सोमवार

शाख से टूटा पत्ता

शाख से टूटा पत्ता
शाख से टूटा पत्ता
शाख से टूटा पत्ता हूँ
निर्भर हूँ पवन झकोरों पर
जब चाहे लेकर बाँहों में
मंद-मंद वो मुझे झुलाए
जब-तब छोड़े झंझावातों में
दिशाहीन सी उड़ने को
कभी ला पटके दोराहे पर
जहाँ न सूझे राह कोई
मैं दिशाहीन सी भटक रही
गिरती-उठती फिर गिर जाती
इत-उत अपना सिर टकराती
कुचले जाने से खुद को बचाती
संभलने की कोशिश में
लड़खड़ाती, डगमगाती
अभी कुछ दूर भी गई नहीं
जोर से आई फिर आँधी
उठा लिया मुझे धरती से
अपने साथ फिर खूब उड़ाया 
कभी जंगल से 
कभी नदिया से
कभी पहाड़ों और बीहड़ से
भटकाया टकराया 
कभी काँटों में दामन उलझाया
और ला पटका फिर दलदल में
तन-मन से थकी हुई सी मैं
निराशाओं में घिरी हुई
बस सोच रही..
मुरझाई सी
सकुचाई सी
क्या गलती थी मेरी भला
शाख से टूटी 
क्या मेरी खुशी थी?
क्यों जीवन मेरा मेरे हाथ नहीं
क्यों देखूँ राह हवाओं की
क्यों मेरी अपनी कोई राह नहीं
दलदल में पड़ी सोचूँ अब भी
क्यों शाख छोड़ना पड़ा मुझे...


मालती मिश्रा 'मयंती'✍️


2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुंदर रचना। शाख से टूटे पत्ते लक्ष्यविहीन जीवन की तरह है । पुनः बधाई ।

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    1. प्रतिक्रिया देकर हौसला बढ़ाने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद आ० पुरुषोत्तम जी।

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