शुक्रवार

मेरा अध्यापन काल


 मुझे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे मैं वर्षों की कैद से आज़ाद हो गई परंतु कोई ख़लिश सी भी है, मैं खुद ही समझ नहीं पा रही कि मुझे खुश होना चाहिए या उदास!! अपने मित्रों से दूर हुई हूँ। अभी कुछ समय पहले से तो उनसे तालमेल अच्छा बैठने लगा था और अभी ही उनसे हमेशा के लिए दूर हो गई, तो खुश कैसे हो सकती हूँ! पर सिर्फ मित्रों के कारण तो नही वहाँ रुका जा सकता था, मित्र भी तो तब तक ही मिताई निभाते हैं, जब तक वो मानसिक रूप से प्रसन्न होते हैं, जब उन पर ही बहुत अधिक दबाव होगा, वो स्वयं को ही नहीं संभाल सकते तो मेरे साथ कैसे दोस्ती दिखाते। हाँ ये सच है जब हम दो-चार लोग एक साथ बैठ कर काम करते हैं तो बीच-बीच में थोड़ा बहुत हँसी-मज़ाक करते रहने से माहौल हल्का रहता है और काम का बोझ मस्तिष्क को बहुत अधिक नहीं थकाता और ऐसा दिन हमें हफ्ते में सिर्फ एक बार ही मिलता था, शनिवार को। लेकिन अब तो वो भी खत्म हो गया था। खैर मुझे क्या लेना-देना मैं तो अब मुक्त हो गई इस बंधन से।
बहुत दुख हुआ जब मैं अपनी उन सभी कलीग से विदा ले रही थी, इतना अधिक कि मैं चाहते हुए भी अपने आँसू रोक नहीं पाई और रो पड़ी, सबसे जिनसे हमारा तालमेल अच्छा था गले लग कर विदा लिया और ऐसे निकली स्कूल से जैसे अभी-अभी रिहाई मिली हो।
ऐसा नहीं है कि मुझे मेरा प्रोफेशन अच्छा नहीं लगता और न ही मैं कामचोर हूँ, फिर भी मुझे वहाँ काम करके ऐसा लगता मानो मैं गुलामी कर रही हूँ, और गुलामी करना मैं कब तक मंजूर करती या अपने इस अहसास को कब तक जिम्मेदारी का नाम देती? आखिर कभी तो सहनशक्ति का अंत होना ही था सो आज हो गया।
मैं घर आते समय पूरे रास्ते यही सोचती आई कि अभी घर पर किसी को नहीं बताऊँगी, कल रविवार है परसों जब सुबह स्कूल नहीं जाऊँगी तब यह सबके लिए सरप्राइज़ होगा। कभी सोचती क्या यह सही होगा किसी को न बताना? मस्तिष्क में तरह-तरह के विचारों के बादल उमड़-घुमड़ रहे थे, कई बार सिर झटक कर दिमाग में आने वाले खयालों से मुक्त होने का प्रयास करती कहीं ऐसा न हो कि सोचते-सोचते खयालों में ऐसी खो जाऊँ कि स्कूटी ही किसी गाड़ी से ठोंक दूँ, इसीलिए मैं ड्राइव करते हुए दिमाग को इन सब ख़यालों से परे रखने का प्रयास करती पर सोच पर किसका वश चला है, यही तो है जो कभी किसी भी परिस्थिति में किसी का गुलाम नहीं होता। एक कैदी भी ख़यालों में ऊँची उड़ान भर सकता है। एक भिखारी भी राजा बनने के ख़वाब देख सकता है। सोच ही तो है कुछ भी सोच ले कभी भी सोच ले कोई पाबंदी नहीं लगा सकता, इसीलिए मेरा मस्तिष्क भी अपनी सोच की यात्रा पर अनवरत चलायमान था। खैर मैं सही-सलामत घर पहुँच गई। बहुत हल्का महसूस कर रही थी पर कहीं कोई ख़लिश सी है, कुछ अधूरापन सा लग रहा था पर क्या? पता नहीं। बेटी ने चाय बना कर दी मैंने हाथ-मुँह धोकर कपड़े बदले और चाय लेकर अपने कमरे में चली गई। चाय पीते-पीते ही मैंने अपनी आजादी पर एक कविता लिख डाली और पोस्ट कर दिया अपने ब्लॉग और फेसबुक पर
"आज मैं आजाद हूँ"
उड़ान भरने को स्वच्छंद गगन में
तोल रही पंखों का भार
भूल चुकी हूँ पर फैलाना
पंखों में भरना शीतल बयार
होड़ लगाना खुले गगन में
छू लेने को अंबर का छोर
निकल पड़ी हूँ तोड़ के पिंजरा
तोड़ दिया है भय की डोर
फँसी हुई थी अपने ही
आकांक्षाओं के बुने जाल में
अब जब जागी तो तोड़ दिया
नही फँसी निष्ठुर जंजाल में
रहता था मन व्याकुल हरपल
देख-देख असंवेदनशीलता
भर उठता था विद्वेष हृदय में
मानव के प्रति देख क्रूरता
तिल-तिल घुटती रहती थी
उस सुनहरे पिंजरे में
आज वो पिंजरा तोड़ चली
उन्मुक्त गगन के सहरे में
अब तो अपनी हर सुबह होगी
होगी अपनी हर शाम नई
पूरे करूँगी अपने वो सपने
अंतर्मन में दबे-कुचले जो कई
बनाने को उज्ज्वल समाज
निज सदन तम विस्तार किया
उसी तम को मिटाने के लिए
पग-पग पर दीप प्रज्ज्वलित किया
न होंगी अब शिकवों की संध्या
नही शिकायतों भरी प्रात
हर शिकवे-गिले मिटाने को
मन में जगाया नव प्रभात
जो समय गँवाया जी हुजूर में
वो तो वापस पा सकती नहीं
परंतु बचे अनमोल पलों को
अब और गँवा सकती मैं नहीं।

अभी आज ही तो त्याग पत्र देकर आई हूँ पर ऐसा महसूस हो रहा है जैसे कब से खाली हूँ, परंतु इस खालीपन में निराशा नहीं है बल्कि मैंने तो सोच लिया है कि अब मैं घर पर ही रहूँगी, बहुत कर लिया नौकरी, इस नौकरी के कारण मेरे बच्चों को कितने समझौते करने पड़े, उन्हें घर के काम भी करने पड़ते हैं और मैं इस बोझ के नीचे हमेशा दबी रहती हूँ, हमेशा इसी अपराध बोध में दबी रहती हूँ कि मेरे कारण मेरे बच्चों को घर के काम करने पड़ते हैं और वे अपनी लाइफ एन्ज्वाय नहीं कर पा रहे हैं।
मुझे भी क्या मिला इस प्रोफेशन से?? अगर किसी ऑफिस में जॉब करके अपने करियर की शुरुआत की होती तो इतने सालों में जितनी मेहनत की है उतने में तो कम से कम पचास-साठ हजार रूपए मासिक वेतन होता मेरा। पर मुझे तो यही प्रोफेशन पसंद आया।
तनख्वाह भले कम है पर सम्मान तो है, जब हजार पंद्रह सौ बच्चे इज्ज़त से मैडम कहकर पुकारतेे हैं तो कम तनख़्वाह की टीस पता नहीं कहाँ गायब हो जाती है। जब हमें ये अहसास होता है कि हमारे हाथों देश के भविष्य का निर्माण हो रहा है तो तनख़्वाह शब्द बहुत छोटा महसूस होने लगता है। जब माता-पिता हमसे आकर यह कहते कि मैडम अब तो हमारा बच्चा आपके सुपुर्द है आप ही जैसा चाहें बना सकती हो या ये कहते कि मैडम हमारा बच्चा तो आपकी ही बात मानता है हमारी तो सुनता ही नहीं, तो उस समय तो उस सम्मान के समक्ष तनख़्वाह शब्द तुच्छ प्रतीत होता। पर क्या आज के जमाने में ये संभव है कि सिर्फ तारीफों और सम्मान से जीवन निर्वहन संभव हो सके। अब मैंने जॉब छोड़ तो दिया है और यह भी सत्य है कि मुझे इस जॉब को छोड़कर दुःख भी नहीं है पर मुझे दुबारा जॉब की आवश्यकता नहीं होगी इसमें संदेह है। पर जो भी हो मैं अब कोशिश करूँगी कि मुझे दुबारा अध्यापिका की नौकरी न करनी पड़े।
जी हाँ, "अध्यापिका" मैं एक ऐसी अध्यापिका हूँ जो आज अध्यापन से दूर भाग रही है, इसलिए नहीं कि मुझे अध्यापन पसंद नही, बल्कि ऐसा इसीलिए है क्योंकि मुझे अध्यापन बहुत पसंद है। फिर भी मैं इससे दूर भाग रही हूँ। मैंने अपने जीवन के बेशकीमती सत्रह-अट्ठारह साल दिए हैं अध्यापन को पर परिणाम क्या हुआ आज भी मैं असंतुष्ट हूँ क्योंकि जहाँ एक ओर इससे मुझे आर्थिक सुदृढ़ता नहीं मिली, वहीं दूसरी ओर विद्यालयों के आधारहीन सिस्टम के कारण बच्चों को संतोष जनक शिक्षा न दे पाने का असंतोष। मैं कम सैलरी तो बर्दाश्त कर लेती पर अपने प्रोफेशन के साथ न्याय न कर पाने का दर्द और बच्चों के साथ शिक्षा के नाम पर दिखावा मुझसे सहन नहीं हो सकता।
मैंने जब से यह स्कूल ज्वाइन किया तभी से मैंने सिर्फ यही महसूस किया कि जब मैंने अध्यापन शुरू किया था तभी मुझे ऐसा अनुभव मिला होता तो आज मैं इस प्रोफेशन में नहीं होती क्योंकि दिखावा और बनावटी पन मुझे अधिक समय तक बर्दाश्त नहीं। यहाँ भी लगभग ढाई साल मैं सिर्फ अपनी जरूरतों के कारण टिकी रह सकी वर्ना तो कब की यह नौकरी छोड़ चुकी होती। 💐💐
मैं बहुत देर तक लेटी रही पर न ही मेरा टी. वी. देखने का मन हो रहा था और न ही मुझे नींद आ रही थी। ऐसा लग रहा था अपने जीवन का एक हिस्सा काटकर अलग कर दिया है। अब दुबारा अध्यापिका की नौकरी न करने का मेरा फैसला मेरे मन के खालीपन का कारण है। क्यों अध्यापन में मेरी जान बसती है? क्यों अध्यापन के बिना मैं अधूरी महसूस करती हूँ? क्यों मैं अध्यापन को छोड़कर मानसिक प्रसन्नता हासिल नहीं कर पा रही हूँ? क्यों मुझे ऐसा लगता है जैसे इसके अलावा मेरे पास करने को कोई और काम नहीं? मैं ऐसे बहुत से प्रश्नों के जाल में उलझती जा रही थी पर कोई ऐसा मेरा है भी तो नहीं जिससे मैं कुछ सलाह-मशविरा कर पाती। पति देव से तो किसी सलाह की उम्मीद रखना भी मूर्खता ही होगी तो वहाँ तो आजमाना भी व्यर्थ है। बाकी देखते हैं क्या होगा?
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आज मैं सोचती हूँ कि जो अध्यापन आज मेरे जीवन का एक अभिन्न अंग सा बन गया है, मैंने तो कभी सोचा भी नहीं था कि कभी मैं इस क्षेत्र में आऊँगी भी। मुझे याद है किस प्रकार मैं सिर्फ शौकिया तौर पर अपने समय का सही उपयोग करने के उद्देश्य से अपनी एक पड़ोसन जो उस समय मेरी बहुत अच्छी सहेली थी 'शशि', उसके साथ स्कूल में इंटरव्यू देने गई थी।

दिल्ली में आए हुए मुझे लगभग चार साल हो चुके थे, मेरी बेटी तीन साल की हो चुकी थी और अब मुझे उसका एडमिशन किसी स्कूल में करवाना था, मेरी पड़ोसन जिससे मेरी मित्रता काफी अच्छी हो चुकी थी, कहते हैं न समान परिस्थितियाँ, समान समस्याएँ अकसर दो इंसानों को करीब ले आती हैं। कुछ ऐसा ही हाल हम दोनों की दोस्ती का था। उसके दो बच्चे थे बड़ा बेटा कोई पाँच-छः साल का और छोटी बेटी मेरी बेटी से मात्र दो माह छोटी थी। हम दोनों पहले एक ही मकान में किराए के कमरों में रहते थे तभी से हमारी दोस्ती हो गई थी। अब हम लोग अलग-अलग मकानों में रहने लगे थे पर मिलना-मिलाना तो था ही इसीलिए एक दिन उसने ही कहा कि क्यों न हम लोग आस-पास के किसी स्कूल में अध्यापिका की नौकरी के लिए कोशिश करें, छोटी क्लास को तो पढ़ा ही सकते हैं हम।
"हाँ हाँ क्यों नहीं, जरूर" मैंने कहा था। "पर मुझे चार साल हो गए किताब हाथ में पकड़ा भी नहीं है मैंने और फिर मैं यू. पी. की पढ़ी हुई हूँ, पता नहीं यहाँ दिल्ली की पढ़ाई कैसी होती है, मुझे तो कोई आइडिया भी नहीं है।" मैंने झिझकते हुए कहा था।
"कोई कठिन नहीं होती, तुम चिन्ता मत करो, तुम पढ़ा लोगी।" उसने कहा।
"तुम्हारा बेटा तो स्कूल जाता है, तुम उसे पढ़ाती हो इसलिए तुम्हें तो पता है कि यहाँ की पुस्तकें कैसी हैं पर मैं बिल्कुल अंजान हूँ फिर भी कोशिश करते हैं देखा जाएगा।" मैंने कहा।
दूसरे दिन हम दोनों अध्यापिका की नौकरी की तलाश में आस-पास के प्राइवेट विद्यालयों में साक्षात्कार देने निकल गए। शशि वहाँ मुझसे अधिक समय से रह रही थी और घर से बाहर उसका आना-जाना भी रहता था, इसलिए उसे उस पूरे एरिया की जानकारी थी और दूसरी ओर मैं निपट अंजान, वो जिधर जिस गली को मुड़ती मैं भी चुपचाप उसके पीछे मुड़ जाती।
दो-तीन विद्यालयों में पूछने के बाद एक विद्यालय की उप-प्रधानाचार्या ने हमें ऑफिस में बुलाया और हमारा साक्षात्कार लिया।  उस समय बायोडाटा आदि की माँग होती थी या नहीं मुझे नहीं पता क्योंकि हमें इसकी आवश्यकता महसूस नहीं हुई थी अर्थात् हमसे हमारे सर्टिफिकेट और प्रार्थना-पत्र माँगे गए थे, सर्टिफिकेट की कॉपी हम लेकर गए थे और प्रार्थना-पत्र हमने वहीं बैठकर लिखे। उस समय वार्षिक परीक्षाएँ समाप्त हो चुकी थीं, रिजल्ट आदि की तैयारियाँ चल रही थीं, इसलिए विद्यालय बच्चों के लिए बंद थे। बिना बच्चों के हमारा डैमो तो हो नहीं सकता था इसलिए उन्होंने हमें तीन अप्रैल को बुलाया।
घर आते समय शशि ने कहा-"तुमने बी०ए० की मार्कशीट भी दिखाई?"
"हाँ... पर बी०ए० पूरा कहाँ किया है सिर्फ सेकेण्ड-ईयर ही तो किया है। क्या नहीं दिखाना था?" मैंने कहा। मुझे लगा शायद मैंने गलती कर दी।
"मैं तो अपनी फर्स्ट-ईयर की मार्कशीट लाई ही नहीं, मैं भी दिखा सकती थी।" शशि ने कहा था।
"तो क्या हुआ, तुमने पहले भी पढ़ाया है, तुम्हें पढ़ाने का अनुभव है और मैं इस मामले में कोरा कागज हूँ। तो एक अतिरिक्त मार्कशीट से क्या फर्क पड़ने वाला है, मुख्य बात तो ये है कि किसे पढ़ाना आता है।" मैंने सहजता से कह दिया था।  पर मुझे लगा शायद कुछ हुआ जो नहीं होना चाहिए था पर क्या और क्यों उस समय समझ न सकी थी।
हम दोनों ही खुश थे कि हम जिस उद्देश्य से निकले थे वो पहले ही दिन पूर्ण हो गया था। अब करीब हफ्ते भर की बात थी, फिर हम दोनों सहेलियाँ एक साथ एक ही स्कूल में पढ़ा रही होंगी। मैं मन ही मन शशि का धन्यवाद करती कि उसकी वजह से अब मैं अपनी शिक्षा का सदुपयोग कर पाऊँगी।
तीन अप्रैल को हम दोनों समय से विद्यालय पहुँच गए, जहाँ मुझे घबराहट हो रही थी कि पता नहीं पुस्तकें कितनी कठिन होंगी? मैं पढ़ा पाऊँगी या नहीं? वहीं शशि आत्मविश्वास से भरी थी। हम दोनों को विद्यालय के संस्थापक जो कि मैनेजर भी थे, से मिलवाया गया। फिर मुझे दूसरी कक्षा और शशि को एल०के०जी० में भेजा गया।
अब मेरे भीतर थोड़ा विश्वास जगा, मेरे मस्तिष्क में ये विचार कौंध गया कि इन सभी को मुझमें कुछ खूबी तो नजर आई होगी, तभी तो इन्होंने अनुभवहीन होने के बाद भी मुझे शशि से बड़ी कक्षा पढ़ाने को दी है। यह बात शशि ने भी महसूस किया, उन्होंने कहा- "देखा पर्सनैलिटी का असर, तुम्हारी पर्सनैलिटी मुझसे ज्यादा प्रभावी है इसलिए तुम पर ज्यादा विश्वास है, सिर्फ अनुभव होने से कुछ नहीं होता।"
"छोड़ो न क्या फर्क पड़ता है, हम दोनों साथ में एक ही स्कूल में हैं यही क्या कम है?" मैंने माहौल को हल्का करने के लिए कहा था।
"हाँ, तुम सही कह रही हो।" शशि ने कहा और फिर एक दूसरी अध्यापिका ने आकर हमें क्लासेज बताए और हम दोनों अपनी-अपनी कक्षाओं में चले गए।
दिल्ली में रहते हुए किसी विद्यालय में यह मेरा पहला अनुभव था। उस समय कक्षा में प्रवेश करते हुए मेरे पैरों में कोई लड़खड़ाहट नहीं थी किंतु मेरे दिल की धड़कने मेरे कान भी सुन सकते थे। मैं भले ही ऊपर से आत्मविश्वास से भरी हुई दिखाई दे रही थी पर भीतर ही भीतर मैं पूरी की पूरी हिली हुई थी। खैर मैंने कक्षा में प्रवेश किया बच्चों ने खड़े होकर गुड मॉर्निंग विश किया, उन्हें बैठाने के पश्चात् जब मैंने अंग्रेजी की पुस्तक हाथ में ली और उसे खोलकर देखा तो मैं बयाँ नहीं कर सकती कि मैं कितनी प्रसन्न हुई थी...अब मैं पूर्णतया कॉन्फिडेंट थी, मेरी प्रसन्नता ने मेरे पढ़ाने के तरीके और गति को और अधिक प्रभावशाली बना दिया था। किसी दूसरी कक्षा से एक बच्चा अंग्रेजी की पुस्तक लेकर आया और उसने एक शब्द दिखाकर मुझसे कहा कि "हमारी मैम आपसे इसकी मीनिंग पूछ रही हैं।" मैंने उसे बता दिया किन्तु उसके जाने के पश्चात् मुझे लगा शायद यह मेरी परीक्षा थी। खैर मुझे क्या, मैंने तो जवाब दे ही दिया है और सही दिया है। मैं फिर से पढ़ाने में व्यस्त हो गई और इतने दिनों की घबराहट अब मुझे दूर-दूर तक भी नहीं नजर आ रही थी।
उस दिन छुट्टी के बाद हम दोनों को हमारी तनख्वाह बताई गई मात्र "चार सौ" रूपए मासिक। शायद उस समय इतने या इसके आस-पास ही मिलते होंगे, हमें कोई शिकायत नहीं थी हमने चार सौ रूपये मासिक वेतन पर अध्यापन करना स्वीकार कर लिया और दोनों यह सोचते हुए कि "यह तो अभी शुरुआत है।" खुशी-खुशी घर आ गए।

धीरे-धीरे पढ़ाना मुझे न सिर्फ अच्छा लगने लगा यह मेरे जीवन का अभिन्न अंग बनता जा रहा था। बच्चों को कैसे सिखाया जाय कि उन्हें जल्द ही टॉपिक समझ में आ जाए और कक्षा में किस प्रकार अनुशासन बनाए रखा जाए? हर समय मस्तिष्क बस इसी विषय पर सोचने का काम करता। मैंने और शशि ने अपनी-अपनी बेटियों का दाखिला भी उसी स्कूल में करवा दिया था। मैं यह नहीं कहती कि उस समय पैसा मुझे नहीं चाहिए था, यदि कोई भी व्यक्ति परिश्रम करता है तो निःसंदेह वह पारिश्रमिक की आशा भी करता है अन्यथा उसके कार्य पर असंतोष की परछाई मंडराने लगती है। पारिश्रमिक तो मुझे भी चाहिए था और वह कम या अधिक जो भी था मिल रहा था परंतु इतना अवश्य कहूँगी कि उस समय मेरे लिए पैसा दूसरी पायदान पर खिसक आया था और अध्यापन पहली पायदान पर पहुँच गया था। मैं स्वयं यह महसूस करने लगी थी कि अध्यापन से मेरे ज्ञान की वृद्धि के साथ-साथ आत्मविश्वास की वृद्धि हो रही थी और साथ ही व्यक्तित्व में भी निखार आ रहा था। धीरे-धीरे मुझमें सभी अध्यापिकाओं और विद्यालय के मैनेजमेंट का विश्वास भी मजबूत होने लगा था। लिखावट सुंदर होने के कारण कई कक्षाओं के रिपोर्ट-कार्ड भी बनाने की जिम्मेदारी दो और अध्यापिकाओं के साथ मुझे सौंप दी गई, साथ ही मुझे असेंबली इंचार्जशिप तथा अन्य कई जिम्मेदारियाँ सौप दी गईं। अब मैं न सिर्फ अध्यापन में बल्कि अध्यापन से जुड़े अन्य कार्यों में भी कुशलता हासिल करने लगी थी।
इस दौरान मुझसे गलतियाँ भी हुईं, क्लास में अनुशासनहीनता मुझे कभी बर्दाश्त नहीं हुई, मैं इसके लिए बच्चों को सजा भी दे देती थी। एक बार पढ़ाते समय एक छात्र लगातार बातें कर रहा था...मैं पढ़ाते हुए ही उसकी कतार से निकली वह बेंच पर किनारे की ओर यानि जिधर से मैं निकल रही थी उधर ही बैठा था, मेरे हाथ में एक बेहद पतली सी सरकंडे की लकड़ी थी, मैंने वही लकड़ी उसकी पीठ पर मार दी। वैसे तो मैंने छड़ी तेज नहीं मारी थी परंतु पतली होने के कारण और दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि उस बच्चे ने कमीज के नीचे बनियान भी नहीं पहनी थी, इसलिए वह छड़ी चिपक गई और निशान छोड़ गई। सातवाँ या आठवाँ पीरियड था तो निशान कम होने या मिटने का समय भी नहीं था।
बच्चों की छुट्टी हो चुकी थी सभी बच्चे जा चुके थे। अध्यापिकाएँ भी जाने की तैयारी कर रही थीं, अचानक बड़ी मैम की जो कि गेट पर ही खड़ा थीं, आवाज आई, "मालती मैम यहाँ आइए।"
"यस मैम?" मैंने पहुँचते ही कहा।
मुझे अंदाजा भी न था कि मुझ पर क्या बम फूटने वाला है।
"इस बच्चे को आपने मारा है?" बड़ी मैम ने पूछा।
"मैम ये बहुत बातें कर रहा था तो मैंने बस चलते-चलते ही धीरे से एक छड़ी लगा दी थी।" मैंने कहा। वैसे तो मैं सामान्य दिखाने का प्रयास कर रही थी पर मेरा दिल इतनी जोर से धड़क रहा था कि उसकी धमक सिर में लग रही थी।
"मैम धीरे से! ये देखिए निशान पड़ गया है।" कहते हुए बच्चे की माँ ने उसकी पीठ से कमीज ऊपर कर दी।
मेरे तो डर के मारे हाथ पैर ठंडे पड़ने लगे, सचमुच एक लंबा सा निशान छड़ी का देखकर मैं दंग रह गई थी, मैंने तो इतनी तेज नहीं मारा था, पर छड़ी पतली थी शायद इसी वजह से तेज लग गई।
मैंने डरते हुए ही कहा- "मैम, मैंने सचमुच इतनी तेज नहीं मारा था पर न मालूम कैसे इतनी तेज..." बड़ी मैम को अपनी ओर गुस्से से देखते हुए देख मैं चुप हो गई।
"आप देख रही हैं न,अब आप कितनी भी सफाई दें कौन मानेगा, और क्यों मानेगा? मुझे आपसे ऐसी उम्मीद नहीं थी,आगे से ध्यान रखिएगा कि किसी बच्चे को मारेंगी नहीं।" मैडम ने कहा।
"जी", कहते हुए मुझे ऐसा महसूस हो रहा था कि यदि मैं यहाँ कुछ देर और रुकी तो शर्म से जमीन में ही गड़ जाऊँगी। शायद मेरी स्थिति को मैम ने भाँप लिया और मुझे ऑफिस में भेज दिया और स्वयं ही बच्चे की मम्मी से बात करके उन्होंने उसे समझा कर वापस भेज दिया, फिर ऑफिस में मेरे पास आईं और मुझसे बोलीं-
"मैं जानती हूँ आपने जानबूझ कर तेज नहीं मारा पर ये बात हम पेरेंट्स को नहीं समझा सकते, आगे से ध्यान रखिएगा कि यदि कोई बच्चा कंट्रोल में नही आता तो सजा दें पर ऐसे नहीं कि उसे चोट लग जाए या उसके लिए हानिकारक हो।" मैम ने ये बातें इतने प्यार से कहीं कि पल भर में ही मैं उनकी कृतार्थ हो गई। मैंने उन्हें सॉरी कहा और आगे से इस प्रकार की शिकायत न मिलने का वादा करके घर आ गई।
उस दिन से मैंने अपना तरीका बदल दिया स्टिक तो रखना ही छोड़ दिया। अब मैं बच्चों को अनुशासन और आत्मानुशासन के विषय में अधिक समझाने लगी थी, अनुशासनहीनता मैं अब भी सहन नहीं करती थी पर मैंने पिटाई करना छोड़ दिया था। बच्चे भी मुझे बहुत अच्छी तरह समझने लगे थे तो मेरी क्लास में कभी अनुशासन भंग नही होता था। सभी अध्यापिकाएँ, प्रधानाचार्या और स्वयं मैनेजर सर भी इस बात को मानते थे।
मुझे आज भी याद है मुझसे और एक बार बहुत बड़ी गलती हो गई थी, वार्षिक परीक्षा समाप्त हो चुके थे, रिपोर्ट-कार्ड तैयार हो रहे थे, मैं और दो और अध्यापिकाएँ मिलकर सभी कक्षाओं के रिपोर्ट-कार्ड बना रहे थे। त्रैमासिक और अर्धवार्षिक परीक्षाओं के नंबर, प्रतिशत आदि लिखने के साथ अन्य सभी कॉलम तो पहले ही भरे जा चुके थे, इस समय हम वार्षिक परीक्षा के नंबर लिखकर उनको जोड़कर प्रतिशत, पोजीशन आदि लिखने का कार्य कर रहे थे जिसमें कि 'मैक्सिमम मार्क्स' का कॉलम रेड पेन से प्रिंसिपल मैम ही लिखकर हमारे पास भिजवा रही थीं तो हमें उस कॉलम में कुछ नहीं करना था। सभी कक्षाओं के रिपोर्ट-कार्ड तैयार करके हमने दे दिए थे अब सिर्फ अपनी-अपनी कक्षाओं के रह गए थे, मेरी कक्षा के 42 रिपोर्ट-कार्ड जब मैम ने मेरे पास भेजे तो मैंने फटाफट छात्रों के प्राप्तांक उनमें लिख दिए, परंतु ये क्या? मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि रिपोर्ट-कार्ड में कुछ गड़बड़ है...मेरे भीतर से ये आवाज आई। मैंने रिपोर्ट-कार्ड्स के एक-एक कॉलम को बारीकी से देखना प्रारंभ किया, फिर जैसे ही त्रुटि मेरी समझ में आई, मेरे तो पैरों तले जमीन खिसक गई, मैंने पूर्णांक के कॉलम में प्राप्तांक लिख दिए थे।
मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ, कोई एक-दो कार्ड हों तो कोशिश करें भी, पर यहाँ तो पूरे का पूरा गलत हो चुका था। मैं काफी देर तक किंकर्तव्यविमूढ़ता की अवस्था में बैठी रही, फिर मेरे दिमाग में आया कि बैठने से कुछ नहीं होगा, बताना तो पड़ेगा ही और मैं प्रिंसिपल मैम के पास गई और उन्हें बताया।
"पर आप ऐसी गलती कैसे कर सकती हो मैम? आपने तो इतने सारे कार्ड बनाए हैं, उनमें तो ऐसी गलती नहीं हुई।" प्रिंसिपल मैडम ने कहा।
"यस मैम मैंने बनाए तो हैं पर उन सभी कार्ड्स में आपने पूर्णांक लिख कर हमारे पास भेजे थे तो हमने प्राप्तांक लिख कर आगे के कार्य किए थे, पर इन कार्ड्स में आपने पूर्णांक नहीं लिखे थे और मैंने इस चीज पर ध्यान दिए बगैर अन्य कार्ड्स की तरह इसमें भी सिर्फ प्राप्तांक लिख दिया।" मैंने अपना पक्ष रखते हुए कहा।
"परंतु अब क्या करें, कल रिपोर्ट-कार्ड्स सर को देने हैं।" प्रिंसिपल मैम ने कहा।
मै समझ चुकी थी कि शायद मैम मेरी मदद कर सकती हैं परंतु बड़ी मैम और सर से वह भी डर रही हैं, अतः अपनी गलती को सुधारना तो मुझे ही पड़ेगा पर यह बिना प्रिंसिपल मैम की सहायता के नहीं हो सकता था। अतः मैने कहा- " मैम गलती तो मैने की है पर अगर आप सहायता कर दें तो मै ही इसे ठीक करूँगी।"
"वो कैसे।" मैम ने कहा।
"आप मुझे नए कार्ड्स दे दीजिए, मैं कल शुरू से इन्हें घर से बना लाऊँगी।" मैंने कहा।
इतने अधिक कार्ड्स हैं और उनमें त्रैमासिक और अर्धवार्षिक परीक्षाओं की पूरी डिटेल और अब वार्षिक परीक्षा की डिटेल होनी चाहिए। आप सिर्फ आज-आज में इतना वर्क कर लेंगी?" मैम ने कहा।
"मैम मैं पिछला सारा कुछ घर से करके कल ही ले आऊँगी, वार्षिक परीक्षा की पूरी डिटेल यहाँ स्कूल में पूरा करूँगी।" मैंने कहा।
"ओके पर बड़ी मैम को पता नही चलना चाहिए कि मैंने तुम्हें नए कार्ड्स दिए हैं।" प्रिंसिपल मैम ने कहा।
और उन्होंने मुझे नए कार्ड्स दे दिए।
मैं बयाँ नहीं कर सकती कि उस समय मैं मन ही मन प्रिंसिपल मैम की कितनी आभारी हुई, प्रत्यक्ष में उन्हें थैंक्यू बोलकर मैंने नए और पुराने सभी कार्ड्स एक पॉलीथीन में रखे और ऑफिस से बाहर आ गई। घर जाते समय मैंने बड़ी मैम को कहा कि मैं अपनी क्लास के रिपोर्ट-कार्ड घर पर बनाऊँगी यहाँ समय नहीं मिल पाया और सभी कार्ड्स घर ले गई।
वो दिन मेरे लिए बहुत व्यस्त था, मैंने घर के सिर्फ बेहद जरूरी काम किए और दिन का सारा समय तथा रात के करीब एक-दो बजे तक बैठकर मैंने रिपोर्ट-कार्ड तैयार किए, प्रथम-सत्र और द्वितीय-सत्र में बच्चों के अभिभावकों के हस्ताक्षर किए, कई अभिभावक के हस्ताक्षर उर्दू में थे, काफी अभ्यास करके तब उनके हस्ताक्षर कर पाई थी। दूसरे दिन मैंने रिपोर्ट-कार्ड लाकर प्रिंसिपल मैम को साइन करने के लिए दे दिए, मैं आज भी आभारी हूँ मैम की, वो चाहतीं तो मेरी इस गलती के लिए मुझे जॉब से निकाल भी सकती थीं परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने न सिर्फ मुझे इस गलती को सुधारने का अवसर दिया बल्कि मेरी गलती को छिपाकर औरों की दृष्टि में मुझे शर्मिंदा होने से भी बचाया। यही वजह है कि मैं आज भी उनका आभार मानती हूँ।
शायद इसी प्रकार के सहयोग की भावनाओं के कारण ही अध्यापन मेरे जीवन का एक आवश्यक अंग बनता गया। मैंने वहाँ लगभग चार साढ़े चार-पाँच साल तक पढ़ाया और उसी दौरान अपनी अधूरी शिक्षा पूरी करने की ओर अग्रसर हुई।
मैं अपनी जिम्मेदारियों के प्रति जितनी समर्पित थी अपने आत्मसम्मान के प्रति भी उतनी ही थी, यदि कोई मुझे ऐसी कोई बात कह दे जिससे मुझे अपमान महसूस हो तो मेरे लिए यह असहनीय हो जाता है और शायद कुछ उम्र का तकाज़ा भी हो सकता है कि युवावस्था में व्यक्ति में कम सहनशीलता होती है। तो ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी था।
मैं अब अध्यापन पैसों के लिए नहीं बल्कि अपनी आत्म संतुष्टि के लिए करती थी, स्कूल के छात्रों से मैं ऐसी घुल-मिल गई थी कि उनके बिना मुझे मेरी दुनिया अधूरी लगती थी, अब स्कूल, छात्र, अध्यापन और स्कूल से जुड़ी अन्य जिम्मेदारियाँ मेरे जीवन का अभिन्न अंग बन चुके थे, क्यों न हो मैं सुबह सात बजे से रात के आठ बजे तक सिर्फ पढ़ाती ही तो थी...पहले स्कूल फिर स्कूल के उन बच्चों को ट्यूशन देती जो पाँचवीं-छठी में होने के बाद भी मात्राओं वाले दो अक्षरों के जोड़ तो दूर बिना मात्रा के शब्द भी ठीक से नहीं लिख-पढ़ सकते थे, वे अंग्रेजी के छोटे और बड़े अल्फाबेट्स भी नहीं लिख पाते थे। ऐसे बच्चों को मैं पढ़ाकर इस काबिल बनाने का प्रयास कर रही थी कि वो न सिर्फ परीक्षा में कम से कम पास होने लायक नम्बर तो ला ही सकें बल्कि वो हिंदी अंग्रेजी पढ़ने और लिखने में सक्षम भी हो सकें। मैं उनके माता-पिता से उतनी फीस नहीं लेती थी जितनी मैं उनके साथ मेहनत करती थी। मँहगाई दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही थी ऐसे में कमाना कौन नहीं चाहता, लिहाजा मैं भी कमाना चाहती थी, इसीलिए नर्सरी क्लास से आठवीं तक के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती थी। मेरा पढ़ाया बच्चों को समझ आता था, बच्चे इंप्रूव कर रहे थे इसलिए मेरे पास बच्चे भी बढ़ते गए, अब चौबीस-पच्चीस बच्चों को एक साथ पढ़ाना संभव न था इसलिए दो शिफ्ट में बुलाती थी। किंतु मैं इतनी प्रोफेशनल न हो सकी कि घड़ी देखकर एक या डेढ़ घंटे में बच्चों की छुट्टी कर देती। अतः मैं तीन बजे पढ़ाना शुरू करती तो मुझे साढ़े-सात आठ तो रोज ही बज जाते।
इन चार पाँच सालों में स्कूल में मेरा काम पहले से बढ़कर अब तीन गुना अधिक हो चुका था। अब मेरा काम सिर्फ पढ़ाना ही नहीं रह गया था बल्कि इससे संबंधित अन्य जिम्मेदारियाँ भी जुड़ गई थीं, मसलन कई प्रकार की इंचार्जशिप, आठवीं की बोर्ड परीक्षाओं के रिजल्ट तैयार करने के लिए दूसरे विद्यालय में जाना, फंक्शन आदि की तैयारी करवाना आदि। इन सारी जिम्मेदारियों के बढ़ने के बाद भी मेरी सैलरी में बढ़ोत्तरी नाम मात्र को हुई, जो चार सौ से छः सौ रूपए हो गई बस! खैर समय बीतने के साथ-साथ, जीवन के अनेक उतार-चढ़ाव के साथ एक दिन ऐसा भी आया कि मैंने उस स्कूल की नौकरी छोड़ दी.... क्योंकि मैं अपमान सहन नहीं कर सकती थी, कुछ बातें जिनके मायने भिन्न-भिन्न लोगों के लिए भिन्न-भिन्न होते हैं, उन्हीं में से कोई बात जो शायद किसी अन्य के लिए साधारण हो सकती थी पर मुझे अपने लिए वो अपमानजनक लगी।
कहते हैं न जब हृदय आहत होता है तो वह सिर्फ वर्तमान में स्थिर नहीं रहता बल्कि अतीत की विभिन्न घटनाक्रमों की भी तुलना करने लगता है, वह अपने कार्यों और उनसे प्राप्त पारिश्रमिक तथा पारितोषिक का हिसाब-किताब करने लगता है, ऐसे में तो सामान्यतः यही होता है कि परिश्रम की तुलना में पारिश्रमिक सदैव कमजोर ही रहता है, यही मेरे साथ भी हुआ, मुझे भी ऐसा महसूस होने लगा कि इतनी मेहनत के बाद भी मुझे तनख्वाह के नाम पर सिर्फ छः सौ रूपए मिलते हैं और उचित-अनुचित का विचार किए बिना कुछ भी बोल दिया जाता है। इसलिए न चाहते हुए भी मुझे यह जॉब छोड़नी पड़ी।
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मैने सोचा था कि विद्यालय छोड़ने का असर मेरे ट्यूशन पर नहीं पड़ेगा क्योंकि बच्चों के माता-पिता को शिक्षा की क्वालिटी से मतलब होता है। मेरी सोच गलत तो नहीं थी पर मुझे दुख हुआ जब कुछ बच्चों ने मुझे बताया कि बड़ी मैम ने उनके पेरेंट्स को बुलाकर उनका ट्यूशन कहीं किसी अन्य टीचर जो कि उनके स्कूल में ही पढ़ाती हो, उनके पास लगाने के लिए कहा। पर पेरेंट्स ने मना कर दिया। खैर धीरे-धीरे मुझे भी यह समझ आ रहा था कि व्यक्ति का सबसे बड़ा मित्र और शत्रु वक्त ही होता है।
शशि मुझसे पहले ही यहाँ से छोड़कर कहीं और जॉब करने लगी थीं, उसी स्कूल में मेरी बेटी भी पढ़ती थी, उस समय मोबाइल इतने अधिक प्रचलित नहीं थे कि हर व्यक्ति के पास हो, लिहाजा मेरा और शशि का मिलना काफी अंतराल के बाद होता था इसलिए मुझे ये पता नहीं था कि शशि वहाँ से भी जॉब छोड़ चुकी है।  मैं अब नई जॉब की तलाश में थी तो सोचा कि क्यों न एक बार अपनी बेटी के स्कूल में ही कोशिश की जाए.. यह सोचकर मैं अपनी बेटी के स्कूल में पहुँच गई इंटरव्यू देने। यह स्कूल मेरे पिछले स्कूल से बड़ा था, इनका रुतबा उससे काफी अधिक था पर मैं कॉन्फिडेंट थी, अतः मैं एक डैमो के बाद ही चुन ली गई।
समय सबसे बलवान होता है, कई बार हम सोचते हैं कि अब समय हमारे साथ है, सबकुछ सकारात्मक रूप से हमारे अनुकूल हो रहा है परंतु हम भूल जाते हैं कि समय को मुट्ठी में कैद नहीं किया जा सकता और यह कब कैसा मोड़ लेगा कोई नही जानता। मेरे साथ भी यही हुआ, विद्यालय से घर की दूरी, विद्यालय का माहौल, मुझे दी गई क्लास और मेरा ज्ञान और अनुभव  सबकुछ मेरे अनुकूल होने के बावजूद समय मेरे प्रतिकूल हो गया। मेरी पारिवारिक परिस्थितियाँ और शारीरिक स्वास्थ्य कुछ इस कदर बिगड़ा कि नौकरी करना मेरे लिए मुश्किल हो गया और अपनी अस्वस्थता के चलते परेशान होकर मुझे अपनी जॉब को बीस दिनों में ही विराम देना पड़ा। अब स्कूल एक न्यू ज्वाइन अध्यापिका के स्वस्थ होने का इंतजार तो नहीं कर सकता था अतः एक माह के उपरांत मैंने फिर से जॉब ढूँढ़ना प्रारंभ किया।
अनुभव बढ़ता गया, घर से बाहर निकलने लगी तो आत्मविश्वास बढ़ता गया, अब मैं बाहरी दुनिया से पहले की तरह निपट अंजान नहीं थी। घर से बाहर निकलने पर पहले जो भय महसूस होता था वो अब नहीं होता। पुस्तकीय ज्ञान के साथ-साथ सामाजिक ज्ञान भी बढ़ने लगा था, जीवन जीने में आनंद का अनुभव करने लगी थी।
यह मेरी खुशकिस्मती ही थी कि मुझे प्रथम प्रयास में ही उसी क्षेत्र में एक स्कूल में जॉब मिल गई, अब मेरी सैलरी बारह सौ रूपये प्रति माह थी अर्थात् पहले चार साल में दो सौ रूपए बढ़े थे और अब सिर्फ डेढ़ माह में छः सौ रूपये बढ़ गए थे।
मैं प्रसन्न थी, फिर से मैं उसी प्रकार तल्लीनता से अपना कार्य करने लगी, फिर वही व्यस्तता थी, आदत हो गई थी व्यस्त रहने की इसलिए व्यस्तता ही भाती थी। खुशी-खुशी मेरा समय कटने लगा। ट्यूशन के बच्चे भी आते थे और स्कूल भी, वही पुरानी दिनचर्या चल रही थी नए स्कूल के साथ। ऐसा नहीं है जहाँ अच्छाई है वहाँ बुराई न हो। यहाँ भी मुझे कुछ कटु अनुभव भी हुए, एक अध्यापिका होने के नाते मेरे लिए सभी बच्चे एक समान थे। मैंने अपने पुराने अनुभवों से इतना तो सीख ही लिया था कि मुझे बच्चों पर हाथ उठाए बिना किस प्रकार उन्हें अनुशासित और आज्ञाकारी बनाना है। मुझे तीसरी कक्षा पढ़ाने को दी गई थी तथा मेरी कक्षा में सैंतालीस बच्चे थे। मैं यह नहीं कहूँगी की बच्चों की संख्या से मुझे कोई परेशानी नहीं थी, निःसंदेह परेशानी थी....अधिक बच्चे होने से धीरे भी बोलें तो शोर प्रतीत होता, ऐसे में उन्हें बहुत मुश्किल से यह सिखा पाई कि किस प्रकार एक की बात समाप्त होने के बाद दूसरे को बोलना चाहिए। यूँ तो छोटे बच्चे बहुत जल्दी सीखते हैं परंतु अपनी बात कहने की उत्सुकता की अधिकता उन्हें सीखी हुई बात को दरकिनार करने पर मजबूर कर देती है, यही कारण है कि आत्मानुशासन की राह पर चलना उनके लिए बहुत टेढ़ी खीर है परंतु ऐसा नही कि मेरा प्रयास निष्फल रहा हो, धीरे-धीरे ही सही पर सकारात्मक परिणाम हासिल हुआ। दूसरी समस्या मेरी यह थी कि बच्चे अधिक तो कॉपियों की चेकिंग अधिक, अतः मेरी मेहनत यहाँ भी बढ़ गई थी परंतु जो भी हो उन छोटे-छोटे बच्चों में मेरा मन लग गया था, मैं जब सुबह क्लास में आती तो छोटी-छोटी तितलियाँ मेरा मतलब बच्चियाँ मेरे आस-पास मँडरातीं, कोई मेरा पर्स इस प्रकार छूती जैसे वो उसका स्पर्श तो चाहती है पर डरती है कि उसकी उँगलियों के निशान न रह जाएँ पर्स पर। कोई लड़की मेरे दुपट्टे को बड़ी ही कोमलता से छूती तो कोई मेरे बालों को छूती, तभी दूसरी आकर मेरे बाल को सूँघकर कहती "मैम आपके बालों से बड़ी अच्छी सी खुश्बू आ रही है, क्या लगाया है?" तो दूसरी लड़की कहती- "पागल सिर्फ बालों से नहीं मैडम से भी तो कितनी अच्छी खुश्बू आती है।" तभी कोई और बोल पड़ती "सच्ची?" "और नहीं तो क्या झूठी!" वो अपने ज्ञान पर इतराती हुई बोलती। "मैं भी देखूँगी" कहती हुई वह बालिका सीट से आकर मेरे इर्द-गिर्द कभी मेरे बालों को छूते हुए कभी दुपट्टे को छूते हुए मँडराने लगती, उसके साथ-साथ और भी बालिकाएँ आ जातीं और ऐसी स्थिति में मैं उन्हें मना भी करती तो वे लाड़ दिखातीं और अपनी क्रिया जारी रखतीं। उस समय मैं उनके साथ सख्ती नहीं दिखा पाती, मुझे उनका वो प्यार और उत्सुकता जताना बड़ा अच्छा लगता था। उस समय लड़के अपनी ही कोशिश करते कि वो मेरा ध्यान अपनी ओर खींच पाएँ, उनके अलग ही तरीके होते। प्रार्थना की घंटी बजने तक लगभग रोज यही प्रक्रिया चलती क्लास में। मैं भी एन्ज्वाय करती क्योंकि इससे न तो मेरे काम पर कोई नकारात्मक असर होता और न ही अनुशासन भंग होता। यदि कभी कोई ऐसा काम कर रही होती जिसमें बच्चों की वजह से गलती होने का डर होता तो बोल देती-"बच्चों चुपचाप बैठो नहीं तो मेरा काम गलत हो जाएगा।" फिर क्या था! कुछ देर के लिए कुछ अलग ही नजारा होता सभी अपने-अपने तरीके से मेरी मदद करने लगते, सब एक-दूसरे को चुप करवाते "ऐ चुप नहीं तो मैडम से मिस्टेक हो जाएगी" तो कहीं पीछे की सीट से आवाज आती "तू भी तो चुप हो जा तेरी आवाज नहीं सुन रहीं क्या मैडम?" सब मेरे मददगार बनने की कोशिश में क्लास को भिंडी मार्केट बना देते। फिर मुझे जोर से बोलना पड़ता "कीप क्वाइट एव्रीवन, नो बडी विल स्पीक, पुट योर फिंगर ऑन योर लिप्स।" और फिर क्लास में ऐसी खामोशी छा जाती कि यदि सुई गिर जाए तो उसकी भी आवाज आ जाए, और फिर मैं अपना काम करने लगती। यह खामोशी तब तक बरकरार रहती जब तक किसी बच्चे को किसी अन्य बच्चे से शिकायत न होती या प्रार्थना की घंटी नहीं बज जाती।

वैसे तो स्वभावतः मैं शुरू से कठोर रही हूँ परंतु इतने वर्षों तक बच्चों के मध्य रहकर बहुत अच्छी तरह से सीख चुकी थी कि कब किस प्रकार से बच्चों को कंट्रोल किया जा सकता है? खास करके छोटे बच्चे। मुझे बहुत अच्छा लगने लगा इन बच्चों के बीच, ऐसा लगता मानों इनके बिना ज़िंदगी अधूरी है। इन्हें पढ़ाना, समझाना, डाँटना, इमोशनली ब्लैकमेल करके इनसे प्रश्नों के उत्तर याद करवाना सब कुछ अच्छा लगने लगा था। पर हमेशा सब कुछ हमारे मन मुताबिक अच्छा ही हो यह संभव नहीं। कहते हैं न कि जीवन यदि एक समान समतल ढर्रे पर निर्बाध चलता रहे तो नीरस हो जाता है। शायद इसीलिए भगवान ने मेरे जीवन को उतार-चढ़ाव से भरपूर रखा। जब सभी कुछ ठीक-ठीक चल रहा था तभी मेरी छोटी बेटी को खेलते समय कोई कार वाला ठोकर मार गया और उसके दाँए पैर में फ्रैक्चर आ गया। मुझे फिर स्कूल से एक माह की छुट्टी लेनी पड़ी। मैनेजमेंट ने भी स्पेशली जो हमारी इंचार्ज थीं मिसेज गीता, उन्होंने बहुत सहयोग किया और मेरी छुट्टी सेंशन करवा दी। अब मैं बेफिक्र होकर अपनी बिटिया की देखभाल करने लगी थी। एक माह के उपरांत जब मैं उसका प्लास्टर कटवाने के लिए उसे लेकर क्लीनिक पर गई तो डॉ० ने बताया कि पैर हिलाने के कारण हड्डी अभी ठीक से जुड़ी नहीं है अतः पंद्रह दिन बाद प्लास्टर काटेंगे।
अब मुझे अपनी जॉब की फिक्र होने लगी थी, यह जॉब मेरे लिए बहुत जरूरी था परंतु बेटी की देखभाल करने वाला भी कोई और नहीं था, अतः मैने साहस करके स्कूल के प्रिंसिपल को अपनी समस्या बताई। इंचार्ज मैडम ने फिर मेरी सहायता की, क्योंकि क्लास में मेरी जगह किस अध्यापिका को भेजना है, कैसे मैनेज करना है, यह सब उनकी ही जिम्मेदारी थी। मैं प्रिंसिपल सर से पहले उन्हें अपनी समस्या बता चुकी थी, इसलिए सर के द्वारा पूछे जाने पर उन्होंने सर को आश्वस्त किया कि वह सब संभाल लेंगी। अतः मेरा अवकाश पंद्रह दिन के लिए बढ़ा दिया गया। कहते हैं न कि जब मुसीबत आती है तो चारों तरफ से आती है, और मुझ पर आई परेशानी इतनी जल्दी और आसानी से टल जाए! ऐसा तो हो ही नहीं सकता था।

पंद्रह दिन के बाद मैं अपनी पड़ोसन के साथ बेटी को लेकर क्लीनिक गई, मुझे पूर्ण विश्वास था कि आज प्लास्टर कट जाएगा और मैं कल से फिर स्कूल ज्वाइन कर लूँगी। परंतु डॉ० की सूचना ने मानों मेरे मंसूबों पर घड़ों पानी डाल दिया हो.... उसने बताया कि बेटी की हड्डी अब भी ठीक से नहीं जुड़ी, शायद यह पैरों को हिला देती है इसीलिए।
"फिर अब क्या होगा डॉ०? क्या अब हड्डी नहीं जुड़ेगी?" मैंने घबराकर पूछा।
"जुड़ेगी, पर फिर से इतने ही समय के लिए प्लास्टर चढ़ाना होगा।" डॉ० ने कहा।
अब मैं फिर से बेरोजगार होने की कगार पर थी पर क्या करती बेटी की तो पूरी जिंदगी की बात थी और वो अधिक आवश्यक था। मैंने फिर से प्लास्टर चढ़वाया और हम तीनों घर आ गए।
अब मेरे पास कोई अन्य मार्ग नहीं था सिवाय इसके कि मैं स्कूल जाकर सारी बातें बता दूँ। आखिर बच्चों का भी तो नुकसान होता है। इन डेढ़ महीनों में पता नहीं किस प्रकार से उन्होंने पढ़ा होगा, निश्चय ही अलग-अलग अध्यापिकाओं के अरेंजमेंट्स लगते रहे होंगे, पर आगे डेढ़ महीने इसी प्रकार चल सके मुझे नहीं लगता कि यह संभव होगा, फिलहाल मैं अपनी जिम्मेदारी से नहीं भाग रही परंतु स्कूल से पहले मेरी जिम्मेदारी मेरे बच्चों के लिए अधिक है और मैं वही पूर्ण कर रही हूँ, सोचते हुए मैं स्कूल पहुँच गई।
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मैं एक बार फिर से ऑफिस में प्रिंसिपल सर और इंचार्ज मैडम के सामने थी, मैंने उन्हें अपनी समस्या बताई।
"पर मैडम इतने दिनों तक बच्चों का बहुत नुकसान होगा, हम पहले ही डेढ़ महीने तक इंतजार कर चुके हैं।" प्रिंसिपल सर ने कहा था।
"मैं समझती हूँ सर पर मैं मजबूर हूँ, आप समझ सकते हैं मेरे घर में मेरी बेटी की देखभाल करने वाला मेरे अतिरिक्त और कोई नहीं है।" मैंने विनीत स्वर में कहा।
"आई नो मैडम, पर हमारी भी समस्या है हमे आपकी जगह दूसरी अध्यापिका की नियुक्ति करनी ही पड़ेगी, आप न्यू सेशन से फिर देख लीजिएगा।" प्रिंसिपल सर ने कहा।
"जी सर" मैंने मायूस होकर कहा।
उस समय प्रिंसिपल सर मुझे पहले की अपेक्षा थोड़े सख्त लगे परंतु अगले ही पल मैंने स्वयं को संयत कर लिया और खुद को ही समझाने लगी कि आखिर वो और कितना को-ऑपरेट करते, इतने दिन भी कौन करता है। स्कूल से बाहर निकलने से पहले मेरी इच्छा थी कि मैं एक बार क्लास के बच्चों से मिल लूँ परंतु सर या मैडम से कहने का साहस नहीं जुटा पाई।
मना करने के बाद जो दर्द होगा या शायद अपमान महसूस होगा, उस दर्द या अपमान से सामना होने से पहले ही डर गई, जिस प्रकार एक विद्यार्थी फेल होने के डर से परीक्षा ही न दे वैसा ही मैंने किया।  अतः उदास मन से घर आ गई।
ऐसा लग रहा था मेरे अस्तित्व का एक भाग फिर से मुझसे छूट गया, मैं थोड़ी सी कम हो गई। शायद भावनाओं की अधिकता है मुझमें या मैं बहुत शीघ्र ही लोगों से जुड़ जाती हूँ, पर एक सत्य यह भी है कि मैं जिनसे जुड़ जाती हूँ, जो मेरे जीवन का हिस्सा बन जाते हैं, मैं उन्हें यह अहसास कभी नहीं करा पाती। मैं लोगों से हृदय से जुड़ जाती हूँ परंतु प्रत्यक्ष में कभी किसी को महसूस भी नहीं होने देती, इसीलिए मुझे सबकी कमी खलती है परंतु मेरी किसी को नहीं। मैं डेढ़ महीने से स्कूल नहीं गई थी तो शायद बच्चे तो पहले ही यह मान चुके होंगे कि मैं अब नहीं आऊँगी और किसी को मेरा इंतजार नहीं होगा। साथी अध्यापिकाओं को भी अब मेरी कमी का अहसास भी नहीं होता होगा परंतु मुझे तो पता था कि मैंने स्कूल नहीं छोड़ा है, मेरे वही बच्चे फिर मेरे साथ होंगे और मुझे देखकर बहुत खुश होंगे और उत्साहित होकर एक-दूसरे की शिकायतें करते हुए मुझे बताएँगे कि इस डेढ़ महीने में क्लास में क्या हुआ, किसने मुझे याद किया, कौन सी मैडम उन्हें पढ़ाती थीं, उनके पढ़ाने से किस-किस बच्चे को हँसी आती, किसे नींद आती, किसे समझ आता और किसे नहीं, मेरे न आने से कौन-सा बच्चा लंच में अपनी टिफिन फिनिश नहीं करता था आदि। आज अचानक ही ऐसा लगा कि मानो ये खूबसूरत सा स्वप्न टूट गया। इसमें मैं समय के अतिरिक्त किसी को दोष नहीं दे सकती, सबने मेरे साथ सहयोग किया, जितना वो कर सकते थे। अब मुझे सिर्फ अपने बच्चे पर ध्यान देना था ताकि इस बार कुछ गड़बड़ न हो। आखिर इससे उसकी भी पढ़ाई का नुकसान हो रहा था, परीक्षा के लिए तो मैं मेडिकल जमा कर दूँगी परंतु घर में बैठकर वह कितनी पढ़ाई कर सकती थी, बच्ची थी खेलने के लिए बाहर नहीं जा पाती थी यही बंधन उसके लिए सजा थी। ऐसे में वो ऊबकर मानसिक रूप से परेशान न हो मुझे तो बस यही ध्यान रखना था। पढ़ाई तो बाद में भी कर लेगी, थोड़ी अधिक मेहनत करवा लूँगी पर अभी जबरदस्ती नहीं करूँगी। मैंने ये फैसला करके इसी पर अमल किया। इस बार तो बेचारी वो खुद भी पहले से अधिक सचेत हो गई थी, पैर नहीं हिलाती थी, कोशिश करती थी कि एक स्थान पर अधिक समय तक बैठी या लेटी रहे।
समय कैसा भी हो अच्छा या बुरा, कट ही जाता है। बस फर्क सिर्फ इतना सा है कि अच्छा समय हम हँसते-मुस्कुराते हुए बिताते हैं इसलिए उनके बीतने का पता भी नहीं चलता, उनके बीतने की गति बढ़ जाती है, जबकि बुरा समय परेशानियाँ लेकर आता है और यह बड़ी ही मुश्किल से कटता है, इसलिए हमें लगता है कि इसकी गति बहुत ही मंद है और इसकी मंद गति के कारण इसका अंतराल बहुत लम्बा लगता है।
मेरा बुरा समय भी समाप्त हो गया था। मेरी बेटी अब पूरी तरह ठीक हो चुकी थी। प्लास्टर कट चुका था किंतु तीन माह तक उसने पैर जमीन पर नहीं रखा था इसलिए चलने में डर रही थी, मुझे उसको कभी समझा कर कभी लालच कभी हिम्मत दे-देकर चलने के लिए प्रेरित करना पड़ा। अंततः धीरे-धीरे वो तीन-चार दिनों में अपने-आप चलने लगी। अब मुझे फिर से जॉब ढूँढ़ना था, घर पर खाली न बैठने की आदत जो हो गई थी। मैं फिर से अपने-आप को इंटरव्यू के लिए तैयार करने लगी।
यूँ तो सेशन के मध्य में विद्यालयों में रिक्तियाँ नहीं होतीं या नाम मात्र को होती हैं, जो किसी पहुँच के बिना पता नहीं चलतीं, इसीलिए मुझे कई स्कूलों में जाना पड़ा इंटरव्यू देने के लिए। हर जगह बस यही जवाब मिला कि बायोडाटा जमा कर दीजिए वैकेंसी होगी तो कॉल कर लेंगे। इसी प्रकार लगभग एक-डेढ़ महीना बीत गया। अभी तक मैंने जिन स्कूलों में पढ़ाया वो आठवीं तक ही थे इसीलिए मैंने सिर्फ उन्हीं स्कूलों में अपना बायोडाटा दिया जो आठवीं तक थे। हमारे निवास से लगभग पंद्रह-बीस मिनट की दूरी पर एक सीनियर सैकेंडरी स्कूल था, मैंने अब तक उसमें प्रयास नहीं किया था परंतु अब मैंने सोचा क्यों न एक बार यहाँ भी कोशिश की जाए, अतः मैं वहाँ भी किस्मत आजमाने जा पहुँची। वहाँ पर कंप्यूटर टीचर के रूप में नियुक्ति हो गई तथा मुझे दूसरी कक्षा की अध्यापिका की जिम्मेदारियाँ सौंपी गईं। मैं प्रसन्न थी क्योंकि मेरी बेरोजगारी की समस्या हल हो गई थी तथा मुझे एक सीनियर सैकेंडरी स्कूल में पढ़ाने का मौका मिल रहा था, जहाँ मुझे दूसरी कक्षा के साथ-साथ तीसरी से दसवीं कक्षा तक के छात्रों को कंप्यूटर पढ़ाना था। इसके साथ ही कहते है न कि भगवान जो भी करता है अच्छे के लिए करता है, तो मुझे लगा कि ये भी सत्य ही है क्योंकि जो मेरी प्राथमिक आवश्यकता थी यानि पैसा वो भी काफी हद तक सुलझ गई थी यहाँ पर मेरा सैलरी अट्ठारह सौ रूपए प्रति माह थी। इस बीच हमने किराए का वह मकान छोड़ कहीं और किराए का दूसरा मकान लिया था इसलिए दूर होने के कारण ट्यूशन के बच्चे भी अब धीरे-धीरे कम होने लगे थे।
मन में उत्सुकता और बेचैनी दोनों के मिले-जुले भाव आ-जा रहे थे, बार-बार मन में यही खयाल आता कि यहाँ पर भी उतने ही छोटे-छोटे बच्चे होंगे क्लास में, क्या ये भी उतने ही भोले और नटखट होंगे? फिर दूसरे ही पल सोचती..क्यों नही बच्चे तो आखिर बच्चे ही होते हैं, चाहे पिछले स्कूल के हों या इस स्कूल के। अपने इन्हीं विचारों के समंदर में गोते लगाती मैं सो गई थी अगली सुबह नया स्कूल ज्वाइन करने के लिए।
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सुबह के साढ़े सात बजे रहे थे किन्तु यह जनवरी की ठंड थी लिहाजा सूर्य देव के आगमन की सूचना स्वरूप अरुण की लालिमा का पूरब की दिशा में कहीं दूर-दूर तक कोई नामोनिशान नहीं था बल्कि कोहरे की घनी चादर ने एक दूसरा ही आकाश बना लिया था, ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो सूर्यदेव भी ठंड के कारण कोहरे की रजाई से बाहर नहीं आना चाहते। पर क्या किया जा सकता है चाहे सूर्य के दर्शन हों न हों, चाहे कुहरा छँटे या न छँटे, समय तो अपनी गति से ही चलता है और हम मनुष्य को भी चाहे-अनचाहे समय के साथ ही चलना पड़ता है, अन्यथा समय हमें पीछे छोड़ आगे निकल जाता है और हम फिर से अनुकूल समय की प्रतीक्षा करते रहते हैं। मुझे आठ बजे से पहले स्कूल पहुँचना था, चाहे कुहरा हो या वर्षा मैं पहले ही दिन विलंब से नहीं पहुँचना चाहती थी। हालाँकि स्कूल अधिक दूर नहीं था पाँच मिनट का रास्ता बस स्टैंड का था और बस मिल जाती तो वहाँ से दो मिनट में स्कूल के सामने ही उतार देती। परंतु बस कितने समय में मिलेगी ये नहीं पता। वैसे पैदल जाती तो भी पंद्रह-बीस मिनट में शायद पहुँच जाती पर इतनी ठंड में पैदल जाने का मन नहीं हो रहा था अतः मैं साढ़े सात बजे ही स्कूल के लिए निकल गई सोचा दस-पंद्रह मिनट पहले पहुँच जाऊँगी तो कोई बात नहीं पर देर नहीं होनी चाहिए।
मैं बताए गए समय से दस मिनट पहले ही स्कूल पहुँच गई थी। गेट के अंदर आते ही एक सत्रह-अट्ठारह साल का लड़का जो शायद चपरासी था, आकर बोला- "मैडम जी किससे मिलना है?"
"प्रिंसिपल से" मैंने कहा।
"सर अभी नहीं आए हैं, आप यहीं बैठकर इंतजार कर लीजिए, आने वाले ही हैं।" उस लड़के ने कहा।
मैं पहली बार स्कूल आई थी, आज ही ज्वाइन कर रही थी अतः मुझे पहले प्रिंसिपल से मिलना था, अपने कार्यों और पीरियड्स की जानकारी लेना था और शायद प्रिंसिपल सर को भी कुछ निर्देश देने हों इसलिए मैं प्रिंसिपल के आने तक वहीं ऑफिस के बाहर बैठी रही। कुछ ही देर में प्रिंसिपल आ गए, मैंने उन्हें अपने सामने से ही ऑफिस में जाते हुए देखा, पर वो मेरी तरफ ध्यान दिए बगैर ऑफिस में चले गए।
लगभग पाँच मिनट के बाद वही लड़का आकर बोला- "मैडम आपको सर जी बुला रहे हैं।"
"ओ के" कहती हुई मैं उठ खड़ी हुई, अपना पर्स संभाला ऑफिस के गेट पर आकर बोली- "मे आई कम इन सर?"
"जी जी आइए" प्रिंसिपल सर ने गर्दन हिलाते हुए कहा।
मैंने अंदर आकर गुड मॉर्निंग कहा, उन्होंने सिर हिलाकर जवाब दिया, अब मुझे लगा कि ये मुझेे बैठने के लिए कहेंगे पर मेरी उम्मीदों के विपरीत ही बिना कोई औपचारिकता निभाए उन्होंने कहना शुरू किया-
"मैडम आपने कंप्यूटर का एक साल का सर्टिफिकेट कोर्स किया है।" प्रिंसिपल सर ने कहा।
"जी" मैंने कहा।
"पहले किसी क्लास को कंप्यूटर पढ़ाया है?" प्रिंसिपल सर ने पूछा।
"सर, मैंने कंप्यूटर कोर्स अभी लास्ट ईयर ही किया है, इसलिए पढ़ाने का अवसर ही नहीं मिला।" मैंने जवाब दिया।
"तो आपको लगता है कि आप दसवीं तक के बच्चों को पढ़ा लेंगी।" सर ने कहा
"जी सर मैं पढ़ा लूँगी।" मैने कहा
"टाइपिंग आती है, लेटर-वेटर टाइप कर लोगी।" उन्होंने पूछा।
"सर टाइपिंग मुझे हिंदी और इंग्लिश दोनों की आती है पर काफी समय से प्रैक्टिस नहीं है इसलिए स्पीड कम है।" मैंने बताया।
"स्पीड की तो कोई बात नहीं, हमें कौन-सा रोज-रोज टाइप करवाना होता है।" सर ने कहा।
मैं चुपचाप मन ही मन सोच रही थी कि ये मुझसे क्या-क्या पढ़वाएँगे? तभी सर बोल पड़े, "आप जाओ प्रेयर में, उसके बाद इंचार्ज मैडम आपको क्लास बता देंगीं, आप सेकेंड क्लास में चली जाना। आपको वो क्लास पढ़ाना है फिर टाइम टेबल के अनुसार कंप्यूटर भी पढ़ाना है, लेटर टाइपिंग का काम तो कभी-कभी के लिए है।"
प्रिंसिपल सर से निर्देश लेकर मैं प्रार्थना सभा में आ गई। प्रिंसिपल एक उम्रदराज, लंबे कद, गोरे रंग के प्रभावशाली व्यक्तित्व के स्वामी थे। यदि किसी ने उन्हें बात करते हुए न सुना हो तो वह उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था, किंतु उनसे बात करने के उपरांत यह भ्रम समाप्त हो गया था कि वह बाह्य रूप से जितने धीर-गंभीर और ज्ञानी प्रतीत होते थे आंतरिक रूप से भी वैसे ही होंगे। अपितु उनसे बात करके मैं मन ही मन पिछले स्कूल के प्रिंसिपल से इन की तुलना करने लगी थी। खैर मुझे क्या! मुझे यहाँ जॉब करना था। अपने प्रोफेशन के साथ ईमानदारी बरतते हुए पूरी मेहनत से काम करूँगी बाकी कोई कैसा है, मुझे क्या लेना देना...यही सब सोचते हुए मैं स्कूल के बीचो-बीच बने बड़े से खाली घेरे यानी ग्राउंड में आ गई थी, प्रातःकालीन प्रार्थना सभा की तैयारी चल रही थी, बच्चों को उनकी कक्षानुसार पंक्तिबद्ध किया जा रहा था, उनकी कतारों के सामने माइक की व्यवस्था की जा रही थी, पाँच छात्राएँ वहाँ पर प्रार्थना करवाने के लिए खड़ी थीं। अध्यापिकाएँ छात्रों की लाइन को ठीक करवा रही थीं, एक अध्यापिका माइक की व्यवस्था का निरीक्षण कर रही थी तथा वहाँ खड़ी छात्राओं को कुछ निर्देश दे रही थी, बाद में मुझे ज्ञात हुआ था कि वह इंचार्ज थीं। विद्यार्थियों की पंक्तियों को सीधी करवा कर अध्यापिकाएँ अपनी-अपनी कक्षा की पंक्तियों के आगे आ कर खड़ी हो गईं। मैं भी जाकर वहीं एक ओर खड़ी हो गई।
"न्यू ज्वाइन?" पास खड़ी एक अध्यापिका ने पूछा।
"यस" मैंने कहा।
"आपका नाम क्या है?" उसने पूछा। इस प्रकार बातों-बातों में एक-दूसरे से संक्षिप्त परिचय का आदान-प्रदान हुआ। तभी प्रिंसिपल सर इस तरफ आते हुए दिखाई दिए, वह अध्यापिका मेरे पास से खिसक कर छात्रों की पंक्तियों के मध्य टहलने लगी। मैं अपने स्थान पर ही खड़ी रही।
प्रार्थना सभा समाप्त हुई, इंचार्ज ने मुझे अटेंडेंस रजिस्टर देते दूसरी कक्षा की ओर इशारा करते हुए कहा-"मैडम वो है आपकी क्लास, किसी प्रकार की सहायता की जरूरत हो तो मैं उधर उस क्लास में (एक क्लास की ओर इशारा करते हुए) रहूँगी आप मुझे बता सकती हैं। वैसे आपकी क्लास के साथ वाली क्लास में जो टीचर हैं, आप उनसे भी पूछ सकती हैं।"
"ओ के मैम" कहते हुए मैंने रजिस्टर ले लिया और क्लास की ओर बढ़ गई।
"गुड मॉर्निंग मैम" कहते हुए बच्चे खड़े हो गए।
"वेरी गुड मॉर्निंग" मैने बड़े प्यार से कहा। मैं खुश थी कि मुझे फिर से वही छोटे-छोटे बच्चे मिल गए थे, तभी इंचार्ज मैडम आ गईं और बच्चों से बोलीं- "बच्चों ये आपकी न्यू मैडम हैं, आप लोग इन्हें तंग मत करना, ओके?"
"ओके मैम" बच्चों ने जैसे एक साथ सुर मिलाया।
"मैडम ये इन दोनो रॉ में सेकेंड क्लास और इस रॉ में फर्स्ट क्लास के बच्चे हैं।" मैडम ने मुझे बताया।
मैं एकदम से अचंभित हो गई, "एक साथ दो-दो क्लासेज?" मेरे मुँह से बेसाख्ता निकला।
"जी मैडम, बच्चे कम हैं न, इसलिए इन्हें एक साथ ही बैठा दिया।" इंचार्ज ने कहा।
"मैम बच्चे कम हैं ये तो सही है, कुल मिलाकर तीस पैंतीस बच्चे ही होंगे, पर एक साथ एक ही रूम में दो क्लासेज कैसे मैनेज हो सकती हैं? एक बोर्ड पर एक क्लास को कुछ समझाऊँगी तो दूसरी क्लास के बच्चे फ्री बैठकर बातें करेंगे, इस प्रकार डिसिप्लिन तो रहेगा ही नहीं।" मैं एक साँस में ही बोल गई।
"मैम जब एक क्लास को कुछ समझाओ तो दूसरी क्लास को कोई रिटेन या लर्निंग वर्क दे देना वो करते रहेंगे और आप दूसरी क्लास को समझा सकती हो।" इंचार्ज ने मुझे समझाया।
"मैम ये छोटे बच्चे हैं, इन्हें जो भी रिटेन वर्क दिया जाता है वो इन्हें बोर्ड पर ही लिखवाया जाएगा और जब तक इन्हें लिखवाऊँगी तब तक एक क्लास तो बैठेगी ही और एक क्लास को मैं कुछ पढ़ाऊँगी तो सेम टाइम पर दूसरी क्लास कुछ और वर्क नहीं करेगी, वो बच्चे या तो बातें करेंगे या चुप बैठकर मुझे देखते रहेंगे। मैम ये पॉसिबल नहीं है।" मैंने अपनी बात समझाने की कोशिश की।
"मैं समझती हूँ मैडम, पर इस विषय में और कुछ नहीं कर सकती, जो मैडम पहले थीं, वो भी ऐसे ही पढ़ाती थीं। आपको भी ऐसे ही पढ़ाना होगा।" इंचार्ज ने कहा, उनकी आवाज से मजबूरी साफ झलक रही थी, अब तो मेरा उत्साह भी ठंडा हो चुका था।
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उनके जाने के पश्चात मैंने बच्चों की अटेंडेंस ली और उनसे उनके नाम आदि पूछे। बच्चे तो फिर बच्चे ही होते हैं उनमें किसी भी नए व्यक्ति के बारे में शीघ्रातिशीघ्र सबकुछ जान लेने और अपने विषय में सबकुछ बता देने की जिज्ञासा हम बड़ों से कहीं अधिक होती है, या यूँ कहूँ कि उनमें हमारी तरह धैर्य के परदे में छिपा संकोच नहीं होता। और तो और बच्चे यह बताने को भी अति उत्सुक दिखे कि उनकी पहले वाली मैडम उन्हें कैसे पढ़ाती थीं और वह किस बच्चे को क्या कहकर पुकारती थीं। मुझे समय का विशेष ध्यान रखना था जितने समय में एक टीचर एक क्लास को पढ़ाती है उतने ही समय में मुझे दो-दो क्लासेज पढ़ानी थीं। माना छात्रों की संख्या उतनी ही थी जितनी कि एक आदर्श क्लास में होनी चाहिए पर इससे तो सिर्फ कॉपी-किताबों की जाँच प्रक्रिया में राहत मिलती स्लेबस तो दोगुना हो गया था। जिम्मेदारियाँ दोगुनी हो गई थीं। मैं भीतर ही भीतर मायूस हो रही थी, समझ नहीं पा रही थी कि मैं एक क्लास के समय में दो क्लासेज को पढ़ाऊँगी या तीसरी कक्षा से दसवीं कक्षा तक को कंप्यूटर पढ़ाऊँगी और साथ ही जब-तब टाइपिंग का भी कार्य करूँगी। मुझे तो एक ही दिन में सुपर वुमन बना दिया गया। यहाँ इस प्रकार बच्चों को शिक्षा दी जाती है! मैं तो जैसे-तैसे मैनेज कर लूँगी परंतु क्या इससे इन विद्यार्थियों का कुछ भला होगा, जिन्हें उनके माता-पिता ने इतने भरोसे के साथ स्कूल में भेजा है? मैं भीतर ही भीतर स्वयं से लड़ रही थी, बार-बार यही ख़्याल आता कि जाकर सर को समझाऊँ कि इस प्रकार पढ़ाई नहीं हो सकती सिर्फ खानापूर्ति हो सकती है, परंतु अगले ही पल सोचती कि मुझसे पहले भी तो अध्यापिकाओं ने समझाने की कोशिश की ही होगी पर तब नहीं समझे, तो अब क्यों समझेंगे! और कहीं ऐसा न हो कि मैं तो बच्चों की भलाई के लिए समझाने का प्रयत्न करूँ और उल्टा मुझे ही नौकरी से निकाल दिया जाय। भला तो किसी का नहीं होगा उल्टा मेरा नुकसान ही होगा, इससे अच्छा है कि मैं चुपचाप वही करूँ जो कहा गया है। अतः मैं धीरे-धीरे वहाँ के अनुसार ही अपने को ढालने का प्रयास करने लगी।
मुझे एक सप्ताह हो गया था स्कूल में किंतु अभी तक मैं यहाँ के माहौल में अजनबीपन ही महसूस कर रही थी, पता नहीं क्यों कुछ अजीब ही माहौल था स्कूल का, कहीं बच्चे लड़ रहे होते तो भी अध्यापिकाएँ देखकर भी अनदेखा कर देतीं, कोई बड़ी क्लास का बच्चा यदि किसी को गाली दे देता तो भी पास से गुजर रही अध्यापिका अनसुना-अनदेखा कर देती। मुझे यहाँ पर घुटन सी महसूस होती। एक बार तो मैंने एक बच्चे को जो कि किसी अन्य बच्चे के लिए अभद्र शब्द का प्रयोग कर रहा था, बुलाकर डाँटा तो मुझसे इंचार्ज ने कहा- "मैडम मत डाँटा कीजिए बच्चों को, आपको अभी पता नहीं कि किस बात का बतंगड़ बन जाएगा और उल्टा आप ही फँस जाएँगी।" मुझे यह बात बड़ी ही अप्रत्याशित लगी, चूँकि वह इंचार्ज थीं और उनके निर्देेशों को मानना मेरी ड्यूटी में शामिल था, इसलिए मैंने चुपचाप उनकी बात मान ली और मुझे आगाह करने के लिए उन्हें धन्यवाद कहकर मैं अपनी क्लास में चली गई।
अगले दिन सुबह मैं करीब पंद्रह-बीस मिनट पहले स्कूल आ गई थी, स्टाफ-रूम के बाहर पतला सा कॉरिडोर था मैं वहाँ दो अन्य अध्यापिकाओं के साथ खड़ी थी, ग्राउंड में बच्चे खेल रहे थे, बड़ी कक्षाओं (नौवीं से बारहवीं) के बच्चे झुंड बनाकर इधर-उधर घूम रहे थे। छोटे बच्चों के साथ उनकी कक्षाध्यापिकाएँ भी थीं जो कि अविवाहिता थीं। तभी कहीं से सीटी बजने की आवाज आई जैसे कि सड़कों पर, गलियों में शरारती लड़के बजाते हैं, हम लोग इधर-उधर देखने लगे तभी मेरे साथ खड़ी एक अध्यापिका ने कहा- "मैडम उधर वो जो बारहवीं के लड़के घूम रहे हैं, उनमें से किसी ने बजाई है।"
पर मैम वहाँ तो आस-पास कोई लड़की नहीं जिसे देख कर उसने बजाई हो, उल्टा मैम भी वहीं हैं, फिर उसकी इतनी हिम्मत कि उनके सामने ही सीटी बजा रहा है!" मैंने अचंभित होकर पूछा।
"मैम लड़की नहीं तो क्या उसने मैडम को देखकर ही बजाई होगी।" मैडम ने कहा।
मुझे ऐसा लगा मानो जलते तवे पर हाथ पड़ गया। "क्या कह रही हैं मैम, यहाँ के बच्चे ऐसा भी करते हैं।" मैंने कहा।
वह बोलीं- "जी हाँ मैडम, यहाँ के बच्चे कुछ भी कर सकते हैं।"
"फिर टीचर्स प्रिंसिपल सर से शिकायत क्यों नहीं करतीं?" मैंने पूछा।
"मैडम क्योंकि कोई फायदा नहीं, शिकायत वहाँ की जाती हैं जहाँ सुनवाई होती हो, यहाँ सिर्फ बच्चों की सुनवाई होती है, एक बार एक टीचर नें शिकायत की थी तो जवाब मिला था कि "जब तक टीचर की गलती न हो बच्चे कुछ नहीं कर सकते। यदि कोई बच्चा टीचर के साथ कुछ ऐसी हरकत करता है इसका मतलब कि टीचर ने ही कुछ हिंट दिया है।" उसके बाद तो उन मैडम ने जॉब ही छोड़ दिया, अब आप ही बताओ मैम कौन सी टीचर अपने चरित्र पर प्रश्न चिह्न लगाना पसंद करेगी? लिहाजा सबकुछ देखते हैं और चुप रहते हैं।" साथ खड़ी अध्यापिका ने कहा।
मैं सकते में थी, यदि इस स्कूल का वातावरण ऐसा है तो मैं यहाँ कैसे रुक पाऊँगी? मैं तो विद्यार्थियों के लिए अनुशासन को सबसे अधिक महत्व देती हूँ। प्रार्थना सभा का समय हो गया था हम लोग अपनी-अपनी कक्षाओं की ओर चल दिए।

दो-तीन दिन ही बीते होंगे कि फिर एक घटना घटित हुई..पहला पीरियड प्रारंभ हो चुका था, मैं अटेंडेंस रजिस्टर लेकर ऑफिस से अपनी कक्षा की ओर जा रही थी तभी मैंने ग्राउंड में देखा एक अध्यापिका जिनकी क्लास मेरी क्लास के बगल में ही थी, उन पर एक महाशय जो शायद किसी बच्चे के पिता होंगे, भड़क रहे थे "तेरी हिम्मत कैसे हुई मेरे बच्चे को हाथ लगाने की?"
"सर मैंने मारा नहीं है, बच्चा झूठ बोल रहा है।" उस अध्यापिका ने बड़ी ही विनम्रता से कहा।
"सुन, तू मैडम होगी तो अपने घर की, मेरा बच्चा झूठ नहीं बोलता तूने मारा इसलिए उसने कहा, मैं तेरे लगाऊँ एक चाँटा तो पता चलेगा तुझे कि कैसा लगता है।" उन महाशय ने बड़ी ही बदतमीजी से कहा।
मेरा मन कर रहा था कि काश मेरे वश में होता तो इन महाशय को धक्के मार कर यहाँ से बाहर निकाल देती और साथ ही इनके झूठे बच्चे को भी, परंतु मैं ऐसा कर नहीं सकती थी और जितना मैंने यहाँ के मैनेजमेंट के विषय में सुना है, वो भी सहयोग नहीं करने वाले। मैं जल्दी-जल्दी लगभग भागती हुई उन मैडम की कक्षा में गई क्योंकि मैंने वहाँ इंचार्ज मैम को देख लिया था, "मैम...मैम जल्दी जाइए, वो देखिए वो किसी बच्चे के फादर मैडम को बहुत बुरी तरह से डाँट रहे हैं, कितनी अपमानजनक भाषा का प्रयोग कर रहे हैं। प्लीज आप कुछ कीजिए न।" मैंने इंचार्ज मैम से कहा।

"ठीक है मैं देखती हूँ।" कहते हुए वो वहाँ गईं और दूर से ही मैंने देखा कि वो बड़ी मुश्किल से समझा-बुझा कर उस आदमी को वहाँ से ऑफिस में लेकर गईं। उसके बाद क्या हुआ मुझे नहीं पता। वो मैडम जिन पर वह व्यक्ति चिल्ला रहा था, वो क्लास में आ गईं और बच्चों को पढ़ाना प्रारंभ कर दिया, मैंने भी कुछ पूछना उचित नहीं समझा। मैं जानती थी कि उनकी मनःस्थिति अभी अच्छी नहीं होगी। इतना अपमान सहन करके भी वो यहाँ रुकी हुई थीं यही मेरे लिए कम आश्चर्य की बात नहीं थी।
अब मेरे लिए यहाँ इस स्कूल में रुकना भारी पड़ने लगा था, आज इन मैडम के साथ ऐसा हुआ कल को मेरे साथ भी हो सकता है। न बाबा न, मैं इतनी अधिक सहनशील नहीं हूँ, मैं बर्दाश्त नहीं कर पाऊँगी पर ऐसी स्थिति में करूँगी क्या? परंतु मैं ऐसी स्थिति का इंतजार ही क्यों करूँ, क्यों न पहले ही छोड़ दूँ?" उस दिन पूरे दिन मेरे मस्तिष्क में यही बातें घूमती रहीं।
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गणतंत्र दिवस के प्रोग्राम की तैयारियाँ चल रही थीं मुझे भी अपनी क्लास के बच्चों को कोई एक या दो प्रोग्राम के लिए तैयार करना और अभ्यास करवाना था। मुझे तो वैसे भी इस प्रकार के कामों में रुचि थी इसलिए मैं इस काम में भी जी-जान से लग गई। यही दो-तीन दिनों का समय था जब कक्षा में पूरे बच्चे न होने के कारण दो-तीन क्लासेज एक साथ कंबाइंड करके बैठा दिया जाता जिससे अध्यापिकाएँ भी प्रोग्राम की तैयारी के लिए फ्री हो जातीं और हम कोई दो-तीन अध्यापिकाएँ पीरियड्स के बीच-बीच में एक साथ बैठ कर आपस में थोड़ी बातें कर लिया करते थे। एक दिन मैंने ही स्कूल में अनुशासनहीनता की बात छेड़ दी तो दूसरी अध्यापिका (जो मेरी कक्षा के बगल वाली कक्षा की कक्षाध्यापिका थीं) और उनकी ही एक मित्र अध्यापिका ने मुझे एक और ही सच्चाई से रू-ब-रू करवाया।
उन्होंने कहा "मैडम आप डिसिप्लिन और टीचर्स के रिस्पेक्ट की बात कर रही हैं, यहाँ पर बच्चे टीचर्स के लिए बहुत ही गंदी वल्गर बातें टॉयलेट की दीवारों पर लिखते हैं और तो और क्लास में भी उनके अलग-अलग नाम रखे हुए हैं।"
मैं सकते में थी, "क्या बात कर रही हैं मैम! और आप लोगों को कैसे पता चलता है?" मैंने पूछा।
"अभी आपको भी दिखाती हूँ कि कैसे पता चलता है।" कहते हुए उन्होंने एक लड़की को नाम से पुकारा, वो दसवीं कक्षा की छात्रा थी।
"यस मैम!" उसने आते ही कहा।
"यहाँ बैठो कुछ बात करनी है।" पहले वाली अध्यापिका ने कहा।
वह छात्रा वहीं एक डेक्स पर बैठ गयी, उसके बिंदास बोलने के तरीके और हाव-भाव से प्रतीत हो रहा था कि वह इन टीचर्स के साथ बहुत अधिक घुली-मिली है अर्थात् उसका व्यवहार गुरु-शिष्या से अघिक मित्रवत् लग रहा था।
दूसरी अध्यापिका ने कहा- "बबिता ये बताओ, क्या अब भी बच्चे टीचर्स के नाम निकालते हैं?"
"यस मैम, ऐसे-ऐसे नाम निकालते हैं कि मैं तो बता भी नहीं सकती और एक टीचर का नाम तो प्रिंसिपल सर के सन इन लॉ के साथ भी जोड़ते हैं।" बबिता नाम की उस छात्रा ने कहा।
"अच्छा किसके क्या नाम निकालते हैं?" उन्हीं मैम ने पूछा।
"बस मैम किसके ये मत पूछो पर हाँ क्या-क्या नाम हैं ये बता देती हूँ, किसी को लाल परी, किसी को बताशा किसी को छम्मक छल्लो ऐसे-ऐसे नाम दिए है बच्चों ने।" बबिता ने कहा।
"अच्छा इन मैडम को क्या कहते है? ये तो बता दो" पहले वाली मैम ने मेरी ओर इशारा करके कहा।
वो लड़की मेरी ओर देखकर थोड़ा झिझकी, "डरो मत बता दो मैं बुरा नहीं मानूँगी।" मैंने उससे कहा
"मैम मेरी क्लास के ब्वायज कहते हैं-"क्या पटाखा लग रही है यार!" उसने झिझकते हुए कहा।
"देखा मैम! ये हमारे स्कूल के बच्चे हैं और सब कुछ हम भी जानते हैं और मैनेजमेंट भी, पर कोई कुछ नहीं कह सकता।" उस लड़की को जाने का संकेत करते हुए दूसरी मैम ने कहा।
मैं हतप्रभ थी, अभी और कितने अजूबे सामने आएँगे।अब मेरा मन यहाँ पर बिल्कुल भी नहीं लग रहा था पर कर भी क्या सकती थी।
गणतंत्र दिवस भी आ गया, प्रोग्राम का आयोजन ठीक-ठीक रहा, हमने अपनी-अपनी कक्षाओं के प्रोग्राम करवाये, सभी को अच्छे लगे पर मैनेज़मेंट की तरफ से किसी की सराहना करना शायद ये उनकी पॉलिसी में नहीं था। मैं प्रसन्न थी कि मेरा गीत और स्वागत गान सबको पसंद आया और मेरी कक्षा के बच्चों का डांस भी अच्छा रहा, परंतु कला निखरने के लिए सदा से पारखी की प्रतिक्रिया पर आश्रित रही है, इसे कुछ नहीं बस सराहना के दो शब्द चाहिए और यदि कोई कमी रह गई हो तो उसकी विवेचना। परंतु यहाँ शिक्षा का मंदिर कहे जाने वाले स्थानों यानि विद्यालयों में भी ऑफिस के बॉस और नौकर वाला रवैया अपना लिया गया है। खैर अब तक का जो अनुभव रहा था मेरा, उस आधार पर मैं निराश नहीं हुई थी, क्योंकि मुझे पहले से यही विश्वास था।
अगले दिन रोज की भाँति ही कक्षाएँ चल रही थीं। लंच का समय हो चुका था, घंटा बजते ही बच्चों को लाइन बनवाकर हैंड वॉश के लिए भेजने के बाद मैं साथ वाली क्लास में पहुँची। वहाँ इंचार्ज पहले से ही मौजूद थीं, परंतु मैं देखकर चौंक गई कि इंचार्ज मैम रो रही थीं।

"क्या हुआ मैम?" मैंने पूछा।
"आप भी तो थीं न मैम उस दिन, जब क्लास में दो बच्चे लड़ रहे थे, तो मैंने दोनों ही बच्चों को डाँटा था।" इंचार्ज मैम ने स्वयं को संयमित करते हुए कहा।
"जी वो इसी क्लास की बात कर रही हैं, रिपब्लिक-डे से एक दिन पहले की?" मैंने कहा।
"हाँ वही, क्या मैंने दोनो बच्चों में कोई भेदभाव किया, या किसी बच्चे को ये कहा था कि ये मुसलमान हैं इन्हें तमीज नहीं होती?" कहते हुए वह फिर रो पड़ीं।
मैं शॉक्ड थी। "नहीं तो..पर ऐसा किस ने कहा, उस बच्चे ने?" मैंने पूछा।
"पता नहीं बच्चे ने कहा या पेरेंट्स खुद बात बना रहे हैं, या फिर यह भी हो सकता है कि प्रिंसिपल सर ने खुद की तरफ से ही बात बनाई हो, जब उन्हें सुनाने को कुछ नहीं मिलता तो वो इसी तरह छोटी-सी बात का तिल का ताड़ बनाया करते हैं।" मैम ने आँसू पोछते हुए कहा।
यह सुनकर मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई, मैं बिल्कुल ऐसा नहीं सोच सकती थी कि किसी शैक्षणिक संस्था में ऐसा कुछ कहा या सोचा जा सकता है।
"नहीं मैम बच्चे के पेरेंट्स ने कहा होगा, सर को ऐसा करके क्या फायदा!" मैंने दुविधा की स्थिति में ही कहा। दरअसल मैं स्वयं नही समझ पा रही थी कि क्या हो सकता है और क्या नहीं?
"अगर ऐसा है तो सर को मैडम की बात भी तो सुननी चाहिए, सिर्फ पेरेंट्स की बात सुनकर उनके सामने टीचर का अपमान करने का क्या मतलब निकाला जाए?" वहाँ बैठी दूसरी अध्यापिका (जिनकी वो क्लास थी) ने कहा।
"मतलब ये कि सर ने मैम की बात ही नहीं सुनी।" मैंने कहा।
"नहीं, उन्होंने तो मुझे बुलाया और बस डाँटना शुरू कर दिया कि मैं हिंदू-मुसलमान में भेद करती हूँ, मुस्लिम बच्चों को सजा देती हूँ कैसी टीचर हूँ, और न जाने क्या-क्या, मुझे कुछ बोलने का मौका ही नहीं दिया, अपनी बात सुनाकर बोल दिया जाओ क्लास में।" कहते हुए इंचार्ज मैंम की आँखों से फिर आँसू ढुलक पड़े। कुछ बच्चे जो हैंडवॉश करके क्लास में आ चुके थे उनकी नजर बचाकर उन्होंने आँसू पोछ लिए।
"मैम ये तो टू मच है, आप लोग ऐसे स्कूल में इतने-इतने समय से पता नहीं कैसे टिके हुए हैं?  मुझे नहीं लगता कि मैं यहाँ रुक पाऊँगी, मुझसे इतना सबकुछ सहन नहीं हो पाएगा। सच कहूँ तो अभी से डर लगने लग गया है, किसी भी बच्चे को कुछ कहने से पहले यह देखना होगा कि वह किस धर्म का है? फिर हम बच्चों को क्या सिखा रहे हैं? ओह गॉड एक ओर तो हम बच्चों को सिखाते हैं कि सभी इंसान बराबर होते हैं, कोई धर्म बड़ा या छोटा नहीं होता, ईश्वर एक है बस उसके नाम अलग हैं। दूसरी ओर जब बात डाँटने, सजा देने या ईनाम की आती है तो पहले हम यह देखते हैं सामने खड़ा बच्चा हिंदू है या मुसलमान! गलती से मुस्लिम बच्चे को डाँट दिया तो हमारी योग्यता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। यहाँ कोई भी व्यक्ति बाहर से आकर सरेआम टीचर के लिए अपमानजनक शब्द कह सकता है, क्योंकि स्कूल का मालिक ही पूरा मैनेजमेंट है और वो मुस्लिम है, तो वो टीचर्स को तो कोई सिक्योरिटी नहीं दे सकता, हाँ! पेरेंट्स के समक्ष टीचर का अपमान जरूर कर सकता है। ओह गॉड ये कैसा स्कूल है?"
कहते हुए मैंने अपने मन का सारा गुबार निकाल लिया था परंतु फिर भी मन हल्का नहीं हुआ, मैं अपनी क्लास में आ गई थी, मन में अजीब सी उथल-पुथल मची हुई थी। मेरा खाना खाने का भी मन नहीं हुआ मैं चुपचाप बैठ गई और बच्चों को देखती रही। अनजाने में ही मेरा मस्तिष्क अब बच्चों को पहचानने की कोशिश में व्यस्त हो गया कि कौन-सा बच्चा हिंदू है और कौन-सा बच्चा मुस्लिम? अचानक ही किसी बच्चे के पुकारने से मेरी तंद्रा भंग हुई और मैं खुद को ही धिक्कारने लगी-"छिः क्या सोच रही है, शिक्षिका होकर इतनी ओछी बात!! छिः छिः! परंतु मैं करूँ भी क्या! क्या मैं अपनी इच्छा से ये भेदभाव कर रही हूँ? मुझे तो मजबूर किया जा रहा है भेदभाव करने के लिए, अन्यथा मेरा भी उसी प्रकार अपमान होने वाला है, जैसे मैम का हुआ। जब इतनी सीनियर टीचर को नहीं छोड़ा तो मैं तो अभी न्यू हूँ।" मानों मैंने स्वयं को ही अपने निर्दोष होने का विश्वास दिलाने के लिए तर्क दिया।
अब स्कूल में मेरा बिल्कुल भी मन नहीं लगता, उन बच्चों से उतने अपनेपन का अहसास नहीं होता जितना पिछले स्कूल के बच्चों से होता था। माना कि बच्चों की इसमें कोई गलती और कोई कमी नहीं थी परंतु मुझे डर लगता कि यदि बच्चों से ज्यादा घुल-मिल गई तो अपनेपन में किसी बच्चे की गलती पर उसे डाँट न बैठूँ। इसीलिए सिर्फ पढ़ाई पर ध्यान देती, परंतु अब उस डर का क्या करूँ जो रोज मुझे स्कूल आने से रोकता और मैं मजबूरीवश जबरन स्कूल आती थी। पर मैंने अपनी जिम्मेदारियों के प्रति समर्पण में कमी नहीं आने दी थी।
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एक दिन सुबह जब मैं उठी तो पता चला कि मुझे तेज बुखार है, मैं चुपचाप पुनः लेट गई, सवेरे स्कूल के समय पर मैंने स्कूल में फोन करके अपने न आने की सूचना दे दी।अब यह मेरी खुशकिस्मती थी या बदकिस्मती पता नहीं, मेरी तबियत दो-तीन दिनों तक नहीं सुधरी। मैं स्कूल से आगामी परीक्षा के लिए प्रश्न-पत्र बनाने के लिए पुस्तकें लेकर आई थी, मुझे कोई दो या तीन पेपर बनाने थे। अतः मैंने बुखार होने के बावजूद प्रश्न-पत्र बनाए। मैं तीसरे दिन स्कूल पहुँची तो वहाँ प्रार्थना-सभा की तैयारी चल रही थी। मैं जैसे ही ग्राउंड में जाने को तत्पर हुई कि मुझे पीछे से आवाज सुनाई दी-"रुकिए, कहाँ जा रही हैं?"
मैं एकदम से पीछे को मुड़ी तो देखा प्रिंसिपल सर खड़े पूछ रहे थे।
"सर मॉर्निंग असेंबली में, सॉरी सर थोड़ी लेट हो गई, वो तबियत ठीक नहीं है इसलिए जल्दी नहीं निकल सकी।" मुझे लगा कि मैं लेट हूँ इसलिए सर ऐसा बोल रहे हैं, अतः मैंने सफाई देते हुए कहा।
"कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम लेट आओ या जल्दी।" प्रिंसिपल सर ने कहा
"ज्ज्जी!" मैंने विस्मित होकर पूछा।
"आप अभी तक कहाँ थीं पिछले तीन दिनों से?" सर ने पूछा।
"जी तबियत ठीक नहीं थी पर मैंने फोन करके इन्फॉम कर दिया था।" मैंने जवाब दिया।
"मैडम ऐसा लगता है कि मेरी और आपकी नहीं बनेगी।" प्रिंसिपल सर ने तल्ख़ स्वर में कहा।
मैं एकदम से सुन्न सी हो गई, घर से निकलते वक्त जरा भी अंदाजा नहीं था कि ऐसा भी कुछ हो सकता है, शायद इसीलिए मेरी ऐसी अवस्था हो रही थी। मैंने स्वयं को नियंत्रित करते हुए कहा- "ओ के सर, जैसी आपकी इच्छा।"
यह कहकर मैं असेंबली ग्राउंड की ओर जाने लगी तभी फिर वही कड़कती आवाज सुनाई पड़ी- "अब कहाँ जा रही हैं आप?" 
"मैंने कुछ प्रश्न-पत्र बनाए हैं और मेरे पास कुछ किताबें हैं, मैं ये इंचार्ज मैम को देने जा रही हूँ।" मैंने कहा। अपमानवश मुझे मेरी ही आवाज गहरे कुएँ से आती हुई प्रतीत हो रही थी।
"आप ये मुझे दे दीजिए मैं दे दूँगा।" उन्होंने कहा।
मैंने चुपचाप वो पुस्तकें और प्रश्न-पत्र उन्हें सौंप दिए और बाहर के गेट की ओर मुड़ गई तभी मुझे ध्यान आया कि मैं अपनी सैलरी क्यों छोड़ूँ! मैं अपनी मर्जी से तो बीच में छोड़कर नहीं जा रही। यह सोचते हुए मैं रुकी और प्रिंसिपल सर से बोली- "सर जितने दिन मैं आई हूँ उतने दिनों की सैलरी?"
"दस तारीख को आकर ले जाना।" अहंकार उनकी आवाज से स्पष्ट झलक रहा था।
मैं घर की ओर वापस चल पड़ी, अपमान बोध से मैं भीतर ही भीतर गड़ी जा रही थी, मेरे पैर मानो जवाब दे रहे थे, मुझे पता था कि मैं यहाँ अधिक दिनों तक नहीं टिक सकूँगी परंतु सिर्फ बीस दिनों में ही और वो भी इस प्रकार अपमानित होकर! आखिर मेरी गलती क्या थी? यही कि मैं बीमार पड़ गई!! मुझसे यह अपमान बर्दाश्त नहीं हो रहा था, मन कर रहा था कि वापस जाऊँ और फिर सबके सामने प्रिंसिपल को खूब खरी-खरी सुनाऊँ। पर मैं ऐसा भी नहीं कर सकती थी। अब मेरे पास बस एक ही रास्ता था कि चुपचाप घर चली जाऊँ और मैंने वही किया। घर जाकर मैं खूब रोई, अपने जीवन के अब तक के सफर में पहली बार किसी ने मेरा अपमान किया था, मुझसे सहन नहीं हो पा रहा था और मैं इतनी बेबस थी कि कुछ कर भी नहीं सकती थी। मैं यह बात घर में भी किसी को ज्ञात नहीं होने देना चाहती थी, इसलिए बच्चों के स्कूल से आने तक मैंने स्वयं को संयत कर लिया। और फिर शाम को सबको बता दिया कि मैं अब उस स्कूल में जॉब नही कर रही। पति द्वारा पूछे जाने पर कारण भी बताया परंतु इस प्रकार कि उन्हें न महसूस हो कि मैंने अपमानित महसूस किया। सबको पता था कि मैं वहाँ खुश नहीं थी लिहाजा सबने यही कहा कि अच्छा हुआ मैं अब वहाँ नहीं जाऊँगी।

विद्यालय छूटे लगभग एक सप्ताह ही हुआ होगा कि मेरे लिए दिन काटना मुश्किल होने लगा, कुछ तो आय स्रोत बंद होने की चिंता और कुछ व्यस्तता की आदत दोनों ही परेशानी की वजह थे। मुझे तो आदत थी बच्चों के मध्य रहने की, वही तो मेरी ऊर्जा का स्रोत थे। मेरे अपने बच्चे तो स्कूल चले जाते और मैं घर पर अकेली रह जाती, इसीलिए घर पर समय काटना मेरे लिए भारी महसूस होने लगा। सूना कमरा मुझे बच्चों के एक-दूसरे के कानों में कुछ खुसर-पुसर की याद दिलाता। बच्चों की शिकायतों की याद दिलाता। मेरा समय काटना मुश्किल होने लगा। अत: मैंने फिर से जॉब ढूँढ़ने का निश्चय किया और इस बार मैंने कहीं दूर न जाकर घर के पास ही एक स्कूल में अपना रिज्यूम दिया तथा किसी ने मुझे रिटेल कंपनी में रिज्यूम देने के लिए कहा तो मैंने वहाँ भी भेज दिया पर मैं किसी कंपनी में नौकरी करूँगी ऐसा कुछ मैंने सोचा नहीं था, यह बस एक प्रयोग मात्र था। अगले ही दिन स्कूल में मुझे इंटरव्यू के लिए बुलाया गया। मेरा इंटरव्यू हुआ और डैमो के लिए अगले दिन से बुलाया।
दो दिन मेरा डैमो हुआ और अट्ठारह सौ के वेतन पर मेरी नियुक्ति हो गई। मुझे बहुत खुशी हुई कि घर के पास ही मुझे जॉब मिल गई थी उतने ही वेतन पर जितना कि पिछले स्कूल में था और कहना तो नहीं चाहिए पर पहली बार इस बात की सबसे ज्यादा खुशी हो रही थी कि किसी ऐसे स्कूल में नहीं जा रही थी जो किसी विशेष धर्म का पक्षपात करता हो। जानती हूँ बतौर एक अध्यापिका यह कहना उचित नहीं है परंतु जो देखा, महसूस किया और भोगा उसे कहना अनुचित नहीं समझती। खैर मैंने स्कूल ज्वाइन कर लिया और दो दिन ही स्कूल गई थी पर मन सकारात्मकता से भर गया था। दो दिन के बाद तीन दिनों की छुट्टी पड़ गई कोई त्योहार था। मैं स्कूल से घर आई ही थी कि मुझे रिटेल कंपनी सुभिक्षा से इंटरव्यू के लिए कॉल आई। मैंने तो शुरू से अध्यापन ही किया था, इसलिए तय नहीं कर पा रही थी कि जाऊँ या नहीं! पर किसी शुभचिंतक ने सलाह दिया कि इंटरव्यू देने से ज्ञान बढ़ता है, ज्वाइन करना न करना बाद का फैसला है लेकिन इंटरव्यू जरूर देना चाहिए। मुझे उनकी बात सही लगी और बहुत झिझकते हुए या यूँ कहूँ कि अपने-आप से लड़ते हुए ही मैं अपने पतिदेव के साथ इंटरव्यू देने गई। पतिदेव के साथ इसलिए क्योंकि घर के आस-पास तो ठीक, पर दूर कहीं कभी अकेली गई नहीं थी तो डरती थी कि कैसे जाऊँगी, पता नहीं पहुँच पाऊँगी या नहीं। खैर! वहाँ पहुँची, इंटरव्यू हुआ और तीन दिन की ट्रेनिंग के लिए अगले दिन से ही बुलाया। हम घर आ गए, अभी दो दिन की छुट्टियाँ और थीं और एक दिन की स्कूल की छुट्टी मुझे करनी पड़ती तब तीन दिन की ट्रेनिंग पूरी होती। मैंने अभी-अभी स्कूल ज्वाइन किया था इसलिए छुट्टी नहीं करना चाहती थी, पर फिर मेरे पति ने ही समझाया कि एक दिन की ही छुट्टी की बात है, हो सकता है ट्रेनिंग से कुछ नया सीखने को मिले, हो सकता है कोई नई दिशा मिले, इसलिए मुझे जाना चाहिए।
बहरहाल मैं भी तैयार हो गई और फिर मै ट्रेनिंग के लिए गई। पहले ही दिन ट्रेनर मेरे अंदर की अध्यापिका को पहचान गए और परिणाम यह हुआ कि जो चीजें वो सिखाते वही फिर मुझे सिखाने को कहते। अब उनके द्वारा एक बार सिखाई गई बात को मैं विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से सभी ट्रेनी को सिखाती। मुझे वहाँ भी अध्यापिका वाले अहसास के साथ आनंद आने लगा। मैं न सिर्फ ट्रेनर की पसंदीदा विद्यार्थी बन गई थी वहाँ अन्य लोगों से भी प्रशंसा मिली। तीन दिन पूरे हो गए, तीसरे दिन मुझे बतौर कैशियर ज्वाइनिंग लेटर मिल गया।
मैं पहली बार तीन दिन लगातार अकेली दो-दो घंटे का बस से सफर करके घर से इतनी दूर गई थी तो थोड़ा तो आत्मविश्वास आना ही था। ज्वाइनिंग लेटर पाकर जहाँ एक ओर खुशी हो रही थी वहीं दूसरी ओर दुविधा भी थी कि मैंने अभी तो स्कूल ज्वाइन किया है अब मैं अकारण ही मना कैसे कर सकती हूँ? साथ ही अध्यापन का तो अनुभव है, उसमें रुचि भी है तो इसे कैसे छोड़ सकती हूँ? परंतु सबने मुझे समझाया कि सुभिक्षा में वेतन अच्छा है और कुछ अलग सीखने का अवसर भी, साथ ही यदि कमाने ही निकले हो तो जहाँ आगे बढ़ने की उम्मीद हो वहाँ मेहनत करके देखो। तो मुझे भी लगा कि यही सही है परंतु ये समझ नहीं आ रहा था कि स्कूल में क्या कहूँगी?
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अगले दिन मैं सुबह-सुबह विद्यालय गई और प्रिंसिपल सर को मैंने सारी बातें बताते हुए कहा कि "सर इस वक्त जॉब करना मेरा शौक नहीं जरूरत है तो वेतन मेरे लिए बहुत मायने रखता है। मुझे वहाँ से अच्छा वेतन ऑफर हुआ है पर मैं यहाँ पहले से ज्वाइन कर चुकी हूँ इसलिए मैं मना नहीं कर पा रही अब आप ही बताइए मुझे क्या करना चाहिए?"
प्रिंसिपल बहुत ही सुलझे हुए व्यक्ति थे, उन्होंने कहा- "मैडम मैं समझ सकता हूँ, मुझे अच्छा लगा कि आपने आकर सब सच-सच बता दिया। आई अप्रिशिएट यू। अगर मैं आपको उतनी ही सैलरी दे सकता तो जरूर दे देता पर ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि इससे दूसरी टीचर्स के साथ अन्याय होगा और मैं सबकी सैलरी एक साथ इतनी नहीं बढ़ा सकता, इसलिए मैं यही कहूँगा कि आप जाइए और बेफिक्र होकर ज्वाइन कीजिए।"
मैं बता नहीं सकती कि उस वक्त मुझे कितनी खुशी हुई थी, मैं अपराध बोध से बच गई थी। मैं घर आई और उसी दिन सुभिक्षा के लिए निकल गई, हाँ वहाँ भी पहली बार अपने पति के साथ गई, क्योंकि आउटलेट ढूँढ़ना जो था।

वहाँ का माहौल मेरे लिए बिल्कुल अलग था, हालांकि सभी लोग बहुत अच्छे थे, सबने मेरी सहायता की। मैं अध्यापिका हूँ शायद यह जानकर उन लोगों ने मुझे कुछ ज्यादा सम्मान देना शुरू कर दिया। बाद में भी उनका व्यवहार मेरे प्रति मित्रवत् कम और सम्मानपूर्ण अधिक रहा। उन सभी ने मुझे सभी सामानों की पहचान करवाना और उनका बिल कैसे बनाया जाता है ये सब सिखाया। वहाँ जॉब करने के बाद ही मुझे मूँग और उड़द की दाल में अंतर पता चला, उससे पहले मैं इन दोनों दालों में भ्रमित हो जाती थी। ऐसी ही कई अन्य चीजों की पहचान के साथ-साथ लोगों में घुलना-मिलना भी सीखा हालांकि बहुत बातूनी तो मैं कभी नहीं बन पाई फिर भी वहाँ पर सभी मुझे पसंद करते थे, मुझ पर विश्वास करते थे। मेरे इतने वर्षों के अध्यापन का असर तो था ही, मेरे भीतर की अध्यापिका मुझे कुछ ग़लत करने ही नहीं देती थी। मेरे साथ एक लड़की और थी कैशियर और बाकी लड़के थे। वह पास से ही आती थी इसलिए उसकी शिफ्ट कर्ई बार शाम की होती थी पर सभी उसके पीछे उसकी बुराई करते कि वह बहुत चालाक है, शाम की शिफ्ट लेने के पीछे भी चालाकी है वगैरा वगैरा। ब्रांच के डायरेक्टर हर रविवार को आते थे और रविवार को तो वैसे भी आउटलेट में भीड़ ज्यादा होती थी तो काउंटर छोड़ने का तो सवाल ही नहीं होता, पर वह लड़की फिर भी गप-शप के लिए समय निकाल ही लेती थी। परिणाम यह होता कि मेरे काउंटर से अधिक सेल होती। उस समय मुझे बुरा लगता जब मैं उसे फ्री होकर घूमते देखती और मैं व्यस्त होती, पर मुझे ऐसी चालाकियाँ नहीं आती थीं। छ: महीने बाद मुझे अपनी मेहनत का फल मिला मेरा वेतन में छ: सौ रुपए की बढ़ोत्तरी हो गई। जिन लोगों ने मेरे साथ ज्वाइन किया था उन सभी को बुरा लगा पर मुझे खुशी हुई हालांकि सभी को यह बात समझ आ गई कि क्यों मेरी सैलरी बढ़ी, उसके बाद तो सभी अपना काउंटर नहीं छोड़ना चाहते थे मुख्य रूप से डायरेक्ट के सामने।

मैं अपनी आय से तो संतुष्ट थी पर कुछ था, जिसकी कमी हमेशा अखरती थी। वहाँ सभी अपने बराबर के थे, सभी सहयोग करते एक-दूसरे का ध्यान भी रखते पर वो बच्चों के बीच रहने का जो अहसास होता है न! मुझे उसकी कमी महसूस होती। वहाँ अनाज, सब्जी, तेल-साबुन तो थे पर कॉपी-किताबों की खुशबू की कमी महसूस होती थी। ग्राहकों के मैडम कहने और बच्चों के मैडम कहकर पुकारने का जो भावनात्मक अंतर होता है न! वो अंतर चुभता था। मैं पूरी मेहनत से काम तो कर रही थी पर अधूरापन महसूस करती थी, कई बार तो साथ काम करने वाले लोग भी कहते थे "अरे मैडम कहाँ स्कूल छोड़कर आप यहाँ फँस गईं।" ऐसा नहीं है कि मुझे वहाँ कोई परेशानी नहीं हुई, जब शाम को छ: बजे मेरी छुट्टी का समय होता था तो कभी लापरवाही के कारण तो कभी व्यस्तता अधिक होने के कारण जब कोई समय पर काउंटर का चार्ज लेने नहीं आता था न, तो बहुत गुस्सा आता था। ऐसा लगता था कि समय की पाबंदी तो इनके लिए कोई मायने ही नहीं रखती। अक्सर सात बज जाया करते थे। कई बार तो आठ भी बज जाते थे। मुझे लगता कि दिन में कितनी भी मेहनत करवा लो लेकिन शाम को समय से छुट्टी मिलनी चाहिए, आखिर मेरे बच्चे मेरा इंतजार करते होंगे। फिर इतनी रात को बस में आना, वो तो अच्छा था कि उस रूट की जो एक ही नंबर की कुछ मिनी बसें जाती थीं वे सभी ड्राइवर और कंडक्टर जानने लगे थे तो भीड़ में भी वो गेट खाली करवा देते और मेरे चढ़ने के बाद आगे की सीट भी खाली करवा देते थे। इतना ही नहीं ड्राइवर और कंडक्टर तब तक बीड़ी-सिगरेट नहीं पीते थे जब तक मैं बस में होती थी क्योंकि मैं उन्हें दो-तीन बार टोक चुकी थी तो अब वो मुझे मौका भी नहीं देते थे। यह भी एक कारण था कि आउटलेट में मेरा मन न लगने के बावजूद मैं वह नौकरी नहीं छोड़ना चाहती थी क्योंकि मुझे पता था कि किसी स्कूल में अब मुझे उतनी सैलरी नहीं मिलेगी जितनी वहाँ दे रहे हैं और हर रूट की बसों में इतनी सहूलियत नहीं मिलती। खैर! समय अपनी मंथर गति से चलता रहा और धीरे-धीरे लगभग एक साल हो गए।
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१०
एक दिन संध्या के समय मैं शाक-सब्जी तथा अन्य छोटी-मोटी खरीदारी के उद्देश्य से बाजार गई, मेरी बड़ी बेटी मेरे साथ थी। हमने सोचा क्यों न पहले अन्य छोटी-मोटी खरीदारी कर ली जाय, सब्जी अंत में खरीदेंगे ताकि अधिक देर तक वजन न उठाना पड़े। ऐसा सोचकर हम सब्जी बाजार से विपरीत दिशा की ओर जाने लगे जिधर कपड़े, जूते-चप्पलें, सौंदर्य प्रसाधन, खेल-खिलौने आदि सामानों के दुकानों की बहुतायत थी। वैसे हमारे घर के निकट ही यह मार्केट हमारे व वहाँ आस-पास के निवासियों के लिए बेहद सुविधाजनक है। यहाँ पर हमारी आवश्यकता की छोटी से छोटी हो या बड़ी से बड़ी लगभग हर वस्तु मिल जाती है। हमने अपनी खरीदारी की और वापस सब्जी मार्केट की ओर लौटे तभी सामने गीतिका मैम दिखाई दीं, उन्होंने भी हमें देख लिया था लिहाजा यदि समय बचाने के लिए मैं चुपचाप नजरें बचाकर निकलना भी चाहती तो वह रास्ता बंद हो चुका था। वैसे भी समय बचाने के अलावा और कोई वजह नहीं थी उनसे बात न करने की। मुझे खुशी भी हुई। हाय हैलो के बाद उन्होंने पूछा- " मैम अब कहाँ कर रहे हो?"
"कहीं नहीं मैम अभी तो घर पर ही हूँ।" मैंने उन्हें अपनी जॉब के विषय में न बताते हुए कहा।
"फिर आप हमारे स्कूल में आ जाओ" उन्होंने कहा।
"आपके स्कूल में? मैं कुछ समझी नहीं आपने स्कूल चेंज कर दिया क्या?" मैंने पूछा।
"हाँ, आपके छोड़ने के एक-दो हफ्ते बाद ही छोड़ दिया था।" उन्होंने बताया।
"फिर अब कहाँ कर रहे हो?" मैंने पूछा।
"स्कूल तो थोड़ी दूर है पर स्कूल का पूरा मैनेजमेंट यहीं का है प्रिंसिपल और काफी टीचर्स भी।" उन्होंने कहा।
"ओह, तो आप जाते कैसे हो उतनी दूर?" मैंने जिज्ञासु हो पूछा।
"दो कैब लगी हुई हैं तो आने जाने की कोई दिक्कत नहीं है।" उन्होंने कहा।
"ओह, फिर तो अगर मैं ज्वाइन करना चाहूँ तो मुझे इंटरव्यू देने स्कूल जाना होगा? मैं कभी ज्यादा दूर अकेली गई नहीं।" मैंने कहा।
"अरे नहीं मैम, जिनका स्कूल है न! वही चेयरमैन हैं और यहीं पास में ही उनका घर है, पाँच मिनट का पैदल का रास्ता है, इंटरव्यू तो यहीं घर पर ही हो जाएगा।" मैम ने कहा।
"पर वो भी मुस्लिम तो नहीं हैं?" मैंने अपने मन का डर निकालने के लिए साफ-साफ पूछ लिया।
"अरे नहीं वो पंडित हैं, शर्मा हैं और बहुत ही अच्छा और सम्मानजनक व्यवहार है उनका।" उन्होंने कहा।
"रियली! फिर तो मैं तैयार हूँ, खुश होकर मैंने कहा।
उन्होंने मेरा नंबर लिया तथा अपना नंबर मुझे देकर चली गईं।
अगले दिन शाम को गीतिका मैडम ने फोन करके मुझे मिलने के लिए एक जगह बताया और शाम को छः बजे मिलने के लिए बुलाया। मैं शाम को निश्चित समय पर गीतिका मैडम की बतायी हुई जगह पर पहुँच गई और उनके आते ही हम दोनों स्कूल के चेयरमैन शर्मा जी के घर की ओर चल पड़े। घर पास ही था और मैडम ने सर से अप्वाइंटमेंट ले रखा था, इसलिए सर घर पर ही थे। स्कूल में टीचर की जॉब के लिए इंटरव्यू तो पहले भी दिए थे परंतु उसी पद हेतु किसी के घर पर इंटरव्यू देने का ये मेरा पहला अनुभव था। रास्ते में मैडम ने मुझे बहुत कुछ समझाया था कि वो किस प्रकार के प्रश्न पूछ सकते हैं या उनसे सर ने किस प्रकार के प्रश्न पूछे थे, पर अब ये सब समझाने का मेरे विचार से कोई लाभ नहीं था, ये सब वो मुझे कल ही बता देतीं तो मैं थोड़ी तैयारी के साथ आती, अभी तो मैं ऐसे ही बिना किसी तैयारी के आ गई थी। फिर भी मुझे घबराहट तो नहीं हो रही थी पर हाँ, शायद घर पर इंटरव्यू के कारण कुछ अजीब जरूर महसूस कर रही थी, साथ ही यह भी जानती थी कि यदि घर पर ये इंटरव्यू न होता तो शायद मैं दूर के कारण ही सही पर स्कूल में तो जाती भी नहीं।
लगभग पाँच-दस मिनट चलने के बाद हम एक घर के सामने खड़े थे, हमारे पीछे ही एक पार्क था जहाँ मैं टहलने के लिए कभी-कभी आया करती थी। मैडम ने डोरबेल बजाई तभी भीतर से एक महिला आती हुई दिखाई दीं, महिला का कद करीब पाँच फुट या पाँच फुट एक इंच होगा, शरीर भरा-भरा, रंग गेहुँआ तथा अधरों पर एक मधुर मुस्कान, उनका संपूर्ण व्यक्तित्व सादगी और सरलता का प्रतिरूप प्रतीत हो रहा था। उन्होंने गेट खोला मेरे साथ आईं मैडम ने उन्हें हाथ जोड़कर अभिवादन किया, मैं समझ गई कि ये महिला निश्चय ही सर की धर्मपत्नी हैं अतः मैंने भी हाथ जोड़ कर "नमस्ते मैम" कहा।
"आओ, सर आप लोगों का ही इंतजार कर रहे हैं।" कहते हुए हमें भीतर आने का संकेत करते हुए वो एक ओर हट गईं और हमारे भीतर प्रवेश करते ही गेट बंद करके आगेे-आगे चल पड़ीं। छोटा सा चौक पार करके हम एक मध्यम आकार के हॉल में आ गए और हॉल के अंदर प्रवेश करते ही बाँए ओर मुड़ गए तीन सीढियाँ चढ़ते ही हम एक कमरे के भीतर थे। कमरा भी बहुत बड़ा नहीं था और न ही इतना छोटा कि कोई परेशानी हो। दस-बारह लोगों के साथ मीटिंग करने के लिए उपयुक्त था। उन भद्र महिला ने सोफे की ओर इशारा करते हुए हमें बैठने के लिए कहा। हम दोनों बैठ गईं, मैम बाहर चली गईं और पानी भिजवाया फिर पाँच-दस मिनट भी न हुए होंगे कि एक ट्रे में नमकीन, बिस्किट चाय आदि लेकर आईं। उनके व्यवहार और बातचीत से मालिक और एम्प्लाई के बीच का भेद बिल्कुल नजर नहीं आ रहा था, बहुत ही नम्र स्वभाव की महिला प्रतीत हुईं वह। सर आए और अभिवादन की औपचारिकता के उपरांत उन्होंने मेरे विषय में पूछना शुरू किया, मेरी शिक्षा, मेरी रुचि आदि के विषय में कई सवाल पूछे। नहीं जानती क्यों पर मुझे तनिक भी घबराहट नही हुई। ऐसा नहीं कि मुझे सारे प्रश्नों के उत्तर पता हों, जिनके उत्तर नहीं पता थे मैंने साफ कह दिया कि मुझे नहीं पता परंतु यदि यह मेरे कार्यकाल में आवश्यक हुआ तो मैं अवश्य इसके विषय में पूर्ण जानकारी रखूँगी। वार्तालाप या यूँ कहूँ कि इंटरव्यू के बीच-बीच में सर यह भी कहते "मैडम आपने कुछ खाया नहीं, संकोच मत करिए खाइए"..सामने मेज पर प्लेट में रखे हुए कटे हुए फलों की ओर (जो कि मैडम अभी रख गईं थी) संकेत करते हुए कहते। "जी, खा रहे हैं सर।" हम कहते।
"अच्छा आपको प्रिंसिपल मैडम से भी मिलवाता हूँ, मैने फोन कर दिया है वो अभी पहुँचने वाली होंगीं।" सर ने कहा। सर ने तो वैसे ही इतने सारे सवाल पूछे थे अब मैम भी आकर न जाने क्या-क्या पूछेंगीं यह ख्याल मेरे मस्तिष्क में यकायक कौंध गया।
सर के कहने के पाँच मिनट के अंदर ही प्रिंसिपल मैडम आ गईं। गोरा रंग, छरहरी काया, साधारण कद-काठी और साधारण नैन नक्श के बावजूद सलवार कमीज पहने तथा गले में एक हल्की सी स्टॉल डाले हुए वह एक आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामिनी प्रतीत हो रही थीं। हमारे अभिवादन का जवाब देते हुए वह मेरे सामने वाले सोफे पर बैठ गईं। गीतिका मैडम तो वहाँ पढ़ाती ही थीं तो कमरे में मैं ही ऐसी थी जिसे वो पहली बार देख रही थीं, इसलिए उन्हें यह बताने की तो आवश्यकता ही नहीं पड़ी कि किसका इंटरव्यू लेना है। उनके आने के पश्चात् सर ने उनसे मेरा परिचय करवाया और ये कहकर कि अब वो मुझसे जो पूछना चाहें पूछ लें, सर बाहर चले गए।
मैम ने मुझसे कंप्यूटर के विषय में कई सवाल पूछे, मैंने भी बेझिझक उनके उत्तर दिए, कितना सही और कितना गलत मुझे नहीं पता क्योंकि मैने अपनी तरफ से तो सभी उत्तर सही दिए थे और मैडम ने भी ऐसी कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की जिससे मुझे अपने द्वारा दिए गए किसी उत्तर पर संशय हो। कुछ समय पश्चात् सर पुनः आ गए और मैडम सर से अनुमति लेकर वापस चली गईं। सर ने मुझे ढाई हजार रूपए सैलरी ऑफर की और साथ ही स्कूल समय कैब आदि के विषय में चर्चा करते हुए मुझे इस विषय पर पूर्णतः आश्वस्त करने का प्रयास किया कि स्कूल दूर होने के कारण मुझे किसी प्रकार की परेशानी न होगी।
"ठीक है सर मैं सोचकर एक-दो दिन में बताती हूँ।" मैंने कहा था और फिर गीतिका मैडम के साथ वापस आ गई थी। गीतिका मैडम ने स्कूल, प्रिंसिपल और पूरे मैनेजमेंट की काफी प्रशंसा की परंतु दूरी अधिक होने के कारण मैं पहले घर पर सलाह मशविरा करने के बाद ही किसी निर्णय पर पहुँचना चाहती थी।
मैंने निर्णय लेने में तीन-चार दिनों का समय लिया, क्योंकि मैं तय नहीं कर पा रही थी कि इतनी सैलरी में उतनी दूर जाना ठीक होगा या नहीं! गीतिका मैडम से मैंने फोन पर सैलरी से संबंधित दुविधा बताई। फिर अगले दिन सर ने फोन पर मुझसे बात करके अट्ठाइस सौ रूपए प्रति माह देने के लिए कहा। मैंने सोचा कि वेतन मौजूदा वेतन से कम भले ही है पर मेरा पसंदीदा क्षेत्र है और किस्मत से मुझे फिर से अध्यापन से जुड़ने का अवसर मिला है तो मुझे इसे खोना नहीं चाहिए। वेतन आठ सौ रुपए कम हैं पर रविवार और अन्य त्योहार मैं बच्चों के साथ मना पाऊँगी तथा रोज भले ही सवेरे जल्दी जाना पड़ेगा पर दिन में तीन-साढ़े तीन बजे तक घर भी तो आ जाऊँगी। यही सब सोचकर मैंने हाँ कर दिया और दूसरे दिन से मैं भी उस स्कूल की एक सदस्या बन गई।
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११
स्कूल ज्वाइन करते समय मुझे यह नहीं पता था कि यहाँ से मेरे जीवन को एक नई दिशा मिलने वाली थी, अभी तक तो मैं निरुद्देश्य, दिशाहीन सी बस हवा के झोंके के साथ बहती जा रही थी, परिस्थितियाँ मुझ पर हावी थीं, यह अलग बात थी कि परिस्थितिवश किये गए कार्य में भी मुझे आनंद की प्राप्ति होने लगी थी और साथ ही इसी से मैं स्वयं से परिचित हो पाई। 'अध्यापन' जिसमें मेरा अभी तक सिर्फ मन लगता था, अब वह मेरे जीवन का अभिन्न अंग बनने वाला था, इसके बिना मैं स्वयं को अधूरी महसूस करूँगी। मैं अभी तक तो आठवीं तक सभी विषय पढ़ा लेती थी। अब मुझे किसी एक विषय में विशेषता हासिल होने वाली थी।
सुबह सात बजकर पच्चीस मिनट पर मैं स्टैंड पर पहुँच गई, गीतिका मैडम लगभग आधा किलोमीटर अंदर से आती हैं पर स्टैंड उनका भी यही था, मेरे पहुँचने के पाँच-सात मिनट बाद वो भी आ गईं और उनके आते ही एक सूमो गाड़ी आकर रुकी, हम दोनों गाड़ी में बैठ गए उसी में स्कूल की प्रिंसिपल मैम और वाइस प्रिंसिपल मैम जो कि चेयरमैन सर की पत्नी भी थीं, बैठी थीं। इनके अलावा पाँच टीचर और थे जिनमें एक पुरुष अध्यापक थे। गीतिका मैडम ने सबसे मेरा परिचय करवाया, अभिवादन के बाद मामूली औपचारिक बातें हुईं फिर मैं चुप हो गई और पूरे रास्ते बाकी अध्यापिकाओं की गप-शप सुनती रही। एक बात मैने नोटिस किया कि गाड़ी में प्रिंसिपल मैम नहीं बोलती थीं या बहुत कम बोलती थीं, उनकी वजह से ही शायद बहुत अनुशासन रहता था।

पहली बार मैं दिल्ली से बाहर इतनी दूर जॉब करने जा रही थी। दिल्ली की सीमा खत्म होते ही सड़क पर धूल मिट्टी दिखाई देने लगी, वातावरण में खुलापन दिखाई देने लगा। घनी आबादी और प्रदूषण भरे वातावरण से दूर होते जा रहे थे और कुछ-कुछ ग्रामीण अंचल सा प्रतीत होने वाले क्षेत्र में प्रवेश कर रहे थे। पक्की परंतु जगह-जगह से टूटी सड़क दोनों ओर से ऊँचे-ऊँचे हरे-भरे सरकंडों से घिरी होने के कारण मन को आह्लादित कर रही थीं। कहीं-कहीं जहाँ सरकंडों से बाहर आते वहाँ दूर-दूर तक खेतों में लहलहाती सरसों मन को गुदगुदा रही थी। मन कर रहा था कि वहीं गाड़ी से उतर जाऊँ और दूर-दूर तक फैली हरियाली को निहारती रहूँ। फिर अगले ही पल ध्यान आ जाता कि हम तो स्कूल जा रहे हैं और फिर महसूस होता कि इतना समय हो गया पर रास्ता अभी तक खत्म ही नहीं हुआ, हर पल ऐसा लगता कि और कितनी दूर है....और अभी कितनी दूर है? परंतु प्रत्यक्ष में मैने किसी से कुछ नहीं कहा। मैंने तो नहीं कहा पर जो टीचर्स पहले से वहाँ इतनी दूर रोज जा रही थीं वे भी तो इसी प्रकार की मनोस्थिति से गुजर चुकी थीं, इसलिए उन्हें बखूबी पता था कि इस समय मेरे दिमाग में क्या चल रहा है, एक मैडम ने तो कह भी दिया- "मैडम बहुत दूर लग रहा है न? सोच रही होंगी कि कहाँ फँस गई पर टेंशन मत लीजिए, हमें देखिए...हमें भी पहले दिन ऐसा ही लगा था और अब देखिए.. हमें पता भी नहीं चलता। धीरे-धीरे आदत हो जाती है न तो यही रास्ता छोटा लगने लगता है।" मैंने भी मुस्करा कर कहा था "सो तो है धीरे-धीरे आदत पड़ जाएगी।" तभी वाइस प्रिंसिपल मैम बोल पड़ीं- "लो आ गया हमारा छोटा सा स्कूल।"
किसी अन्य टीचर ने कहा- "मैडम छोटा सा! कितनी बसें हैं आपके स्कूल में? ये छोटे से स्कूल में ही होता है क्या?"
"सिर्फ छः बसें ही तो हैं।" उन्होंने कहा।
"कोई बात नहीं मैडम आज छः हैं धीरे-धीरे और बढ़ जाएँगी।" गीतिका मैडम ने कहा।
"भगवान करे तुम लोगों की बात जल्द पूरी हो।" वाइस प्रिंसिपल मैडम ने कहा।
बातों का दौर खत्म भी नहीं हुआ था कि हमारी गाड़ी रुक गई, हम स्कूल के मुख्य गेट के भीतर थे। स्कूल की सुंदर और विशाल इमारत देखते ही मैं खुश हो गई। अब लग रहा था कि इतने वर्षों के संघर्ष के उपरांत शायद उस जगह आ पहुँची जहाँ मैं अपने-आप  हम सभी गाड़ी से उतरे और भीतर बने हॉल की ओर बढ़ गए। सभी एक ऑफिस (वाइस प्रिंसिपल मैम के ऑफिस) में गए और रजिस्टर में अपनी उपस्थिति के हस्ताक्षर किए, मैं एक ओर चुपचाप खड़ी हो गई। और भी अध्यापिकाएँ जो वहाँ के आस-पास के क्षेत्र की थीं, आ रही थीं और हस्ताक्षर हेतु ऑफिस में आतीं, अतः हम लोग बाहर आ गए थे। प्रिंसिपल मैम गाड़ी से उतरते ही सीधे अपने ऑफिस में चली गई थीं।
तभी बेल बजने की आवाज आई। सभी अध्यापिकाएँ अपनी-अपनी कक्षाओं के विद्यार्थियों के साथ प्रातःकालीन प्रार्थना सभा के लिए विद्यालय परिसर के मैदान में एकत्र होने लगीं। कक्षानुसार सभी विद्यार्थी पंक्तियों में खड़े होने लगे। मैं भी गीतिका मैडम के साथ वहाँ गई और बच्चों को पंक्तिबद्ध होने में मदद करने लगी।

प्रार्थना के उपरांत प्रिंसिपल मैडम ने मुझे अपने ऑफिस में बुलाया, हालाँकि ये तो सहज सी बात थी, अब वहाँ मैं टीचर अप्वाइंट हुई थी तो पहला परिचय तो प्रिंसिपल से ही होना था पर फिर भी न जाने क्यों मैं असहज महसूस करने लगी थी। मुझे घबराहट सी होने लगी शायद दिल में कहीं यह बात भी थी कि मैंने अब तक छोटे-छोटे स्कूलों में पढ़ाया है और ये ठहरा बड़ा स्कूल...पता नहीं यहाँ मैं टिक पाऊँगी या नही!!! खैर, मैंने स्वयं को साहस बँधाया और जो 'आया' मुझे बुलाने आई थी मैं उसके साथ ही चल पड़ी।
मैं आज्ञा लेकर ऑफिस के अंदर गई और टेबल के दूसरी ओर खड़ी हो गई, बड़ी सी टेबल के पीछे एक बड़ी सी गद्दीदार लेदर की चेयर पर वही मैडम बैठी थीं, जो सूमो में हमारे साथ आई थीं। वहाँ मुझे उनसे तनिक भी भय महसूस नहीं हुआ था पर यहाँ पता नहीं क्यों दिल बाहर को निकलने की कोशिश में जोर-जोर से ठोकरें मार रहा था।
"आर यू फीलिंग कम्फर्टेबल मैम" एक स्वीट और सॉफ्ट सी आवाज मानों हवा की तरंगों के साथ ऑफिस में चारों ओर गूँज गई।
"य्यस मैम" मैं थोड़ा आश्वस्त होती हुई बोली।
"ओके,व्हिच सब्जेक्ट्स यू कैन टीच?" उन्होंने पूछा।
"मैम आई कैन टीच एव्री सब्जेक्ट्स अप टू एर्थ क्लास।" मैंने झिझकते हुए जवाब दिया। आधा आत्मविश्वास तो मेरा तभी हिल गया था जब उन्होंने मुझसे इंग्लिश में बात करना शुरू किया, अभी तक मैंने जिन विद्यालयों में पढ़ाया था वहाँ आपस में सभी हिंदी को ही तवज्ज़ो देते थे, पर यहाँ तो मैम इंग्लिश में बात कर रही थीं वो भी इतनी धीमी आवाज में कि मुझे डर था कि यदि कोई बात सुनने में गलती हो गई तो?
"बट वी नीड ए हिंदी टीचर एंड आई थिंक यू नो इट, राइट?" उन्होंने कहा।
"यस मैम आई नो, बट आपने पूछा कि मैं क्या पढ़ा सकती हूँ इसलिए बताया।" अपनी पूरी बात ठीक से समझा सकूँ इसके लिए मुझे हिंदी का ही दामन थामना पड़ा।
"ओके, आई एम गिविंग यू टाइम टेबल आफ्टर सम टाइम, टिल देन यू हैव टू वेट इन स्टाफ-रूम" प्रिंसिपल मैम ने कहा।
"ओके मैम" कहकर मैं ऑफिस से बाहर आ गई और आया से पूछा कि स्टाफ-रूम कहाँ है? आया (जिसका नाम बाद में मुझे पता चला कि कुसुम है) ने मुझे फर्स्ट फ्लोर पर बताया और किधर से जाना है यह भी बताया। मैं स्टाफ-रूम में गई, वह एक मध्यम आकार के कमरे जितना ही था एक ओर बड़ी अलमारी रखी थी जिसमें लॉकर नुमा खाने बने थे, वे सभी लॉक थे, सब पर नम्बर लिखे हुए थे, शायद ये टीचर्स के लॉकर होंगे, मैने सोचा। बीचो-बीच एक बड़ी सी मेज रखी थी, मेज के चारों ओर कुर्सियाँ रखी थीं। मेज पर कॉपियों के कुछ बंडल रखे हुए थे शायद चेक करने के लिए। कुर्सियों के पीछे बस इतनी ही जगह बची थी कि वहाँ अलमारी रखने के बाद एक व्यक्ति बड़े आराम से निकल सके। मैं जाकर एक खिड़की के पास खड़ी हो गई और बाहर लॉन में देखने लगी। वहाँ से दूर-दूर तक खेतों में लहलहाते सरसों के फूल तथा गेहूँ की हरियाली देखी जा सकती थी, स्कूल के मुख्य गेट के बाहर की सड़क पर आते-जाते वाहन तथा उनके पीछे गन्ने के खेतों से विचरण करती मेरी नजरें फिर आकर स्कूल प्रांगण में लॉन में अटक गईं। लॉन के बीचो-बीच एक गोलाई में बनाई गई क्यारी थी, जिसमें लाल, गुलाबी, पीले और सफेद रंग के गुलाब के फूल खिले हुए थे। फूलों से तो मुझे बचपन से ही प्यार रहा है, इनके मध्य तो मैं घंटों समय बिता सकती हूँ, इन फूलों ने मुझे बाँध लिया। मैं वहीं खिड़की पर खड़े होकर बारी-बारी से एक-एक फूल का निरीक्षण करने लगी, तभी पीछे से आवाज आई "मैडम जी!" मैं चौंककर मुड़ी। कुसुम खड़ी थी, उसके हाथ में एक पेज का आधा भाग था, मैं समझ गई कि प्रिंसिपल मैम ने भेजा होगा, मैं कुछ बोलती इससे पहले ही वह पेज मेरी ओर बढ़ाते हुए बोल पड़ी- "मैडम ने आपको इन क्लासों में जाने के लिए कहा है।"
"ओके" कहते हुए मैंने वह पेज उसके हाथ से ले लिया।
मैंने वह टाइम टेबल देखा और फिर कुसुम से पूछा- "सिक्स्थ क्लास किधर है?"
"आइए" कहकर वह स्टाफ-रूम से बाहर आई मैं भी उसके पीछे बाहर आ गई। बाहर आकर उसने बाँईं ओर उँगली से इशारा करके बताया "मैडम वो है।" और यह कहती हुई वह भी उसी ओर चल दी, मैं भी यंत्रवत् उसी के साथ चल दी। क्लास के सामने ही सीढ़ियाँ थीं वह उन्हीं सीढ़ियों से नीचे चली गई और मैं क्लास में, गेट पर पहुँचकर मैं ठिठक गई क्योंकि क्लास में एक टीचर पहले से थीं, मुझे देखते ही उन्होंने पूछा! "मैम ये आपका पीरियड है?"
"यस मैम" मुझे ही मिला है ये पीरियड, आपको डिस्टर्ब तो नहीं किया?" मैंने बड़ी विनम्रता से कहा।
"नो नो मैम, मैं तो बस यूँ ही डिसिप्लिन न स्प्वायल हो इसलिए खड़ी थी।" यह कहकर वह बाहर चली गईं।
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१२
उनके जाते ही मैंने क्लास में प्रवेश किया, बच्चों ने खड़े होकर अभिवादन किया। नई टीचर देखकर बच्चे आपस में खुसर-पुसर करने लगे। मुझे किस क्लास में जाना है ये तो मैम ने लिखकर भेज दिया था पर सब्जेक्ट्स नहीं लिखे थे तो मैं कन्फ्यूज थी कि क्या पढ़ाऊँगी...फिर मेरे दिमाग में आया कि उन्होंने मुझे हिंदी विषय की अध्यापिका के रूप में नियुक्त किया है और अब मुझे भी स्वयं को इसी रूप में स्थापित करना है। हिंदी पढ़ाना मेरे लिए कठिन नहीं था परंतु मैं अंग्रेजी और गणित से भी दूर नहीं होना चाहती थी। विषयों में कुशलता मेरी ख्वाहिश नहीं भूख बनती जा रही थी परंतु इस समय मेरे लिए जो सबसे अधिक आवश्यक था वो यह कि मुझे ये जो भी विषय दें, मैं उसे कुशलता पूर्वक और प्रभावपूर्ण तरीके से पढ़ा पाऊँ। तथा बच्चों के साथ-साथ एक बेहतर तालमेल बिठा पाऊँ। बच्चे आपस में ही अटकलें लगा रहे थे कि मैं क्या पढ़ाऊँगी, मैं देखने का प्रयास कर रही थी कि बच्चों ने किस विषय की पुस्तक निकाली हुई है फिर मैंने सोचा क्यों न जिस विषय का पीरियड है वही पढ़ाया जाय....फिर क्या था मैंने बच्चों से ही पूछ लिया। व्हिच सब्जेक्ट्स पीरियड इज़ दिस?"
"मैम संस्कृत का" बच्चे एक साथ बोले।
"मैम आप क्या पढ़ाएँगी?" एक बच्चे ने पूछा।
"अरे पहले मैडम का नाम तो पूछ ले।" उसके साथ बैठे बच्चे ने उसे कोहनी मारते हुए धीरे से कहा। पर उसकी यह बात भी मेरे कानो तक पहुँच ही गई।
"ओके स्टूडेंट्स लेट मी इंट्रोड्यूज माई सेल्फ।" मैने कहा।
फिर मैने बच्चों को अपना नाम बताया तथा विषय बताया और बच्चों से भी उनके नाम पूछे।
"ओके, वैसे मैं हिंदी की टीचर हूँ पर चूँकि ये संस्कृत का पीरियड है तो मैं आपको आज संस्कृत ही पढ़ाऊँगी।" मैंने कहा।
"मैम आप संस्कृत भी पढ़ाओ हो?" पीछे की सीट से किसी बच्चे की आवाज आई। गाँव के बच्चे थे तो उनकी भाषा भी गाँव की ही थी लेकिन यदि एक बच्चा अपनी लोकल भाषा बोलता तो तुरंत दूसरा बच्चा हिंदी में बोलकर मुझे बता देता कि वो क्या कह रहा है। मुझे अच्छा लग रहा था कि बच्चे भोले-भाले और सहयोग करने वाले हैं, वो बिना कहे समझ गए कि मुझे उनकी भाषा समझने में दिक्कत हो सकती है, इसलिए बिन माँगे सहायता करने लगे।
खैर बच्चे का प्रश्न सुनकर मैंने कहा- "चलिए देखते हैं, फिर आप ही बताइएगा कि पढ़ाती हूँ या नहीं!" और बच्चों से टॉपिक पूछा तो बच्चों ने बताया कि आज मैम उन्हें 'बालक' शब्द के रूप लिखवाने वाली थीं।
'बालक' शब्द का रूप! यह तो मेरे लिए 'बिन माँगे मोती मिले' वाली बात हो गई, 'बालक' शब्द का रूप तो मुझे बचपन में ही ऐसा याद हुआ था कि आज तक नहीं भूली और एक ही साँस में पूरा रूप बोल जाती हूँ। मैंने बच्चों को बालक शब्द के रूप समझाए और उन्हें उच्चारण करते समय किन वर्णों को किस प्रकार बोलते हैं किस पर स्वराघात होता है और क्यों यह सब विस्तार पूर्वक समझाया। बच्चे भी बड़े ध्यान से सुन रहे थे और बोलने का प्रयास कर रहे थे। पढ़ाते समय न मुझे लगा कि मैं उन बच्चों को पहली बार पढ़ा रही हूँ और न ही बच्चे मुझे झिझकते दिखाई दिए, हो सकता है कुछ बच्चे झिझक भी रहे हों परंतु अधिकतर बच्चे खुलकर प्रश्न पूछ रहे थे और बोलने का अभ्यास कर रहे थे। इसी बीच मैने प्रिंसिपल मैम को क्लास के बाहर जाते देखा, पता नहीं वो कितनी देर से बाहर खड़ी होंगीं मुझे नहीं पता।
बेल बजने की आवाज आई, मैं बोर्ड पर होमवर्क लिखने लगी तभी बच्चे बोल पड़े- "मैम आप ये पीरियड भी ले लीजिए प्लीज"
"मेरा पीरियड किसी अन्य क्लास में है बच्चों, तो मुझे तो जाना ही होगा।" मैंने असमर्थता जताई और किसी अन्य क्लास के लिए चली गई परंतु मन में संतुष्टि थी की बच्चों को मेरा पढ़ाया समझ आया। उस दिन मेरे कुछ पीरियड संस्कृत और कुछ हिंदी के लगाए गए थे।
आठवें पीरियड में मुझे ऑफिस में बुलाया गया, वहाँ प्रिंसिपल मैडम के साथ वाइस प्रिंसिपल मैडम भी थीं।
"मैडम कैसा रहा आपका दिन, कोई परेशानी तो नहीं हुई?" वाइस प्रिंसिपल मैम ने पूछा।
"अच्छा लगा मैम।" मैने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।
बच्चे कैसे हैं?  दिल्ली के बच्चों जितने इंटैलीजेंट तो नहीं पर आपको तंग तो नहीं किया?" उन्होंने फिर पूछा।
"नो मैम, बच्चे अच्छे हैं और रही इंटैलीजेंट होने की बात तो मैम हर जगह हर तरह के बच्चे होते हैं, यहाँ के बच्चे शिष्ट और शालीन हैं, मुझे तो अच्छे लगे।" मैंने अपनी राय दी।
"मैडम आपको हिंदी के साथ संस्कृत के भी पीरियड दे दिए जाएँ तो कोई प्रॉब्लम तो नहीं?" प्रिंसिपल मैडम ने कहा।
"लेकिन मैम मैं तो हिंदी की टीचर हूँ संस्कृत पता नहीं ठीक से पढ़ा सकूँगी या नहीं!" मैं साफ-साफ मना नहीं कर सकी पर परोक्ष रूप से अपनी असमर्थता जरूर जाहिर करना चाहती थी।
"आप संस्कृत भी अच्छा पढ़ाती हैं, बच्चों ने खुद बताया। ऐक्च्युली अभी तक संस्कृत मैडम पढ़ाती थीं, तो हम चाहते हैं कि कुछ क्लासेज आप पढ़ा लें ताकि मैडम अपने दूसरे काम देख सकें।" प्रिंसिपल मैडम ने सामने बैठीं वाइस प्रिंसिपल मैडम की ओर इशारा करते हुए कहा।
"ओके मैम, ऐज़ योर विश" कहकर मैं चुप हो गई, मैं और कहती भी क्या।
"ओके मैडम, यू कैन गो, कल मॉर्निंग में आपको आपका टाइम-टेबल मिल जाएगा।" प्रिंसिपल मैडम ने कहा।
"जी" कहकर मैं बाहर आ गई और सीधे ऊपर स्टाफ-रूम में चली गई। वहाँ जाकर मैं एक कुर्सी पर बैठ गई, सुबह के बाद मैं अब सीधे आठवें पीरियड के अंत में बैठी थी, यहाँ तक कि लंच टाइम में भी नहीं बैठी क्लास के बाहर एक तरफ धूप थी तो मैं वहीं एक टीचर के पास खड़ी हो गई थी और परिचय के आदान-प्रदान की प्रक्रिया शुरू हो गई थी। इतने लंबे अंतराल तक खड़े रहने की आदत नहीं थी लिहाजा अब बैठकर बड़ा ही सुकून मिल रहा था। अभी ठीक से कमर सीधी भी नहीं कर पाई थी कि घंटी बजने की आवाज आई, मैं तुरंत स्टाफ-रूम से बाहर आ गई परंतु मुझे समझ नहीं आया कि ये घंटी किसलिए थी? मेरे अनुसार तो आठवें पीरियड के बाद छुट्टी हो जानी चाहिए थी परंतु यहाँ क्लासेज का अनुशासन देखकर लग नहीं रहा था कि छुट्टी हुई है। अतः बाहर एक क्लास से दूसरी क्लास में जाती हुई एक अध्यापिका से मैंने पूछा- "मैम व्हिच पीरियड इज़ दिस?"
"जीरो पीरियड मैम।" उन्होंने बताया।
"मैम मुझे तो पता नही कि मुझे किस क्लास में जाना है!" मैंने कहा।
"डोंट वरी मैम ओनली क्लास टीचर विल गो इन दियर क्लासेज, टुडे योर फर्स्ट डे एंड यू आर नॉट ए क्लास टीचर नाव।" उन्होंने बताया।
"थैंक्यू मैम" कहकर मैं वापस स्टाफ-रूम में आ गई और एक कुर्सी पर बैठकर वहाँ रखी कॉपियों में से एक कॉपी निकाल कर उसके पन्ने पलटने लगी।
करीब दस-पंद्रह मिनट के बाद फिर घंटी बजी किंतु बच्चे क्लास से बाहर नहीं निकले बल्कि लाउड-स्पीकर की आवाज आई और बस के रूट नं० बोले जाने लगे। बच्चे रूट नं० के अनुसार कक्षाओं से बाहर निकलते और पंक्तियों में नीचे जाते। इस प्रकार बेहद अनुशासन में स्कूल के सभी बच्चे निकले, मैं छुट्टी के समय भी बच्चों का अनुशासन देखकर अभिभूत हो गई। बच्चों के जाने के उपरांत सभी टीचर्स नीचे प्रिंसिपल ऑफिस के बाहर हॉलनुमा स्थान पर एकत्र हुए और फिर सभी ने एक-एक करके वाइस प्रिंसिपल के ऑफिस में जाकर पुनः रजिस्टर में साइन किया। हमारी गाड़ियाँ भी आ गई थीं। अतः दिल्ली का स्टाफ अपनी-अपनी निर्धारित गाड़ियों में जाकर बैठ गया फिर प्रिंसिपल मैडम के आने के पश्चात् हम लोग भी चल पड़े। रास्ते में गीतिका व अन्य टीचर्स ने भी मुझसे मेरे पहले दिन का अनुभव पूछा और साथ ही यह भी कि मैं कल तो आऊँगी न...कहीं स्कूल की दूरी से डर तो नहीं गई? मैंने बता दिया कि यदि आप सब मुझसे भी अधिक दूर से आ सकते हैं तो मैं क्यों नहीं...सभी प्रसन्न हुई थीं। मुझे स्कूल और स्टाफ दोनों ही अच्छे लगे साध ही मैनेजमेंट भी पहले वाले स्कूल के मैनेजमेंट से बहुत अच्छा था। आते समय ऐसा प्रतीत हुआ कि रास्ता जल्दी कट गया। सर्दियों में स्कूल का समय परिवर्तित होने के कारण छुट्टी देर से होती है फिर भी मैं तीन बजे से पहले ही घर पहुँच गई।
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१३
सुबह साढ़े चार से पाँच बजे तक उठकर घर की सफाई नाश्ता, बेटियों के लिए, खुद के लिए और पति देव के ले जाने के लिए लंच तैयार करना और स्कूल के लिए तैयार होकर सात बजकर पच्चीस मिनट पर बस स्टैंड पर पहुँच जाना, ये मेरा रोजाना का रूटीन हो गया। मुझे इस बात से काफी आराम मिल गया कि मेरी बेटियाँ अब छोटी नहीं हैं अन्यथा मुझे उनको भी नहलाना धुलाना पड़ता स्कूल के लिए तैयार करना पड़ता, तब मेरे लिए अधिक समस्या होती अब तो बल्कि वो ही मेरी मदद कर देती हैं तो मेरा काम आसान हो जाता है। स्कूल में भी दिन-प्रतिदिन मेरा काम बढ़ता जा रहा था। मैंने हिंदी की अध्यापिका के रूप में ज्वाइन किया था किंतु डेढ़-दो महीने में ही मुझे संस्कृत के सारे पीरियड यानी पाँचवीं से आठवीं कक्षा तक दोनों सेक्शन की संस्कृत और छठीं से आठवीं कक्षा तक एक-एक सेक्शन की हिंदी पढ़ाने के लिए दे दिया गया। अब मेरे पास पढ़ाने के लिए कुल ग्यारह क्लासेज थीं। हर क्लास में हफ्ते में संस्कृत के सिर्फ दो पीरियड होते थे अतः मुझे हर हफ्ते ग्यारह सेक्शन लेने ही थे, समस्या पढ़ाने की नहीं थी समस्या थी महीने के चार हफ्ते यानी आठ पीरियड, दो महीने के सोलह पीरियड, क्या ये संभव है कि सिर्फ सोलह पीरियड में वो भी जब कोई छुट्टी न मिले, संस्कृत का स्लेबस पूरा करवाया जा सकता है? परंतु क्या कर सकती थी...मैंने प्रिंसिपल मैडम से बात करके अपनी समस्या से अवगत कराया, मैडम ने कहा- "मैडम संस्कृत मेन सब्जेक्ट नहीं है और अभी तक मैडम भी तो करवाती थीं, आप उनसे गाइडेंस ले लो सब हो जाएगा।"
मैं समझ चुकी थी कि कुछ नहीं होने वाला, चुपचाप ऑफिस से निकल आई फिर सोचा एक बार वाइस प्रिंसिपल मैडम से भी पूछूँ कि वो कैसे पूरा करवाती थीं? मैंने उन्हें भी अपनी समस्या बताई और पूछा- "मैम आप बताइए न आप कैसे पूरा स्लेबस करवा लेती थीं। उन्होंने बड़े प्यार से समझाया- "मैडम संस्कृत को हिन्दी की तरह विस्तार पूर्वक मत पढ़ाओ नहीं तो सचमुच ये पूरा नहीं करवा पाओगी, इसके सिर्फ पुस्तक के पाठ पढ़ा दीजिए, दो-चार शब्द-रूप और धातु रूप, कुछ फलों, फूलों, जानवरों, पक्षियों आदि के नाम संस्कृत में पढ़ा दीजिए बस।"
"पर मैम मुझे तो ये भी कठिन लग रहा है, खैर वो तो करना ही पड़ेगा पर इतनी सारी क्लासेज की कॉपियाँ कैसे चेक करूँ, आप तो देखती हैं रोज थैला भर-भर कर कॉपियाँ चेक करने के लिए घर लेकर जाती हूँ फिर भी चेकिंग वर्क खत्म ही नहीं होता।" मैंने अपनी समस्या उन्हें बताई।
"हाँ सो तो है, आप ऐसा किया करो कि संस्कृत की कॉपियाँ मेरे ऑफिस में भेज दिया करो, मैं चेक कर दूँगी, हिंदी की आप चेक कर लिया करो।" वाइस प्रिंसिपल मैम ने कहा।
मैं तो खुशी से उछल पड़ी थी पर मन ही मन में, बाहर से मैं नॉर्मल ही थी, हालाँकि जानती थी कि वो सारी कॉपियाँ नहीं चेक कर पाएँगीं पर फिरभी कुछ तो करेंगीं, वही मेरे लिए काफी सहायक होगा। फिर थैंक्यू बोलकर मैं बाहर आ गई थी और अपने कार्य में व्यस्त हो गई।

अगले दिन सुबह कुहरे की अधिकता के कारण हम विद्यालय निर्धारित समय से करीब दस मिनट देर से पहुँचे, जब हमारी गाड़ी पहुँची उस समय प्रात:कालीन सभा के लिए बच्चों की लाइन बनवाई जा रही थी। हमने जल्दी-जल्दी जाकर अटेंडेंस रजिस्टर में साइन किए और प्रार्थना के लिए आकर ज्यों ही खड़े हुए प्रिंसिपल मैम ने हम लोगों से कहा- "मैडम प्रेयर चेंज करवाइए, डे वाइज़ दो-तीन प्रेयर करवाया कीजिए।"
"मैडम आप करवाइए कोई और प्रेयर, आप तो करवा सकती हैं।" गीतिका मैम ने मेरी ओर देखते हुए कहा, उन्हें पता था कि मैं ठीक-ठाक या फिर शायद उनकी नजर में अच्छा गा लेती हूँ।
मैंने हिचकिचाते हुए प्रिंसिपल मैडम की ओर देखते हुए कहा- "मैम प्रेयर चेंज करवाने के लिए पहले बच्चों को सिखाना पड़ेगा और ये अचानक नही हो सकता। मैं आज से ही बच्चों को सिखाना शुरू कर दूँगी।"
"वो तो आप अभी से शुरू कर दीजिए, अभी प्रेयर गर्ल्स की जगह आप प्रेयर करवाइए फिर क्लास में लिखवा दीजिएगा, कल से वो गर्ल्स ही न्यू प्रेयर करवाएँगी।" प्रिंसिपल मैडम ने कहा।
अब मैं उन्हें मना कर दूँ इतना साहस तो नहीं था मुझमें, अतः मैंने स्वयं प्रेयर करवाया- "वह शक्ति हमें दो दयानिधे......" मैडम और मेरे साथ आने वाली अन्य कई टीचर्स के चेहरों पर प्रसन्नता और संतुष्टि के मिले-जुले भावों को मैंने साफ महसूस किया। उस दिन मेरी छवि में एक और योग्यता जुड़ गई, अब असेंबली में होने वाली प्रार्थना का अभ्यास करवाना भी मेरी जिम्मेदारियों में शामिल हो गया। बच्चों को भी किसी फंक्शन आदि के लिए किसी गाने की प्रैक्टिस करनी होती तो वो मेरे ही पास आते। कुछ समय पश्चात् मुझे 'कल्चरल क्लब' की इंचार्ज बना दिया गया तथा साथ ही असेंबली में गाए जाने वाले प्रेयर्स, नेशनल एंथम, नेशनल सॉन्ग्स आदि का अभ्यास करवाना भी मेरी जिम्मेदारी थी। निःसंदेह मेरा काम बढ़ा था, हफ्ते में एक दिन क्लब मीटिंग होती उससे पहले मीटिंग का मसौदा तैयार करना और मीटिंग में बच्चों का विभिन्न क्रियाकलापों के लिए अलग-अलग समूह बनाना, ये सब बिना तैयारी तो वैसे भी संभव नहीं था और मीटिंग के उपरांत इन सभी कार्यों का रिकॉर्ड एक अन्य रजिस्टर में मेंटेन करना। जहाँ अन्य अध्यापिकाएँ काम की अधिकता को लेकर परेशान होतीं और आपस में बात करके प्रिंसिपल मैडम के प्रति अपनी नाराजगी जाहिर करतीं, वहीं मैं उन लोगों की बातों से सहमति तो जताती पर अपनी तरफ से कोई शिकायत नहीं रख पाती मैम के विरुद्ध, शायद इसीलिए कुछ टीचर्स को ऐसा लगने लगा कि मैं उनकी शिकायत मैडम से कर सकती हूँ, इसीलिए उन्होंने मेरे समक्ष किसी भी प्रकार की बुराई करना बंद कर दिया।
एक दिन जब मैं क्लास में पढ़ा रही थी तभी कुसुम आई और बोली- "मैडम आपका कौन सा पीरियड फ्री है?"
मैंने कहा- "नेक्स्ट पीरियड"
"प्रिंसिपल मैडम ने कहा है कि जब आपका पीरियड फ्री होगा तब आप ऑफिस में जाकर उनसे मिल लीजिएगा।"  उसने कहा ।
"ओके" कह तो दिया मैंने पर उसके जाने के बाद मैं भी मन ही मन आशंकित हो रही थी कि पता नही क्यों उन्होंने बुलाया होगा, या तो किसी काम में कोई कमी रह गई होगी और अब डाँटने के लिए बुलाया होगा। क्या करती....मैडम की दहशत थी तो न चाहते हुए भी जब भी ऑफिस से बुलाया जाता तभी नकारात्मक भाव ही मन में आते थे। अब तो दिमाग दो-दो जगह कार्य कर रहे थे एक तरफ तो पाठ की व्याख्यात्मक चर्चा तो दूसरी ओर अपने कल से अब तक के कार्यों का विश्लेषण कि मुझसे कब क्या गलती हुई है, जिसके लिए मुझे डाँट पड़ सकती है ताकि मैं अपना पक्ष आत्मविश्वास के साथ रख सकूँ, परंतु कुछ याद ही नही आ रहा था, शायद एकाग्रता की कमी के कारण...अब यदि एक साथ दो-दो काम करूँगी तो ऐसा ही होगा। मुझे अपनी यह गलती समझ आ गई अतः मैंने अपना ध्यान एक ही दिशा में केंद्रित किया और बच्चों को गंभीरता से पढ़ाना शुरू किया, अब आगे जो होगा देखा जाएगा बच्चों का नुकसान क्यों करूँ। बेल बजते ही मैं स्टाफ-रूम में गई और कुर्सी पर धम्म से बैठ गई, दो मिनट तक मस्तिष्क को शांत करने का प्रयास करती रही तभी गीतिका मैम आ गईं "मैडम आपका ये पीरियड फ्री है न?" उन्होंने पूछा। मेरा ये पीरियड फ्री होता है ये उन्हें पहले से पता था। मैंने कहा-"यस मैम।"
उन्होंने बिना यह जाने कि मुझे कोई और काम होगा, कहा- "मेरा ये रजिस्टर पूरा कर दो, मेरा पीरियड फ्री नहीं है और आज ही देना है।"
"पर मैं भी फ्री नहीं हूँ मैम, प्रिंसिपल मैम ने बुलाया है, मैं तो यहाँ दो मिनट बैठकर साहस एकत्र कर रही थी।" मैने मुस्कुराते हुए कहा।
"क्यों कोई गलती हुई क्या?" उन्होंने पूछा।
"वही तो नहीं पता।" मैने कहा और खड़ी हो गई, "देखते हैं क्यों बुलाया है मैम ने!" कहते हुए मैं सीढ़ियों की ओर चल दी।
ऑफिस के बाहर पहुँच कर मैंने कुसुम से पूछा- "ऑफिस में कोई है!"
"नहीं, आप जाइए मैडम आप का ही इंतजार कर रही हैं।" कुसुम ने बताया।
मैने गेट पर लटक रहे चिक को एक ओर हटा कर पूछा- "मे आई कम इन मैम?"
"यस कम इन मैडम, हैव ए सीट प्लीज़।"
मैं सुनकर हैरान हो गई कि उन्होंने मुझे बैठने के लिए कहा। मैंने टेबल के दूसरी ओर रखी एक कुरसी पर मैम के ठीक सामने बैठते हुए उन्हें धन्यवाद कहा।
अब मेरे मस्तिष्क में अजीबो-गरीब खयाल आ-जा रहे थे, कभी लगता शायद डाँटने की वजह इतनी बड़ी है कि विस्तार पूर्वक क्लास लगानी है इसीलिए बैठाकर डाँटेंगीं। कभी सोचती कि शायद शुरू से आजतक के मेरी भूमिका का नकारात्मक परिणाम देकर मुझे कोई दुखद फैसला सुनाना है। मुश्किल से तीस सेकेंड में मेरे दिमाग ने न जाने क्या-क्या अटकलें लगा लीं और मैम थीं कि इतनी सामान्य लग रही थीं कि उन्हें देख कुछ भी अनुमान लगाना मुश्किल था, वो एक पेज पर कुछ देख रही थीं। उन्होंने अपने पास रखी एक कॉपी मेरी ओर सरकाया और पेन होल्डर की ओर संकेत करती हुईं बोलीं- "आप उसमें रखी पेंसिल ले लीजिए और इस कॉपी में मैंने जिस प्रकार ये टाइम-टेबल के कॉलम बनाए हैं उसी प्रकार के और कई कॉलम्स तैयार करके उसमें मैं जो बोलूँगी वो लिखती जाइए।" इतना कहकर मैडम मुझे टाइम-टेबल के कॉलम्स (फॉरमेट) कैसे तैयार करना है, ये समझाने लगीं। मानव मस्तिष्क सचमुच कितना परिवर्तिनशील होता है, पल में तोला पल में माशा।" अब मैडम ने टाइम-टेबल, जो तैयार कर रखा था वो बोलना शुरू किया और मैंने लिखना।
फिर पीरियड चेंज हो गया, अब मुझे फिर से क्लास में जाना था। मैडम ने परमिशन देते हुए कहा कि जब भी मेरा पीरियड फ्री हो, मैं उनके पास टाइम-टेबल बनाने में हेल्प करने आ जाया करूँ। मैं अपनी क्लास में चली गई, प्रतिदिन छः पीरियड लगते थे और कभी-कभी या फिर कहूँ कि अक्सर ही एक पीरियड प्रॉक्सी लग जाता था तो रिकॉर्ड वगैरा बनाने का कार्य या कॉपियाँ चेक कर लेती थी, अब मैडम ने अपने पास आने के लिए कह दिया है तो ये काम भी घर पर ही ले जाना होगा....खैर देखा जाएगा। मेरा जो अगला फ्री पीरियड था उसमें मैं मैडम के पास गई, वो उस समय भी टाइम-टेबल में ही व्यस्त थीं, मेरे आने के बाद उन्होंने वो कॉपी मेरी ओर बढ़ा दिया और मैंने फिर नया फॉरमेट बनाकर लिखना शुरू किया। एक जगह मुझसे बार-बार गलती हो रही थी दरअसल वो मुझे समझ नही आ रहा था....तभी मैम ने कहा- "आपको पता है मैंने आपको ही क्यों बुलाया...क्योंकि मुझे पता है कि आप बिना गलती के यह कर सकती हो, बार-बार गलतियाँ करोगी तो टाइम वेस्ट होगा।"
"मैम मुझे समझ नही आ रहा।" मैने कहा था। फिर मैडम ने मुझे समझाया और मुझे यह समझ आ गया कि मैं क्यों बार-बार गलती कर रही थी अतः अब मेरे काम में गति आ गई थी, प्रिंसिपल मैडम भी खुश थीं। उन्होंने कहा- "कल मैं आपके कुछ पीरियड फ्री कर दूँगी और आपको ये टाइम-टेबल दूँगी, इसका आपको फॉरमेट तैयार करके टीचर-वाइज़ और क्लास-वाइज़ अलग-अलग पूरा तैयार करना है।"
"पर मैम मैं अकेले कर लूँगी?" मैने असहज होकर कहा।
"आप कर लोगी इसीलिए तो कह रही हूँ और नेक्स्ट टाइम से आपको ही टाइम-टेबल बनाना है इसलिए सीख लो।" मैडम ने मुस्कुराते हुए कहा।
"जी" कहकर मैं अपने काम में व्यस्त हो गई।
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१४
 प्रिंसिपल मैडम की यही तो खासियत थी, वो चाहतीं तो मुझसे यही काम आज्ञा देकर करवा लेतीं, मैं क्या किसी में इतना साहस नहीं था कि उनकी आज्ञा न माने, परंतु उन्होंने इस प्रकार कहा कि मैं भी खुश हो गई...अरे वाह मैम को मुझ पर इतना विश्वास है कि मैं मिस्टेकलेस कार्य करती हूँ और अब वो इस जिम्मेदारी के योग्य मुझे ही समझती हैं, फिर भला मेरी क्या मजाल कि मैं मना करूँ, तारीफ किसे अच्छी नहीं लगती! और मैं भी तो आखिर औरों की तरह एक साधारण इंसान हूँ सो मैं भी चढ़ गई सातवें आसमान पर। वैसे न भी चाहती तो क्या कर लेती, करना तो तब भी पड़ता पर खुश होकर काम करने से काम की क्वालिटी शायद बेहतर होती है और करने वाला मानसिक दबाव महसूस नहीं करता और मैडम इस बात को भली-भाँति जानती थीं, इसीलिए उन्होंने ये भूमिका तैयार की होगी जिसमें वो सफल रहीं।

अगले दिन मैडम ने वही किया जो उन्होंने कहा था, मेरे दो-तीन पीरियड फ्री कर दिए और मुझे टाइम-टेबल बनाने के लिए दे दिए। किस अध्यापक/अध्यापिका को कौन सी कक्षा में कौन सा विषय देना है, किस कक्षा का कक्षाध्यापक/कक्षाध्यापिका बनाना है और कुल कितने पीरियड देने हैं ये सब मुझसे मैडम ने ही लिखवाए और फिर इसको खाका बनाकर उसमें इस प्रकार व्यवस्थित करने के लिए कहा कि किसी का पीरियड किसी से टकराए न या एक भी समय पर एक से ज्यादा कक्षाओं में न हो। ये काम मुझे अकेले ही करना था, हालांकि मैडम ने आधा कार्य तो खुद कर दिया था परंतु वो तो उन्हें ही निश्चित करना था, उसमें मैं या कोई और कुछ कर भी नहीं सकता था। मैडम ने  जितना मुझे करने के लिए दिया था वह भी मेरे लिए आसान नहीं था, काफी माथापच्ची का कार्य था, स्कूल में दो-तीन पीरियड में तो पच्चीस पर्सेंट काम भी नहीं हुआ। समय समाप्त होने पर मैंने मैडम को बताया, मुझे पता था कि वो नाराज़ होंगी कि मैंने इतनी देर में इतना सा काम किया परंतु मुझे बहुत आश्चर्य हुआ जब उन्होंने बिल्कुल भी गुस्सा नहीं किया, बल्कि बेहद नर्मी से बोलीं- "कोई बात नहीं, बाकी कल कर लेना।"
मैं पहले तो अचंभित हो गई पर फिर बोल ही पड़ी, "मैम मुझे तो लगा था कि आप डाँटेंगी कि फ्री पीरियड मिलने के बाद भी मैं अपना काम पूरा नहीं कर पाई।"
वो मुस्कराईं और बोलीं, "ऐक्च्युअली तुम पहली बार बना रही हो इसलिए तुम्हें लगा होगा कि तुम आज ही पूरा कर दोगी, पर मैं तो जानती थी कि ये काम आज पूरा नहीं होगा। तो जो मुझे पहले से पता था उसके लिए नाराज क्यों होती। खैर तुम इसे अपने पास रखो और आराम से दो-तीन दिन में करके दे देना।
"जी मैम मैं कर दूँगी।" कहकर मैं ऑफिस से बाहर आ गई और स्टाफ रुम में जाकर बैठ गई। मन में अजीब सी खुशी थी, एक नई जिम्मेदारी पाने की या शायद एक नई चीज सीखने का अवसर मिला इस बात की, या फिर प्रिंसिपल मैडम ने मुझे इस कार्य के योग्य समझा इस बात की। जो भी था पर मैं खुश थी। हालांकि मेरा काम ही बढ़ा था पर मुझे इस बात की कोई शिकायत तो दूर ये खयाल भी मेरे दिमाग में नहीं आया। अब जब कि टाइम टेबल मेरे ही पास था तो कल का इंतजार क्यों करना, यही सोचकर मैं उसे घर ले आई। तीन बजे घर पहुँचकर कपड़े बदले, हाथ-पैर धोकर कुछ हल्का-फुल्का खाया और चाय पीकर बिना आराम किए रोजमर्रा के कार्य भी बहुत शीघ्रता से निपटाए, बाजार जाना था पर नहीं गई। सोचा न जाने से एक-डेढ़ घंटे का समय बचेगा, बाजार का काम कल पर टालकर टाइम-टेबल सेट करने का काम करने लगी। लगभग ढाई घंटे तक उसमें माथा-पच्ची करने के बाद रात के खाने आदि का काम किया और सबके डिनर करने के बाद रसोई की सफाई की और सुबह के खाने की तैयारी करके बच्चों के स्कूल यूनिफॉर्म और अपने कपड़े आदि तैयार करके रखने के बाद फिर टाइम-टेबल सेट करने लगी। इसे करते हुए रात के एक बज गए। कार्य पूरा तो नहीं हुआ पर सिर्फ तीन-चार अध्यापक/अध्यापिका का टाइम-टेबल सेट करना रह गया। जब नींद से आँखें बोझिल होने लगीं तब मैंने सोचा कि अब रख देती हूँ इसे, वैसे भी मैडम ने दो-तीन दिन का समय दिया है, मैंने तो फिर भी जल्दी कर दिया, बचा हुआ काम कल स्कूल में कर दूँगी। वो कहते हैं न 'नया-नया मुल्ला अल्ला-अल्ला पुकारे' यही हाल मेरा भी था, मैं वहाँ पर नई थी और इतनी जल्दी ये नई-नई जिम्मेदारी पाकर अति उत्साह में दो-तीन दिन का काम एक ही दिन में करने लगी। खैर! अब तो लगभग हो ही चुका है, बाकी कल हो जाएगा, ये सोचकर मैं सो गई।

दूसरे दिन फिर स्कूल गई, वैसे तो प्रिंसिपल मैडम हमारे साथ ही जाती थीं पर इतने दिनों में मैं ये जान चुकी थी कि वो स्कूल के किसी ऑफीशियल कार्य का जिक्र गाड़ी में आते-जाते वक्त नहीं करती थीं, इसलिए मैंने भी टाइम-टेबल का जिक्र नहीं किया। स्कूल पहुँचकर रोज की भाँति अपनी कक्षाओं में व्यस्त हो गई। पहला पीरियड खत्म होते ही कुसुम ने आकर सूचना दी कि मैडम मुझे बुला रही हैं। मैं अपनी कक्षा में न जाकर मैडम के पास गई, उन्होंने मुझे बताया कि मेरा ये पीरियड और इसके साथ कुछ अन्य पीरियड फ्री कर दिए गए हैं तो मैं जाकर टाइम-टेबल का कार्य कर लूँ। मैंने मैडम को बताया- "मैम मैं टाइम-टेबल घर ले गई थी और मैंने उसे काफी कुछ पूरा कर लिया है, बस तीन-चार टीचर्स का टाइम-टेबल सेट करना रहता है।"
मैडम सुनते ही खुश हो गई, उनके चेहरे पर एक मोहक मुस्कान तैर गई और मुझे मेरे किए का प्रतिफल मिल गया। प्रत्यक्ष में मैडम बोलीं- अरे वाह! इतनी जल्दी!"
"यस मैम, मैंने सोचा कि जब तक सभी टीचर्स को टाइम-टेबल नहीं मिल जाता तब तक क्लासेज सुचारू रूप से नहीं चल पाएँगीं, इसलिए कोशिश की कि जल्दी हो जाए पर अभी भी थोड़ा रह गया।" मैं बोली।
"कोई बात नहीं आपने फिर भी जल्दी कर लिया, अब जितना रह गया है उसे आज कर लीजिए। इसे दो तरह से उतारना होगा, क्लास-वाइज और टीचर-वाइज। फिर इनकी एक कॉपी और करवा लीजिएगा और एक-एक कॉपी सभी टीचर्स को दे दीजिएगा और एक मुझे।" मैडम ने कहा।
"ओ के मैम।" कहकर मैं स्टाफ-रूम में चली गई और टाइम-टेबल का बचा हुआ काम करने लगी।
जब हम किसी काम को मन लगाकर करने लगते हैं या यूँ कहूँ कि किसी काम में हमें रुचि आने लगती है तो समय को भी पंख लग जाते हैं ऐसा ही कुछ उस समय भी हो रहा था। पीरियड खत्म हो गया मुझे लगा अभी-अभी तो मैंने शुरू किया है। मुझे ये नहीं पता था कि मेरे कौन-कौन से पीरियड फ्री किए हैं, वैसे भी मैडम ने कहा था कि बेल लगने के बाद एक बार क्लास में जाकर देख लिया करूँ कि कोई अध्यापक/अध्यापिका आए या नहीं, न आए हों तो उन्हें सूचित करूँ और फिर कक्षा में किसी के आने के बाद ही अपना काम करूँ। कुल मिलाकर हर पीरियड में व्यवधान तो उत्पन्न होना ही था। खैर! मैंने अपने कागज-पत्तर को समेटकर उन्हें वहीं मेज पर रजिस्टर के नीचे दबाया और अपनी कक्षा की ओर बढ़ गई।
करीब पाँच-सात मिनट के बाद कक्षा में अध्यापिका आईँ और मैं फिर स्टाफ-रूम में आई और फिर टाइम-टेबल सेट करने लगी बमुश्किल पाँच मिनट हुए होंगे कि गीतिका मैडम आ गईं और बोलीं- "मैडम आपका ये पीरियड फ्री है, प्लीज थोड़ी देर के लिए मेरी क्लास में चली जाओ, मुझे एक बहुत जरूरी काम बताया है प्रिंसिपल मैम ने मैं करके अभी आती हूँ।"
क्रमश:


१५
मैंने उनकी ओर देखा और सोचने लगी कि 'मैं जब भी इन्हें स्टाफ रूम में दिखती हूँ, इनको हमेशा ही जरूरी काम आ जाते हैं।' मुझे पता था कि इस समय मेरे लिए एक-एक मिनट कितना कीमती है, वैसे भी टाइम-टेबल सेटिंग में इस समय जब सिर्फ तीन-चार टीचर्स का ही रह गया था तो बहुत मुश्किल हो रहा था। एक का कोई पीरियड कहीं लगाती तो दूसरे से क्लैश करता फिर उसे वहाँ से हटाकर कहीं और करने के लिए तीसरे का भी बदलना पड़ता। कुल मिलाकर कर एक पीरियड खत्म हो चुका था लेकिन अभी तक एक टीचर का भी टाइम-टेबल सेट नहीं हो पाया था। परंतु मैं उन्हें मना भी नहीं कर सकती थी, आज उन्हीं के कारण मैं यहाँ इस स्कूल में थी। मैंने सभी पेपर्स को रजिस्टर के नीचे दबाया और खड़े होते हुए बोली- "ठीक है मैम पर जल्दी आइएगा, मैम ने मेरा ये पीरियड टाइम-टेबल सेटिंग के लिए फ्री किया है और अभी तक मैं कुछ नहीं कर पाई हूँ तो प्लीज़ जल्दी आइएगा।" कहकर मैं उनके बताए हुए क्लास में चली गई। मुझे पता था कि वो अभी आने वाली हैं, इसलिए मैंने बच्चों को कुछ पढ़ाना शुरू नहीं किया बल्कि मैडम ने जो लेखन कार्य दिया था उसे ही करने का निर्देश देकर मैम का इंतजार करने लगी। कहते हैं न कि इंतजार का एक-एक पल बहुत भारी लगता है, मेरा भी वही हाल था। उन्हें गए बहुत देर हो गई थी पर उन्हें न आती देख बार-बार मेरा मन करता कि मैं क्लास छोड़कर चली जाऊँ। मेरे वहाँ रुकने से न बच्चों को कोई फायदा हो रहा था न मेरा काम हो रहा था। कभी सोचती क्लास छोड़ दूँ पर बच्चे आपस में लड़ने-झगड़ने लगे तो मैं ही जिम्मेदार ठहराई जाऊँगी, इसलिए ऐसा भी नहीं कर सकती थी। इंतजार करते-करते पूरा पीरियड निकल गया, बेल बजी और मैं वापस स्टाफ रूम में आ गई। गीतिका मैडम पहले से वहाँ मौजूद थीं। मुझे देखते ही बोलीं- "सॉरी मैडम मैं अभी-अभी आई हूँ, मैडम ने छोड़ा ही नहीं।" मुझे गुस्सा तो आ रहा था, मन किया बोल दूँ कि 'मैं इतनी भी मूर्ख नहीं, मैडम किसी को क्लास से ऐसे नहीं बुलातीं, पहले वहाँ टीचर अरेंज करती हैं।' पर प्रत्यक्ष में मैंने कहा- "कोई बात नहीं मैम, आपकी क्लास में मैंने कोई होमवर्क नहीं दिया तो वो आप देख लीजिएगा।" कहकर मैं फिर अपनी क्लास में चली गई। वहाँ पर कोई और टीचर आ चुकी थी अत: मैं फिर स्टाफ-रूम में आई और टाइम-टेबल सेट करने बैठ गई। अब मेरे पास सिर्फ यही एक पीरियड था।
मैं बेचारी इस कार्य के लिए अनुभवहीन थी, मेरी जगह कोई और होता तो शायद मुझसे बेहतर और जल्दी कर सकता था, पर मुझे शायद ज्यादा ही समय लग रहा था। जब एक अध्यापक की समय-सारणी को व्यवस्थित करने के लिए दूसरे अध्यापक की समय-सारणी को पुन: मिटाना और व्यवस्थित करना और दूसरे के लिए तीसरे की समय-सारणी को छेड़ना पर रहा था तो कितनी झुंझलाहट हो रही थी वो मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकती। सिर घूमने लगता। ऐसा करते-करते ये पीरियड भी खत्म हुआ और लंच की घंटी बज गई। अब मुझे अपनी कक्षा में जाना था, मैंने सब समेटा और अपनी कक्षा में आकर बच्चों को शांति से लंच करने और मुझे डिस्टर्ब न करने का निर्देश देकर स्वयं मेज पर टाइम-टेबल के कागज फैलाकर बैठ गई। लंच ओवर होते-होते दो अध्यापकों के टाइम-टेबल सेट हो पाए। सुबह से अब तक की मेरी यही उपलब्धि थी। अब मेरे पास कोई और पीरियड फ्री नहीं था कि मैं इससे आगे का कार्य कर पाती। अत: सब समेटकर रख दिया, आज का तो खाना भी गया पर इसका ध्यान किसे था बल्कि दिमाग में तो ये चल रहा था कि प्रिंसिपल मैडम को क्या कहूँगी कि अभी भी दो टीचर्स के रह गए? खैर! कहना तो पड़ेगा ही और शायद मुझे पहले जितना डर नहीं लग रहा था, आत्मविश्वास बढ़ गया इसलिए या शायद यह ज्ञात हो गया था कि इस कार्य में समय अधिक लगता है ये बात मैडम भी समझती हैं। परंतु मेरे अंदर एक बहुत गंदी आदत है कि जो कमेंट करती हूँ उसे समय पर पूरा करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा देती हूँ, इसीलिए पूरा न कर पाने का बहुत दुख हो रहा था। 
लंच के बाद के चारों पीरियड मैंने अपनी कक्षाओं में लिए, हर समय दिमाग में यही था कि मैडम कभी भी बुला सकती हैं परंतु छुट्टी हो गई और सभी घर जाने की तैयारी भी करने लगे लेकिन उन्होंने अब तक नहीं बुलाया। हमारी गाड़ी जाने को तैयार खड़ी थी सभी अध्यापक/अध्यापिका अपना-अपना सामान लेकर नीचे आ गए, और एक-एक कर वाइस प्रिंसिपल मैडम के ऑफिस में रजिस्टर में साइन करने गए फिर गाड़ी की ओर चल दिए। गाड़ी में बैठकर भी मुझे हर पल यही लग रहा था कि अभी मैडम का बुलावा आ सकता है। जितनी बार कुसुम को उनके ऑफिस की ओर से आते देखती उतनी बार सतर्क हो जाती कि शायद वो इधर ही आ रही है। गाड़ी में बैठने से पहले भी कई बार सोचा कि जाकर खुद ही बता दूँ पर शायद इतना साहस नहीं था कि अपनी गलती को खुद जाकर बता पाती। खैर! कुछ देर बाद ही मैडम का बैग संभाले कुसुम आती दिखाई दी और उसके पीछे मैडम भी, अब मेरा सारा भय काफ़ूर हो गया क्योंकि मुझे पता था कि वो गाड़ी में कुछ नहीं पूछेंगीं। 

घर पहुँचकर मैं फिर कल की भाँति जल्दी-जल्दी घर का सारा काम पूरा करके टाइम-टेबल सेट करने बैठ गई और क्योंकि सिर्फ दो टीचर्स के रह गए थे तो उन्हें तो हर हाल पूरा करना ही था फिर भले ही वो दो टीचर के टाइम-टेबल ने पाँच जितनों का समय लिया हो। उसे पूरा करके मुझे फिर कक्षानुसार और अध्यापकानुसार अलग-अलग इसप्रकार लिखना था कि उसकी फोटो कॉपी करवाकर उसे हर कक्षा और हर टीचर को अलग-अलग दिया जा सके। मैंने ये सारा कार्य पूरा तो कर लिया पर ये करते हुए मुझे रात्रि के दो बज गए और फोटो कॉपी का कार्य फिर भी रह गया लेकिन मुझे असीम खुशी का अहसास हो रहा था। जैसे ही पूरा हुआ अनायास ही मेरे मुँह से निकला.."यस आई हैव डन।" 
मैंने अध्यापन में एक नया हुनर सीखा था, अब इसके बाद मुझे क्या जिम्मेदारियाँ मिलने वाली थीं या क्या कठिनाइयाँ आने वाली थीं इन सबसे अंजान मैं उस बच्चे की तरह खुश हो रही थी जो मनपसंद खिलौना पाकर खुश हो जाता है। 
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१६
अगले दिन मैं आत्मविश्वास से भरी हुई निडर और काफी हल्का सा महसूस कर रही थी। मैं प्रात: कालीन प्रार्थना सभा के बाद अपनी कक्षा में जा रही थी तभी कुसुम ने आकर कहा कि मैडम बुला रही हैं, तो मैं ऑफिस की ओर मुड़ गई। मैडम ने मुझसे पूछा कि आज भी मुझे फ्री पीरियड की आवश्यकता हो तो बता दूँ कि कितने पीरियड चाहिए। मैंने कहा "नो मैम, मैं पूरा कर चुकी हूँ पर जेरॉक्स नहीं करवा पाई।"
"ओके नो प्रॉब्लम, आप का जब कोई पीरियड फ्री हो तो लाकर दिखा दीजिएगा।" उन्होंने कहा और मैं "ओके मैम" कहकर वापस अपनी कक्षा में आ गई। 
मेरा तीसरा पीरियड फ्री था जो कि मैडम ने किसी अन्य अध्यापिका की अनुपस्थिति में उनकी कक्षा में लगा दिया। अब मेरे पास कोई पीरियड फ्री नहीं था अतः मैं लंच की घंटी बजते ही टाइम-टेबल लेकर मैडम के ऑफिस में पहुँच गई और उन्हें दिखाया। उन्होंने बड़े ध्यान से सारा देखने के बाद जो क्लास और टीचर्स का कॉमन टाइम-टेबल था उसे एक चार्ट पर उतारकर स्टाफ-रूम में लगाने और बाकी को फोटो कॉपी करवाने के लिए कहा। मैं सोच रही थी कि मेरा काम पूरा हो गया पर अब आज के लिए फिर गृहकार्य मिल गया था, चार्ट पर ड्राफ्टिंग करना और सभी को उस पर इस प्रकार लिखना कि सारे अध्यापकों का एक चार्ट पर एक ही तरफ आ जाए, इसमें भी कम से कम घंटा-दो घंटा तो लगना ही था। अब मुझे बच्चों के कॉपियों की भी फिक्र होने लगी थी क्योंकि मैं रोज थैला भरकर कॉपियाँ जाँचने के लिए घर ले जाती थी, अब पिछले दो दिनों से नहीं ले गई थी तो कॉपियाँ एकत्र हो रही थीं और जाँचने का अधूरा काम बढ़ता जा रहा था। पर अब तो आज भी नहीं ले जा सकती थी। फिर भी एक तसल्ली थी कि मैडम को भी पता है कि मेरी कक्षाओं के बच्चों की कॉपियाँ अनचेक रह गई हैं, फिर कल से मैं थोड़ी और ज्यादा कॉपियाँ ले जाऊँगी और पिछड़ा कार्य कवर कर लूँगी। घर पहुँचकर मैंने मैडम के निर्देशानुसार सब कर लिया और फोटोकॉपी भी करवाकर रख लिया। 
अगले दिन विद्यालय में टाइम-टेबल के सारे पेपर्स मैडम को सौंपकर मैं निश्चिंत हो गई और अपनी कक्षाओं में सुचारू रूप से पढ़ाने लगी। अब मैं फिर पहले की तरह बच्चों की अभ्यास पुस्तिकाएँ जाँचने के लिए रोज घर पर ले जाया करती पर एक दिन में ज्यादा से ज्यादा बीस-बाइस कॉपी ही तो ले जा सकती थी, न तो इससे ज्यादा जाँच पाती और न ही बस स्टैंड से घर तक इससे ज्यादा वजन उठाकर ले जा सकती थी। कभी-कभी मन में ये विचार भी आता था कि बाकी सभी टीचर्स तो घर पर चेकिंग का काम नहीं ले जातीं फिर मैं ही क्यों? फिर अगले पल खुद ही इस विचार का खंडन कर दिया करती ये सोचकर कि बाकी सभी अध्यापिकाओं के पास पढ़ाने के लिए पाँच या छ: सेक्शन(कक्षाएँ) होते हैं तो जाँचने के लिए कॉपियाँ भी कम होती हैं जबकि मेरे पास पढ़ाने के लिए आठ सेक्शन संस्कृत और तीन सेक्शन हिन्दी के अर्थात् कुल ग्यारह सेक्शन (कक्षाएँ) थे तो जाँचने के लिए काँपियाँ भी अन्य अध्यापिकाओं की तुलना में दो गुना होती थीं। माना कि संस्कृत की कॉपियों को जाँचने में मदद करवाने के लिए वाइस प्रिंसिपल मैडम ने आश्वासन दिया था और वो यथासंभव करवाती भी हैं पर मदद करने और जिम्मेदारी पूर्वक कार्य को पूरा होने तक करने में अंतर होता है। मुझे न सिर्फ सभी कक्षाओं से कॉपियाँ एकत्र करके मैडम के ऑफिस में भिजवाना होता था जाँचने के बाद वहाँ से वापस कक्षाओं में वितरित भी करना पड़ता और किन-किन कक्षाओं में वितरित हो गई हैं तथा सभी को मिलीं या किसी बच्चे की रह गई इन सबका रिकॉर्ड रखना, ये सब मुझे ही करना होता था। खुद चेक की गई कॉपियों का रिकॉर्ड रखना तो आसान था परंतु किसी अन्य की चेकिंग का रिकॉर्ड रख पाना मुश्किल होता है क्योंकि मैं उन्हें चालीस कॉपी देकर आती थी तो कभी-कभी तो छुट्टी तक मैडम चेक कर देती थीं परंतु किसी-किसी दिन कोई अन्य काम आ जाने पर पाँच-दस कॉपी चेक होतीं या फिर एक भी नहीं हो पाती थी। फिर उन्हें मुझे ही जाँचना पड़ता और जिन पाँच-दस बच्चों की कॉपी कक्षा में जा चुकी होती उनको पुन: पूछकर रिकॉर्ड में लिखना होता था। कुल मिलाकर कर मेरा काम तो औरों की अपेक्षा दोगुना से भी अधिक था। फिर भी मुझे मेरे काम में आनन्दानुभूति होती थी। 
हमारे साथ ही एक अध्यापिका जाती थी दामिनी, वह विज्ञान की अध्यापिका थी। मिलनसार और मजाकिया स्वभाव के साथ-साथ उसके अंदर का बचपना था जो सभी को बहुत पसंद आता था। वह न सिर्फ विवाहिता थी बल्कि एक बेटे की माँ थी किन्तु जब बातें करती तब ऐसा बिल्कुल नहीं लगता कि वह एक जिम्मेदार पत्नी व माँ है। उसके इसी स्वभाव के कारण कभी-कभी उसकी कही गई कुछ ग़लत व अनर्गल बातें भी सभी अनसुनी कर देते जबकि यदि वही बातें कोई अन्य कह देता तो बहुत बड़ी समस्या हो जाती। 
मैंने कई बार उसकी बातों में प्रिंसिपल मैडम के लिए छुपी कड़वाहट को महसूस किया था, एक बार तो उसने बातों-बातों में प्रिंसिपल मैडम को चेयरमैन सर की रखैल तक बोल दिया। ये तो अच्छा हुआ कि उस समय मेरे और गीतिका मैडम के अलावा उस समय वहाँ कोई और नहीं था। मैंने उसे बोला कि ऐसा नहीं कहना चाहिए तो जवाब मिला "क्या ग़लत कह रही हूँ, आप ही देख लो चेयरमैन सर प्रिंसिपल मैडम की कोई बात टालते हैं कभी? और तो और कभी उनके पास मैडम की शिकायत लेकर जाओ फिर देखो कितने लैक्चर सुनने को मिलते हैं।" गीतिका मैडम ने उसे हल्की सी डाँट लगाते हुए चुप रहने को कहा तब वह चुप हुई। मेरे दिमाग में यह प्रश्न भी उठा था कि आखिर उसे मैडम से क्या परेशानी है परंतु मुझे कुछ समझ नहीं आया और मैंने भी जानने के लिए कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं किया। प्रिंसिपल मैडम अपने कार्य के प्रति पूरी तरह सतर्क, अनुशासित और सख्त थीं। बॉस यदि खुद अनुशासित, नियमित और समयनिष्ठ हो तो उसके मातहत काम करने वाले सभी लोगों को नियमित और अनुशासित होना ही पड़ता है, चाहे इसमें उनकी खुशी हो या न हो। ऐसी परिस्थिति में अधिकतर सहकर्मी अपने बॉस को पसंद नहीं करते लेकिन इसके बावज़ूद वही अपने बॉस के सबसे करीब होते हैं, ऐसा मैंने महसूस किया। 
वहाँ कई ऐसी अध्यापिकाएँ थीं जो मैडम की बुराई करने में अपनी शान समझती थीं क्योंकि शायद वो सभी कभी न कभी उनकी डाँट का शिकार हो चुके थे। दामिनी और गीतिका मैडम की आपस में घनिष्ठता कुछ अधिक ही थी शायद उसके व्यवहार कुशल स्वभाव के कारण, मैंने कई बार गीतिका मैडम को दामिनी को समझाते भी देखा था कि उसे अपनी ससुराल में सभी से किस प्रकार व्यवहार करना चाहिए। गीतिका मैडम के स्वभाव की एक खासियत यह भी थी कि वह खुद को सभी का शुभचिंतक दर्शातीं। यह गुण सभी में नहीं होता, किसी-किसी में ही होता है। मुझमें तो बिल्कुल नहीं है, एक तो मेरी कम बोलने की आदत और मैं किसी की भी सहायता करती तो कभी कहकर जता नहीं पाती। गीतिका मैडम स्कूल में मेरी तारीफों के पुल बाँधने लगीं। मुझे लगता कि गलत तो नहीं कह रही हैं परंतु आजकल दूसरों की तारीफ पूरे स्टाफ के सामने शायद ही कोई करता हो, तो मैं खुश हुए बिना कैसे रहती। एक दिन प्रिंसिपल मैडम ने उनसे प्रतिपादन (न्यूज़ रिपोर्ट) लिखने के लिए कहा तो उन्होंने कहा "मैडम मैं लिख तो दूँगी पर मुझसे अच्छा ये मैडम लिख लेंगीं, इनकी राइटिंग भी मुझसे बहुत अच्छी है।"
"आर यू श्योर?" मैडम ने पूछा।
"मैम किसी काम में एक बार के लिए मुझसे गलती हो सकती है पर इनसे नहीं होगी, इस बात की गारंटी तो मैं ले सकती हूँ।" उन्होंने मेरी ओर देखते हुए कहा।
मेरे ऊपर उन्होंने इतना विश्वास दिखाया था कि मन प्रसन्नता से अभिभूत हो गया। 
परंतु तारीफ के अगले दिन ही उस तारीफ का कारण मुझे पता चल जाता जब वो अपना कोई न कोई काम जैसे रिकॉर्ड रजिस्टर बनाना या अन्य कोई रजिस्टर बनाना या लेसन-प्लान (पाठ-परियोजना) बनाने जैसा काम मुझे दे देतीं और अपनी असमर्थता जाहिर करते हुए मुझसे करने को कहतीं। मैं मना भी तो नहीं कर सकती थी आखिर अपनी तारीफ़ों के अहसान तले दबा जो दिया था। धीरे-धीरे समझ आने लगा था कि वह क्यों सिर्फ मेरी ही नहीं बल्कि किसी की भी तारीफ करती हैं। 
मैडम ने टाइम-टेबल बनवाकर रख लिया पर अभी तक वही पुराना टाइम-टेबल फॉलो हो रहा था। मेरे दिमाग में प्रश्न उठना स्वाभाविक था कि अगर प्रयोग में लाना ही नहीं था तो बनवाया क्यों...मेरा समय क्यों बर्बाद किया? 
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१७

परीक्षाएँ शुरू होने वाली थीं उसके पंद्रह दिन पहले से रिजल्ट वितरित होने तक का समय तो ऐसा बीता कि स्वयं को भी पता नहीं होता कि अभी जहाँ खड़ें हैं, जो कर रहे हैं अगले पल उसका क्या और कैसा परिणाम मिलने वाला है और अगले पल हम कहाँ होंगे। परीक्षा से पहले कभी भी मैडम का निर्देश आ जाता कि आप फलां कक्षा में जाकर पुनरावृत्ति करवा दीजिए यहाँ फलां टीचर को कुछ करवाना है। कभी भी किसी भी कक्षा के बच्चों के वो अपूर्ण कार्य पूरे होकर चेकिंग के लिए आ जाते जिन्हें पूरा करने के लिए कह-कह कर हम हार मान चुके होते। कक्षा में कॉपियाँ चेक करने की अनुमति नहीं थी पर यह समय ऐसा था कि रिस्क लेकर हर काम करना पड़ रहा था। 
परीक्षा का समय आ गया। परीक्षा के साथ-साथ उत्तरपुस्तिका की जाँच और पुन: जाँचने की प्रक्रिया तीव्र गति से संपन्न हुई और फिर रिजल्ट वितरण के लिए आयोजन की तैयारी, पोजीशन होल्डर तथा पूरे वर्ष के क्रियाकलापों के परिणामों के सर्टिफिकेट, पुरस्कार आदि को व्यस्थित करना कुल मिलाकर प्रात: विद्यालय में प्रवेश करने से लेकर विद्यालय से निकलने तक समय कब बीत जाता पता ही नहीं चलता। इस तरह की व्यस्तता का मेरे लिए पहला अनुभव था। 
इस समय सभी स्कूलों में व्यस्तता बढ़ जाती है पर स्कूल बड़ा था तो यहाँ बड़े स्तर पर तैयारी हो रही थी और पहले के स्कूलों में मैं प्रश्न पत्र बनाने के अलावा कोई अन्य कार्य कभी घर के लिए नहीं ले जाती थी पर यहाँ बिना घर पर किए कार्य पूर्ण कर पाना संभव ही नहीं हो पा रहा था, कम से कम मुझसे तो नहीं हो पा रहा था। 
खैर! व्यस्तता के बावजूद मुझे मजा आ रहा था, कई नई चीजें सीखने को मिल रही थीं और साथ ही अपनी कलात्मकता दिखाने का अवसर भी मिल रहा था और यही समय होता है जब जूनियर और सीनियर कक्षाओं के सभी अध्यापक/अध्यापिकाओं को एक साथ मिलकर कार्य करने का अवसर मिलता है। 
तो जिन अध्यापिकाओं से कभी बात नहीं हो पाती थी उन सभी के साथ मिलकर काम कर रहे थे तो सभी को जानने समझने का अवसर मिला। 
रिजल्ट वितरण का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ, उस दिन तो घर आते-आते शाम के पाँच बज गए। ऐसा लग रहा था कि कई महीनों के बाद अब आराम करूँगी। बहुत हल्का महसूस कर रही थी। हालांकि हम शिक्षकों के लिए विद्यालय की छुट्टी नहीं थी परंतु बच्चों की थी, इसलिए हम सभी बहुत हल्का महसूस कर रहे थे। 
दूसरे दिन जब हम विद्यालय जा रहे थे, तब मेरे मन में तो यही प्रश्न था कि आज हमारे पास क्या काम होगा? शायद हम सभी आज पूरा नहीं तो अधिकतर समय तो फ्री ही रहने वाले थे। बस अकाउंट ऑफिस और बुक शॉप पर ही काम होगा। जब हम स्कूल पहुँचे तो पूरा स्कूल खाली-खाली सा लगा। कुछ भी हो, रौनक तो बच्चों से ही होती है पर जब बच्चों से घिरे रहकर थक जाते हैं तो कभी-कभी यह शांति भी  मन को सुकून देती है। प्रार्थना सभा तो होना नहीं था अत: जब तक प्रिंसिपल मैडम नहीं बुलातीं तब तक हम सभी नीचे (ग्राउंड फ्लोर पर) ही दो-तीन कक्षाओं में समूह बनाकर बैठ गए और जहाँ समूह हो वहाँ गपशप तो होना ही होता है। हमें मुश्किल से दस मिनट ही हुए होंगे कि कुसुम ने आकर सूचना दी कि रूम न०- तीन में मीटिंग है।
"देखा, हम स्कूल आएँ और काम न हो, ऐसा कैसे संभव है, किसी टीचर ने कहा।
"अरे वो खड़ूस हमें खुश देख ही नहीं सकती, काम तो ढूँढ़-ढूँढ़ कर रखती है।" दामिनी बोली।
"लेकिन मैडम हम जब यहाँ काम करने ही आए हैं तो काम मिलने की शिकायत क्यों? मुझे दामिनी की बात अच्छी नहीं लगी इसलिए बोल पड़ी। इसी प्रकार की बातें करते हम सभी अपनी-अपनी डायरी, नोटपैड आदि लेकर रूम नं०- ३ में पहुँच गए और अपनी-अपनी सीटें घेरकर बैठ गए। वैसे तो मैं जानती थी कि प्रिंसिपल मैडम घर पर अकेली रहती हैं, इसलिए उनका पूरा समय स्कूल के लिए ही होता है परंतु वो घर पर भी कितना परिश्रम करती हैं ये मुझे उस दिन पता चला। सभी टीचर्स के लिए पहले काम निर्धारित करना, कितने रजिस्टर कितने रिकॉर्ड कैसे बनेंगे, किसकी मदद कौन करेगा और नए सत्र के लिए और भी न जाने क्या-क्या तैयारियाँ कुल मिलाकर जितना काम मैडम ने बता दिया वो एक सप्ताह में भी पूरे होने वाले नहीं थे, इससे पता चलता है कि ये सब प्लानिंग कितने समय पहले से कर रही होंगी मैम। 
अब हम सभी का पहला काम था  सत्र के लिए अटेंडेंस रजिस्टर तैयार करना जो कि कम से कम दो दिन तो लगना ही था। अत: हम सभी को जो-जो रजिस्टर दिए गए हमने पुराने रजिस्टर लिए और अकाउंट ऑफिस से बच्चों के नामों की उनके बकाया फीस आदि की पुष्टि करके रजिस्टर में नाम और डिटेल लिखना शुरू कर दिया। उस दिन पूरा समय तो रजिस्टर पूर्ण करने में ही निकल गया। उसकी री-चेकिंग आदि करके पूरा करने में दो दिन निकल गए। दूसरे दिन छुट्टी से एक घंटा पहले फिर मैडम ने मीटिंग के लिए बुलाया। सभी के मन में प्रश्न था कि अब कौन सा नया फरमान आने वाला है जबकि इतना सारा काम तो पहले ही दिया हुआ है। 
रूम नं०-3 में बैठे सभी अपनी-अपनी अटकलें लगाने में व्यस्त थे तभी मैडम ने अपने कागज-पत्रों के साथ प्रवेश किया हम सभी अभिवादन करके अपनी-अपनी सीट से चिपक गए क्योंकि मैडम के हाथ में डायरी के साथ-साथ और भी कई तरह के कागज देखकर हम समझ गए थे कि मीटिंग लंबी चलने वाली है। तभी कुसुम आई उसके हाथों में रजिस्टर का बंडल था। इसी प्रकार एक-एक करके वह रजिस्टर और कॉपियों के कई बंडल रख गई। मैडम ने बोलना शुरू किया और हमने सुनना और लिखना। एक चीज मेरी समझ में आ गई थी कि वह जब भी मीटिंग लेती हैं, पहले वह हमें भले ही अकारण और समय की बर्बादी लगती हो लेकिन जब हम मीटिंग अटेंड करते हैं तब हमें यह ज्ञात होता है कि वास्तव में उसकी कितनी आवश्यकता थी। मैडम कितने गहन अध्ययन के पश्चात् हमसे मुखातिब होती थीं यह भी पता चलता था जब वह हर बात को बहुत ही बारीकी से समझाती थीं। उन्होंने हमें सी बी एस ई के ने नियम बताते हुए विद्यार्थियों को सजा न देने, हाथ न लगाने और उनके साथ सख्त न होने की हिदायत भी दी। इन सबके बाद उन्होंने नए सत्र में विभिन्न विभागों तथा क्रियाकलापों में अध्यापक/अध्यापिकाओं को जिम्मेदारी सौंपते हुए उनके नाम बताए। सातवीं से दसवीं तक के हिंदी विभाग की एच. ओ. डी.और एक्ज़ामिनेशन इंचार्ज गीतिका मैडम को बनाया गया। संस्कृत विभाग और तीसरी से छठीं के हिंदी विभाग की इंचार्ज मुझे बनाया गया। यह सुनकर मुझे जहाँ एक ओर खुशी हुई वहीं थोड़ा डर भी लगा कि अब एक और जिम्मेदारी मैं निभा भी पाऊँगी या नहीं! परंतु अभी तो शुरुआत थी मैडम ने सभी विषयागत इंचार्ज के नाम बताकर अब अन्य (सह-पाठ्यक्रम) विभागों के इंचार्ज के नाम बताने लगीं। मुझे असेंबली (प्रात:कालीन प्रार्थना सभा) इंचार्ज, कल्चरल क्लब इंचार्ज बनाया गया। अनुभव के अभाव में इन जिम्मेदारियों को मैं कैसे संभालूँगी अभी यही सोच रही थी कि मैम ने एक घोषणा और कर दिया। टाइम-टेबल इंचार्ज की ड्यूटी भी मुझे और मेरे साथ रीमा मैडम को दी गई।  जिसके अंतर्गत मुझे रोज अनुपस्थित टीचर्स के स्थान पर प्रॉक्सी लगाना और हर पीरियड में कक्षा में टीचर्स की उपस्थिति चेक करना न होने पर वहाँ टीचर अरेंज करना था। अब मैं डर गई कि कैसे करूँगी बस एक राहत थी कि साथ में रीमा मैम भी थीं तो थोड़ी सहायता की उम्मीद तो थी परंतु सिर्फ उम्मीद थी विश्वास था ऐसा नहीं कह सकती। इसके पीछे भी कारण था कि मैम उतनी ऐक्टिव नहीं होती थीं जितना ऐक्टिव होने की आवश्यकता थी, दूसरी बात वो मुझसे उम्र में बड़ी थीं तथा काफी पुरानी टीचर थीं तो मैं उनसे कुछ कह भी नहीं सकती थी जबकि इस इंचार्जशिप में पहला नाम उन्हीं का था कायदे से मुझे उनकी सहायता करनी चाहिए परंतु यह मैं भी जानती थी और मैडम भी जानती थीं कि कार्यभार मुझे ही संभालना था। सभी विभागों के ऑफिशियल रिकॉर्ड, पाठ्यक्रम के रिकॉर्ड, कॉपी चेकिंग के रिकॉर्ड और भी कई प्रकार के रिकॉर्ड तैयार करने के लिए रजिस्टर्स और कॉपियाँ हमें दी गईं और मीटिंग समाप्त हुई।