गुरुवार

अधूरी कसमें

 बाहर कड़ाके की ठंड थी, सुबह के साढ़े नौ बज चुके थे अपरा अभी भी रजाई से नहीं निकली थी। रविवार है तो ऑफिस की छुट्टी थी इसीलिए छुट्टी का भरपूर आनंद उठाना चाहती थी सुबह देर तक सोकर, पता नहीं कैसे कुछ लोग दस ग्यारह बजे तक सोते हैं! मेरी तो कमर दुखने लगी सोचती हुई वह उठ कर बैठ गई और रजाई गले तक खींच लिया। तभी लक्ष्मी आ गई। "अच्छा है लक्ष्मी कि मेन गेट की चाबी तुम्हारे पास थी नहीं तो मुझे गेट खोलने जाना पड़ता इतनी ठंड में।"
"हाँ दीदी बाहर तो बहुत ठंह है, कुहरा इतना कि चार-पाँच मीटर आगे की चीज दिखाई न दे, हाथ में पकड़े अखबार को बेड के साइड टेबल पर रखती हुई लक्ष्मी ने कहा। लेकिन आज आपने हॉल का भी दरवाजा बंद नहीं किया?" लक्ष्मी ने कहा
"अरे नहीं,.... किया था, लेकिन सुबह पाँच बजे उठने की आदत है न, तो आज भी आँख खुल गई, तभी मैंने हॉल का गेट खोल दिया ताकि तुम आओ तो मुझे रजाई से निकलकर दरवाजा खोलने न जाना पड़े।" अपरा ने कहा।
"तभी मैं सोचूँ कि आज आप भूल कैसे गईं।" कहती हुई लक्ष्मी किचन की ओर चली गई।
अपरा अखबार उठाकर उसके पन्ने पलटने लगी। कुछ ही देर में लक्ष्मी चाय दे गई अब वह चाय पीते हुए अखबार पढ़ने लगी।

छुट्टी होने के बावजूद सर्दी की अधिकता की वजह से आज उसका कहीं बाहर जाने का मन नहीं हुआ, रुम-हीटर के ताप से गर्म हो चुके लिविंग रुम में सोफे पर बैठे-बैठ टी०वी० देखते हुए ही वह लैपटॉप से ही ऑन लाइन शॉपिंग कर रही थी तभी डोरबेल बजी लक्ष्मी ने मुख्यद्वार खोला और तभी रूम का दरवाजा खुलते ही एक खनकती सी आवाज आई "हैल्लो अपरा हाऊ आर यू?"
"हे संजना तुम! कैसी हो? कहती हुई अपरा खड़ी हो गई और उससे गले मिलकर स्वागत की औपचारिकता निभाते हुए उसे सोफे पर बैठाया और खुद उसके सामने वाले सोफे पर बैठती हुई बोली- "और बता कैसी चल रही है 'मिसेज' संजना वाली लाइफ?"
"बस पूछ मत यार! मेरी मान तो अब तू भी शादी कर ही ले।" जीवन किसे कहते हैं ये तो शादी के बाद ही पता चलता है।" संजना चहकती हुई सी बोली।
"ये तो लक की बात है संजना, तेरा लक अच्छा है कि तू आज शादी के चार साल बाद भी खुश हैं, वर्ना मैंने तो ऐसे लोग भी देखे है जो शादी के बाद आजाद और खुश रहना भूल जाते हैं, ससुराल वालों को खुश रखने की कोशिश में तो लड़की की अपनी लाइफ तो बस खत्म ही हो जाती है, पति की अपनी जरुरत तो सास की अपनी अलग, ननद की अलग फरमाइश तो देवर-जेठ के अलग। बहू की तो अपनी कोई ख्वाहिश और जरूरत तो मानो रह ही नहीं जाती, बस दूसरों की जरूरतें"...
"सो तो है, बट आय एम वेरी लकी।" संजना ने लापरवाही से कंधे उचकाते हुए कहा लेकिन उसकी आँखें कुछ और ही कह रही थीं जो शायद वह लापरवाही की आड़ में छिपाना चाहती थी।
तभी लक्ष्मी ने कमरे में प्रवेश किया उसके हाथ में ट्रे थी। ट्रे को टेबल पर रखकर उसने रोस्टेड काजू की प्लेट संजना की ओर सरकाया और  केतली से चाय दो कपों में डाली और मेज पर रखकर चली गई।
चाय की चुस्की लेते हुए संजना बोली- अच्छा ये बता शाम को क्या कर रही है?
क्यों? अपरा ने पूछा।
"शॉपिंग के लिए चलते हैं न" संजना बोली
"शॉपिंग के लिए मेरे साथ! तेरे हबी कहाँ हैं?"
"वो बिजनेस के सिलसिले में आउट ऑफ स्टेशन हैं, तभी तो बोर हो रही हूँ।" कहते हुए संजना उदास हो गई।
"अरे तो मैडम इसमें उदास होने की क्या बात है! चलो आज की शाम सखी के नाम, और मुझे भी तो कंपनी मिल गई।" अपरा ने मुस्कराते हुए कहा। उसे अब भी ऐसा महसूस हो रहा था कि संजना कुछ छिपा रही है पर वह पूछ कर अंजाने ज़ख्म कुरेदना नहीं चाहती थी।

शाम के साढ़े सात बज चुके थे जब अपरा घर वापस आई। आज काफी दिनों के बाद अपरा पूरे मार्केट में घूमी, वह अक्सर अकेले ही मार्केट आया करती थी और जरूरत की चीजें तय दुकानों या शोरूम से खरीद कर वापस चली जाती। आज संजना के साथ वह आवश्यकता न होते हुए भी पूरी मार्केट घूमी और खूब खरीदारी की। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि दोनों ही एक-दूसरे की आड़ में अपना अकेलापन दूर करने की कोशिश कर रही थीं। अपरा ने कई बार महसूस किया कि संजना ने जितनी भी खरीदारी की, सिर्फ अपने लिए की। जहाँ तक उसे पता है कि संजना अपने पति को बहुत प्यार करती है फिर भी उसका पूरी शॉपिंग के दौरान अपने पति का ज़िक्र तक न करना और न ही उसके लिए कुछ खरीदना अपरा को असामान्य लगा। खैर! उसका अपना जीवन है मैं क्या कर सकती हूँ? और जरूरी तो नहीं कि मैं जो सोच रही हूँ वही सही हो! क्या पता संजना के पति को संजना की पसंद ही न भाती हो। सोचती हुई अपरा बाथरुम में हाथ मुँह धोने घुसी तभी लक्ष्मी की आवाज आई-
"दीदी कहाँ हो?"
"बोलो लक्ष्मी, मैं यहाँ हूँ।" अपरा ने बाथरूम के भीतर से ही उत्तर दिया।
"आपका फोन बज रहा है।" कहती हुई लक्ष्मी मोबाइल कमरे में टेबल पर रखकर चली गई।
अपरा ने जल्दी-जल्दी हाथ मुँह तौलिए से पोंछ कर ज्यों ही फोन उठाने को लपकी तब तक फोन कट गया। किसका फोन था? सोचती हुई अपरा ने कॉल चेक किया, ये तो माँ की कॉल थी। उसने तुरंत माँ को फोन लगाया।
हैलो! दूसरी ओर से आवाज आई।
"माँ, कैसी हो आप? आपके घुटनों का दर्द कैसा है?" अपरा ने बिना रुके एक ही सांस में पूछ लिया।
"मैं तो ठीक हूँ, रही घुटनों की बात तो बीमारी और बुढ़ापे का चोली-दामन का साथ होता है। अब तुम बताओ घर कब आ रही हो, कितने ही साल हो गए बेटा अपनी जड़ों से इस तरह से कटा नहीं जाता जैसे कि कभी कोई रिश्ता ही न रहा हो।" माँ की आवाज भर्रा गई।
"म्माँ तुम ठीक तो हो न!" अपरा को न जाने क्यों बेचैनी महसूस हुई। आवश्यक नहीं कि मनुष्य किसी को अपने समक्ष दुखी देखकर ही उसके दुख महसूस करे, कभी-कभी ऐसा भी होता है कि आँखों देखी परिस्थितियाँ या घटनाएँ भी उतनी असरदार नहीं होतीं जितनी कि दूर रहते हुए बिना देखे हो जाती हैं और ऐसा तब होता है जब दिलों के तार जुड़े हों, अर्थात रिश्तों की गहराई ही भावनाओं का मापदंड तय करती है। इस समय माँ के कहे बिना अपरा का हृदय उनके हृदय के संताप को महसूस कर रहा था, उसका जी चाह रहा था कि अभी उड़कर माँ के पास पहुँच जाए।
"हाँ मैं ठीक हूँ, बस तुम्हारी बहुत याद आ रही थी, बहुत समय हो गया तुम्हें देखा नहीं।"
मैं आऊँगी माँ, जल्द ही आऊँगी, तुम अपना ध्यान रखो।" कहकर अपरा ने फोन डिस्कनेक्ट किया। माँ की आवाज में छिपी मायूसी को अपरा बखूबी महसूस कर रही थी, उसका भी तो मन कर रहा था कि उड़कर माँ के पास पहुँच जाए आखिर कब तक अपने अतीत से भागते हुए वर्तमान को नज़रअंदाज करेगी....कड़वी यादों को भूलकर क्यों नहीं सच्चाई का सामना करती? सोचती हुई वह कब अतीत की गलियों में भटकने लगी उसे पता ही न चला.....
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अपरा बालकनी में खड़ी तौलिया से बाल सुखा रही थी, सूरज की गुनगुनी सी धूप उसके सुडौल छरहरी काया को सहला रही थी। सुनहरी धूप की चमक से उसका गोरा रंग सोने सा दमक रहा था उसपर हल्के नारंगी रंग की कुरती सफेद पजामी और सफेद शिफॉन का दुपट्टा तो जैसे सोने पे सुहागा। इस समय सुबह के धूप की किरणों में लिपटी स्वर्णिम आभा बिखेरती स्वर्ण परी सी प्रतीत हो रही थी। अचानक उसे महसूस हुआ जैसे कहीं कोई दो आँखें उसे लगातार घूर रही हों, उसने अपनी गरदन घुमाई तो देखा कि सामने वाले मकान से दाईं ओर दो घर छोड़ कर तीसरे घर की बालकनी में खड़ा नीलेश उसे एकटक देख रहा था, उसकी आँखों में मौन शरारत तैर रही थी, अपरा से नजर मिलते ही उसने तर्जनी अंगुली और अंगूठे को मिला कर हाथ से इशारा किया कि वह बहुत सुंदर लग रही है, अपरा झेंप गई, नीलेश की आँखों में न जाने क्या था कि शर्म से उसके गाल सिंदूरी हो गए, वह बिना एक पल रुके बड़ी तेजी से कमरे में चली गई। नीलेश भी मुस्कराता हुआ अपने कमरे में चला गया, परंतु दोनों ही अंजान थे कि उनका यह मूक प्रेमालाप कहीं से दो और आँखें भी देख रही थीं।

लगभग डेढ़ साल हो गए जब नीलेश यहाँ आया था, इस कस्बे से कोई एक-डेढ़ मील की दूरी पर एक नई फैक्ट्री की नींव रखी गई थी, तभी नीलेश उसी फैक्ट्री का इंजीनियर बनकर आया और यहाँ अपरा की सहेली नीलिमा के घर किराये पर रहने लगा। अपरा जब भी अपनी सहेली के घर जाती तो अक्सर नीचे बैठक में उसकी मुलाकात नीलेश से भी हो जाती। वे लोग आपस में बातें करते तो नीलेश के सामान्य ज्ञान के स्तर से प्रभावित हुए बिना वह न रह सकी। सामाजिक, राजनीतिक या ऐतिहासिक कैसे भी प्रश्न हों नीलेश के पास लगभग सभी प्रश्नों के उत्तर मिल जाते। वही क्यों नीलिमा के घर में भी सभी उसे अपने बेटे की तरह मानने लगे थे, यह उसका व्यवहार कौशल और ज्ञान ही था जिसने उसे सर्वप्रिय बना दिया था। धीरे-धीरे नीलेश का व्यक्तित्व कब अपरा के मनो-मस्तिष्क पर हावी हो गया अपरा को भी पता न चला। अब वह सुबह उठते ही पहले खुद को आइने में देखकर अपना हुलिया ठीक करती फिर बालकनी में आती और नीलेश की एक झलक पाने का इंतजार करती। उधर नीलेश का भी यही हाल था। जब दोनों एक-दूसरे को देख लेते तो मानो पूरे दिन की ऊर्जा मिल जाती और अपने-अपने काम में व्यस्त हो जाते। संध्या होते-होते यह ऊर्जा समाप्त होने लगती और दोनों को फिर इंतजार रहता बालकनी पर निकलने वाले चाँद का।
धीरे-धीरे दोनों की मुलाकातें बढ़ने लगीं, दोनों कभी नीलिमा के घर पर, कभी पार्क में तो कभी कहीं और छिप-छिप कर मिलने लगे। दोनों ने साथ जीने-मरने की कसमें खाईं। अब दोनों दूर होते हुए भी कभी बालकनी में खड़े होकर एक-दूसरे को तकते रहते तो कभी फोन पर बातें करते, कभी एक-दूसरे को प्रेम पाती लिखते, कभी प्रत्यक्ष तो कभी अप्रत्यक्ष एक-दूसरे के साथ एक-दूसरे के ख़यालों में खोए रहते। उनका यह प्रेम-प्रसंग अधिक दिनों तक अपरा के माता-पिता और नीलिमा के माता-पिता से छिपा न रह सका। परिणामस्वरूप आज अपरा के पापा नीलिमा के घर जाने वाले हैं नीलेश से बात करने कि वह अपने माता-पिता से उन्हें मिलवा दे ताकि दोनों की शादी की बात की जा सके। यह सब माँ ने अपरा को बता दिया था, इसलिए अपरा मन ही मन अधिक उत्साहित हो रही थी। उसे न तो खाने-पीने का ख़याल था न ही किसी अन्य काम में मन लग रहा था। माँ-पापा के सामने जाने से बच रही थी। आज का दिन बहुत ही बड़ा महसूस हो रहा था, पता नहीं कब शाम होगी और पापा नीलेश से बात करेंगे... उसने नीलेश को भी फोन पर पूरी बात न बता कर सिर्फ इतना ही बताया कि आज शाम को उसे सरप्राइज मिलने वाला है। नीलेश आज शाम को जल्दी आ गया उसे भी सरप्राइज का बड़ी बेसब्री से इंतजार था।

शाम हुई मम्मी और पापा नीलिमा के घर गए हुए थे, अपरा बार-बार बालकनी में आती ये देखने के लिए कि माँ-पापा नीलिमा के घर से निकले या नहीं, वो वहाँ से निकलें तभी वह नीलेश से बात कर पाएगी। अचानक किसी ने नीचे बैठक के गेट पर दस्तक दी, उसने जाकर दरवाजा खोला। "मुबारक हो!" कहती हुई नीलिमा झट से उसके गले लग गई।
"उसने क्या कहा? उसके माँ-बाप को ऐतराज तो नहीं होगा?" अपरा ने बेचैनी से पूछा।
"अरे पगली, 'जब मियाँ-बीबी राजी तो क्या करेगा काजी' आखिर वो भी तो तुझसे शादी करने के लिए उतावला हो रहा है, उसने कहा कि वो कल ही फोन करके अपने मम्मी-पापा को यहीं बुलाएगा ताकि बड़े लोग आपस में बात कर लें।" नीलिमा ने कहा।
"मैं बता नहीं सकती कि मैं कितनी खुश हूँ; भगवान ने बिन माँगे मेरी मुराद पूरी कर दी, सचमुच बहुत भाग्यशाली हूँ मैं कि मुझे कुछ कहना भी नहीं पड़ा और मम्मी-पापा ने मेरी झोली खुशियों से भर दी।" कहते हुए अपरा का गला भर आया।
"माँ-बाप ऐसे ही होते हैं पागल, अब तू ज्यादा भावुक मत हो अब तो खुशियाँ मना और शादी की तैयारी कर।" नीलिमा ने उसके दोनों कंधों पर हाथ रखकर धीरे से थपकते हुए कहा।
दोनों सखियाँ आपस में बड़ी देर तक बातें करती रहीं एक-दूसरे को छेड़ती रहीं। रात अधिक होने पर नीलिमा चली गई तभी माँ ने अपरा को खाने के लिए बुलाया।
"नीलिमा ने तो तुम्हें सबकुछ बता ही दिया होगा", खाना लगाते हुए माँ ने कहा।
"हाँ" अपरा ने छोटा सा जवाब दिया।
"तो बस अब नीलेश के माता-पिता का इंतजार करते हैं, वो आ जाएँ तो बात पक्की कर लेंगे।" माँ ने भी अपनी ओर से जैसे बताने की औपचारिकता पूरी कर दी हो। वह उदास लग रही थीं, अपरा का दिल घबराया कि कहीं कुछ ऐसा तो नहीं, जो माँ को परेशान कर रहा हो। उसने संकोच को छोड़कर पूछा- "क्या हुआ माँ, कोई परेशानी वाली बात है क्या?"
"नहीं परेशानी कैसी बेटा" माँ ने कहा।
"फिर आप उदास क्यों हैं?" अपरा ने कहा
"हर बेटी की माँ के जीवन में ये पल तो आता ही है बेटा कि अपनी ही संतान परायी होने लगती है ऐसे में जहाँ माँ-बाप को संतुष्टि मिलती है वहीं दुख भी होता है, पर इस दुख में सुख छिपा होता है बेटा, इसलिए तू फिक्र मत कर, चल अब  खाना खा।" कहते हुए माँ ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा। अपरा ने सिर झुकाकर अपनी आँख में आए आँसुओं को छिपाने का प्रयास किया और माँ के मुड़ते ही झट से आँखें पोंछ लीं।
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सुबह के सूरज ने अभी पूरी तरह से आँखें भी नहीं खोली थीं कि अपरा बालकनी में आ गई, आज उसने आइने में खुद को देखकर अपना हुलिया भी ठीक नहीं किया, नीलिमा की बालकनी की ओर देखा तो सूनापन जैसे फन फैलाए खड़ा था। वह बहुत देर तक उसी मुद्रा में खड़ी रही मानो अभी नीलेश अपनी उँगलियों से अपने बालों में कंघी करता हुआ कमरे से बाहर निकलेगा और उसकी ओर देखकर इशारे से कहेगा कि तुम बहुत सुंदर लग रही हो। पिछले पंद्रह दिनों से रोज वह ऐसे ही बालकनी में आती और मायूस होती। अचानक नीलिमा बालकनी में आई, अपरा का दिल एकदम से बड़ी जोर से धड़का, उसे लगा कि नीलेश आ गया पर नीलिमा को देखकर वह फिर मायूस हो गई। नीलिमा ने बिन पूछे ही 'नहीं' के संकेत में गरदन हिलाया मानो अपरा की आँखों में तैरते सवाल को समझ गई हो। अपरा की आँखें छलक उठीं; वह दौड़कर कमरे में आ गई और पलंग पर गिर पड़ी, तकिए में मुँह छिपाए बड़ी देर तक रोती रही। अब धैर्य का दामन छूटने लगा था, उसका विश्वास टूटने लगा था।
माँ-पापा के बात करने के दूसरे दिन ही नीलेश ने अपने घर पर फोन किया था और मम्मी को सबकुछ बता कर पापा के साथ आने के लिए कहा था। तभी उसकी मम्मी ने उसके पापा की तबियत खराब होने की बात कहकर कुछ दिनों के लिए उसे बुला लिया था। जाने से पहले नीलेश अपरा के घर आया था और मम्मी पापा के पैर छूकर अपने मम्मी-पापा के साथ आने का वादा करके गया था। अपरा ने उसे मूक रहकर विदाई दी तथा आँखों ही आँखों में कहा था अपना ख़याल रखना और जल्दी आना। जाते हुए नीलेश बहुत उदास था उसकी मज़बूरी  उसके चेहरे पर साफ-साफ देखी जा सकती थी।
अपने घर पहुँचते ही नीलेश ने अपरा को फोन करके बताया था कि वह ठीक से पहुँच गया है। उसे अपरा के बिना सब कुछ सूना लग रहा था। उसने अपरा के पापा से भी बात की थी और जल्दी ही आने का वादा किया था।
दूसरे दिन फिर फोन करके उसने बताया था कि पापा की तबियत अभी ज्यादा खराब है, ठीक होते ही वह मम्मी-पापा के साथ आएगा। इधर अपरा से भी नीलेश से दूरी असहनीय हो रही थी, मन में न जाने कैसे-कैसे ख़याल आते। उसने नीलेश से फोन पर कहा भी कि उसके माँ-पापा खुश तो हैं न..वो नाराज तो नहीं? कहीं वो अपरा के लिए मना तो नहीं कर देंगे....
"अरे पगली ये सब डर अपने मन से निकाल दो, यहाँ सब राजी हैं बस पापा ठीक हो जाएँ फिर हम आते हैं।" नीलेश ने अपरा को समझाया था। अपरा भी आश्वस्त हो गई पर न जाने क्यों उसे नीलेश की आवाज में वो गर्मजोशी नहीं महसूस हुई जो अबसे पहले हुआ करती थी।  मैं तो सचमुच पागल हूँ ख़ामख़्वाह शक कर रही हूँ, वो बेचारा अपने पापा की बीमारी से परेशान होगा और एक मैं हूँ जो स्वार्थ में अंधी हुई जा रही हूँ। अपरा ने खुद को समझाया। धीरे-धीरे समय बीतने लगा, बीतते समय के साथ-साथ नीलेश के फोन आने कम होने लगे। अपरा फोन करती तो व्यस्तता की बात कहकर मजबूरी दर्शाता, उसकी आवाज में पहले की तरह प्यार नहीं छलकता। अपरा की बेचैनी बढ़ती जाती थी। एक-डेढ़ हफ्ते के बाद तो फोन आने ही बंद हो गए। अपरा ने फोन किया तो फोन बंद था, वह बार-बार इसी उम्मीद से फोन करती कि शायद अब फोन लग जाए परंतु हर बार निराशा ही उसके हाथ आई। अब उसका मन न तो खाने-पीने में न सजने-सँवरने, न कुछ पढ़ने-लिखने में लगता, वह रोज सुबह उठते ही इस उम्मीद में बालकनी में खड़ी हो जाती कि शायद आज नीलेश वापस आ गया होगा परंतु निराश होकर पूरे दिन रोती रहती। उसकी इस बिगड़ती मनोदशा को देख उसके पापा नीलिमा के पापा के साथ फैक्ट्री गए, वहाँ जाकर उन्हें जो कुछ भी ज्ञात हुआ उससे तो उनके पैरों तले की जमीन ही खिसक गई।
उनका मायूस चेहरा देखकर अपरा की आँखें बरस पड़ीं। "क्या हुआ जी कुछ पता चला?" माँ ने पूछा।
"भूल जाओ उसे, धोखेबाज है वो, तबादला करवा लिया उसने अपना यहाँ से।" अपरा की ओर देखते हुए वो क्षुब्ध होते हुए बोले। माँ ने रोती हुई अपरा को सीने से लगा लिया और बिना कुछ बोले पीठ सहलाते हुए उसे सांत्वना देने लगीं। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि उसे क्या कहकर समझाएँ, वह जानती हैं कि अपरा नीलेश को कितना प्यार करती है।
"आज जी भरकर रो ले बेटा लेकिन आज के बाद उस धोखेबाज के लिए तेरी आँखों में आँसू नहीं आने चाहिए, नहीं तो मैं समझूँगा कि माँ-बाप का तेरे जीवन में कोई अस्तित्व नहीं।"  पापा ने अपना क्रोध पीते हुए अपरा के सिर को सहलाते हुए कहा। एकाएक अपरा की रुलाई रुक गई.. क्या सचमुच आज उसके जीवन में नीलेश के अलावा कुछ नहीं...क्या वो उसके माँ-पापा से अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया...क्या उसके समक्ष उसके मम्मी-पापा का कोई अस्तित्व नहीं? जिस इंसान ने उसे धोखा दिया वो रोज उसके लिए सुबह-सुबह बालकनी में जाकर खड़ी हो जाती है, उसे अपनी सुध-बुध नहीं रहती, रोज घंटों रोती रहती है....उसने कभी नहीं सोचा कि उसकी यह दशा देखकर उसके मम्मी-पापा पर क्या बीतती होगी! कितनी स्वार्थी हो गई है वो, और किसके लिए.. उस धोखेबाज, बेवफा इंसान के लिए जिसे उसकी कोई परवाह ही नहीं।
अब वो ऐसा नहीं करेगी, अब मम्मी-पापा को बिल्कुल दुखी नहीं करेगी। सोचते हुए उसने अपने आँसू पोछे और बोली - "सॉरी पापा मैंने आप लोगों को बहुत दुखी किया पर आज मैं प्रॉमिस करती हूँ अब मैं आपको और दुखी नहीं करूँगी, अब से आप मुझे नीलेश के लिए कभी रोते नहीं देखेंगे। किसी धोखेबाज इंसान के लिए मैं आप लोगों को दुख नहीं दे सकती, मैं स्वार्थी हो गई थी, सिर्फ अपने बारे में सोच रही थी, मैंने कभी सोचा ही नहीं कि मेरी ऐसी दशा देखकर आप लोगों पर क्या बीतती होगी। आय एम सॉरी।"
"बेटा! हमारी तो खुशी तुम्हारी खुशी में ही है, हमारे वश में हो तो हम तो आसमान से तारे भी तोड़ लाएँ पर जिस पर हमारा वश ही न चले उसका क्या करें।"  पापा ने प्यार से सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।
वही आखिरी समय था जब घर में नीलेश की चर्चा हुई थी; अगली सुबह का सूरज अपरा के जीवन में नए सपने, नए फैसले लेकर आया।  उसने खुद को पढ़ाई में डुबा दिया परंतु चाहकर भी नीलेश के दिए दर्द से स्वयं को बाहर नहीं निकाल पा रही थी लेकिन माँ-पापा के सामने उसने अपना दर्द कभी प्रत्यक्ष नहीं होने दिया। दो साल की दिन-रात की मेहनत के बाद वह कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर नियुक्त हो गई, किस्मत से उसे यह नौकरी देहरादून में मिली, वह खुश थी कि यहाँ से दूर रहेगी तो पुरानी यादों की कड़वाहट से दूर रहेगी। माँ के द्वारा पूछे जाने पर उसने शादी न करने का अपना फैसला उन्हें बता दिया था। एक साल के बाद ही उसकी पदोन्नति भी हो गई। अब वह खुश थी। दो साल हो गए वह घर वापस नहीं गई।
फोन पर माँ की आवाज़ सुनकर अपरा माँ के पास जाने के लिए बेचैन हो उठी। वह लैपटॉप लेकर बैठ गई टिकट करवाने के लिए।
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दोपहर के एक-डेढ़ बज रहे थे, आज पाँच दिनों के बाद सूर्य देव के दर्शन हुए हैं। अपरा लॉन में बैठकर कोई पत्रिका पढ़ रही थी तभी डोरबेल बजी....
"लक्ष्मी देखो कौन है!" उसने थोड़ी दूरी पर ही क्यारी से घास निकाल रही लक्ष्मी से कहा।
उसने गेट खोला तो सामने ही संजना खड़ी थी। "ओ हाय संजना आओ बैठो", हाथ में पकड़ी मैगजीन टेबल पर रखकर सामने कुरसी की ओर इशारा करते हुए अपरा ने कहा।
"हैलो अपरा कैसी हो?" कहते हुए संजना उसके गले लग गई।
क्या बात है! आज तो बड़ी खुश नजर आ रही हो!" अपरा ने बैठते हुए कहा।
"क्यों उस दिन खुश नहीं थी, जब हमने खूब सारी शॉपिंग की थी।" संजना ने चहकते हुए कहा।
"सच कहूँ संजना तो मुझे उस दिन तुम कुछ बुझी हुई-सी लगीं, देखो शायद ये मेरा वहम भी हो सकता है पर मुझे ऐसा कई बार लगा कि तुम कुछ और कह रही हो तुम्हारी आँखें कुछ और, माफ करना अगर तुम्हें मेरी बात बुरी लगे; पर तुम्हारी जगह कोई और होता तो मैं ये बात कहती भी नहीं, पर तुम्हारे साथ मेरा अपनत्व इतना है कि मन में कुछ नहीं रखना चाहती बस इसीलिए".... अपरा ने झिझकते हुए कहा।
"नहीं अपरा तुम सही कह रही हो, उस दिन मेरा मूड सचमुच ही खराब था, मैं खुद को काफी अकेला महसूस कर रही थी, इसीलिए तुम्हारे पास आ गई थी और शॉपिंग करके मूड फ्रेश कर लिया था।" संजना ने कहा।
आज अपरा उसकी आँखों में असीम प्रसन्नता देख पा रही थी।
"अब आज की खुशी का राज क्या है ये तो बता दो!" अपरा ने मुस्कुराते हुए पूछा।
लक्ष्मी ने चाय और फ्राई किए हुए काजू और एक प्लेट में बादाम लाकर मेज पर रखा।
"मैं तुझे इन्वाइट करने आई हूँ, कल हमारी मैरिज-एनिवर्सरी है, तो हमने एक छोटा-सा गेट-टु-गेदर रखा है। अब तू मेरी सबसे करीबी फ्रैंड है तो तेरे बिना तो मेरी पार्टी अधूरी है, इसीलिए  सबसे पहले मैं तेरे ही पास आई हूँ।" संजना ने चहकते हुए बताया।
"अच्छा! हैप्पी एनीवर्सरी इन एडवांस, अपरा ने उसे गले लगाते हुए कहा, लेकिन उस दिन तो तूने कुछ भी नहीं बताया।" उसने कहा।
"अरे यार उस दिन मेरे पति यहाँ नहीं थे ना.. तो मेरा मूड तो वैसे ही ऑफ था और ये पता भी नहीं था कि वो इस अवसर पर आएँगे भी या नहीं.... जिस बात का खुद को बोध न था वो तुझे कैसे बताती, बस इसीलिए मैंने कोई जिक्र नहीं किया।"
"अच्छा एक बात पूछूँ, तू सच-सच बताएगी?" अपरा ने उसके चेहरे पर नजरें गड़ाते हुए पूछा।
"पूछ न जरूर बताऊँगी।" संजना ने कहा।
"बात तेरी निजी ज़िंदगी की है, तो बुरा तो नहीं मानेगी?" अपरा बोली।
संजना एक पल को चुप हो गई तो अपरा को लगा कि वह अपने निजी जीवन के विषय में कुछ बताना शायद पसंद नही करती, इसलिए बात को बदलते हुए बोली-"चल छोड़, ये बता आगे का क्या प्लान है...कहीं घूमने-वूमने जा रहे हो तुम दोनों या....
"वो पता नहीं पर तू पूछ न क्या पूछ रही थी, मैं तुझसे कुछ नहीं छिपाऊँगी।" अपरा की बात बीच में काटकर संजना बोली।
अपरा अवाक् हो उसका मुँह देखती रही मानो उसके भीतर के तूफान को सुनने की कोशिश कर रही हो।
"चल जाने दे, ऐसी कोई जरूरी बात नहीं।" उसने कहा।
"नहीं अपरा पूछ न! एक तुझसे ही तो मैं सारी बातें करती हूँ, मैं बिल्कुल बुरा नहीं मानूँगी।" संजना ने कहा
"ओके!" अपरा ने गहरी सांस लेते हुए कहा-
"तू दिखाती है कि तू अपनी मैरिड लाइफ से बहुत खुश है, पर मुझे कभी-कभी ऐसा लगता है कि जैसे तू जो कह रही है वो सच नहीं, बात क्या है?"
संजना के चेहरे पर उदासी घिर आई, उसने एक लंबी सांस ली और बोली- "यही सच है कि मैं अपनी ससुराल में खुश हूँ, सभी लोग क्या कहूँ बस मम्मी जी ही तो हैं छोटी ननद मैरिड है दोनों ही बहुत प्यार करते हैं मुझे। पर कहते हैं न कि शादी के बाद लड़की का संबल उसका पति होता है, मेरे पतिदेव बुरे तो नहीं हैं पर अधिकतर समय शहर से बाहर ही होते हैं और जब आते हैं तब भी ऐसा कुछ नहीं जताते कि उन्हें मुझसे दूर रहकर कोई फर्क पड़ता हो। कई बार तो मन में ऐसे उल्टे सीधे से खयाल आते हैं कि कहीं उनका बाहर किसी से तो...." संजना ने बात अधूरी छोड़ दी।
"तूने कभी जानने की कोशिश की कि वो ऐसा क्यों करता है" अपरा ने संजना के हाथ पर अपना हाथ रखते हुए मानो उसे ढाढस बँधाते हुए कहा।
"हाँ, की, पर वो कहते हैं कि मैं ओवर रिएक्ट कर रही हूँ, वो बस काम में व्यस्त होते हैं इसीलिए ज्यादा ध्यान नहीं दे पाते।" पर अभी कुछ महीने पहले बात करते हुए मेरे किसी रिश्तेदार के मुँह से ये बात निकल गई थी कि उन्होंने दबाव में आकर मुझसे शादी की थी। फिर मैंने सच जानने की बहुत कोशिश की पर किसी ने भी कुछ भी नहीं बताया। सबने यही कहा कि रिश्तेदारों का तो काम ही होता है लड़ाई लगाना, इसलिए मुझे किसी की बात पर ध्यान नहीं देना चाहिए।" संजना एक सांस में ही सबकुछ कह गई।
"देख संजना, अगर तेरे ससुराल में सभी अच्छे हैं, तेरे पति का व्यवहार तेरे साथ बहुत प्यार भरा न सही पर अगर वो तेरा सम्मान करते हैं, और किसी बाहर वाली के होने का कोई प्रमाण भी नहीं, तो मैं यही कहूँगी कि चाहे दबाव में ही उन्होंने शादी क्यों न की हो पर तू समय दे, धीरे-धीरे तेरी सारी शिकायतें दूर हो जाएँगी। निराधार शक को अपने मन में पनपने मत दे संजना, ये इंसान की जिंदगी बर्बाद कर देता है।" अपरा ने समझाते हुए कहा।
तभी संजना का मोबाइल बज उठा..... हैलो.... संजना वहाँ से उठकर टहलते हुए बात करने लगी....
"अच्छा अपरा मुझे अब चलना होगा मम्मी जी के साथ मार्केट जाना है। तुझसे बात करके मुझे बहुत अच्छा लगा, मैं तेरी नसीहत पर जरूर अमल करूँगी।" फोन काटते ही संजना ने अपना पर्स उठाते हुए कहा।
अपरा उसे गेट तक विदा करने आई...बाय अपरा कल शाम को पार्टी में आना जरूर, वेट करूँगी तुम्हारा। कहते हुए वह गाड़ी में बैठ गई। अपरा ने हाथ हिलाकर उसे बाय किया और तब तक गेट पर खड़ी रही जब तक संजना की गाड़ी का पिछला भाग दिखाई देता रहा। इस समय उसके मन में न जाने कैसी उहापोह मची हुई थी। संजना के पति ने दबाव में आकर शादी की? ऐसा कौन सा दबाव हो सकता था... अगर मेरे दिमाग से ये बात नहीं हट रही तो बेचारी संजना कैसे भूल सकती है....कितना आसान होता है दूसरों को नसीहत देना, पर जिस पर बीतती है उसकी स्वयं से लड़ाई का दर्द कोई नहीं समझ सकता...बेचारी संजना, दिन-रात खुद से ही संघर्ष करती होगी, खुद के सवालों के जवाब भी खुद ही देती होगी और उसी में संतुष्टि का दिखावा भी खुद से ही...बेचारी। सोचते हुए अपरा ने एक गहरी सांस ली और अनमने भाव से मैगजीन के पन्ने पलटने लगी।
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गाड़ी एक बड़े से गेट के सामने रुकी, गाड़ी से उतरकर अपरा ने चाबी वहाँ खड़े वॉचमैन (जो शायद आज के लिए ही रखा गया था) को दी और अंदर की ओर चल दी। इस सर्द शाम में अमूमन कोई बाहर बैठना न पसंद करता लेकिन आज लॉन में भी लोग दो-चार, दो-चार के समूह में कहीं खड़े होकर तो कहीं कुर्सियों पर बैठकर आपस में बातें करने में मशगूल थे, एक कोने में कुछ महिलाएँ भी थीं। अपरा ने इधर-उधर नजर दौड़ाई पर उसे संजना कहीं नजर नहीं आई तो वह भीतर की ओर बढ़ गई.... हॉल के गेट पर ही संजना की सास ने उसका स्वागत किया..."नमस्ते आंटी जी" अपरा ने हाथ व्यस्त होने के कारण सिर झुकाकर अभिवादन किया।
"आओ..आओ बेटा खुश रहो।"
"संजना किधर है?" उसने पूछा।
वो उधर है, तुम्हारा ही इंतजार कर रही थी अभी-अभी कोई खींचकर ले गया उसे यहाँ से।" उन्होंने कहा।
"जी मैं उससे मिलकर आती हूँ।" कहती हुई अपरा संजना की ओर बढ़ी।
हल्के गुलाबी रंग की जरीदार साड़ी उस पर गोल्डन वर्क किया हुआ हल्के प्याजी रंग की बड़े ही सलीके से दाएँ कंधे पर डाली हुई शॉल, बालों को बड़े ही करीने से बाईं ओर ले जाकर साइड जूड़ा बनाकर उसमें सुंदरता से एक गुलाब पिरो दिया था, गले में मंगलसूत्र के अलावा एक पतला सा स्वर्ण नेकलेस मानों उसके सुराहीदार गर्दन को चूमकर स्वयं के भाग्य पर इतरा रहा था। संजना इस वक्त किसी परी से कम नहीं लग रही थी,
"हे संजना हैप्पी एनीवर्सरी"..अपरा ने बड़े ही गर्मजोशी से संजना को गले लगाते हुए बधाई दी और हाथ में पकड़ा हुआ बुके उसे पकड़ाते हुए बोली- "यार तेरी सासू माँ तो बहुत अच्छी हैं।"
"हाँ, वो सचमुच बहुत अच्छी हैं, इसीलिए तो इतना सबकुछ हो रहा है।" दोनों हाथों से दुल्हन की तरह सजे हुए पूरे घर की ओर संकेत करते हुए संजना ने कहा।
"बाई-द-वे तू तो आज परी से भी खूबसूरत लग रही है, तुझे भी उन्होंने ही सजाया है क्या?" अपरा ने उसे ऊपर से नीचे तक गौर से निहारते हुए छेड़ते हुए कहा।
"थैंक्यू" संजना ने चहकते हुए अपने उसी चिर-परिचित अंदाज में कहा, जिसकी कायल अपरा तब से थी जब उससे पहली बार मिली थी।
"वैसे मैडम आप भी कम गज़ब नहीं ढा रही हैं, मुझे तो डर है कि कहीं मेरे पतिदेव आप पर ही न फ़िदा हो जाएँ।" कहते हुए संजना ने अपनी दाईं आँख हल्के से दबा दी।
"हट नटखट" कहती हुई अपरा ने उसके कंधे पर हल्के से एक धौल जमा दिया।
"अच्छा अपने पतिदेव से कब मिलवा रही है, कहाँ हैं महाशय, उनका तुझे छोड़ कहीं और मन कैसे लग रहा है!" उसने छेड़ते हुए कहा।
"हाँ, अभी थोड़ी देर पहले तो यहीं थे, शायद मेहमानों में कहीं होंगे, आ तुझे मिलवाती हूँ।" कहती हुई संजना अपरा का हाथ पकड़कर बाहर लॉन की ओर चल दी।
"वो वहाँ खड़े है।" कहती हुई संजना अपरा का हाथ पकड़े  लॉन के दूसरे किनारे पर उस ओर चल दी जहाँ बिजली की रंग-बिरंगी लड़ियों से जगमगाते एक पेड़ के नीचे चार पुरुष और दो महिलाएँ खड़े बातें कर रहे थे। दो अधेड़ उम्र के पुरुष थे, जिनमें से कोई भी संजना का पति नहीं हो सकता, एक युवक था जिसकी साधारण सी कद-काठी व साधारण नैन-नक्श थे, बुरा नहीं था परंतु संजना से तुलना नहीं की जा सकती थी, न जाने क्यों अपरा का दिल कह रहा था कि वह संजना का पति नहीं हो सकता। उसने कभी फोटो तक भी नहीं दिखाई थी अपने पति की, इसलिए आज पहली बार वह उसके पति से मिलेगी। उसका दिल कह रहा था कि वह चौथा व्यक्ति ही संजना का पति होगा जिसकी पीठ उनकी तरफ है। पीछे से ही उसके लंबे सुडौल कद-काठी के कारण उसका व्यक्तित्व आकर्षक जान पड़ता था।
उनके करीब पहुँचकर संजना ने मजाकिया लहज़े में कहा- "एक्सक्यूज मी! क्या मैं अपने पतिदेव को थोड़ी देर के लिए बॉरो कर सकती हूँ?"
अरे हाँ...हाँ भई क्यों नहीं! उनमें से एक महाशय ने मुस्कुराते हुए कहा।
तभी वह चौथा युवक संजना की ओर मुड़ा.... अपरा की नजर दूसरे युवक से हटकर उस युवक के चेहरे पर पड़ी, वह जड़वत् हो गई। दोनों एक-दूसरे को देख अवाक् खड़े रह गए...
ये हैं मेरे पतिदेव और नील ये मेरी सबसे अच्छी सहेली, मेरी तन्हाइयों की साथी 'अपरा'..... अपरा को संजना की आवाज कहीं बहुत गहराई से आती हुई महसूस हो रही थी।
#मालतीमिश्रा✍️
चित्र साभार.... गूगल से
                                                                        क्रमशः

7 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन कहानी
    अपरा के लिए दुःखद
    सादर

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    1. यशोदा जी बहुत-बहुत आभा कहानी पढ़ने और प्रतिक्रिया से अवगत कराने के लिए। ब्लॉग पर आते रहिएगा।🙏🙏🙏🙏

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  2. कहानी बहुत लम्बी है सरसरी दृष्टी से पढ़ी बाद मे पुनः पढू़ंगा

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    1. आभार, पढ़िएगा जरूर, प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा।🙏

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    2. सादर अभिवादन भाई, आपकी टिप्पणी से प्रोत्साहन मिलता है।

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  3. बहुत-बहुत आभार रिंकी जी।

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