गतांक से आगे..
"नहीं..मैं ऐसा नहीं कहती कि पुरुष का जीवन बेहद सरल होता है बल्कि मैं तो ये कहूँगी कि यदि पुरुष न हो तो किसी नारी की कहानी पूरी ही नहीं होगी। रही विचार योग्य होने की तो इसका जवाब तो आप ने यह प्रश्न पूछकर ही दे दिया।"
वह महिला पत्रकार के चेहरे पर आश्चर्य मिश्रित सवालिया भाव देखकर पुन: बोली,
"जी हाँ देखिए न आप एक महिला होते हुए भी पुरुष के विषय में विचार कर रही हैं न! तो कैसे कह सकती हैं कि पुरुष का योगदान विचार योग्य नहीं होता? इस उपन्यास में महिला के जीवन के हर पहलू पर विचार करने के साथ ही प्रयास यही किया है कि पुरुष पात्र के भी सभी पहलुओं को दिखाएँ लेकिन उन पात्रों के साथ न्याय या अन्याय का निर्णय तो आप और पाठक स्वयं ही कीजिए।" अलंकृता ने मुस्कुराते हुए कहा।
सबको चुप होते देख कॉफी का घूँट भरकर कप मेज पर रखते हुए 'नई दुनिया नया समाज' के वरिष्ठ पत्रकार दुष्यंत मीणा ने अपना सवाल दागा..
"लेखिका महोदया! बहुधा लेखक समाज की हर छोटी-बड़ी घटना पर नजर रखते हैं और अपने लेखन के द्वारा उन्हें प्रकाश में लाते हैं, फिर आप क्यों हाथ धोकर सिर्फ 'नारी मुक्ति' के पीछे पड़ी हैं? आपको नहीं लगता कि ये विषय अब बहुत पुराना हो चुका है इस पर काफी विचार-विमर्श हो चुका है तो अब आपको अपना विषय बदल देना चाहिए?"
अलंकृता की नजरें कुछ पल तक दुष्यंत मीणा पर गड़ी रहीं फिर उसने बोलना शुरू किया- "महोदय! समाज की हर छोटी-बड़ी घटना पर नजर रखना और उसे प्रकाश में लाना आप पत्रकारों का काम है और मैं पत्रकार नहीं हूँ।"
हॉल में कहीं-कहीं से हँसने की आवाजें आने लगीं, तभी उसने आगे बोलना शुरू किया।
"हाँ मानती हूँ कि एक लेखिका होने के नाते मुझे भी अपनी आँखें खुली रखनी चाहिए और समाज और देश की प्रथाओं-कुप्रथाओं, रीतियों-कुरीतियों को अनावृत करते रहना चाहिए, तो मैं वही तो कर रही हूँ। दैनिक और सामयिक घटनाओं को प्रकाश में लाने के लिए आप लोग हैं और जो अच्छाइयाँ-बुराइयाँ समाज की धमनियों में लहू बनकर बह रही हैं, उनके हर पहलू पर विचार-विमर्श करना उन पर सवाल उठाना हमारा काम है, तो मैं वही कर रही हूँ। अब रही नारी-विमर्श के विषय के पुराने होने की बात, तो आप बताइए न! क्या समस्या खत्म हो गई? और अगर नहीं, तो जब तक खत्म न हो जाए तब तक इस पर विचार-विमर्श तो होते ही रहना चाहिए.....
मैं मानती हूँ कि सदियाँ बीत गईं स्त्री को विमर्श का मुद्दा बने हुए, हम अलग-अलग समय में अलग-अलग तरीके से स्त्री की परिस्थितियों पर विचार-विमर्श करते हैं, लोगों का ध्यान उस ओर आकृष्ट करते हैं ताकि उनकी परिस्थितियों में सुधार आए। मैं ये नहीं कहती कि कोई सुधार नहीं हुआ है, पर कितना? क्या आज भी स्त्री हर क्षेत्र में बराबर का अधिकार रखती है? चलिए मान लिया रखती है पर क्या उसे समान परिस्थिति में समान निर्णय के लिए समान सम्मान मिलता है??? एक छोटा सा उदाहरण..... सोच कर देखिए, क्या दूसरा विवाह करने वाले पुरुष और स्त्री को समान सम्मान मिलता है?? क्यों पुरुष अपने से दस-बीस साल छोटी लड़की से विवाह कर सकता है, उसे समाज की पूरी स्वीकृति होती है परंतु एक स्त्री दस-बीस तो छोड़ो कुछ साल छोटे पुरुष से भी विवाह नहीं कर सकती और अगर कर ले तो समाज में वह सम्मान नहीं पाती। क्यों दूसरे विवाह के उपरांत स्त्री तो पति के बच्चों को पूरी मर्यादा के साथ अपना लेती है परंतु पुरुष के लिए पत्नी के बच्चे सदैव पराए ही रहते हैं??? आप ही बताइए क्या हमारा समाज आज भी इन परिस्थितियों को सामान्य रूप से स्वीकृति दे पाया है???? नहीं न!! तो क्यों न हम इस मुद्दे को जीवित रखें??"
अलंकृता चुप हो गई लेकिन पूरे हॉल में इस प्रकार सन्नाटा छा गया जैसे लोग अभी उसी की बातों में इस तरह उलझे हुए हैं कि अभी तक बाहर नहीं निकल पाए हैं। तभी पीछे किसी ने ताली बजाई और एक ही पल में पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।
कुछ ही देर में प्रकाशक द्वारा जाने-माने वरिष्ठ साहित्यकारों को मंच पर बुलाकर पुस्तक का लोकार्पण करवाया गया। वहाँ उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति अरुंधती की चर्चा में मशगूल था, कोई कहानी की चर्चा कर रहा था तो कोई भाषा-शैली की, कोई कवर पेज की सुंदरता और सार्थकता की बात कर रहा था तो कोई शिल्प सौंदर्य और विषय-वस्तु की। अलंकृता एक ओर खड़ी मोबाइल पर किसी से बात कर रही थी। उसके चेहरे पर संजीदगी ने अपना आधिपत्य जमा लिया था। कुछ दूरी पर खड़ा सिद्धार्थ एकटक देखते हुए उसके चेहरे पर बनते-बिगड़ते भावों को पढ़ने की कोशिश कर रहा था।
फोन काटते ही उसने प्रकाशक महोदय से कुछ कहा और जल्दी-जल्दी हॉल से बाहर की ओर जाने लगी। उसे बाहर जाते देख सिद्धार्थ भी उसके पीछे-पीछे तेजी से बाहर आ गया। "अलंकृता!! कृति रुको!"
सिद्धार्थ की आवाज सुनते ही अलंकृता अपनी जगह पर ठिठक गई और पीछे मुड़कर देखा तो सिद्धार्थ तेजी से उसकी ओर ही आ रहा था।
"क्या हुआ पत्रकार महोदय मेरे पीछे क्यों? कोई और प्रश्न बाकी है क्या?" उसने मुस्कुराते हुए कहा।
"ह..हाँ मैडम..बाकी है, अब ये बताओ कि कार्यक्रम अधूरा छोड़कर इतनी जल्दी-जल्दी में कहाँ जा रही हो? तुम्हारी कृति का लोकार्पण समारोह है और तुम ही नहीं होगी! कुछ अजीब नहीं है।" सिद्धार्थ ने शिकायती लहजे में कहा हालांकि वह भी जानता था कि कुछ अति आवश्यक कार्य ही होगा जिसकी वजह से उसे जाना पड़ रहा है।
"कुछ बहुत अर्जेंट है सिद, जाना जरूरी है। लौटकर तुमसे मिलती हूँ।" कार का दरवाजा खोलते हुए उसने कहा।
"ओके ध्यान रखना अपना और मेरी किसी सहायता की जरूरत हो तो फोन कर देना, टेक केयर।" सिद्धार्थ ने कहा और तब तक वहीं खड़ा रहा जब तक कि अलंकृता की गाड़ी बड़े से गेट से बाहर नहीं चली गई।
चित्र- साभार गूगल से
मालती मिश्रा 'मयंती'
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