रविवार

स्त्री विमर्श

स्त्री-विमर्श

नारी, स्त्री, महिला, वनिता आदि-आदि नामों से पुकारी जाने वाली नारी आज न जाने कितने लोगों के शोध का विषय बनी हुई है क्यों??
क्योंकि आज भी यह एक अबूझ पहेली है। यह हर क्षेत्र में अपनी क्षमता को सिद्ध करती जा रही है, फिर भी यह कमजोर है, शोषित है! इसीलिए इसकी यही परिस्थितियाँ इसके विषय में अधिक से अधिक जानने की जिज्ञासा को जन्म देती हैं, जानना चाहते हैं कि किस क्षेत्र में स्त्रियों की स्थिति कैसी है? भिन्न-भिन्न क्षेत्रों की स्त्रियों की स्थितियों में कितनी भिन्नताएँ और समानताएँ होती हैं आदि। दरअसल शोध का विषय स्त्री नहीं, शोध का विषय उसकी स्थिति है...शोध का विषय यह है कि धैर्यवान, सहनशील, उदारमना, शारीरिक और मानसिक रूप से समर्थ होने के बाद भी स्त्री को कमजोर क्यों समझा जाता है? क्यों उसे कभी पिता तो कभी भाई, कभी पति तो कभी पुत्र के सहारे की आवश्यकता होती है?
विचारणीय है कि जो स्त्री आज समाज के सभी सम्मानित पदों पर आसीन है, जो घर की रसोई से लेकर चाँद तक पर अपनी सफलता के झंडे गाड़ चुकी है, जो एक ओर शांति दूत मदर टेरेसा सम स्नेहमयी तो दूसरी ओर रानी लक्ष्मी बाई सी शक्तिशाली है वही आज संरक्षणात्मक स्थिति में है वो भी तब जब हमारा समाज, हमारा कानून उसे बराबर का अधिकार देता है।
यदि हम अपना इतिहास उठाकर देखें तो पता चलता है कि वैदिक काल की स्त्री भी पुरुषों के समान समर्थ थी, वह यज्ञादि कार्यों से निवृत्त होकर युद्ध के मैदान में जाती थी। वैदिक नारी कहती है- "अहमस्मि सहमाना' अर्थात् मैं शत्रु का पराभव करने में समर्थ हूँ। तैत्तिरीय संहिता में तो यहाँ तक कहा गया है -"इन्द्राणी वै सैनायै देवता।"
वैदिक स्त्री वीरांगना है, घोरा है, अजेया है, इसका उद्घोष है कि मैं शत्रु रहित हूँ, शत्रु संहारिका हूँ, विजयनी हूँ।"
वेदों में स्त्री शिक्षा पर इतना अधिक बल दिया गया है कि विद्या और वाणी की देवी सरस्वती को माना गया है, वेद मंत्रों की ऋषिकाएँ हैं। वैदिक संस्कृति में कन्या को बोझ नहीं बल्कि परिवार का धन माना जाता था, कन्या को स्वयंवर विधि के द्वारा कई योग्य युवाओं में से अपने लिए अपनी पसंद से जीवनसाथी चुनने का अधिकार प्राप्त था।
अथर्ववेद में तो गृहस्थाश्रम रूपी यज्ञ में स्त्री का स्थान ब्रह्मा का है। जैसे यज्ञ में ब्रह्मा ही मुख्य होता है तथा अध्वर्यु होता उद्गाता सभी को उसका आदेश मानना होता है, उसी प्रकार गृहस्थ में स्त्री का आदेश सभी को स्वीकार करना होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि स्त्री को वेदों में महत्वपूर्ण स्थान दिया है। पर्दाप्रथा का सर्वथा अभाव था, अथर्ववेद में नवविवाहिता वधू के लिए कहा गया है कि 'वधू जैसे ही ग्राम में प्रवेश करती है तब पितर लोग का आह्वान किया जाता था कि 'आओ सब मिलकर देखो और अपना आशीर्वाद प्रदान करो।' ऋग्वेद में भी कई मंत्रों से ज्ञात होता है कि स्त्रियाँ अपनी इच्छानुसार भ्रमणादि करने के लिए स्वतंत्र थीं, बौद्धायन तथा आपस्तम्ब ने गार्गी आदि अनेक आचार्याओं का उल्लेख किया है जो प्रसिद्ध विद्वानों से शास्त्रार्थ और चर्चा करती थीं। स्त्रियों को उस समय संपत्ति, शिक्षा, राजनैतिक, यज्ञादि का समान अधिकार था। चारों वेदों में लगभग ७०० मंत्र स्त्री विषयक हैं।

वैदिक युग के पश्चात् भी समाज में स्त्रियों का स्थान सम्मान जनक था, उन्हें स्वयंवर का अधिकार था, पुरुष के समकक्ष समझा जाता था।
प्राचीन भारत में भी पर्दा प्रथा थी, परंतु वहाँ घूँघट का अर्थ मुख ढँकना नहीं अपितु सिर को साड़ी या चुनरी से ढँकना था, जो कि स्त्री और पुरुष दोनों के लिए अनिवार्य था और यह बंधन नहीं बल्कि सम्मान-सूचक था। स्त्रियाँ साड़ी-चुनरी से सिर को ढँककर रखती थीं और पुरुष मुकुट-पगड़ी आदि से सिर को ढँकते थे।

पर्दा प्रथा या घूँघट प्रथा पर भगवान् श्रीराम का यह वचन बहुत ही महत्त्वपूर्ण, प्राचीन और आधुनिक परिवेश का समन्वय है -
न गृहाणि न वस्त्राणि न प्रकारस्त्रिरस्क्रिया।
नेदृशा राजसत्कारा वृत्तयावरणं स्त्रिया:।। वाल्मीकिरामायण ६/११४/२७
अर्थात् -'घर, वस्त्र और चारदीवारी आदि वस्तुएँ स्त्री के लिए परदा नहीं हुआ करतीं। इस तरह लोगों को दूर हटाने (किसी स्त्री के समाज में आने पर पुरुषों को वहाँ से हटा देना ,जिससे वे पुरुष उस स्त्री को न देख सकें) का जो निष्ठुरतापूर्ण व्यवहार है, ये भी स्त्री के लिए आवरण या पर्दे का काम नहीं देते हैं। पति से प्राप्त होने वाले सत्कार तथा नारी के अपने सदाचार, ये ही उसके लिये आवरण अर्थात् पर्दा है।'
पर्दा और घूँघट प्रथा का वर्तमान स्वरूप तो मुग़लों की देन है, हमारे देश में मुगलों के आगमन के साथ ही धीरे-धीरे महिलाओं की स्थिति दयनीय होती गई। घर की स्त्रियों के मान-सम्मान की रक्षा हेतु उन्हें घरों के भीतर रखा जाने लगा तथा पर्दा प्रथा, जौहर, सती-प्रथा जैसी कुरीतियों का प्रारंभ हो गया और समाज में स्त्रियों की दशा बद से बदतर होने लगी।
भारतीय संस्कृति में तो नारी का स्थान सदैव पूजनीय माना जाता रहा है, कहा गया है-
*यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता* अर्थात् जहाँ नारी की पूजा होती है वहाँ देवताओं का निवास होता है।
हमारी संस्कृति में माँ का स्थान पिता से भी ऊँचा माना गया है, परंतु व्यवहार में देखा जाए तो नारी पर अन्याय, शोषण के अनेक उदाहरण मिलते हैं। ऐसा समय भी आया जब भारतीय संस्कृति छिन्न-भिन्न हो गई और उसकी जगह रूढ़िवादी विचारधारा ने समाज को विकृत कर दिया। सामंती युग में तो स्त्रियों के प्रति अत्यंत विकृत दृष्टिकोण व्याप्त हो गया और यही वास्तव में देश के बहुमुखी पतन का काल था। इसका आंकलन हम उस समय के साहित्य को देखकर कर सकते हैं, भक्तिकाल के कवि, संत, समाज-सुधारक उदारमना संत कबीरदास ने तो नारी को ठगिनी, माया, नर्क का द्वार, अपनी छाया से भुजंग जैसे विषधर को भी अंधा कर देने वाली बताया
"नारी की झाँई पड़े अन्धा होत भुजंग।"
भक्तिकाल के बाद आए रीतिकाल ने तो नारी को मन बहलाने की वस्तु मात्र बना दिया, यह युग नारी के लिए पतन का युग बन गया, इस युग के साहित्य में उसका ऐसा चित्रण किया गया मानो वह उपभोग या क्रय-विक्रय की वस्तु हो, कविताओं में प्रेम के स्थान पर कामुकता और विलासिता ने जगह बना लिया था।
समाज में तरह-तरह की विकृतियाँ व्याप्त हो चुकी थीं।
स्त्रियों को शिक्षा के अधिकार से वंचित करके तो उनको वैसे ही मानसिक रूप से गुलाम बनाए रखने का मार्ग प्रशस्त हो चुका था। पति के मरणोपरांत पत्नी को पति के शव के साथ चिता मैं जलकर मरने को प्रोत्साहित किया जाता था। बाल-विवाह के कुचक्र में फंसी लड़की यदि बाल-विधवा हो जाती तो उसका पुनर्विवाह नहीं हो सकता था तथा नाना प्रकार की सामाजिक यातनाओं का दंश झेलते हुए वैधव्य जीवन काटना होता था। पुरुष-प्रधान समाज की स्थापना हो चुकी थी और स्त्रियों ने मूक रहकर शोषण सहना स्वीकार कर लिया था, इसीलिए जब 1817 में आंशिक रूप से सती-प्रथा विरोधी कानून बना था तो बंगाल में इसके विरुद्ध आंदोलन हुआ था उन्नीसवीं सदी के अंत से बीसवीं सदी के प्रारंभ में जब स्त्री शिक्षा प्रारंभ हुई थी, उस समय लड़कियों का विद्यालय जाना उनके और उनके परिवार के लिए किसी छोटे-मोटे युद्ध में जाने से कम  संघर्षपूर्ण नहीं होता था।
1850 के बाद उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में आधुनिक युग के कवियों, समाज-सुधारकों, विचारकों ने तत्कालीन सामंतयुगीन सामाजिक और साहित्यिक प्रवृत्तियों का प्रबल विरोध किया और इस बात को स्वीकार किया गया कि नारी समाज का महत्वपूर्ण भाग है उसे सामंती रूढ़ियों और शिकंजों से मुक्त किए बिना समाज व देश की मुक्ति संभव नहीं।
किसी भी देश की सामाजिक व मानसिक उन्नति का अनुमान हम उस देश-काल की स्त्रियों की स्थिति से लगा सकते हैं, नारी समाज  देश का आधा भाग होती है, जब तक समाज में महिलाएँ भी पुरुषों के समान सुरक्षित, समर्थ और शक्तिशाली नहीं होंगी तब तक समाज में संतुलन नहीं होगा और असंतुलित समाज या देश का सकारात्मक उत्थान संभव नहीं।
गुप्त जी 1914 में प्रकाशित महत्वपूर्ण काव्य 'भारत-भारती' में आधुनिक महिलाओं की उन्नति पर अत्यधिक बल देते हुए देश में शिक्षा के व्यापक स्तर पर प्रसार की बात करते हुए कहते हैं कि "हमारी शिक्षा तब तक कोई काम नहीं आएगी, जब तक महिलाएँ शिक्षित नहीं होंगी, यदि पुरुष शिक्षित हो गए और महिलाएँ अनपढ़ रह गईं तो हमारा समाज ऐसे शरीर की तरह होगा जिसका आधा हिस्सा लकवे से बेकार है।"
तब स्त्री को इस योग्य बनाने का अभियान चलाया गया कि वह पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर चलने में सक्षम हो सके। इसके लिए एक ओर विभिन्न संस्थाओं के द्वारा जनता को सामाजिक बुराइयों के प्रति जागरूक करने का काम किया गया, तो दूसरी ओर भारतेन्दु हरिश्चंद्र और उनके साथी लेखकों द्वारा अपने नाटकों, निबंधों और काव्यों के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार किया गया। आधुनिक युग के सुधार आंदोलनों पर यदि दृष्टिपात करें तो पाएँगे कि उस समय के अधिकांश सुधार आंदोलन नारी-उत्थान से संबंधित थे जैसे- पर्दा-प्रथा, सती-प्रथा, शिशु-कन्या-हत्या, बाल-विवाह आदि।
उस समय का ये संघर्ष आज हमें मामूली लग सकता है किन्तु उस देश-काल के नजरिए से सोचें तो यह बहुत ही दुरुह व संघर्षपूर्ण कार्य था।
धीरे-धीरे ये कुरीतियाँ तो समाप्त हो गईं परंतु पितृसत्तात्मक समाज का चलन खत्म नहीं हुआ और स्त्री-पुरुष के अंतस में जो स्त्रियों को पुरुषों से कमतर या उनके अधीन मानने की धारणा समा चुकी है, वह अब भी निरापद कायम है। आज भी कानूनी रूप से समान अधिकारों के आवरण में समानता लुप्त है,  हमारे देश में अभी भी महिला और पुरुष की साक्षरता दर समान नहीं है एक सैंपल सर्वे के रिपोर्ट के अनुसार पुरुषों की साक्षरता दर ८३ प्रतिशत है तो महिलाओं की ६७ प्रतिशत, अर्थात् अभी भी पुरुषों की तुलना में १६ प्रतिशत महिलाएँ अशिक्षित हैं। विभिन्न संथानों में कार्यरत महिलाओं को पुरुषों के समान कार्य, समान पद के लिए समान वेतन नहीं प्राप्त होता।
आज स्त्री समर्थ होने के बाद भी यही मानती है कि शादी से पहले पिता शादी के बाद पति और वृद्धावस्था में पुत्र के बिना उसका कोई अस्तित्व नहीं। अभी भी लड़की के विवाह का फैसला भी पिता ही लेता है। दाह संस्कार पुत्र ही करता है। पिता की संपत्ति में कानूनन बराबर अधिकार होने के बाद भी बेटियों को उनके अधिकारों से वंचित रखा जाता है। संपत्ति में हिस्सा लेने के उपरांत भाइयों-भाइयों का रिश्ता तो बना रह सकता है परंतु यदि बहन को हिस्सा देना पड़े तो भाई-बहन का रिश्ता दांव पर लग जाता है। कहते हैं स्त्री ही स्त्री की शत्रु होती है, स्त्रियों को पीछे धकेलने में स्त्रियों का योगदान सर्वाधिक होता है। कौन से कार्य लड़कों के हैं और कौन से कार्य लड़कियों के इसका निर्धारण घर में ही माँ तथा अन्य बड़े बुज़ुर्गों द्वारा कर दिया जाता है और इसी मानसिकता के साथ बेटियों की परवरिश की जाती है कि उन्हें घर के सारे काम करने आने चाहिए क्योंकि उनका प्रथम कार्यक्षेत्र घर की चारदीवारी के भीतर होता है, वह चाहे बाहर नौकरी पेशा ही क्यों न हों किन्तु घर के भीतर के सारे काम, परिवार के सदस्यों की देख-रेख आदि उनका उत्तरदायित्व है वहीं दूसरी ओर लड़कों को इस सीख के साथ बड़ा किया जाता है कि उनका कार्यक्षेत्र सिर्फ घर से बाहर है।
आज भी समाज में संस्कार, लज्जा, चरित्र आदि को संभालने का उत्तरदायित्व सिर्फ स्त्री का माना जाता है। यदि स्त्री अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाना चाहे तो मर्यादा रूपी हथियार दिखा कर उसकी आवाज दबा दी जाती है। यूँ तो बेटा-बेटी समान हैं परंतु बेटियों को संस्कारों का पाठ पढ़ाते समय बेटों को वही पाठ पढ़ाने की प्रथा अब भी नहीं है, आज भी समाज में स्त्रियों को सीता, सावित्री जैसी पौराणिक आदर्शों का उदाहरण देकर उनकी सोच को दायरों में सीमित करने का प्रयास किया जाता है किन्तु पुरुषों से राम बनने की अपेक्षा नहीं की जाती। यदि कोई लावारिस नवजात शिशु पाया जाता है तो उँगली सिर्फ माँ पर उठाई जाती है, पिता के विषय में तो कोई सोचता ही नहीं।
हम आधुनिक समाज में जी रहे हैं और आज स्त्रियों ने धरती से अंतरिक्ष तक हर क्षेत्र में अपनी योग्यता को सिद्ध किया है, फिर भी देर रात अकेली घर से बाहर जाते हुए वह डरती है, क्योंकि आज भी स्त्री पुरुषों की नजर में भोग्या बनी हुई है। आधुनिकता का दंभ भरने वाला हमारा समाज आज भी स्त्री को वह सम्मान वह अधिकार नहीं दे पाया जिसका वर्णन हमारे वेदों और प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। इसका कारण यही है कि पुरुष समाज अपना सत्तात्मक दंभ छोड़ना नहीं चाहता, इसीलिए स्त्री जब भी अधिकारों के लिए सजग हुई तभी पुरुषों की नजर से विलग हुई, जब भी इसने सिर उठाने का प्रयास किया पुरुष का अहंकार  आहत हुआ, जब भी स्त्री ने कमर सीधा कर सीधे खड़े होने की कोशिश की पुरुष को अपनी कमर झुकती महसूस हुई, जब भी इसने धरती पर अपने पैर जमाना चाहा पुरुषों को अपने पैरों तले की धरती खिसकती दिखाई दी और जब भी स्त्री ने अपना मौन तोड़ा तभी पुरुष वर्ग को अपने अस्तित्व पर खतरा मंडराता नजर आया।
ऐसा ही होता है जब हम किसी के अधिकारों पर जबरन आधिपत्य जमा कर बैठे होते हैं, तो उसकी तनिक सी सतर्कता हमारे कान खड़े कर देती है और हर जायज क्रियाकलाप भी हमें नागवार गुजरती है।

मालती मिश्रा 'मयंती'

शनिवार

मैंने पूछा संविधान से..


संविधान!
क्या हो तुम
तुम्हारा औचित्य क्या है?
मैंने पूछा संविधान से..

मैं!
मैं संविधान हूँ,
अर्थात्..... सम+विधान
सबके लिए समान कानून।
बड़े गर्व से बताया संविधान ने

समान कानून!
कहाँ है यह समान कानून?
हमारे यहाँ तो जहाँ सुनो
संविधान की चर्चा है
पर समान कानून का तो
बड़ा टंटा है।
मैंने कहा..

हमारे देश में कानून
सबके लिए समान है
संविधान ही तो इस देश की जान है...
गर्व से कहा संविधान ने..

सही कहा..
तभी तो हमारे देश की व्यवस्था की
सांसें उखड़ी रहती हैं
संविधान! तू खुद जो बीमार है,
यदि कानून होता समान
तो समान अपराध करने वाला
सजा भी पाता समान
घृणित कुकर्म करने वाले
निर्भया के अपराधी को
सिलाई मशीन और रुपए
ईनाम देकर न छोड़ा जाता
समान होता कानून..
तो अपराधियों को
अपने को निर्दोष सिद्ध करने का
अवसर न दिया जाता,
संविधान! तू दोषपूर्ण है....
अन्यथा कुछ घंटों में
निर्भया के शरीर का
चीर-फाड़ करने वालों को
सालों तक
सरकारी मेहमान बनाकर
न रखा जाता
कैसा है तू संविधान...
जो धर्म देखकर
रंग बदल देता है,
पैसा देखकर ढंग
बदल देता है,
जो गरीब बेकसूर को सजा
और अमीर अपराधी को
गिरफ्तारी से पहले ही
बेल दे देता है।
वाह रे संविधान!
तू देश को गालियाँ देने का
अधिकार भी देता है
और परिवारवाद की
सरपरस्ती भी करता है
कैसा है तू!
जो एक धर्म पर
बंदिशें लगाता है
तो दूसरे धर्म के लिए
अलग न्यायालय खुलवाता है..
वाह!
कैसा संविधान है तू!
जो एक वर्ग विशेष की
संतानों की
संख्या निर्धारित करता है
तो दूसरे वर्ग विशेष को
असीमित संतानों का
वरदान देता है!
क्या यही है...
तेरा सम+विधान?
यदि हाँ.....
तो नहीं चाहिए ऐसा संविधान!
बदल दो ऐसे संविधान को
जैसे...
विवाहोपरांत लड़की का
उपनाम बदल दिया जाता है,
खत्म करो ऐसे संविधान को!
जैसे बालविवाह, सतीप्रथा
जैसी कुरीतियों को
खत्म कर दिया,
खत्म करो
ऐसे संविधान को
जैसे..
अन्य रूढ़ियों को खत्म किया,
वैसे ही खत्म करो..
या संशोधन करो
संविधान को सम विधान बनाओ
परिधान नहीं....

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

बुधवार

आज लिखूँ मैं गीत नया

आज लिखूँ मैं गीत नया
जो सबके मन को भाए,
नया गीत नव राग लिए
बागों में कोयल गाए।

दादुर मोर पपीहा भी
विरह गीत मिलकर गाएँ,
मैं मिलन का गीत लिख दूँ
विरह व्यथा सब बिसराएँ।

हर दिल का उल्लास बने
ऐसे सुर में गीत सजाऊँ,
पुलक-पुलक मन हरषाए
बन पवन सौरभ बिखराऊँ।

शब्द-शब्द से नेह झरे
हर मन के भाव सजाऊँ,
पृथक करूँ पीर हृदय से
खुशियों के सुमन खिलाऊँ।

देखा जब गीत स्वप्न में
मन खुशी से खिल गया,
सबके मन को जो भाए
लिखे मयंती गीत नया।

मालती मिश्रा 'मयंती'

सोमवार

तेरी गली

आज कई साल बाद मैं
उसी गली से गुजरा
प्रवेश करते ही गली में
फिर वही खुशबू आई
मानों तेरी ज़ुल्फें लहराई
हों और फ़िजां में भीनी-भीनी
खुशबू फैल गई
हवा का झोंका मेरे तन को
छूकर कुछ यूँ गुजरा
मानों तेरी चुनरी मुझे
सहलाती हुई उड़ गई
मैं लड़खड़ाया
सहारे के लिए दीवार
पर हाथ टिकाया
बिजली सी दौड़ गई
मेरे तन-मन में
मानों मरमरी हथेली
पे तेरे मेरी हथेली टिकी हो
वो नुक्कड़ का आखिरी मकान
परदा हौले से हिला
लहराती जुल्फों की लटें
किसी के छिपने की
चुगली कर रही थीं
एक किनारा खिसका
उस मखमली चिलमन का
हजारों जुगनुओं सी
झिलमिलाती वो आँखें
मेरी नजरों से मिलते ही
शरमा कर वो पलकों का झुक जाना
ऐसा लगा मानों दाँतों ने
नाजुक उँगली पर ज़ुल्म था ढाया
गालों पर बिखरी थी
हया की लाली
अधरों का वो कंपन
झंकृत कर रहा था मेरे
दिल के तार
फिर तेज हवा का झोंका आया
उस घर का वो परदा
जोर से लहराया
हाय! मेरे दिल की तरह
वो घर फिर खाली नजर आया

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

शनिवार


घायल होती मानवता
चीख पड़ी है,
जाति-धर्म बन आपस में
रोज लड़ी है।

लालच का चारा नेता
ने जब डाला,
मीन बनी जनता उसकी
मति हर डाला।

बनकर दीमक चाट रहे
नींव घरों की,
वही बन गए आस सभी
खेतिहरों की।

मज़लूमों की चीख नहीं
पड़े सुनाई,
अब वही दुखियों के बने
बाप व माई।।

मालती मिश्रा 'मयंती'

शुक्रवार

मैं देश के लिए जिया

मैं देश के लिए जिया

जिया मैं देश के लिए
मरा मैं देश के लिए
उठा मैं देश के लिए
गिरा मैं देश के लिए

जला मैं देश के लिए
बुझा मैं देश के लिए
ये जन्म देश के लिए
हो मृत्यु देश के लिए

चला मैं देश के लिए
रुका मैं देश के लिए
मैं भक्त देश के लिए
आसक्त देश के लिए

मालती मिश्रा 'मयंती'

बुधवार

वो नहीं आया

वो नहीं आया
 *वो नहीं आया*

ठीक-ठीक तो याद नहीं पर नवंबर या दिसंबर का महीना था रात के करीब  साढ़े दस-ग्यारह बजे रहे थे, वैसे तो मार्केट में होने के कारण हमारी गली में दस बजे तक लोगों का आना-जाना लगा ही रहता है पर ठण्ड अधिक होने के कारण उस दिन गली सुनसान हो गई थी, मैं और मेरी दोनों बेटियाँ सोने की तैयारी कर रहे थे हम रजाई में लेटे-लेटे बातें कर रहे थे कि तभी बाहर से किसी पिल्ले के रोने की आवाज आई, पहले एक-दो बार तो सुनकर अनसुना किया पर वह हमारे गेट के पास ही रोए जा रहा था। बड़े-बुजुर्गों से सुना है कि कुत्ते-बिल्ली का रोना अच्छा नहीं होता, मेरे पतिदेव बिजनेस के काम से शहर से बाहर गए हुए थे, अतः मन में अजीब-अजीब से ख़याल आने लगे। मन तो कर रहा था कि उसे अपने घर के सामने से भगा दूँ पर ठंड की वजह से उठने में आलस आ रहा था। अब उसका रोना बीच-बीच में बंद हो जाता फिर धीरे-धीरे किकियाने की सी आवाज आती, अब तक यह स्पष्ट हो गया था कि वह कोई पिल्ला है, उसकी आवाज से ऐसा लग रहा था कि उसे चोट लगी होगी, काफी देर तक यही उपक्रम चलता रहा तो बेटी बोली- "मम्मी एक बार देख लेते हैं न! पता नहीं बेचारे को क्या हुआ है?"
"देखना तो मैं भी चाहती थी पर इतनी रात को गेट खोलना भी तो सुरक्षित नहीं था, डर भी लग रहा था कि कोई गेट के पास दीवार से लगकर खड़ा हुआ तो! वैसे भी आजकल आएदिन समाचारों में ऐसी खबरों ने दहशत का माहौल बना दिया है फिर घर में यदि मेरे पति देव होते तो शायद इतना डर नहीं लगता, हो सकता है उनके घर में न होने की बात किसी और को भी पता हो? ऐसे खयालों ने और अधिक भीरु बना दिया था। खैर बेटी के कहने से मैं उठी और हम दोनों गेट के पास गए, हमारा लोहे का गेट है जिसमें से आरपार देखा जा सकता है अतः हमने बिना गेट खोले इधर-उधर देखा पर कुछ भी नजर नहीं आया, फिर मैंने गेट खोला तो देखा कि दाहिनी ओर नीचे सीढ़ियों के पास एक गंदा सा मरियल सा पिल्ला, जिसके पैर कीचड़ से सने हुए थे, काँप रहा था रह-रहकर कूँ कूँ की आवाज़ निकालता। मेरी छोटी बेटी को वैसे भी जानवरों के बच्चों को देखकर बहुत दया आती है... मुझे याद है कुछ साल पहले एक गाय के बछड़े को गली से चिल्लाते हुए अकेले जाते देख यह कहकर कि "इसकी मम्मी नहीं मिल रही बेचारा खो गया है अपनी मम्मी को ढूँढ़ रहा है।" वो फूट-फूटकर रोई थी। आज भी उसकी स्थिति कुछ वैसी ही लगी। आखिर वह बोल ही पड़ी- "मम्मी बेचारे को पता नहीं क्या हुआ, ये कहाँ जाएगा?" मैं समझ चुकी थी कि उसे ठंड लग रही है, भूखा भी हो सकता है, गंदा होने के कारण छूना नहीं चाहती थी पर वहाँ मरने के लिए भी नहीं छोड़ना चाहती थी, मैंने बेटी से अपनी पुरानी शॉल मँगवाई और उसी के सहारे उसे पकड़कर ऊपर ले आई, वैसे मुझे उसके काटने का डर भी लग रहा था, पर सोचा कि इस जानवर को भी शायद यह समझ आ जाएगा कि मैं इसकी सहायता कर रही हूँ। उसे गेट के पास रखकर बेटी से दूध गरम करके लाने को कहा वह दूध को हल्का सा गरम करके  कटोरी में लेकर आई, वह भूखा भी था इसलिए तुरंत दूध पी लिया। अब मैंने वहीं गेट के पास बोरी बिछाकर बैठा दिया और ऊपर से शॉल डाल दिया। वह अभी भी काँप रहा था पर उम्मीद थी कि थोड़ी देर में शॉल की गरमाहट से ठीक हो जाएगा इसी उम्मीद से हम अंदर जाने लगे, बड़ी बेटी अंदर गई पर मेरे जाने से पहले ही वह पिल्ला अंदर चला गया। मैंने उसे बाहर निकाला और फिर जैसे ही अंदर जाने के लिए पैर बढ़ाती वह मेरे पैर के नीचे से मुझसे पहले ही अंदर होता। हमें उसकी चालाकी पर हँसी भी आ रही थी, उसकी दयनीय दशा पर दया भी आ रही थी पर अगर उसे अंदर रखते तो वो घर में गंदगी फैलाता इसका भी डर था, समझ नहीं आ रहा था क्या करें...कुछ देर के लिए तो यह अंदर जाना-बाहर आना खेल सा बन गया पर ऐसा कब तक चलता! मैंने अपने हसबेंड को फोन करके उन्हें सारी बात बताई और उस पिल्ले की चतुराई भी तो उन्होनें सलाह दी कि उसे गेट के अंदर आने दूँ और किसी छोटी रस्सी से अंदर ही गेट से बाँध दूँ। हमें यह बात जँच गई, अब मैंने सोचा कि अगर गेट के पास उसने टॉयलेट भी कर लिया तो कोई बात नहीं पानी डालकर साफ हो जाएगा, अतः उसे गेट से बाँध दिया और बोरी पर बैठाकर शॉल से ढक दिया। उसे मानो असीम आनंद की प्राप्ति हो गई, उसने आवाज तक नहीं की चुपचाप ऐसा सोया कि हम बिस्तर पर पड़ते ही सो गए हमें उसकी एकबार भी आवाज नहीं आई।
सुबह साढ़े छः -सात बजे मेरी नींद खुली रविवार था, उठने की जल्दी नहीं थी इसलिए मैं रजाई में ही दुबकी रही अचानक मुझे पिल्ला याद आया और मैं झटके से उठ बैठी। उसकी आवाज नहीं आ रही थी, रात की उसकी दशा याद आते ही लगा कि कहीं मर तो....मैंने तुरंत बेटियों को जगाया और पिल्ले की याद दिलाई। वो दोनों जो रोज कई-कई बार जगाने से भी नहीं जागती आज एकबार में ही उठकर बैठ गईं  हम तीनों कमरे से निकले देखा वो चुपचाप टहल रहा था। मैंने गेट खोला कि अब इसे बाहर निकाल दूँ, मुझे लगा कि यह जाना नहीं चाहेगा पर गेट खोलते ही वह बाहर निकल कर सीढ़ियों से नीचे गली में उतरने लगा, हम माँ बेटी खुश हो गए कि चलो इसने परेशान नहीं किया घर भी गंदा नहीं किया। वह आखिरी सीढ़ी उतर कर दो कदम चला और फिर वहीं लघुशंका से निवृत्त हुआ फिर मुड़ा और सीढ़ियाँ चढ़ने लगा, हम हैरान थे कि यह इसलिए नीचे गया था और हम क्या समझ रहे थे...तभी अखबार वाला आया और उसे देखते ही पिल्ले ने भौंकना शुरु कर दिया, हमने उसे फिर दूध पिलाया और सोचा कि अब चला जाय इसलिए भगाने की कोशिश भी की पर वह वहीं गेट पर डटा रहा गली में हमारे घर के सामने से जो भी निकलता उस पर जोर-जोर से भौंकता, अब क्या! वह वहीं गेट पर हमारे साथ था हम उसका वो घर की सुरक्षा का अधिकार भाव देख-देख अभिभूत हो रहे थे, वह हमारी थोड़ी सी देखभाल के लिए हमारे प्रति अपनी कृतज्ञता दर्शाते हुए हमारे घर की चौकीदारी कर रहा था। उसे भौंकते देख आने-जाने वाले पीछे मुड़-मुड़कर देखते। कुछ देर के बाद उसे छोड़ने के लिए ही मेरी बेटी सीढ़ियों से नीचे उतर कर एक ओर को जाने लगी वह भी पीछे-पीछे गया फिर वह भाग कर वापस आई तो उतनी ही तेजी से वह भी आ गया। अब बेटी पुनः गई पर थोड़ी तेजी से ताकि दूरी बनी रहे और वह भी पीछे-पीछे जाने लगा, हमारे घर में आगे-पीछे दोनों गलियों में गेट है अतः आगे जाकर दूसरी गली के लिए मुड़कर जैसे ही अगले गेट पर आने के लिए गली में दाहिनी ओर मुड़ी बाँई ओर से कुछ लड़के आ रहे थे वह पिल्ला फिर स्वामिभक्ति दिखाते हुए उन पर जोर-जोर से भौंकने लगा और उसकी व्यस्तता का लाभ उठाकर बेटी वहाँ खड़ी गाड़ियों के पीछे से छिपती-छिपाती अगले गेट से घर में आ गई।
हमने चैन की साँस ली कि अब धूप निकल रही है वह कहीं भी चला जाएगा। थोड़ी देर के बाद बाहर फिर से भौंकने की आवाज आई तो मैं दौड़कर गेट के पास आई और देखा कि वह गेट के बाहर ही धूप में बैठा है और गली से निकलने वाले किसी के ऊपर भौंक रहा था। मन अजीब सी बेबसी से भर गया.. काश हमारे घर में इतनी जगह होती कि हम इसे पाल पाते, पर पालतू जानवर रखना अपने आप में बहुत बड़ी जिम्मेदारी का काम होता है जिसमें हम सक्षम नहीं। इसलिए मैं चुपचाप अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गई। काफी देर के बाद देखा तो वह वहाँ से जा चुका था, बेटी ने बताया कि हमारे घर के सामने जो फ्लैट बन रहा है, उसमें से सीमेंट और कंकड़ आदि गिर कर उसे लग रहे थे, इसीलिए वो चला गया। उसे तो हम भी भगाना ही चाहते थे पर फिरभी उसका जाना अच्छा नहीं लगा, खयाल आया कि क्या वो अब हमारा घर भूल जाएगा या शाम को फिर आएगा....मन के किसी कोने में उसका इंतजार था कि शायद शाम को जब ठंड लगे तो वो फिर आए...शाम हुई...रात भी हो गई...पर वो नहीं आया...शायद वो समझ गया था कि हम उसे भगाना चाहते थे।
मालती मिश्रा 'मयंती'

मंगलवार

निशि


सौ वाट का बल्ब खपरैल की छत से लटकते हुए दस बाई दस के उस रसोई के लिए प्रयोग होने वाले कमरे को ही रोशन नहीं कर रहा था बल्कि दरवाजे के ऊपरी चौखट तक लटके होने के कारण भीतर के कमरे में भी दूसरे बल्ब की उपयोगिता को समाप्त कर रहा था। सर्दी ने अपनी उपस्थिति का अहसास कराना शुरु कर दिया था, सुबह शाम की ठंड के कारण शाम के सात-आठ बजे तक बाहर बिल्कुल सन्नाटा हो जाता है, सभी अपने-अपने घरों में सिमट जाते है बाहर सांय-सांय करता हुआ बड़ा सा रामलीला-मैदान दिन में जितना सुकून देह लगता है रात को उतना ही डरावना लग रहा था। दस-ग्यारह साल की निशि मन ही मन डर रही थी, उसका ये छोटा सा दो कमरों का घर जो सर्दी, गर्मी, वर्षा तथा अन्य सभी परिस्थितियों में उसका रक्षक है, इस समय उसे डरावना लग रहा था, वह शाम तक तो पड़ोस में चाची के घर में खेलती रही लेकिन जब पाँच बजे तक बाऊजी नहीं आए तो उसका एक-एक पल भारी होने लगा था। वह चाची की बेटियों के साथ खेलते-खेलते बाहर आकर मैदान के दूसरे छोर तक जहाँ तक नजर जाती, इस उम्मीद में देखती कि बाऊजी आते हुए दिखाई पड़ जाएँ पर निराश होकर वापस लौट आती। चाची की सास जिन्हें वह अम्मा जी कहती थी वो उसको बहलाती रहीं तू डर मत तेरे बाऊजी आ जाएँगे, किसी काम में फँस गए होंगे इसलिए देर हो गई। बाहर अँधेरे ने पैर पसारना शुरू कर दिया था, उससे रहा न गया वह फिर खेल बीच में से छोड़कर बाहर आ गई, तभी उसके गाँव के रिश्ते से 'बड़े दादा' आ गए, जो गाँव में उसके पड़ोसी हैं और यहाँ बाऊजी के साथ ही उसी गोदाम में काम करते हैं।
"बड़े दादा बाऊजी कहाँ हैं?" उन्हें देख नन्हीं निशि का सब्र मानो छलक ही पड़ा उसकी आँखों से आँसू बह निकले।
"रो मत, तेरे बाऊ जी आज ओवर-टाइम कर रहे हैं, उन्होंने कहा है कि दूध ले आना और रोटी बना पाओ तो बना के खा लेना, वो दस बजे तक आएँगे।" बड़े दादा उसे समझाते हुए बोले।
"दस बजे तक" अकस्मात् ही उसके मुँह से निकला।  वह दस बजे तक कैसे रहेगी यह सोचकर ही सिहर गई।
हाँ, हम घर जा रहे हैं आओ तू भी चल दूध लेकर आ जाना।" उन्होंने कहा। उनके घर से थोड़ा और आगे ही जाना था उसे दूध लेने, इसीलिए दूध की डोलची लेकर वह बड़े दादा के साथ ही चल दी। दूध लेकर आते-आते साढ़े सात बज गए थे रात पूरी कालिमा से घिर आई थी अब तक तो बाहर खेलने वाले बच्चे भीं नदारद हो चुके थे, पर कहीं कहीं इक्का-दुक्का बच्चे दिखाई दिए इसलिए रास्ते में डर नह़ी लगा, पर घर का दरवाजा अंदर को धकेलते हुए उसके हाथ रुक गए, कोई अंदर हुआ तो?
फिर खुद ही खुद को हिम्मत बँधाया...धत्त इतना क्यों डरती है! अभी तो सभी बाहर ही हैं और ऐसा सोचते हुए दरवाजा भीतर को धकेला और डरते -डरते घर में पैर रखा।

अब उसे रोटी बनानी थी; बाऊजी को रोटी बनाते देख-देखकर और खेल-खेल में कभी माँ के साथ तो कभी बाऊजी के साथ एक-दो रोटी बनाती और इस तरह कामचलाऊ रोटी बना लेती है, पर आटा; वो कैसे गूँदेगी? निशि पटरी पर उकड़ूँ बैठी पैर के अँगूठे से मिट्टी कुरेदते  दस-पंद्रह मिनट तक यही सोचती रही, फिर 'चलो आज ये भी करते हैं..' ये सोचकर वह उठी और थाली लेकर भीतर वाले कमरे में गई और आटा निकाला... वह बार-बार कमरे के अँधेरे भाग में नजरें गड़ा कर देखने का प्रयास करती कि कहीं कोई उसके पीछे तो नहीं! डरते-डरते वह आटा निकाल लाई और फिर अपने छोटे-छोटे हाथों से आटा गूँदने लगी, कितना पानी डालना है इसका ठीक-ठीक अनुमान नहीं था इसीलिए थोड़ा-थोड़ा पानी डालती फिर जितने आटे में मिल जाता उसे अलग रखकर फिर बचे हुए आटे में पानी मिलाती, इसी क्रम में उसने अपने और बाऊजी के खाने लायक रोटियों के लिए आटा गूँद लिया, उसके कपोलों और ललाट पर आटा लगा देख कोई भी सहज ही जान जाता कि उसने आटा गूँदने के लिए कितनी जद्दो-जहद की होगी।
 जैसे-तैसे आटा तो गूँद दिया पर स्टोव जलाना नहीं आता, बाऊजी ने बड़े दादा से कहलवाया था कि चाची से स्टोव जलवा लेना। निशि सोचने लगी चाची के घर कैसे जाए बाहर कोई छिपा हुआ होगा तो! नहीं..नहीं अभी तो सब जाग रहे हैं, बाहर चाची के बरामदे में लाइट भी जल रही है, डरने की कोई बात ही नहीं। उसने अपने-आप को हिम्मत बँधाया और बाहर निकलकर दाएँ-बाएँ गर्दन घुमाकर देखा कि कोई किसी अँधेरे कोने में छिपा तो नहीं और दौड़कर बरामदे में चढ़कर दो ही कदमों में बरामदा पार कर दरवाजा धकेलते हुए आँगन में आ गई, अब उसने खड़े होकर पहले अपनी डर से रुकी हुई साँस दुरुस्त की। दो-तीन बार लंबी-लंबी सांस ली फिर चाची की रसोई की ओर गई।
"क्या हुआ निशि बाऊजी अभी नहीं आए?" अम्मा जी ने पूछा।
"नहीं आज वो ओवर टाइम कर रहे हैं, दस बजे आएँगे।" उसने भोलेपन से जवाब दिया।
"तुझे किसने कहा?" चाची ने पूछा।
"वो ना, बड़े दादा आए थे, वही बता के गए हैं।"
"तो तुझे तो अकेले डर लग रहा होगा न! चल आ जा हमारे पास बैठ जा, जब बाऊजी आ जाएँगे तो चली जाना।" अम्मा जी बोलीं।
"नहीं वो बाऊजी ने कहा था कि रोटी बना लेना, मुझे स्टोव जलाना नहीं आता, बाऊजी ने कहा था कि चाची से जलवा लेना।" नीशू की मासूमियत पर अम्मा जी को दया आ गई, मन ही मन सोचने लगीं बेचारी मासूम बच्ची कैसे करेगी?" प्रत्यक्ष में बोलीं- "जा बहू स्टोव जला दे और ये न सेंक पाए तो रोटी भी सेंक देना।"
निशि चाची के साथ अपने कमरे में आ गई, चाची ने स्टोव जलाया और तवा रखते हुए बोलीं- "आटा तो तूने गूँथ लिया है, रोटी बना लेगी या मैं बना दूँ?"
"नहीं चाची मैं बना लूँगी, आपको अपने घर में भी तो बनाना है, आप जाओ।" उसने कहा।
"ठीक है लेकिन सब्जी? चल मैं भिजवाए देती हूँ।"
"नहीं न, हम दूध से खा लेंगे, मैं दूध ज्यादा लाई हूँ बाऊजी ने बोला था।"
"चल ठीक है मैं जा रही हूँ, किसी चीज की जरूरत हो तो बताना और अगर डर-वर लगे तो हमारे घर आ जाना, मैं आँगन का दरवाजा बंद नहीं करूँगी।" जाते हुए चाची ने कहा।
"ठीक है।" कहकर निशि पटला-बेलन लेकर रोटी बेलने की कोशिश करने लगी, उसकी बेली हुई रोटी कम और भारत का नक्शा अधिक नजर आ रही थी...परंतु उसने हार नहीं मानी, दो-चार रोटियों के बनते-बनते आकार में सुधार होने लगा, कोई रोटी आधी फूली तो कोई बिल्कुल नहीं, पर जैसे- तैसे उसने छ:-सात रोटियाँ बना लीं। अब उसने तवे को चिमटे से उतारा गरम-गरम तवा चिमटा से फिसल गया..."बाऊजीईईई" चिल्लाकर वह पीछे हट गई। डर के मारे उसके हाथ-पैर काँप रहे थे, उसने स्टोव के फटने की कई घटनाएँ सुनी थीं, इसलिए उसे लगा कि अगर तवा स्टोव की टंकी पर गिर जाता तो!
वह नहीं जानती थी कि स्टोव फटने का कारण क्या होता है, उधर स्टोव खाली जल रहा था, तवा फिसलकर दूर पड़ा था, वह जलते हुए स्टोव को निर्विकार घूरे जा रही थी पर उस पर दूध का भगौना रखने का साहस नहीं कर पा रही थी । बमुश्किल अपने काँपते हाथों को नियंत्रण में किया और दूध का भगोना स्टोव पर रखा। थाली में बचा हुआ सूखा आटा कनस्तर में डालने के लिए भीतर के कमरे में जाना है, पर अगर मैं कमरे में गई और उतनी देर में दूध उबलकर स्टोव की टंकी पर गिरा और टंकी फट गई तो!" नहीं-नहीं मैं नहीं जाऊँगी, पहले दूध गरम कर लूँ फिर स्टोव बंद करके ही हटूँगी। इसी प्रकार के डर से लड़ते हुए वह तब तक वहीं बैठी रही जब तक कि दूध गरम नहीं हो गया, फिर उसने स्टोव बंद किया और बड़ी ही सावधानी से कमरे में झाँककर देखा कोई अंदर है तो नहीं! फिर आटा कनस्तर में रखकर बड़ी तेजी से भाग कर बाहर ऐसे आई जैसे पीछे से कोई पकड़ने को दौड़ा हो। स्टोव के पास आकर इस प्रकार बैठ गई ताकि कमरे का और बाहर का दोनो ही दरवाजे सामने से दिखाई दें। बाहर जरा भी कुछ खटकता तो डर जाती, मन हुआ कि चाची के घर चली जाए पर अब तो रात भी ज्यादा हो गई है कैसे जाऊँ। 'अब तक तो चाचा भी आ गए होंगे तो चाची ने दरवाजा भी बंद कर लिया होगा, बाऊजी क्यों नहीं आए? 'जैसे-जैसे समय बढ़ता जा रहा था उसके भीतर का डर भी बढ़ता जाता था....अब तो उसे ऐसा वहम होने लगा कि कोई दरवाजे के बाहर छिपकर खड़ा है। वह साँस रोके उसकी आहट को या साँसों की आवाज को सुनने का प्रयास करने लगी। जब बच्चा डरता है तो अक्सर उसे प्यास, टॉयलेट या लू महसूस होने लगती है उस मासूम का डर उस पर इतना हावी हो चुका था कि उसे लू जाने की आवश्यकता महसूस हुई पर उसमें अब इतना साहस नहीं था कि वह अब कमरे से निकलकर बाहर जा सके, अपनी जगह बैठी-बैठी वह कभी घुटनों में मुँह छिपा लेती कभी गर्दन घुमाकर अपने चारों ओर देखकर आश्वस्त होती, अब तक तो बाऊजी को आ जाना चाहिए था पर क्यों नहीं आए? सोचते हुए उसकी आँखों से आँसू ढुलक कर कपोलों पर आकर ठहर गए। वह बुदबुदाने लगी- "बाऊजी आ जाओ, बाऊजी आ जाओ" अचानक उसके पैर के पास से एक चुहिया भागी "बाऊजीईईई......" वह चिल्लाकर खड़ी हो गई,
"क्या हुआ बेटा!" तेजी से दरवाजे से अंदर आकर बाऊजी ने उसे कंधे से पकड़कर हिलाया।
निशि ने अपनी आँखें खोलीं और सामने बाऊजी को देखते ही लिपट गई... "आप कहाँ रह गए थे, मुझे बहुत डर लग रहा था।" सुबकते हुए निशि ने कहा। उसने बाऊजी को इतनी जोर से पकड़ रखा था जैसे अब कभी अपने से दूर नहीं जाने देगी।
"डरो मत, अब तो मैं आ गया न!" बाऊजी ने उसे खुद से अलग करते हुए कहा। "तुम तो मेरी बहादुर बेटा हो, बहादुर बच्चे डरते थोड़ी न हैं।"
"नहीं मैं कोई बहादुर नहीं, मुझे बहुत डर लगता है, आप प्रॉमिस करो कि अब इतनी देर तक कभी मुझे अकेली नहीं छोड़ोगे।" उसने तुनकते हुए कहा।
"ठीक है बाबा नहीं छोड़ूगा।" कहकर बाऊजी नें उसका माथा चूम लिया।

मालती मिश्रा 'मयंती'


सोमवार

जाग हे नारी

जाग हे नारी
आज रो रही भारत माता
व्यथा हृदय की किसे कहे
नारी की लुटती अस्मत को
देख आँख से लहू बहे
मान तेरा अब तेरे हाथ है
मत बन तू लाचार
जाग हे नारी उठा ले अपने
हाथों में तलवार।। 

गिद्ध जटायु का वो जमाना
बीत गया त्रेतायुग में
गर्म मांस को खाने वाले
मिलते हैं इस कलयुग में
आएँगे श्री कृष्ण सोचकर
लगा नहीं तु गुहार
जाग हे नारी उठा ले अपने
हाथों में तलवार

चीर बढ़ाकर लाज बचाया
ये बातें सब बीत गईं 
राम-कृष्ण की मर्यादा से
ये धरती अब रीत गई
है आज धरा पर व्याप्त हुआ
दुशासन अत्याचार
जाग हे नारी उठा ले अपने
हाथों में तलवार

सीता सावित्री बन करके
तूने धर्म निभाया है
द्रौपदी बन बिना शस्त्र भी
अधर्मियों को मिटाया है
छोड़ लचारी बन जा दुर्गा
कर दुश्मन संहार
जाग हे नारी उठा ले अपने
हाथों में तलवार।। 

आज कि माता बेटा जनकर
कैसे खुशी मनाएगी
यदि पुत्र/बेटा रावण बन जाए
चैन नहीं वो पाएगी
ऐसे में तो बिना पूत ही
मिलती खुशी अपार
जाग हे नारी उठा ले अपने
हाथों में तलवार।। 

चौराहों पर पल्लू खींचें
नहीं कृत्य ये मानव के
नहीं दिखा तू भय अपना मत
बढ़ा हौसले दानव के
रावण भी भयभीत हुआ सुन
सीता की ललकार
जाग हे नारी उठा ले अपने
हाथों में तलवार।। 

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

गुरुवार

संस्मरण...'मौसी'

संस्मरण...'मौसी'
संस्मरण
मौसी
आज अचानक ही न जाने क्यों उस व्यक्तित्व की याद आई जो मेरे जीवन में माँ सी थीं। हालांकि आज वो इस दुनिया में प्रत्यक्ष रूप से नहीं हैं परंतु माँ की यादों के साथ उनकी यादें भी सदा मेरे हृदय में जीवित रहती हैं। आज तो मेरी माँ जिन्हें हम 'अम्मा' कहते हैं वो भी हमारे बीच प्रत्यक्ष रूप से नहीं हैं परंतु मौसी उनकी छोटी बहन होते हुए भी उनसे पहले ही इहलोक को छोड़ गई थीं शायद उनका बिछोह ही था जिसने अम्मा को और अधिक तोड़ दिया, मुझे तो उनकी मृत्यु के विषय में बाद में पता चला, अम्मा ने फोन पर बताया कि 'मौसी चल बसीं' और वो आज ही उनकी तेरहवीं आदि सारे क्रियाकर्म सम्पन्न करवाकर घर लौटी हैं। उनकी आवाज उनके व्यथित हृदय की दशा को दर्शा रही थी, मैं चाहकर भी उनके दुःख का अनुमान नहीं लगा सकती थी। ले-देकर मायके के नाम पर उनकी वो छोटी बहन ही तो थीं, मेरे इकलौते मामा जी तो वर्षों पहले परलोकवासी हो चुके थे, फिर कुछ सालों के बाद नानी और उनके जाने के कोई चार-पाँच माह बाद ही नाना जी भी परलोक को सिधार गए। अब सिर्फ मौसी ही बची थीं... तो दोनों बहनें ही एक-दूसरे का मायका थीं। अब वो भी चली गईं, मैं समझ सकती हूँ कि माँ आज कितना अकेलापन महसूस कर रही होंगीं। उनका मायका बना रहे इसीलिए तो उन्होंने कभी नाना जी के खेतों में या फसल में मौसी से हिस्सा नहीं लिया, वो चाहती थीं कि मौसी का इकलौता बेटा ही नाना जी के खेत, घर आदि की देखभाल करे, माँ के इस निर्णय को बाबू जी ने भी सहमति दी थी पर विधि के विधान ने यह अंतिम डोर भी तोड़ दी थी। मेरा मन कर रहा था कि काश मेरे पंख लग जाते और मैं उड़कर माँ के पास पहुँच जाती, पर अगले ही पल ख्याल आता कि मैं पहुँचकर कर भी क्या लूँगी! मुझे तो सांत्वना देना भी नहीं आता, मैं उनका दुःख किसी भी तरह कम नहीं कर सकती थी। माँ ने बताया कि कोई छोटी सी चोट लगने से उनके एक हाथ में जख्म हो गया था जो शुगर के कारण बढ़ता ही गया और धीरे-धीरे पूरा हाथ जख्म से भर गया। उसी जख़्म में इन्फेक्शन ने उनकी जान ले ली। अम्मा से बात करके फोन रखते ही मस्तिष्क में मौसी का वो भावशून्य झुर्रियों भरा चेहरा घूमने लगा जो वर्षों पहले मैंने आखिरी बार देखा था।
'मौसी' शब्द सुनते ही मेरे मनो-मस्तिष्क में जो छवि उभरती है वो कोई प्रभावशाली व्यक्तित्व की धनी की नहीं बल्कि धो-धोकर रंग उड़ चुकी पुरानी सी सूती साड़ी में लिपटी रहने वाली एक दुबली-पतली छरहरी सी काया, गहरा साँवला रंग और साधारण से नैन-नक्श वाली महिला की छवि है। बाल खिचड़ी हो चुके थे...नहीं, जब मैं उनसे आखिरी बार कोई सात-आठ साल पहले मिली थी तब वह बूढ़ी हो चुकी थीं उनके बाल पूरे सफेद हो चुके थे, झुर्रियों ने न सिर्फ चेहरे पर बल्कि पूरे शरीर पर ही अपना आधिपत्य जमा लिया था। मेरी इकलौती मौसी मेरी अम्मा से छोटी थीं पर वक्त की मार ने उन्हें अम्मा से भी पहले उनसे ज्यादा बूढ़ी बना दिया था। मुझे आज भी याद है जब मेरे मामा जी का देहान्त हो गया था तो अम्मा को कई बार यह कहते सुना था कि मौसी को उनके वैधव्य ने उतना नहीं तोड़ा जितना इकलौते भाई की मौत ने तोड़ दिया। मौसा जी की मृत्यु कब और कैसे हुई मैं नहीं जानती; मुझे कुछ याद है तो मौसी और उनके इकलौते बेटे, जो मुझसे बड़े हैं। मुझे उनके व्यवहार से कभी लगा ही नहीं था कि उनके जीवन में किसी प्रकार का खालीपन है, किन्तु मामा जी की मृत्यु के उपरांत वो एकाएक बड़ी ही तेजी से वृद्धावस्था की ओर बढ़ने लगीं, क्यों न हो मौसी का गाँव मामा जी के गाँव के पास ही है, मामा जी हर छोटी-बड़ी जरूरत पर मौसी के लिए उपस्थित रहते थे जिससे वह अपना दुख भूल चुकी थीं किन्तु जब ईश्वर ने इकलौते दो बहनों के लाडले भाई को छीन लिया तो अम्मा तो अपने भरे पूरे परिवार में इस विपदा को झेल गईं लेकिन मौसी न झेल सकीं और धीरे-धीरे वह शुगर की मरीज हो गईं। आज भी याद है गाँव में लोग मौसी को आदर्श मान उनका उदाहरण देते थे...कहते औरतों को उनसे हिम्मत और अपनी बात पर अडिग रहने की सीख लेनी चाहिए। नाना-नानी, गाँव के सम्मानित वयोवृद्ध और मौसी के ससुराल के परिजनों ने बहुत कोशिश की थी कि मौसी  दूसरी शादी के लिए तैयार हो जाएँ पर मौसी ने अपनी इकलौती संतान के सहारे अपना जीवन बिताने का अपना फैसला जितनी दृढ़ता से सबको सुनाया था, उतनी ही दृढ़ता से जीवनपर्यंत उसका पालन किया। कुछ सिरफिरे लोगों ने तो ये सलाह तक दे डाली थी कि मेरे पिताजी से ही मौसी को विवाह कर लेना चाहिए ताकि एक पत्नी गाँव में तो दूसरी उनके साथ शहर में रहती। ऐसी बातें सुनकर बाबूजी ने जो फटकार लगाई थी वो तो अलग' मौसी ने जिनको झाड़ लगाई वो महीनों उनका सामना करने से कतराते थे। एकबार मैं कुछ दिनों के लिए उनके घर रहने के लिए गई थी, लगभग एक हफ्ता मैं वहाँ रही पर एक पल को भी नहीं लगा कि मैं अपनी माँ से दूर हूँ। उन दिनों में उनकी वो देखभाल करती ममतामयी छवि देख मैं मन ही मन उनके उस रूप से तुलना करने लगी जब उन्होंने मेरे पैर में कील चुभ जाने पर बड़ी ही सख्ती से न सिर्फ उस कील को खींचकर निकाल दिया था बल्कि सरसों के तेल में रुई की बाती भिगो कर जलती हुई बाती का तेल जख्म पर टपकाया था। मैं कितना चीखी थी पर वो सख्ती से मेरा पैर पकड़कर अपना वो घरेलू इलाज करके ही मानी थीं, कहने लगीं ऐसा करने से टिटनेस नहीं होगा। पर उस कठोर चेहरे के पीछे छिपे इस ममतामयी मौसी को लेकर मेरे भाई और मुझमें तब बहस हुई थी जब वह भी कुछ दिन उनके पास रहकर आया। वो कहता कि मौसी ने उसे ज्यादा लाड़ लड़ाया और मैं कहती मुझे। पर एक बेटी की किस्मत ने मुझे मेरी मौसी से वर्षों पहले दूर कर दिया था और विधाता ने अब हमेशा के लिए।

मालती मिश्रा 'मयंती'

बुधवार

बालदिवस

बालदिवस
बालदिवस
कंधे से बस्ता उतारकर सोफे पर फेंकते हुए बंटी ने माँ को बताया कि कल विद्यालय में बालदिवस मनाया जाएगा इसलिए सब बच्चों को फैन्सी ड्रेस पहनकर आना है। "माँ मैं क्या बनकर जाऊँ?" तब माँ उसे बाजार लेकर गई ताकि उसके लिए कोई ऐसी ड्रेस खरीद सके जिसमें बंटी कल सबसे अलग सबसे सुंदर लगे। जाते-जाते अपनी नौकरानी की दस साल की बेटी गुड्डी को बंटी के कपड़े, जूते-मोजे और बस्ता जगह पर रखकर रसोई में पड़े जूठे बरतनों को साफ करने के लिए भी कहती गई। आज उसकी नौकरानी बुखार होने के कारण नहीं आई तो बंटी की माँ ने उसकी बेटी को ही बुला लिया। अगली सुबह बंटी खरगोश की सुंदर सी ड्रेस पहनकर बहुत ही सुंदर सा खरगोश लग रहा था, खुशी के मारे उसके पैर जमीन पर नहीं पड़ते थे, खरगोश की ड्रेस में वह खुद को खरगोश जैसा ही महसूस करते हुए पूरे घर में उछल-कूद कर रहा था। स्कूल में जहाँ कोई महात्मा गाँधी तो कोई झाँसी की रानी, कोई नेता जी तो कोई भगत सिंह बनकर आए थे वहीं कोई बच्चा हाथी तो कोई खरगोश बनकर। बंटी ने सबके साथ खूब मजे किए। घर आते समय रास्ते में एक छोटा सा बच्चा बंटी की माँ के आगे खड़ा हो गया, और हाथ फैलाकर बोला "कुछ खाने को दे दो भूख लगी है।"
बंटी की माँ ने उसकी ओर देखा.. मैली-कुचैली सी कमीज कंधे से फटकर लटक रही थी, मुँह और हाथ-पैर इतने गंदे मानो कई दिनों से पानी छुआ ही न हो। 'कुछ नहीं है' कहकर बंटी की माँ उससे बचकर किनारे से ऐसे निकलीं ताकि वह छू न जाए। घर पर आज भी गुड्डी सफाई कर रही थी।
"माँ ये बालदिवस क्या होता है?" बंटी ने पूछा। "बेटा बाल मतलब बच्चे और दिवस का मतलब दिन, यानि बच्चों का दिन। हमारे पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू बच्चों से बहुत प्यार करते थे, बच्चे उन्हें प्यार से चाचा नेहरू कहते थे, इसीलिए उनके जन्मदिन को बालदिवस के रूप में मनाते हैं।"
"अच्छा तो चाचा नेहरू को गरीब और गंदे दिखने वाले बच्चे अच्छे नहीं लगते थे इसलिए ये बालदिवस उनके लिए नहीं होता, है न माँ!"
माँ अवाक् निरुत्तर सी बंटी को देखने लगी।

मालती मिश्रा 'मयंती'

शुक्रवार

धूमिल होते धार्मिक त्योहार

धूमिल होते धार्मिक त्योहार
'धूमिल होते धार्मिक त्योहार'

 हमारा देश 'त्योहारों का देश' कहा जाता है, सत्य भी है क्योंकि यहाँ धार्मिक मान्यताओं के आधार पर बहुत से तीज-त्योहार मनाए जाते हैं, हमारे प्रत्येक त्योहार के पीछे धार्मिक मान्यता होती है, यह तो हम जानते हैं किन्तु प्रत्येक मान्यता के पीछे वैज्ञानिक कारण भी होते हैं; इस बात से सर्वथा अंजान होते हुए भी हम अपने धार्मिक मान्यताओं को महत्व देते हुए पूर्ण आस्था के साथ सभी रीति-रिवाजों, नियमों का पालन करते हुए अपने त्योहारों को मनाते हैं। हमारे सभी त्योहार परिवार को एक साथ मिलजुल कर रहने तथा सामाजिक दायित्व निभाते हुए समाज में भी घुलमिल कर रहने का संदेश देते हैं, इसीलिए तो त्योहारों को मनाने की विधियाँ ऐसी होती हैं जिसमे समाज और परिवार के सभी सदस्यों की सहभागिता होती है जैसे दीपावली के त्योहार पर भी कुम्हार के घर से दीये तो लुहार के घर से लोहे का औजार, हरिजन, नापित का भी महत्व और फिर पूजन के लिए ब्राह्मण की आवश्यकता होती है।  इसी प्रकार परिवार के भी प्रत्येक सदस्य अपने-अपने भाग का कार्य करते हुए त्योहारों को मनाते हैं, जिससे सभी में आपस में प्रेम-सद्भाव बना रहता था। किन्तु अब ऐसा नहीं है। समाज विकास पथ पर अग्रसर है और विकास की इस दौड़ में धन और भौतिक साधनों को अधिक महत्व दिया जाता है। आवश्यकता की सभी चीजें बाजार में मिलती हैं तथा 'पैसा फेंको तमाशा देखो' वाली कहावत को चरितार्थ करती हैं। जिसके कारण आपस में प्रेम-सहयोग के स्थान पर आर्थिक प्रतिस्पर्धा का जन्म हुआ जिसके चलते व्यक्ति अधिकाधिक धन को प्राप्त करने की दौड़ में शामिल हो गया और वह श्रम तथा आपसी प्रेम से ज्यादा पैसों को महत्व देने लगा।
आजकल समाजिक और पारिवारिक स्वरूप में भी परिवर्तन आया है, संयुक्त परिवार का स्थान एकल परिवारों ने ले लिया है। हमारे त्योहार परिवार के सभी सदस्यों को तथा आस-पड़ोस को एक साथ मिलजुल रहने की प्रेरणा देते हैं किन्तु आजकल इसके विपरीत एकल परिवारों की बहुलता होने तथा बढ़ती मँहगाई व आर्थिक प्रतिस्पर्धा के कारण पति-पत्नी दोनों का ही कामकाजी होना आवश्यक हो गया है, जिससे समयाभाव के कारण लोग न सिर्फ आस-पड़ोस से कटकर अपने आप में ही सिमटते जा रहे हैं बल्कि अपने ही नज़दीकी रिश्तेदारों से भी बचते हैं क्योंकि रिश्तेदारी निभाते हुए समय, श्रम और धन तीनों की आवश्यकता होती है और आजकल व्यक्ति ये तीनों ही बचाने का मार्ग खोजता है, जिसके कारण न तो वे अपने धार्मिक त्योहारों को अधिक समय दे पाते और न ही बच्चों में उन संस्कारों का विकास कर पाते जो उन्हें उनकी परंपराओं से जोड़े रखे।

ऐसी स्थिति में बच्चों का झुकाव मनोरंजन की ओर होता है और वह अपनी परंपराओं, धार्मिक मान्यताओं या अन्य किसी भी प्रकार की जानकारी के लिए टेलीविजन और सोशल मीडिया पर आश्रित हो जाते हैं। अतः परिणामस्वरूप तरह-तरह की भ्रामक तथ्यों का शिकार हो जाते हैं। उन्हें सही ज्ञान न मिलकर विपरीत तथा नकारात्मक बातों की जानकारी प्राप्त होती है जिससे वे अपनी परंपराओं से दूर होते जा रहे हैं। साथ ही अति आधुनिकता के मारे माता-पिता भी त्योंहारों को सिर्फ औपचारिकता निर्वहन के लिए धार्मिक आस्था के रूप में न देखते हुए इन्हें उत्सव के रूप में मनाते हैं, जिससे हमारी नई पीढ़ी धार्मिक त्योहारों के वास्तविक स्वरूप व इनके पीछे के उद्देश्य से अनभिज्ञ रह जाती है।
महानगरों में रोजमर्रा के भागमभाग भरी और उबाऊ जिंदगी से कुछ समय के लिए यह त्योहार मानसिक संतोष तो प्रदान करते हैं परंतु ऐसी स्थिति में इनको मनाते समय धार्मिक आस्था को कम और दिखावा और मनोरंजन को अधिक महत्व दिया जाता है। अतः कहना अतिश्योक्ति न होगी कि विभिन्न  सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक कारणों से धीरे-धीरे हमारे त्योहारों का वास्तविक स्वरूप धूमिल होता जा रहा है जिससे हमारी नई पीढ़ी इसके वास्तविक स्वरूप से अंजान तथा परंपराओं से विमुख होती जा रही है।

मालती मिश्रा 'मयंती'

रविवार

मुक्तक

मुक्तक
मुक्तक
कहीं पर शंख बजते है, कहीं आजान होते हैं।
मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे यहाँ की शान होते हैं।।
जहाँ नदियों का संगम भी प्रेम संदेश देता है।
धर्म के नाम पर झगड़े,क्यों सुबहोशाम होते हैं।।

वही धरती वही अंबर, खेत खलिहान होते हैं।
वही झोंके पवन के हैं, जो सबको प्राण देते हैं।।
वर्षा की वही रिमझिम,सभी के मन को भाती है
वही धरती है गुणवंती, जहाँ गुणवान होते हैं।।

एक माँ के सभी बेटे, उसी की जान होते हैं।
धरा ए हिंद की संतति इसकी पहचान होते हैं।।
दिलों में फिर हमारे क्यों, दरारें आज आईझ हैं।
सभी अपनों के रहते भी क्यों तन्हा आज होते हैं।।

वही सूरज वही चंदा, सभी के साथ होते हैं।
वही नदियाँ वही सागर, वही दिन-रात होते हैं।।
वही परिवेश सबका है, जहाँ जीते व मरते हैं
हिन्द के टुकड़े करने के क्यों सपने संजोते हैं।

मनोहारी हँसी तेरी, खुशी दिल में जगाती है
निराशा की घनी बदली, चुटकियों में भगाती है।
तुम्हारी मुस्कराहट पे, करूँ कुर्बान अपनी जाँ
यही टूटे दिलों के जख्म पर मरहम लगाती है।।

सितारों की चमक फीकी, जवानी हार जाती है
करे रोशन जमाने को, शमा खुद को जलाती है।               
नहीं कोई सिवा तेरे, हमारे प्यार के काबिल
पतंगे की यही बातें, जमाने को लुभाती हैं।।


धरती की कोमल हरियाली यहाँ सब को लुभाती है।
उजड़ी सूनी हुई धरती किसी के मन न भाती है।।
जगत का है यही आधार यही सबका सहारा है।
इस पर निर्भर सभी प्राणी सभी के काम आती है।।

मालती मिश्रा 'मयंती'

शुक्रवार

प्रसिद्धि की भूख' तकनीक की देन..

प्रसिद्धि की भूख' तकनीक की देन..
प्रसिद्धि की भूख' तकनीक की देन..

पहले समाज में दस-बीस प्रतिशत लोग ऐसे होते थे जो समाज में अपनी एक अलग पहचान बनाने के लिए प्रयत्नशील होते होंगे। वैसे समाज में अपनी पहचान, मान-सम्मान तो सभी को प्रिय होता है परंतु रोजी-रोटी, पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियों से समय मिले तभी तो कोई इस विषय में सोचे, यही वजह है कि इस रेस के धावक पहले कम होते थे, किन्तु जैसे-जैसे तकनीक का विकास होता गया, अंतरजाल का ताना-बाना पसरता गया, लोगों की सहूलियतें बढ़ती गईं। जब से स्मार्टफोन ने अपना जाल फैलाया तब से फेसबुक, व्ह्ट्स्अप, इंस्टाग्राम और तमाम तरह के ऐप हैं जिन्होंने लोगों में नाम और पहचान बनाने की भूख को ऐसी हवा दे दी है कि अब दस-बीस की जगह पचास-साठ फीसदी लोग इस प्रतिस्पर्धा के प्रतिभागी बन गए हैं। क्यों न हो कैंडीकैम, ब्यूटीप्लस आदि ऐप का प्रयोग करके फोटो में सुंदरता को अधिक निखारकर असलियत से ख्वाबों वाली खूबसूरती पाना और कम उम्र दिखा पाना यह सब तकनीक से ही तो संभव हो रहा है, अभिनय न भी आता हो तो क्या हुआ वीगो है न! जरा से लटके-झटके देकर वीडियो बनाओ और पोस्ट करके बन जाओ अभिनेता या अभिनेत्री, ऐसे ही गायक बनने के लिए भी स्टारमेकर जैसे कई ऐप हैं उन पर गाना गाकर और पोस्ट करके लाइक और कमेंट्स बटोरकर आभासी मित्रों के बीच स्टार बन जाना आसान हो गया है।
जब इतनी आसानी से लोगों के बीच आपकी पहचान बनती हो तो क्यों नहीं इस रेस के धावक बनना चाहेंगे और इसमें कोई बुराई भी नहीं है, व्यक्ति का स्वयं का मनोरंजन होता है,  चाहे कुछ पल की ही सही, प्रसन्नता मिलती है और किसी अन्य को कुछ हानि भी नहीं होती तथा आभासी दुनिया में उसके मित्रों की सूची बढ़ती जाती है।
किन्तु प्रसिद्ध होने की यह भूख केवल मनोरंजन तक ही सीमित नहीं रह गई है, बल्कि अन्य क्षेत्रों में भी फैल गई है; जहाँ वास्तविक रूप से रचनात्मकता दिखाने की आवश्यकता होती है, वहाँ भी कभी-कभी प्रसिद्धि की यह भूख कुछ व्यक्तियों में ईर्ष्या और द्वेष की भावना को जन्म देती है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति स्वयं का सही आंकलन किए बिना नकारात्मक पथ का पथगामी बन जाता है और वह अपने समक्ष अपने से अधिक क्षमतावान व्यक्ति को देखना नहीं चाहता और ऐसा अधिकतर समान क्षेत्र में क्रियाशील व्यक्तित्व के प्रति होता है, ऐसी स्थिति में व्यक्ति स्वयं से अधिक क्षमतावान व्यक्ति पर आरोप-प्रत्यारोप लगाना प्रारंभ कर देता है, सोशल मीडिया ही तो है, यह अगर लोगों के मध्य किसी की छवि बना सकती है तो बिगाड़ भी सकती है, आप किसी के भी संपर्क में आकर किसी की भी बुराई करने के लिए स्वतंत्र हैं, कौन आपको रोकेगा और कैसे? ज्यादा से ज्यादा ब्लॉक कर दिए जाओगे, तो क्या! उसके किसी अन्य मित्र से बुराई शुरू कर दीजिए। यही तो होता है, जिससे वह अपने नकारात्मक भावों के साथ-साथ स्वयं से अधिक क्षमतावान व्यक्ति के साथ-साथ चलता है और लोगों की नजरों में आ जाता है; इस सत्य से जान बूझकर कर अंजान बनते हुए कि ऐसी प्रसिद्धि क्षणिक होती है स्थायी कभी नहीं हो सकती, वह इसमें ही अपने लक्ष्य की पूर्ति मान प्रसन्न हो जाता है और सोचता है कि आज के समय में कितना आसान है प्रसिद्ध होना.. परिश्रम भी नहीं करना पड़ता, 'हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा ही चोखा।' किसी ने क्या खूब कहा- "बदनाम हुए तो क्या नाम न होगा!"

मालती मिश्रा 'मयंती'

शनिवार

पुरस्कार... भाग-5 (अंतिम भाग)

प्रातःकालीन सभा की तैयारी हो रही थी, विद्यालय के पिछले भाग में खेल के मैदान में बच्चों को कक्षानुसार पंक्तियों में खड़ा किया जा रहा था। नंदिनी अपनी कक्षा के बच्चों की  पंक्ति सीधी करवा रही थी तभी चपरासी ने आकर कहा कि उसे डायरेक्टर सर बुला रहे हैं।
वह तुरंत ऑफिस की ओर चल पड़ी।
उसने ऑफिस के शीशे के गेट को भीतर की ओर हल्का सा धक्का देकर आधा ही खोला  और बोली- "मे आई कम इन सर?"
अपनी बड़ी सी मेज के दूसरी ओर बैठे डायरेक्टर चौधरी ने गंभीर मुद्रा में हल्के से सिर हिलाकर उसे अनुमति दे दी।
नंदिनी ने भीतर प्रवेश किया, मेज के इस ओर गेट की ओर पीठ किए कोई व्यक्ति बैठा था और उसके साथ ही खड़ा था वही बच्चा जो एक हाथ कटे होने के कारण अलग बैठने के लिए कह रहा था। नंदिनी को समझते देर न लगी कि वह बच्चा अपने पिता को इसलिए लेकर आया है ताकि वह उसे कक्षा में एक अलग सीट पर बैठाए।
"सर आपने बुलाया!" नंदिनी ने बड़े ही विनम्र स्वर में कहा।
"क्लास में क्या हुआ था कल?" डायरेक्टर चौधरी ने बड़े ही रूखेपन से पूछ।
"जी इस बच्चे ने मुझसे अलग सीट पर बैठाने के लिए कहा था ताकि इसका हाथ न दुखे, तो मैंने इसे सीट की लेफ्ट साइड में बैठाया ताकि हाथ बाहर की तरफ होगा तो नहीं दुखेगा, साथ ही यह भी कहा कि यदि फिर भी कोई परेशानी हो तो मुझे बताए मैं अलग बैठा दूँगी।" उसने जवाब दिया।
"तुमने यह नहीं कहा कि जो कहना हो मुझसे कहो डायरेक्टर कौन होता है वो क्या करेगा..।"
डायरेक्टर चौधरी जो अब तक न जाने कैसे शांत बैठे थे बच्चे और उसके पिता के समक्ष ही यकायक दहाड़ पड़े।"
नंदिनी काँप उठी उसका मस्तिष्क शून्य हो गया, उसने तो स्वप्न में भी कभी ऐसी कल्पना नहीं की थी कि इसप्रकार कभी किसी अभिभावक के समक्ष उसका अपमान होगा।
"पर सर मैंने ऐसा नहीं कहा मैं तो बस समझाना....
"तुम अपने आप को बहुत तेज समझती हो, कुछ भी कहोगी और फिर बात बना दोगी! जाओ यहाँ से..."उन्होंने नंदिनी की बात पूरी सुने बिना ही उसे डाँटकर वापस भेज दिया।
नंदिनी प्रार्थना सभा में वापस चली गई पर उससे यह बर्दाश्त नहीं हो रहा था कि किसी बच्चे और अभिभावक के सामने उससे इसप्रकार बात की गई, अपमान के दर्द से बार-बार उसकी आँखें भर आतीं और वह औरों की नजर बचाकर आँखों की नमी पोंछ लेती, किन्तु उससे सहन नहीं हो पा रहा था....कैसे वह क्लास में उस बच्चे का सामना करेगी.... क्या अब वह पहले की तरह पढ़ा पाएगी..... क्या बच्चे अब उसका सम्मान करेंगे? इन्हीं सवालों से उलझती अपने-आप से लड़ती वह प्रिंसिपल ऑफिस में पहुँच गई।
"सर मैं क्लास में नहीं जा सकूँगी प्लीज मेरा ये पीरियड फ्री कर दीजिए या किसी और क्लास में भेज दीजिए।" उसने प्रिंसिपल से निवेदन किया।
"पर क्यों मैडम, आप क्यों नहीं जाना चाहतीं,  पहले बताइए तो सही!"  उन्होंने पूछा।
वह नहीं बताना चाहती थी, उसका आहत हो चुका स्वाभिमान उसे रोक रहा था तथा दूसरी ओर डायरेक्टर को ऐसा न लगे कि वह शिकायत कर रही है, परंतु उसे यदि उस बच्चे का सामना करने से बचना है तो सच्चाई बताने के सिवा कोई अन्य उपाय न था। अतः उसने सारी बातें जो उसने कक्षा में बच्चों के समक्ष समझाते हुए कहा था और जो डायरेक्टर चौधरी ने कही थीं, ज्यों की त्यों प्रधानाचार्य को बता दिया।
"ये तो बहुत गलत हुआ, इसमें आपकी गलती नहीं है पर आप भी जानती हैं मैं अभी कुछ नहीं कह सकता।" उन्होंने कहा।
"सर मैं भी नहीं चाहती कि आप कुछ कहें, मैं बस वो क्लास छोड़ना चाहती हूँ, मैं शर्म के कारण उस क्लास में नहीं पढ़ा पाऊँगी, प्लीज़ सर।"
"ओके आप बस एक काम कीजिए, आप जाकर अटेंडेन्स ले लीजिए और उस बच्चे को मेरे पास भेज दीजिएगा, मैं उस बच्चे का पक्ष भी सुनना चाहता हूँ।"
"ओके सर" कहकर नंदिनी रजिस्टर लेकर कक्षा में चली गई।
उसने बच्चों की हाजिरी ली और कक्षा से बाहर जाते हुए उस बच्चे से कहा- "आपको प्रिंसिपल सर ने बुलाया है, तो एक बार मिल लीजिएगा।
दूसरा पीरियड चल रहा था नंदिनी कक्षा में पढ़ा रही थी तभी चपरासी ने आकर फिर कहा- "आपको डायरेक्टर सर बुला रहे हैं।"
उसने ऑफिस में जैसे ही प्रवेश किया डायरेक्टर अपनी कुर्सी से खड़े होकर जहर बुझे स्वर में बोले - तुम प्रिंसिपल से शिकायत करने गई थीं?
"नो सर मैं अपना पीरियड चेंज करवाने गई थी।" वह उनका यह बदला हुआ व्यवहार देख सहम गई थी उसने अत्यंत कातर स्वर में जवाब दिया।
"तू समझती क्या है अपने आपको? चलो जाओ तुम, अब यहाँ तुम्हारी कोई जरूरत नहीं, निकलो यहाँ से।" कहते हुए वह नंदिनी के पास तक आ गए।
वह मृग शावकी की तरह भयभीत सी बिना कुछ बोले तुरंत ऑफिस से बाहर निकल स्टाफ रूम की ओर जाने लगी...
"उधर कहाँ जा रही हो, बाहर जाओ।" अपने ऑफिस के बाहर तक उसके पीछे-पीछे आए डायरेक्टर ने ऊँची आवाज में कहा।
"अपना पर्स लेने जा रही हूँ।" नंदिनी की आवाज भर्रा गई।
"कुछ नहीं, बाहर जाओ वहीं सब मिल जाएगा।" वह उसी तरह दहाड़कर बोले। अब नंदिनी में साहस नहीं था कि वह कुछ कहती या वहाँ रुक पाती; उसे ऐसा लगा कि यदि वह वहाँ एक पल भी रुकी तो कही वह उसे धक्का ही न मार दें या हाथ पकड़कर न निकाल दें, इसलिए वह तुरंत बाहर की ओर चल दी और रिसेप्शन पर जैसे ही पहुँची पीछे से अकाउंटेंट को इंगित करके डायरेक्टर ने कहा मैडम इनका आज तक का हिसाब करके इन्हें दे दो और ये रिसेप्शन एरिया से अंदर पैर नहीं रखनी चाहिए इनका जो भी सामान अंदर है सब यहीं लाकर दे दो।"
नंदिनी ही नहीं किसी ने भी कभी नहीं सोचा होगा कि किसी अध्यापिका को उसके शिक्षा दान का ऐसा पुरस्कार मिल सकता है। उसका मस्तिष्क शून्य हो चुका था वह स्वयं को बहुत ही लाचार महसूस कर रही थी, जिस स्वाभिमान का वह दम भरती थी उसकी तो ऐसी धज्जियाँ उड़ चुकी कि दुबारा शायद वह कभी स्वाभिमानी होने की बात नहीं करेगी। उसे यहाँ तीन साल होने वाले थे कभी किसी बच्चे की या किसी अभिभावक की शिकायत नहीं आई फिर इस बार उसने ऐसा क्या कह दिया! बच्चों को ओहदे के सम्मान की शिक्षा देना गलत हो गया या उसका समय गलत था।
अकाउंटेंट मिसेज रीमा ने नंदिनी को बुलाकर सारी बातें पूछीं तो नंदिनी ने सारी बातें बता दीं।
"नंदिनी मैडम मैं जो कह रही हूँ वो ध्यान से सुनिएगा, जो लोग अनमैरिड होते हैं न उनपर जिम्मेदारी का प्रेशर कम होता है तो वो छोटी-छोटी बातों पर नौकरी को लात मारके जा सकते हैं, पर मेरे-आपके जैसे लोग कोई भी नौकरी छोड़ने से पहले दस बार सोचेंगे, हमारी उम्र एक जगह सैटल होने की है, नई नौकरियाँ ढूँढ़ने की नहीं, तो हम लोगों को ऐसी कई बातों को अनदेखा करना पड़ता है।" मिसेज रीमा ने कहा।
"पर मैडम आप तो देख ही रही हैं कि मैंने नहीं छोड़ा, मुझे अपमानित करके निकाला गया है।" नंदिनी ने गालों पर ढुलक आए आँसुओं को पोंछते हुए कहा।
"सर बहुत गुस्से में हैं, शायद किसी और बात का गुस्सा आप पर निकल गया हो, गुस्सा ठंडा होते ही समझ जाएँगे तो आप थोड़ी देर रुको मैं बात करती हूँ, पर सैलरी ले लोगी तो फिर कुछ नहीं हो पाएगा।"
"नहीं रीमा मैडम, आप मेरी सैलरी बना दीजिए, इतने अपमान के बाद भी मैं यहाँ रुक जाऊँ तो कोई भी कभी भी मुझे ठोकर मारने लगेगा।"
"सोच लीजिए मैम, मैं आपकी भलाई की ही बात कह रही हूँ।"
"मैं समझ सकती हूँ मैम पर रुक नहीं सकती।" नंदिनी ने अपना फैसला सुनाया।
"नंदिनी मैम प्रिंसिपल सर आपको बुला रहे हैं।" रिशेप्सनिस्ट ने कहा।
नंदिनी प्रिंसिपल ऑफिस में गई
"मैडम मैं जानता हूँ कि आपके साथ बहुत गलत हुआ, पर आप मेरी विवशता भी समझ सकती हैं, फिरभी मैं यही कहूँगा कि एक अच्छे टीचर को जाने देना स्कूल और बच्चे दोनों के लिए ठीक नहीं, मैं आपसे अभी रुकने के लिए नहीं कहूँगा आप घर जाइए मैं शाम को आपसे फोन पर बात करूँगा।" प्रधानाचार्य ने कहा।
"जी सर बात जरूर कीजिएगा पर वापस आने के लिए मत कहिएगा, प्लीज़। कह कर नंदिनी बाहर आ गई। वाइस प्रिंसिपल, स्पोर्ट टीचर सभी ने नंदिनी को समझाने का प्रयास किया कि उसे रुक जाना चाहिए, दूसरे को समझाना जितना आसान होता है उतना स्वयं पर लागू कर पाना नहीं, इस सत्य को जानते हुए भी लोग दूसरों को उन्हीं बातों पर अमल के लिए समझाते हैं जिन पर वो स्वयं अमल नहीं कर सकते, वही सब उस समय नंदिनी के साथ हो रहा था, पर उसे एक और बात भीतर ही भीतर आहत कर रही थी कि सभी ने उसे सांत्वना देने और समझाने का प्रयास किया पर वही एक बार भी नहीं आए जिनके कहने से उसने इस स्कूल को अपना कर्मक्षेत्र बनाया था। ऐसा संभव नहीं था कि उन्हें पता न हो, नंदिनी ने मैसेज देकर बुलवाया भी था फिर भी न जाने क्यों अभिनव सर ने एक बार भी आकर सत्य जानने की आवश्यकता नहीं समझी।
अचानक अलार्म की आवाज सुनकर नंदिनी चौंक गई और भूत से वर्तमान की धरातल पर आ गई, उसने मोबाइल उठाकर अलार्म बंद किया। सुबह के चार बज गए यह जानकर भी वह सोने की कोशिश में फिर से आँखें बंद करके लेट गई।

मालती मिश्रा 'मयंती'

गुरुवार

पुरस्कार... भाग- 4

सत्र का पहला दिन था,नंदिनी के मन में कौतूहल था कि किसको किस कक्षा की कक्षाध्यापिका या कक्षाध्यापक बनाया जाएगा!
"रिधिमा मैम आपको क्या लगता है इस बार आपको कौन सी क्लास मिलेगी?" नंदिनी से नहीं रहा गया तो उसने उत्सुकतावश एक अध्यापिका से पूछ ही लिया जो उस स्कूल में कई सालों से पढ़ा रही थीं।
"क्लासेज तो मैम सबको वही मिलेंगीं जो पहले थीं।"
"लेकिन ऐसा आवश्यक तो नहीं है न, बदल भी तो सकती हैं।"
"नहीं मैम यहाँ तो सबको उन्हीं की क्लासेज देते हैं, बहुत कम ही ऐसा होता है कि कोई अन्य क्लास मिले।"
"पर इसका कारण क्या है?"
"प्रिंसिपल सर का मानना है कि क्लास-टीचर अपने बच्चों को और बच्चे क्लास-टीचर को बहुत अच्छी तरह जानते और समझते हैं, अगर क्लास टीचर चेंज कर दें तो दूसरे टीचर को फिर वही समय लगाना होगा एक-दूसरे से तालमेल बैठाने में, इसलिए पुराने क्लास-टीचर ही ज्यादा प्रभावशाली सिद्ध हो सकते हैं और इसीलिए अभी आपके पास पाँचवीं ब कक्षा थी तो अब छठीं ब होगी।"
"ओह! पर हर जगह तो कक्षाध्यापक/कक्षाध्यापिका बदल जाते हैं, खैर हमें तो जो देंगे हम पढ़ा ही लेंगे।" नंदिनी ने ठंडी साँस छोड़ते हुए कहा।
"नंदिनी मैडम आपको प्रिंसिपल सर बुला रहे हैं।" संदीप (चपरासी) ने कहा।
"ओके कमिंग" कहती हुई नंदिनी ऑफिस की ओर चल दी।
"मे आई कम इन सर!" नंदिनी ने पूछा।
"यस यस कम इन मैडम"
"सर आपने बुलाया?"
"या प्लीज सिट डाउन।"
"थैंक्यू सर आई ऐम ओके" नंदिनी ने कहा पर उसके मस्तिष्क में एक ही सवाल बार-बार ठोकरें मार रहा था कि उसे क्यों बुलाया, उसके दिमाग ने बीते सत्र के सारे कार्यों का अवलोकन पल भर में ही कर लिया कि कोई गलती तो नहीं हुई थी पर उसे ऐसी कोई गलती भी याद नहीं आई। जब तक प्रधानाचार्य जी ने अपनी फाइल बंद नहीं कर दी उन कुछ सेकेंडों में कई सवाल उसके मस्तिष्क में आते-जाते रहे, पर कोशिश
के बाद भी वह कोई अनुमान नहीं लगा सकी।
"नंदिनी मैडम हम आपको टेन्थ क्लास की हिन्दी दें तो आप पढ़ा लेंगीं?" प्रधानाचार्य जी ने कुर्सी पर सीधे होते हुए कहा।
"सर मैंने कभी पढ़ाया नहीं है, आप मुझे इस वर्ष नाइन्थ क्लास की दे दीजिए टेन्थ नेक्स्ट सेशन में दे दीजिएगा।" नंदिनी का भय समाप्त हो चुका था।
"आपने पढ़ाया नहीं है कोई बात नहीं, कभी तो शुरू करेंगी तो अभी क्यों नहीं?"
सर मुझे नवीं-दसवीं का सिलेबस भी नहीं पता, इस क्लास की पुस्तकें तक नहीं देखी हैं, इसलिए कह रही हूँ अभी नाइंथ ही दे दीजिए।" नंदिनी ने अपना तर्क रखा।
"नहीं मैडम आप टेन्थ भी पढ़ा लेंगी आई ट्रस्ट यू, और इसीलिए मैं आपको ये दोनों ही क्लासेज दे चुका हूँ, डोंट वरी आई नो आप को कोई प्रॉब्लम नहीं होगी।"
नंदिनी को जवाब नहीं सूझा कि क्या कहे वह एक पल को बिल्कुल चुप हो गई फिर बोली- "ओके सर अगर आप इतने कॉन्फिडेंट हैं तो मैं पूरी कोशिश करूँगी, पर क्या इस बार भी मुझे ई. वी. एस. पढ़ाना होगा?"
"नो नो, अब आपको सिक्स्थ टू टेन्थ हिन्दी ही पढ़ाना होगा और आप उसी क्लास की क्लास टीचर हैं जिसकी पहले थीं बट सब्जेक्ट हिन्दी है।
"ओके, थैंक्यू सर। कैन आई गो?"
"यस यू कैन।" प्रिंसिपल ने कहा।

नंदिनी के लिए नौवीं-दसवीं कक्षा में पढ़ाना पहला अनुभव था, अगर पहले से पता होता तो इन कक्षाओं की पुस्तकों का कुछ अध्ययन कर लेती पर अब अचानक ही पता चला। कुछ भी हो उसे यह जिम्मेदारी भी पूरी मेहनत से निभानी है, इसलिए वह घर पर रात के  बारह-एक बजे तक जागकर इन दोनों कक्षाओं की पुस्तकों का अध्ययन करती और दूसरे दिन कक्षा में पढ़ाती।
परिणाम स्वरूप कुछ ही दिनों में वह इन कक्षाओं के लिए भी पूर्णतः अभ्यस्त हो गई और तरह-तरह के प्रयोगात्मक विधियों को अपनाते हुए विषय को रोचक बनाते हुए पढ़ाने लगी।
प्रातःकालीन प्रार्थना सभा हो, या किसी पर्व पर आयोजित कोई कार्यक्रम, विषयाधारित कोई क्रियाकलाप हो या सदनाधारित प्रतियोगिता, कोई दैनिक कार्यक्रम हो या वार्षिक त्रिदिवसीय खेल प्रतियोगिता नंदिनी हर कार्य में बढ़-चढ़.कर भाग लेती और अपनी ड्यूटी को पूर्ण समर्पण से निभाती।
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विद्यालय के बड़े से गेट के भीतर कदम रखते ही ठिठक कर दामिनी ने पहले गर्दन घुमाकर एक नजर विद्यालयम् प्रांगण में डाला दाईं ओर बने वालीबॉल कोर्ट और उसके पीछे दूर तक बड़ा सा खेल का मैदान... उसके बाईं ओर लॉन और उसमें हरियाली के चादर पर बच्चों के झूले, ठीक सामने कुछ दूरी पर काँच के बड़े से गेट के पीछे हॉलनुमा रिसेप्शन था, वह प्रभावित हुए बिना न रह सकी। उसने साथ में आए अपने पति से वहीं गेट के बाहर प्रतीक्षा करने के लिए कहा और स्वयं भीतर की ओर बढ़ गई।

जिन विद्यार्थियों का आई-कार्ड नहीं बना था उनके नाम की लिस्ट वाइस प्रिंसिपल के ऑफिस में देने के लिए नंदिनी ने ज्यों ही रिसेप्शन की ओर कदम बढ़ाया सामने बेंच पर बैठी दामिनी को देखकर चौंक गई, उसके पैर जहाँ थे वहीं चिपक गए उधर दामिनी भी नंदिनी को देखते एकाएक चिहुंक उठी और झटके से खड़ी हो गई।
"नंदिनी मैडम आप भी यहाँ हो! ओ माई गॉड ये तो बहुत अच्छा हुआ।"
कहते हुए दामिनी नंदिनी की ओर लपकी और उसके गले लग गई। नंदिनी भी उससे मिलकर खुश हुई, वह भी पिछले स्कूल में साथ में अध्यापन कर चुकी थी और नंदिनी के छोड़ने के करीब ढाई साल पहले ही छोड़ चुकी थी।
"कैसी हो? इंटरव्यू देने आई हो? नंदिनी ने पूछा।
"हाँ मैडम, अभिनव सर ने बुलाया।" उसने अपने उसी चिरपरिचित अंदाज में कहा। उसकी हर बात से बचपना और निश्छलता झलकती।
"हो गया इंटरव्यू?"
"रिटेन टेस्ट और इंटरव्यू दोनों हो गए, सच्ची बताऊँ तो मेरे सारे उत्तर गलत थे मुझे नहीं लगता कि मेरा सेलेक्शन होगा।"
"अनुभव सर ने बुलाया है तो हो भी सकता है, उम्मीद मत छोड़ो।" नंदिनी ने मुस्कुराते हुए कहा।
"मैडम आपभी बात करो ना प्रिंसिपल सर से, प्लीज़।"
"कोशिश करती हूँ, तुम बैठो।" कहकर नंदिनी वाइस प्रिंसिपल के ऑफिस में गई पर वो वहाँ नहीं थे अतः वह प्रिंसिपल ऑफिस में चली गई।
"सर क्या मैं अंदर आ सकती हूँ?" नंदिनी ने पूछा।
"कम इन मैडम।"
"सर ये उन बच्चों की लिस्ट है जिनके आइ-कार्ड अभी नहीं आए।"
"ओके, व्हाइ डिडन्ट गिव इट टू मि० वी० पी०?" कहते हुए प्रधानाचार्य ने लिस्ट ले लिया।
"सर ही इज़ नॉट इन ऑफिस, मे बी ही इज़ टेकिंग क्लास।"
ओके...ओके
"सर वन मोर थिंग आइ वॉन्ट टू से....."
"ओके यू कैन"
"सर दामिनी मैडम.."
"आप जानती हैं उन्हें, अरे हाँ वो भी तो उसी स्कूल में पढ़ा चुकी हैं जहाँ पहले आप पढ़ाती थीं।" प्रधानाचार्य नंदिनी की बात बीच में ही काटकर बोल पड़े।
"जी सर"
"हाउ इज़ शी, कैसी टीचर हैं?"
"सर शी इज अ गुड टीचर।"
"ओके पर रिटेन टैस्ट तो कुछ खास नहीं रहा फिरभी देखते हैं, पहले देखते हैं डायरेक्ट सर क्या कहते हैं।"
"ओके सर।" कहकर नंदिनी बाहर आ गई।
"क्या हुआ?" उसे देखते ही दामिनी ने पूछा।
"सर कह रहे हैं कि डायरेक्टर सर बताएँगे।" मैं अभी थोड़ी देर में फिर आती हूँ कुछ काम है, शुक्र मनाओ ये मेरा फ्री पीरियड है नहीं तो मैं तुमसे इतनी बात नहीं कर पाती, तब तक तुम अभिनव सर से बात कर लो वो अकाउंट विंडो पर खड़े हैं।" नंदिनी ने दाईं ओर अकाउंट ऑफिस की विंडो की ओर संकेत करते हुए कहा और स्वयं स्टाफ-रूम की ओर बढ़ गई।

थोड़ी देर में वह फिर वापस आई तो दामिनी जाने को उद्यत हो रही थी....
"क्या हुआ?" उसने जिज्ञासावश पूछा।
"कुछ नहीं, कह रहे हैं कि अभी डायरेक्टर सर हैं नहीं तो कल आना।"
ओह! पर....नंदिनी कुछ कहती कि तभी उसने देखा कि अकाउंट विंडो पर खड़े अभिनव सर उसको इशारे से बुला रहे हैं, वह वहाँ गई तो उन्होंने पूछा कि क्या हुआ? तो नंदिनी ने वही सब बता दिया जो उसे दामिनी ने बताया था।
"मैडम किसी ने उन्हें गलत इन्फॉर्मेशन दी है आप जाकर एक बार प्रिंसिपल सर से बात कीजिए।" अभिनव सर ने कहा। वो स्वयं नहीं जा सकते थे क्यों वो किसी अन्य आवश्यक कार्य में व्यस्त थे।
नंदिनी ने जाकर प्रिंसिपल से बात की तो पता चला कि उन्होंने कुछ नहीं कहा और उन्होंने दामिनी को ऑफिस में भेजने को कहा।
किन्तु जब तक वह रिसेप्शन पर पहुँची दामिनी जा चुकी थी, रिसेप्शनिस्ट ने बताया कि अभी-अभी गई हैं, तो नंदिनी तेजी से बाहर गई और वॉचमैन को बोला कि दौड़कर बुला लाए।
वह उसी समय निकली ही थी इसलिए वॉचमैन के दौड़ते हुए तेज-तेज बुलाने से आवाज सुनकर वह वापस आ गई और इतनी सारी मशक्क़त के बाद उसकी नियुक्ति साइंस अध्यापिका के रूप में हो गई।
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नंदिनी और दामिनी एक साथ स्कूल आतीं और जाती थीं, नंदिनी दामिनी के मुँहफट होने की वजह से उसे बार-बार समझाती कि किसके सामने कितना बोलना चाहिए, कभी-कभी तो मीटिंग के दौरान डायरेक्टर और प्रधानाचार्य के सामने भी कुछ भी बोल देती उस समय सभी आश्चर्य से उसकी ओर देखते तो वह बिल्कुल भोलेपन से कहती "क्या हुआ, मैंने कुछ गलत बोला क्या?" और साथ में खड़ी दूसरी अध्यापिका उसे कभी हाथ दबाकर कभी उँगली दबाकर इशारे से चुप रहने को कहती।
अपने व्यवहार-कुशल प्रवृत्ति के कारण दामिनी जल्द ही सबसे घुल-मिल गई। पर उसकी बिना सोचे कुछ भी बोल देने की आदत नहीं गई। धीरे-धीरे नंदिनी ने महसूस किया कि वह उससे कुछ खिंची-खिंची सी रहने लगी है उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्यों? फिर एक दिन उसने पूछ ही लिया- "दामिनी! मैं तुम्हें कई बार टोक दिया करती हूँ, कुछ बोलने से रोकती हूँ तो तुम्हें बुरा लगता है?"
"अरे नहीं नंदिनी मैडम आप तो मेरी बड़ी बहन की तरह हो, आप मुझे चाँटा भी मारोगी तब भी मैं बुरा नहीं मानूँगी, मुझे पता है आप मेरी भलाई के लिए ही टोकती हो, और मैं आपकी ही वजह से तो यहाँ हूँ।" उसने अपने उसी चिर परिचित अंदाज में कहा जिसे सुनने वाला रीझे बिना न रह सके। कितना भोलापन और निश्छलता थी आवाज में किन्तु आज उसकी आँखों की वो निश्छलता फीकी पड़ गई थी, मानों ज़ुबान कुछ और आँखें कुछ और कह रही थीं।
नंदिनी ने आगे कुछ कहना उचित नहीं समझा, उसे लगा हो सकता है यह उसकी गलतफ़हमी हो। दोनों अपने-अपने कार्यों में व्यस्त हो गईं।

फ्री पीरियड था इसलिए नंदिनी कंप्यूटर-लैब में  दो बच्चों को प्रातःकालीन सभा के लिए कुछ निर्देश दे रही थी तभी दामिनी ने भी लैब में प्रवेश किया और एक कुर्सी खींचकर बैठते हुए बोली- ये बताओ मैडम सभी आपकी इतनी तारीफ़ क्यों करते हैं?"
"अब आप लोग क्लास में जाइए जो-जो मैंने बताए हैं वो कल तक तैयार कर लीजिएगा।" कहकर नंदिनी ने बच्चों को भेज दिया और दामिनी की ओर घूमते हुए मुस्कुराकर बोली- "कौन लोग मेरी तारीफ करते हैं?"
"प्रिंसिपल सर भी कई बार मेरे सामने आपकी तारीफ कर चुके हैं, डायरेक्टर सर भी जितना आपकी बात पर विश्वास करते हैं उतना और किसी की नहीं और आपकी तारीफ भी करते हैं।"
"मेरे सामने तो नहीं करते, तुम्हारे सामने करते हैं तो तुम पूछो कि क्यों करते हैं, वैसे ऐसा क्या कह दिया सर ने?" नंदिनी ने उसी प्रकार शांत लहजे में पूछा।
"आपको पता है अभी डायरेक्टर सर ने मुझे बुलाया और कहने लगे कि मैं नाइंथ-टेन्थ क्लास को साइंस पढ़ा लूँ।"
तो?
"मैंने नहीं पढ़ाया है कभी, तो मैंने बोल दिया कि मैं नहीं पढ़ा पाऊँगी।"
"फिर?"
"फिर क्या सर लगे सबके सामने मुझे समझाने कि मना नहीं करना चाहिए और आपकी तारीफों के पुल बाँधने लगे, कहने लगे ये प्रिंसिपल सर बैठे हैं; पूछो इनसे नंदिनी मैम को इन्होंने ई. वी. एस. पढ़ाने को दिया था, वो तो उनका सब्जेक्ट भी नहीं है पर उन्होंने एक बार भी मना नहीं किया और पूरा सेशन बिना किसी शिकायत के ई. वी. एस. पढ़ाती रही हैं। आपको तो आपका ही सब्जेक्ट दे रहे हैं।"
तो मैंने कहा-"लेकिन सर मैंने नाइंथ-टेन्थ पहले कभी नहीं पढ़ाया।" तो कहने लगे- "नंदिनी मैडम ने भी नाइंथ-टेन्थ पहले कभी नहीं पढ़ाया था पर अब पढ़ा रही हैं न! उन्होंने तो एकबार भी मना नहीं किया।"
"ये तो सर वही कह रहे थे जो मैंने किया, इसमें तारीफ क्या है।" नंदिनी ने कहा।
"तारीफ ही है और कैसे की जाती है तारीफ!" दामिनी ने तुनक कर कहा।
"कोई बात नहीं तुम भी पढ़ाना शुरू कर दो कोई प्रॉब्लम नह़ी होगी साथ ही तारीफ भी मिलेगी।" नंदिनी ने कहा।
"मैडम मैं जरा से पैसे के लिए डबल-ट्रिपल काम नहीं करने वाली, नाइंथ-टेन्थ के लेबल की सैलरी की बात थोड़ी न हुई थी, अब उसी सैलरी में मैं सीनियर क्लास भी पढ़ाऊँ! तारीफ़ बटोरने के लिए ऐसी चमचागिरी मुझसे नहीं होगी।"
नंदिनी को ऐसा लगा मानो दामिनी ने उसे तमाचा मार दिया हो, वह बोली- "तुम्हारा मतलब है मैं तारीफ बटोरने के लिए चमचागिरी करती हूँ!"
"नहीं मैं आपको नहीं कह रही, पर मुझसे नहीं होगा।" दामिनी ने लापरवाही से कंधे उचकाते हुए कहा।
नंदिनी को अपने और दामिनी के बीच कोई अनदेखी सी दीवार महसूस हुई, उसे लगा कि उसकी प्रशंसा सुनकर दामिनी को खुश होना चाहिए था पर यहाँ तो उल्टा ही प्रभाव दिखाई दे रहा था। उसने तो नंदिनी पर ही सवालिया चिह्न लगा दिया था।
समय अपनी गति से बढ़ता रहा दोनों का साथ आना-जाना अनवरत जारी रहा किन्तु दामिनी का झुकाव नंदिनी से हटकर दूसरी अध्यापिकाओं की ओर अधिक बढ़ने लगा साथ ही वह ऐसे-ऐसे मजाक करने लगी जो उसे भी पता था कि नंदिनी को पसंद नहीं आएँगे, पर नंदिनी चुप रहती।
मानवीय प्रवृत्ति है कि जो व्यवहार या बातें हृदय पर आघात लगाती हैं अति व्यस्तता के बावज़ूद मानव मस्तिष्क न चाहते हुए भी उन बातों को सोचने का समय निकाल ही लेता है और मन को आहत करता रहता है ऐसा ही कुछ नंदिनी के भी साथ था इसके बाद भी वह जब तक स्कूल में होती तब तक उसे किसी अन्य बात का ध्यान ही नहीं रहता वह अपनी कक्षाओं के विद्यार्थियों को सिर्फ अपने पीरियड्स में ही नहीं पढ़ाती बल्कि हर समय उनके लिए कुछ न कुछ सोचती और उनकी तैयारियों में ही व्यस्त रहती।
कक्षाध्यापिका के तौर पर अपनी कक्षा के विद्यार्थियों को आत्म-अनुशासित बनाने के लिए उसने इंग्लिश-स्पीकिंग, यूनीफार्म, अनुशासन, भाषा की शुद्धता, विषयगत दक्षता तथा अध्यापक और सहपाठियों के प्रति व्यवहार आदि को सुधारने के लिए उसने चार्ट बनवाया और दैनिक ग्रेडिंग करने लगी जिसमें उसने सत्य बोलने को सबसे श्रेयस्कर बताया। बच्चे तो कच्ची माटी होते हैं, उन्हें जैसा आकार दो उसी में ढल जाते हैं, फिर प्यार पाकर तो वो अध्यापिका की हर बात को मानते हैं, कम से कम नंदिनी की कक्षा के बच्चे तो ऐसे ही हो गए थे। उसे किसी बच्चे की गलती को बताने के लिए अपनी बात उस पर थोपनी नहीं पड़ती। बच्चे खुद खड़े होकर बताते कि आज उनके जूते पॉलिश नहीं हैं, या आज गृहकार्य पूर्ण नहीं किया। किसी अन्य बच्चे से लड़ाई होती तो नंदिनी के सामने अपनी गलती मानने में एक पल भी नहीं लगाते। अब उसे बच्चों को जैसा बनाना था वो बना चुकी थी, उसे तो अब बस पढ़ाना था और समय-समय पर कुछ न कुछ नया प्रयोग करते रहना था, जिसमें बच्चों का पूरा सहयोग था। अनुशासन तो क्या किसी भी प्रकार की शिकायत अब कोई अध्यापक नहीं करते उल्टा नंदिनी ही पूछती कि किसी को किसी बच्चे से कोई समस्या हो तो कहें। पर जब बच्चों ने अध्यापक को सम्मान देना उनकी हर बात मानना शुरू कर दिया तो सकारात्मक दिशा गमन तो सभी को दृष्टिगोचर हो रहा था तो शिकायत कैसे होती? साथ ही बच्चों के माता-पिता की शिकायतें भी दूर हो चुकी थीं, सभी अपने बच्चों के व्यवहार से खुश थे।
ऐसा नहीं कि बच्चे गलती नहीं करते पर बताए जाने पर उसे स्वीकर कर सुधारने का प्रयास करते। यही तो चाहती थी वो।
पर बच्चों को सिखाना तो आसान होता है, क्योंकि वो जानते हैं कि वो सीखने आए हैं और निश्छल मन से इस सत्य को स्वीकारते हैं, लेकिन उन बड़ों को नहीं सिखाया जा सकता जो अपने मन में ईर्ष्या और अहंकार पाल लेते हैं, उन्हें तो सिर्फ वक्त ही सिखा सकता है।  नंदिनी का मन व्यथित होता, वो अपने आप से ही लड़ रही थी कि उसे दामिनी की उपेक्षा को अनदेखा करना है परंतु मानवीय भावनाओं को काबू कर पाना इतना ही सहज होता तो वह कभी दुखी ही नहीं होता। वह मन ही मन सोचती कि आखिर उससे क्या गलती हुई जिसके कारण दामिनी का उसके प्रति रवैया ही बदल गया, पर उसके पास कोई जवाब नहीं था।
शीतकालीन अवकाश चल रहा था परंतु अध्यापकों की छुट्टी नहीं थी.... कुछ अध्यापक स्टाफ-रूम में तो कुछ किसी अन्य कक्षाओं में अपनी-अपनी सुविधानुसार कार्य कर रहे थे। नंदिनी को सेलरी-सर्टिफिकेट बनवाना था, जिसके लिए वह कल ही बात कर चुकी थी, प्रधानाचार्य महोदय के कहने से सुबह ही लिखित में प्रार्थना-पत्र भी दे चुकी थी। दोपहर के 12 बजने वाले थे पर अब तक कोई जवाब नहीं मिला था इसलिए पूछने के लिए नंदिनी ऑफिस में गई....
"सर वो मैंने सेलरी-सर्टिफिकेट के लिए एप्लीकेशन दिया था....."
"ओ यस यस मैडम, मैंने अकाउंट ऑफिस में बोला तो था पर अभी तक उन्होंने भिजवाया नहीं, ऐसा कीजिए आप थोड़ी देर के बाद आइए मैं तब तक मँगवाता हूँ।" प्रधानाचार्य उसकी बात पूरी होने से पहले ही बोल पड़े।
वह वापस कंप्यूटर लैब में आकर अपने काम में व्यस्त हो गई। दामिनी जो पहले कहीं और बैठी थी अब आकर वहीं बैठ गई, पर दोनों चुपचाप अपने-अपने रजिस्टर में व्यस्त थीं। थोड़ी देर के बाद नंदिनी पुनः प्रिंसिपल-ऑफिस में गई... इस बार प्रिंसिपल ने उसे सर्टिफिकेट तो दिया पर उसमें कुछ गलती थी तो उसे अकाउंटेंट को वापस देकर पुनः बनवाने का निर्देश दिया। विद्यालय की छुट्टी होने का समय हो रहा था इसलिए वह चाहती थी कि आज ही काम हो जाए इसलिए स्वयं अकाउंट ऑफिस में ठीक करने के लिए देकर आई फिर कुछ देर बाद खुद ही वहाँ से सर्टिफिकेट लेकर प्रिंसिपल से हस्ताक्षर करवाने के लिए ऑफिस मे जाने को उठी ही थी कि दामिनी कमेंट्री करने वाले अंदाज में बोल पड़ी..
"ये अब फिर मैडम जाएँगी प्रिंसिपल सर के पास।"
"हाँ जा रही हूँ तो?" नंदिनी को उसका यह अंदाज बड़ा ही बेढंगा लगा।
"नहीं..नहीं आप जाओ मैं कहाँ कुछ कह रही हूँ।" उसने मुस्कुराते हुए कहा।
"तुम्हारा कहना बड़ा अजीब लगा, मुझे अगर काम है तो मैं तो जाऊँगी ही फिर तुम ऐसे क्यों बोल रही हो?" नंदिनी ने कहा
"हाँ काम तो आपको ही पड़ते हैं, वैसे भी आजकल कुछ ज्यादा ही काम पड़ रहे हैं, मैं देख रही हूँ तीन चार चक्कर लगा चुकी हो आप। कोई नहीं जाओ..जाओ।"
उसकी बातों में छिपे व्यंग्य को नंदिनी भाँप गई और बोली- "दामिनी अपनी सीमा में रहकर बात करो, तुम्हारी बातों का मैं क्या मतलब समझूँ?"
दामिनी समझ गई कि नंदिनी क्रोधित हो गई है, वह बोली.."अरे मैडम आप तो मजाक का भी बुरा मान गईं।
"मुझे ऐसे घटिया मजाक बिल्कुल पसंद नहीं, क्या मुझे कभी किसी से ऐसे मजाक करते देखा है तुमने?"
"पर मैं तो करती हूँ न! आपतो जानती हो।"
नहीं मैं नहीं जानती, और करती भी हो तो मुझसे मत करना।" कहते हुए नंदिनी जाने लगी तभी दामिनी बोल पड़ी..."पर मैं तो बिना मजाक किए रह ही नहीं सकती, जिससे बोलूँगी उससे मजाक भी करूँगी।"
जाते-जाते नंदिनी के पाँव अपनी जगह रुक गए, अपनी जगह खड़ी होकर उसने गहरी सी सांस ली और शांत होकर बोली "मजाक की भी लिमिट होती है दामिनी, अगर ऐसे मजाक करने हैं तो प्लीज, चाहे मुझसे न बोलो चलेगा, पर मैं इस प्रकार के घटिया मजाक सहन नहीं करूँगी।" कहकर वह बिना जवाब की प्रतीक्षा किए गेट से निकल गई।
वह नहीं जानती थी कि उसकी यह बात उसके लिए एक मद्धिम गति से असर करने वाला जहर सिद्ध होगा। उसका और दामिनी का आपस में बात करना बिल्कुल बंद हो चुका था, उसने स्वयं तो किसी से कुछ नहीं कहा पर स्कूल में सभी को उनके आपसी दूरी का पता चल चुका था। अध्यापिकाएँ भी ग्रुप बनाने लगीं कोई नंदिनी से दामिनी की बुराई करती तो कोई दामिनी के साथ मिलकर नंदिनी पर कटाक्ष करती। नंदिनी दुखी होती पर जहाँ तक होता अनसुना करने की कोशिश करती। एक-दो बार बात डायरेक्टर तक भी पहुँची, उन्होंने नंदिनी से कहा- "आप उनसे बात कीजिए"
"सर वो मेरी क्लास में साइंस पढ़ाती हैं तो बच्चों से संबंधित जो बातें आवश्यक होती हैं, मैं करती हूँ, इसके अलावा अधिक पर्सनल होना शायद हम दोनों के लिए उचित न होगा।" उसने जवाब दिया।
डायरेक्टर ने उसे भेज दिया। धीरे-धीरे जो अध्यापिका दामिनी के साथ मिलकर नंदिनी पर कटाक्ष करती थी वो भी उससे कटी-कटी रहने लगी। कुछ महीने पश्चात् उसे बिना कारण बताए आनन-फानन में सेवा मुक्त कर दिया गया। अब नंदिनी को ऐसा महसूस होने लगा कि शायद उसे भी कभी भी मना किया जा सकता है, तो क्या विद्यालय में बने रहने के लिए अब दामिनी की गलत बातें सहन करते हुए उससे मिल-जुलकर रहना होगा? पर मेरे लिए तो ऐसा संभव नहीं। नंदिनी ने सोचा।
पर उसे ऐसा महसूस होने लगा था कि अब उसके द्वारा करवाए गए किसी भी क्रियाकलाप को डायरेक्ट द्वारा अनदेखा किया जाने लगा। इसी समय न जाने क्या हुआ कि विद्यालय के  प्रधानाचार्य ने अकस्मात् विद्यालय छोड़ दिया। उड़ती-उड़ती खबर मिली कि उन्हें निकाल दिया गया। दो-तीन महीने के उपरांत नए प्रधानाचार्य की नियुक्ति हुई।
नए प्रधानाचार्य की नियुक्ति अर्थात् कई नियमों में परिवर्तन और कई नए नियमों का लागू होना।
वार्षिक त्रिदिवसीय खेल प्रतियोगिता का आयोजन हुआ, नए प्रधानाचार्य के साथ सामंजस्य बिठाने में जहाँ कुछ अध्यापिकाओं को काफी मशक्कत के बाद भी डाँट पड़ रही थी वहीं अखबार के लिए प्रतिवेदन लिखने के लिए नंदिनी की प्रधानाचार्य के द्वारा प्रशंसा की गई। नंदिनी जो कि सभी को डाँट पड़ते देख डर रही थी कि इसमें भी कमी न निकाल दें; प्रशंसा सुन मन आत्मविश्वास से भर गया। अंग्रेजी में कहते हैं न कि 'फर्स्ट इम्प्रेशन इज़ द लास्ट इम्प्रेशन'। यही नंदिनी के साथ हुआ, प्रधानाचार्य की नजरों में उसकी छवि प्रभावशाली बनी। जहाँ एक ओर नंदिनी अपने अध्यापन, विद्यार्थियों के व्यवहार और रिज़ल्ट, उनके माता-पिता की प्रतिक्रिया, प्रधानाचार्य और अन्य सह अध्यापक-अध्यापिकाओं के सहयोग और व्यवहार से सकारात्मक ऊर्जा से प्रफुल्लित होती वहीं दूसरी ओर यदा-कदा दामिनी की उसके विरुद्ध चली गई चालें, उसके कटाक्ष और  स्कूल मैनेजमेंट का उसके प्रति उदासीन रवैया उसे भीतर से आहत करता फिरभी वह निष्ठापूर्वक अपना काम करती रही।
सत्र समाप्त हो गया और नए सत्र में प्रधानाचार्य ने कक्षाध्यापक और कक्षाध्यापिकाओं की कक्षा बदल दी। नंदिनी को भी छठीं कक्षा दी गई। उसने सोचा अब फिर तीन साल पीछे जाकर इन बच्चों के साथ मेहनत करनी होगी और उसने उसी प्रकार उन बच्चों को समझाना शुरू किया, जैसे पिछली कक्षा के बच्चों को समझाती थी।
"बच्चों आप लोग एक बात ध्यान रखिएगा कि अगर आप लोगों को कोई भी प्रॉब्लम हो तो आप लोग मुझे यानी क्लास-टीचर को जरूर बताएँगे, तभी तो मैं आपकी प्रॉब्लम्स शार्ट-आउट कर पाऊँगी..." तभी उसकी बात बीच में ही रोककर एक बच्चा खड़ा होकर बोला-
"मैम डायरेक्टर सर ने कहा है कि मुझे अलग एक सीट पर अकेले बैठाया करें।"
"क्यों?" नंदिनी ने पूछा।
"मैम, किसी बच्चे के साथ में बैठता हूँ तो मेरा हाथ दुखता है।"
"क्या हुआ तुम्हारे हाथ में?" नंदिनी ने पूछा तो उस बच्चे ने अपना बायाँ हाथ जो अब तक पीछे छिपा रखा था आगे कर दिया।
देखते नंदिनी एकदम से सिहर उठी, उसका हाथ कलाई से कटा हुआ था, हथेली और उँगलियाँ थीं ही नहीं, हालांकि कई वर्ष पहले की बात थी तो अब कोई ज़ख्म नहीं था फिरभी नंदिनी ने पहली बार देखा था इसलिए उसको बेहद दुख हुआ। बच्चों ने बताया कि घास काटने की मशीन में हाथ कट गया था। उस समय कितना दर्द हुआ होगा यह सोचकर ही नंदिनी की आँखें भर आईं परंतु अगले पल वह स्वयं को नियंत्रित करके बोली- "बेटा आप डेक्स के बाँयी ओर बैठो तो आपका हाथ बाहर की ओर रहेगा, फिर यह किसी से छुएगा नहीं तो आपको दर्द भी नहीं होगा।
"पर मैम डायरेक्टर सर ने मुझे अलग बैठने के लिए कहा था।"
"बेटा डायरेक्टर सर के पास आप गए थे?"
नंदिनी ने पूछा।
"जी नहीं पापा ने कहा था।"
"ओके, पर बेटा बात सिर्फ अलग बैठने की है या हाथ न दुखने की है? मेरा मतलब आपतो यही चाहते हो न कि हाथ न दुखे बस!"
"जी।"
तो मैं जैसे कह रही हूँ, आज वैसे ही बैठ जाओ और उसके बाद भी आपको अगर कोई परेशानी हो तो बताना मैं आपको अलग सीट पर बैठा दूँगी।"
उस बच्चे ने वैसा ही किया पर उसके चेहरे से नागवारी साफ झलक रही थी। अब आप सभी लोग मेरी बात ध्यान से सुनिए...."आप लोगों को कोई भी प्रॉब्लम हो तो सबसे पहले क्लास-टीचर को बताएँगे, क्लास-टीचर आपकी प्रॉब्लम सॉल्व न करें तो प्रिंसिपल सर को बताएँगे अगर वहाँ भी आपकी प्रॉब्लम सॉल्व नहीं होती तब आप डायरेक्टर सर के पास जाएँगे, समझे।"
"पर मैम हमारे पापा तो कहते हैं कि कोई भी परेशानी हो तो डायरेक्टर सर के पास चले जाना।" एक दूसरा बच्चा बोला।
"बेटा आपके पापा डायरेक्टर सर को पर्सनली जानते हैं, इसलिए ऐसा कहते हैं, पर आप सोचिए ये पूरा स्कूल डायरेक्टर सर का है, सारे बच्चे उनके पास जाएँगे तो वो किस-किसकी प्रॉब्लम सॉल्व करेंगे, आखिर वो प्रिंसिपल सर से कहेंगे और प्रिंसिपल सर क्लास-टीचर को फिर क्लास-टीचर ही आपकी हेल्प करेगी, तो इससे अच्छा है कि आप पहले ही क्लास-टीचर को ही बताएँ। वैसे भी छोटी-छोटी सी बातों के लिए डायरेक्टर सर के पास जाना अच्छे बच्चों का काम नहीं, तो आगे से ध्यान रखिएगा।
क्रमश

बुधवार

फ्री पीरियड था तो नंदिनी कंप्यूटर लैब में बैठकर बच्चों की कॉपियाँ चेक कर रही थी तभी...
"गुड मॉर्निंग नंदिनी मैम" कंप्यूटर लैब में प्रवेश करते हुए कंप्यूटर टीचर देवेश चौधरी बोले।
"देवेश सर! गुड मॉर्निंग सर, हाऊ आर यू?" देवेश पिछले स्कूल में नंदिनी के सह अध्यापक रह चुके थे इसलिए उन्हें यहाँ देखकर वह खुश हो उठी।
"कैसा लग रहा है यहाँ आपको, मन लग गया या नहीं?"
"सर मेरे लिए यहाँ नया कुछ है ही कहाँ, कई टीचर्स और हर क्लास में कई कई बच्चे सभी तो मेरे लिए वही पुराने टीचर और स्टूडेंट्स हैं और रही रूल्स एंड रेग्युलेशन्स की बात तो आप लोग तो हैं ही मुझे गाइड करने के लिए, फिर मन कैसे नहीं लगेगा।"
"अरे मैम आपको गाइडेंस की जरूरत पड़ेगी ही नहीं, आप खुद इतनी कैपेबल हैं कि आपको किसी की हेल्प की जरूरत पड़ेगी ही नहीं।"
"ऐसा नहीं है सर हर किसी को नई जगह हेल्प की जरूरत होती है।"
दोनों बातें कर ही रहे थे तभी अनुभव सर ने प्रवेश किया।
"कोई प्रॉब्लम तो नहीं मैम?" उन्होंने एक कुर्सी खींचकर बैठते हुए कहा।
"सर वैसे तो कोई प्रॉब्लम नहीं है पर आपसे एक रिक्वेस्ट है...."
"कहिए!"
"सर अगर मुझसे कोई गलती हो तो प्लीज मुझे निःसंकोच बता दीजिएगा।"
"अरे मैम टेंशन फ्री होकर अपना काम कीजिए और अपने तरीके से कीजिए, विश्वास मानिए आपके काम को कोई गलत कह ही नहीं सकता।"
"आप इतना विश्वास करते हैं इसीलिए तो डर लगता है कि कोई गलती न हो जाए, फिर आप ही कहे जाएँगे कि कैसी टीचर लाए हैं।"
"जब मुझे कोई टेंशन नहीं, तो आप क्यों परेशान होती हैं? बिंदास होकर अपने तरीके से कीजिए।" अनुभव सर ने हँसते हुए कहा। घंटी बज गई नंदिनी कॉपियाँ समेटने लगी तथा अनुभव और देवेश अपने-अपने क्लास में चले गए।

नंदिनी जिन-जिन कक्षाओं में पढ़ाती उन कक्षाओं के बच्चे बहुत ही जल्द उससे घुल-मिल गए इसके लिए न उसे सजा देने की आवश्यकता पड़ी और न ही ऑफिस में शिकायत की बावज़ूद इसके कक्षा में पूर्ण अनुशासन रहता। उसने सभी कक्षाओं के बच्चों को सबसे पहले यही सिखाया कि कोई बच्चा उससे झूठ नहीं बोलेगा, अनुशासन में रहेगा और यदि कोई गलती हो गई है तो उसे स्वीकार कर लेगा। निश्चय ही इन बातों को अमल में लाने में बच्चों को समय लगा पर अपने मकसद में नंदिनी काफी हद तक सफल हुई थी। उसके विषय में बच्चों ने रुचि लेना शुरू कर दिया था। लगभग एक-डेढ़ महीने के बाद किसी नई अध्यापिका के आने के उपरांत नंदिनी को तीसरी कक्षा के ई.वी.एस. विषय की जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया गया और हिन्दी की एक और कक्षा दे दी गई।
प्राचार्य महोदय भी उसके कार्य की प्रशंसा करने लगे, एक दिन ऑफिस में मीटिंग के दौरान उन्होंने नंदिनी के पाठ-योजना तथा अध्यापक दैनन्दिनी की प्रशंसा करते हुए कहा कि आप लोग नंदिनी मैडम का रजिस्टर लेकर देखिए और वैसा ही लिखने का प्रयास कीजिए। मीटिंग के उपरांत कुछ अध्यापकों ने माँगकर रजिस्टर देखा भी और कुछ ने परिहास करते हुए यह भी कहा कि "आपने सबका काम बढ़ा दिया, खुद तो रेस्ट करतीं नहीं हमें भी फँसा दिया।" नंदिनी उनके मजाक का बुरा भी नहीं मानती थी।

पाठ्यक्रम के अनुसार विषय से संबन्धित क्रियाकलापों में भी नंदिनी सिद्धहस्त थी, वह सिर्फ विद्यालय में ही नहीं घर पर भी कभी नेट से कभी अन्य पुस्तकों से और कभी स्वचिंतन से ही नए-नए तरीके से बच्चों को अनुशासित करने और अध्ययन के प्रति उनकी रुचि बढ़ाने के लिए तरह-तरह की युक्तियाँ खोजती और उनको अमल में लाती।
और यही कारण था कि उसकी खुद की अभिरुचि के अनुसार क्रियाकलाप करवाने के लिए उसने बच्चों को बहुत ही आसानी से सिखा लिया। बच्चों के लिए भी कार्य रोचक तथा परीक्षा में अंकों में बढ़ोत्तरी करने वाले थे, इसलिए उन्होंने अपनी अध्यापिका के निर्देशानुसार कार्य किया और प्रधानाचार्य सहित अन्य सभी अध्यापकों को अचंभित कर दिया। अपने इस क्रियाकलाप के अन्तर्गत आठवीं कक्षा के विद्यार्थियों ने हस्तनिर्मित पुस्तकें बनाईं और वह पुस्तकें इतनी वास्तविक प्रतीक हो रही थीं मानो पब्लिकेशन द्वारा छपकर आई बच्चों की रंगीन पाठ्य-पुस्तक हों। प्रार्थना सभा में पूरे स्कूल के समक्ष उनके कार्य की सराहना की गई, तथा विद्यालय के डायरेक्टर द्वारा कुछ बच्चों को क्रियाकलाप की उत्कृष्टता के कारण पुरस्कार स्वरूप नकद राशि देकर उनका उत्साह बढ़ाया गया। कुछ विद्यार्थी जिनके कार्य भी उत्कृष्ट थे किन्तु देर से जमा करने के कारण छूट गए थे, उन्हें निराशा से बचाने के लिए नंदिनी ने व्यक्तिगत तौर पर कक्षा में उनको पुरस्कृत किया।
विद्यार्थियों के प्रति उसका परिश्रम, कार्य के प्रति समर्पण और आत्मानुशासन ने उसे विद्यार्थियों और स्कूल मैनेजमेंट का प्रिय बना दिया।
अपनी कक्षा के विद्यार्थियों को पढ़ाने के साथ-साथ सत्य बोलने, कक्षा में आत्मानुशासन में रहने, घर पर अपने छोटे-छोटे कार्य स्वयं करके मम्मी की मदद करने, समय से पढ़ने व खेलने का महत्व आदि बातों को समझाने के लिए रोज पहले पीरियड में 5-10 मिनट का समय निकालती।
इसी प्रकार सीखते-सिखाते यह सत्र समाप्त हो गया। इन आठ-नौ महीनों में न नंदिनी से किसी को शिकायत हुई और न ही नंदिनी को किसी से।
क्रमशः

मंगलवार

पुरस्कार.... भाग- 2


नंदिनी ने बोल तो दिया कि आ जाएगी पर वह सोच में पड़ गई कि क्या करे...पृथ्वी सर से क्या कहे और अनुभव सर को भी मना नहीं करना चाहती क्योंकि उसने ही उनसे कहा था कि आपके स्कूल में कोई वैकेंसी हो तो बताइएगा, स्कूल की रैपुटेशन भी अच्छी है तो निश्चय ही वेतन भी यहाँ से ज्यादा ही होगा। जब मेहनत करनी ही है तो जहाँ अधिक अवसर हों क्यों न पहले वहाँ ही देख लें! पर पृथ्वी सर को क्या कहूँ?
इन्हीं ख्यालों में खोई नंदिनी ने पृथ्वी सर को फोन लगा दिया।
"हैलो...हैलो"...
दूसरी ओर से आवाज आ रही थी और नंदिनी फोन कान से लगाए समझ नहीं पा रही थी कि क्या बहाना बनाए.....फिर उसने वो सारी बातें बता दीं जो अभी अनुभव सर से हुई थीं और बोली-
"सर आप बताइए मेरे लिए क्या उचित होगा? मैं आपको भी मना नहीं करना चाहती और दूसरी ओर भी शायद अच्छी अपॉर्च्युनिटी हो सकती है।"
"मैम मैं जानता हूँ, आप पहले वहाँ जाइए अगर वहाँ आपको ठीक न लगे तो यहाँ तो आपकी नियुक्ति तय है ही।" पृथ्वी सर ने कहा।
"धन्यवाद सर, आपने मेरी समस्या दूर कर दी, आपसे शाम को बात करती हूँ।" कहकर नंदिनी ने फोन रख दिया और अनुभव सर के स्कूल जाने की तैयारी करने लगी।
दोपहर के करीब तीन बजे तक नंदिनी वापस घर आ गई, वह संतुष्ट थी कि उसका इंटरव्यू अच्छा हुआ और वेतन भी संतोषजनक था बस अब उसे पृथ्वी सर को बताना है, उम्मीद थी कि वह समझेंगे। यही सोचकर उसने उन्हें फोन किया और जैसी उसे उम्मीद थी उन्होंने भी उसको वहीं जाने की सलाह दी।

नंदिनी अगले ही दिन से स्कूल जाने लगी, अनुभव सर पिछले स्कूल में नंदिनी के सह अध्यापक रह चुके थे और इस स्कूल में उन्हें करीब दो साल हो चुके थे, उनका प्रभाव भी यहाँ अच्छा था साथ ही कई और अध्यापक थे जो पहले नंदिनी के साथ अध्यापन कर चुके थे  इसलिए नंदिनी को इस स्कूल के वातावरण में बिल्कुल भी अजनबीपन नहीं लगा; सोने पर सुहागा तो तब हुआ जब वह जिस भी कक्षा में जाती हर कक्षा में उसे कुछ बच्चे ऐसे मिलते जो उसके पढ़ाए हुए होते। तो उसे सामंजस्य बिठाने के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ा, सभी का व्यवहार उसके प्रति सम्मान पूर्ण और सहयोग का रहा।
"गुड मॉर्निंग मैम।" नंदिनी के कक्षा में प्रवेश करते ही छात्र-छात्राओं ने खड़े होकर बड़ी गर्मजोशी से उसका स्वागत किया।
"गुड मॉर्निंग बच्चों, सिट डाउन प्लीज़।"
"मैंम आप हमें हिन्दी पढ़ाएँगीं?" एक छात्र ने पूछा तभी दूसरे ने उसे कोहनी मारते हुए कहा- "अरे नहीं, मैम तो संस्कृत की टीचर हैं, वो संस्कृत पढ़ाएँगीं।"
"अच्छा! आपको कैसे पता कि मैं संस्कृत पढ़ाती हूँ?" उसने मुस्कुराते हुए दूसरे बच्चे से पूछा।
"मैम आप हमें पिछले स्कूल में संस्कृत पढ़ाती थीं न!"
"तो क्या हुआ मैम वहाँ हमारे सेक्शन में हिन्दी भी पढ़ाती थीं।" तपाक से पहला बच्चा बोला।
"ओह! तो आप उस स्कूल में थे पहले, तभी मैं सोच रही थी कि आप लोग पहचाने हुए से क्यों लग रहे हो? खैर! मैं आप लोगों को हिन्दी पढ़ाऊँगी।"
"चुप कर मैम बहुत स्ट्रिक्ट हैं।" अचानक नंदिनी के कान में किसी अन्य बच्चे की आवाज पड़ी।
"क्यों भई आपको कैसे पता कि मैं बहुत स्ट्रिक्ट हूँ?" उसने मुस्कुराते हुए उस बच्चे से पूछा।
"मैम जो बच्चे डिसिप्लिन में नहीं रहते आप उन्हें पंखे से टांगकर मारती हो?" दूसरे बच्चे ने पूछा।
"क्या! पंखे से टांगकर! ऐसा किसने कहा?" नंदिनी को बहुत आश्चर्य हुआ।
"मैम इस रवि ने बताया।"
"रवि आपने कब मुझे ऐसा करते देखा?"
"मैम मैं तो इन लोगों को बस डरा रहा था, और ये सच मान गए।" उसने मुस्कुराते हुए कहा।
आप लोग इतना भी मत डरिएगा बच्चों, मैं डिसिप्लिन पसंद करती हूँ ये सच है, जब मैं पढ़ा रही हूँ तो मुझे आप सबकी 100% प्रजेन्स चाहिए पर उसके लिए मुझे किसी को मारने की जरूरत नहीं पड़ेगी, आप लोग खुद डिसिप्लिन में रहेंगे, सो डोंट वरी। और हाँ पंखे से तो बिल्कुल नहीं लटकाऊँगी।" उसने हँसते हुए कहा साथ ही सभी बच्चे हँस पड़े।
पहले दिन लगभग सभी कक्षाओं में बच्चों ने उसका इसी प्रकार स्वागत किया। इसीलिए किसी भी नई जगह जाकर खुद को स्थापित करने और अपनी योग्यता से परिचित करवाने में जो समय और ऊर्जा लगती है उस जद्दोजहद से वह बच गई। अब उसे पढ़ाना था और अपनी योग्यताओं को सिद्ध कर दिखाना था क्योंकि उसे आभास था कि प्राचार्य महोदय और डायरेक्टर महोदय को शायद उससे किसी भी अन्य नई अध्यापिका की तुलना में अधिक उम्मीदें थीं परंतु इसके लिए उसे कोई अतिरिक्त ऊर्जा नहीं लगानी पड़ी बल्कि पिछले स्कूल में वह जितनी मेहनत करती थी उसकी तुलना में यहाँ कम ही करनी पड़ी इसलिए उसे काफी आराम महसूस होता था पर नंदिनी को आराम करने की आदत कहाँ...
अभी दो-तीन दिन ही हुए थे कि प्राचार्य महोदय ने नंदिनी को बुलवाया...
"मे आई कम इन सर?" नंदिनी ने प्रिन्सिपल ऑफिस के गेट पर पहुँचकर प्रवेश की अनुमति माँगी और भीतर आई....
"मैडम क्या आप एक फेवर करेंगीं?" प्रिंसिपल ने कहा।
"फेवर! ये आप क्या कह रहे हैं सर? आप जो भी कार्य या रिस्पॉन्सिबिलिटी देंगे वो तो मुझे करना ही होगा फिर फेवर कैसा? नंदिनी चकित होती हुई बोली।
"आई नो कि आप हिन्दी-टीचर हैं पर अभी जिन मैडम की जगह आपकी नियुक्ति हुई है वो E.V.S. की टीचर थीं। तो क्या आप फ़िफ्थ क्लास की E.V.S. पढ़ा सकती हैं? आपको उसी क्लास की क्लास टीचर भी बना देंगे।"
"पर सर, मैं कैसे पढ़ा पाऊँगी? मेरी इंग्लिश इतनी अच्छी नहीं है।"
"उसकी चिंता आप न करें यदि मैं आपको ये रिस्पॉन्सबिलिटी दे रहा हूँ तो योग्यता देखकर ही दे रहा हूँ, मुझे विश्वास है कि आपको कोई प्रॉब्लम नहीं होगी।"
नंदिनी को खुशी हुई कि यहाँ पर भी प्रधानाचार्य ने उस पर विश्वास दर्शाया, फिर वह मना कैसे कर सकती थी।
अब वह कक्षा पाँच की कक्षाध्यापिका थी, वह पहले घर पर खुद E.V.S. के चैप्टर का अध्ययन करती फिर कक्षा के बच्चों को पढ़ाती, दूसरे सेक्शन में पढ़ाने वाले अध्यापक भी उसकी सहायता करने को तत्पर रहते। लगभग एक माह बाद उसे तीसरी कक्षा का E.V.S. भी यह कहकर दे दिया गया कि जब तक नई अध्यापिका नहीं आतीं आप ये क्लास ले लीजिए, वैसे भी जब आप पाँचवीं कक्षा को पढ़ा लेती हैं तो ये तो तीसरी कक्षा है। नंदिनी मना करना चाहते हुए भी मना नहीं कर सकी और उसने हिन्दी के साथ-साथ E.V.S. भी पढ़ाना शुरू किया।
क्रमश

सोमवार

पुरस्कार


कहीं दूर से कुत्ते के भौंकने की आवाजें आ रही थीं, नंदिनी ने सिर को तकिए से थोड़ा ऊँचा उठाकर खिड़की से बाहर की ओर देखा तो साफ नीले आसमान में दूर-दूर छिटके हुए इक्का-दुक्का से तारे नजर आ रहे थे। चाँद तो कहीं दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रहा था, दूर बहुमंजिला इमारतों की परछाइयाँ ऊपर हाथ उठाकर आसमान को छूने के प्रयास में तल्लीन नजर आ रही थीं, उनके आसपास पेड़ों की काली-काली परछाइयाँ मानों नींद के नशे में उनींदी सी होकर झूम रही थीं। वह फिर से लेट गई और बेड के सामने लगी दीवार-घड़ी में समय देखना चाहा पर कमरे में अंधेरा होने के कारण देख न सकी। उसकी आँखों में जलन हो रही थी, उसे रात पहाड़-सी लंबी लग रही थी, लाख कोशिशों के बाद भी नींद ही नहीं आ रही थी। उसने साइड-टेबल पर रखा मोबाइल उठाया और उसमें समय देखा, तीन बजकर पंद्रह मिनट हो रहे थे। वह फिर करवट बदलकर आँखें बंद करके सोने की कोशिश करने लगी उसकी आँखों के सामने फिर प्रखर का क्रोध से तमतमाया हुआ चेहरा घूमने लगा उसने चौंककर आँखें खोल दीं, धीरे से पीछे की ओर देखा तो प्रखर गहरी नींद में सो रहा था। वह फिर आँखें बंद कर सोने की कोशिश करने लगी....फिर उसकी आँखों के समक्ष प्रखर की क्रोध से जलती आँखें प्रकट हो गईं वह अचकचा कर उठ बैठी, पुनः मुड़कर पीछे देखा तो प्रखर घोड़े बेचकर सो रहा था।
'मेरी नींद उड़ाकर खुद कैसे चैन की नींद सो रहा है।' सोचते हुए उसका चेहरा घृणा और क्रोध से विकृत होने लगा...उसके कानों में प्रखर की कही बात पुनः पिघले हुए गर्म शीशे की मानिंद उतरने लगी.....
"अच्छा हुआ तुझे धक्के मार कर स्कूल से निकाल दिया, तू यही डिज़र्व करती थी।"
और नंदिनी के मुख से पुनः सिसकी निकल गई, उसने अपना मुँह अपने दोनों हथेलियों से दबा लिया कि कहीं प्रखर जाग न जाए! उसकी आँखें फिर बरसनें लगीं ऐसा लगा कि जलती हुई आँखों में आकर आँसू भी उबल गए और गरम-गरम आँसू उसकी हथेलियों और गालों को भिगोने लगे। वह उठी और बाथरूम में चली गई, अंदर से बाथरूम का गेट बंद करके सिसक-सिसक कर रोने लगी पर जब आवाज निकलने को होती तो मुँह पर हाथ रख लेती।  धीरे-धीरे उसकी सिसकियाँ थमने को होतीं तो फिर प्रखर की कही कोई बात याद आ जाती और पुनः सिसकी तेज हो जाती। पंद्रह-बीस मिनट तक वह बाथरूम में बैठकर रोती रही और जब रो-रोकर मन हल्का हुआ तब उसने मुँह धोया और आकर फिर लेट गई और सोने की कोशिश करने लगी।
क्या सचमुच मैं वही डिज़र्व करती थी जो मेरे साथ हुआ? नंदिनी के मनोमस्तिष्क में यही सवाल हथौड़े की तरह वार कर रहा था, 'मैंने क्या गलती की थी? या अपनीं जिम्मेदारी को निभाने में क्या कमी रख छोड़ी थी? अब क्या जीवन भर मुझे अपने ही घर में अपने ही पति से यही ताना सुनना पड़ेगा?'
उसकी आँखों से फिर आँसू बह निकले उसने आँसू पोछकर जैसे खुद से वादा किया - "नहीं, अब नहीं रोऊँगी।"
आखिर मेरी गलती क्या थी? मैंने प्रखर को उस गलत इंसान की संगति से दूर रहने को कहा तो मैं इतनी बुरी हो गई! इतनी नफ़रत करते हैं ये मुझसे कि किसी बाहरी व्यक्ति के लिए मेरे आत्मसम्मान की धज्जियाँ उड़ा दीं। ऐसा ताना तो कोई शत्रु भी नहीं देता सोचते हुए नंदिनी की आँखें बरसती रहीं और तकिया सारी नमी सोखता रहा। आखिर मैं ऐसा क्यों डिज़र्व करती थी? मैंने क्या गलत किया था? सोचते हुए वह अतीत की गहराइयों में खोती चली गई......
*** **** *** ****  ***  **** *** **** ***

लगभग तीन साल पहले... नंदिनी जल्दी-जल्दी साड़ी बाँध रही थी, आज नए स्कूल में उसका पहला दिन था उसे समय का भी अनुमान नहीं था कि कितनी देर में पहुँचेगी इसलिए जल्दी-जल्दी तैयार हो रही थी ताकि पृथ्वी सर का फोन आते ही निकल पड़े, आज उनके साथ जाएगी तो रास्ता भी देख लेगी और वेतन की बात भी कर लेगी क्योंकि उन्होंने आश्वासन दिया था कि जितना ऑफर हुआ है उससे ज्यादा ही दिलवाएँगे। अभी वह साड़ी पूरी तरह बाँध भी नहीं पाई थी कि फोन बज उठा....'इतनी जल्दी?' उसने सोचा और घड़ी की ओर नजर डालते हुए फोन उठाया तो देखा कि अनुभव सर का फोन था....
"गुड मॉर्निंग सर" उसने कहा।
"गुड मॉर्निंग मैम, आप आज ही स्कूल आ जाइए।"
"क्या! पर मैंने तो कहीं और ज्वाइन कर लिया है।"
"ओह! कब से जा रही हैं?"
"सर आज ही से जा रही हूँ, आज पहला दिन है।"
"फिर तो मैम पहले यहाँ आ जाइए उसके बाद कुछ सोचिएगा।"
"पर मैं आऊँगी कैसे?"
"वैन आती है वहाँ से आपको आपके स्टैंड पर मिल जाएगी मैंने ड्राइवर को बता दिया है।"
"जी ठीक है।" कहकर नंदिनी ने फोन रख दिया।
क्रमशः...
चित्र....साभार गूगल

रविवार

पत्रिका 'आर्ष क्रान्ति पर मेरे समीक्षात्मक विचार'

पत्रिका 'आर्ष क्रान्ति पर मेरे समीक्षात्मक विचार'
*आर्ष क्रांति पर मेरे समीक्षात्मक विचार*

कोरी कल्पनाओं और राजनीति के प्रभाव से जिस प्रकार आज समाज दिग्भ्रमित हो रहा है ऐसे में 'आर्य लेखक परिषद्' द्वारा प्रकाशित 'आर्ष क्रांति' अंधेरे में एक मशाल का कार्य करने में सक्षम है। इसका प्रथम अंक ही बेहद आकर्षक और ज्ञान का स्रोत है। जो लोग पढ़ने में रुचि रखते हैं उन्हें पठन योग्य ऐसी सामग्री नहीं उपलब्ध हो पाती जो उनका सही मायने में ज्ञानवर्धन और पथ-प्रदर्शन कर सकें। वेदों में उपलब्ध ज्ञान का तो बहुधा विकृत रूप ही प्राप्य होता है। *आर्ष क्रान्ति* का प्रथम अंक पढ़कर एक आशा जागी है कि संभवतः इस पत्रिका से हमें बहुत कुछ ऐसा प्राप्त होगा जिससे हमारे वेदों में निहित ज्ञान सही रूप में हम तक पहुँचेगा।
पत्रिका का सम्पादकीय (आ० वेदप्रिय शास्त्री द्वारा लिखित) ही इतना रोचक और प्रभावी है कि पाठक स्वतः आगे पढ़ने को बाध्य होता है। *समाज का सर्वांगीण विकास कैसे हो?* शीर्षक ही इसका समाज के प्रति चिंतनशील दृष्टिकोण इंगित करता है, इस लेख में लेखक ने प्राचीन काल में भारतीय समाज के संगठन का आधार तत्पश्चात् उसमें परिवर्तन का समय व आधार, ऋषि दयानंद का प्रादुर्भाव और उनकी मान्यताओं का संतुलित वर्णन किया है।
 *नास्तिक कौन* शीर्षक के अन्तर्गत श्री संत समीर जी द्वारा 'नास्तिक' शब्द के प्रचलित अर्थ से हटकर जिस गूढ़ अर्थ का विवेचनात्मक वर्णन किया गया है वह निःसंदेह पाठक को एक सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करने में सकारात्मक भूमिका का निर्वहन करेगा।
श्री अखिलेश आर्येन्दु जी का लेख *पर्यावरण की समस्या और उसका वैदिक समाधान* हमें न सिर्फ वर्तमान समस्या के प्रति जागरूक करता है बल्कि उसका बेहद प्रभावी और वैज्ञानिक दृष्टि से प्रमाणित समाधान भी बताता है।
*दयानंद की क्रांति शेष है* के माध्यम से भारत को पुनः विश्वगुरु बनाने का मार्ग भी दिखाया गया है।
स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का वास होता है और जब व्यक्ति मानसिक रूप से स्वस्थ होगा तभी वह स्वस्थ समाज के निर्माण में सकारात्मक भूमिका का निर्वहन कर सकता है, इसी बात को ध्यान में रखते हुए *योग क्रांति* शीर्षक में योग व उसके लाभ का वर्णन इसे और प्रभावी बनाता है।
पत्रिका का उद्देश्य वृहद् और प्रशंसनीय है, अतः उद्देश्य पूर्ति के लिए अधिकाधिक लोगों का इससे जुड़ना आवश्यक है इसके लिए इसके प्रचार-प्रसार के माध्यम और उसकी रोचकता पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है साथ ही अन्य सामयिक लेख, कविता, कहानी तथा अन्य साहित्यिक विधाओं का आमंत्रण और प्रकाशन निश्चय ही इसकी गति को तीव्रता प्रदान करने में सहायक सिद्ध हो सकता है। पत्रिका से जुड़े सदस्यों का भी समय-समय पर सचित्र संक्षिप्त परिचय देना लोगों को आकर्षित कर सकता है।
कामना करती हूँ कि निकट भविष्य में आर्य लेखक परिषद् का यह महान उद्देश्य (महर्षि दयानंद और वेद को विश्व स्तर पर प्रतिष्ठित करना) पूर्ण हो।
मालती मिश्रा 'मयंती'

मंगलवार

ट्रू टाइम्स में प्रकाशित मेरा आलेख.....
'साहित्यकार के साहित्यिक दायित्व'
धन्यवाद ट्रू टाइम्स


साहित्य सदा निष्पक्ष और सशक्त होता है, यह संस्कृतियों के रूप, गुण, धर्म की विवेचना करता है और  साहित्यकार साहित्य का वह साधक होता है जो शस्त्र बनकर साहित्य की रक्षा साहित्य के द्वारा ही करता है तथा इस साहित्य साधना के लिए वह लेखनी को अपना शस्त्र बनाता है। ऐसी स्थिति में वह साहित्य की शक्ति का प्रयोग लेखनी के माध्यम से करता है। लोग लेखनी के माध्यम से साहित्य की पूजा करते हैं। साहित्य में वह शक्ति है जो संस्कृतियों का सृजन करने में सक्षम है। इसीलिए साहित्यकार बड़े गर्व से अपनी लेखनी को तलवार से अधिक शक्तिशाली कहता है और यह अक्षरशः सत्य भी है। लेखनी में सत्ता पलट देनें की शक्ति होती है, यह मुर्दों में प्राण फूँक देने का माद्दा रखती है बशर्ते कि यह सही हाथ में हो, साहित्यसर्जक यदि अपने ज्ञान का सकारात्मक प्रयोग करें तो नवयुग की रचना करने में भी समर्थ हो सकते हैं। परंतु सकारात्मकता और नकारात्मकता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और यह लेखनी रूपी तलवार दोनों का शस्त्र है इसीलिए इतने सब के बाद भी साहित्य भी आजाद कहाँ?
यह तो मात्र साहित्यकारों के हाथों की कठपुतली बन गया है। अब लेखनी है तो साहित्यकार के हाथ में ही न, साहित्यकार उसको जैसे चाहेगा वैसे ही प्रयोग करेगा, वह सही या गलत जिस पक्ष को भी रखेगा सशक्त होकर रखेगा क्योंकि साहित्यकार जो ठहरा।
साहित्यकार है तो क्या! आखिर है तो एक जीता-जागता मानव मात्र ही न, जिसमें यदि कुछ गुण होते हैं तो कुछ अवगुण भी होते हैं। साहित्य का ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद भी वह मानवीय गुणों अवगुणों से मुक्त नहीं होता। इसीलिए यह आवश्यक नहीं कि हर साहित्यकार की लेखनी सदा सत्य और निष्पक्ष बोलती हो।
तकनीक का जमाना है, सोशल मीडिया का वर्चस्व है देर-सबेर साहित्यकारों के विषय में किसी न किसी माध्यम से जानने को अवश्य मिल जाता है। अभी हाल ही में मैंने एक महिला साहित्यकार का ऑन लाइन इंटरव्यू news tv पर यू-ट्यूब के माध्यम से देखा। जानी मानी साहित्यकार हैं उपन्यास कविताएँ आदि कुल 52  पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं , अतः साहित्य के क्षेत्र में अनुभवी और ज्ञानी भी हैं। परंतु साक्षात्कार की प्रक्रिया के दौरान ज्यों-ज्यों संवाददाता द्वारा पूछे गए सवालों के जवाब मोहतरमा ने दिए त्यों-त्यों एक साहित्यकार की छवि धुंधली होती गई। साफ-साफ उन्होंने न सिर्फ एक धर्म विशेष को इंगित कर उसे कटघरे में खड़ा किया बल्कि उसकी धार्मिक मान्यताओं पर भी प्रहार कर दिया और इतने पर ही बस नहीं किया बल्कि वो राजनीति पर भी चर्चा करते हुए किसी एक ही पार्टी की पक्षधर भी बन गई। उनके जवाब सुनकर मुझे वो साहित्यकार याद हो आए जिन्होंने एक अखलाक की हत्या के कारण अपने अवॉर्ड वापस करके असहिष्णुता का इल्जाम लगाकर पूरी दुनिया में अपने ही देश की छवि धुँधली करने में कोई कोर-कसर न छोड़ी। साहित्य सर्जक भले ही मानव मात्र है परंतु यदि उसने हाथ में कलम पकड़ ली है तो उसकी जिम्मेदारी बढ़ जाती है। फिर वह स्व-हिताय स्व-सुखाय की श्रेणी से बाहर बहुजन-हिताय बहुजन-सुखाय की श्रेणी में आ जाता है।  साहित्यकार का यह दायित्व है कि वह अपने ज्ञान का प्रयोग समाज और देश के हितार्थ करे न कि स्वहितार्थ, उसे चाहिए कि लेखनी से जब सरस धारा बहे तो उसकी निर्मलता को समस्त मानव मन महसूस करे और उस पावन निर्मलता को आत्मसात करे। साधक ऐसा कुछ न करे कि उसके ज्ञान को नकारात्मकता की श्रेणी में रखा जाए। साहित्यिक ज्ञान प्रयोग समाज और देश के हित में हो न कि कुछ गिने-चुने लोगों के हित में या किसी विशेष जाति-धर्म के हित में।
मालती मिश्रा 'मयंती'