलर उठाकर बड़े रौब से अलंकृता की ओर देखा। 
थोड़ी ही देर में उनकी कार दिल्ली के वसंत कुंज जैसे पॉश एरिया में एक बंगले के सामने खड़ी थी। कॉलोनी के गेट से बंगले तक स्ट्रीट लाइट की दूधिया रोशनी में नहाए हुए सड़क के दोनों ओर की हरियाली और तेज हवा की साँय-साँय के साथ पत्तों की खड़खड़ाहट उस पर सर्दी के कारण चारों ओर फैला सन्नाटा माहौल में अजीब सी भयावहता का अहसास करा रहा था। सर्द अंधेरे में सिमटा छोटा सा बंगला, एक ओर पार्किंग, सामने और बायीं ओर से लॉन की आगोश में शांति से अपने नए मालिक का स्वागत करने को तत्पर था। लॉन के पेड़ों की परछाई बंगले के अस्तित्व को रहस्यमयी बना रही थीं। 
"डैड! अगर हम यहाँ दिन में आते तो ज्यादा अच्छा होता ना?" अलंकृता ने धीमी आवाज में कहा। 

"डर लग रहा है आपको?" अनिरुद्ध ने मुस्कुराते हुए कहा।

"नहीं.. लेकिन इस अंधेरे में तो हम ठीक से कुछ देख भी नहीं पाएँगे और अगर लाइट ठीक नहीं हुई तो..." अपने डर को छिपाने का असफल प्रयास करती हुई वह बोली। 

"डोंट वरी लाइट वगैरा सब चेक करवा लिया है, तुम लोग चलो मैं गाड़ी पार्क करके आता हूँ।" अनिरुद्ध ने बंगले का गेट खोलते हुए कहा।  
सौम्या ने गर्दन घुमाकर कर आसपास का जायजा लिया। उसके बंगले के लॉन की दीवार के बाहर एक फुटपाथ और उसके बाद पार्क था पार्क का गेट फुटपाथ पर ही खुलता था। पार्क के दूसरी ओर भी बिल्कुल ऐसा ही बंगला था, उसकी खिड़कियों से छनकर प्रकाश बाहर आ रहा था। ऐसा ही बंगला दूसरी ओर भी था। सौम्या ने पहली बार ध्यान दिया वहाँ आसपास ऐसे ही कई बंगले थे और खिड़कियों से छनकर आती रोशनी बता रही थी कि सिर्फ इस बंगले के अलावा बाकी सभी बंगलों में परिवार रहते हैं। अब वह आश्वस्त होकर अस्मि का हाथ पकड़े बंगले के अंदर आई। अब तक अनिरुद्ध भी गाड़ी पार्क करके अंदर आ चुका था। बरामदे की सीढ़ियाँ चढ़कर जब तक तीनों दरवाजे तक पहुँचे अनिरुद्ध ने मुख्य दरवाजे का ताला खोलकर बड़े से दरवाजे को जोर से अंदर ढकेला। चर्र की आवाज के साथ दरवाजा खुल गया। सामने घुप्प अंधेरा था, हाथ को हाथ सुझाई नहीं दे रहा था। मोबाइल का टॉर्च जलाकर उसने बिजली का स्विच ऑन कर दिया। एकाएक तेज रोशनी पूरे हॉल में फैल गई। बड़े से हॉल के बीचों-बीच बड़े-बड़े कार्टन में पैक उनका सामान रखा हुआ था। सोफे कुर्सियाँ सब चादरों से ढके हुए थे, दायीं ओर थोड़ी ऊँचाई पर बरामदे नुमा जगह पर डाइनिंग टेबल था और वहाँ ही रसोईघर था। हॉल से बायीं ओर दो कमरे थे जिनका दरवाजा बंद था। 
हॉल से सीढ़ियाँ ऊपर को जा रही थीं। अनिरुद्ध सौम्या को नीचे के कमरे दिखा रहा था, अलंकृता और अस्मि ने ऊपर सभी कमरे खोलकर उनकी बत्तियाँ जला दीं और घूम-घूमकर कहाँ क्या होगा, कौन सा कमरा किसका होगा इस पर चर्चा कर रहे थे। 

"कैसा लगा घर बच्चों?" अनिरुद्ध ने ऊपर आते हुए कहा।

"बहुत अच्छा है डैड, हम दोनों को बहुत पसंद आया।" अस्मि खुशी से चहकते हुए बोली। 

"तो अब चलो कुछ खा-पीकर काम में लग जाओ, सामान लगाने हैं न, हमारे पास तो बस आज की रात और कल का दिन ही है, परसों मुझे ऑफिस ज्वाइन करना है और आपकी मम्मी को आप लोगों के लिए स्कूल ढूँढ़कर एडमिशन करवाना है।" अनिरुद्ध ने कहा।

"लेकिन डैड स्कूल तो आपने पहले से ही ढूँढ़ रखा है न?" अलंकृता ने कहा। 

"हाँ..हाँ ढूँढ़ रखा है पर मैं देखकर ही निर्णय लूँगी, और तुम्हारे लिए कॉलेज भी तो देखना है। अब चलो सब खाना खाते हैं।" कहकर सौम्या सीढ़ियों की ओर चल दी। 

रसोई को प्रयोग के लायक थोड़ा साफ करके सौम्या ने अपने साथ लाया हुआ खाना गर्म किया और डाइनिंग टेबल साफ करके उस पर खाना लगा दिया। सबने हँसते-बातें करते हुए खाना खाया और फिर सामान लगाने में व्यस्त हो गए।
निर्धारित समय के अंदर सभी काम पूरे कर लिए थे अनिरुद्ध और सौम्या ने। तीन दिन हो गए थे उन्हें आए हुए और तभी से बिना रुके लगातार काम करते-करते सौम्या थक चुकी थी। थकान के कारण आज उसे नौ बजे ही नींद आ गई और बच्चों को खाना खिलाकर रसोई साफ किए बिना ही वह सो गई।

सौम्या सोते-सोते कसमसाई जैसे कोई सपना देख रही हो, उसे प्यास से गला सूखता हुआ महसूस हुआ और उसकी आँख खुल गई। उसने पलट कर देखा अनिरुद्ध गहरी नींद में सो रहा था। वह उठी और साइड टेबल पर से पानी का जग उठाकर गिलास में पानी डालने लगी पर जग में पानी नहीं था। पानी लेने के लिए वह नीचे रसोई में गई तभी उसे किसी के सिसकने की आवाज आई। जीरो वॉट के बल्ब की मद्धिम रोशनी में वह नजरें गड़ाकर इधर-उधर देखने लगी पर उसे कोई दिखाई नहीं दिया। सिसकियों की आवाज तेज होती जा रही थी, उसने ध्यान से सुना यह किसी महिला के रोने की आवाज थी। वह बिना पानी लिए हॉल में आ गई और जब उसे कोई दिखाई नहीं दिया तो वह तेज-तेज चलते हुए ऊपर अलंकृता के कमरे के बाहर पहुँच गई। कहीं अलंकृता ही तो नहीं रो रही! सोचते हुए उसने दरवाजे को हल्के से धकेला। दरवाजा खुल गया। अलंकृता तो गहरी नींद में सो रही थी। अपने मन की तसल्ली के लिए वह बेड के पास गई और धीरे से उसके चेहरे से रजाई सरकाकर देखा। उसे गहरी नींद में सोते देखकर उसने संतुष्ट होकर लंबी साँस ली और कमरे का दरवाजा पहले की तरह लगाकर बाहर आ गई। किसी महिला की सिसकियाँ उसे अब भी सुनाई दे रही थीं लेकिन यह आवाज कहाँ से आ रही थी यह उसे समझ नहीं आ रहा था। उसने अपनी संतुष्टि के लिए अस्मि को भी देखा पर वह भी गहरी नींद में सो रही थी। अब उसे थोड़ा डर लगने लगा था, प्यास से गला भी सूख रहा था पर अब रसोई में जाने का साहस नहीं हो रहा था। वह जल्दी से अपने कमरे में गई और अनिरुद्ध को जगाने लगी। 
"अनिरुद्ध उठो.. अनिरुद्ध...!" 

"क्या है यार क्यों नींद खराब कर रही हो!" अनिरुद्ध नींद में ही बड़बड़ाते हुए बैठ गया।

"कोई रो रहा है?" उसने धीमी आवाज में कहा।

"क्या! कौन रो रहा है?" एक पल में ही अनिरुद्ध की नींद ऐसे खुल गई जैसे कभी सोया ही न हो।

"सुनो उसकी सिसकियों की आवाज, कोई औरत है। बहुत देर से उसके रोने की आवाज आ रही है पर कोई दिखाई नहीं दे रहा।" वह इतने धीरे बोल रही थी जैसे उसे डर हो कि उसकी आवाज अनिरुद्ध के अलावा कोई और न सुन ले।

"क्या कह रही हो, मुझे कोई आवाज नहीं सुनाई दे रही।" अनिरुद्ध ने कहा।

"ध्यान से सुनो न! मैं झूठ नहीं बोल रही, सच में किसी के रोने की आवाज आ रही है।" सौम्या परेशान होकर बोली। 

"सौम्या सुनो..सुनो कभी-कभी ऐसा होता है कि हम कोई सपना देख लेते हैं और फिर जागने के बाद भी हमें सपने में देखे या सुनी गई आवाजों के सुनाई देने का भ्रम होता है। तुम सो जाओ सचमुच कोई आवाज नहीं आ रही है।" अनिरुद्ध उसको दोनों कंधों से पकड़कर समझाते हुए बोला।
शायद अनिरुद्ध सही कह रहा है, हो सकता है कि मैंने कोई सपना ही देखा होगा। उसने सोचा और लेट गई लेकिन प्यास से उसका गला अब भी सूख रहा था।
"अनिरुद्ध प्लीज रसोई से पानी ला दो, म..मुझे डर लग रहा है।" उसने कहा। 
"ठीक है तुम बैठो मैं लाता हूँ पानी।" कहकर वह नीचे चला गया। सौम्या की नजर दीवार घड़ी पर गई, रात के दो बज रहे थे। अनिरुद्ध पानी लेकर आया और गिलास में डालकर उसे दिया। पानी पीकर वह लेट गई, रोने की आवाज धीरे-धीरे धीमी होते-होते बंद हो गई। बहुत देर तक करवटें बदलते रहने और अपने-आप से सवाल-जवाब करते रहने के बाद आखिर सौम्या भी सो गई। 
क्रमशः
नोट- यदि पूरा उपन्यास एक साथ पढ़ना चाहते हैं तो नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके प्रतिलिपि पर पूरा उपन्यास एक साथ पढ़ें..

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चित्र साभार- गूगल 
मालती मिश्रा 'मयंती'




पुस्तक कैसे लिखें..

 पुस्तक कैसे लिखें..


पुस्तक लेखन एक लिखित कार्य बनाने की प्रक्रिया है जिसे पाठकों के आनंद लेने के लिए प्रकाशित और वितरित किया जा सकता है। किताब लिखना एक चुनौतीपूर्ण और समय लेने वाला काम हो सकता है, लेकिन यह उन लोगों के लिए एक पुरस्कृत अनुभव भी हो सकता है जिनके पास बताने के लिए कहानी या साझा करने के लिए जानकारी है।


विषय निर्धारित करें-

किताब लिखना शुरू करने के लिए, सबसे पहले यह जानना ज़रूरी है कि आप किस तरह की किताब लिखना चाहते हैं और आपके लक्षित दर्शक/पाठक कौन हैं। इससे आपको अपने लेखन पर ध्यान केंद्रित करने में मदद मिलेगी और यह सुनिश्चित होगा कि आपकी पुस्तक इस तरह से लिखी गई है जो आपके पाठकों को जोड़ेगी और उनके साथ प्रतिध्वनित होगी।


रूपरेखा तैयार करें-

एक बार आपके पास अपनी पुस्तक के लिए एक विचार होने के बाद, पुस्तक की संरचना के लिए एक रूपरेखा या योजना बनाना महत्वपूर्ण है। यह आपको व्यवस्थित रहने और अपने लेखन को ट्रैक पर रखने में मदद कर सकता है। कुछ लेखक अधिक विस्तृत रूपरेखा का उपयोग करना पसंद करते हैं, जबकि अन्य केवल एक सामान्य विचार रखना पसंद करते हैं कि वे प्रत्येक अध्याय में क्या शामिल करना चाहते हैं।


समय सारणी और लेखन लक्ष्य निर्धारित करें-

जैसा कि आप लिखना शुरू करते हैं, लेखन के लिए नियमित समय निर्धारित करना और प्रक्रिया के प्रति प्रतिबद्ध रहना महत्वपूर्ण है। इसमें दैनिक शब्द गणना लक्ष्य निर्धारित करना या लिखने के लिए नियमित समय और स्थान खोजना शामिल हो सकता है। प्रतिक्रिया के लिए खुला होना और यह सुनिश्चित करने के लिए अपने काम को संशोधित करना भी महत्वपूर्ण है कि यह सबसे अच्छा हो सकता है।


प्रकाशन प्रक्रिया तथा प्रकाशक की जानकारी हासिल करें- 

एक बार जब आपकी पुस्तक पूरी हो जाती है, तो आप किसी प्रकाशक की तलाश करना या अपना काम स्वयं प्रकाशित करना चुन सकते हैं। स्व-प्रकाशन हाल के वर्षों में एक तेजी से लोकप्रिय विकल्प बन गया है, लेखकों को उनके काम को प्रकाशित करने और वितरित करने में मदद करने के लिए कई ऑनलाइन प्लेटफॉर्म उपलब्ध हैं।


कुल मिलाकर, किताब लिखना उन लोगों के लिए एक चुनौतीपूर्ण लेकिन पुरस्कृत अनुभव हो सकता है जो इस प्रक्रिया के लिए प्रतिबद्ध हैं। समर्पण, कड़ी मेहनत और सीखने और सुधार करने की इच्छा से कोई भी एक सफल पुस्तक लेखक बन सकता है।

चित्र साभार- गूगल से 

मालती मिश्रा 'मयंती'

शनिवार

शिव वंदना


हे शंभु अब करो कृपा

प्रभु आप हरो सबकी विपदा...


हे गंगाधर हे गिरिवासी

हे शशिशेखर हे अविनाशी

हे मृत्युंजय कैलाशपति

हरो विपद हमारे उमापति।


हे नीलकंठ हे महादेव

हे अविनाशी हे वामदेव

हम आए तिहारी शरण प्रभु

करो दूर कष्ट देवादिदेव...


रोता अंबर रोती धरती

त्राहि-त्राहि दुनिया करती

हे तारकेश हे सहस्राक्ष 

हे सूक्ष्मतनु बस तेरी आस..


हे मृत्युंजय हे जग व्यापी

चहुँ दिशि में घोर विपद व्यापी

प्राणों की नहि होय क्षति

अब दया करो हे उमापति...


हे अभयंकर हे प्रलयंकर 

कैलाशपति हे त्रिपुरारी

डमड् डमड् डम की ध्वनि से

प्रभु नाश करो विपदा सारी...


हे शशिशेखर हे खटवांगी

तुम आकर सब संताप हरो

हे महाकाल हे दक्षाध्वर

अब रक्षा करो तुम रक्षा करो...


हे शिव शंभु अब करो कृपा

प्रभु आप हरो सबकी विपदा...


मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

शुक्रवार

कहाँ जा रहे आज के बच्चे

 कहाँ जा रहे आज के बच्चे (4/5/22)  


प्रातःकालीन निर्मलता की चादर ओढ़े धरती पर नाजुक कोपलों पर झिलमिलाते पावन ओस की बूँदों की तरह निर्मल, निश्छल और कोमल होता है बचपन, जो उदीयमान बाल सूर्य की शांत नर्म और रुपहली किरणों के स्पर्श से मोती की मानिंद जगमगा उठता है और हवा के थपेड़े से बिखर कर अपना अस्तित्व मिटा बैठता है। बाल्यावस्था वह अवस्था है जब बच्चे का मन कोरे कागज सा होता है, जो चाहो जैसा चाहो उसे वैसा ही बनाया जा सकता है। इसके लिए बच्चे को विशेष देखभाल के साथ-साथ स्वस्थ वातावरण की भी आवश्यकता होती है किन्तु वर्तमान समय में विशेष देखभाल तो संभव है लेकिन स्वस्थ वातावरण का मिलना अपने-आप में एक चुनौती है। आधुनिक परिवेश में जहाँ भौतिकवाद का बोलबाला है ऐसी स्थिति में समाज में सम्मानजनक और सुविधाजनक जीवन जीने के लिए आर्थिक स्थिति का मजबूत होना अहम् हो गया है। रहन-सहन से लेकर आने वाली पीढ़ियों के भविष्य निर्माण तक में प्रतियोगिता सर्वव्यापी है। ऐसी परिस्थिति में अपनी गृहस्थी को सुचारू और सुनियोजित रूप से चलाने के लिए पति-पत्नी दोनों ही आर्थिक उत्सर्जन में सहभागिता सुनिश्चित करते हैं, जिसके कारण उन्हें अक्सर परिवार से अलग एकल परिवार के रूप में रहना पड़ता है। वहीं दूसरी ओर कुछ आधुनिकता के शिकार तथा कुछ घरों में स्थान के अभाव के कारण भी एकल परिवार में रहने को प्राथमिकता देते हैं। ऐसी परिस्थितियों में जो सबसे अधिक प्रभावित होता है वह है बच्चों का जीवन। 

पहले बच्चा परिवार में दादा-दादी, नाना-नानी के साथ रहता था विभिन्न रिश्तों में घिरा होता था तो रिश्तों के महत्व को समझता और सामंजस्य बिठाना सीखता था। बड़ों का आदर छोटों से स्नेह करने का आदी होता था, वहीं दादी-नानी की कहानियों से स्वस्थ मनोरंजन और ज्ञान पाता था। पौराणिक और ऐतिहासिक कहानियों से अपनी संस्कृति से परिचित होता था। घरों से बाहर अन्य बच्चों के साथ खेलता था तो वह शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ होता था और साथ ही उसमें आपसी मेलजोल, सहयोग और अनुशासन के गुणों का विकास होता था। सही मायने में संयुक्त परिवार में ही बच्चा सही देखभाल और परवरिश प्राप्त करता था, विभिन्न रिश्ते-नातों से परिचित होता था तथा सभी रिश्तों के साथ सामंजस्य बिठाना सीखता था, किन्तु जैसे-जैसे हम आधुनिकता की दौड़ में शामिल होते गए वैसे-वैसे अपनों से दूर और एकाकी होते गए। आज सब कुछ मशीनी हो गया है यहाँ तक कि बच्चों का पालन-पोषण भी। एकल परिवार में जहाँ पति-पत्नी दोनों कामकाजी होते हैं वहाँ पत्नी को या कहूँ कि माँ को बच्चों की देखभाल करने का समय नहीं होता। समय के साथ समाज में तालमेल बिठाने के लिए तथा बच्चों के सुरक्षित भविष्य के लिए यह आवश्यक भी हो चला है और इसीलिए माँ को बच्चे को आया के भरोसे या क्रच में छोड़ना पड़ता है। बच्चे से दिनभर की दूरी और समय तथा पूरा प्यार न दे पाने का अपराधबोध माता-पिता को बच्चों के प्रति अति  संरक्षात्मक बना देता है और इस अपराध बोध से निकलने के लिए वह बच्चे की हर उचित-अनुचित माँगों को पूरा करते हैं। फलस्वरूप बच्चा जिद्दी और लापरवाह बन जाता है, आवश्यक नहीं कि सभी बच्चे या सभी माता-पिता ऐसे ही हों परंतु यदि 10-20 प्रतिशत भी होते हैं तो भी यह चिंताजनक है। 

आज के समय में शिक्षण पद्धति भी बच्चों को तकनीक का आदी बना रहा है। शिक्षा के दौरान बच्चों से नेट से सामग्री की खोज करवाना, क्रिया-कलाप आदि में नेट का प्रयोग आजकल शिक्षा का अभिन्न हिस्सा बन गया है और जो बच्चा यह नहीं कर पाता वह अन्य बच्चों के बीच हीन महसूस करता है, अतः आधुनिक शिक्षा में तकनीक का प्रयोग करना आना बेहद आवश्यक है। दूसरी ओर बच्चा माता-पिता के कार्यों को बाधित न करे इसलिए माता-पिता द्वारा इन्हें तब से ही मोबाइल पकड़ा दिया जाता है, जब इन्होंने बोलना भी ठीक से नहीं सीखा होता। थोड़ा और बड़ा होगा तो टैबलेट्स और फिर लैपटॉप दे देते हैं। 

घर में बड़े-बुजुर्गों का अभाव, सुरक्षा की दृष्टि से तथा समय के अभाव के कारण बाहर न खेलने की मजबूरी, ऐसी अवस्था में टेलीविजन, फोन, लैपटॉप आदि ही साथ देते हैं। माता पिता के पास बच्चों के साथ खेलने का समय नहीं होता तो बच्चा फोन में गेम खेलता है, पढ़ाने का समय नहीं तो बच्चा इंटरनेट से ढूँढ़ कर पढ़ने लगा, ऐसे में वह इंटरनेट से उचित-अनुचित के ज्ञान के अभाव में हानिकारक विज्ञापनों और भी ऐसी चीजें देखता है जो उसके अबोध मन को दिशाहीन कर सकती हैं। कदम-कदम पर प्रतियोगिता भरी जिंदगी में ट्यूशन, ट्रेनिंग आदि के जरिए बच्चे को प्रतियोगिताओं को पास करने लायक तो बना दिया जाता है पर एक सहृदय, संस्कारी, संवेदनशील, छोटे-बड़ों व स्त्रियों का सम्मान, तथा अपनी संस्कृति से जुड़ा हुआ, परंपराओं का निर्वहन करने वाला व्यक्ति नहीं बना पाते क्योंकि बच्चे के माता-पिता को बच्चे का भविष्य सिर्फ अधिकाधिक धन कमाने में दिखाई देता है, इसलिए उन्हें अपने बच्चे को आर्थिक दौड़ में आगे रहने वाला धावक बनाना होता है और इसके लिए स्वयं पैसा कमाने की भाग-दौड़ में उनके पास बच्चे के लिए समय ही नहीं होता। ऐसी स्थिति में हम उम्मीद करते हैं कि हर बच्चा संस्कृति से प्यार करने वाला हो, गुरुजनों तथा बड़ों का सम्मान करने वाला हो....वस्तुतः हमारी ऐसी अपेक्षाएँ निराधार हैं, हम उन बच्चों से ये अपेक्षा कैसे कर सकते हैं जिन्हें ऐसी शिक्षा ऐसी परवरिश दी ही नहीं गई। यानि जो बीज हमने बोये ही नहीं उसकी फसल काटना चाहते हैं। हम कहते तो हैं कि आजकल के बच्चे कहाँ जा रहे हैं? क्या भविष्य होगा इनका और देश का, परंतु हमें यह देखने की आवश्यकता है कि हम बच्चों को क्या दे रहे हैं।

चित्र साभार- गूगल से

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

रविवार

धार्मिक कानून बड़ा या देश

 धार्मिक कानून बड़ा या देश


हम जिस घर में जन्म लेते हैं, जहाँ हमारा पालन-पोषण होता है, जिस चारदीवारी में हम घुटनों के बल चले, खड़े हुए, लड़खड़ाए, गिरे और फिर उठकर चले और धीरे-धीरे उस घर की मिट्टी की खुशबू हमारी साँसों में बसती गई, उस घर की छत ने हमें सर्दी, गरमी, धूप और बरसात से बचाया, उसकी धरती ने सुख हो या दुख हमारे हर समय में हमें अपने आँचल में सुलाया फिर वह घर चाहे बड़ा हो या छोटा, कच्चा हो या पक्का, नया हो या पुराना चाहे पुराना जर्जर ही क्यों न हो सहज ही वह हमारा हो जाता है, हमारे दिल में बसता है, हमें उससे प्यार होता है।

यदि किसी को अपने घर से प्यार नहीं होता तो सही मायने में न तो वह घर उसका होता

है और न ही वो उस घर का होता है अर्थात् वह उस घर में महज़ कुछ देर का मेहमान होता है जहाँ उसे कुछ समय का आसरा मिल जाता है, हम दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि वह परदेशी होता है। 

यही बात देश में रहने वाले उन लोगों पर भी चरितार्थ होती है जिन्हें अपने देश से ही प्यार नहीं, जो इसी देश में रहकर देश के सम्मान के साथ खेलते हैं, जिस प्रकार एक घर के लोग परिवार बन अपने घर के लिए सदैव एकजुट रहते हैं उसी प्रकार देश के सभी नागरिक चाहे वह किसी भी धर्म के अनुयायी हों पर पहले इस देश की संतान हैं और उन सभी का कर्तव्य है कि देशहित को सर्वोपरि रखते हुए ही अपने सभी सामाजिक और धार्मिक कर्म करें।

हमारा देश तभी उन्नत और सशक्त होगा जब इसके नागरिक स्वयं को तनावमुक्त, सशक्त और सुरक्षित महसूस करेंगे। किन्तु यहाँ रहने वाले विभिन्न संप्रदायों के लोग अपना-अपना वर्चस्व सिद्ध करने के लिए यदि एक-दूसरे के अधिकारों का हनन करने लगें तो कोई भी नागरिक सुरक्षित कैसे महसूस करेगा। आए दिन मज़हबी रस्म अदायगी के लिए सड़कें जाम करना, कोलाहलपूर्ण वातावरण निर्मित करना तथा दमनकारी नीतियाँ अपनाकर दूसरों को सताना, विकास की ओर बढ़ते पैरों में जंजीरें डालकर उन्हें नीचे खींचने का काम करते हैं। सोने पर सुहागा तब होता है जब ऐसे उपद्रवियों द्वारा देश के कानून को मानने से यह कहकर इंकार कर दिया जाता है कि हमारा धार्मिक कानून हमें इसकी अनुमति नहीं देता।

दरअसल हम अभी भी परदेशी ही हैं, सिर्फ किसी देश में पैदा हो जाने मात्र से हम उस देश के या वह देश हमारा नहीं हो जाता। जब तक हम देश को भली-भाँति जान नहीं लेते जब तक उसकी संस्कृति उसकी शक्ति या दुर्बलता हमारे भीतर रच बस नहीं जाती तब तक हम उसके नही हो सकते। देश में बहुत से ऐसे जड़ पदार्थ हैं और हम भी उन्हीं की भाँति मात्र एक जड़ पदार्थ बनकर रह रहे हैं, देश ने हमें नही अपनाया न हमने देश को। हम यहाँ पैदा जरूर हुए परंतु इसकी मिट्टी की सोंधी खुशबू हमारी आत्मा में न बस सकी, हम यहाँ के जड़त्व के मोहपाश में बँधे होकर इसे अपना कहने लगे हैं। जो हमें लुभाते हैं और हम उसी के वशीभूत हो उसे पाने की लालसा में देश को अपना कहने लगते हैं। जो मोह से अभिभूत है वही चिरकाल का परदेशी है। वह नहीं समझता कि वह कहाँ है, किसका है? 

जो हमें प्यारा होता है, जो हमारा होता है या हम जिसके होते हैं, उसकी हर अच्छाई-बुराई को हम दिल से अपनाते हैं। उसके सम्मान के लिए कुछ भी कर गुजरने को तत्पर रहते हैं परंतु इसी देश में जन्म लिया इसकी माटी का तिलक किया, फिर भी आज भी इसके प्रति अपनी अखंड भावना दर्शाने से डर लगता है।

हर देश के नागरिक को अपने देश और राष्ट्रगान के प्रति श्रद्धा होती है परंतु हमारे देश में ही किसी खास संप्रदाय के लोगों को राष्ट्रगान गाने की इज़ाजत उनका ही धर्म नहीं देता। कहते हैं कि उनके धर्म का कानून उन्हें जन गण मन और वंदेमातरम् गाने की इज़ाजत नहीं देता है, फिर सवाल यह उठता है कि जन-गण-मन और वंदेमातरम् जिस देश की आत्मा हैं आपका कानून आपको उस देश में रहने की इज़ाजत कैसे देता है? भारत माता की धरती पर जन्म लेकर इसे ही अपनी कर्मभूमि बनाने वाले को 'भारत माता की जय' बोलने से कौन-सा कानून रोकता है। कौन-सा कानून है जो माँ को माँ का सम्मान देने से रोकता हो? यदि कोई धर्म मनुष्य को मानव-धर्म निभाने से रोकता है तो वह धर्म नहीं। हर धर्म व्यक्ति को पहले इंसान बाद में हिंदू या मुसलमान बनाता है। 

किसी भी देश में रहने वाले हर नागरिक का प्रथम कर्तव्य अपनी मातृभूमि के प्रति समर्पण और उसका सम्मान होना चाहिए, धर्म और मज़हब दूसरे स्थान पर होते हैं। यदि हमें अपने ईश्वर की आराधना के लिए अपनी अधिकृत भूमि और बेफिक्री और सुकून के दो पल ही न मिलें तो धर्म के प्रति कर्तव्य कहाँ निभाएँगे? 

हमारा घर हमारा देश तब ही हमारा होता है जब हम तन-मन-धन से उसके होते हैं, जब हमारे देश की मिट्टी की खुशबू हमारी आत्मा में बसती है और अनायास ही हमारे मुँह से ही नहीं दिल से निकलता है "वंदेमातरम्" तब हम इस देश के हो पाते हैं। तब हम इसके हो पाते हैं जब सिर्फ हम इसमें नहीं बल्कि यह हममें बसता है, अन्यथा तो हम पैदा होकर परदेशी बनकर रहते हुए पशुओं के समान अपना भरण-पोषण करते हुए एक दिन परदेशी ही बनकर चले जाएँगे और सवाल रह जाएगा धार्मिक कानून बड़ा या देश........

चित्र साभार- गूगल से

मालती मिश्रा 'मयंती'

शनिवार

बढ़ती असहिष्णुता के कारण और निवारण

 

बढ़ती असहिष्णुता के कारण और निवारण

वसुधैव कुटुंबकम् की मान्यता का अनुसरण करने वाले हमारे देश में अनेक विविधताओं के बाद भी सांस्कृतिक सह अस्तित्व की विशेषताएँ देखी जा सकती हैं।
यहाँ के लोग नए परिवेश के साथ आसानी से सिर्फ घुल-मिल ही नहीं जाते, बल्कि उनकी विशिष्टताओं को अंगीकार कर अपनी जीवनशैली में अपना भी लेते हैं। यही कारण है कि सहनशीलता, भाईचारा, धैर्य जैसे गुण हमेशा से हम भारतीयों की खासियत रहे हैं।
किन्तु वर्तमान समय में यदि हम अपने चारों ओर दृष्टिपात करें तो बेहद निराशा जनक परिस्थिति दिखाई देती है। पारिवारिक हो, सामाजिक हो या धार्मिक हर स्तर पर धैर्य और सहनशीलता का ह्रास होता जा रहा है।
ऐसा नहीं है कि असहिष्णुता हमारे व्यवहार की अचानक पैदा हो गई कोई नई उपज है।
बल्कि पारिवारिक या सामाजिक स्तर पर यह पहले भी यदा-कदा देखने को मिल जाती थी लेकिन इसके बावजूद यह आम जन की मानसिकता पर हावी नहीं थी।
किन्तु आज हर स्तर पर यह असहिष्णुता हमारी सोच और हमारे व्यवहार को अपनी गिरफ्त में लेती जा रही है।

लोगों के बर्दाश्त करने की क्षमता घटती जा रही है और छोटी-छोटी बातों में लोग अपना आपा खो दे रहे हैं। जो बातें या स्थितियाँ उनको पसंद नहीं आतीं या उनकी इच्छाओं और उम्मीदों के प्रतिकूल होती हैं ऐसी किसी भी बात या घटना के प्रति वे कई बार उचित-अनुचित सोचे बिना ही इतनी तीखी प्रतिक्रिया दे देते हैं, जो उस छोटी सी बात या घटना के लिए आवश्यक नहीं थी और ऐसी प्रतिक्रियाएँ सिर्फ दूसरों के ही नहीं बल्कि अपनों के प्रति भी देखने को मिलती हैं।
जिसके कारण न सिर्फ माहौल तनावपूर्ण हो जाता है बल्कि आपसी रिश्तों में कड़वाहट उत्पन्न होती है और आपसी सौहार्द्र खत्म हो जाता है।
अक्सर ऐसी खबरें देखने-पढ़ने को मिलती हैं
सड़क पर एक वाहन के दूसरे वाहन से हल्का सा छू जाने भर से हाथा-पाई हो जाती है, कभी-कभी तो जान से मार देने की घटनाएँ भी सामने आई हैं।
आजकल तो रोजमर्रा के जीवन में भी ऐसी घटनाएँ देखी जाती हैं कि पीछे से हॉर्न बजाने वाली गाड़ी को भीड़ की वजह से यदि रास्ता नहीं मिल पाया, तो वह अपशब्द बोलते और घूरते हुए ऐसे आगे निकलता है जैसे आगे वाले ने रास्ता न देकर कितना बड़ा अपराध कर दिया हो।
कक्षा में डाँट देने या सजा दे देने पर विद्यार्थी ने बाहर जाकर शिक्षक को गोली मार दिया।
पिता ने पुत्र को गेम खेलने से मना किया तो पुत्र उसकी हत्या कर देता है।
पैसों के लिए घर के बुजुर्गो की हत्या कर देना आम घटना हो चुकी है
कोई मेरी गाड़ी को बार-बार ओवरटेक कैसे कर सकता है। इस बात से क्रोधित होकर आगे जाने वाली गाड़ी पर गोलियों की बौछार कर देना..
ऐसी खबरों को पढ़ कर 'विजय दान देथा' की वर्षों पुरानी कहानी 'अनेकों हिटलर' की याद ताजा हो गई। उन्होंने इस कहानी में चित्रित किया है कि गाँव के एक सम्पन्न और दबंग परिवार के तीन भाई नया-नया ट्रैक्टर खरीद कर हँसी-ठिठोली करते हुए शान से घर लौट रहे थे। रास्ते में एक साइकिल वाला एक-दो बार उनके ट्रैक्टर से आगे निकल जाता है। यह ट्रैक्टर चलाने वालों की बर्दाश्त से बाहर था कि साइकिल वाले ने कैसे उनको पीछे करने की हिमाकत कर दी। इसी आक्रोश में उन लोगों ने उसे ट्रैक्टर से कुचल दिया।
दशकों पुरानी यह कहानी आज हमारे समक्ष जीवंत रूप में दिखाई देती है।
ऐसी घटनाओं को देखते हुए समझा जा सकता है कि किसी से अपनी उम्मीद के अनुसार व्यवहार न होते देखकर प्रतिक्रिया स्वरूप बगैर उचित-अनुचित की परवाह किये ही परिस्थिति की माँग से ज्यादा तीखी और आक्रामक प्रतिक्रिया कर देना ही असहिष्णुता है। यहाँ तक कि ऐसे लोग समाज द्वारा स्वीकृत मानकों को भी लाँघ जाते हैं, जबकि समान परिस्थिति में अधिकांश लोग शांत और सहज बने रहते हैं।

ऐसे धैर्य खो चुके लोगों को थोड़ा विरोध भी उनके आत्मसम्मान और प्रभुत्व को आहत कर देता है और भविष्य को लेकर वे आशंकित हो जाते हैं। सही-गलत की सोच से परे वे आत्मकेंद्रित हो जाते हैं और उनकी संवेदनशीलता दूसरों के प्रति घट जाती है, फलस्वरूप वो दूसरे के द्वारा किए गए व्यवहार के आशय और भावों को समझ नहीं पाते और ऐसा कुछ कर बैठते हैं जो उन्हें नहीं करना चाहिए।

ऐसी अवस्था में व्यक्ति आंतरिक संवेगों से अधिक प्रभावित होता है, जिससे उसमें संवेगात्मक अस्थिरता और उत्तेजना देखी जाती है। कुछ समय के लिये उसका विवेक क्षीण पड़ जाता है और सही-गलत, नैतिक-अनैतिक का ज्ञान समाप्त हो जाता है। दूसरों के प्रति घटी हुई संवेदनशीलता और उत्तेजना की अवस्था, दोनों मिल कर उसे असहिष्णु बना देते हैं।
मनोविज्ञान की दृष्टि से असहिष्णुता के अनेक कारणों में प्रमुख हैं, पहचान और प्रभाव की चाहत, बढ़ती महत्वाकांक्षा, बढ़ता मानसिक तनाव, रिश्तों का सिकुड़ता दायरा, सामाजीकरण का सिमटना, रिश्तो में नफा-नुकसान का आंकलन, संवाद में कमी, बेरोक-टोक वाला व्यक्तिगत जीवन, घटती संवेदनशीलता, मीडिया का बढ़ता प्रभाव इत्यादि।
यह देखा जाता है कि मीडिया भी आपराधिक और नकारात्मक खबरों को ही ज्यादा दर्शाती है जबकि ऐसी परिस्थिति में बुद्धिजीवियों और मीडिया दोनों का उत्तरदायित्व है कि ऐसी स्थिति में वे समाज सुधार की सिर्फ चर्चा न करें, बल्कि जमीनी स्तर पर लोगों के सामने ऐसे सकारात्मक उदाहरण बार-बार पेश करें जो उनके इर्द-गिर्द ही घट रहे हैं लेकिन सनसनीखेज नहीं होने के कारण उन पर किसी का ध्यान नहीं जाता।
साहित्यकारों को भी इस दिशा में सकारात्मक पहल करने की आवश्यकता है, प्रेमचंद की कहानी "ईदगाह" जैसी प्रेरणाप्रद कहानियों के समान अन्य सकारात्मक संदेश से लगातार प्रेरित करने का प्रयास करते रहना चाहिए।

यह भी आवश्यक है कि लोग मोबाइल, टी.वी., इन्टरनेट की दुनिया और एयरकंडिशनर के आरामदेह कमरे से निकल कर दूसरों से संवाद बनाएँ।
आपस की बढ़ती दूरियों, अविश्वास, प्रतिस्पर्धा और बदले की भावना से प्रेरित इस दौर से ऊबे और घबराए आम लोगों को आपसी संवाद की तथा एक दूसरे के भावों को समझने और महसूस करने की आवश्यकता है, जिसके लिए जरूरत है कि लोग चेतन स्तर पर अपनों की सीमा को बढ़ा कर आसपास, पड़ोस, मित्र, रिश्तेदार, कुछ परिचित और अपरिचित तक ले जाएँ, जिससे उनके आपसी संपर्क का दायरा बढ़ेगा।
दिल में दबी बातों को साझा कर बोझिल मन को सुकून मिलता है। सिर रख कर रोने वाले कंधे मिलते हैं। खुशी और उपलब्धियों को बाँटने वाले लोग मिलते हैं। बस जरूरत है अपने अहम को छोड़ दूसरों की तरफ हाथ बढ़ाने की।

इसके साथ ही अपने आधुनिक व्यस्तता भरे जीवन में भी बच्चों की परवरिश पर माता-पिता को व्यक्तिगत तौर पर ध्यान देना होगा। उनमें हार स्वीकार करने और "ना" सुनने की क्षमता विकसित करनी होगी। उनमें यह भाव जगाना होगा कि पढ़ाई सिर्फ व्यक्तिगत उपलब्धियाँ हासिल करने, ऊँचे पदों पर जाने और पैसा कमाने के लिए ही नहीं की जाती, बल्कि समाज और राष्ट्र के विकास में योगदान देने के लिए भी की जाती है। ऊँचाई पर पहुँचने के लिए शॉर्टकट छोड़कर सीढ़ी-दर-सीढ़ी मिली छोटी-छोटी सफलताओं में खुश होने की आदत को विकसित करना होगा।

जीवन की आपाधापी में बढ़ती उम्र के साथ जो शौक अधूरे रह गए, उन्हें नए सिरे से जीवित करना चाहिए, इससे नई ऊर्जा का उत्सर्जन होता है। आजकल हमारी आदत बन चुकी है कि हर कार्य को लाभ-हानि की तुला में रखकर सोचते हैं, जबकि हमें इस लाभ-हानि को छोड़कर सिर्फ अपने शौक पूरे करने के लिए भी अपने पसंदीदा कार्यों को कुछ समय देना चाहिए, इससे मानसिक तनाव से मुक्ति मिलेगी और व्यक्ति के मन में दबी बहुत सारी ग्रंथियाँ खुल जाएँगी और कई चीजों के प्रति उनकी स्वीकार्यता बढ़ जाएगी और आपसी सौहार्द्र विकसित होगा।

चित्र साभार - गूगल से

मालती मिश्रा

प्रकृति के नैसर्गिक रूप को बिगाड़ कर विकास संभव नहीं

 प्रकृति के नैसर्गिक रूप को बिगाड़कर विकास संभव नहीं

पर्यावरण प्रदूषण किसी एक देश नहीं बल्कि विश्व के सामने व्यापक समस्या बनकर खड़ा है। इसीलिए पर्यावरण की सुरक्षा और संरक्षण के प्रति सामाजिक और राजनीतिक जागरूकता लाने के उद्देश्य से 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 1972 में आयोजित विश्व पर्यावरण सम्मेलन में चर्चा के बाद 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की गई और 5 जून 1974 को पहली बार विश्व पर्यावरण दिवस मनाया गया। किन्तु पर्यावरण की सुरक्षा किसी एक दिन के संकल्प से नहीं हो सकती बल्कि इसके लिए चहुँमुखी जागृति और क्रियान्वयन की आवश्यकता है। वर्तमान समय में जिस प्रकार से लगातार जनसंख्या बढ़ती जा रही है, उतनी ही तेजी से लोहे और कंक्रीट के जंगल भी बढ़ते जा रहे हैं, जिसका नकारात्मक प्रभाव सीधे पर्यावरण पर पड़ रहा है। प्रकृति के अपने कुछ नियम हैं, जिनके विपरीत विकास कार्य किए जा रहे हैं और जंगलों व नदियों के स्वरूपों को भी बिगाड़ा जा रहा है। इससे पृथ्वी का संतुलन भी बिगड़ रहा है। विकास के नाम पर पृथ्वी विनाश की प्रयोगशाला बनती जा रही है।

देश का विकास आवश्यक है, तभी देश के नागरिकों का विकास होगा और उन्हें सभी सुख-सुविधाएँ प्राप्त हो सकेंगी किन्तु विकास की अंधी दौड़ में प्रकृति की ओर से विमुख हो जाने से हम विनाश की ओर बढ़ रहे हैं।  क्योंकि विकास के नाम पर लगातार पेड़ों की कटाई और जंगलों का खात्मा करके हम प्रकृति के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। जिससे न सिर्फ नदी-तालाब सूखते जा रहे है, भूमिक्षरण बढ़ता जा रहा है, भूमि बंजर होती जा रही है और पशु-पक्षियों को बेघर करके उनसे उनके जीने का अधिकार छीन रहे हैं। विकास तो तभी संभव है जब देश का पर्यावरण स्वच्छ हो, चारों ओर हरियाली हो। जिस तरह से विकसित देश प्रकृति के संसाधनों का दोहन कर रहे हैं, विकासशील देश भी उन्हीं के नक्शे कदम पर चलकर अंधाधुंध प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रहे हैं।  

विकास के नाम पर पहाड़ों-जंगलों को काटकर सुरंगें बनाना, नदियों-तालाबों को पाटकर ऊँची-ऊँची इमारतें खड़ी करना प्राकृतिक आपदा को आमंत्रित करना ही है।

देश को गंगा-यमुना जैसी सदानीरा नदियाँ देने वाले पहाड़ के करीब 12 हजार प्राकृतिक स्रोत या तो सूख चुके हैं या फिर सूखने के कगार पर हैं। पानी और ऊर्जा के स्रोतों को विकृत और वायु को लगातार दूषित किया जा रहा है।

तूफान, भूकंप, बाढ़, सूखा, भूस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं का कारण विकास के नाम पर प्रकृति से किए जा रहे खिलवाड़ के कारण ही हैं। केदारनाथ आपदा, नेपाल की महाविनाशकारी भूकंप, और समय-समय पर आने वाली प्राकृतिक आपदाएँ हमें चुनौती दे रही हैं कि यदि अंधाधुंध हो रहे प्राकृतिक दोहन को रोका नहीं गया तो आगे और भी भयानक परिणाम सामने आ सकते हैं। 

प्रकृति के नैसर्गिक रूप को बिगाड़कर, पर्यावरण को जहरीला करके विकास संभव नहीं।  

आज हम घरों को, बालकनियों को प्लास्टिक की हरियाली से कितना भी सजा लें किंतु हरियाली के नैसर्गिक गुण कहाँ से लाएँगे, उनसे प्राप्त होने वाली प्राणवायु और शीतलता इन दिखावटी पौधों से तो प्राप्त नहीं किया जा सकता। विकास के नाम पर बाग-बगीचे-जंगल काट कर बड़ी-बड़ी इमारतें बनाकर उसमें मानव का निवास तो बन गया परंतु उनमें रहने वाले पशु-पक्षियों का आवास और भोजन छीन लिया गया, जिसके कारण न जाने कितने वन्य जीव दिन-प्रतिदिन लुप्त होते जा रहे हैं। वायु प्रदूषित होती जा रही है, नदियाँ सूखती जा रही हैं, जो हैं उनका जल विषैला होता जा रहा है, धरती की उर्वरा शक्ति समाप्त होती जा रही है, जिसके कारण फसलों की अच्छी पैदावार के लिए रसायनिक खादों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। फलस्वरूप हमारा खानपान दूषित होता जा रहा है और बीमारियाँ बढ़ती जा रही हैं। क्या इसे हम सार्थक विकास की श्रेणी में रख सकते हैं? सही मायने में स्वच्छ और प्रदूषण रहित वातावरण ही विकास को सार्थक कर सकता है। 

विकास आवश्यक है किन्तु प्रकृति को हानि पहुँचाए बिना। अत: मौजूदा प्राकृतिक अस्थिरता से उबरने के लिए और पर्यावरण को शुद्ध करने के लिए अंधाधुंध प्राकृतिक दोहन से बचते हुए अधिकाधिक वृक्षारोपण ही एकमात्र उपाय हो सकता है, क्योंकि वृक्ष ही हमें इस लाइलाज बीमारी से उबार सकते हैं। वृक्षों के महत्व को बताते हुए एक श्लोक प्रचलित है...

दशकूपसमा वापी, दशवापीसमो ह्रदः। दशह्रदसमो पुत्रो, दशपुत्रसमो द्रुमः।।

अर्थात् दस कुओं के बराबर एक बावड़ी, दस बावड़ियों के बराबर एक सरोवर, दस सरोवरों के समान एक पुत्र और दस पुत्रों के समान एक वृक्ष का महत्त्व होता है। अत: हमारा कर्तव्य है कि विकास के नाम पर यदि हम एक वृक्ष काटते हैं तो हमें उससे पहले, दस वृक्ष लगाने चाहिए। इतना ही नहीं समाज के प्रत्येक व्यक्ति को प्रण करना चाहिए कि वह यथासंभव वृक्ष लगाएँगे और उनकी देखभाल करेंगे।


मालती मिश्रा 'मयंती'



मंगलवार

सुनो-गुनो फिर बुनो

 सुनो-गुनो-फिर बुनो



दीपक ने आते ही खुशी से उछलते हुए अपनी माँ को धन्यवाद कहा और अपना बस्ता जगह पर रखा। उसको खुश देखकर प्रज्ञा भी खुश हो गई। उसे ऐसे खुश देखे हुए कई दिन हो गए थे। उसका बेटा दसवीं कक्षा का होनहार विद्यार्थी है, वह पिछले कुछ वर्षों से लगातार अपनी कक्षा में प्रथम आता है। प्रत्येक विषय में उसके अच्छे प्रदर्शन और उसके विनम्र स्वभाव के कारण वह अपने सभी अध्यापकों का भी प्रिय छात्र है। किन्तु पिछले तीन दिनों से वह कुछ उखड़ा-उखड़ा और खोया-खोया सा दिखाई दे रहा है। मम्मी-पापा ने जानने की कोशिश की तब उसने जो कारण बताया उसे सुनकर प्रज्ञा मुस्कुराने लगी। उसको मुस्कुराते देख दीपक आँखों में प्रश्नचिह्न लिए उसे ही देखने लगा, तब उसने कहा- "बेटा सही-गलत का आंकलन किए बिना सिर्फ इतना ही कहूँगी कि पहले सुनो, फिर गुनो अर्थात् चिंतन करो तत्पश्चात् बुनो अर्थात् हर एक की बात ध्यान से सुनकर खुद की बुद्धि का प्रयोग करते हुए उसका मंथन करो तत्पश्चात् उसमें से अपशिष्ट अर्थात् अनुचित या त्रुटिपूर्ण को त्यागकर ग्रहण करने योग्य को ग्रहण करके अपने शब्दजाल बुनो। फिर देखना तुम्हारी सारी निराशा खत्म हो जाएगी। 

प्रज्ञा की इस बात से उसे यह दोहा भी याद आ गया- 

निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय।

बिन साबुन पानी बिना, निर्मल करे सुभाय।

और उसने तुरंत ही अपनी कक्षा में आए अंग्रेजी के नए अध्यापक द्वारा कही गई बात को सोचना शुरू किया। उन्होंने दीपक को एक गलती पर नसीहत दी थी कि विषय को रटना छोड़कर समझना शुरू करो, रटकर परीक्षा में अच्छे अंक तो लाए जा सकते हैं परंतु वह जीवन की परीक्षा में निरर्थक है। तत्पश्चात् उन्होंने दूसरे ही दिन दीपक से लेफ्टिनेंट की स्पेलिंग पूछा, जिसे दीपक नहीं बता पाया। मास्टर जी ने सभी छात्रों को एक संकेत दिया- *झूठी-तू-दस-चीटी* और कहा कि अब बताओ। कोई नहीं बता पाया लेकिन दीपक कॉपी के पृष्ठ पर लिखकर कुछ देर तक समझता रहा और फिर बताया- Lieutenant. अध्यापक ने उसे शाबाशी दी और हमेशा सबकी बातों को ध्यान से सुनकर धैर्य खोए बिना चिंतन-मनन करने की नसीहत दी। आज दीपक जान गया कि बुजुर्गों ने यूँ ही नहीं कहा- *सुनो-गुनो-बुनो*


मालती मिश्रा 'मयंती'✍️



सोमवार

सीमा के प्रहरी महाराज पुरु

 सीमा के प्रहरी 'महाराज पुरु'


भारत का इतिहास अपने कई ऐसे महान शासकों के गौरव से आलोकित रहा है, जिनके शौर्य और पराक्रम का लोहा पूरी दुनिया ने माना। ऐसे ही महान शासकों में एक नाम पुरुवंशी महाराज पुरुषोत्तम अर्थात् पुरु का लिया जाता है। जिन्हें यूनानी इतिहासकार पोरस कहते हैं।

महाराज पुरु का विशाल साम्राज्य पंजाब में झेलम से लेकर चेनाब नदी तक था, जिसकी राजधानी मौजूदा लाहौर के आस-पास थी। चारों ओर से नदियों से घिरा होने के कारण पौरव राज्य सुरक्षित तथा व्यापारिक दृष्टि से समृद्ध था। जिसके कारण इस राज्य की सामरिक स्थितियाँ अत्यधिक सुदृढ़ थीं। पुरु का कार्यकाल 340 ईसा पूर्व से 315 ईसा पूर्व के मध्य माना जाता है। 

महाराज पुरु ऐसे महान राजा थे, जो सिर्फ अपने राज्य की ही नहीं अपितु पूरे देश की सुरक्षा के लिए समर्पित थे। जिन्होंने अपनी कुशल रणनीति और पराक्रम से विश्वविजय का सपना लेकर निकले मकदूनिया के अभिमानी और क्रूर शासक सिकंदर की विजय यात्रा पर विराम लगाकर उसे वापस भागने पर विवश कर दिया।

विश्वविजय का लक्ष्य लेकर निकले सिकंदर का स्वागत पुरु से शत्रुता रखने वाले तक्षशिला के राजा आम्भीराज ने किया और पौरव राज्य पर आक्रमण करने में उसकी सहायता भी की। सम्राट पुरु को हराए बिना सिकंदर आगे नहीं बढ़ सकता था। वह उनकी वीरता और रणनीतिक कौशल के विषय में सुन चुका था। अत: संधि करना अधिक उचित जाना। इस कार्य की दुरुहता को जानकर वह स्वयं दूत बनकर पौरव राज्य के दरबार में पहुँच गया। 

महाराज पुरु की पारखी दृष्टि ने उसे पहचान कर भी दूत का पूरा सम्मान दिया। सिकंदर ने कहा- "सम्राट सिकंदर विश्वविजय के लिए निकले हैं और राजा-महाराजाओं के सिर पर पैर रखकर चल सकने में समर्थ हैं, वही सम्राट सिकंदर आपसे मित्रता करना चाहते हैं।" सिकंदर की बात सुनकर महाराज पुरु बोले- "राजदूत! हम पहले देश के पहरेदार हैं बाद में किसी के मित्र, और फिर देश के दुश्मनों से मित्रता कैसी! शत्रुओं से तो हम रणभूमि में तलवारें लड़ाना ही पसंद करते हैं।" यह सुनकर सिकंदर नि:शब्द हो गया।

महाराज पुरु ने उसे ससम्मान भोज के लिए आमंत्रित किया। उसकी थाली में सोना, चाँदी, हीरे, मोती आदि परोसा गया। यह देखकर सिकंदर विस्मित हो गया। महाराज पुरु बोले- "खाइए सिकंदर! इससे अधिक कीमती भोजन प्रस्तुत करने में हम असमर्थ हैं, सोने-चाँदी के प्रति आपकी भूख देखकर ही हमने आपके लिए यह कीमती भोजन बनवाया।" 

अपने पहचाने जाने पर सिकंदर बंदी बनाए जाने के डर से घबरा गया किन्तु महाराज पुरु ने उसे बिना कोई क्षति पहुँचाए ससम्मान उसकी सेना तक भिजवा दिया। 

महाराज पुरु अपने क्षेत्र की प्राकृतिक और भौगोलिक स्थिति तथा झेलम नदी की प्रकृति को भली-भाँति जानते थे, तदनुरूप वह झेलम के तट पर सिकंदर के स्वागत के लिए तत्पर थे।

छ: महीने के अवलोकन और आम्भीराज की सहायता से निरंतर प्रयास के पश्चात् सिकंदर अपनी सेना के साथ झेलम नदी को पार कर सका। नदी के दूसरी ओर अब उसका सामना एक ऐसे महावीर से था जो हार का स्वाद नहीं जानता था। देशभक्ति, पराक्रम और आत्मविश्वास जिसके प्रथम अस्त्र थे।


सिकंदर की सेना संख्या की दृष्टि से विशाल थी किन्तु राजा पुरु के कुशल नेतृत्व में उनकी सेना संख्या में कम होने के बाद भी अपार शक्तिशाली थी। महाराज पुरु जानते थे कि युद्ध हुआ तो अत्यधिक नरसंहार होना निश्चित है, इसलिए अनावश्यक नरसंहार को टालने हेतु उन्होंने सिकंदर को द्वंद्व युद्ध का निमंत्रण दिया ताकि बिना रक्तपात ही जय-पराजय का निर्णय हो जाए परंतु उनके इस वीरतापूर्ण चुनौती को सिकंदर ने स्वीकार नहीं किया।

युद्ध का विगुल फूँका जा चुका था। महाराज पुरु ने अपने प्रशिक्षित हाथियों की सेना को सिकंदर की सेना के सामने पहली पंक्ति में खड़ा कर दिया। सिकंदर का सामना इससे पहले कभी हस्तिसेना से नहीं हुआ था। अत: वह हाथियों के संगठन को देखकर हैरान था। 

सेना को महाविनाश का आदेश देकर राजा पुरु अपनी गज सेना के साथ यवनी सेना पर टूट पड़े। आदेश मिलते ही पोरस के सैनिकों और हाथियों ने जो विनाश मचाना शुरु किया कि सिकन्दर और उसके सैनिक बस देखते ही रह गए।

भीषण युद्ध के दौरान महाराज पोरस का अचूक भाला सिकंदर के अश्व बुकिफाइलस (संस्कृत-भवकपाली) को लगा और वह सिकंदर को लिए हुए वहीं धराशायी हो गया। यूनानी सेना ने ऐसा दृश्य अपने संपूर्ण युद्धकाल में नहीं देखा था। 

सिकंदर के धरती पर गिरते ही तीर की गति से महाराज पुरु हाथ में तलवार लिए हुए उसके सामने थे। प्रहार के लिए उठे उनके हाथ अपनी कलाई पर बंधे उस धागे को देखकर रुक गए जिसे युद्धक्षेत्र में सिकंदर की दुर्बल स्थिति को जानकर उसकी पत्नी ने उसके प्राणों की रक्षा के लिए महाराज पुरु को बाँधा था और उनसे उसके प्राण न लेने का वचन लिया था। सिकंदर की पत्नी को दिए वचन का पालन करते हुए उन्होंने उसे जीवनदान देकर छोड़ दिया। 

अपनी सेना के टूटे हुए मनोबल और विद्रोह की सुगबुगाहट को भाँप कर सिकन्दर ने वापस लौटने में ही अपनी भलाई समझा।

महाराज पुरु के पराक्रम के समक्ष उस क्रूर और महत्वाकांक्षी आक्रमणकारी को हार मानना पड़ा, जिसे ईरान, फारस जैसे कई शक्तिशाली राज्य भी रोक नहीं पाए। ऐसे वीर सपूतों के कारण ही हमारा देश सदैव गौरवान्वित रहा है।

मालती मिश्रा 'मयंती'

चित्र - साभार गूगल से


सूचना - मेरे द्वारा लिखी गई यह ऐतिहासिक कहानी हमारे देश के के लिए अपना सर्वस्व आहूत कर देने वाले इक्यावन गौरवशाली पूर्वजों को समर्पित पुस्तक 'इनसे हैं हम' में संकलित हैं, जिसे देश के इक्यावन साहित्यकारों से इतिहास के गर्भ से खोज कर निकाला है।  मेरी राय है कि इस पुस्तक को सभी को पढ़ना चाहिए ताकि हम और हमारी वर्तमान और आगामी पीढ़ी अब तक के भ्रमित करने वाले इतिहास की सच्चाई को पहचाने और सत्य से परिचित होकर अपने देश के महान विभूतियों को सम्मान दे सके।

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️




गुरुवार

मेरे रोम-रोम में भारत है..

 मेरे रोम-रोम में भारत है..

मेरे रोम-रोम में भारत है, 

हर धड़कन में जन गण मन,

बना रहे सम्मान देश का, 

कर दूँ अर्पण तन-मन -धन।


आँख उठाकर देखेगा जो, 

दुर्भावना धारण कर

नहीं देखने लायक होगा, 

फिर कुछ भी वह जीवन भर,


वीर जवान हैं इसके प्रहरी, 

पहरा देते सीमा पर

तज मोह अपनी माता का,  

हुए कुर्बान भारत माँ पर।


हाथों में उठाए ध्वज देश का, 

गाते हैं मिल जन-गण-मन,

बना रहे सम्मान देश का, 

कर दूँ अर्पण तन-मन-धन।


*मालती मिश्रा 'मयंती'*✍️

चित्र- साभार गूगल से


रविवार

पावन उद्देश्य की पहल है- 'इनसे हैं हम'

 पावन उद्देश्य की पहल है- 'इनसे हैं हम'





हमारे देश की सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक और भौगौलिक आजादी को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाले इक्यावन गौरवशाली पूर्वजों की गौरवगाथा को प्राप्त करके अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रही हूँ।

जिस प्रकार समस्त वसुधा को आलोकित करने के लिए सूर्य के प्रकाश, भवन को आलोकित करने के लिए दीप के प्रकाश और मन को आलोकित करने के लिए ज्ञान के प्रकाश की आवश्यकता होती है उसी प्रकार समाज और देश को आलोकित करने के लिए सुदृढ़, सर्वमान्य संस्कृति की आवश्यकता होती है और हमारा देश अपनी इसी अलौकिक सांस्कृतिक खूबियों और  समृद्धिशाली सभ्यता के कारण सदियों से विदेशी आक्रांताओं, लुटेरों की लोलुप आकांक्षाओं का केन्द्र रहा है। 

देश की अखण्डता और गौरवशाली संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए समय-समय पर भारत माँ के वीर सपूतों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर करके अपने जीवन को स्वतंत्रता प्राप्ति के यज्ञ में आहूत कर दिया, हम सदैव उन महान विभूतियों के ऋणी रहेंगे। 

नि:संदेह हमारे देश का इतिहास बहुत समृद्ध है किन्तु दुर्भाग्यवश उस समृद्धि के महानायकों की शौर्यगाथाएँ समय के गर्त में दफन होकर रह गईं और जितनी जानकारी उपलब्ध है वह अपूर्ण और निराशाजनक है। देश के वंशज अपने पूर्वजों के शौर्य और उनके बलिदानों से अनभिज्ञ रहें, यह बहुत ही दुर्भाग्य पूर्ण है। हमारे जिन पूर्वजों के कारण वर्तमान समय में हमारा अस्तित्व है, हम अधिकारपूर्वक स्वयं को इस देश का अटूट हिस्सा मानते हैं, उन्हीं शौर्यवान पूर्वजों की शौर्यगाथाओं को नितांत योजनाबद्ध रूप से दबा दिया गया और इतिहास में जो भी दर्शाया गया वह नकारात्मक और निराशाजनक छवि को ही प्रस्तुत करता है तथा अधिकतर महापुरुषों के विषय में तो ज्ञात ही नहीं हो सका। किन्तु जिस प्रकार बादलों के टुकड़े सूर्य को अपने पीछे छिपाकर भी उसकी किरणों के प्रकाश को फैलने से नहीं रोक पाते, उसी तरह उन महान पूर्वजों की शौर्यगाथाओं का आलोक भी आखिर समय के बादलों के पीछे से झाँकने लगा और भा०ज०म० के संरक्षक आ० राजेन्द्र अग्रवाल जी की सोच को मूर्त रूप देने के लिए आ० धर्मचन्द्र पोद्दार जी के मार्गदर्शन में देश के इक्यावन प्रांतों से इक्यावन प्रबुद्ध लेखकों ने हजारों वर्ष पुराने इतिहास को खंगालने का प्रयास किया, तथा डॉ० अवधेश कुमार 'अवध' जी के कुशल संपादन में 'इनसे हैं हम' का उद्भव हुआ। सह संपादक नितु सिंह नव्या और मुख पृष्ठ सज्जा के लिए आ० अवनीत कौर दीपाली जी का सहयोग प्रशंसनीय है। आ० अवधेश कुमार 'अवध' जी की कृपा से मुझे भी इस महती प्रयास में यूनानी इतिहासकारों द्वारा महिमामंडित सिकंदर के भारत को पददलित करके इस महान देश पर शासन करने के कुत्सित मंशाओं और प्रयासों पर विराम लगाकर उसे वापस लौटने पर विवश करने वाले पौरववंशी राजा महाराज पुरुषोत्तम के गौरवशाली जीवन पर, 'सीमा के सजग प्रहरी महाराज पुरु' शीर्षक के माध्यम से प्रकाश डालकर अपना आंशिक योगदान देने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। अपने देश के इन महान विभूतियों के त्याग और बलिदान को बच्चा-बच्चा जाने, इसी पावन उद्देश्य की पहल है 'इनसे हैं हम'। 

पुस्तक का परिचय देते हुए प्रधान संपादक डॉ० अवधेश कुमार 'अवध' लिखते हैं कि "लगभग सात लाख लोगों की सीधी कुर्बानी और उनसे जुड़े असंख्य लोगों के अहर्निश तप-त्याग का प्रतिफल आजादी के रूप में मिला। भारत के विगत ढाई हजार साल के इतिहास पर निष्पक्ष दृष्टि डालने से ज्ञात होता है कि हमारे महानायक पूर्वजों की शौर्यगाथा का आंकलन सर्वथा उचित तरीके से नहीं किया गया है। कोई न कोई ऐसी शक्ति रही जिसने किसी पूर्वाग्रह वश महान पूर्वजों की छवि को नकारात्मक कलेवर में प्रस्तुत किया या उल्लेखनीय नहीं समझा। बहुधा जिन उद्देश्यों के लिए कुर्बानियाँ दी गईं, प्रायः उत्तराधिकारी भटकते हुए देखे गए। इसी मानसिक यंत्रणा से सम्यक मुक्ति का एक प्रयास है, 'इनसे हैं हम'।"

हमारी नव पीढ़ी को हमारे पूर्वजों के ऐतिहासिक संघर्ष, एकता, विद्धता और कर्मठता का पाठ पढ़ाने हेतु इन अनमोल विभूतियों के बारे में अवगत करवाने के लिए यह पुस्तक मील का पत्थर साबित होगी।

इस पुस्तक के माध्यम से आगामी पीढ़ी इतिहास के गर्त में छिपे महान विभूतियों के शौर्यगाथाओं से परिचित हो सके, इस उद्देश्य पूर्ति के लिए संपादक मंडल तथा इससे जुड़े सभी लेखक/लेखिका सतत प्रयत्नशील हैं। इसी क्रम में यह पुस्तक प्रधानमंत्री कार्यालय और राष्ट्रपति भवन में भी अपना स्थान बना चुकी है तथा जगह-जगह शिक्षा विभाग से जुड़े प्रतिनिधियों की उपस्थिति में इसका लोकार्पण किया गया तथा इसे अधिकाधिक लोगों तक पहुँचाने के लिए सतत प्रयत्नशील हैं। यह पुस्तक सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दूसरे कुछ देशों में भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवा चुकी है, अपने गौरवशाली इतिहास को जानने की तीव्र उत्कंठा के फलस्वरूप माँग इतनी बढ़ गई कि इस पुस्तक का पहला संस्करण (एडिशन) समाप्त हो चुका तथा दूसरे की तैयारी चल रही है। ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि इस पुस्तक में वर्णित महापुरुषों की जीवनगाथा को पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जा सकता है, जो कि हम सभी के लिए हर्षोल्लास का विषय है। इक्यावन लेखक/लेखिकाओं की साहित्यिक खोज की यज्ञाहुति का प्राकट्य यह महान पुस्तक राष्ट्र निर्माण के विराट यज्ञ में सच्चाई की परम आहुति है जिससे हमारे आने वाले भविष्य के कर्णधार अवश्य प्रेरित होंगे।

मालती मिश्रा 'मयंती'

malti3010@gmail.com


शनिवार

खौफ की वो रात

 खौफ की वो रात..



दूर-दूर तक खाली सड़क थी, कहीं-कहीं बर्फ जमी हुई और कहीं पिघलती हुई, दायीं ओर बादलों की चादर ओढ़े ऊँचे-ऊँचे पहाड़ और पहाड़ों से चादर खींचकर नीचे की ओर भागते-उतरते पेड़-पौधे और झाड़ियाँ। ऐसा लगता मानों बादलों और धुँध के चादर के छोटे-छोटे टुकड़े उनके भी हाथ में आ गए हैं। वहीं सड़क के दो-तीन मीटर की दूरी पर बायीं ओर गहरी घाटी में रुई के बड़े-बड़े फाहे पेड़ों और झाड़ियों को ढके हुए उन्हें काँपने से बचाने का असफल प्रयास कर रहे हैं। अँधेरा गहराता जा रहा था, देखते ही देखते आसमान में तारों के जमघट ने चाँद को घेर लिया। चमकती चाँदनी में सड़क पर भी जगह-जगह जमी हुई बर्फ झिलमिला रही थी, ऐसे में भी इक्का-दुक्का गाड़ियाँ ही वहाँ से कभी-कभी गुजर रही थीं, कहीं-कहीं लोग गाड़ी रोककर खुशनुमा मौसम का आनंद ले रहे थे। अक्षत गाड़ी को साठ-सत्तर की स्पीड से भगा रहा था। स्टीरियो में गाना बज रहा था...

हम जो चलने लगे, चलने लगे हैं ये रास्ते.... हाँ..हाँ हाँ..हाँ... हाँ.. चलने लगे...

"स्पीड कम करो बेबी, डर लग रहा है टायर स्लिप हो गया तो.." अक्षत के गले में बाँहें डालकर उसके कंधे पर सिर रखते हुए नियति बोली। 

"कुछ नहीं होगा जान, तू मेरे पास है तो मैं अपने लिए तुझे कुछ होने ही नहीं दे सकता।" अक्षत उसके गाल पर किस करते हुए बोला। 

"सच में मैं बहुत लकी हूँ बेबी, तुम मुझे पहले क्यों नहीं मिले?" कहते हुए नियति ने उसके गाल पर किस कर लिया। 

"सीधी राह पर चलते-चलते पहले किसी गलत मोड़ पर मुड़ गया था जानू और उसे ही अपनी मंजिल मान लिया, जब तक आँखें खुली, बहुत देर हो चुकी थी।" कहते हुए वह जैसे कहीं खो सा गया। कुछ देर तक एक गहरा सन्नाटा सा घिर गया दोनों के बीच।

"क्या हुआ बेबी कहाँ खो गए?" नियति ने उसे झिंझोड़ते हुए कहा।

"क..कहीं नहीं, अपनी जान के साथ रहते हुए उसमें खोने की बजाय मैं और कहाँ खो सकता हूँ!! हमारा ये हनीमून बहुत ही इंट्रेस्टिंग होने वाला है, हमारे एक-एक पल को जी भर के जीना चाहता हूँ मैं, हम इन सात दिनों में इतना प्यार करेंगे कि किसी ने सात जन्मों में भी न किया हो, तू भी करेगी न यति?" अक्षत ने भावुक होते हुए कहा।

"करोगे से क्या मतलब है बेबी! अभी नहीं करते क्या? मैं तो अब भी तुम्हें प्यार करती हूँ, बल्कि प्यार करती थी इसीलिए तो शादी की।" नियति ने उसे अपनी बाँहों में और जोर से भींचते हुए कहा।


"वो तो है ही लेकिन..!!"

💠"लेकिन ये तो सिर्फ जिस्मानी प्यार की बात कर रहा है.." स्टीरियो पर बजता गाना बंद हो गया और उसमें एक सरसराती हुई आवाज गूँजी।

स्टेयरिंग पर अक्षत के हाथ काँप उठे और गाड़ी सड़क से बायीं ओर झाड़ियों को रौंदकर वापस सड़क पर आ गई। नियति चीख पड़ी, अक्षत के पैर यकायक ब्रेक पर चिपक गए और सन्नाटे को चीरती हुई एक तेज आवाज के साथ गाड़ी रुक गई। 


अक्षत और नियति दोनों ही हैरानी से इधर उधर देख रहे थे, नियति गाड़ी में पीछे आँखे फाड़कर ऐसे ध्यान से देख रही थी जैसे कोई सुई खोज रही हो।


"तुम ठीक तो हो न यति?" अक्षत ने उसके सिर पर हाथ रखते हुए कहा।


"ह...हाँ..और त..तुम?" 

"मैं..मैं भी ठीक हूँ। क्या तुमने भी वो आवाज़ सुनी, जो मैंने सुनी?" उसकी आवाज में डर के मारे कँपकँपाहट झलक रही थी।


"हाँ..मैंने भी सुनी पर यहाँ तो क..कोई नहीं है।" नियति बोली।


"अक्षत स्टीरियो के बटन दबा-दबाकर कभी बैकवर्ड तो कभी फॉरवर्ड करता ताकि उस आवाज को फिर से सुन सके लेकिन उसे गानों के अलावा कोई और आवाज सुनाई नहीं पड़ी। 

न जाने क्यों वो सरसराती हुई आवाज भी उसे जानी-पहचानी सी लग रही थी, लेकिन किसकी!!!!

वह समझ नहीं पा रहा था। 

"होटल अभी और कितनी दूर है बेबी? अब तो जल्द से जल्द पहुँचना चाहती हूँ।" नियति ने कहा। 

"बस पहुँचने ही वाले हैं।" कहते हुए अक्षत ने फिर से गाड़ी की स्टेयरिंग संभाली। नियति भी संभलकर बैठ गई। उनकी गाड़ी एक बार फिर सुनसान राह पर चल पड़ी। नियति अभी भी सहमी हुई थी। अचानक अक्षत के चेहरे पर घबराहट दिखाई देने लगी, उसे देखकर ऐसा लग रहा था जैसे उसे स्टेयरिंग को घुमाने के लिए बहुत ताकत लगानी पड़ रही है, उसे देखकर नियति घबरा गई और उसको पकड़ते हुए बोली- "क..क्या हुआ बेबी...तुम घबराए हुए क्यों हो?"

तभी उसे जोर का झटका लगा और वह कार के दरवाजे से टकराई। वह घबराई आँखों से अक्षत को देख रही थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसने उसे क्यों धकेला...


उधर अक्षत अपनी पूरी ताकत से गाड़ी को काबू में करने की कोशिश कर रहा था लेकिन गाड़ी ने सड़क छोड़कर अलग ही दिशा पकड़ ली थी। पेड़ों के बीच झाड़ियों को रौंदती हुई काली अंधेरी राह पर उनकी कार किधर को ले जा रही थी, उन्हें कुछ पता न था। 

"प्लीज़.. प्लीज़ बेबी क्या हो गया है तुम्हें प्लीज़ रोको..." नियति गिड़गिड़ाने लगी। 

अचानक गाड़ी में जोर से ब्रेक लगाने की आवाज आई और गाड़ी जहाँ की तहाँ रुक गई।  अक्षत ने एक लंबी साँस छोड़ी जैसे कितनी ही देर से साँस रोककर बैठा था। नियति की तो साँसें ही अटक गई थीं, वह डर से काँप रही थी।

अचानक कार की हेड लाइट बंद हो गई।

चारों ओर घुप्प अंधेरा फैला था, पेड़ों के पत्तों से छनकर कहीं-कहीं चाँदनी के छोटे-छोटे टुकड़े बिखरे हुए थे लेकिन हवा के जोर से पत्तों की सरसराहट और नीचे बिखरे सूखे पत्तों की खड़खड़ाहट वातावरण को भयावह बना रहे थे। नियति ने डर के मारे अक्षत का हाथ जोर से पकड़ लिया। 

अक्षत ने होटल में फोन करने के लिए मोबाइल निकाला लेकिन मोबाइल का सिग्नल गायब था। तभी उन्हें कुछ दूरी पर कोई साया दिखाई दिया। 

"शायद वहाँ कोई है।" कहकर उसने अपनी साइड का दरवाजा खोला और बाहर निकल आया। वह मदद पाने की उम्मीद से तेजी से उस साए की ओर बढ़ा, नियति गाड़ी में हैरान-परेशान सी बैठी रह गई, उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी कि वह बाहर निकले। तभी उसकी ओर के दरवाजे के शीशे पर किसी महिला का साया नजर आया। वह जोर से चीख पड़ी। दरवाजा अपने आप खुल गया और एक काला, जला हुआ, बड़े-बड़े नाखूनों वाला हाथ उसकी ओर बढ़ा, हाथ से धुआँ निकल रहा था, उसमें जहाँ-तहाँ चिंगारियाँ हवा लगते ही दहक उठतीं। नियति घबराकर पीछे खिसकने लगी और वह हाथ उसकी ओर बढ़ने लगा, पीछे खिसकते-खिसकते वह ड्राइविंग सीट पर पहुँच गई, डर के मारे उसने आँखें बंद कर लीं तभी उसे अपने कंधे पर जलन महसूस हुई जैसे किसी ने जलता हुआ तारकोल डाल दिया हो, वह जोर से चीखी...उसके चीखते ही कंधे पर जैसे नाखून चुभे और किसी ने उसे जोर से खींचकर बाहर ला पटका। रात के सन्नाटे को चीरती हुई उसकी चीख गूँज उठी और अगले ही पल वह बेहोश हो गई।

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💠💠२

नियति की चीख सुनकर अक्षत पीछे मुड़ा ही था कि तभी उसे उस दिशा से चीख सुनाई पड़ी जिधर वह साया दिखाई दिया था। वह मुड़ा और उसी ओर भागा। परंतु उसे दूर-दूर तक अंधेरे के सिवा कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। अचानक कुछ दूरी से सूखे पत्तों पर किसी के चलने की आवाज आई, वह उस दिशा में नजरें गड़ाकर देखने लगा लेकिन कोई दिखाई नहीं दे रहा था। तभी उसके आगे कुछ मीटर की दूरी पर एक पेड़ की डाली जोर से हिली और साँय की आवाज करती हुई हवा उसके कानों में कुछ कहती हुई गुजर गई..मैं यहाँ हूँ... 

अक्षत चौंककर इधर-उधर देखने लगा। अपने दायीं ओर उसे धुएँ का गुबार उठता दिखाई दिया...इस ठंडी रात में भी वह डर से पसीने-पसीने हो रहा था।

"बेबी कहाँ हो, प्लीज़ हेल्प मी!!" धुएँ के पीछे से उसे नियति की आवाज आई। वह उस ओर दौड़ पड़ा। तभी उसका पैर किसी रस्सी जैसी चीज में फँसा और वह धड़ाम से मुँह के बल गिरा। इससे पहले कि वह उठ पाता उसके पैर में फँसी रस्सी पीछे की ओर खिंचने लगी जैसे कोई खींच कर ले जा रहा हो। वह दहशत से चीख रहा था, उसका एक पैर हवा में एक-डेढ़ फीट ऊँचा उठा हुआ था और वह पीठ के बल पत्तों पर घिसटता जा रहा था। वहीं कहीं दूर से नियति के पुकारने की आवाज आ रही थी। 

क..क..कौन हो त..तुम? सामने क्क्यों नहीं आते? छ..छोड़ दो..." वह चिल्लाया।


तभी उसकी रस्सी ढीली हो गई और पैर जोर से जमीन पर गिरा, जैसे उसका कहा मानकर रस्सी छोड़ दिया हो। वह डरते हुए खड़ा हुआ और इधर-उधर देखने लगा परंतु दूर-दूर तक सिवाय अंधेरे और जगह-जगह छिटकती चाँदनी के और कुछ नजर नहीं आ रहा था। वह अपनी गाड़ी के पास वापस जाना चाहता था लेकिन उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह किस दिशा से आया था। अकस्मात् उसके पैर धरती से ऊपर उठने लगे, वह चीख पड़ा। देखते ही देखते वह धरती से पाँच फीट ऊपर हवा में तैर रहा था, डर के मारे वह पसीने से भीग चुका था, तभी उसे जलने की गंध आने लगी। "प्लीज़! कौन हो तुम..? छोड़ दो मुझे... आखिर मैंने क्या बिगाड़ा है तुम्हारा..." चमड़ी जलने की गंध बढ़ते-बढ़ते एकदम पास आती जा रही थी और उसके नथुनों में समाती जा रही थी, उसका साँस लेना मुश्किल हो गया। 

तभी उसके सामने भक्क से रोशनी हुई और देखते-देखते वह रोशनी धुएँ में परिवर्तित होने लगी। अगले ही पल धुएँ में से जलती हुई मानवाकृति बाहर निकली। वह कोई स्त्री थी, आग की लपटों में घिरी हुई वह दोनों बाहें फैलाए अक्षत की ओर बढ़ी, "बेबी मुझे बचाओ, मैं..मैं मर जाऊँगी..प्लीज़ मुझे बचाओ.." रोती-चीखती हुई वह उससे मदद माँग रही थी।

"यति...यति..कोई है..?? बचाओ! बचाओ मेरी यति को.." अक्षत हवा में झूलते हुए बेबस महसूस कर रहा था। जलती हुई वह स्त्री ठीक उसके सामने आ गई, वह पूरी तरह जल चुकी थी अब उसके सामने स्त्री के आकार में एक दहकता हुआ कोयला खड़ा था। जिसमें से चिंगारियाँ उड़ रही थीं। 

"क..कौन हो तुम?? मुझे नीचे उतारो।" अक्षत समझ गया कि वह नियति नहीं थी, इसलिए गिड़गिड़ा उठा। उस जली हुई आकृति ने अपना हाथ आगे बढ़ाया, वह पीछे हटना चाहता था, लेकिन पैर धरती पर न होने के कारण हट नहीं पा रहा था। उस जले हुए हाथ ने उसे कंधे से पकड़ लिया। अक्षत को ऐसा लगा जैसे किसी ने जलते हुए अंगारे उसके कंधे पर पलट दिए हों। वह जलन से चीख उठा। उस स्त्री ने उसे कंधे से पकड़कर जोर से नीचे पटका लेकिन दहशत के मारे जमीन पर गिरने से पहले ही बेहोश हो चुका था।

***


अक्षत को दूर से कुछ आवाजें आ रही थीं, शायद कोई उसे पुकार रहा था,

"अरे भाई साहब होश में आइए, होश में आइए भाई..ओ भाई साहब!!" 

कोई अन्य व्यक्ति कह रहा था कि "अरे पानी डालो भई कोई उन मैडम को भी होश में लाओ!"

तभी एक और आवाज आई..

"मैं पुलिस को फोन करता हूँ..." उसे ये सब आवाजें बड़ी दूर से सुनाई पड़ रही थीं, वह आँखें खोलना चाहता था लेकिन खोल ही नहीं पा रहा था, उसके हाथ पैर भी नहीं हिल पा रहे थे, उसे महसूस हुआ मानो उसके चेहरे पर झुकी कोई खूबसूरत सी लड़की उसे एकटक देख रही थी, अजीब सी कशिश थी उसकी आँखों में। धीरे-धीरे वह चेहरा उसके जाने-पहचाने चेहरे में बदलने लगा.... 

"त...तुम" कहते हुए वह झटके से उठ बैठा।


सुबह का उजाला फैल चुका था। उसे कुछ लोगों ने घेर रखा था, वह अपनी गाड़ी में ड्राइविंग सीट पर और नियति उसके बगल वाली सीट पर ही बैठी थी लेकिन वह अब भी शायद बेहोश थी। वह आश्चर्य से गर्दन इधर-उधर घुमाकर देखने लगा। "म..मैं यहाँ कैसे..." वह बोला।

ये तो आपको ही पता होगा भाई साहब, हम लोग तो यहाँ से गुजर रहे थे तो आपकी गाड़ी रास्ते से उतरी देखकर मदद करने के इरादे से यहाँ रुक गए, पंद्रह-बीस मिनट से आप दोनों को उठाने की कोशिश कर रहे हैं पर!. खैर आप होश में तो आए मैडम तो अभी भी बेहोश हैं। एंबुलेंस आती ही होगी। 

पानी के छींटे मारकर नियति को भी होश  में लाया गया। होश में आते ही वह चीखकर  अक्षत से लिपट गई और फूट-फूटकर रोने लगी। अक्षत ने फोन करके होटल से गाड़ी मँगवाई और दोनों होटल पहुँचे। 


****

आधुनिक रूप से सुसज्जित कमरे में पहुँचकर भी अक्षत और नियति बुझे-बुझे से थे, अक्षत को रह-रहकर वही चेहरा याद आ रहा था, जो उसके ऊपर झुका हुआ था। "न..नहीं..ये मेरा वहम है..तुम यहाँ नहीं हो सकतीं।" वह अपने-आप से बड़बड़ाया। "बेबी! क्या तुम भी वही सोच रहे हो जो मैं सोच रही हूँ?" नियति बोली।

"तुम क्या सोच रही हो?" अक्षत बोला।

"यही कि हमने यहाँ आकर शायद गलती कर दी।" नियति बोली।

"नहीं, हमने कोई ग़लती नहीं की, ये सब हमारा वहम भी हो सकता है, या रास्ते में उस जगह कोई प्रॉब्लम हो भी, तो इसका ये मतलब नहीं कि हमारा फैसला गलत है।" अक्षत नियति के साथ-साथ खुद के मन को भी तसल्ली दे रहा था।

"लेकिन मुझे बहुत डर लग रहा है।" कहते हुए नियति अक्षत के पास सिमट आई। 

"डरो मत, चलो हम फ्रैश होकर नीचे कैफेटेरिया में चलते हैं तो तुम्हारा मन भी बहल जाएगा।" अक्षत ने कहा। 

"हूँ मैं कपड़े निकालती हूँ तब तक तुम नहा लो।" कहकर नियति बैग खोलने लगी और अक्षत बाथरूम में चला गया। 

थोड़ी ही देर में उसने बाथरूम का दरवाजा थोड़ा सा खोलकर, आवाज लगाकर नियति से कपड़े माँगे। नियति उसे कपड़े देने लगी तो शरारत भरी मुस्कान तैर गई अक्षत के होंठों पर, उसने कपड़े पकड़ने की बजाय उसका हाथ पकड़कर अंदर खींच लिया, एक जला हुआ वीभत्स चेहरा हँसते हुए उसके सामने था। वह चीखकर पीछे हटा लेकिन तब तक नियति उसके ऊपर आ पड़ी। वह डर के मारे उसकी ओर देख ही नहीं रहा था और उसके चीखने से हैरान नियति उसे इस प्रकार डरते देखकर हँस पड़ी। 

"तुम...तुम जाओ यहाँ से?" अक्षत उसकी ओर देखे बिना बोला।

"क्यों रोमांस नहीं करोगे? पहले तो खुद ही खींचा और अब ऐसे डर रहे हो जैसे मैं कोई भूत हूँ!" नियति हँसते हुए बोली। 

उसने अक्षत का कंधा पकड़कर अपनी ओर घुमाया और उसे तौलिया देते हुए बोली- "जल्दी से बाहर आ जाओ मुझे भी नहाना है। कहकर वह बाहर आ गई। डर से अक्षत के पैर काँप रहे थे, उसने जल्दी-जल्दी कपड़े पहने और बाथरूम से बाहर आ गया। 

नियति नहाकर जब बाहर आई तो देखा कि वह नाश्ता कमरे में ही मँगवा चुका था। 

"हम तो कैफेटेरिया जा रहे थे न! फिर ये सब यहाँ क्यों मँगवाया?" उसने पूछा।

"बहुत थक गया हूँ जान, अभी नाश्ता करके आराम कर लेते हैं, बाद में जाएँगे बाहर।" कहकर उसने नियति को वहीं बैठा लिया और नाश्ता करने लगा। हमेशा रोमांटिक मूड में रहने वाला अक्षत आज बिल्कुल बदला-बदला सा लग रहा था। वह नियति की ओर देख भी नहीं रहा था। रात की बात से परेशान है, यही सोचकर नियति बिना कुछ बोले नाश्ता करने लगी। 

****

अक्षत और नियति होटल के पीछे उस हरे-भरे पार्क नुमा जगह पर थे जहाँ से नीचे जाती हुई रंग-बिरंगे जंगली फूलों से भरी, दूर तक फैली हुई खाई थी और खाई के उस पार पहाड़ों के पीछे छिपते हुए सूरज की लाली से सिंदूरी होती पहाड़ी चोटियों की सुंदरता बरबस ही लोगों को अपनी ओर आकृष्ट कर रही थी। नियति का हाथ पकड़े अक्षत एक बेंच पर बैठा पहाड़ी की ओर एकटक देखते हुए कहीं खोया था, अचानक उसके कान के पास सरसराहट सी हुई, वह चौंक कर उस ओर देखने लगा..

"मैं यहीं हूँ.." उसके कान में किसी ने फुसफुसाकर कहा।

"क..कौन हो..?" वह घबराकर खड़ा हो गया और अपने चारों ओर देखने लगा। नियति उसे हैरानी से देख रही थी।

अक्षत को अपने सामने चार-पाँच मीटर की दूरी पर सफेद साड़ी में लिपटी एक लड़की दिखाई दी, जो उसे देखकर मुस्कुरा रही थी। उसके लंबे खुले हुए बाल कमर से नीचे तक लटक रहे थे। वह बेहद सुंदर लग रही थी लेकिन अक्षत को जिस तरह देख रही थी उससे उसके पूरे शरीर में मानों चींटियाँ सी रेंग गईं, वह इस ठंडे मौसम में भी पसीने से भीग गया। 

"आओ...मेरे पास आओ.। अक्षत को दूर खड़ी उस लड़की की आवाज अपने कानों में सरसराती हुई सी सुनाई दी। वह अपनी जगह निश्चेष्ट सा खड़ा रहा तभी उस लड़की का हाथ उसकी ओर बढ़ने लगा और धीरे-धीरे रबड़ की तरह बढ़ते हुए उसके बेहद करीब आ गया। वह वहाँ से भाग जाना चाहता था, लेकिन जैसे ही पीछे मुड़ा उसके सामने वही लंबे बालों वाली लड़की धू-धू कर जल रही थी...

"नहीं...बचाओ..कोई बचाओ उसे.." वह चीखने लगा।

अचानक आग बुझ गई और उस लड़की का तन कहीं-कहीं से दहकता हुआ कोयला बन गया जिसमें से चिंगारी उड़ रही थी और कहीं-कहीं मांस पिघलकर टपक रहा था। बाल अब भी धू-धू करके जल रहे थे। उसने अपने जलकर पिघलते हुए हाथ अक्षत की ओर बढ़ा दिए...

"नहीं.. नहीं..दूर रहो म..मुझसे..दूर..दूर रहो.." कहते हुए वह पीछे खिसकने लगा।

"आओ...आ जाओ..क्या तुम अब मुझे प्यार नहीं करते.. देखो..मैंने तुम्हारे लिए..अपनी दुनिया जला डाली..मेरे..बच्चे..हमारे प्यार की भेंट चढ़ गए, आ जाओ...हम तीनों तुम्हारा इंतज़ार कर रहे हैं.." कहती हुई वह लड़की उसकी ओर बढ़ रही थी..


"न.. नहीं..तुम..तुम जाओ..बच.. बचाओ..!" कहते हुए वह पीछे खिसक रहा था।


"बेबी रुको, क्या हो गया है तुम्हें? यहाँ कोई नहीं है.. प्लीज़ रुको!" कहते हुए नियति उसकी ओर दौड़ी। वहाँ शाम का नजारा देखने आए सभी पर्यटक उसे हैरानी से देख रहे थे, उनमें से किसी को भी अक्षत के आसपास कोई दिखाई नहीं दे रहा था। 

नियति ने दौड़कर उसको पकड़ना चाहा पर उसे जोर का झटका लगा जैसे किसी ने उसे धक्का दिया हो, वह दूर जा गिरी। 

वह जलकर पिघलता हुआ हाथ अक्षत की गर्दन तक पहुँच गया, जैसे ही उसने उसके कंधे पर हाथ रखा पिघला हुआ मांस उसके कंधे पर फैल गया और उसमें से मांस जलने की दुर्गंध उसके नथुनों में भर गई। वह माँस फैलते हुए उसके पूरे शरीर को ढकने लगा, वह चीखने लगा, चीखते हुए वह पीछे खाई की ओर तेजी से खिसकने लगा। पागलों की तरह अपने शरीर पर बहते माँस को अपने दोनों हाथों से पोंछ रहा था, लेकिन वह तो बढ़ता ही जा रहा था। पीछे खिसकते हुए वह खाई में गिरने ही वाला था, तभी किसी ने उसका हाथ पकड़ कर खींच लिया। 

"क्या हो गया है आपको, आप किससे डर रहे हैं?" उसे बचाने वाले व्यक्ति ने पूछा। वह बदहवास-सा अपने चारों ओर देख रहा था, वह जली हुई लड़की वहाँ नहीं थी, फिर उसने महसूस किया कि जलने की दुर्गंध भी नहीं आ रही तो वह जल्दी-जल्दी अपनी कमीज, अपने कंधे और पैर सब देखने लगा पर सब कुछ सामान्य था कहीं कुछ भी वैसा नहीं था जो अभी उसने देखा था। नियति उसके सामने खड़ी रोते हुए उसे देख रही थी। 


"थैंक्यू.. थैंक्यू सर आपने इन्हें बचा लिया।" उसने उस व्यक्ति के सामने हाथ जोड़ दिए।  

"कोई बात नहीं, रात हो चुकी है आप इन्हें ले जाइए, इन्हें आराम की जरूरत है।" कहकर वह व्यक्ति अपने बच्चों के पास चला गया। 

कमरे में आकर नियति ने उसे बैठने के लिए कहकर कॉल करके कॉफी और कुछ खाने के लिए मँगवाया। 

थोड़ी देर में दरवाजे की बेल बजी, नियति वॉशरूम में थी तो अक्षत ने उठकर दरवाजा खोला। कॉफी और स्नैक्स ट्रॉली में रखे स्टाफ का लड़का अंदर आया। वह कॉफी मेज पर रखते हुए अक्षत ओर देखते हुए मुस्कुरा रहा था, उसकी ओर देखते ही अक्षत को उसकी आँखें जानी-पहचानी सी लगीं लेकिन उसकी मुस्कान देखकर उसके अंदर तक कंपकंपी दौड़ गई।

"पहचाना...?" लड़की की आवाज गूँज उठी।

वह झटके से खड़ा हो गया, वह लड़का एकदम से लड़की में बदल गया। 

"क्या हुआ...इतनी जल्दी भूल गए...? उसने सरसराती हुई आवाज में कहा।

उसे देखते ही वह पसीने से नहा गया, उसके हाथ-पैर काँपने लगे, लड़की का अधजला चेहरा बहुत ही भयावह लग रहा था।

उसने अक्षत की गर्दन पकड़ी और ऊपर उठाते हुए बोली- "मुझे मारकर तुम खुश नहीं रह सकते अश्विन, तुम्हें भी हमारे पास आना ही होगा...!"

उसकी चीख सुनकर नियति बाहर आई, अक्षत का सिर छत से छू रहा था वह हवा में लटका हुआ चीख रहा था, उसकी नाक से खून बह रहा था और जोर-जोर से पैर झटक रहा था। उसकी हालत देखकर नियति चीखते हुए बाहर भागी। अगले ही पल कमरे में होटल स्टाफ के कुछ लोग और पास के कमरे में रहने वाले लोग भी मौजूद थे। 

सभी उसको ऐसे छत से चिपके देख हैरान थे, अचानक वह जोर से दीवार से जा टकराया, उसका चेहरा लहूलुहान हो गया। नियति दौड़कर उसके आगे आ गई और हाथ जोड़कर घुटनों पर बैठते हुए गिड़गिड़ा पड़ी, "म..मैं नहीं जानती तुम कौन हो, देख भी नहीं सकती, लेकिन प्लीज इसे छोड़ दो.." 

"छोड़ दूँ!! इसने छोड़ा मुझे? तुझे भी नहीं छोड़ेगा..." एक फुँफकारती हुई आवाज कमरे में गूँज उठी। वहाँ खड़े सभी ने वह आवाज सुनी और आश्चर्य से इधर-उधर देखने लगे।

"अरु..मुझे माफ़..कर दो..मैंने तुम्हारी..जान ली..मुझे माफ़.." अक्षत गिड़गिड़ाते हुए कहा रहा था। 

"माफ़?? तेरे माफी माँगने से मेरे बच्चे वापस आ जाएँगे...? मेरा टूटा विश्वास जुड़ जाएगा..?? मेरा परिवार..मेरी जिंदगी..मेरी इज्जत, मेरा आत्म सम्मान..ये सब वापस मिल जाएगा..? बोल अश्विन!! बता सबको..बता कि तू अक्षत नहीं अश्विन है..अपराधी है..!!" गुर्राती हुई आवाज गूँजी कमरे में।


ह..हाँ मैं..मैं अश्विन हूँ..अक्षत नहीं..मैंने अपनी पत्नी और बच्चों को मरने के लिए मजबूर किया..मैं..मैं नियति को भी कुछ दिनों बाद... छोड़ देने वाला था..मैंने अपनी...पत्नी को...बच्चों को जल..कर मरने के.. लिए मजबूर किया..।" कहते हुए अश्विन बेहोश हो गया। 

वहाँ मौजूद सभी लोग हक्का-बक्का से एक-दूसरे का चेहरा देख रहे थे। 

"अश्विन!!!" नियति होंठों ही होंठों में बुदबुदाई और बेसुध-सी बैठी शून्य में न जाने क्या देख रही थी।

अक्षत को अस्पताल ले जाया गया और वहाँ से उसे पुलिस गिरफ्तार करके ले गई। नियति के पिता उसे वापस अपने साथ ले गए।


मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

मंगलवार

अधूरी कसमें (कहानी संग्रह) की समीक्षा

 “मैं दूसरी बिंदू नहीं बन सकती, इसलिए जा रही हूँ” -मालती मिश्रा



(पुस्तक समीक्षा)

अधूरी कसमें- मालती मिश्रा (9891616087)                    

ISBN No. : 978-81-909863-0-4                        

प्रकाशक :  नारायणी साहित्य अकादमी                     

संस्करण :  2020                           


यह वर्तमान समय की माँग है अथवा विकसित या विकासशील दृष्टिकोण की पहचान, जिसके चलते सृजनशील व्यक्तित्व का धनी व्यक्ति अपनी सृजनशीलता के माध्यम से बहुआयामी जीवन को दर्शाता है। वह जीवन को एकपक्षीय अथवा एकांगी दृष्टिकोण से नहीं देखता। यदि देखता भी है तो कमोबेश अन्य पक्ष तो वह दर्शाता ही है। कुछ ऐसे ही सृजनशील व्यक्तित्व की धनी हैं मालती मिश्रा। जो बहुत कुछ को एक साथ लेकर चलना पसंद करती हैं। साथ ही अपनी सृजनात्मकता को लेकर उनका मानना है कि “मेरी लेखनी अभी अपरिपक्व है, इसे परिपक्व बनाने और इसे धार देने का प्रयास कर रही हूँ।” यह सोच ही उन्हें निरंतर आगे बढ़ा रही हैं, क्योंकि परिपक्वता जैसी स्थिति मानव जीवन में शायद हो ही नहीं सकती। कितना कुछ जानने एवं समझने के पश्चात् भी बहुत कुछ ऐसा होता है जो अबूझ ही रहता है। प्रवीणता की कोई सीमा नहीं होती, वह असीम है। हर अवस्था में सीखने के लिए कुछ न कुछ शेष रहता ही है। 

इस कहानी संग्रह में संग्रहित 13 कहानियाँ 141 पृष्ठों में फैली हुई हैं। इनमें से पाँच कहानियाँ जैसे आंदोलन, निशि, आखिरी रास्ता, आखिरी इम्तहान एवं लीला भाभी मात्र 17 पृष्ठ ही घेरती हैं। शेष आठ कहानियाँ 124 पृष्ठों का विस्तार लिए हुए हैं। इन्हें आठ नहीं बल्कि सात कहानियाँ कहना ही उचित होगा क्योंकि प्रथम एवं अंतिम कहानी के रूप में अधूरी कसमें ही दो भागों में रखी गई है। इन सात कहानियों का कलेवर अधिक विस्तृत होने पर भी पाठकों की रूचि को बनाए रखता है। पाठकों को बाँधे रखने में सफल है। इसे देख यह भाव मन में अनायास ही घर कर जाता है कि कहानीकार आगे उपन्यास-सृजन की दिशा में अवश्य अग्रसर होगी। 

    कहानी विधा की सभी विशेषताएँ तो इन कहानियों में हैं ही, साथ ही और भी कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जिन पर चर्चा अपेक्षित है। प्रथम तो ये किसी कहानी आन्दोलन अथवा किसी तथाकथित मानक विचारधारा को लेकर नहीं चलतीं। जीवन को जैसा है वैसा ही देखती हैं उस पर अपने या किसी अन्य दृष्टिकोण का आवरण नहीं चढ़ातीं। कहानी को अपनी ओर से कोई मोड़ देना यहाँ जरूरी नहीं समझा गया। इस दृष्टि से कहानी के पात्र ही नहीं कहानी भी स्वयं अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखती है। 

    प्रेम जैसे अमिट, अमर भाव को लेकर कहानीकार ने अधूरी कसमें, वो खाली बेंच, वो कौन थी, सवालों की परिधि जैसी कहानियाँ लिखीं। इन कहानियों के पात्र परिस्थितियों के हाथों विवश भले ही हों किंतु प्रेम भाव को तो उत्कर्ष पर ले ही जाते हैं। इसे ऐसे भी कहा जा सकता हैं कि वे प्रेम करते नहीं बल्कि प्रेम को जीते हैं। अधूरी कसमें के अपरा एवं नीलेश, वो खाली बेंच कहानी का समरकांत, वह कौन थी की पंखी, सवालों की परिधि के किशोर एवं आस्था आदि पात्र हर स्थिति में प्यार को जीते हैं, साथी के साथ न होने पर भी वे इस प्रेम-पुष्प को कुम्हलाने नहीं देते। इनमें भी पंखी तो अनूठी है। जो प्राण जाने के पश्चात् भी इस भाव को जीवित रखती है। 

कहानीकार का सौंदर्यबोध भी गजब का है। वर्तमान समय में जहाँ सौंदर्य बाहरी या कास्मेटिक्स, पाउडर एवं क्रीम आदि के बिना अधूरा लगता है वहीं इन कहानियों में सौंदर्य पूर्णतः नैसर्गिक रूप में उभरा है। स्त्री की देहयाष्टि एवं अंगों से उत्पन्न सौंदर्य, उसके रंग से उत्पन्न सौंदर्य एवं उसके सामान्य पहनावे एवं भाव-भंगिमाओं से उत्पन्न सौंदर्य का वैविध्य यहाँ देखा जा सकता है। रंगों के मिश्रण एवं संयोजन से उत्पन्न सौंदर्य को भी वे सफलतापूर्वक दर्शाती है। प्राकृतिक सौंदर्य भी विशेष रूप से सूर्य के अस्तांचलगामी सिन्दूरी रूप को भी दर्शाने का कोई अवसर वे हाथ से जाने नहीं देतीं। 

मेहमान एक रात की, चुनाव, आंदोलन, आखिरी रास्ता, आखिरी इम्तहान, लीला भाभी एवं बाल विवाह समस्या प्रधान कहानियाँ है। सामान्य से लेकर जीवन की विशेष समस्याओं को यहाँ अच्छे से उठाया गया है। चुनाव कहानी आजादी के बाद से चले आ रहे राजनैतिक परिदृश्य को इस एक वाक्य में सफलता पूर्वक दर्शा जाती है। “अब भइया कोई कितनो हाथ-पाँव मार ले, जीत तो बलवंत चौधरी की होयगी अरे जब से हम होश संभाले हैं न... तब से किसी अउर को तो देखा ही नहीं गाँव का परधान। पहले उसके दादा परधान थे, फिर उनके बाप भए अउर उनके बाद फिर बलवंत चौधरी।” भारतीय राजनीती में फल-फूलकर वटवृक्ष बन चुके वंशवाद को यहाँ दर्शाया गया है। किंतु भारतीय विशेषकर ग्रामीण मतदाताओं के दृष्टिकोण में आ रहे परिवर्तन की ओर भी इसी कहानी की यह पंक्ति इशारा करती है “भइया तुम ई बात तो ठीक कर रहे हो कि आस-पास के अउर गाँव की तरक्की हमारे गाँव से ज्यादा भई है”। अर्थात् वोट अब विकास के नाम पर भी पड़ेंगे।  

स्त्री शिक्षा को लेकर भी कहानीकार सजग है। इसी कहानी का एक पात्र कहता है “चुपकर बेवकूफ! आज के जमाने में भी लड़कियों को अनपढ़ रखने की वकालत कर रहा है”। रामधनी क्रोध में बिफऱ पड़ा”। इसी प्रकार बाल विवाह कहानी भी अपने आप में बेजोड़ है। स्त्री की बदली सोच, एवं एक प्रकार से उसे पूर्ण व्यावहारिक होते हुए यहाँ दर्शाया गया है। वह समस्या को लेकर परेशान होने, रोने-बिलखने तक ही स्वयं को सीमित न रखकर उसका समाधान करने की दिशा में भी अग्रसर है एवं समाधान को धरातल पर लाने में भी सफल होती है। इसे इस पंक्ति के माध्यम से जाना जा सकता है “मैं दूसरी बिंदू नहीं बन सकती, इसलिए जा रही हूँ”। पढ़ी-लिखी पत्नी के होने पर पति में उपजी कुण्ठा आदि भी यहाँ दिखती है। 

स्त्री से जुड़ी अन्य महत्वपूर्ण समस्याओं को भी यह कहानी सफलतापूर्वक दर्शाती है। परिवार में जहाँ एक ओर बहू के लिए घूँघट की अनिवार्यता आज भी कुछ क्षेत्रों में कमोबेश बनी हुई है वही उसे शौचालय के लिए बाहर खुले में ही जाना पड़ता है। इस समस्या के अन्य पक्षों की ओर भी यह कहानी संकेत कर जाती है। 

अपने परिवेश से पूर्णतः संबद्ध कहानीकार वर्तमान को साथ लेकर चलती हैं। विकृत राजनीति से प्रेरित घटनाक्रम से स्वयं को अछूता नहीं रखतीं। आन्दोलन कहानी तथाकथित किसान आन्दोलन की पोल खोल कर रख देती है। जब उसका प्रमुख पात्र कहता है “हम बर्बाद होई गए हरि की माँ, ई किसान आन्दोलन ही हम किसानों के जान की दुश्मन हो गई, अरे हमें का लेना देना ई सबसे लेकिन नहीं, ई नेता लोगन अपने-अपने गुण्डा छोड़ रक्खे हैं, जबरजस्ती हम लोगन के सब्जी, फल सब छीन के सड़क पर फेंक रहे हैं, और हमें धमका के मारपीट के भेज दिये।" हरखू कहते-कहते बिलख कर रोने लगा। उसे अपनी सारी जरूरतें और सपने किसान आन्दोलन की भेंट चढ़ते दिखाई दे रहे थे। भाषा-शैली को लेकर भी कहानीकार पूर्णतः सजग है। भाषा का प्रवाहमान एवं पात्रानुकूल रूप यहाँ देखने को मिलता है। 

अंततः यह कहा जा सकता है कि जो पाठक जीवन के विविध आयामों को एक साथ देखना पसंद करते हैं, वर्तमान परिवेश को गहराई से जानना चाहते हैं, सौंदर्य को वास्तविक रूप में देखना जिनकी प्राथमिकता है उन्हें आगे आकर इस ‘अधूरी कसमें’ कहानी संग्रह को हाथों-हाथ लेकर कहानीकार को आगे भी सृजन जारी रखने के लिए प्रेरित करना चाहिए।  


समीक्षक

डॉ. पवन कुमार पाण्डे

असिस्टेंट प्रोफेसर ऑफ हिन्दी

गवर्नमेंट डिग्री कॉलेज भैंसा, निर्मल

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