'पृथ्वीराज'...."एक अनकही दास्तां" (संस्मरण)
बात कोई सन् 1985-86 की है, उस दिन दोपहर से ही घर के बड़ों के व्यवहार कुछ अलग दिखाई दे रहे थे, कभी माँ दादी से धीरे-धीरे बातें करतीं और हम बच्चों को पास आते देखकर चुप हो जातीं। कभी चाची और छोटी दादी आपस में खुसर-पुसर करते दिखाई देते। जिधर देखो उधर ही कुछ अलग ही सुगबुगाहट सी नजर आ रही थी पर कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आखिर हो क्या रहा है? क्यों ये लोग आपस में खुसर-पुसर करते हैं और हम लोगों को देखते ही चुप हो जाते हैं? अभी थोड़ी देर पहले बाबूजी आए थे और इस भरी दोपहरी में फिर पता नहीं कहाँ चले गए। और हाँ शायद वो माँ से शरबत बनवा कर ले गए थे या फिर पानी और उसके साथ कुछ मीठा। पर ऐसा तो सिर्फ मेहमानों की आवभगत के लिए ही किया जाता है और जब से बाबूजी गए हैं तभी से घर की औरतों के बीच ये सुगबुगाहट सी शुरू हो गई है। जब बच्चों से कुछ छिपाने की कोशिश की जाए और ये कोशिश बच्चों की नजर में आ जाए तो बालमन उस बात को जानने के लिए व्यग्र हो उठता है, मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। जब मैं अपनी तरकीबें लगाकर हार चुकी और मुझे कुछ पता नहीं चला तो आखिर में मैंने माँ से पूछ ही लिया- "माँ बाबूजी कहाँ गए हैं?"
कहीं नहीं बस वहीं गाँव के बाहर पीपल के नीचे बैठे हैं।" माँ ने बताया।
"पर वहाँ हैं तो पानी लेकर क्यों गए हैं?" मेरी जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी।
"अरे होंगे गाँव के और लोग, दोपहर है गर्मी है तो प्यास लगी होगी इसलिए ले गए।" माँ ने खीजते हुए कहा।
पर मैं माँ के जवाब से संतुष्ट नहीं हुई, मुझे पता है कि इस समय तो रोज बाबूजी सोते हैं और आज वो न सिर्फ बाहर हैं शायद किसी की मेहमान नवाजी कर रहे हैं, परंतु यदि मेहमान है तो घर पर क्यों नहीं आया? मेरे मस्तिष्क में सवालों की संख्या बढ़ती जा रही थी।
"पर माँ! वहाँ और लोग भी तो होंगे जिनके घर वहीं पास में हैं, तो उनके घर से क्यों नहीं पानी मँगवा लिया?" मैंने एक और सवाल दागा माँ की ओर।
माँ झुंझला गईं और झिड़क कर बोलीं-"मुझे क्या पता क्यों नहीं मँगवाया, क्यों यहाँ ही पानी लेने आए? जब तुम्हारे बाबूजी आ जाएँ तो उनसे ही पूछना।"
अब आगे कुछ भी पूछने का मैं साहस न कर सकी और यह जानते हुए भी कि माँ मुझसे कुछ छिपा रही हैं मेरे पास बाबूजी का इंतजार करने के अलावा कोई अन्य रास्ता न था।
माँ की झिड़की खाकर मैं भाइयों के साथ खेलने चली गई और हम लोग फिर से खेल में ऐसे खोए कि सबकुछ भूल गए। बाबूजी आए या नहीं ये जानना भी याद नहीं रहा। जेठ की तपती दुपहरी में इंसान हों या जानवर, बड़े हों या छोटे सब ठंडी और छायादार जगह ढूँढ़ते हैं फिर चाहे वो खेलने के लिए ही क्यों न हो! और ऐसे में बगीचे से अच्छी जगह खेलने के लिए और कहाँ हो सकती है; इसीलिए हम बच्चे भी खेलने के लिए गाँव से कोई दो-ढाई सौ मीटर दूर बगीचे में पहुँच गए खेलने। हमारा वह बगीचा मध्यम आकार का एक घना छायादार बगीचा था। इसमें गाँव के कई परिवारों के पेड़ थे इसलिए यह किसी का अकेले का नहीं था। लोग फसल की कटाई के समय यहीं खलिहान बना लेते और सीजन के अनुसार गेहूँ या धान की बड़ी-बड़ी ढेरियाँ लगी होती थीं। वैसे तो इस बगीचे में महुआ, अमरूद, बबूल, शीशम, केले आदि कई तरह के पेड़ थे लेकिन सबसे अधिक आम के पेड़ों थे जिसके कारण इतनी तेज धूप होने के बाद भी बगीचे में कहीं भी धूप नहीं होती थी। बगीचे के दक्षिण पश्चिम कोने में हमारा ट्यूबवेल था वहीं एक कुआँ था और इंजन को रखने और छोटे-मोटे सामान रखने के लिए एक छोटी सी झोपड़ी थी, झोपड़ी में एक चारपाई हमेशा बिछी रहती थी। कोई भी दोपहर को यहाँ आराम कर लिया करता या रात को ट्यूबवेल की रखवाली करने के लिए घर से जो भी आता वो इसी चारपाई पर सोता था। कुएँ से पानी निकालने के लिए एक बाल्टी और रस्सी हमेशा कुएँ के पास रखी होती थी ताकि कोई राहगीर यदि प्यासा हो तो वह अपने लिए पानी निकाल सके। हम भी जब बगीचे में खेलने जाते तो ट्यूबवेल पर जरूर जाते। आज भी मैंने सोचा था कि पहले थोड़ी देर ट्यूबवेल के पास केले के पेड़ों के बीच छोटे-छोटे खेतों में बनी क्यारियों में घूमूँगी फिर बाद में खेलूँगी
अभी हमने बगीचे में प्रवेश किया ही था कि दूर से ही मुझे ट्यूबवेल पर कुछ चहल-पहल सी दिखाई दी। वहाँ चारपाई झोपड़ी के बाहर ही बिछी हुई थी और कई लोग वहाँ बैठे थे। कई लोगों ने सफेद कुर्ता-पायजामा पहना हुआ था। कितने लोग हैं यह मैं जान पाती उससे पहले ही बाबूजी की कड़कती हुई आवाज मेरे कानों में पड़ी "कहाँ चले आ रहे हो इस दोपहरी में, चलो वापस जाओ और जाकर घर पर आराम करो। जब देखो बस खेलते रहना है।" हमारे पैर आवाज सुनते ही जैसे धरती से चिपक गए, किसकी मजाल थी जो बाबूजी की अवज्ञा करता! हम सभी यंत्रचालित से मुड़े और जिस फुर्ती से गए थी उसी फुर्ती से वापस घर की ओर भागे और घर पहुँचकर ही दम लिया। अब मुझे अपने इस सवाल का जवाब तो मिल चुका था कि बाबूजी कहाँ हैं? पर एक अन्य सवाल था कि आखिर वो कैसे मेहमान थे जो घर नहीं आए? हम बच्चे जानवरों की घारी (जानवर बाँधने की जगह) में जाकर बैठ गए और अब हमारी चर्चा शुरू हो गई कि आखिर बाबूजी बगीचे में क्यों मेहमान नवाजी कर रहे हैं.....
"अरे, देखा नहीं कई लोग हैं न! इसीलिए। अब इतने लोगों को घर पर कहाँ बैठाते?" मेरे बाबूजी के चचेरे भाई यानि मेरे चाचा जो मुझसे दो-ढाई साल ही बड़े होंगे बोले।
"हाँ, लेकिन वो सब लोग मेहमान थोड़े ही हैं, उनमें तो बहुत से लोग गाँव के हैं।" पड़ोस में रहने वाले एक बच्चे ने कहा।
"तुम्हें कैसे पता?" मेरे भाई ने जिज्ञासावश पूछा।
"काहे हम पहचानते नहीं क्या!" कहते हुए उसने कई लोगों के नाम गिनवा दिए। यह सत्य है कि मैं गाँव के लोगों को उसके जितना नहीं पहचानती थी क्योंकि मैं तो अभी कुछ महीनों से वहाँ रह रही थी जबकि वह तो अपने जन्म से ही सबको जानता था।
ओह! तो इसका मतलब कि वो जो भी मेहमान हैं वो किसी एक घर के नहीं बल्कि कई लोगों के जानने वाले होंगे, इसीलिए वो वहाँ रुके हैं ताकि सब लोग एक साथ मिल बैठ कर बातचीत कर सकें।" मैंने बुद्धिमत्ता दिखाते हुए कहा।
"हाँ...हाँ..सही बात है" एक साथ कई बच्चे बोले।
"लेकिन बाबूजी ने हमें क्यों वहाँ से भगा दिया?" मेरे भाई ने सशंकित होते हुए कहा।
"अरे! तुझे पता नहीं क्या बाबूजी की आदत, हम लोग वहाँ खेलते तो शोर होता, और तू तो जानता है कि किसी के सामने शोर बाबूजी को बिल्कुल पसंद नहीं, इसीलिए पहले ही भगा दिया।" मैंने अपना बड़प्पन दिखाते हुए कहा।
"अच्छा ही तो हुआ न कि पहले ही भेज दिया, बाद में डाँटकर सबके सामने से भगाते तो कितनी बेइज़्ज़ती होती न!" एक अन्य बच्चे ने कहा।
"हाँ...सही बात है।" सभी ने अपनी सहमति जताई।
तभी माँ आ गईं और बोलीं- "चलो जाकर थोड़ी देर सब सो जाओ फिर टूशन (ट्यूशन) जाना है।"
हम सब अनमने भाव से उठकर अपने-अपने घरों को चल दिए, पर मन में एक संतोष कि हम सबने एक पहेली सुलझा ली है माँ के न बताने के बाद भी।
पर समझ नहीं आ रहा था कि इसमें छिपाने जैसी क्या बात थी? माँ हमें बता देतीं तो क्या हो जाता? खैर कोई बात नहीं, अब मन हल्का हो चुका था, अब मैं चैन से सो सकती थी।
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शाम के कोई साढ़े चार- पाँच बज रहे थे, मैं पड़ोस के घर में अन्य बच्चों के साथ ट्यूशन पढ़ रही थी। हमारे स्कूल के ही एक मास्टर सा'ब हमारे गाँव में आकर उन बच्चों को मुफ्त में ट्यूशन पढ़ाते थे, जो पढ़ाई में कमजोर थे और उन्हें घर में कोई पढ़ाने वाला न था। वैसे तो मैं पढ़ाई में होशियार थी पर घर में मुझे पढ़ाने वाला कोई न था इसलिए माँ मुझे भी भेज दिया करती थीं ताकि अपना समय खेल में बर्बाद करने की बजाय कुछ देर वहाँ बैठकर मैं भी कुछ सीख लिया करूँगी।
मास्टर जी हमें गणित के सवाल समझा रहे थे कि तभी 'धाँय' की एक जोरदार आवाज सुनाई दी। हम सभी डर गए, उस घर की सभी औरतें सहम गईं आखिर ये कैसी आवाज थी? सब एक-दूसरे का मुँह देख रहे थे तभी एक महिला भागती हुई आई... और हाँफते हुए बोली- "ग..गोली चली है।"
क्या..कहाँ?... सबके सब हक्का-बक्का से एक-दूसरे का मुँह देख रहे थे।
हम बच्चे भयभीत होकर मास्टर जी को देखने लगे। मास्टर जी हमारी मनोदशा समझ चुके थे इसलिए हमें साहस बँधाते हुए बोले-"आप लोग डरो मत, यहाँ कोई नहीं आ रहा है, और पता नहीं इस बात में कितनी सच्चाई है? हम अभी देखकर आते हैं।" कहते हुए मास्टर जी खड़े ही हुए थे कि तभी एक साथ धांय-धांय की दो-तीन आवाजें आईं।
"मास्टर सा'ब आप अभी यहीं रहिए, गाँव के बाहर डाकू हैं जो गोली चला रहे हैं, वो लोग पृथ्वीराज को मारने आए हैं।" एक अन्य बुज़ुर्ग महिला ने आते हुए कहा।
"हमें घर जाना है।" रुआँसे होकर एक साथ कई बच्चों ने कहा।
मेरा घर तो बराबर में ही था बस बरामदे से उतरकर दाएँ हाथ पर आठ-दस मीटर चलकर मैं अपने बरामदे में पहुँच सकती थी इसलिए मास्टर जी ने मेरे कहने पर मुझे भेज दिया और बाकी बच्चों को बाद में खुद ही उनके घरों तक छोड़कर आए।
जहाँ घर के सभी बड़े चिंतित और भयभीत दिखाई दे रहे थे वहीं बच्चे भय से अधिक रोमांचित थे, कम से कम मैं तो थी। मेरा मन ये सोचकर रोमांचित हो रहा था कि पता नहीं ये पृथ्वीराज कौन है? कैसा दिखता होगा? नाम सुनकर मस्तिष्क में जो छवि बनती है वो एक लंबे-चौड़े, बलिष्ठ कद्दावर व्यक्ति की बनती है, पता नहीं आज वो बचेगा भी या नहीं? बीच-बीच में थोड़ी-थोड़ी देर में गोलियों की आवाजें आतीं, कभी लगातार कई-कई फायर होते कभी थोड़ा रुक-रुक कर। तभी माँ घबराई हुई जल्दी-जल्दी आईं। दादी, छोटी दादी और मंझली चाची मानो उन्हीं का इंतजार कर रही थीं....
"क्या हुआ?" दादी ने लपक कर माँ के कंधे पकड़ते हुए पूछा।
"क्या बताएँ वो लोग वहीं हैं, वो बगीचे में से आ रहे थे, आधे रास्ते तक आ गए थे लेकिन तभी किसी डाकू ने देख लिया और चिल्लाकर गाली देते हुए बोला कि वापस चला जा नहीं तो गोली मार देंगे।" माँ बोलते-बोलते मानों रो पड़ीं। अब तक मैं भी समझ चुकी थी कि मेरे बाबूजी अभी तक बगीचे में ही हैं और अब वह वहीं फँस चुके हैं, चाहते हुए भी आ नहीं सकते।
"तब क्या किया बाबू ने?" दादी ने घबराकर पूछा।
"क्या करते हमने भी वहीं पीपल के पेड़ के नीचे से ही चिल्लाकर कहा कि वापस चले जाएँ और उधर से ही दक्षिण दिशा की तरफ जाकर तालाब की तरफ से आ जाएँ वो बेचारे वापस चले गए।" माँ ने चिंतित स्वर में कहा।
"चारों ओर मुए धाँय-धाँय गोली चला रहे हैं आदमी जाए तो किधर जाए?" छोटी दादी ने बड़बड़ाते हुए कहा।
"घर के सभी आदमी तो बाहर ही हैं, भगवान सबको सही-सलामत रखे।" मँझली चाची हाथ जोड़कर आसमान की ओर देखते हुए मानों भगवान से प्रार्थना करती हुई बोलीं।
अब तक तो मुझे भी डर लगने लगा था। भगवान बाबूजी को सही-सलामत रखना, मैं मन ही मन भगवान से प्रार्थना करने लगी।
माँ बेचैन होकर कभी गाँव के बाहर तक जातीं परंतु आगे न जा पातीं और वापस लौट आतीं, उनकी बेचैनी हमें और अधिक परेशान कर रही थी। तभी गाँव के दूसरे किनारे से कोई महिला जल्दी-जल्दी आईं और बताया कि डाकू नदी के घाट पर पीपल के पेड़ के पास वाले बगीचे में हैं और पृथ्वीराज को मार दिया और बड़े खुश होकर जयकारे लगा रहे थे। "मार दिया"......यह सुनकर सिर्फ माँ ही नहीं वहाँ मैज़ूद सभी स्त्रियाँ सकते में थीं और तो और मैं भी। जिसे मैं जानती नहीं जिसे कभी देखा नहीं जिसका नाम भी अभी कुछ देर पहले ही सुना था उसके मरने की खबर सुनकर न जाने क्यों बहुत बुरा लगा। शायद इसलिए क्योंकि मैं जानती नहीं थी कि 'पृथ्वीराज' कौन था?
करीब आधे घंटे बाद ही बाबूजी गाँव के बाहर की ओर से घूमकर विपरीत दिशा (पूरब) की ओर से घर आ गए। अब हम लोगों का भय कम हुआ परंतु अभी भी चाचा-चाची खेतों में थे पर कम से कम मुझे उनके विषय में पता न था, लेकिन घर के बड़े अभी भी कुछ चिंतित थे। फिर से गोलियाँ चलने की आवाजें आईं।
"अभी तो कोई कह रहा था कि पृथ्वीराज को मार दिया तो अभी तक तसल्ली नहीं हुई उन कमबख्तों को" दादी बड़बड़ाईं।
"आखिर ये सब हो क्या रहा है कौन लोग हैं ये सब जो गोली चला रहे हैं?" माँ ने बाबूजी से पूछा।
"वो पृथ्वीराज के दुश्मन गिरोह वाले हैं, किसी ने जाकर उन्हें खबर दे दी कि पृथ्वीराज यहाँ हैं तो बस वो लोग आ गए उन्हें मारने।" बाबूजी ने कहा।
"तो वो भी कोई कम है...वो नहीं मार सकते थे उन डाकुओं को!" छोटी दादी ने कहा।
"वो आठ लोग हैं और पुलिस की वर्दी पहन कर आए हैं, आज सवेरे ही पृथ्वीराज के घर पर पुलिस का छापा पड़ा था इसलिए तो वो घर से भाग कर यहाँ बगीचे में आकर बैठे थे, अब उन्हें बदमाशों को पुलिस की वर्दी में देखा तो वो समझे कि वे सब पुलिस वाले हैं इसीलिए वो सिर्फ अपनी जान बचाने के लिए पेड़ की आड़ लेते हुए बगीचे से बाहर निकल गए। जब तक उन्हें पता चला कि वो बदमाश हैं तब तक वो लोग फैल चुके थे। पहले पता होता तो उनके पास ग्यारह राउंड की रायफल थी वो वहीं ढेर कर देते सबों को पर बाद में एक-दो फायर ही किया सिर्फ अपने भागने के लिए।" बाबूजी ने बताया।
"जब वो बगीचे में आकर बैठे तो तुम क्यों गए उन डाकू-लुटेरों के साथ बैठने? अपनी जान के भी लाले पड़ गए थे। जैसों के साथ बैठोगे वैसे ही समझे जाओगे न!" माँ ने क्रोधित होते हुए कहा।
"अरे मैं कौन-सा जानबूझ कर गया था! वो तो दोपहर घूमते हुए ट्यूबवेल पर चला गया को पहले से ही वहाँ पर पृथ्वीराज, उनके जानने वाले दो लोग, प्रधान और बड़े पुरवा के चौधरी दो-तीन और लोगों के साथ बैठे थे तो हम भी वहीं चौधरियों के साथ बैठ गए। हमें क्या पता था कि ऐसा भी कुछ हो सकता है।" बाबूजी ने सफाई देते हुए कहा।
"अच्छा ये बताओ वो देखने में कैसे हैं?" छोटी दादी ने उत्सुकता वश पूछा।
"लंबे-चौड़े तो हैं पर एक पैर में कोई कमी है तो लँगड़े हैं।" बाबूजी ने बताया।
तभी हमारे पुरवा (मोहल्ला) से दूसरे पुरवा पर जाने वाली पगडंडी पर दो-तीन लोग इतनी तेज-तेज गालियाँ देते हुए आ रहे थे कि उनकी आवाज हमारे घर तक आ रही थी। पड़ोस की ताई ने बताया कि पुरवा पर ये लोग लोगों के घरों में पृथ्वीराज को ढूँढ़ रहे हैं वो नही मिले तो ये कह रहे हैं कि गाँव वालों ने ही छिपाया है। इसीलिए तिलमिलाए हुए हैं। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि सच क्या है और झूठ क्या है? कोई कहता कि पृथ्वीराज मर चुका है तो कोई कहता कि उसको दूसरों के घरों में ढूँढ़ा जा रहा है।
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धीरे-धीरे सांझ का धुँधलका घिरने लगा, गोलियों की आवाजें आनी बंद हो गई थीं, दोनों चाचा और छोटी चाची भी घर आ गए थे। वे दोनों गाँव के उत्तर की ओर करीब एक-डेढ़ किलोमीटर दूर नदी के किनारे हमारे खेत हैं, उन्हें जोतने के लिए गए थे, छोटी चाची भी बाद में वहीं गईं थीं और उनके वापस आने से पहले ही गोलियाँ चलनी शुरु हो गईं इसलिए वहीं रुकना पड़ा। छोटे चाचा ने बताया कि एक गोली तो उनके दोनों पैरों के बीच से होती हुई निकली थी। तभी मँझले चाचा ने बताया कि एक गोली उनके कान के पास से निकली वो लोग तो आज बाल-बाल बचे हैं, बहुत से लोग अपने-अपने खेतों में थे कोई भी किसी की गोली का शिकार हो सकता था। जब गोली चलने लगी तो सभी अपने-अपने हल-बैलों के साथ भागने लगे, तभी उनमें से किसी बदमाश ने चिल्लाकर कहा कि "जो जहाँ है वहीं लेट जाओ तो किसी को कुछ नहीं होगा, भागोगे तो किसी को भी गोली लग सकती है। हम लोग वहीं अपने बैलों के साथ खड़े रहे।
अब तक गाँव के दो-तीन लोग और आ गए थे हमारे घर। अब बाहर ही दो खाटों पर बैठकर चर्चा चल रही थी कि किस प्रकार क्या-क्या हुआ...वे लोग भी वहीं खेतों में थे, सभी अपनी जान बचाने के लिए भगवान को धन्यवाद कर रहे थे।
"आखिर उन बदमाशों को पता कैसे चला कि पृथ्वीराज यहाँ हैं?" उनमें से एक व्यक्ति ने कहा।
"पता नहीं भाई लेकिन किसी ने खबर की ही होगी और पृथ्वीराज तो पता लगा ही लेंगे, छोड़ेंगे नहीं उसे, अब उसकी तो मौत आई ही समझो।" दूसरे व्यक्ति ने कहा।
"पर हमने तो सुना है कि वो मारे गए! वो लोग वहाँ घाट वाले बगीचे में उनको मारकर जयकारा लगा रहे थे।" दादी बीच में बोल पड़ीं।
सबकुछ मेरे लिए इतना रोमांचित था कि डर जाने कहाँ गायब हो गया था, कोई फिक्र भी नहीं थी क्योंकि परिवार के सभी सदस्य घर आ चुके थे। मास्टर जी भी फायरिंग बंद होने के बाद गाँव के दूसरी ओर से अपने गाँव जा चुके थे। क्योंकि अब सबकुछ अपनी जगह स्थिर और सही-सलामत था तो उस घटना की चर्चा सुनना मेरे लिए किसी परी-कथा से कम न था; लिहाज़ा मैं भी वहीं पास में बिछी चारपाई पर बैठी सबकी बातें सुन रही थी।
"अरे इतना आसान है क्या पृथ्वीराज को मारना!" उनमें से एक बुज़ुर्ग से दिखने वाले व्यक्ति ने इतने फख्र से गर्दन ऊँची करके कहा मानों अपनी ही वीरता की दास्तां सुना रहे हों। उन्होंने बताया कि बगीचे में से पृथ्वीराज पहले पेड़ों की आड़ लेकर बाहर निकलते हुए गन्ने के खेत में छिपे, वहाँ से उन्होंने दो-तीन फायर भी किया लेकिन वे बदमाश बगीचे के दूसरी तरफ थे इसलिए किसी को गोली नहीं लगी। फिर गन्ने के खेतों में से होते हुए वो नदी के किनारे से होते हुए घाट वाले बगीचे के दूसरी ओर (उत्तर दिशा में) एक गन्ने के खेत में छिप गए लेकिन उन्हें पता था कि वो वहाँ ज्यादा देर सुरक्षित नहीं रह सकते इसलिए उन्होंने अपनी लुंगी कुछ गन्नों से लपेट दी और उसके पत्तों पर अपनी टोपी इस प्रकार रख दी कि खेत के बाहर से इसप्रकार दिखाई दे मानों पृथ्वीराज खुद बैठे हैं और खुद विपरीत दिशा में निकल गए। बदमाशों को जब खेत में उनकी लुंगी और टोपी की हल्की झलक दिखाई दी तो उन्होंने वही समझा जो पृथ्वीराज उन्हें समझाना चाहते थे; फिर क्या था ताबड़तोड़ गोलियाँ चलाकर छलनी कर दिया और खुश होकर जयकारे लगाने लगे। पर जब खेत में जाकर देखा तो समझ गए कि यहाँ भी पृथ्वीराज ने उन्हें बेवकूफ बनाया है। उधर पृथ्वीराज पुरवा के किसी किसान के बैलों के पीछे-पीछे छिपते हुए गाँव में घुस गए और सुना है कि वहीं से साड़ी पहनकर निकल गए।
"पर सुना है कि दो-तीन लोग मारे गए हैं!" बाबूजी ने कहा।
"हाँ बाबू वहीं नदी के घाट पर जो पीपल का पेड़ है उसी के नीचे तीन लोगों को मारा है।" छोटे चाचा ने सहमे हुए लहजे में कहा। मैंने अनुमान लगाया कि चाचा लोगों ने तो जरूर देखा होगा, आखिर वो लोग उधर से ही तो आए होंगे और कोई दूसरा तो रास्ता भी नहीं है। "रात हो गई है नहीं तो अबतक तो पुलिस आ गई होती, अब तो सबेरे ही आएगी।" उनमें से ही एक व्यक्ति ने कहा।
रात का अंधेरा इतना गहन था मानों चंद्रमा भी डर कर छिप गया है, हाथ को हाथ सुझाई नहीं दे रहा था, आकाश में तारे तो झिलमिला रहे थे किंतु वो भी अस्तित्वहीन से प्रतीत हो रहे थे; अबतक तो गाँव में लोग खा-पीकर सोने का उपक्रम करने लग जाते हैं परंतु आज तो जैसे किसी को खाने-पीने की सुध ही नहीं थी। 'पृथ्वीराज' जिसे कल तक गाँव में कोई जानता भी न था शायद कोई इक्का-दुक्का लोग ही जानते होंगे, जिसका काम समाज और कानून की नजर में असामाजिक और गैरकानूनी था, वो आज बिना कुछ किए कुछ ही देर में हीरो बन गया और गाँव का बच्चा-बच्चा आज उसकी ही चर्चा में व्यस्त है। भूख या नींद तो लोगों को याद भी नहीं, हमारे घर में भी अभी तक चूल्हा नहीं जला था।
गाँव के बच्चे-बच्चे को पता था कि गाँव के बाहर कुछ ही मीटर की दूरी पर तीन मृत शरीर पड़े हुए हैं...वो भी गोलियों से छलनी तो भला किसे भूख लगती और कैसे नींद आती! अनकहा, अदृश्य भय तो सभी में व्याप्त था। मैंने माँ को कहते सुना कि बेचारे वो जोगी लोग कैसे सोएँगे जो गाँव के उसी किनारे पर रहते हैं जिधर लाशें पड़ी थीं। सभी की बातें सुनते-सुनते मुझे कब नींद ने अपने आगोश में ले लिया पता न चला।
सूरज ऊपर तक चढ़ आया था, पेड़ की छाँव में होने के कारण धूप मुझपर नहीं पड़ रही थी इसीलिए मैं आज रोज की अपेक्षा अधिक देर से उठी, जब मैं उठी तो देखा सभी अपने-अपने कार्य में व्यस्त थे, दादी के साथ दो-तीन और बुज़ुर्ग महिलाएँ थीं, मुझे उनकी बातों से लगा कि शायद वे कहीं जाने की बात कर रही थीं, मैं झट से चारपाई से उतरी और दौड़कर दादी के पास पहुँच गई...
"दादी आप कहाँ जा रही हो?" मैंने उनका हाथ पकड़कर पूछा।
"कहीं नहीं बिटिया तुम जाओ दातुन-वातुन करके नाश्ता कर लो हम अभी आ जाएँगे।" दादी ने समझाया। पर मैं कहाँ मानने वाली थी, मुझे ध्यान आया रात को दादी कह रही थीं कि अब तो सुबह ही देखेंगे कि बदमाशों ने किनको मारा है..अब मुझे पता चल गया था कि दादी वहीं जा रही थीं। मेरे अबोध मन में उस समय किसी का मृत शरीर देखना भी रोमांचक लग रहा था, भय और शोक से परे मैं उत्साहित हो रही थी; यह भी नहीं जानती थी कि आखिर वहाँ मैं क्या देखने को लालायित हूँ? क्या किसी की हत्या के उपरांत उनके मृत शरीर को देखना भी रोमांचक हो सकता है? मैं खुद इन सब बातों से अनभिज्ञ थी मुझको बस देखना था कि कल किसे मारा गया और गोली लगने के बाद ज़ख्म कितना गहरा होता है? या फिर शायद कुछ और जो मुझे खुद नहीं पता....
मैं फिर बोली-"आप घाट पर जा रही हो न डाकुओं की लाश देखने? मुझे पता है, मैं भी चलूँगी।"
"ये नहीं मानेगी, चलो!" कहते हुए दादी मेरा हाथ पकड़ कर चल पड़ीं।
मैं दादी की उँगली थामे चल दी, गाँव के बाहर आते-आते दो और महिलाएँ हमारे साथ जुड़ गईं। हम लोग पगडंडी से होते हुए गए, जिस पर से कल बदमाशों ने बाबूजी को वापस बगीचे की तरफ मुड़ने को कहा था। कुछ दूर जाकर पगडंडी का 'टी प्वाइंट' आता है एक हिस्सा दक्षिण की ओर जाता है जहाँ हमारा बगीचा था जिसमें कल पृथ्वीराज और गाँव के अन्य लोगों के साथ बाबूजी भी बैठे थे, तो दूसरा हिस्सा उत्तर दिशा की ओर जाता है जिधर वो छोटा सा बगीचा है जो नदी के किनारे है और बगीचे और नदी के बीच ही एक पुराना पीपल का पेड़ है।
हम लोग उसी ओर मुड़ गए। वहाँ से गाँव के अन्य लोग भी लाशें देखकर आ रहे थे और जिस प्रकार उन्होंने दादी व अन्य स्त्रियों से उन लाशें का जिक्र किया कि सुनकर ही उनके वीभत्स रूपों का एक खाका सा मस्तिष्क में खिंच गया। हम लोग वहाँ पहुँचे गाँव से देखने आने वालों का ताँता सा लगा हुआ था। पीपल के ठीक नीचे जो घाट के सीध वाली जगह पर एक बुज़ुर्ग व्यक्ति की मृत देह थी, गोरा रंग, बाल चांदी की तरह सफेद, अच्छा-खासा लंबा और स्वस्थ शरीर एक आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी थे। वो साइकिल पर थे, उनकी जाँघ में गोली लगी थी और वो उसी तरह गिर पड़े थे, साइकिल उनके पैर में ही फँसी हुई थी। किसी ने बताया कि ये व्यक्ति एकडंगी गाँव अपनी बेटी की ससुराल से आ रहे थे। बदमाशों ने इन्हें रोककर पूछा कहाँ से आ रहे हो तो इन्होंने बता दिया फिर उनमें से किसी बदमाश ने इनका नाम पूछा तो इन्होंने अपना नाम 'कपिल देव' बताया। पृथ्वीराज भी एकडंगी के ही हैं और उनके पिता का नाम भी कपिल है इसीलिए बदमाशों ने इन्हें पृथ्वीराज का पिता समझकर गोली मार दिया। गोली जाँघ में लगी थी लेकिन रात भर उसी हालत में पड़े रहने के कारण अधिक खून बह जाने के कारण यह मर गए। मुझे लगा कि काश इन्हें शाम को ही कोई उठाकर अस्पताल ले गया होता तो ये बच जाते। उन्हीं से दो तीन कदम पहले एक नवयुवक का मृत शरीर पड़ा था, उसके कनपटी में गोली आरपार हो गई थी, सुराख में से चींटों का आवागमन हो रहा था। एक व्यक्ति ने बताया कि यह लड़का कल या परसों ही कानपुर से आया है इसका अभी कल ही तिलक हुआ है, शादी होने वाली थी। पृथ्वीराज से इसकी पुरानी जान-पहचान थी, जब इसने सुना कि पृथ्वीराज यहाँ आए हैं तो उनसे मिलने आया था, बेचारा ये कोई डाकू-बदमाश नहीं था लेकिन मौत इसे यहाँ खींच लाई। इसके मिन्नतें करने के बाद भी कि यह कोई डाकू-बदमाश नहीं है उन बदमाशों ने इसे नहीं बख्शा। उन्होंने यह कहकर कि "पृथ्वीराज का हर चहीता हमारा दुश्मन है" इसे गोली मार दिया। वहाँ से कोई पाँच-छः कदम उत्तर की ओर जो रास्ता जाता है वहाँ एक और मृत देह थी किंतु मेरी दृष्टि दूर से ही उस पर पड़ी और उसकी विक्षिप्त दशा देखकर मेरी चीख निकल गई, मैंने दादी की कमर दोनों हाथों से जकड़ लिया और अपना मुँह उनके पेट में दुबका लिया, दादी मेरे सिर पर सांत्वना वाला हाथ फेरने लगीं। उसी व्यक्ति ने बताया कि यह व्यक्ति तो इस गन्ने के खेत में छिपा था लेकिन क्योंकि गन्ने के पौधे अभी छोटे-छोटे और थोड़े बिरड़ (दूर-दूर) हैं इसीलिए उन लोगों ने देख लिया और इसे खेत से निकाल कर सामने खड़ा करके इसपर रायफल दाग दिया। काफी नज़दीक से और रायफल से मारे जाने के कारण उस व्यक्ति के पेट के अंदर का सबकुछ (आंतें, फेफड़े आदि) बाहर आ गया था। अब मुझसे वहाँ नहीं रुका जा रहा था, सारा उत्साह, सारा रोमांच काफ़ूर हो चुका था। मैं दादी को खींचने लगी कि घर चलो....
हम घर तो आ गए पर मेरे आँखों के समक्ष बार-बार उन्हीं मृतकों के चेहरे और उनकी विक्षिप्त दशा घूमने लगते। मैं अपने भाइयों और अन्य बच्चा मंडली के साथ खेलने में रोज की तरह मशगूल न हो सकी, खेलते हुए भी हमारे कान खड़े रहते कि कौन क्या बात कर रहा है? हम बच्चे उस घटना और घटना से जुड़े हर व्यक्ति के बारे में सबकुछ जान लेना चाहते थे। इसी कोशिश में पता चला कि पुलिस वाले हमारे गाँव की ईमानदारी की तारीफ कर रहे थे। जो बुज़ुर्ग व्यक्ति अपनी बेटी की ससुराल से आ रहे थे उनकी धोती के छोर में चाँदी के कई सिक्के थे जो कमर में खोंसे हुए थे, पुलिस वालों का कहना था कि गाँव वाले चाहते तो वो सिक्के निकाल लेते किसी को क्या पता चलता! "ईमानदारी!" बाबूजी ने बड़े ही व्यंग्य भरे लहजे में कहा- डर के मारे किसी की हिम्मत नहीं हुई वहाँ जाने की नहीं तो चाँदी के सिक्के क्या साइकिल घड़ी और जेबों के रूपए-पैसों का भी पता न चलता।"
"हाँ बाबू बात तो सही है, किसकी हिम्मत होती उस भयानक रात में वहाँ जाने की।" चाचा जी ने कहा।
"सोचो वो बेचारा बुड्डा खून बहने के कारण मर गया नहीं तो जाँघ में गोली लगने से वो मरता क्या? पर पुलिस तक रात को नहीं आई कि उठाकर ले जाती।" बाबूजी की आवाज में क्रोध था।
"आखिर पृथ्वीराज के यहाँ होने की खबर किसने दी होगी उन बदमाशों को?" बहुत देर से चुप बैठे छोटे बाबा जी ने कहा।
"रामसिंह ने।" बाबूजी ने कहा।
रामसिंह! लोगों के मुख पर आश्चर्य साफ देखा जा सकता था, या तो वे लोग रामसिंह को जानते नहीं या इस बात से अचंभित थे कि बाबूजी को कैसे पता?
बाबूजी ने बताया कि उन्हें किसी चौधरी से पता चला कि रामसिंह हमारे गाँव से कोई दो-ढाई किलोमीटर दूर एक गाँव में रहता है, वो पृथ्वीराज की पहचान का है। जब उसे पृथ्वीराज के यहाँ होने का पता चला तो वो मिलने आया और ये कहकर कि घर पर आम रखे हुए हैं मैं लेकर आता हूँ, चला गया। उसके पास घोड़ा है इसलिए उसे देर नहीं लगी उसी घोड़े से जाकर उसने दुश्मन गिरोह को खबर कर दी।
"लेकिन वो यहाँ क्यों आया? पहले ही जाकर खबर कर सकता था।" एक व्यक्ति ने कहा।
"हाँ, पर वो पहले खुद आश्वस्त हो जाना चाहता होगा।" बाबूजी ने कहा।
"चौधरी को ये सब कैसे पता?" बाबा जी कहा।
"पता नहीं " बाबूजी ने कहा।
"अब पृथ्वीराज बदला तो लेंगे, छोड़ेंगे नहीं। वो गद्दारी करने वाले को छोड़ दें, उनमें से नहीं हैं।" गाँव के एक अन्य बुज़ुर्ग ने कहा।
इस घटना को बमुश्किल एक चार-पाँच दिन ही हुए होंगे रात के आठ-नौ बज रहे थे, बाबूजी कभी इतनी रात तक बाहर नहीं रहते थे लेकिन आज पता नहीं क्यों अभी तक नहीं आए थे। माँ ने बाबूजी के चचेरे भाई (जो कि मुझसे थोड़े ही बड़े थे) को उन्हें ढूँढ़कर बुला लाने के लिए भेजा था। मन से अभी पिछला भय निकला भी न था फिर इतनी रात तक बाहर रहना किसको नहीं डरा देता। तरह-तरह की आशंकाएँ मन में जन्म लेने लगीं तभी बाबूजी आ गए।
"इतनी रात तक कहाँ थे? पता है न टाइम ठीक नहीं है" दादी ने बोला।
"अरे जान तो लो पहले कि देर कहाँ हो गई फिर बोलना" बाबूजी की आवाज में अजीब सा उत्साह झलक रहा था जैसे कोई जीत हुई हो।
"कहाँ हो गई देर तुम ही बता दो।" माँ ने कहा।
हम लोग सब वहीं खलिहान में थ्रेसर के पास बैठे थे (यह खलिहान हमारे घर के दाईं ओर जिनके घर मैं ट्यूशन पढ़ रही थी उनके घर के सामने ही है) अभी से कोई आधा-पौन घंटा पहले पृथ्वीराज आए, सफेद ऊँचे शानदार घोड़े पर सवार थे। हम लोगों को देखकर वहीं रुक गए और उतरकर घोड़े की पीठ थपथपाते हुए गर्व से गर्दन तान कर बोले- "रामसिंह का घोड़ा है, मैं ले आया। वो गद्दार तो डर के मारे घर छोड़कर तब से ही भागा हुआ है, आज मैं चाहता तो उसका सबकुछ लूट सकता था।"
"तो क्या आपने लूटा नहीं?" हमने पूछा तो उन्होंने बताया- "कहाँ! रामसिंह की बीवी ने सारे गहने निकाल कर हमारे सामने रख दिया लेकिन उसकी बेटी रोने लगी, मैंने पूछा तो कहने लगी कि ये गहने मेरी ससुराल के हैं। मैंने कहा- जो तेरी ससुराल के हैं वो ले ले तो कहने लगी सारे हैं फिर मैंने कहा मैं तो यहाँ रामसिंह से बदला लेने आया था उसकी बेटी से नहीं जैसे मेरी बेटी वैसे रामसिंह की बेटी, ले जा सारे गहने, मैं सिर्फ उसका घोड़ा लेकर जा रहा हूँ पर उससे कह देना मैं उसे छोड़ूँगा नहीं।" पृथ्वीराज ने कहा। और जाते-जाते वो ये भी कहकर गए कि वो इस गाँव का अहसान कभी नहीं भूलेंगे। और डाकुओं से इस गाँव को बचाना अब उनकी जिम्मेदारी है।
ये सुनकर न जाने क्यों उस दिन मेरे मन में एक डाकू के लिए सम्मान उत्पन्न हुआ और साथ ही एक सवाल भी कि एक अच्छे हृदय का व्यक्ति होते हुए भी वह आखिर एक डाकू क्यों बना?
उस समय डाकुओं का प्रकोप चारों ओर व्याप्त था। गाँव के पुरुषों ने समूह बनाए हुए थे और क्रम के अनुसार एक-एक समूह पूरी-पूरी रात जाग कर पहरा देता था। क्योंकि बाबूजी अपनी सर्विस के कारण गाँव में नहीं रहते थे तो हमारे घर से पैसे, उपले आदि दिए जाते थे। हमारे गाँव के आस-पास का कोई भी गाँव डकैती की चपेट में आने से बचा न था लेकिन एक इकलौता हमारा गाँव बचा रह गया था। मैंने गाँव की औरतों को बातें करते सुना था कि पृथ्वीराज के कारण ही हमारा गाँव बच गया। उन्होंने ही कहा था कि जिसने भी इस गाँव की ओर नजर डाली मैं वो गिरोह ही खत्म कर दूँगा। वो अपनी जान बचाने के लिए इस गाँव का अहसान मानते हैं और इसीलिए हमारा गाँव बचा हुआ है।
धीरे-धीरे हम बच्चों की दिनचर्या पहले की तरह सामान्य होने लगी किंतु एक चीज थी जो अब तक असामान्य थी और पता नहीं कब तक असामान्य बनी रहने वाली थी.... 'वो जगह' जहाँ पर उन तीन व्यक्तियों की हत्या हुई थी। सुना था कि वो तीनो ही ब्राह्मण थे और गाँव वालों का कहना था कि यदि ब्राह्मण की इसप्रकार अकाल मृत्यु होती है तो उसकी आत्मा भटकती है, फिर वहाँ तो पीपल का पेड़ भी था, गाँव के बच्चों ने ये कहकर और अधिक डरा दिया था कि उस पेड़ पर पहले से एक पुराना भूत रहता है अब तो चार भूत हो जाएँगे। उस समय मेरे बालमन पर इन बातों का इतना गहरा असर हुआ कि मैंने अकेले उस रास्ते से जाना ही छोड़ दिया। दूर से ही उस जगह को देखकर भयभीत हो जाती।
सालों तक यह भय मेरे मन में व्याप्त रहा और साथ ही यह सवाल कि पृथ्वीराज आखिर डाकू क्यों बने?
मालती मिश्रा