बुधवार

योग और राजनीति

योग और राजनीति
 
  21 जून 2015 को प्रथम अंतर्राष्ट्रीय योगा दिवस मनाया गया, जिसमे 35,985 लोगों ने राजपथ पर एक साथ भाग लेकर एक नया कीर्तिमान स्थापित किया तथा साथ ही 84 देशों ने एक साथ हिस्सा लेकर एक और कीर्तिमान स्थापित किया, ये दोनों कीर्तिमान 'गिनीज बुक अॉफ वर्ल्ड रिकॉर्ड' मे दर्ज हुए....192 देशों ने योग करके इस दिन को विश्व योगा दिवस के रूप मे मनाया....भारत के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि भारत ने एक साथ 191 देशों का नेतृत्व किया..भारत और भारतीयों के लिए यह गर्व की बात है..
बीजेपी अध्यक्ष के कथनानुसार (हिंदुस्तान) अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के लिए 21 जून की तिथि का चयन 2011 में बेंगलुरु में योगाचार्यों नें किया था क्योंकि इस दिन यानि 21 जून को सूर्य का तेज यानि ऊर्जा सबसे अधिक धरती को मिलता है...
इसी बात को ध्यान में रखते हुए हमारे माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी पिछले वर्ष सितंबर 2014 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपने पहले संबोधन के दौरान यह प्रस्ताव रखा जिसका समर्थन 177 देशों ने किया...मोदी जी की पहल पर ही संयुक्त राष्ट्र ने पिछले वर्ष दिसंबर में 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस घोषित किया...
निश्चय ही यह भारत के लिए गर्व का विषय है, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यह भारत की एक बहुत बड़ी उपलब्धि है, परंतु चंद स्वार्थी व सत्ता के भूखे लोग इस पर भी राजनीति से नहीं चूके...किसी ने इसे दिखावा कहा तो किसी ने इसे राजनीति चमकाने का जरिया, कुल मिलाकर योग का विरोध चाहे किसी अन्य देश में न हुआ हो परंतु हमारे अपने ही देश मे जमकर हुआ..समाज के किसी एक वर्ग विशेष को आकर्षित करने हेतु इसका विरोध करते हुए इसके वैज्ञानिक व नैतिक पहलुओं को पूर्णतः नजरअंदाज कर दिया गया,
चुनाव से पहले वोट मांगते वक्त राजनीतिक पार्टियाँ स्वयं को सबसे बड़ा देशभक्त दर्शाती हैं जैसे समाज और समाज में रहने वाले लोग ही उनके लिए सर्वोपरि हैं किंतु जब जीत कर वो भलाई करने की स्थिति में आते हैं तब उन्हें सिर्फ अपनी राजनीति ही दिखाई देती है तब यदि वो सत्ता में नहीं हैं तो सत्ता पक्ष द्वारा दी जाने वाली औषधि को भी जहर साबित करने का पूरा प्रयास करते हैं...उस वक्त उनका सिर्फ एक ही मकसद रह जाता है जनता के मध्य सामने वाले की छवि खराब करना, नहीं तो सोचने वाली बात है कि योग से किसी का क्या नुकसान??? यह तो तन-मन को स्वस्थ रखने का एक ऐसा माध्यम है जो सदियों से भारत की धरोहर है, जिसे अपना कर दूसरे देश गर्व कर रहे हैं उसे अपने ही घर में तिरस्कार का सामना करना पड़ रहा है...कोई इसे धर्म से जेड़ रहा है तो कोई राजनीति से और जो जनता को इसके वास्तविक रूप और ध्येय से परिचित करवाना चाहता है उसे ढोंग और राजनीति का दर्जा दिया जा रहा है....
चलिए मान लेते हैं कि ये राजनीति चमकाने का जरिया है, तो जो राजनीति देश को, समाज को और हर व्यक्ति को लाभ पहुँचा रहा हो, उसे अपनाने में आपत्ति क्यों ?  अतिशयोक्ति तो तब हो जाती है जब लोगों ने इसे धर्म से जोड़ दिया यह कहकर कि यह किसी एक धर्म विशेष का प्रचार करता है, तो क्या यह किसी अन्य धर्म के मानने वाले को स्वास्थ्य लाभ देने से इंकार कर देगा..सूर्य नमस्कार से धर्म भ्रष्ट होता है...कभी सूर्य, चंद्र ने भी किसी का धर्म पूछा ?? यदि योग धर्म से जुड़ा होता तो क्या विश्व के दूसरे १९१ देश इसे स्वीकार करते? नहीं क्योंकि सभी को अपना धर्म प्रिय होता है...किन्तु अन्य देशों ने इसमें निहित तथ्य देखे न कि इसमें दर्शाए गए तथ्य ....
68 सालों की आजादी के बाद भी हमारा देश आज भी एक विकासशील देश से विकसित देश  नहीं बन पाया इसका ये एक सबसे अहम् कारण है कि यहाँ निजी हित सर्वोपरि है, देशहित बाद में... यहाँ सभी एक-दूसरे की टाँग खींचनें मे व्यस्त हैं अन्यथा यूँ ही नहीं शून्य की खोज करने वाला, विश्व गुरु कहलाने वाला भारत आज पीछे रह गया.... होना तो यह चाहिए कि देश यदि फिर से विश्वगुरु बनने के मार्ग पर अग्रसर हो रहा है तो उसे सभी का सहयोग मिलना चाहिए ताकि विश्व स्तर पर देश का गौरव बढ़ सके, देश के गौरव में ही देशवासियों का गौरव निहित है यह हमें कदापि नहीं भूलना चाहिए... यदि राजनीतिक पार्टियाँ स्वार्थान्धता के कारण देशहित नहीं देख पातीं तो हम देश वासियों का कर्तव्य है कि जो भी कार्य देश के हितार्थ हो हम उसे पूरा समर्थन और सहयोग दें......

शनिवार

भारतीय किसान.."बेचारा"

भारतीय किसान.."बेचारा"
                     भारतीय किसान

देशभक्तों की पहचान बन गया जिसका नारा
आज वही भारत गौरव कहलाता है...'बेचारा'

हल, फावड़ा, खुरपी, हंसिया जिसके हैं औजार
समाज के चंद ठेकेदारों ने किया उसका ही शिकार

खून-पसीने से सींच-सीच खेतों में अन्न उगाता है
दुनिया का पेट भरने वाला खुद भूखा सो जाता है

सैनिक देश का रक्षक है गर तो किसान बना है पोषक
अपने स्वार्थ की रोटी सेकने को आगे आते शोषक

जय-जवान, जय-किसान बन गया जिस देश का नारा
आज उसी देश का किसान कहा जाता है...'बेचारा'

मेहनतकश धरती-पुत्र किसान, धरती माँ जिसका स्वाभिमान
कर्तव्यों से बँध कर भी अधिकारों की नही पहचान

जो देता रहा औरों को सहारा
आज वही धरणी-सुत किसान कहलाता है...'बेचारा'

उसकी मेहनत, उसकी हिम्मत ही है उसका सम्मान
बंगला, गाड़ी, हीरे, मोती का उसको नहीं अरमान

छत टपकती कच्चे घर की फिरभी दुआ माँगता बारिश की
वो चढ़ गया बलि महत्वाकांक्षा की,
 न सुनी किसी ने उसकी पुकार

बन गया चंद जयचंदों की स्वार्थ की मछली का चारा
आज वही हिन्द का गौरव किसान बन गया देखो...'बेचारा'

झूठे सपने दिखा-दिखा कर किया दिग्भ्रमित कर्तव्यों से
सत्ता के अंधे युग-पुरुष ने छोड़ा न कोई और चारा

वो भारत-गौरव 'भारतीय किसान' बनता जा रहा...'बेचारा'
बनता जा रहा...बेचारा.....
Malti Mishra


शुक्रवार

आदर्श विद्यार्थी....."एक सोच"

आदर्श विद्यार्थी....."एक सोच"
                         आदर्श विद्यार्थी…”एक सोच”
मैंने अपने अध्यापन के लगभग १६-१७ सालों के करियर में शिक्षक और शिक्षार्थी के विभिन्न आयामों को देखा है, उनके बदलते विचारों, बदलती मान्यताओं को देखा है ा हमेशा मुझे ऐसा लगता रहा कि ये तो आधुनिक छात्र हैं तो हमें इनको इन्ही के तरीके से पढा़ना और समझाना पड़ेगा ा
मैं ये मानती हूँ कि समय के साथ-साथ सिर्फ रहन-सहन में ही परिवर्तन नही आता बल्कि मनुष्य की मानसिकता भी परिवर्तित होती है, यदि आज पुराने जमाने के ‘चेलों’ के जैसे बिना तर्क-वितर्क किए आँख बंद करके गुरु पर विश्वास करके उनकी बात मानने वाले छात्र नहीं हैं तो पहले के जैसे शिष्य के भविष्य को ही अपना लक्ष्य बना लेने वाले गुरु भी तो नहीं हैं ा
अर्थात् शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों की मान्यताएँ परिवर्तित हुई हैं ा
पिछले कुछ सालों में छात्रों की बदलती मानसिकताओं तथा असफलता के उपरांत उनके द्वारा उठाए गए कदमों के कारण तत्कालीन सरकार के द्वारा शिक्षा की नीतियों में कई अहम् परिवर्तन किए गए, जिसने शिक्षा को अत्यंत सरल बना दिया, निःसंदेह दिन-प्रतिदिन छात्रों में सहिष्णुता का ह्रास होता जा रहा है, आज मैं जहाँ हूँ वहाँ के छात्रों को देखते हुए शिक्षक की स्थिति पर दया आती है, ऐसा प्रतीत होता है कि यदि छात्र ऐसे होते हैं तो शिक्षा क्यों नही औपचारिकता मात्र बन कर रह जाएगी!!!!!!
परंतु फिर विचार करती हूँ तो अहसास होता है कि सभी छात्र निरंकुशता नहीं चाहते, मात्र कुछ छात्र ही ऐसे होते हैं…मैंने तो इस विषय पर बाकायदा परीक्षण किया है कि शिक्षक सकारात्मक रूप से जो चाहे वो विद्यार्थियों से करवा सकता है..हाँ थोड़ा समय जरूर लगता है,
मैं अब भी अपने विद्यार्थयों को नये-नये विषयों पर जानने के लिए प्रेरित करती रहती हूँ और कुछ हद तक सकारात्मक परिणाम भी देखने को मिलते हैं परंतु मुझे वो संतोष नही मिल पाता जो मैंने २०१० से २०१३ तक प्राप्त किया मैं दूर होते हुए भी आज भी उन छात्रों से जुड़ी हुई हूँ, जिन्होंने मुझे परिश्रम के उपरांत प्राप्त होने वाली सफलता से प्राप्त संतुष्टि का अहसास करवाया़..


अध्यापन तो मैं वर्षों से करती आई थी लेकिन मेरी क्षमताओं से मेरा परिचय मेरे इन्हीं होनहारों ने करवाया ा जहाँ उन्हें पढ़ाने वाले कुछ शिक्षकों का यह मत था कि ये बच्चे ग्रामीण क्षेत्र से आते हैं, आधुनिक सुविधाओं का अभाव है, वहीं इन बच्चों ने आधुनिक सुविधाओं से परिपूर्ण शहरी छात्रों को पीछे छोड़ते हुए CBSE के शिक्षण पद्धति के अंतर्गत क्रियाकलापों को इस प्रकार अंजाम दिया कि मेरे साथ-साथ दूसरे सभी अध्यापक भी हैरान थे ा
इन बच्चों को पढ़ाते हुए कभी दिमाग मे ये प्रश्न नहीं आया कि प्राचीन समय मे शिष्य कैसे होते होंगे…. आज भी सोचती हूँ तो ऐसा लगता है कि निःसंदेह ऐसे ही होते होंगे ा मुझे नहीं पता कि आज वो बच्चे मुझे कितना याद करते हैं परंतु मैं आज भी उन्हे बहुत याद करती हूँ, अगर कोई मुझसे आदर्श विद्यार्थी की परिभाषा पूछे तो मैं कहूँगी जो गुण मेरे इन बच्चों में हैं वही गुण आदर्श विद्यार्थी में होते हैं…ये बच्चे जीते-जागते उदाहरण हैं आदर्श विद्यार्थी के ा..

अध्यापकों का सम्मान करना, समय पर गृहकार्य करना, अपनी यूनिफॉम खुद स्वच्छ रखना, कक्षा व स्कूल के नियमों का सख्ती से पालन करना, अनुशासन का पालन करना, कक्षा में अध्यापक की अनुपस्थिति में भी अनुशासन बनाए रखना, अपनी पढ़ाई के साथ-साथ अध्यापक की भी सहायता करना….क्या इतना सब एक साथ एक ही स्थान पर देखने को मिल सकता है? हाँ ये सब एक साथ मेरी पूरी कक्षा में देखने को मिलता था ा आज यदि मैं किसी को उन विद्यार्थियों के विषय में बताती हूँ तो लोगों को ये अविश्वसनीय प्रतीत होता है, पर मैं जानती हूँ कि यही सत्य है ा मैने हिंदी विषय के क्रियात्मक कार्य के तहत सभी कक्षाओं में तरह-तरह के क्रियाकलाप करवाए…
और सभी छात्रों ने कुशलता पूर्वक किया भी, मेरे द्वारा दिए गए कार्य यदि उन विद्यार्थयों के लिए चुनौती थे तो मेरे लिए भी उनसे अपनी इच्छानुकूल परिणाम प्राप्त करना चुनौती ही था..
और सफलता दोनों को प्राप्त हुई ा
नौंवीं, दसवीं के छात्रों का क्रियात्मकता दिखाना तो मेरे लिए संतोषजनक था ही परंतु जब मेरे निर्देशों का पालन करते हुए मेरी कक्षा यानि सातवीं कक्षा के विद्यार्थियों ने “रचना” और “उत्पत्ति” नामक पत्रिका की रचना की तो मुझे इतनी प्रसन्नता हुई कि मैं अपनी उस अनुभूति का शब्दों में वर्णन नही कर सकती….अपनी इस कृति मे इन छात्रों ने जान डालने हेतु सभी अध्यापकों की राय ली……
एक पत्रिका मे किन-किन विषयों पर चर्चा होनी चाहिए उन सबका ध्यान रखा..

उन छात्रों की कृतियाँ देखकर हमें ज्ञात हुआ कि हमारे देश के ये नन्हे भविष्य सही मार्गदर्शन मिलने पर कितना आगे तक सोच सकते हैं…

उन नन्हे विद्यार्थियों की इस उत्पत्ति को मैं एक प्रकाशित पुस्तक का रूप देना चाहती थी परंतु मैं ऐसा कर न सकी, पर मैं आज इस बात से प्रसन्न हूँ कि उन बच्चों की ये रचनाएँ उनकी याद बनकर हमेशा मेरे साथ रहेंगी….
और मेरा आशीर्वाद हमेशा उनके साथ है, मैं चाहूँगी कि ये बच्चे भविष्य मे भी सदैव इसी तरह अनुशासित और मर्यादित रहें तथा अपने माता-पिता, गुरु और देश को गौरवान्वित करें….
कोमल गगन, वैशाली, चित्रा, शना,राशि,सौरभ, शुभम, अभिषेक, आदित्य आदि को स्मरण करते हुए……

मंगलवार

भारतीय किसान

भारतीय किसान
                             भारतीय किसान.

भारत हमेशा से कृषि-प्रधान देश रहा है, एक समय था जब किसान होना गर्व का विषय माना जाता था परंतु आज के समय मे किसान मतलब 'पिछड़ा हुआ व्यक्ति' ा जबकि भारत आज भी कृषि प्रधान देश है फिर प्रधानता रखने वाला वर्ग इतना पीछे कैसे रह गया? यदि इस तथ्य पर विचार किया जाए तो एक ही कारण सामने आता है 'अशिक्षा' ! भारत में किसानों का बहुत बड़ा वर्ग आज भी शिक्षा से महरूम है,जिसके कारण वह खेती के आधुनिक तरीकों से भी अनभिज्ञ है और पुराने तरीके से खेती करने के कारण वह मुश्किल से अपने भरण-पोषण लायक अनाज पैदा कर पाता है, इसे अपना रोजगार नहीं बना पाया... जिसके कारण समाज मे पीछे रह गया ा

समय-समय पर सरकारों द्वारा भी किसानों के उत्थान हेतु तरह-तरह के कदम उठाए जाते रहे हैं परंतु उनमें से कुछ तो पर्याप्त नहीं और कुुछ तो सिर्फ अपनी राजनीति को चमकाने हेतु उठाए गए ा जो किसान शहरों के बड़े-बड़े उद्योगपतियों का भरण-पोषण करता है वही किसान कभी-कभी अपने ही भरण-पोषण के लिए असक्षम हो जाता है ा

इतिहास गवाह रहा है कि साधारण किसान साहूकारों, जमींदारों द्वारा तरह-तरह से प्रताड़ित किया जाता था,  फिर भी वह जीवन से निराश नही होता था, बाधाओं और मुश्किलों से लड़ना तो उसके जीवन का अभिन्न अंग बन चुका है, जमीदारों और साहूकारों की प्रताड़ना समाप्त होने के बाद भी किसान अब तक अपनी परिस्थितियों से जूझता आ रहा है... परंतु परिस्थितियों से हार मानकर अपनी जिम्मेदारियों से भागना उसका स्वभाव नही है ा

आजकल किसान आत्महत्या करने लगा है..., सदा परिस्थितियों से लड़ने वाला किसान इतना कमजोर कैसे हो गया? निःसंदेह आज राजनीति के चलते उसकी मानसिकता पर वार होता है, उसे बेचारेपन का अहसास करवाया जाता है, लोग उसे हथियार बनाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं, उनकी राजनीति के चलते किसान स्वयं को लाचार और बेसहारा महसूस करते हुए इनके स्वार्थपरता का शिकार बन जाता है और जीवन से हार मान स्वयं के साथ घात कर बैठता है....उसे क्या पता कि उसके मरणोपरांत यही समाज के ठेकेदार उसकी मृत्यु को हथियार बना कर अपनी राजनीति का पलड़ा भारी करेंगे ा

आज सबसे अधिक आवश्यकता है किसानों को शिक्षित और जागरूक होने की ताकि कोई भी उन्हें अपनी स्वार्थ साधना का शिकार न बना सके ा

सोमवार

अतिथि देवो भव

अतिथि देवो भव
                            अतिथि देवो भव 

भारत एक ऐसा देश है जहाँ सभी धर्मों का समन्वय देखने को मिलता है ा दुनिया के लगभग सभी धर्मों को मानने वाले हमारे देश मे मिल जाएँगे, सभी धर्मों का सम्मान भी होता है ा
"वसुधैव कुटुम्बकम्" सिर्फ शब्द नहीं इस देश का प्राण है ा सभी को मनचाहा धर्म अपनाने का अधिकार भी है, जिस तरह एक गुलिस्तां या बगिया मे भिन्न-भिन्न प्रकृति और सुगंध के फूल खिले हुए हों और दूर से देखकर अत्यंत मोहक लगते हैं, उसी प्रकार हमारा देश भी विभिन्न धर्म रूपी फूलों से सजा हुआ है और सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखने या यूँ कहूँ कि समान अधिकारों की वजह से यह 'धर्म निरपेक्ष' राष्ट्र कहा जाता है ा ऐसा क्यों है कि सिर्फ यही देश सभी धर्मों को एक साथ समन्वित कर सका ? ऐसा इसकी संस्कृति के कारण ही संभव हो पाया है, "अतिथि देवो भव" भारतीय संस्कृति का मूल मंत्र है, ऐसा दुनिया के किसी भी कोने मे देखने को नही मिलता, अपनी इसी परंपरा के तहत जिस भी धर्म और संस्कृति को मानने वाले यहाँ आए भारत ने उन्हे बिना शर्त ससम्मान सिर आँखों पर बैठाया, जहाँ इतना प्यार और सम्मान मिलता हो वहाँ से कोई क्यों जाए वो इसी परिवार का अंग या यूँ कहें कि अभिन्न अंग बनते गए ा
पर कहते हैं न कि मेहमान कुछ दिनों तक ही शोभायमान होते हैं अन्यथा मेजबानों का ही जीना दूभर कर देते हैं, ऐसा क्या इस देश मे नही हुआ?
मूलतः भारत यानि हिन्दुस्तान हिन्दू राष्ट्र है पर आज की स्थिति पर यदि गौर करें तो यहाँ हिन्दुओं की ही स्थिति दयनीय हो गई है, राजनीति के चलते हिन्दुओं को हिंदुस्तान मे ही अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी पड़ रही है ा राजनीतिक पार्टियाँ किसी अन्य धर्म के प्रति एक व्यक्तिगत मसले या अपराध को राजनीतिक व धार्मिक रूप बनाकर  ऐसे पेश करती हैं जैसे कि किसी के धर्म पर हिंदुत्व ने प्रहार किया हो, और प्रसिद्धि पाने के लिए मीडिया भी ऐसी खबरों को नमक-मिर्च लगाकर दिखा-दिखा कर जनता मे आक्रोश बढ़ाने का काम करती है, वहीं दूसरी तरफ हिंदू धर्म के प्रति हुए अपराध भी कहीं दब-छिप कर रह जाते हैं ा ऐसी परिस्थिति में कुछ स्वार्थी लोग मीडिया और राजनेताओं की इन नीतियों का गलत फायदा उठाते हैं उदाहरण के लिए अभी मुंबई की मिस्बाह की घटना को ही लें, धर्म को आधार बनाकर किस प्रकार उन्होंने अपने अपराध को छिपाते हुए बिल्डर को ही दोषी बता दिया ा दूसरा उदाहरण हम कश्मीरी पंडितों का ही ले सकते हैं, जिन मुस्लिमों से वो कुछ दशक पहले अपना भाईचारा निभाते थे आज उन्हीं लोगों ने उन्हें ऐसा बेघर किया है कि उन्हें अपने ही घर मे अपने अस्तित्व के लिए लड़ना पड़ रहा है ा जब मेहमान मेजबान को ही घर से बेघर करने लगेगा तो कौन किसी को अपना अतिथि बनाना चाहेगा?
धर्मनिरपेक्ष कहे जाने वाले राष्ट्र भारत में सम्मान तो सभी धर्मों का है यदि कुछ स्वार्थी समाज के ठेकेदार हैं कहे जाने वाले राजनीतिक पार्टियों के कर्ता-धर्ता इस देश को धर्म के नाम पर न बाँटें तो ा
दूर से गुलिस्तां के जैसे सुंदर दिखाई देने वाले भारत के दर्द को जो समझ लेगा वो धर्म निरपेक्ष बेशक कहलाना चाहे पर अपनी स्थिति उस मेजबान के जैसी तो बिल्कुल नहीं होने देगा जो अपने ही घर में अपने मेहमान के समक्ष विवश खड़ा हो ा
ऐसी स्थिति देश मे आई क्यों? वसुधैव कुटुम्बकम् का नारा लगाने वालों में इतना द्वेष और वैमनस्य क्यो???
यदि हम इसका उत्तर ढूँढ़ने का प्रयास करें तो पाएँगे कि गरीबी और अशिक्षा ही इसका मूल कारण है, चंद शिक्षित वर्ग जनता केे भोलेपन का फायदा उठाकर समाज के ठेकेदार बनकर जनता को गुमराह करते हैं और उन्हें आपस मे लड़वा कर दूर खड़े होकर तमाशा देखते हैं ा
इन परिस्थितियों से बाहर निकलने का एक ही रास्ता है शिक्षा व जागरूकता ा पर ये इतना आसान भी नहीं, क्योंकि समाज के ठेकेदार जानते हैं कि यदि जनता जागरूक हो गई तो इनका अस्तित्व खतरे मे पड़ जाएगा ा इसलिए ये तरह-तरह से जनता को भ्रमित करते हैं और आगे भी करते रहेंगे, अब यह व्यक्ति पर निर्भर है कि वह किस तरह स्वयं को इन कुचक्रों से बाहर निकाले.....