सोमवार

हर हिंदुस्तानी के दिल में 
बस हिंदुस्तान होना चाहिए 
न कोई हिंदू न मुसलमान होना चाहिए 
तिरंगे की शान में करे जो कोई गुस्ताखी 
उनका फिर न कहीं 
नामोनिशान होना चाहिए।
#मालती

अधूरी कसमें...2

रात्रि का दूसरा प्रहर था, हड्डियाँ कंपकंपा देने वाली कड़ाके की ठंड, चारों ओर घनघोर अँधेरा था, हाथ को हाथ सुझाई नहीं दे रहा था; पतली-सी सड़क के दोनों ओर लंबे-लंबे पेड़ों की कतारें मानो अँधकार से बल पाकर दानव के समान झूमते हुए डरा रहे थे। पेड़ों की कतारों से बाहर नजर जाती तो सिर्फ घना कोहरा दिखाई पड़ता, कोहरे को चीर कर उस पार देखने का प्रयास करना बेवकूफी थी। ऐसे मौसम में अपरा की गाड़ी अपने गंतव्य की ओर बढ़ी जा रही थी। मौसम की भयावहता से अधिक उथल-पुथल इस समय उसके भीतर चल रही थी। वह जल्द से जल्द घर पहुँचना चाहती थी पर घर पहुँचकर करेगी क्या इसका कोई अंदाज़ा नहीं था, उसके भीतर का तूफान इतना अधिक था कि वह अपने-आपको उससे भी अधिक तूफानी मार में झोंक देना चाहती थी ताकी दिल में उठने वाले दर्द के अहसास को अनदेखा कर सके, उस तूफान में घिरने से खुद को बचा सके।
घर के बाहर ही गाड़ी को साइड से लगाकर वह यंत्रचालित सी गेट खोलकर लॉन को पार करती हुई बरामदे में आकर बिना लाइट जलाए हॉल का गेट खोला और सीधी जाकर सोफे पर निढाल होकर बैठ गई। उसने लाइट तक ऑन नहीं किया। उसके कानों में बस यही ध्वनि गूँज रही थी.....
"ये हैं मेरे पतिदेव और नील ये मेरी सबसे अच्छी सहेली, मेरी तन्हाइयों की साथी 'अपरा' "
धीरे-धीरे ध्वनि तेज..तेज और तेज होती जा रही थी....
"नो...नो....नो...मैं नहीं जानना चाहती तुम्हारे बारे में...क्यों आए मेरे सामने?" दोनों कानों पर हाथ रखकर चीख पड़ी मानों उस आवाज को बंद कर देना चाहती हो।
"जिस अतीत को मैं सालों पहले सपना समझकर दफन कर चुकी थी, क्यों वो मेरे सामने हकीकत बनकर खड़ा हो गया? मेरी किस्मत क्यों बार-बार मेरा इम्तहान लेती है? नीलेश धोखेबाज है ये तो पता था, पर संजना का पति..... मैं कैसे सामना करूँगी संजना का? क्या कहूँगी उससे..... कि वो उसका पति ही है जिसने मेरी दुनिया वीरान कर दी? नहीं, मैं उसे नहीं बता सकती, क्या बीतेगी बेचारी पर?वो दर्द छिपाकर हमेशा खिलखिलाने वाली संजना क्या ये दर्द भी सहन कर पाएगी?" अपरा अपने आपसे बड़बड़ाई।
नीलेश की छवि तैर गई अपरा की आँखों में, बिल्कुल नहीं बदला, वही पहले जैसा.... आँखों में मासूमियत और चेहरे पर आत्मविश्वास के मिले-जुले भाव लिए आकर्षक व्यक्तित्व। संजना के साथ परफेक्ट मैचिंग, लेकिन कभी उसकी और नीलेश की जोड़ी इससे कहीं अधिक परफेक्ट लगती थी। उंह्ह ये क्या सोचने लगी मैं..सोचते हुए अपरा ने अपनी गरदन को झटका, जैसे सारी स्मृतियों को मस्तिष्क से निकाल देना चाहती हो। तभी अचानक अपरा का मोबाइल बज उठा... इतनी रात को किसका फोन हो सकता है? सोचते हुए उसने पर्स से मोबाइल निकालकर देखा तो संजना का नं० था।  संजना से बात करने का इस समय उसका मन नहीं हो रहा था फिरभी ये सोचकर कि शायद उसे फिक्र हो रही  होगी, उसने फोन रिसीव किया...
"तू ठीक से घर पहुँच गई न, कोई प्रॉब्लम तो नहीं हुई?" फोन उठाते ही दूसरी तरफ से संजना की आवाज आई। उसकी आवाज से साफ पता चल रहा था कि वो अपरा के लिए फिक्रमंद थी।
"अरे हाँ..हाँ बाबा तू सांस तो ले ले, मैं बिल्कुल ठीक-ठीक पहुँच गई और अब अपने घर में सुरक्षित हूँ। आप बेफिक्र होकर एन्जॉय करें।" अपरा ने अपने को संयत करते हुए कहा।
"तुझे पता नहीं मुझसे ज्यादा तो नील को तेरी फिक्र हो रही थी, अब तक कई बार कह चुके हैं कि "फोन कर लो, पहुँच गई होगी, पता करो..." वो तो मुझे पता है कि कितनी मुश्किल से अब तक टाला मैंने, ये कह-कहकर कि घर पहुँच जाने दो, नहीं तो ड्राइविंग करते हुए फोन रिसीव करना खतरनाक हो सकता है; वो कह रहे थे कि मैंने तुझे इतनी रात को अकेले जाने ही क्यों दिया?" संजना बिना रुके बोलती रही।
"तूने बताया नहीं कि मेरा आना कितना आवश्यक था?" अपरा ने कहा।
"बताया था, तो कहने लगे इतना ही जरूरी था तो मुझे बतातीं किसी को साथ भेज देता।" संजना ने कहा।
"चल अब तो आ गई, इतनी फिक्र के लिए मेरी तरफ से धन्यवाद कहना और कहना कि हालात लोगों को कठिनाइयों से लड़ते हुए अकेले चलना सिखा देते हैं, अच्छा चल अब मैं  सोऊँगी सुबह निकलना है। गुड नाइट।" कहकर अपरा ने संजना का उत्तर सुने बिना ही फोन डिस्कनेक्ट कर दिया। उसका मन कसैला हो रहा था वह नहीं चाहती थी कि संजना को उसकी आवाज से उसके भीतर चल रहे द्वंद्व का जरा भी अहसास हो। वह बहुत देर तक करवटें बदलती रही, सोने की नाकाम कोशिश करती रही पर आँखों में रह-रह कर नीलेश की छवि तैरने लगती। कभी वो मेरी दुनिया हुआ करता था और आज मेरी सहेली की दुनिया है, मैं कैसे सहन कर लूँ कि उसने मेरी आँखों के सपने किसी और की आँखों में बसा दिए। मेरे दिल के किसी कोने में उम्मीद की एक किरण थी कि शायद वो किसी वजह से फँस गया होगा पर अभी भी मेरा ही होगा; उसने तो मेरी ये उम्मीद भी किसी अन्य के साथ सात फेरों की आग में जलाकर राख कर दी।
सोचा था जब कभी मिलूँगी तो पूछूँगी कि ऐसा क्यों किया? पर उसने तो ये अधिकार भी छीन लिया। अपरा के मस्तिष्क में विचारों का द्वंद्व चलता रहा और आँखों से नींद का मानो कभी कोई नाता ही न रहा हो। उसने करवट बदली तो पाया कि उसकी तकिया गीली हो चुकी थी, उसने आँसुओं से भीगे गालों को साफ किया और सोने की कोशिश में करवटें बदलती रही और घड़ी की सुई अपनी चाल से टिक-टिक करती रही।
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सर्दी हड्डियों में सुइयाँ चुभाने लगी पर नीलेश की इंद्रियाँ मानों सुप्त हो चुकी थीं या फिर वह भीतर ही बेबसी की आग में इस कदर जल रहा था कि उसे सर्दी का अहसास ही नहीं हो रहा था। उसका पूरा शरीर रह-रह कर सूखे पत्ते-सा काँप जाता, पता नहीं सर्दी के कारण या बेबसी का घूँट पीने के प्रयास से।
उसने सोचा था कि अब इस जीवन में कभी अपरा के सामने नहीं जाएगा; वह उसका सामना नहीं करेगा पर आज......उसकी आँखों के समक्ष एक बार फिर वही दृश्य नाचने लगा जब संजना बोली- "ये मेरी सबसे अच्छी सहेली, मेरी तन्हाइयों की साथी 'अपरा' "...... अपरा.... अपरा....यह शब्द कानों से होता हुआ दिल की गहराई तक उतर कर उस जख्म को छू गया जिसके दर्द को नीलेश पिछले चार वर्षों से सहेज कर दुनिया से छिपाए हुए है। इस शब्द के साथ-साथ जब स्वयं अपरा साक्षात् उसके समक्ष खड़ी हो गई तो नीलेश की धड़कनों ने मानों उसके साथ झंझावात शुरू कर दिया। उसे महसूस हुआ जैसे दिल सीने में जोर-जोर से ठोकरें मारता हुआ बाहर निकलने को तत्पर है। वह बमुश्किल खड़ा रह सका..."क्या हुआ?" संजना नीलेश की ओर से कोई प्रतिक्रिया न आते देख पूछ बैठी।
"क्क कुछ नहीं, हैलो अपरा जी।" संभलते हुए नीलेश बोला।
"आपसे मिलकर अच्छा लगा।" अपरा ने अभिवादन की मुद्रा में हाथ जोड़ते हुए कहा।
"मुझे भी" बोलते हुए नीलेश को अपनी ही आवाज गहराई से आती हुई प्रतीत हुई। उसे ऐसा लगा कि अपरा की आँखें उसके चेहरे को टटोल रही हैं, वो पूछ रही हैं कि तुमने ऐसा क्यों किया? उसे पता था कि इस प्रकार से उन दोनों की चुप्पी आसपास खड़े मेहमानों और संजना को अजीब लग सकती है, पर उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या बात करे? तभी अचानक जैसे ईश्वर ने उसके मन की दशा जान उसके लिए एक सहायक भेज दिया....
"हे हैलो नीलेश, हैप्पी मैरिज एनीवर्सरी यार?" इस आवाज़ के साथ ही एक हाथ उसकी ओर बढ़ा।
" हे हाय, थैंक्यू सो मच, बहुत देर कर दी...." कहते हुए नीलेश अभी-अभी आए किसी मेहमान से बातों में व्यस्त हो गया और उसका ध्यान दूसरी ओर जाते देख अपरा वहाँ से हटकर भीतर हॉल की ओर चल दी थी। सच तो ये था कि नीलेश आगंतुक से बातों में व्यस्त होने का सिर्फ दिखावा कर रहा था, उसका पूरा ध्यान तो अपरा के ऊपर था।
जैसे-जैसे वह दूर होती जा रही थी उसे लग रहा था कि वह फिर से उससे दूर हो रही है, वह खुद समझ नहीं पा रहा था कि उसके लिए ज्यादा तकलीफ़ देह क्या था संजना के साथ अपरा का उसके पास रुकना या उससे दूर जाना....वह खुद क्या चाहता था? जिसकी यादों को वह भूल जाना चाहता था, वही आज उसके समक्ष सजीव अपने आकार में संपूर्ण आकर्षण के साथ खड़ी थी, और अब वह चातक की भाँति स्वाति नक्षत्र की उस बूंद के लिए लालायित हो उठा था, जिसकी वो वर्षों से प्रतीक्षा कर रहा था और आज सामने पाकर भी उसे पाना या छूना तो दूर उसकी ओर जी भरकर देख भी नहीं सकता था।
"नील, आप यहाँ! इतनी सर्दी में यहाँ टेरिस पर क्या कर रहे हो? मैं कब से आपको ढूँढ़ रही थी; ओह माई गॉड! इंसान जम जाए इस ठंड में और आप हो कि..... चलो नीचे।" कहती हुई संजना अधिकार से उसका हाथ पकड़कर सीढ़ियों की ओर चल दी।

"आप यहाँ क्यों आ गए, देखो आपके हाथ कितने ठंडे हो रहे हैं इतनी ठंड में बीमार पड़ने का इरादा है क्या?" संजना की झिड़की में भी प्यार झलक रहा था। पर नीलेश निर्विकार उसके साथ चल रहा था मानों उसे कुछ सुनाई ही नहीं पड़ रहा था।
"आप सुन क्यों नहीं रहे?" संजना ने उसके हाथ को हल्के से झटका देते हुए कहा।
ह् हाँ वो मुझे जरूरी कॉल करना था और यहाँ नीचे शोर बहुत था, इसीलिए मैं टेरिस पर चला गया, तुम परेशान मत हो।
"बाई-द-वे तुमने कॉल किया अपनी फ्रैंड को? वो  घर पहुँच गई?" नीलेश ने अपरा के बारे में पूछा, जिसे उसने मिलने के कुछ देर बाद ही जाते देखा था।
"कौन-सी फ्रैंड?" संजना ने कहा।
"अरे वही जो मुझसे मिलते ही चली गई थी, क्या नाम बताया था तुमने... अपरा"
"नहीं, अभी वो पहुँची नहीं होगी।" संजना ने कहा।
"क्यों अधिक दूर है क्या?
"हाँ, वो आशीर्वाद एन्क्लेव में रहती है, और फिर कुहरा इतना अधिक है तो वैसे भी गाड़ी धीरे चला रही होगी, टाइम तो लगेगा ही।" संजना ने कहा।
"अगर वो अकेली थी तो तुम्हें इतनी रात को अकेले जाने ही नही देना चाहिए था।" नीलेश ने चिंतित होते हुए कहा।
"उसकी टिकट है, उसे सुबह-सुबह निकलना है इसलिए...."  संजना ने बात अधूरी छोड़ दी।
नीलेश को चिंता होने लगी, वह जानता था कि उससे मिलने के बाद अपरा की भी मानसिक दशा कुछ उसी की तरह या फिर उससे भी ज्यादा खराब होगी। पता नहीं वह ठीक से ड्राइव कर पा रही होगी या नहीं। वह अपनी यह परेशानी संजना को बता भी नहीं सकता था। उसने कहा- "अगर इतना ही जरूरी था तो मुझे बतातीं मैं किसी को साथ भेज देता। खैर अब फोन करके पता करो और जब पहुँच जाए तो मुझे भी बता देना।"
सत्य से अंजान संजना को यह देख बहुत अच्छा लगा कि उसका पति उसकी सहेली के लिए भी फिक्रमंद है, इसीलिए अपरा से बात होते ही उसने नीलेश को बता दिया ताकि वह निश्चिंत हो जाए।
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आज कई दिनों के बाद फिजां में सूरज की रश्मियों की गरमाहट थी, देर से ही सही पर सूर्यदेव ने दर्शन तो दिया था और अब अपनी आभा को समेटते हुए दूर दिखाई पड़ने वाले पहाड़ों के पीछे क्षितिज के अंक में स्वयं को छिपाने को तत्पर है। किरणों की लाली वृक्षों के शिखर को रक्तिम आभा से नहला रही थीं। अनुकूल मौसम होने की वजह से शाम को नियमित रूप से टहलने वालों के अलावा अन्य लोग भी आज पार्क में टहलते नजर आए। जगह-जगह बच्चे खेल रहे थे। इतनी चहल-पहल के मध्य पार्क के एक कोने में पेड़ के नीचे अकेले बैठा नीलेश न जाने किन खयालों में खोया हुआ था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वह वहाँ होकर भी वहाँ नहीं है। दोनों पैर फैलाकर  पेड़ से पीठ टिकाकर बिल्कुल शांत मुद्रा में बैठा एकटक आसमान में बिखरी सिंदूरी लाली के सौंदर्य को निरखते हुए उसकी आँखों में अपरा का सौंदर्य तैरने लगा और वह अतीत में खोने लगा......
"नीलेश तुम्हारे मम्मी-पापा हमारी शादी के लिए मान तो जाएँगे न?" नीलेश के चेहरे पर गड़ी हुई अपरा की शांत आँखें उससे बार-बार यही प्रश्न पूछ रही थी और नीलेश आँखों ही आँखों में उसे यही समझा रहा था कि चिंता मत करो वो सब मान जाएँगे। उस समय नीलेश को जरा भी अहसास नहीं था कि अपरा के मन का डर बेवजह नहीं था, बल्कि वह एक स्त्री की छठी इंद्री का संकेत था।
वह अपरा और उसके मम्मी-पापा को आश्वत करके अपने घर के लिए रवाना हो गया। अब उसे पापा की चिंता सताने लगी थी कि पता नहीं उनकी तबियत कितनी खराब होगी; आखिर माँ ने इतनी जल्दबाजी में क्यों बुलाया? कहीं पापा की तबियत ज्यादा खराब तो नहीं! इन्हीं प्रश्नों में उलझा वह बर्थ पर लेटा सोने की कोशिश करता रहा। ट्रेन गाँव, जंगल, नदियाँ, ताल, पेड़ों के झुरमुट आदि सब पीछे छोड़ते हुए अपनी तेज रफ्तार से भागी जा रही थी नीलेश के ख़यालों में उसी तीव्रता से दृश्य बदल रहे थे...कभी अपरा का मायूस चेहरा तो कभी उसके मम्मी-पापा की उम्मीद से उसकी ओर तकती आँखें, कभी नीलिमा का शरारती चेहरा, कभी बालकनी में खड़ी अपरा की छवि तो कभी नीलिमा की मम्मी द्वारा अपरा को चोरी से देखते हुए पकड़े जाना। ये सभी खयाल रह-रहकर उसके मन को गुदगुदाते रहते। जब भी पापा की ओर ध्यान जाता और वो परेशान होता तो अपना ध्यान अपरा की ओर मोड़ लेता और फिर उसके मीठे खयालों में से तब बाहर आता जब गाड़ी किसी स्टेशन पर रुकती। इसीप्रकार आँखों ही आँखों में रात कट गई और उसकी मंज़िल आ गई। बैग उठाकर उसने ट्रेन से नीचे प्लेटफॉर्म पर पैर रखते हुए ऐसा महसूस किया मानो अपने घर में आ गया हो, अब वह शीघ्रातिशीघ्र घर पहुँच कर पापा से मिलना चाहता था।

गेट पर खड़े होकर उसने अंदर नजर दौड़ाई, कहीं कोई दिखाई न दिया चारों ओर सन्नाटा पसरा था। गेट को धकेला तो वह खुल गया। वह ट्रॉली बैग को खींचता हुआ अंदर आया, लॉन पार करते हुए बरामदे में चढ़ते ही आवाज लगाया- "माँ...पापा...कहाँ हैं आप लोग?"
कहते हुए वह हॉल में पहुँच गया, उसकी आवाज सुनकर श्वेता अंदर से भागती हुई आई।  "भईया अच्छा किया कि तुम आ गए!" कहती हुई वह नीलेश के गले से लग गई उसकी आँखों से अश्रुधार बह निकले।
"क्या हुआ तू रो क्यों रही है? पापा कहाँ हैं? अब कुछ बताएगी भी।" नील ने घबरा कर पूछा।
"पापा को हार्ट अटैक आया है वो आई. सी. यू. में हैं।" श्वेता ने रोते हुए बताया।
"क्या! कैसे हुआ ये सब?" नीलेश के मुँह से बेसाख्ता निकला।
फिर जवाब का इंतजार किए बिना "चल मेरे साथ अस्पताल चल।" कहता हुआ वह बाहर की ओर तेजी से चल पड़ा।
"माँ, पापा कैसे हैं अब?" आई.सी.यू. के बाहर बैठी माँ को देखते ही नीलेश ने पूछा।
इस मुश्किल घड़ी में बेटे को देखते ही माँ की आँखें बरस पड़ीं, साथ ही उन आँखों में एक विश्वास भी जागा; जैसे बेसहारे को अकस्मात् सहारा मिल गया हो।
"अभी तक खतरा टला नहीं है, होश में आए तो तुझसे ही मिलना चाहते थे।" माँ ने खुद को संभालते हुए कहा।
"आप मिस्टर नीलेश है?" आई.सी.यू. से बाहर आती हुई नर्स ने पूछा।
"जी, मैं हूँ।" नीलेश ने कहा।
"डॉ० साहब आपको अंदर बुला रहे हैं।" नर्स ने कहा।
नीलेश भीतर गया, न जाने क्यों उसे घबराहट हो रही थी, वह भीतर ही भीतर अपने डर को जीतने की कोशिश कर रहा था और खुद को ही तसल्ली दे रहा था कि पापा ठीक हो जाएँगे।
"डॉक्टर! पापा कैसे हैं?" उसने भीतर पहुँचते ही पूछा।
"न् नील्लेश!" पापा की लड़खड़ाती हुई सी आवाज आई।
नीलेश एकदम से पापा की ओर मुड़ा और उनके हाथ को अपनी दोनों हथेलियों के बीच पकड़कर बोला- "जी पापा! मैं आ गया हूँ, आपको कुछ नहीं होने दूँगा, आप ठीक हो जाएँगे।"
"नहीं बेटा.. अब...मेरा... बुलावा.. आ.. गया... है..तुम मेरी ब्बात ध्यान..से सुनो...म्मेरे वादे.. का..मान रखना बेटा, मेरे.... स्स्वर्गीय.. दोस्त.. महेन्द्र..प् प्रताप की... बेटी..से...विवाह..कर.. लेना। मैं उस..उसके... अहस्..सानों...के कर्ज तले दब..कर... नहीं.... जाना... चाहता... नहीं तो... ऊपर...उस्.. उसे...क्क्या... मुँह... दिखाऊँगा।"
"पर पापा!...कहता हुआ नीलेश चुप हो गया जब उसने अपने कंधे पर किसी का हाथ महसूस किया, उसने देखा कि डॉ० उसे इशारे से मना कर रहा था कि वह कुछ भी नकारात्मक न बोले।
"पापा जो आप चाहते हैं वही होगा, बस आप जल्दी से ठीक हो जाइए।" उसने अपने ऊपर काबू पाते हुए कहा। इस समय वह यही सोच रहा था कि पापा ठीक होकर घर आ जाएँ, फिर वह उन्हें सब समझा देगा, परंतु उसे कहाँ पता था कि उसके पापा तो बस उसका इंतजार कर थे, ताकि वह अपनी अंतिम जिम्मेदारी पूरी कर सकें और अब आश्वासन पाकर वह सुकून की नींद सो गए, कभी न उठने के लिए।
गम का पहाड़ सा टूट पड़ा था नीलेश और उसके परिवार पर; इस समय नीलेश के पापा की मृत्यु से सिर्फ उनका ही परिवार संरक्षक विहीन नहीं हुआ था, बल्कि महेंद्र प्रताप जी का परिवार भी स्वयं को अनाथ महसूस करने लगा था।
महेंद्र प्रताप नीलेश के पापा के बहुत ही खास  मित्र थे, दोनों दोस्त कम भाई अधिक थे, दोनों की सारी नाते-रिश्तेदारी एक-दूसरे तक ही सिमट कर रह गई थी। दोनों के ही एक बेटा और एक बेटी थी। दुर्भाग्यवश शादी के एक वर्ष बाद ही महेंद्र प्रताप के बेटे की एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई। अब परिवार में उसकी विधवा पत्नी और नन्हा अयान था। दुर्भाग्य ने यहीं बस नहीं किया बल्कि नीलेश के पापा का बिजनेस भारी घाटे और लोन के चलते ठप्प पड़ गया; ऐसे में नीलेश की इंजीनियरिंग की पढ़ाई का सारा दारोमदार महेंद्र प्रताप जी ने ले लिया, जिससे नीलेश पूरी तरह से अंजान था। सबकुछ धीरे-धीरे संभलने लगा था कि तभी नीलेश की माँ को सड़क पार करते हुए एक्सीडेंट से बचाते हुए महेंद्र प्रताप खुद तेज रफ्तार ट्रक की चपेट में आ गए और अपने परिवार की जिम्मेदारी तथा अपनी बेटी संजना की शादी नीलेश से करने का वादा लेकर स्वर्ग सिधार गए।
नीलेश के पापा ने भी अपनी दोस्ती का फ़र्ज़ और अहसानों के कर्ज को बखूबी निभाया और कभी भी बच्चों को पता तक न चलने दिया, किंतु जब उन्हें दूसरी बार हार्ट-अटैक आया था तभी उन्होंने नीलेश की माँ को सारी बातें बता दी थीं।
नीलेश धर्म संकट में फंस चुका था, वह अपरा के बिना अपने जीवन की कल्पना भी नहीं करना चाहता था, किन्तु जीवन के अंतिम पल में पापा को दिए वचन को न निभाए तो भी पुत्र धर्म का अपमान होगा। वह जीवन के दोराहे पर खड़ा था, जहाँ से समझ नहीं पा रहा था कि किस राह जाए?.पिता को दिया वचन निभाए, उनकी अधूरी जिम्मेदारी को पूरी करे या अपरा को दिया वचन निभाए। पापा की जिम्मेदारी तो वो अपरा से विवाह करने के बाद भी पूरी कर सकता है। इन्हीं विचारों के भँवर में घिरा वह माँ से बात करने के लिए उनके कमरे में गया, पर माँ की दशा देख कुछ कहने का साहस नहीं कर पाया, कुछ देर चुपचाप बैठकर वहाँ से चलने के लिए खड़ा हुआ तभी माँ बोल पड़ीं-
"कुछ कहना चाहते हो नीलेश?"
"माँ!...वो मैं आपसे बात करने तो आया था पर कोई खास बात नहीं है, बाद में भी हो सकती है।" नीलेश ने हिचकते हुए कहा। वह इस समय ऐसा कुछ नहीं कहना चाहता था, जिससे माँ के दुख में बढ़ोत्तरी हो।
"तुम उस लड़की के बारे में बात करना चाहते हो जिसके बारे में तुमने फोन पर बताया था?" माँ ने बिना कहे ही नीलेश के मन की बात जान ली।
"जी मम्मी, मेरी समझ में नहीं आ रहा कि मैं क्या करूँ! आते हुए मैं अपरा के मम्मी-पापा से वादा करके आया था कि मैं जल्दी ही सभी की रजामंदी की खुशखबरी के साथ वापस आऊँगा, पर भगवान ने हम सबकी खुशियाँ छीन लीं लेकिन माँ अब मैं दुविधा में फँस गया हूँ कि मैं उस वचन को निभाऊँ जो मैंने अपरा को दिया है, या उस वचन को जो पापा को दिया? माँ क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मैं पापा की जिम्मेदारियों को पूरा करते हुए अपरा को दिया वादा भी निभा सकूँ।" नीलेश ने साहस जुटाकर नजरें झुकाकर सबकुछ एक ही सांस में कह दिया।
"बेटा, जब हम सही होते हैं तो हमें नजरें झुकाने की जरूरत नहीं होती, तुम्हारी नजरें झुक रही हैं, इसका मतलब है कि तुम खुद ही मानते हो कि तुम जो कह रहे हो उसके सही होने पर संदेह है"....
पर माँ...माँ की बात बीच में ही काटकर नीलेश ने कुछ कहना चाहा पर माँ ने हाथ के इशारे से उसे रोक दिया।
"बेटा, तुम्हें ये तो पता है कि तुम्हारे पापा और महेंद्र प्रताप भाई साहब के रिश्ते कैसे थे, पर तुम्हें उनके हमारे ऊपर किए गए अहसानों का पता नहीं। आज तुम जो कुछ भी हो उन्हीं की वजह से हो, मैं जिन्दा हूँ तो उनके ही प्राणों की कीमत पर"....ऐसा कहते हुए माँ ने नीलेश को महेंद्र प्रताप सिंह द्वारा उस परिवार के लिए किए गए सभी कार्यों के बारे में बताया।
नीलेश के पैरों के नीचे से मानो किसी ने धरती खींच ली हो, आज तक वह अपने जिस जीवन को अपना समझता था वह उधार का प्रतीत होने लगा;  उसके सिर पर माँ की छाया, उसकी शिक्षा, उसका करियर सब कुछ उसका खुद का न होकर उधार का महसूस होने लगा। अब यदि उसने इस कर्ज़ को न चुकाया, अब अगर पापा को दिया वचन न निभाया तो अपनी ही नजर में गिर जाएगा।
"मुझे जो बताना था नील बेटा मैंने तुम्हें बता दिया, आज उनका परिवार बेसहारा है, तो हमारे परिवार का फ़र्ज है कि तुम्हारे पापा के दिए वचन को पूरा करें। तुम बच्चे नहीं हो कि मैं तुम पर दबाव डालकर अपनी बात मनवा सकूँ, इसलिए मैंने तुम्हें सारी परिस्थितियाँ बता दीं, अब तुम्हें जो ठीक लगे वो करो।" माँ ने कहा।
"मम्मी, आपने बहुत अच्छा किया कि मुझे सबकुछ बता दिया, नहीं तो मुझसे गलती भी हो सकती थी। आपने मेरी राह आसान कर दी है।" कहते हुए नीलेश का गला भर आया; वह अपने आँसू छिपाते हुए कमरे से बाहर चला गया। आज उसे अपनी दुनिया उजड़ती हुई महसूस हो रही थी, वह जी भर कर रोना चाहता था, बार-बार उसकी आँखों के सामने अपरा का उदास चेहरा आ जाता। वह स्वयं को उसका अपराधी महसूस कर रहा था, अब उसमें साहस नहीं था कि वह अपरा का सामना कर पाता, उसके सवालों के जवाब दे पाता। वह उसके पापा से वादा करके आया था, अब कैसे जाएगा उनके सामने....तरह-तरह के सवाल उसके दिमाग में चल रहे थे, वह घर से निकलकर कब सड़क पर आ गया उसे पता नहीं, अब वह बेमकसद, अपने-आपसे लड़ता, अपने भीतर उठ रहे झंझावातों से लड़ता हुआ सड़क पर चलता जा रहा था.....क्या वह अपरा के बिना जी सकेगा? क्या अपरा उसकी मजबूरी समझ पाएगी? वह कैसे उसे समझाए? तरह-तरह के सवाल उसके दिल पर चोट कर रहे थे। अचानक उसे एक गेंद आकर लगी और उसकी तंद्रा भंग हो गई...
"सॉरी भइया...मेरी गेंद प्लीज़" कहते हुए एक बारह-तेरह साल का बच्चा नीलेश के सामने गेंद के लिए हाथ फैलाए खड़ा था, गेंद उसके पैर के पास पड़ी थी। उसने चौंककर इधर-उधर गरदन घुमाकर देखा तो अब तक सूरज अपना तेज समेट कर क्षितिज के अंक में समा चुका था। तिमिर गहराने लगा था; नीलेश को पार्क में बैठे काफी देर हो चुकी थी, वह अतीत की यादों में इस कदर खो चुका था कि समय का पता ही नहीं चला; इसका अहसास होते ही उसने अपनी यादों की गठरी समेटी और घर की ओर चल पड़ा।
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डी. ए. वी. पी. जी. कॉलेज के मेन गेट से दाईं ओर लगभग तीस-चालीस मीटर की दूरी पर एक पेड़ से पीठ टिकाए खड़ा था वो, वह यहाँ इसी अवस्था में पिछले लगभग एक घंटे से खड़ा था। पेड़ के पीछे उसने अपने आप को इस प्रकार छिपा रखा था कि कॉलेज से निकलने वाले हर शख्स को वह देख सके पर उस पर किसी की नजर न पड़े। अचानक गार्ड ने गेट खोला और एक लाल रंग की गाड़ी बाहर आई, ऐसे पहले भी वह कई गाड़ियों को गुजरते देखकर सावधान हुआ और फिर मायूस हो चुका था, इसीलिए इस बार उसने लापरवाही से गाड़ी की ओर देखा कि अचानक ही उसकी सारी इंद्रियाँ जाग्रत हो गईं; ड्राइविंग सीट पर अपरा को देखकर वह ऐसे उछलकर खड़ा हो गया मानो बिजली का नंगा तार छू लिया हो। वह अपनी गाड़ी की ओर लपका ताकि उसका पीछा कर सके पर अचानक ठिठक गया, अपरा के साथ संजना भी थी, जो कि उसे देख चुकी थी। उसने रोड के साइड में गाड़ी रुकवाई तब तक नीलेश उसके पास पहुँच चुका था।
"आप यहाँ?" संजना ने आश्चर्यचकित होकर पूछा।
"तुम्हें लेने आया था, तुम्हारा फोन नहीं लग रहा था तो सोचा यहीं इंतजार कर लूँ, फिर तुम्हें जाते देख रोकने के लिए ऐसे भागना पड़ा।" नीलेश ने बोलते हुए अपरा की ओर देखा, उसे लगा कि उसके चेहरे पर क्रोध या घृणा के भाव होंगे; पर वह उसके चेहरे के भाव पढ़ पाने में असक्षम रहा। वह निर्विकार उसकी ओर देख रही थी, उसके मन में क्या चल रहा था यह समझ पाना नीलेश के लिए संभव न था। वह अपराध बोध से दबा जा रहा था, परंतु इस वक्त संजना की उपस्थिति में माफी भी नहीं मांग सकता था।
संजना गाड़ी से नीचे उतर आई और अपरा को बाय बोलकर अपनी गाड़ी की ओर चल दी। अपरा ने गाड़ी स्टार्ट की और चल दी, पर नीलेश उसे वहीं खड़ा तब तक देखता रहा जब तक उसकी गाड़ी दिखाई दी, इस समय वह ये भी भूल गया कि उसकी पत्नी गाड़ी के पास खड़ी उसका इंतजार कर रही थी। वह धीरे-धीरे थके हुए कदमों से अपनी गाड़ी के पास आया और संजना को लेकर घर की ओर रवाना हुआ। अब उसके मस्तिष्क में अपरा से मिलने की नई योजना के ताने-बाने बुने जा रहे थे। वह संजना को धोखा नहीं देना चाहता, इन चार वर्षों में उसने पूरी कोशिश की थी कि संजना को भरपूर प्यार दे, परंतु वह उसे अपरा का स्थान कभी न दे पाया, वह संजना की मम्मी, उसकी भाभी और भतीजे का पूरा खयाल रखते हुए अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाता रहा है, पर संजना को वो प्यार न दे सका जिसकी वो हकदार है, इसीलिए वो काम के बहाने अधिकतर बाहर ही रहता है। अब अपरा को देखकर वो खुद पर संयम खोता जा रहा है, उससे मिलकर बात करने के लिए उतावला हो रहा है। पिछले एक हफ्ते तक वह अपनी मम्मी के पास गई हुई थी इसलिए उस समय जैसे-तैसे इंतजार में समय काट दिया, पर अब मुशकिल हो रहा था। वह अपरा के लिए ही तो अब तक रुका हुआ है, नहीं तो एनीवर्सरी के दूसरे दिन ही चला गया होता। अब उसके पास अपरा के घर जाने के अलावा कोई और उपाय न था, इसके लिए उसे उसके घर का पता लेना होगा। उसका पता तो उसे संजना ही दे सकती है, पर कैसे? सोचते हुए वह घर पहुँच गया।

स्टडी रूम में अपरा पुस्तक के पन्ने पलट रही थी परंतु पढ़ कुछ नहीं रही थी, उसके दिलो-दिमाग में बस नीलेश हावी था, उसे बार-बार संजना की बात याद आ रही थी कि उसका पति यानि नीलेश अधिकतर बाहर ही रहता है.... और दोनों का रिश्ता शायद किसी दबाव में हुआ था, संजना और नीलेश के बीच रस्मों का, सात फेरों का रिश्ता है, प्यार का नहीं। तो क्या नीलेश आज भी मुझे प्यार....छिः छिः क्या सोचने लगी मैं। ऐसी बात मेरे दिमाग में आ भी कैसे सकती है। सोचते हुए अपरा सामने खुली मैगजीन पढ़ने लगी परंतु उसके मस्तिष्क में फिर नीलेश का चेहरा घूमने लगता। तभी पास ही रखा हुआ उसका मोबाइल बज उठा, उसने देखा कोई अनजाना नम्बर था, उसने फोन उठाया...."हैलो"..
दूसरी ओर से कोई आवाज नहीं आई।
वह फिर बोली- "हैलो!"
"अपरा!" दूसरी ओर से आवाज आई।
अपरा की आवाज गले में ही रुक गई, उसका पूरा वज़ूद सूखे पत्ते सा काँप गया, उसे समझ नहीं आया कि उसकी ऐसी हालत क्यों हो रही है? वह बात कैसे करे और उससे क्या बात करे? वह कुछ समझ नहीं पा रही थी। क्या अब उसका नीलेश से बात करना ठीक होगा?
"अपरा, प्लीज़ फोन मत काटना, मैं तुमसे बात करना चाहता हूँ, क्या मिल सकती हो मुझसे?" नीलेश की आवाज आई।
"अब क्या बात करनी है नील...सॉरी नीलेश?" अपरा की आवाज में रोष के साथ-साथ शिकायत भी थी।
"प्लीज़ अपरा! एक बार मिल लो, उसके बाद चाहे कभी मेरी बात न सुनना पर आखिरी बार मुझे मेरी बात कह लेने दो, प्लीज़!" नीलेश की  बार-बार याचना सुनकर अपरा का हृदय पसीज गया।
वह बोली "ठीक है पर...." उसे समझ नहीं आया कि क्या बोले इसलिए उसने अपनी बात अधूरी छोड़ दी।
"तो मैं शाम को तुम्हारे घर आ जाऊँ?" नील की आवाज में बच्चों-सा उत्साह झलक रहा था, एक पल को अपरा भूल ही गई कि अब उसका  नीलेश से कोई रिश्ता नहीं है, उसका उत्साह और बेचैनी महसूस करके उसके होठों पर भी मुस्कान तैर गई लेकिन अगले ही पल सच्चाई का भान होते ही उसकी आँखें भर आईं। उसके मुँह से बमुश्किल निकला..."ह् हाँ"
कहकर अपरा ने फोन कट कर दिया।
**** *** *** *** *** *** *** *** *** ****

"दीदी, आपसे मिलने कोई आए हैं!" लक्ष्मी ने स्टडी-रूम का दरवाजा थोड़ा-सा खोलकर कहा।
"हाँ मैं आती हूँ, उन्हें बैठाओ।" अपरा ने कहा।
नीलेश से बात होने के बाद से वह कमरे से बाहर नहीं आई थी। उसने पुस्तकें उठाकर जगह पर रखीं और लिविंगरूम में आई। सोफे पर बैठे आगंतुक की पीठ दरवाजे की ओर थी, अपरा ने सामने आकर अभिवादन के लिए हाथ जोड़ने के लिए उठाए ही थे कि नीलेश को देखकर उसके हाथ यथास्थान रुक गए, कुछ पलों के लिए दोनों एक-दूसरे की आँखों में इस तरह खो गए कि उन्हें लक्ष्मी का कमरे में आना पता ही न चला,
"साहब जी पानी" लक्ष्मी ने कहा।
"नहीं लक्ष्मी, इन्हें हल्का सा गुनगुना पानी दो, इससे इन्हें जुकाम हो जाएगा।" अपरा बेखयाली में ही बोल पड़ी।
लक्ष्मी अचम्भित हो कर उसे देखने लगी, वहीं नीलेश को खुशी हुई कि अपरा को अब भी उसकी फिक्र है, उसे अब भी सब कुछ याद है। प्रत्यक्ष में उसने कहा- "हाँ मैं ठंडा पानी नहीं पीता।"
लक्ष्मी चली गई। अपरा सामने ही बैठ गई, वह चुप थी मन में न जाने कितने सवाल और शिकायतें बार-बार उभरते, कंठ तक आते और जिह्वा तक आते-आते दम तोड़ देते; वह चाहकर भी कुछ नहीं बोल पा रही थी।
"कुछ बोलोगी नहीं अपरा?" नीलेश ने कहा।
"क्या बोलूँ?" वह इस प्रकार बोली मानो कहना चाहती हो कि तुमने बोलने लायक ही कहाँ छोड़ा।
"कुछ नहीं तो शिकायत ही करो, मुझे कोसो, डाँटो कुछ तो कहो; तुम्हारा अपराधी हूँ मैं।" नीलेश बोला।
लक्ष्मी पानी रखकर चुपचाप चली गई।
"कुछ भी कहने का कोई फायदा है मिस्टर नीलेश?" अपरा की आवाज तल्ख़ हो गई।
"तुम मुझे सिर्फ नील कहो प्लीज़, इतना अधिक परायापन मैं सह नहीं पाऊँगा।" दुख की परछाई नीलेश की आवाज के साथ-साथ उसकी आँखों में भी तैर गई।
"तुम मेरे अपने तो कभी थे ही नहीं नीलेश, मैं ही भ्रम में जी रही थी, खैर भ्रम का परदा तो कब का छँट गया, अब मैं जागृत अवस्था में हूँ। आज मैं तुमसे बात भी इसलिए कर रही हूँ क्योंकि तुम मेरी सहेली के पति हो।" अपरा को अपनी ही आवाज किसी गहरे कुएँ से आती महसूस हो रही थी, वह समझ नहीं पा रही थी कि वह चाहकर भी खुद को सामान्य क्यों नहीं रख पा रही थी? क्यों वह अपने-आप को इतनी कमजोर महसूस कर रही थी?
"ठीक है अपरा, फिर अपनी सहेली के पति के नाते ही सही, तुम मेरी मज़बूरी सुन लो; फिर मुझे माफ करना या न करना तुम्हारे ऊपर है, प्लीज़!" नीलेश लगभग गिड़गिड़ा ही तो पड़ा था।
"ठीक है, कहो, मैं भी तो सुनू कौन-सी मजबूरी थी तुम्हारी!" अपरा ने कहा।
नीलेश ने एक गहरी सांस ली और अपरा को अपने पापा के हार्ट-अटैक से लेकर अपनी शादी तक की सभी बातें विस्तार से बता दी। अपरा की आँखों से लगातार आँसुओं की बरसात होती रही। लक्ष्मी कब चाय रखकर चली गई थी दोनों को याद नहीं।
"मैंने उत्तरदायित्व निभाने के लिए शादी तो कर ली अपरा, पर आज तक मैं तुम्हारी जगह संजना को नहीं दे सका, वो बहुत अच्छी है, कभी कोई शिकायत नहीं करती पर फिर भी है तो इंसान ही न! उसके भी अरमान होंगे। मैं अपराधबोध से दबा रहता हूँ, तुम्हारा भी अपराधी हूँ और संजना का भी।"
"पर तुम्हें चाहे फोन करके ही सही, बताना तो चाहिए था नील! संजना ने शिकायत तो की पर उसे ही अपनी यह शिकायत बेजान लगी। क्या वैसी परिस्थिति में वो बता सकती थी? शायद...नहीं।
"कैसे बताता मैं अपरा....मुझमें इतना साहस नहीं था। मैं आइना देखते हुए भी घबराता था, जब भी आइने के सामने खड़ा होता तो खुद की शक्ल से नफरत सी होती थी।" नीलेश के चेहरे पर पश्चात्ताप के भाव साफ देखे जा सकते थे साथ ही आँखों में सुकून भरी खुशी जो शायद इस अनुमान के कारण थी कि अपरा अब उसे क्षमा कर देगी या शायद इस विचार से कि अब वह अपरा के नजदीक रह सकेगा।
नीलेश! बीती बातों को भूल जाओ, संजना बहुत अच्छी है उसे उसके हिस्से के प्यार से महरूम मत करो.....
न् नील! अचानक आई इस आवाज को सुनकर नीलेश ऐसे खड़ा हो गया मानों बिजली का नंगा तार छू लिया हो.. अपरा को लगा कि उसके कानों को धोखा हुआ है, मुड़कर पीछे देखा तो दरवाजे पर संजना खड़ी थी, आँखों से झरते आँसू सब कुछ बयाँ कर रहे थे.....
#मालतीमिश्रा

मंगलवार

'माँ' तो बस माँ होती है।
संतान हँसे तो हँसती है
संतान के आँसू रोती है,
अपनी नींद तो त्याग दिया
संतान की नींद ही सोती है
'माँ' तो बस 'माँ' होती है।

संतान की पहचान बनाने में
अपना अस्तित्व जो खोती है
उसके भविष्य की ज्योति में
अपना अाज जलाती है
खुद के सपने त्याग के वो
संतान के स्वप्न संजोती है
'माँ' तो बस माँ होती है।

घने पेड़ की छाया से भी
अधिक शीतल माँ का आँचल
कष्टों के निष्ठुर घाम में भी वह
ममता से ढक लेती है
सूखे बिस्तर पर पुत्र सुलाती
खुद गीले में सोती है
'माँ' तो बस माँ होती है।
#मालतीमिश्रा

शुक्रवार

हमारे प्रधानमंत्री कहते हैं कि आर्थिक रूप से समर्थ लोग अपनी गैस सब्सिडी छोड़ दें ताकि गरीबों की मदद हो सके, बहुतों ने किया भी, इस बात को देखकर जहाँ खुशी होती है वहीं दूसरी ओर ये देखकर दुख भी होता है कि हमारे समाज में आर्थिक रूप से सम्पन्न ऐसे भी लोग हैं जो सर्वसंपन्न होते हुए भी गरीबों का हक मारने में नहीं चूकते।
देखने में आता है कि वो वृद्ध महिला जिनके नाम करोड़ों की प्रॉपर्टी हो और बतौर किराया  जिसकी खुद की मासिक आय 50-60 हजार रूपए हों, जिनपर उनकी इच्छा के विरुद्ध किसी बेटे-बेटी का अधिकार न हो, उन्हें वृद्धा पेंशन की क्या आवश्यकता? यदि वो इसे छोड़ दें तो क्या ये धन किसी गरीब के काम नहीं आएगा? सरकार को एलिजिबिलिटी तय करने के पैमाने के साथ-साथ जनता से इस बात की अपील भी करनी चाहिए।
#मालतीमिश्रा
क्या चाह अभी क्या कल होगी
नही पता मानव मन को
चंद घड़ी में जीवन के
हालात बदल जाते हैं
पल-पल मानव मन में
भाव बदलते रहते हैं
संग-संग चलने वालों के भी
ज़ज़्बात बदल जाते हैं।

जुड़े हुए होते हैं जिनसे
गहरे रिश्ते जीवन के
टूटी एक कड़ी कोई तो
रिश्तों से प्यार फिसल जाते हैं
स्वार्थ का बीज अंकुर होते ही
काली परछाई घिर आती
प्रेम संगीत गाती वीणा के
तार बदल जाते हैं।
#मालतीमिश्रा

गुरुवार

अधूरी कसमें

 बाहर कड़ाके की ठंड थी, सुबह के साढ़े नौ बज चुके थे अपरा अभी भी रजाई से नहीं निकली थी। रविवार है तो ऑफिस की छुट्टी थी इसीलिए छुट्टी का भरपूर आनंद उठाना चाहती थी सुबह देर तक सोकर, पता नहीं कैसे कुछ लोग दस ग्यारह बजे तक सोते हैं! मेरी तो कमर दुखने लगी सोचती हुई वह उठ कर बैठ गई और रजाई गले तक खींच लिया। तभी लक्ष्मी आ गई। "अच्छा है लक्ष्मी कि मेन गेट की चाबी तुम्हारे पास थी नहीं तो मुझे गेट खोलने जाना पड़ता इतनी ठंड में।"
"हाँ दीदी बाहर तो बहुत ठंह है, कुहरा इतना कि चार-पाँच मीटर आगे की चीज दिखाई न दे, हाथ में पकड़े अखबार को बेड के साइड टेबल पर रखती हुई लक्ष्मी ने कहा। लेकिन आज आपने हॉल का भी दरवाजा बंद नहीं किया?" लक्ष्मी ने कहा
"अरे नहीं,.... किया था, लेकिन सुबह पाँच बजे उठने की आदत है न, तो आज भी आँख खुल गई, तभी मैंने हॉल का गेट खोल दिया ताकि तुम आओ तो मुझे रजाई से निकलकर दरवाजा खोलने न जाना पड़े।" अपरा ने कहा।
"तभी मैं सोचूँ कि आज आप भूल कैसे गईं।" कहती हुई लक्ष्मी किचन की ओर चली गई।
अपरा अखबार उठाकर उसके पन्ने पलटने लगी। कुछ ही देर में लक्ष्मी चाय दे गई अब वह चाय पीते हुए अखबार पढ़ने लगी।

छुट्टी होने के बावजूद सर्दी की अधिकता की वजह से आज उसका कहीं बाहर जाने का मन नहीं हुआ, रुम-हीटर के ताप से गर्म हो चुके लिविंग रुम में सोफे पर बैठे-बैठ टी०वी० देखते हुए ही वह लैपटॉप से ही ऑन लाइन शॉपिंग कर रही थी तभी डोरबेल बजी लक्ष्मी ने मुख्यद्वार खोला और तभी रूम का दरवाजा खुलते ही एक खनकती सी आवाज आई "हैल्लो अपरा हाऊ आर यू?"
"हे संजना तुम! कैसी हो? कहती हुई अपरा खड़ी हो गई और उससे गले मिलकर स्वागत की औपचारिकता निभाते हुए उसे सोफे पर बैठाया और खुद उसके सामने वाले सोफे पर बैठती हुई बोली- "और बता कैसी चल रही है 'मिसेज' संजना वाली लाइफ?"
"बस पूछ मत यार! मेरी मान तो अब तू भी शादी कर ही ले।" जीवन किसे कहते हैं ये तो शादी के बाद ही पता चलता है।" संजना चहकती हुई सी बोली।
"ये तो लक की बात है संजना, तेरा लक अच्छा है कि तू आज शादी के चार साल बाद भी खुश हैं, वर्ना मैंने तो ऐसे लोग भी देखे है जो शादी के बाद आजाद और खुश रहना भूल जाते हैं, ससुराल वालों को खुश रखने की कोशिश में तो लड़की की अपनी लाइफ तो बस खत्म ही हो जाती है, पति की अपनी जरुरत तो सास की अपनी अलग, ननद की अलग फरमाइश तो देवर-जेठ के अलग। बहू की तो अपनी कोई ख्वाहिश और जरूरत तो मानो रह ही नहीं जाती, बस दूसरों की जरूरतें"...
"सो तो है, बट आय एम वेरी लकी।" संजना ने लापरवाही से कंधे उचकाते हुए कहा लेकिन उसकी आँखें कुछ और ही कह रही थीं जो शायद वह लापरवाही की आड़ में छिपाना चाहती थी।
तभी लक्ष्मी ने कमरे में प्रवेश किया उसके हाथ में ट्रे थी। ट्रे को टेबल पर रखकर उसने रोस्टेड काजू की प्लेट संजना की ओर सरकाया और  केतली से चाय दो कपों में डाली और मेज पर रखकर चली गई।
चाय की चुस्की लेते हुए संजना बोली- अच्छा ये बता शाम को क्या कर रही है?
क्यों? अपरा ने पूछा।
"शॉपिंग के लिए चलते हैं न" संजना बोली
"शॉपिंग के लिए मेरे साथ! तेरे हबी कहाँ हैं?"
"वो बिजनेस के सिलसिले में आउट ऑफ स्टेशन हैं, तभी तो बोर हो रही हूँ।" कहते हुए संजना उदास हो गई।
"अरे तो मैडम इसमें उदास होने की क्या बात है! चलो आज की शाम सखी के नाम, और मुझे भी तो कंपनी मिल गई।" अपरा ने मुस्कराते हुए कहा। उसे अब भी ऐसा महसूस हो रहा था कि संजना कुछ छिपा रही है पर वह पूछ कर अंजाने ज़ख्म कुरेदना नहीं चाहती थी।

शाम के साढ़े सात बज चुके थे जब अपरा घर वापस आई। आज काफी दिनों के बाद अपरा पूरे मार्केट में घूमी, वह अक्सर अकेले ही मार्केट आया करती थी और जरूरत की चीजें तय दुकानों या शोरूम से खरीद कर वापस चली जाती। आज संजना के साथ वह आवश्यकता न होते हुए भी पूरी मार्केट घूमी और खूब खरीदारी की। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि दोनों ही एक-दूसरे की आड़ में अपना अकेलापन दूर करने की कोशिश कर रही थीं। अपरा ने कई बार महसूस किया कि संजना ने जितनी भी खरीदारी की, सिर्फ अपने लिए की। जहाँ तक उसे पता है कि संजना अपने पति को बहुत प्यार करती है फिर भी उसका पूरी शॉपिंग के दौरान अपने पति का ज़िक्र तक न करना और न ही उसके लिए कुछ खरीदना अपरा को असामान्य लगा। खैर! उसका अपना जीवन है मैं क्या कर सकती हूँ? और जरूरी तो नहीं कि मैं जो सोच रही हूँ वही सही हो! क्या पता संजना के पति को संजना की पसंद ही न भाती हो। सोचती हुई अपरा बाथरुम में हाथ मुँह धोने घुसी तभी लक्ष्मी की आवाज आई-
"दीदी कहाँ हो?"
"बोलो लक्ष्मी, मैं यहाँ हूँ।" अपरा ने बाथरूम के भीतर से ही उत्तर दिया।
"आपका फोन बज रहा है।" कहती हुई लक्ष्मी मोबाइल कमरे में टेबल पर रखकर चली गई।
अपरा ने जल्दी-जल्दी हाथ मुँह तौलिए से पोंछ कर ज्यों ही फोन उठाने को लपकी तब तक फोन कट गया। किसका फोन था? सोचती हुई अपरा ने कॉल चेक किया, ये तो माँ की कॉल थी। उसने तुरंत माँ को फोन लगाया।
हैलो! दूसरी ओर से आवाज आई।
"माँ, कैसी हो आप? आपके घुटनों का दर्द कैसा है?" अपरा ने बिना रुके एक ही सांस में पूछ लिया।
"मैं तो ठीक हूँ, रही घुटनों की बात तो बीमारी और बुढ़ापे का चोली-दामन का साथ होता है। अब तुम बताओ घर कब आ रही हो, कितने ही साल हो गए बेटा अपनी जड़ों से इस तरह से कटा नहीं जाता जैसे कि कभी कोई रिश्ता ही न रहा हो।" माँ की आवाज भर्रा गई।
"म्माँ तुम ठीक तो हो न!" अपरा को न जाने क्यों बेचैनी महसूस हुई। आवश्यक नहीं कि मनुष्य किसी को अपने समक्ष दुखी देखकर ही उसके दुख महसूस करे, कभी-कभी ऐसा भी होता है कि आँखों देखी परिस्थितियाँ या घटनाएँ भी उतनी असरदार नहीं होतीं जितनी कि दूर रहते हुए बिना देखे हो जाती हैं और ऐसा तब होता है जब दिलों के तार जुड़े हों, अर्थात रिश्तों की गहराई ही भावनाओं का मापदंड तय करती है। इस समय माँ के कहे बिना अपरा का हृदय उनके हृदय के संताप को महसूस कर रहा था, उसका जी चाह रहा था कि अभी उड़कर माँ के पास पहुँच जाए।
"हाँ मैं ठीक हूँ, बस तुम्हारी बहुत याद आ रही थी, बहुत समय हो गया तुम्हें देखा नहीं।"
मैं आऊँगी माँ, जल्द ही आऊँगी, तुम अपना ध्यान रखो।" कहकर अपरा ने फोन डिस्कनेक्ट किया। माँ की आवाज में छिपी मायूसी को अपरा बखूबी महसूस कर रही थी, उसका भी तो मन कर रहा था कि उड़कर माँ के पास पहुँच जाए आखिर कब तक अपने अतीत से भागते हुए वर्तमान को नज़रअंदाज करेगी....कड़वी यादों को भूलकर क्यों नहीं सच्चाई का सामना करती? सोचती हुई वह कब अतीत की गलियों में भटकने लगी उसे पता ही न चला.....
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अपरा बालकनी में खड़ी तौलिया से बाल सुखा रही थी, सूरज की गुनगुनी सी धूप उसके सुडौल छरहरी काया को सहला रही थी। सुनहरी धूप की चमक से उसका गोरा रंग सोने सा दमक रहा था उसपर हल्के नारंगी रंग की कुरती सफेद पजामी और सफेद शिफॉन का दुपट्टा तो जैसे सोने पे सुहागा। इस समय सुबह के धूप की किरणों में लिपटी स्वर्णिम आभा बिखेरती स्वर्ण परी सी प्रतीत हो रही थी। अचानक उसे महसूस हुआ जैसे कहीं कोई दो आँखें उसे लगातार घूर रही हों, उसने अपनी गरदन घुमाई तो देखा कि सामने वाले मकान से दाईं ओर दो घर छोड़ कर तीसरे घर की बालकनी में खड़ा नीलेश उसे एकटक देख रहा था, उसकी आँखों में मौन शरारत तैर रही थी, अपरा से नजर मिलते ही उसने तर्जनी अंगुली और अंगूठे को मिला कर हाथ से इशारा किया कि वह बहुत सुंदर लग रही है, अपरा झेंप गई, नीलेश की आँखों में न जाने क्या था कि शर्म से उसके गाल सिंदूरी हो गए, वह बिना एक पल रुके बड़ी तेजी से कमरे में चली गई। नीलेश भी मुस्कराता हुआ अपने कमरे में चला गया, परंतु दोनों ही अंजान थे कि उनका यह मूक प्रेमालाप कहीं से दो और आँखें भी देख रही थीं।

लगभग डेढ़ साल हो गए जब नीलेश यहाँ आया था, इस कस्बे से कोई एक-डेढ़ मील की दूरी पर एक नई फैक्ट्री की नींव रखी गई थी, तभी नीलेश उसी फैक्ट्री का इंजीनियर बनकर आया और यहाँ अपरा की सहेली नीलिमा के घर किराये पर रहने लगा। अपरा जब भी अपनी सहेली के घर जाती तो अक्सर नीचे बैठक में उसकी मुलाकात नीलेश से भी हो जाती। वे लोग आपस में बातें करते तो नीलेश के सामान्य ज्ञान के स्तर से प्रभावित हुए बिना वह न रह सकी। सामाजिक, राजनीतिक या ऐतिहासिक कैसे भी प्रश्न हों नीलेश के पास लगभग सभी प्रश्नों के उत्तर मिल जाते। वही क्यों नीलिमा के घर में भी सभी उसे अपने बेटे की तरह मानने लगे थे, यह उसका व्यवहार कौशल और ज्ञान ही था जिसने उसे सर्वप्रिय बना दिया था। धीरे-धीरे नीलेश का व्यक्तित्व कब अपरा के मनो-मस्तिष्क पर हावी हो गया अपरा को भी पता न चला। अब वह सुबह उठते ही पहले खुद को आइने में देखकर अपना हुलिया ठीक करती फिर बालकनी में आती और नीलेश की एक झलक पाने का इंतजार करती। उधर नीलेश का भी यही हाल था। जब दोनों एक-दूसरे को देख लेते तो मानो पूरे दिन की ऊर्जा मिल जाती और अपने-अपने काम में व्यस्त हो जाते। संध्या होते-होते यह ऊर्जा समाप्त होने लगती और दोनों को फिर इंतजार रहता बालकनी पर निकलने वाले चाँद का।
धीरे-धीरे दोनों की मुलाकातें बढ़ने लगीं, दोनों कभी नीलिमा के घर पर, कभी पार्क में तो कभी कहीं और छिप-छिप कर मिलने लगे। दोनों ने साथ जीने-मरने की कसमें खाईं। अब दोनों दूर होते हुए भी कभी बालकनी में खड़े होकर एक-दूसरे को तकते रहते तो कभी फोन पर बातें करते, कभी एक-दूसरे को प्रेम पाती लिखते, कभी प्रत्यक्ष तो कभी अप्रत्यक्ष एक-दूसरे के साथ एक-दूसरे के ख़यालों में खोए रहते। उनका यह प्रेम-प्रसंग अधिक दिनों तक अपरा के माता-पिता और नीलिमा के माता-पिता से छिपा न रह सका। परिणामस्वरूप आज अपरा के पापा नीलिमा के घर जाने वाले हैं नीलेश से बात करने कि वह अपने माता-पिता से उन्हें मिलवा दे ताकि दोनों की शादी की बात की जा सके। यह सब माँ ने अपरा को बता दिया था, इसलिए अपरा मन ही मन अधिक उत्साहित हो रही थी। उसे न तो खाने-पीने का ख़याल था न ही किसी अन्य काम में मन लग रहा था। माँ-पापा के सामने जाने से बच रही थी। आज का दिन बहुत ही बड़ा महसूस हो रहा था, पता नहीं कब शाम होगी और पापा नीलेश से बात करेंगे... उसने नीलेश को भी फोन पर पूरी बात न बता कर सिर्फ इतना ही बताया कि आज शाम को उसे सरप्राइज मिलने वाला है। नीलेश आज शाम को जल्दी आ गया उसे भी सरप्राइज का बड़ी बेसब्री से इंतजार था।

शाम हुई मम्मी और पापा नीलिमा के घर गए हुए थे, अपरा बार-बार बालकनी में आती ये देखने के लिए कि माँ-पापा नीलिमा के घर से निकले या नहीं, वो वहाँ से निकलें तभी वह नीलेश से बात कर पाएगी। अचानक किसी ने नीचे बैठक के गेट पर दस्तक दी, उसने जाकर दरवाजा खोला। "मुबारक हो!" कहती हुई नीलिमा झट से उसके गले लग गई।
"उसने क्या कहा? उसके माँ-बाप को ऐतराज तो नहीं होगा?" अपरा ने बेचैनी से पूछा।
"अरे पगली, 'जब मियाँ-बीबी राजी तो क्या करेगा काजी' आखिर वो भी तो तुझसे शादी करने के लिए उतावला हो रहा है, उसने कहा कि वो कल ही फोन करके अपने मम्मी-पापा को यहीं बुलाएगा ताकि बड़े लोग आपस में बात कर लें।" नीलिमा ने कहा।
"मैं बता नहीं सकती कि मैं कितनी खुश हूँ; भगवान ने बिन माँगे मेरी मुराद पूरी कर दी, सचमुच बहुत भाग्यशाली हूँ मैं कि मुझे कुछ कहना भी नहीं पड़ा और मम्मी-पापा ने मेरी झोली खुशियों से भर दी।" कहते हुए अपरा का गला भर आया।
"माँ-बाप ऐसे ही होते हैं पागल, अब तू ज्यादा भावुक मत हो अब तो खुशियाँ मना और शादी की तैयारी कर।" नीलिमा ने उसके दोनों कंधों पर हाथ रखकर धीरे से थपकते हुए कहा।
दोनों सखियाँ आपस में बड़ी देर तक बातें करती रहीं एक-दूसरे को छेड़ती रहीं। रात अधिक होने पर नीलिमा चली गई तभी माँ ने अपरा को खाने के लिए बुलाया।
"नीलिमा ने तो तुम्हें सबकुछ बता ही दिया होगा", खाना लगाते हुए माँ ने कहा।
"हाँ" अपरा ने छोटा सा जवाब दिया।
"तो बस अब नीलेश के माता-पिता का इंतजार करते हैं, वो आ जाएँ तो बात पक्की कर लेंगे।" माँ ने भी अपनी ओर से जैसे बताने की औपचारिकता पूरी कर दी हो। वह उदास लग रही थीं, अपरा का दिल घबराया कि कहीं कुछ ऐसा तो नहीं, जो माँ को परेशान कर रहा हो। उसने संकोच को छोड़कर पूछा- "क्या हुआ माँ, कोई परेशानी वाली बात है क्या?"
"नहीं परेशानी कैसी बेटा" माँ ने कहा।
"फिर आप उदास क्यों हैं?" अपरा ने कहा
"हर बेटी की माँ के जीवन में ये पल तो आता ही है बेटा कि अपनी ही संतान परायी होने लगती है ऐसे में जहाँ माँ-बाप को संतुष्टि मिलती है वहीं दुख भी होता है, पर इस दुख में सुख छिपा होता है बेटा, इसलिए तू फिक्र मत कर, चल अब  खाना खा।" कहते हुए माँ ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा। अपरा ने सिर झुकाकर अपनी आँख में आए आँसुओं को छिपाने का प्रयास किया और माँ के मुड़ते ही झट से आँखें पोंछ लीं।
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सुबह के सूरज ने अभी पूरी तरह से आँखें भी नहीं खोली थीं कि अपरा बालकनी में आ गई, आज उसने आइने में खुद को देखकर अपना हुलिया भी ठीक नहीं किया, नीलिमा की बालकनी की ओर देखा तो सूनापन जैसे फन फैलाए खड़ा था। वह बहुत देर तक उसी मुद्रा में खड़ी रही मानो अभी नीलेश अपनी उँगलियों से अपने बालों में कंघी करता हुआ कमरे से बाहर निकलेगा और उसकी ओर देखकर इशारे से कहेगा कि तुम बहुत सुंदर लग रही हो। पिछले पंद्रह दिनों से रोज वह ऐसे ही बालकनी में आती और मायूस होती। अचानक नीलिमा बालकनी में आई, अपरा का दिल एकदम से बड़ी जोर से धड़का, उसे लगा कि नीलेश आ गया पर नीलिमा को देखकर वह फिर मायूस हो गई। नीलिमा ने बिन पूछे ही 'नहीं' के संकेत में गरदन हिलाया मानो अपरा की आँखों में तैरते सवाल को समझ गई हो। अपरा की आँखें छलक उठीं; वह दौड़कर कमरे में आ गई और पलंग पर गिर पड़ी, तकिए में मुँह छिपाए बड़ी देर तक रोती रही। अब धैर्य का दामन छूटने लगा था, उसका विश्वास टूटने लगा था।
माँ-पापा के बात करने के दूसरे दिन ही नीलेश ने अपने घर पर फोन किया था और मम्मी को सबकुछ बता कर पापा के साथ आने के लिए कहा था। तभी उसकी मम्मी ने उसके पापा की तबियत खराब होने की बात कहकर कुछ दिनों के लिए उसे बुला लिया था। जाने से पहले नीलेश अपरा के घर आया था और मम्मी पापा के पैर छूकर अपने मम्मी-पापा के साथ आने का वादा करके गया था। अपरा ने उसे मूक रहकर विदाई दी तथा आँखों ही आँखों में कहा था अपना ख़याल रखना और जल्दी आना। जाते हुए नीलेश बहुत उदास था उसकी मज़बूरी  उसके चेहरे पर साफ-साफ देखी जा सकती थी।
अपने घर पहुँचते ही नीलेश ने अपरा को फोन करके बताया था कि वह ठीक से पहुँच गया है। उसे अपरा के बिना सब कुछ सूना लग रहा था। उसने अपरा के पापा से भी बात की थी और जल्दी ही आने का वादा किया था।
दूसरे दिन फिर फोन करके उसने बताया था कि पापा की तबियत अभी ज्यादा खराब है, ठीक होते ही वह मम्मी-पापा के साथ आएगा। इधर अपरा से भी नीलेश से दूरी असहनीय हो रही थी, मन में न जाने कैसे-कैसे ख़याल आते। उसने नीलेश से फोन पर कहा भी कि उसके माँ-पापा खुश तो हैं न..वो नाराज तो नहीं? कहीं वो अपरा के लिए मना तो नहीं कर देंगे....
"अरे पगली ये सब डर अपने मन से निकाल दो, यहाँ सब राजी हैं बस पापा ठीक हो जाएँ फिर हम आते हैं।" नीलेश ने अपरा को समझाया था। अपरा भी आश्वस्त हो गई पर न जाने क्यों उसे नीलेश की आवाज में वो गर्मजोशी नहीं महसूस हुई जो अबसे पहले हुआ करती थी।  मैं तो सचमुच पागल हूँ ख़ामख़्वाह शक कर रही हूँ, वो बेचारा अपने पापा की बीमारी से परेशान होगा और एक मैं हूँ जो स्वार्थ में अंधी हुई जा रही हूँ। अपरा ने खुद को समझाया। धीरे-धीरे समय बीतने लगा, बीतते समय के साथ-साथ नीलेश के फोन आने कम होने लगे। अपरा फोन करती तो व्यस्तता की बात कहकर मजबूरी दर्शाता, उसकी आवाज में पहले की तरह प्यार नहीं छलकता। अपरा की बेचैनी बढ़ती जाती थी। एक-डेढ़ हफ्ते के बाद तो फोन आने ही बंद हो गए। अपरा ने फोन किया तो फोन बंद था, वह बार-बार इसी उम्मीद से फोन करती कि शायद अब फोन लग जाए परंतु हर बार निराशा ही उसके हाथ आई। अब उसका मन न तो खाने-पीने में न सजने-सँवरने, न कुछ पढ़ने-लिखने में लगता, वह रोज सुबह उठते ही इस उम्मीद में बालकनी में खड़ी हो जाती कि शायद आज नीलेश वापस आ गया होगा परंतु निराश होकर पूरे दिन रोती रहती। उसकी इस बिगड़ती मनोदशा को देख उसके पापा नीलिमा के पापा के साथ फैक्ट्री गए, वहाँ जाकर उन्हें जो कुछ भी ज्ञात हुआ उससे तो उनके पैरों तले की जमीन ही खिसक गई।
उनका मायूस चेहरा देखकर अपरा की आँखें बरस पड़ीं। "क्या हुआ जी कुछ पता चला?" माँ ने पूछा।
"भूल जाओ उसे, धोखेबाज है वो, तबादला करवा लिया उसने अपना यहाँ से।" अपरा की ओर देखते हुए वो क्षुब्ध होते हुए बोले। माँ ने रोती हुई अपरा को सीने से लगा लिया और बिना कुछ बोले पीठ सहलाते हुए उसे सांत्वना देने लगीं। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि उसे क्या कहकर समझाएँ, वह जानती हैं कि अपरा नीलेश को कितना प्यार करती है।
"आज जी भरकर रो ले बेटा लेकिन आज के बाद उस धोखेबाज के लिए तेरी आँखों में आँसू नहीं आने चाहिए, नहीं तो मैं समझूँगा कि माँ-बाप का तेरे जीवन में कोई अस्तित्व नहीं।"  पापा ने अपना क्रोध पीते हुए अपरा के सिर को सहलाते हुए कहा। एकाएक अपरा की रुलाई रुक गई.. क्या सचमुच आज उसके जीवन में नीलेश के अलावा कुछ नहीं...क्या वो उसके माँ-पापा से अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया...क्या उसके समक्ष उसके मम्मी-पापा का कोई अस्तित्व नहीं? जिस इंसान ने उसे धोखा दिया वो रोज उसके लिए सुबह-सुबह बालकनी में जाकर खड़ी हो जाती है, उसे अपनी सुध-बुध नहीं रहती, रोज घंटों रोती रहती है....उसने कभी नहीं सोचा कि उसकी यह दशा देखकर उसके मम्मी-पापा पर क्या बीतती होगी! कितनी स्वार्थी हो गई है वो, और किसके लिए.. उस धोखेबाज, बेवफा इंसान के लिए जिसे उसकी कोई परवाह ही नहीं।
अब वो ऐसा नहीं करेगी, अब मम्मी-पापा को बिल्कुल दुखी नहीं करेगी। सोचते हुए उसने अपने आँसू पोछे और बोली - "सॉरी पापा मैंने आप लोगों को बहुत दुखी किया पर आज मैं प्रॉमिस करती हूँ अब मैं आपको और दुखी नहीं करूँगी, अब से आप मुझे नीलेश के लिए कभी रोते नहीं देखेंगे। किसी धोखेबाज इंसान के लिए मैं आप लोगों को दुख नहीं दे सकती, मैं स्वार्थी हो गई थी, सिर्फ अपने बारे में सोच रही थी, मैंने कभी सोचा ही नहीं कि मेरी ऐसी दशा देखकर आप लोगों पर क्या बीतती होगी। आय एम सॉरी।"
"बेटा! हमारी तो खुशी तुम्हारी खुशी में ही है, हमारे वश में हो तो हम तो आसमान से तारे भी तोड़ लाएँ पर जिस पर हमारा वश ही न चले उसका क्या करें।"  पापा ने प्यार से सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।
वही आखिरी समय था जब घर में नीलेश की चर्चा हुई थी; अगली सुबह का सूरज अपरा के जीवन में नए सपने, नए फैसले लेकर आया।  उसने खुद को पढ़ाई में डुबा दिया परंतु चाहकर भी नीलेश के दिए दर्द से स्वयं को बाहर नहीं निकाल पा रही थी लेकिन माँ-पापा के सामने उसने अपना दर्द कभी प्रत्यक्ष नहीं होने दिया। दो साल की दिन-रात की मेहनत के बाद वह कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर नियुक्त हो गई, किस्मत से उसे यह नौकरी देहरादून में मिली, वह खुश थी कि यहाँ से दूर रहेगी तो पुरानी यादों की कड़वाहट से दूर रहेगी। माँ के द्वारा पूछे जाने पर उसने शादी न करने का अपना फैसला उन्हें बता दिया था। एक साल के बाद ही उसकी पदोन्नति भी हो गई। अब वह खुश थी। दो साल हो गए वह घर वापस नहीं गई।
फोन पर माँ की आवाज़ सुनकर अपरा माँ के पास जाने के लिए बेचैन हो उठी। वह लैपटॉप लेकर बैठ गई टिकट करवाने के लिए।
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दोपहर के एक-डेढ़ बज रहे थे, आज पाँच दिनों के बाद सूर्य देव के दर्शन हुए हैं। अपरा लॉन में बैठकर कोई पत्रिका पढ़ रही थी तभी डोरबेल बजी....
"लक्ष्मी देखो कौन है!" उसने थोड़ी दूरी पर ही क्यारी से घास निकाल रही लक्ष्मी से कहा।
उसने गेट खोला तो सामने ही संजना खड़ी थी। "ओ हाय संजना आओ बैठो", हाथ में पकड़ी मैगजीन टेबल पर रखकर सामने कुरसी की ओर इशारा करते हुए अपरा ने कहा।
"हैलो अपरा कैसी हो?" कहते हुए संजना उसके गले लग गई।
क्या बात है! आज तो बड़ी खुश नजर आ रही हो!" अपरा ने बैठते हुए कहा।
"क्यों उस दिन खुश नहीं थी, जब हमने खूब सारी शॉपिंग की थी।" संजना ने चहकते हुए कहा।
"सच कहूँ संजना तो मुझे उस दिन तुम कुछ बुझी हुई-सी लगीं, देखो शायद ये मेरा वहम भी हो सकता है पर मुझे ऐसा कई बार लगा कि तुम कुछ और कह रही हो तुम्हारी आँखें कुछ और, माफ करना अगर तुम्हें मेरी बात बुरी लगे; पर तुम्हारी जगह कोई और होता तो मैं ये बात कहती भी नहीं, पर तुम्हारे साथ मेरा अपनत्व इतना है कि मन में कुछ नहीं रखना चाहती बस इसीलिए".... अपरा ने झिझकते हुए कहा।
"नहीं अपरा तुम सही कह रही हो, उस दिन मेरा मूड सचमुच ही खराब था, मैं खुद को काफी अकेला महसूस कर रही थी, इसीलिए तुम्हारे पास आ गई थी और शॉपिंग करके मूड फ्रेश कर लिया था।" संजना ने कहा।
आज अपरा उसकी आँखों में असीम प्रसन्नता देख पा रही थी।
"अब आज की खुशी का राज क्या है ये तो बता दो!" अपरा ने मुस्कुराते हुए पूछा।
लक्ष्मी ने चाय और फ्राई किए हुए काजू और एक प्लेट में बादाम लाकर मेज पर रखा।
"मैं तुझे इन्वाइट करने आई हूँ, कल हमारी मैरिज-एनिवर्सरी है, तो हमने एक छोटा-सा गेट-टु-गेदर रखा है। अब तू मेरी सबसे करीबी फ्रैंड है तो तेरे बिना तो मेरी पार्टी अधूरी है, इसीलिए  सबसे पहले मैं तेरे ही पास आई हूँ।" संजना ने चहकते हुए बताया।
"अच्छा! हैप्पी एनीवर्सरी इन एडवांस, अपरा ने उसे गले लगाते हुए कहा, लेकिन उस दिन तो तूने कुछ भी नहीं बताया।" उसने कहा।
"अरे यार उस दिन मेरे पति यहाँ नहीं थे ना.. तो मेरा मूड तो वैसे ही ऑफ था और ये पता भी नहीं था कि वो इस अवसर पर आएँगे भी या नहीं.... जिस बात का खुद को बोध न था वो तुझे कैसे बताती, बस इसीलिए मैंने कोई जिक्र नहीं किया।"
"अच्छा एक बात पूछूँ, तू सच-सच बताएगी?" अपरा ने उसके चेहरे पर नजरें गड़ाते हुए पूछा।
"पूछ न जरूर बताऊँगी।" संजना ने कहा।
"बात तेरी निजी ज़िंदगी की है, तो बुरा तो नहीं मानेगी?" अपरा बोली।
संजना एक पल को चुप हो गई तो अपरा को लगा कि वह अपने निजी जीवन के विषय में कुछ बताना शायद पसंद नही करती, इसलिए बात को बदलते हुए बोली-"चल छोड़, ये बता आगे का क्या प्लान है...कहीं घूमने-वूमने जा रहे हो तुम दोनों या....
"वो पता नहीं पर तू पूछ न क्या पूछ रही थी, मैं तुझसे कुछ नहीं छिपाऊँगी।" अपरा की बात बीच में काटकर संजना बोली।
अपरा अवाक् हो उसका मुँह देखती रही मानो उसके भीतर के तूफान को सुनने की कोशिश कर रही हो।
"चल जाने दे, ऐसी कोई जरूरी बात नहीं।" उसने कहा।
"नहीं अपरा पूछ न! एक तुझसे ही तो मैं सारी बातें करती हूँ, मैं बिल्कुल बुरा नहीं मानूँगी।" संजना ने कहा
"ओके!" अपरा ने गहरी सांस लेते हुए कहा-
"तू दिखाती है कि तू अपनी मैरिड लाइफ से बहुत खुश है, पर मुझे कभी-कभी ऐसा लगता है कि जैसे तू जो कह रही है वो सच नहीं, बात क्या है?"
संजना के चेहरे पर उदासी घिर आई, उसने एक लंबी सांस ली और बोली- "यही सच है कि मैं अपनी ससुराल में खुश हूँ, सभी लोग क्या कहूँ बस मम्मी जी ही तो हैं छोटी ननद मैरिड है दोनों ही बहुत प्यार करते हैं मुझे। पर कहते हैं न कि शादी के बाद लड़की का संबल उसका पति होता है, मेरे पतिदेव बुरे तो नहीं हैं पर अधिकतर समय शहर से बाहर ही होते हैं और जब आते हैं तब भी ऐसा कुछ नहीं जताते कि उन्हें मुझसे दूर रहकर कोई फर्क पड़ता हो। कई बार तो मन में ऐसे उल्टे सीधे से खयाल आते हैं कि कहीं उनका बाहर किसी से तो...." संजना ने बात अधूरी छोड़ दी।
"तूने कभी जानने की कोशिश की कि वो ऐसा क्यों करता है" अपरा ने संजना के हाथ पर अपना हाथ रखते हुए मानो उसे ढाढस बँधाते हुए कहा।
"हाँ, की, पर वो कहते हैं कि मैं ओवर रिएक्ट कर रही हूँ, वो बस काम में व्यस्त होते हैं इसीलिए ज्यादा ध्यान नहीं दे पाते।" पर अभी कुछ महीने पहले बात करते हुए मेरे किसी रिश्तेदार के मुँह से ये बात निकल गई थी कि उन्होंने दबाव में आकर मुझसे शादी की थी। फिर मैंने सच जानने की बहुत कोशिश की पर किसी ने भी कुछ भी नहीं बताया। सबने यही कहा कि रिश्तेदारों का तो काम ही होता है लड़ाई लगाना, इसलिए मुझे किसी की बात पर ध्यान नहीं देना चाहिए।" संजना एक सांस में ही सबकुछ कह गई।
"देख संजना, अगर तेरे ससुराल में सभी अच्छे हैं, तेरे पति का व्यवहार तेरे साथ बहुत प्यार भरा न सही पर अगर वो तेरा सम्मान करते हैं, और किसी बाहर वाली के होने का कोई प्रमाण भी नहीं, तो मैं यही कहूँगी कि चाहे दबाव में ही उन्होंने शादी क्यों न की हो पर तू समय दे, धीरे-धीरे तेरी सारी शिकायतें दूर हो जाएँगी। निराधार शक को अपने मन में पनपने मत दे संजना, ये इंसान की जिंदगी बर्बाद कर देता है।" अपरा ने समझाते हुए कहा।
तभी संजना का मोबाइल बज उठा..... हैलो.... संजना वहाँ से उठकर टहलते हुए बात करने लगी....
"अच्छा अपरा मुझे अब चलना होगा मम्मी जी के साथ मार्केट जाना है। तुझसे बात करके मुझे बहुत अच्छा लगा, मैं तेरी नसीहत पर जरूर अमल करूँगी।" फोन काटते ही संजना ने अपना पर्स उठाते हुए कहा।
अपरा उसे गेट तक विदा करने आई...बाय अपरा कल शाम को पार्टी में आना जरूर, वेट करूँगी तुम्हारा। कहते हुए वह गाड़ी में बैठ गई। अपरा ने हाथ हिलाकर उसे बाय किया और तब तक गेट पर खड़ी रही जब तक संजना की गाड़ी का पिछला भाग दिखाई देता रहा। इस समय उसके मन में न जाने कैसी उहापोह मची हुई थी। संजना के पति ने दबाव में आकर शादी की? ऐसा कौन सा दबाव हो सकता था... अगर मेरे दिमाग से ये बात नहीं हट रही तो बेचारी संजना कैसे भूल सकती है....कितना आसान होता है दूसरों को नसीहत देना, पर जिस पर बीतती है उसकी स्वयं से लड़ाई का दर्द कोई नहीं समझ सकता...बेचारी संजना, दिन-रात खुद से ही संघर्ष करती होगी, खुद के सवालों के जवाब भी खुद ही देती होगी और उसी में संतुष्टि का दिखावा भी खुद से ही...बेचारी। सोचते हुए अपरा ने एक गहरी सांस ली और अनमने भाव से मैगजीन के पन्ने पलटने लगी।
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गाड़ी एक बड़े से गेट के सामने रुकी, गाड़ी से उतरकर अपरा ने चाबी वहाँ खड़े वॉचमैन (जो शायद आज के लिए ही रखा गया था) को दी और अंदर की ओर चल दी। इस सर्द शाम में अमूमन कोई बाहर बैठना न पसंद करता लेकिन आज लॉन में भी लोग दो-चार, दो-चार के समूह में कहीं खड़े होकर तो कहीं कुर्सियों पर बैठकर आपस में बातें करने में मशगूल थे, एक कोने में कुछ महिलाएँ भी थीं। अपरा ने इधर-उधर नजर दौड़ाई पर उसे संजना कहीं नजर नहीं आई तो वह भीतर की ओर बढ़ गई.... हॉल के गेट पर ही संजना की सास ने उसका स्वागत किया..."नमस्ते आंटी जी" अपरा ने हाथ व्यस्त होने के कारण सिर झुकाकर अभिवादन किया।
"आओ..आओ बेटा खुश रहो।"
"संजना किधर है?" उसने पूछा।
वो उधर है, तुम्हारा ही इंतजार कर रही थी अभी-अभी कोई खींचकर ले गया उसे यहाँ से।" उन्होंने कहा।
"जी मैं उससे मिलकर आती हूँ।" कहती हुई अपरा संजना की ओर बढ़ी।
हल्के गुलाबी रंग की जरीदार साड़ी उस पर गोल्डन वर्क किया हुआ हल्के प्याजी रंग की बड़े ही सलीके से दाएँ कंधे पर डाली हुई शॉल, बालों को बड़े ही करीने से बाईं ओर ले जाकर साइड जूड़ा बनाकर उसमें सुंदरता से एक गुलाब पिरो दिया था, गले में मंगलसूत्र के अलावा एक पतला सा स्वर्ण नेकलेस मानों उसके सुराहीदार गर्दन को चूमकर स्वयं के भाग्य पर इतरा रहा था। संजना इस वक्त किसी परी से कम नहीं लग रही थी,
"हे संजना हैप्पी एनीवर्सरी"..अपरा ने बड़े ही गर्मजोशी से संजना को गले लगाते हुए बधाई दी और हाथ में पकड़ा हुआ बुके उसे पकड़ाते हुए बोली- "यार तेरी सासू माँ तो बहुत अच्छी हैं।"
"हाँ, वो सचमुच बहुत अच्छी हैं, इसीलिए तो इतना सबकुछ हो रहा है।" दोनों हाथों से दुल्हन की तरह सजे हुए पूरे घर की ओर संकेत करते हुए संजना ने कहा।
"बाई-द-वे तू तो आज परी से भी खूबसूरत लग रही है, तुझे भी उन्होंने ही सजाया है क्या?" अपरा ने उसे ऊपर से नीचे तक गौर से निहारते हुए छेड़ते हुए कहा।
"थैंक्यू" संजना ने चहकते हुए अपने उसी चिर-परिचित अंदाज में कहा, जिसकी कायल अपरा तब से थी जब उससे पहली बार मिली थी।
"वैसे मैडम आप भी कम गज़ब नहीं ढा रही हैं, मुझे तो डर है कि कहीं मेरे पतिदेव आप पर ही न फ़िदा हो जाएँ।" कहते हुए संजना ने अपनी दाईं आँख हल्के से दबा दी।
"हट नटखट" कहती हुई अपरा ने उसके कंधे पर हल्के से एक धौल जमा दिया।
"अच्छा अपने पतिदेव से कब मिलवा रही है, कहाँ हैं महाशय, उनका तुझे छोड़ कहीं और मन कैसे लग रहा है!" उसने छेड़ते हुए कहा।
"हाँ, अभी थोड़ी देर पहले तो यहीं थे, शायद मेहमानों में कहीं होंगे, आ तुझे मिलवाती हूँ।" कहती हुई संजना अपरा का हाथ पकड़कर बाहर लॉन की ओर चल दी।
"वो वहाँ खड़े है।" कहती हुई संजना अपरा का हाथ पकड़े  लॉन के दूसरे किनारे पर उस ओर चल दी जहाँ बिजली की रंग-बिरंगी लड़ियों से जगमगाते एक पेड़ के नीचे चार पुरुष और दो महिलाएँ खड़े बातें कर रहे थे। दो अधेड़ उम्र के पुरुष थे, जिनमें से कोई भी संजना का पति नहीं हो सकता, एक युवक था जिसकी साधारण सी कद-काठी व साधारण नैन-नक्श थे, बुरा नहीं था परंतु संजना से तुलना नहीं की जा सकती थी, न जाने क्यों अपरा का दिल कह रहा था कि वह संजना का पति नहीं हो सकता। उसने कभी फोटो तक भी नहीं दिखाई थी अपने पति की, इसलिए आज पहली बार वह उसके पति से मिलेगी। उसका दिल कह रहा था कि वह चौथा व्यक्ति ही संजना का पति होगा जिसकी पीठ उनकी तरफ है। पीछे से ही उसके लंबे सुडौल कद-काठी के कारण उसका व्यक्तित्व आकर्षक जान पड़ता था।
उनके करीब पहुँचकर संजना ने मजाकिया लहज़े में कहा- "एक्सक्यूज मी! क्या मैं अपने पतिदेव को थोड़ी देर के लिए बॉरो कर सकती हूँ?"
अरे हाँ...हाँ भई क्यों नहीं! उनमें से एक महाशय ने मुस्कुराते हुए कहा।
तभी वह चौथा युवक संजना की ओर मुड़ा.... अपरा की नजर दूसरे युवक से हटकर उस युवक के चेहरे पर पड़ी, वह जड़वत् हो गई। दोनों एक-दूसरे को देख अवाक् खड़े रह गए...
ये हैं मेरे पतिदेव और नील ये मेरी सबसे अच्छी सहेली, मेरी तन्हाइयों की साथी 'अपरा'..... अपरा को संजना की आवाज कहीं बहुत गहराई से आती हुई महसूस हो रही थी।
#मालतीमिश्रा✍️
चित्र साभार.... गूगल से
                                                                        क्रमशः