रविवार

आते हैं साल-दर-साल चले जाते हैं,
कुछ कम तो कुछ अधिक
सब पर अपना असर छोड़ जाते हैं।
कुछ देते हैं तो कुछ लेकर भी जाते हैं,
हर पल हर घड़ी के अनुभवों की
खट्टी-मीठी सी सौगात देकर जाते हैं।
जिस साल की कभी एक-एक रात
होती है बड़ी लंबी
वही साल पलक झपकते ही गुजर जाते हैं।
माना कि यह साल सबके लिए न हो सुखकर
पर हर नए साल में
कुछ पुराने मधुर पल याद आते हैं।
#मालतीमिश्रा
2017 तुम बहुत याद आओगे.....

बीते हुए अनमोल वर्षों की तरह
2017 तुम भी मेरे जीवन में आए
कई खट्टी मीठी सी सौगातें लेकर
मेरे जीवन का महत्वपूर्ण अंग
बन छाए
कई नए व्यक्तित्व जुड़े इस साल में
कितनों ने अपने वर्चस्व जमाए
कुछ मिलके राह में
कुछ कदम चले साथ
और फिर अपने अलग नए
रास्ते बनाए
कुछ जो वर्षों से थे अपने साथ
तुम्हारे साथ वो भी बिछड़ते
नजर आए
कुछ जो थे निपट अंजान
तुम उनकी मित्रता की सौगात
ले आए
जीवन की कई दुर्गम
टेढ़ी-मेढ़ी राहों पर
चलते हुए जब न था कोई
साथी
ऐसे तन्हा पलों में भी
तुम ही साथ मेरे नजर आए
वक्त कैसा भी हो
खुशियों से भरा
या दुखों से लबरेज
तुम सदा निष्काम निरापद
एक अच्छे और
सच्चे मित्र की भाँति
हाथ थामे साथ चलते चले आए
वक्त का पहिया फिर से घूमा
आज तुम हमसे विदा ले रहे हो
सदा के लिए तुम जुदा हो रहे हो
भले ही साल-दर-साल तुम
दूर होते जाओगे
पर जीवन के एक अभिन्न
अंग की भाँति
ताउम्र तुम
बहुत याद आओगे
साल 2017
जुदा होकर भी तुम न
जुदा हो पाओगे
जीवन का हिस्सा बन
हमारी यादों में अपनी
सुगंध बिखराओगे
साल 2017 तुम
बहुत याद आओगे।
मालती मिश्रा

चित्र साभार गूगल से

गुरुवार

प्रश्न उत्तरदायित्व का...

प्रश्न उत्तरदायित्व का...
हम जनता अक्सर रोना रोते हैं कि  सरकार कुछ नहीं करती..पर कभी नहीं सोचते कि आखिर देश और समाज के लिए हमारा भी कोई उत्तरदायित्व है, हम सरकार की कमियाँ तो गिनवाते हैं परंतु कभी स्वयं की ओर नहीं देखते। मैं सरकार का बचाव नहीं कर रही और न ही ये कह रही हूँ कि सरकार के कार्य में कमियाँ नहीं होतीं या वह सबकुछ समय पर करती है, ऐसा कहकर मैं आप पाठक मित्रों की कोपभाजन नहीं बनना चाहती। परंतु प्रश्न जरूर है कि क्या ये संभव है कि बिना जनता के सहयोग के सरकार की सभी योजनाएँ सफल हों? ज्यादा गहराई में न जाकर मैं सिर्फ स्वच्छता अभियान की बात करती हूँ...आज ही मेरे समक्ष ऐसी घटना घटी जिसके कारण मुझे सरकार पर नहीं जनता पर क्रोध आ रहा है। मैं शेयरिंग ऑटो में बैठी थी, मेरे सामने की सीट पर एक महानुभाव बैठे थे, अधेड़ उम्र के मुँह में गुटखा चबाते हुए महाशय सरकार से बड़े कुपित थे और अपने साथ वाले मित्र से ऐसे बातें कर रहे थे जैसे राजनीति के सबसे बड़े खिलाड़ी तो वही हैं। बात-बात पर सरकार को गाली, सरकार जनता को मूर्ख बना रही है कच्चा तेल सस्ता है सरकार ने पेट्रोल डीजल के दाम बढ़ा दिए, मोदी तो बस बातें बड़ी-बड़ी करता है पर काम कुछ नहीं करता और कहते हुए मुँह में भरा हुआ गुटखा ऑटो से बाहर सड़क पर ही थूक दिया। मैं पहले से ही उनकी बातें बड़ी मुश्किल से बर्दाश्त कर रही थी अब ये इतनी सारी तरल गंदगी जो वो सड़क पर फैल चुकी थी, मुझसे सहन न हो सका मैं बोल पड़ी.. "आप कहते हैं सरकार कुछ नहीं करती पर आप बताइए आप समाज के लिए क्या करते हैं?"  हम क्या कर सकते हैं , क्या हम देश चलाते हैं? उन महाशय ने लगभग भड़कते हुए कहा। "
क्यों आप क्या सिर्फ सरकार को गालियाँ दे सकते हैं, सरकार ने स्वच्छता अभियान की शुरुआत की ये तो आपको पता है न? फिर इसमें सहयोग देने की बजाय आप सड़क पर ही गंदगी फैलाते हुए चल रहे हैं तो क्या उम्मीद करते हैं कि अब मोदी जी को आकर आपकी फैलाई वो गंदगी साफ करनी चाहिए?"
यदि वो महाशय एक संभ्रांत व्यक्ति होते तो निःसंदेह अपनी गलती पर शर्मिंदा होते परंतु जैसा कि मुझे उम्मीद थी वो बड़ी ही बेशर्मी से भड़क कर बोले - "तो क्या गले में डब्बा बाँध के चलूँ?"
"नहीं मुँह पर टेप लगाकर चलिए, जबान और सड़क दोनों साफ रहेंगे"...कहकर मैं उतर गई। परंतु मुझे अफसोस हो रहा था कि मैंने बेहद अशिष्टता से जवाब दिया था परंतु उस व्यक्ति के सरकार और मोदी जी के लिए प्रयुक्त शब्द ध्यान आते हैं तो अपनी गलती नगण्य प्रतीत होती है और सोचती हूँ कि समझदार व्यक्ति को समझाया जाता है मूर्ख और अशिष्ट को समझाना मूर्खता है।
 हमारे माननीय प्रधानमंत्री ने यह अभियान तो शुरू किया, लोगों को प्रोत्साहित करने के लिए खुद भी झाड़ू लगाया और अपने नेताओं से भी लगवाया, कहीं-कहीं असर भी देखने को मिला पर जनता यानि हम-आप क्या करते हैं? मैं आज भी देखती हूँ लोग चलते-चलते थूकते, हाथों में पकड़े हुए स्नैक्स के रैपर ऐसे ही सड़क पर फेंक देते हैं, बस स्टॉप के पीछे या आसपास कहीं थोड़ा भी खाली ऐसा आवा-जाही वाला स्थान हुआ तो वहीं पेशाब कर-करके उस खुली जगह को शौचालय से भी बदतर बना देते हैं और ये सब तब होता है जब वहाँ से चंद कदमों की दूरी पर कूड़ेदान और शौचालय मौजूद होते हैं। मौजूदा स्थिति में सरकार की क्या गलती? क्या ये ज़िम्मेदारी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री की है कि वो हाथों में झाड़ू लेकर आप के पीछे-पीछे चलें और जहाँ आप थूकें वो साफ कर दें, पर आप कष्ट नहीं उठाएँगे कि नियमों का पालन करके स्वच्छता में अपना थोड़ा योगदान दें।
मालती मिश्रा

शनिवार


दहक रहे हैं अंगार बन
इक-इक आँसू उस बेटी के
धिक्कार है ऐसी मानवता पर
जो बैठा है आँखें मीचे

मोमबत्ती लेकर हाथों में
निकली भीड़ यूँ सड़कों पर
मानो रावण और दुशासन का
अंत तय है अब इस धरती पर

आक्रोश जताया मार्च किया
न्याय की मांग किया यूँ डटकर
संपूर्ण धरा की नारी शक्ति
मानो आई इक जगह सिमटकर

हर दिल में आग धधकती थी
आँखों में शोले बरस रहे थे
फाँसी की सजा से कम न हो
बस यही माँग सब कर रहे थे

नराधम नीच पापी के लिए
इस पावन धरा पर शरण न हो
नारी की मर्यादा के हर्ता का
क्यों धड़ से सिर कलम न हो

पर कैसे यह संभव होता 
जब संरक्षक ही भक्षक बन जाए
बता नाबालिग दुष्ट नराधम को
वह जीवनदान दिला लाए

जिस कानून को हम रक्षक कहते
वह पापियों को भी बचाता है
अरे यूँ ही नही यह न्याय का रक्षक
अंधा कानून कहाता है

भुजा उखाड़नी थी जिसकी
जिसकी जंघा को तोड़ना था
बर्बरता की सीमा लांघ गया था जो
उसे किसी हाल न छोड़ना था

पर कानून तो अंधा है 
उससे ज्यादा अंधी सरकार
निर्भया की चीखों का प्रतिफल
अमानुषता के समक्ष हुआ बेकार

जिस राक्षस ने जीवन छीना
उसको रोजी देकर बख्शा
अस्मत तार-तार करने वाले को 
सिलाई मशीन की सौगात सौंपा

क्यों आँखें नहीं खुलतीं अब भी
क्यों अब भी हौसले हैं बुलंद
क्यों अब भी निर्भया सुरक्षित नहीं
दुशासन अब भी घूमते स्वच्छंद

कितनी कुर्बानी लेगा समाज
मासूम निर्मल बालाओं की
क्या मानवता मर चुकी है अब
जो असर नहीं है आहों की

मानवाधिकार जीने का अधिकार
सब असर है इन्हीं हवाओं की
वो इन अधिकारों के हकदार नहीं
जो करते नापाक दुआओं को

क्यों जीवनदान मिले उनको
जो कोख लजाते माओं की
अधिकार कोई क्यों मिले उन्हें
जो अस्मत लूटे ललनाओं की
मालती मिश्रा



चलो अब भूल जाते हैं
जीवन के पल जो काँटों से चुभते हों
जो अज्ञान अँधेरा बन
मन में अँधियारा भरता हो
पल-पल चुभते काँटों के
जख़्मों पे मरहम लगाते हैं
मन के अँधियारे को
ज्ञान की रोशनी बिखेर भगाते हैं
चलो सखी सब शिकवे-गिले मिटाते हैं
चलो सब भूल जाते हैं....

अपनों के दिए कड़वे अहसास
दर्द टूटने का विश्वास
पल-पल तन्हाई की मार
अविरल बहते वो अश्रुधार
भूल सभी कड़वे अहसास
फिरसे विश्वास जगाते हैं
पोंछ दर्द के अश्रु पुनः
अधरों पर मुस्कान सजाते हैं
चलो सब शिकवे-गिले मिटाते हैं
चलो सब भूल जाते हैं....

अपनों के बीच में रहकर भी
परायेपन का दंश सहा
अपमान मिला हर क्षण जहाँ
मान से झोली रिक्त रहा
उन परायेसम अपनों पर
हम प्रेम सुधा बरसाते हैं
संताप मिला जो खोकर मान
अब उन्हें नहीं दुहराते हैं
चलो सब शिकवे-गिले मिटाते हैं
चलो सब भूल जाते हैं....
मालती मिश्रा

मैं ही सांझ और भोर हूँ..

मैं ही सांझ और भोर हूँ..
अबला नहीं बेचारी नहीं
मैं नहीं शक्ति से हीन हूँ,
शक्ति के जितने पैमाने हैं 
मैं ही उनका स्रोत हूँ।
मैं खुद के बंधन में बंधी हुई
दायरे खींचे अपने चहुँओर हूँ,
आज उन्हीं दायरों में उलझी
मैं अनसुलझी सी डोर हूँ।
मैं ही अबला मैं ही सबला
मैं ही सांझ और भोर हूँ।

पुत्री भगिनी भार्या जननी
सबको सीमा में बाँध दिया,
दिग्भ्रमित किया खुद ही खुद को
ये मान कि मैं कमजोर हूँ।
तोड़ दिए गर दायरे तो
शक्ति का सूर्य उदय होगा,
मिटा निराशा का अँधियारा
विजयी आशा की डोर हूँ।
मैं ही अबला मैं ही सबला
मैं ही सांझ और भोर हूँ।

मैं ही रण हूँ मैं ही शांति
मैं ही संधि की डोर हूँ,
मैं वरदान हूँ मैं ही वरदानी
कोमलांगी मैं ही कठोर हूँ।
बंधन मैं ही आज़ादी भी मैं
मैं ही रिश्तों की डोर हूँ,
जुड़ी मैं तो जुड़े हैं सब
बिखरी तो तूफानों का शोर हूँ।
मैं ही अबला मैं ही सबला
मैं ही सांझ और भोर हूँ।
मालती मिश्रा