सोमवार

पुरस्कार


कहीं दूर से कुत्ते के भौंकने की आवाजें आ रही थीं, नंदिनी ने सिर को तकिए से थोड़ा ऊँचा उठाकर खिड़की से बाहर की ओर देखा तो साफ नीले आसमान में दूर-दूर छिटके हुए इक्का-दुक्का से तारे नजर आ रहे थे। चाँद तो कहीं दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रहा था, दूर बहुमंजिला इमारतों की परछाइयाँ ऊपर हाथ उठाकर आसमान को छूने के प्रयास में तल्लीन नजर आ रही थीं, उनके आसपास पेड़ों की काली-काली परछाइयाँ मानों नींद के नशे में उनींदी सी होकर झूम रही थीं। वह फिर से लेट गई और बेड के सामने लगी दीवार-घड़ी में समय देखना चाहा पर कमरे में अंधेरा होने के कारण देख न सकी। उसकी आँखों में जलन हो रही थी, उसे रात पहाड़-सी लंबी लग रही थी, लाख कोशिशों के बाद भी नींद ही नहीं आ रही थी। उसने साइड-टेबल पर रखा मोबाइल उठाया और उसमें समय देखा, तीन बजकर पंद्रह मिनट हो रहे थे। वह फिर करवट बदलकर आँखें बंद करके सोने की कोशिश करने लगी उसकी आँखों के सामने फिर प्रखर का क्रोध से तमतमाया हुआ चेहरा घूमने लगा उसने चौंककर आँखें खोल दीं, धीरे से पीछे की ओर देखा तो प्रखर गहरी नींद में सो रहा था। वह फिर आँखें बंद कर सोने की कोशिश करने लगी....फिर उसकी आँखों के समक्ष प्रखर की क्रोध से जलती आँखें प्रकट हो गईं वह अचकचा कर उठ बैठी, पुनः मुड़कर पीछे देखा तो प्रखर घोड़े बेचकर सो रहा था।
'मेरी नींद उड़ाकर खुद कैसे चैन की नींद सो रहा है।' सोचते हुए उसका चेहरा घृणा और क्रोध से विकृत होने लगा...उसके कानों में प्रखर की कही बात पुनः पिघले हुए गर्म शीशे की मानिंद उतरने लगी.....
"अच्छा हुआ तुझे धक्के मार कर स्कूल से निकाल दिया, तू यही डिज़र्व करती थी।"
और नंदिनी के मुख से पुनः सिसकी निकल गई, उसने अपना मुँह अपने दोनों हथेलियों से दबा लिया कि कहीं प्रखर जाग न जाए! उसकी आँखें फिर बरसनें लगीं ऐसा लगा कि जलती हुई आँखों में आकर आँसू भी उबल गए और गरम-गरम आँसू उसकी हथेलियों और गालों को भिगोने लगे। वह उठी और बाथरूम में चली गई, अंदर से बाथरूम का गेट बंद करके सिसक-सिसक कर रोने लगी पर जब आवाज निकलने को होती तो मुँह पर हाथ रख लेती।  धीरे-धीरे उसकी सिसकियाँ थमने को होतीं तो फिर प्रखर की कही कोई बात याद आ जाती और पुनः सिसकी तेज हो जाती। पंद्रह-बीस मिनट तक वह बाथरूम में बैठकर रोती रही और जब रो-रोकर मन हल्का हुआ तब उसने मुँह धोया और आकर फिर लेट गई और सोने की कोशिश करने लगी।
क्या सचमुच मैं वही डिज़र्व करती थी जो मेरे साथ हुआ? नंदिनी के मनोमस्तिष्क में यही सवाल हथौड़े की तरह वार कर रहा था, 'मैंने क्या गलती की थी? या अपनीं जिम्मेदारी को निभाने में क्या कमी रख छोड़ी थी? अब क्या जीवन भर मुझे अपने ही घर में अपने ही पति से यही ताना सुनना पड़ेगा?'
उसकी आँखों से फिर आँसू बह निकले उसने आँसू पोछकर जैसे खुद से वादा किया - "नहीं, अब नहीं रोऊँगी।"
आखिर मेरी गलती क्या थी? मैंने प्रखर को उस गलत इंसान की संगति से दूर रहने को कहा तो मैं इतनी बुरी हो गई! इतनी नफ़रत करते हैं ये मुझसे कि किसी बाहरी व्यक्ति के लिए मेरे आत्मसम्मान की धज्जियाँ उड़ा दीं। ऐसा ताना तो कोई शत्रु भी नहीं देता सोचते हुए नंदिनी की आँखें बरसती रहीं और तकिया सारी नमी सोखता रहा। आखिर मैं ऐसा क्यों डिज़र्व करती थी? मैंने क्या गलत किया था? सोचते हुए वह अतीत की गहराइयों में खोती चली गई......
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लगभग तीन साल पहले... नंदिनी जल्दी-जल्दी साड़ी बाँध रही थी, आज नए स्कूल में उसका पहला दिन था उसे समय का भी अनुमान नहीं था कि कितनी देर में पहुँचेगी इसलिए जल्दी-जल्दी तैयार हो रही थी ताकि पृथ्वी सर का फोन आते ही निकल पड़े, आज उनके साथ जाएगी तो रास्ता भी देख लेगी और वेतन की बात भी कर लेगी क्योंकि उन्होंने आश्वासन दिया था कि जितना ऑफर हुआ है उससे ज्यादा ही दिलवाएँगे। अभी वह साड़ी पूरी तरह बाँध भी नहीं पाई थी कि फोन बज उठा....'इतनी जल्दी?' उसने सोचा और घड़ी की ओर नजर डालते हुए फोन उठाया तो देखा कि अनुभव सर का फोन था....
"गुड मॉर्निंग सर" उसने कहा।
"गुड मॉर्निंग मैम, आप आज ही स्कूल आ जाइए।"
"क्या! पर मैंने तो कहीं और ज्वाइन कर लिया है।"
"ओह! कब से जा रही हैं?"
"सर आज ही से जा रही हूँ, आज पहला दिन है।"
"फिर तो मैम पहले यहाँ आ जाइए उसके बाद कुछ सोचिएगा।"
"पर मैं आऊँगी कैसे?"
"वैन आती है वहाँ से आपको आपके स्टैंड पर मिल जाएगी मैंने ड्राइवर को बता दिया है।"
"जी ठीक है।" कहकर नंदिनी ने फोन रख दिया।
क्रमशः...
चित्र....साभार गूगल

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