रविवार

आते हैं साल-दर-साल चले जाते हैं,
कुछ कम तो कुछ अधिक
सब पर अपना असर छोड़ जाते हैं।
कुछ देते हैं तो कुछ लेकर भी जाते हैं,
हर पल हर घड़ी के अनुभवों की
खट्टी-मीठी सी सौगात देकर जाते हैं।
जिस साल की कभी एक-एक रात
होती है बड़ी लंबी
वही साल पलक झपकते ही गुजर जाते हैं।
माना कि यह साल सबके लिए न हो सुखकर
पर हर नए साल में
कुछ पुराने मधुर पल याद आते हैं।
#मालतीमिश्रा
2017 तुम बहुत याद आओगे.....

बीते हुए अनमोल वर्षों की तरह
2017 तुम भी मेरे जीवन में आए
कई खट्टी मीठी सी सौगातें लेकर
मेरे जीवन का महत्वपूर्ण अंग
बन छाए
कई नए व्यक्तित्व जुड़े इस साल में
कितनों ने अपने वर्चस्व जमाए
कुछ मिलके राह में
कुछ कदम चले साथ
और फिर अपने अलग नए
रास्ते बनाए
कुछ जो वर्षों से थे अपने साथ
तुम्हारे साथ वो भी बिछड़ते
नजर आए
कुछ जो थे निपट अंजान
तुम उनकी मित्रता की सौगात
ले आए
जीवन की कई दुर्गम
टेढ़ी-मेढ़ी राहों पर
चलते हुए जब न था कोई
साथी
ऐसे तन्हा पलों में भी
तुम ही साथ मेरे नजर आए
वक्त कैसा भी हो
खुशियों से भरा
या दुखों से लबरेज
तुम सदा निष्काम निरापद
एक अच्छे और
सच्चे मित्र की भाँति
हाथ थामे साथ चलते चले आए
वक्त का पहिया फिर से घूमा
आज तुम हमसे विदा ले रहे हो
सदा के लिए तुम जुदा हो रहे हो
भले ही साल-दर-साल तुम
दूर होते जाओगे
पर जीवन के एक अभिन्न
अंग की भाँति
ताउम्र तुम
बहुत याद आओगे
साल 2017
जुदा होकर भी तुम न
जुदा हो पाओगे
जीवन का हिस्सा बन
हमारी यादों में अपनी
सुगंध बिखराओगे
साल 2017 तुम
बहुत याद आओगे।
मालती मिश्रा

चित्र साभार गूगल से

गुरुवार

प्रश्न उत्तरदायित्व का...

प्रश्न उत्तरदायित्व का...
हम जनता अक्सर रोना रोते हैं कि  सरकार कुछ नहीं करती..पर कभी नहीं सोचते कि आखिर देश और समाज के लिए हमारा भी कोई उत्तरदायित्व है, हम सरकार की कमियाँ तो गिनवाते हैं परंतु कभी स्वयं की ओर नहीं देखते। मैं सरकार का बचाव नहीं कर रही और न ही ये कह रही हूँ कि सरकार के कार्य में कमियाँ नहीं होतीं या वह सबकुछ समय पर करती है, ऐसा कहकर मैं आप पाठक मित्रों की कोपभाजन नहीं बनना चाहती। परंतु प्रश्न जरूर है कि क्या ये संभव है कि बिना जनता के सहयोग के सरकार की सभी योजनाएँ सफल हों? ज्यादा गहराई में न जाकर मैं सिर्फ स्वच्छता अभियान की बात करती हूँ...आज ही मेरे समक्ष ऐसी घटना घटी जिसके कारण मुझे सरकार पर नहीं जनता पर क्रोध आ रहा है। मैं शेयरिंग ऑटो में बैठी थी, मेरे सामने की सीट पर एक महानुभाव बैठे थे, अधेड़ उम्र के मुँह में गुटखा चबाते हुए महाशय सरकार से बड़े कुपित थे और अपने साथ वाले मित्र से ऐसे बातें कर रहे थे जैसे राजनीति के सबसे बड़े खिलाड़ी तो वही हैं। बात-बात पर सरकार को गाली, सरकार जनता को मूर्ख बना रही है कच्चा तेल सस्ता है सरकार ने पेट्रोल डीजल के दाम बढ़ा दिए, मोदी तो बस बातें बड़ी-बड़ी करता है पर काम कुछ नहीं करता और कहते हुए मुँह में भरा हुआ गुटखा ऑटो से बाहर सड़क पर ही थूक दिया। मैं पहले से ही उनकी बातें बड़ी मुश्किल से बर्दाश्त कर रही थी अब ये इतनी सारी तरल गंदगी जो वो सड़क पर फैल चुकी थी, मुझसे सहन न हो सका मैं बोल पड़ी.. "आप कहते हैं सरकार कुछ नहीं करती पर आप बताइए आप समाज के लिए क्या करते हैं?"  हम क्या कर सकते हैं , क्या हम देश चलाते हैं? उन महाशय ने लगभग भड़कते हुए कहा। "
क्यों आप क्या सिर्फ सरकार को गालियाँ दे सकते हैं, सरकार ने स्वच्छता अभियान की शुरुआत की ये तो आपको पता है न? फिर इसमें सहयोग देने की बजाय आप सड़क पर ही गंदगी फैलाते हुए चल रहे हैं तो क्या उम्मीद करते हैं कि अब मोदी जी को आकर आपकी फैलाई वो गंदगी साफ करनी चाहिए?"
यदि वो महाशय एक संभ्रांत व्यक्ति होते तो निःसंदेह अपनी गलती पर शर्मिंदा होते परंतु जैसा कि मुझे उम्मीद थी वो बड़ी ही बेशर्मी से भड़क कर बोले - "तो क्या गले में डब्बा बाँध के चलूँ?"
"नहीं मुँह पर टेप लगाकर चलिए, जबान और सड़क दोनों साफ रहेंगे"...कहकर मैं उतर गई। परंतु मुझे अफसोस हो रहा था कि मैंने बेहद अशिष्टता से जवाब दिया था परंतु उस व्यक्ति के सरकार और मोदी जी के लिए प्रयुक्त शब्द ध्यान आते हैं तो अपनी गलती नगण्य प्रतीत होती है और सोचती हूँ कि समझदार व्यक्ति को समझाया जाता है मूर्ख और अशिष्ट को समझाना मूर्खता है।
 हमारे माननीय प्रधानमंत्री ने यह अभियान तो शुरू किया, लोगों को प्रोत्साहित करने के लिए खुद भी झाड़ू लगाया और अपने नेताओं से भी लगवाया, कहीं-कहीं असर भी देखने को मिला पर जनता यानि हम-आप क्या करते हैं? मैं आज भी देखती हूँ लोग चलते-चलते थूकते, हाथों में पकड़े हुए स्नैक्स के रैपर ऐसे ही सड़क पर फेंक देते हैं, बस स्टॉप के पीछे या आसपास कहीं थोड़ा भी खाली ऐसा आवा-जाही वाला स्थान हुआ तो वहीं पेशाब कर-करके उस खुली जगह को शौचालय से भी बदतर बना देते हैं और ये सब तब होता है जब वहाँ से चंद कदमों की दूरी पर कूड़ेदान और शौचालय मौजूद होते हैं। मौजूदा स्थिति में सरकार की क्या गलती? क्या ये ज़िम्मेदारी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री की है कि वो हाथों में झाड़ू लेकर आप के पीछे-पीछे चलें और जहाँ आप थूकें वो साफ कर दें, पर आप कष्ट नहीं उठाएँगे कि नियमों का पालन करके स्वच्छता में अपना थोड़ा योगदान दें।
मालती मिश्रा

शनिवार


दहक रहे हैं अंगार बन
इक-इक आँसू उस बेटी के
धिक्कार है ऐसी मानवता पर
जो बैठा है आँखें मीचे

मोमबत्ती लेकर हाथों में
निकली भीड़ यूँ सड़कों पर
मानो रावण और दुशासन का
अंत तय है अब इस धरती पर

आक्रोश जताया मार्च किया
न्याय की मांग किया यूँ डटकर
संपूर्ण धरा की नारी शक्ति
मानो आई इक जगह सिमटकर

हर दिल में आग धधकती थी
आँखों में शोले बरस रहे थे
फाँसी की सजा से कम न हो
बस यही माँग सब कर रहे थे

नराधम नीच पापी के लिए
इस पावन धरा पर शरण न हो
नारी की मर्यादा के हर्ता का
क्यों धड़ से सिर कलम न हो

पर कैसे यह संभव होता 
जब संरक्षक ही भक्षक बन जाए
बता नाबालिग दुष्ट नराधम को
वह जीवनदान दिला लाए

जिस कानून को हम रक्षक कहते
वह पापियों को भी बचाता है
अरे यूँ ही नही यह न्याय का रक्षक
अंधा कानून कहाता है

भुजा उखाड़नी थी जिसकी
जिसकी जंघा को तोड़ना था
बर्बरता की सीमा लांघ गया था जो
उसे किसी हाल न छोड़ना था

पर कानून तो अंधा है 
उससे ज्यादा अंधी सरकार
निर्भया की चीखों का प्रतिफल
अमानुषता के समक्ष हुआ बेकार

जिस राक्षस ने जीवन छीना
उसको रोजी देकर बख्शा
अस्मत तार-तार करने वाले को 
सिलाई मशीन की सौगात सौंपा

क्यों आँखें नहीं खुलतीं अब भी
क्यों अब भी हौसले हैं बुलंद
क्यों अब भी निर्भया सुरक्षित नहीं
दुशासन अब भी घूमते स्वच्छंद

कितनी कुर्बानी लेगा समाज
मासूम निर्मल बालाओं की
क्या मानवता मर चुकी है अब
जो असर नहीं है आहों की

मानवाधिकार जीने का अधिकार
सब असर है इन्हीं हवाओं की
वो इन अधिकारों के हकदार नहीं
जो करते नापाक दुआओं को

क्यों जीवनदान मिले उनको
जो कोख लजाते माओं की
अधिकार कोई क्यों मिले उन्हें
जो अस्मत लूटे ललनाओं की
मालती मिश्रा



चलो अब भूल जाते हैं
जीवन के पल जो काँटों से चुभते हों
जो अज्ञान अँधेरा बन
मन में अँधियारा भरता हो
पल-पल चुभते काँटों के
जख़्मों पे मरहम लगाते हैं
मन के अँधियारे को
ज्ञान की रोशनी बिखेर भगाते हैं
चलो सखी सब शिकवे-गिले मिटाते हैं
चलो सब भूल जाते हैं....

अपनों के दिए कड़वे अहसास
दर्द टूटने का विश्वास
पल-पल तन्हाई की मार
अविरल बहते वो अश्रुधार
भूल सभी कड़वे अहसास
फिरसे विश्वास जगाते हैं
पोंछ दर्द के अश्रु पुनः
अधरों पर मुस्कान सजाते हैं
चलो सब शिकवे-गिले मिटाते हैं
चलो सब भूल जाते हैं....

अपनों के बीच में रहकर भी
परायेपन का दंश सहा
अपमान मिला हर क्षण जहाँ
मान से झोली रिक्त रहा
उन परायेसम अपनों पर
हम प्रेम सुधा बरसाते हैं
संताप मिला जो खोकर मान
अब उन्हें नहीं दुहराते हैं
चलो सब शिकवे-गिले मिटाते हैं
चलो सब भूल जाते हैं....
मालती मिश्रा

मैं ही सांझ और भोर हूँ..

मैं ही सांझ और भोर हूँ..
अबला नहीं बेचारी नहीं
मैं नहीं शक्ति से हीन हूँ,
शक्ति के जितने पैमाने हैं 
मैं ही उनका स्रोत हूँ।
मैं खुद के बंधन में बंधी हुई
दायरे खींचे अपने चहुँओर हूँ,
आज उन्हीं दायरों में उलझी
मैं अनसुलझी सी डोर हूँ।
मैं ही अबला मैं ही सबला
मैं ही सांझ और भोर हूँ।

पुत्री भगिनी भार्या जननी
सबको सीमा में बाँध दिया,
दिग्भ्रमित किया खुद ही खुद को
ये मान कि मैं कमजोर हूँ।
तोड़ दिए गर दायरे तो
शक्ति का सूर्य उदय होगा,
मिटा निराशा का अँधियारा
विजयी आशा की डोर हूँ।
मैं ही अबला मैं ही सबला
मैं ही सांझ और भोर हूँ।

मैं ही रण हूँ मैं ही शांति
मैं ही संधि की डोर हूँ,
मैं वरदान हूँ मैं ही वरदानी
कोमलांगी मैं ही कठोर हूँ।
बंधन मैं ही आज़ादी भी मैं
मैं ही रिश्तों की डोर हूँ,
जुड़ी मैं तो जुड़े हैं सब
बिखरी तो तूफानों का शोर हूँ।
मैं ही अबला मैं ही सबला
मैं ही सांझ और भोर हूँ।
मालती मिश्रा

बुधवार

आजकल चारों ओर राजनीति का माहौल गरम है और ऐसे में गुजरात पर सबकी नजर है। अन्य राज्यों में तो जनता की बेसिक जरूरतों को और राज्य के विकास को मुद्दा बनाया जा सकता है लेकिन गुजरात के लिए तो ये मुद्दा हो ही नहीं सकता था इसलिए जनता को बरगलाने के लिए वही सदाबहार चाल चली गई कि 'जनता को आपस में बाँट दो और राज करो' इसके लिए फिर वही आरक्षण का मुद्दा..... अब देखना ये है कि गुजरात की जनता कितनी समझदार है? क्या आरक्षण जैसा मुद्दा उसे अपने राज्य और देश के विकास में बाधा डालने के लिए विवश कर सकता है?

मंगलवार

हमारा देश स्वतंत्र हुआ परंतु स्वतंत्रता का सुख एक रात भी भोग पाते उससे पहले ही देश दो भागों में बँट गया। देश को बाँटने वाले भी वही जिनको देशवासी अपना सर्वोच्च मानते थे।  क्यों न हो भई देश को स्वतंत्र करवाने में दिन- रात एक कर दिया, घर-परिवार के ठाट-बाट को छोड़कर जेल की यात्रा भी कर आए, क्या हुआ अगर जेल में भी वी०आई०पी० बनकर रहे। अगर जेल नहीं जाते तो बड़े-बड़े लेख कैसे लिखते, अगर जेल न जाते तो लोग कैसे जानते कि ये लोग कितने बड़े देशभक्त हैं.... अब अगर देश की खातिर इतने बलिदान किए तो क्या देश को अपनी मर्जी से बाँट भी नहीं सकते? वो अलग बात है कि इस प्रक्रिया में न जाने कितनों की दुनिया उजड़ गई, तो क्या!  बड़ा पेड़ गिरने पर छोटे-मोटे पौधे तो कुचलते ही हैं। खैर पूरा देश इनका आभारी था और है, इसीलिए तो किसी ने देश बाँटने वालों पर उँगली नहीं उठाई, किसी ने भी यह नहीं सोचा कि शायद ऐसा भी हो सकता था कि देश टूटने से बच जाता और घर उजड़ने से बच जाते। किसी के मस्तिष्क में ये नहीं आया कि देश में तुष्टीकरण की नीति वहीं से शुरू हो गई और जो देश को अंग्रेजी शासन से मुक्त करवाने की बात करते हैं वे स्वयं  अंग्रेजी सभ्यता के गुलाम है, वही आज देश के तारनहार बन बैठे। कोई क्यों सोचता...हम भारतीय इतने बड़े अहसान-फरामोश थोड़े ही हैं।  किसी ने भी न सोचा होगा कि आगे चलकर सत्तर सालों तक हमारा देश आँखें बंद किए एक ही ढर्रे पर चलता रहेगा। क्यों न चले...अरे भई! उन्होंने हमें आज़ादी दिलाई तो हम उनकी गुलामी कर भी लेंगे तो क्या हुआ.. भले ही  आज़ादी की उस लड़ाई में इनके परिवारों से कोई एक चींटी भी शहीद नहीं हुई तो क्या! अब शहीद भगत सिंह और चंद्रशेखर आजा़द की तरह ये थोड़ी न हिंसा के मार्ग पर चल रहे थे और ब्रिटिश सरकार को हिंसा पसंद नहीं थी इसीलिए तो उसने आज़ादी के दस्तावेजों पर नेहरू और गाँधी लिखकर दिया और भारत का शासन इनके वंशजों के नाम लिख गए।
अब ये सदियों तक अपने पूर्वजों के नाम पर सिंहासन पर कब्जा करके बैठे रहेंगे चाहे गुणहीन पप्पू ही क्यों न हों। अब तो बाप की बपौती है रखें या बेच दें। किसी अन्य को तो देशभक्ति की बात करना शोभा भी नहीं देता क्योंकि इस शब्द पर सिर्फ एक ही खानदान का कॉपी राइट है।
कहने को तो हमारा देश लोकतांत्रिक है परंतु आजतक समझ न आया कि लोकतंत्र है कहाँ? आज भी एकमात्र परिवार इस देश की सत्ता पर अपना अधिकार मानता है और यदि लोकतंत्र के नाम पर जनता किसी अन्य को चुन ले तो मजाल है इनसे बर्दाश्त भी हो जाए...और क्यों हो हमारी आपकी छोटी सी प्रॉपर्टी पर कोई अपना अधिकार जताए तो क्या हम-आप सहन कर लेंगे? तो ये तो इतने बड़े देश की बात है।
कोई और सत्ता पर आँख उठाकर तो देखे...... दंगे-फसाद, आगजनी आदि न बढ़ जाए तो?
इन्होंने सत्तर साल कुछ और किया हो या न किया हो पर अराजक तत्वों को पनाह बखूबी दिया, अब तो ऐसा लगने लगा है जैसे इतने सालों तक हम सो रहे थे हमें अहसास ही न था कि हम अब भी राजतंत्र में जी रहे हैं। जब पैरों तले की जमीन खिसकी तक अहसास हुआ।

रविवार

नारी तू खुद को क्यों
इतना दुर्बल पाती है,
क्यों अपनी हार का जिम्मेदार
तू औरों को ठहराती है।
महापराक्रमी रावण भी
जिसके समक्ष लाचार हुआ,
धर्मराज यमराज ने भी
अपना हथियार डाल दिया।
वही सीता सावित्री बनकर
तू जग में गौरव पाती है,
पर क्यों इनके पक्ष को तू
सदा कमजोर दिखाती है।
माना कि युग बदल गया
कलयुग की कालिमा छाई है,
पर नारी भी तो त्याग घूँघट को
देहरी से बाहर आई है।
जिस अधम पुरुष से हार के तू
दुर्गा का नाम लजाती है,
क्या भूल गई ये अटल सत्य
उसे तू ही धरा पर लाती है।
सतयुग की काली चंडी तू
तो आज की लक्ष्मीबाई है।
तू उसकी ही प्रतिछाया है
जो महिषासुर मर्दिनी कहाती है,
मर्द बनी मर्दानों में ये
उनको धूल चटाती है,
और आज खड़ी तू बिलख रही
मदद की गुहार लगाती है।
क्यों नराधम के हाथ उठने के लिए
और तेरे बस जुड़ने के लिए।
जिन हाथों को जोड़ कर विनती करती
क्यों उनको नहीं उठाती है,
एकबार खोल तू हाथ अपने
तो देख कैसे शक्ति समाती है,
जो तमाशबीन बन देख रहे
कैसे उनको भी साथ तू पाती है।
जो करता मदद स्वयं की है
उसके पीछे दुनिया आती है,
बन सक्षम अब तू बढ़ आगे
नारी में ही शक्ति समाती है।
मालती मिश्रा

शुक्रवार

विकास की दौड़ में पहचान खोते गाँव

विकास की दौड़ में पहचान खोते गाँव
वही गाँव है वही सब अपने हैं पर मन फिर भी बेचैन है। आजकल जिधर देखो बस विकास की चर्चा होती है। हर कोई विकास चाहता है, पर इस विकास की चाह में क्या कुछ पीछे छूट गया ये शायद ही किसी को नजर आता हो। या शायद कोई पीछे मुड़ कर देखना ही नहीं चाहता। पर जो इस विकास की दौड़ में भी दिल में अपनों को और अपनत्व को बसाए बैठे हैं उनकी नजरें, उनका दिल तो वही अपनापन ढूँढ़ता है। विकास तो मस्तिष्क को संतुष्टि हेतु और शारीरिक और सामाजिक उपभोग के लिए शरीर को चाहिए, हृदय को तो भावनाओं की संतुष्टि चाहिए जो प्रेम और सद्भावना से जुड़ी होती है। 
मैं कई वर्षों बाद अपने पैतृक गाँव आई थी मन आह्लादित था...कितने साल हो गए गाँव नहीं गई, दिल्ली जैसे शहर की व्यस्तता में ऐसे खो गई कि गाँव की ओर रुख ही न कर पाई पर दूर रहकर भी मेरी आत्मा सदा गाँव से जुड़ी रही। जब भी कोई परेशानी होती तो गाँव की याद आ जाती कि किस तरह गाँव में सभी एक-दूसरे के सुख-दुख में साथ होते, गाँव में किसी बेटी की शादी होती थी तो गाँव के हर घर में गेहूँ और धान भिजवा दिया जाता और सभी अपने-अपने घर पर गेहूँ पीसकर और धान कूटकर आटा, चावल तैयार करके शादी वाले घर में दे जाया करते। शादी के दो दिन पहले से सभी घरों से चारपाई और गद्दे आदि मेहमान और बारातियों के लिए ले जाया करते। लोग अपने घरों में चाहे खुद जमीन पर सोते पर शादी वाले घर में कुछ भी देने को मना नहीं करते और जब तक मेहमान विदा नहीं हो जाते तब तक सहयोग करते। उस समय सुविधाएँ कम थीं पर आपसी प्रेम और सद्भाव था जिसके चलते किसी एक की बेटी पूरे गाँव की बेटी और एक की इज़्जत पूरे गाँव की इज़्ज़त होती थी। 
बाबूजी शहर में नौकरी करते थे लिहाजा हम भी उनके साथ ही रहते, बाबूजी तो हर तीसरे-चौथे महीने आवश्यकतानुसार गाँव चले जाया करते थे पर हम बच्चों को तो मई-जून का इंतजार करना पड़ता था, जब गर्मियों की छुट्टियाँ पड़तीं तब हम सब भाई-बहन पूरे डेढ़-दो महीने के लिए जाया करते। 
उस समय स्टेशन से गाँव तक के लिए किसी वाहन की सुविधा नहीं थी तो हमें तीन-चार कोस की दूरी पैदल चलकर तय करनी होती थी। हम छोटे थे और नगरवासी भी बन चुके थे तो नाजुकता आना तो स्वाभाविक है, फिरभी हम आपस में होड़ लगाते एक-दूसरे संग खेलते-कूदते, थककर रुकते फिर बाबूजी का हौसलाअफजाई पाकर आगे बढ़ते। रास्ते में दूर से नजर आते पेड़ों के झुरमुटों को देकर आँखों में उम्मीद की चमक लिए बाबूजी से पूछते कि "और कितनी दूर है?" और बाबूजी बहलाने वाले भाव से कहते "बस थोड़ी दूर" और हम फिर नए जोश नई स्फूर्ति से आगे बढ़ चलते। गाँव पहुँचते-पहुँचते सूर्य देव अपना प्रचण्ड रूप दिखाना शुरू कर चुके होते। हम गाँव के बाहर ही होते कि पता नहीं किस खबरिये से या गाँव की मान्यतानुसार आगंतुक की खबर देने वाले कौवे से पता चल जाता और दादी हाथ में जल का लोटा लिए पहले से ही खड़ी मिलतीं। हमारी नजर उतारकर ही हमें घर तो छोड़ो गाँव में प्रवेश मिलता। खेलने के लिए पूरा गाँव ही हमारा प्ले-ग्राउंड होता, किसी के भी घर में छिप जाते किसी के भी पीछे दुबक जाते सभी का भरपूर सहयोग मिलता। रोज शाम को घर के बाहर बाबूजी के मिलने-जुलने वालों का तांता लगा रहता। अपनी चारपाई पर लेटे हुए उनकी बातें सुनते-सुनते सो जाने का जो आनंद मिलता कि आज वो किसी टेलीविजन किसी म्यूजिक सिस्टम से नहीं मिल सकता। 
डेढ़-दो महीने कब निकल जाते पता ही नहीं चलता और जाते समय सिर्फ आस-पड़ोस के ही नहीं बल्कि गाँव के अन्य घरों के भी पुरुष-महिलाएँ हमें गाँव से बाहर तक विदा करने आते, दादी की हमउम्र सभी महिलाओं की आँखें बरस रही होतीं उन्हें देखकर यह अनुमान लगाना मुश्किल होता कि किसका बेटा या पोता-पोती बिछड़ रहे हैं। 
धीरे-धीरे गाँव का भी विकास होने लगा, सुविधाएँ बढ़ने लगीं और सोच के दायरे घटने लगे। जो सबका या हमारा हुआ करता था, वो अब तेरा और मेरा होने लगा था। पहले साधन कम थे पर मदद के लिए हाथ बहुत थे अब साधन बढ़े हैं पर मदद करने वाले हाथ धीरे-धीरे लुप्त होने लगे हैं। 
अब तो गाँव का नजारा ही बदल चुका है, सुविधाएँ बढ़ी हैं ये तो पता था पर इतनी कि जहाँ पहले रिक्शा भी नहीं मिल पाता था वहाँ अब टैम्पो उपलब्ध था वो भी घर तक। गाँव के बदले हुए हुए रूप के कारण मैं पहचान न सकी , जहाँ पहले छोटा सा बगीचा हुआ करता था, वहाँ अब कई पक्के घर हैं। लोग कच्ची झोपड़ियों से पक्के मकानों में आ गए हैं परंतु जेठ की दुपहरी की वो प्राकृतिक बयार खो गई जिसके लिए लोग दोपहर से शाम तक यहाँ पेड़ों की छाँह में बैठा करते थे। 
कुछ कमी महसूस हो रही थी शायद वहाँ की आबो-हवा में घुले हुए प्रेम की। लोग आँखों में अचरज या शायद अन्जानेपन का भाव लिए निहार रहे थे, मुझे लगा कि अभी कोई दादी-काकी उठकर मेरे पास आएँगीं और मेरे सिर  पर हाथ फेरते हुए प्रेम भरी झिड़की देते हुए कहेंगी-"मिल गई फुरसत बिटिया?" पर ऐसा कुछ नहीं हुआ बल्कि मैं उस समय हतप्रभ रह गई जब मैंने गाँव की अधेड़ महिला से रास्ता पूछा, मुझे उम्मीद थी कि वो मेरा हाल-चाल पूछेंगी और बातें करते हुए घर तक मेरे साथ जाएँगीं पर उन्होंने राह तो बता दी और अपने काम में व्यस्त हो गईं। एक पल में ही ऐसा महसूस हुआ कि गाँवों में शहरों से अधिक व्यस्तता है। 
अपने ही घर के बाहर खड़ी मैं अपना वो घर खोज रही थी जो कुछ वर्ष पहले छोड़ गई थी। मँझले चाचा के घर की जगह पर सिर्फ नीव थी जिसमें बड़ी-बड़ी झाड़ियाँ खड़ी अपनी सत्ता दर्शा रही थीं, छोटे बाबा जी का घर वहाँ से नदारद था और उन्होंने नया घर हमारे घर की दीवार से लगाकर बनवा लिया था। छोटे चाचा जी का वो पुराना घर तो था पर वह अब सिर्फ ईंधन और भूसा रखने के काम आता सिर्फ हमारा अपना घर वही पुराने रूप में खड़ा था और सब उसी घर में रहते हैं पर वो भी इसलिए क्योंकि बाबूजी ने भी गाँव के बाहर एक बड़ा घर बनवा लिया है पर वो अभी तक अपनी पुरानी ज़मीन से जुड़े हुए हैं इसीलिए मँझले चाचा की तरह नए घर में रहने के लिए पुराने घर को तोड़ न सके। 
विकास का यह चेहरा मुझे बड़ा ही कुरूप लगा, एक बड़े कुनबे के होने के बाद भी सुबह सब अकेले ही घर से खेतों के लिए निकलते हैं, इतने लोगों के होते हुए भी शाम को घर के बाहर वीरानी सी छाई रहती है। पड़ोसी तो दूर अपने ही परिवार के सदस्यों को एक साथ जुटने के लिए घंटों लग जाते हैं। विकास के इस दौड़ में गाँवों ने आपसी प्रेम, सद्भाव, सहयोग, एक-दूसरे के लिए अपनापन आदि अनमोल भावनाओं की कीमत पर कुछ सहूलियतें  खरीदी हैं। आज लोगों के पास पैसे और सहूलियतें तो हैं पर वो सुख नहीं है जो एक-दूसरे के साथ मिलजुल कर सहयोग से हर कार्य को करने में था। विकास ने गाँवों को नगरों से तो जोड़ दिया या पर आपसी प्रेम की डोर को तोड़ दिया। विकास का ऊपरी आवरण जितना खूबसूरत लगता है भीतर से उतना ही नीरस है।
मालती मिश्रा

यादों की दीवारों पर

यादों की दीवारों पर
यादों की दीवारों पर लिखी वो अनकही सी कहानी
जिसे न जाने कहाँ छोड़ आई ये जवानी
कच्चे-पक्के मकानों के झुरमुटों में खोया सा बचपन
यादों के खंडहरों में दबा सोया-सा बचपन
न जाने कब खो गई दुनिया की भीड़ में
वो गाती गुनगुनाती संगीत सी सुहानी
यादों की दीवारों.....

मकानों के झुरमुटों से निकलती सूनी सी वो राहें
बुलाती हैं मानो आज भी फैलाकर अपनी बाहें
वहीं से निकल दूर तलक जाती लंबी-सी सड़क
जो दूर होते-होते खो जाती है किसी अंजाने मोड़ पर
जीवन जहाँ था वहाँ पसरी है अब वीरानी
यादों की दीवारों.......

जेठ की दुपहरी में ठंडी छाँह खोजती वो सड़क
किनारे खड़े वृक्षों की भी रह गई अस्थियाँ दुर्बल
सड़क के उसी मोड़ पर खो गए वो अल्हड़
चहकते पल
अनजानी गलियों में भटकती-सी चाहतों की रवानी
जर्जर काँधों पर ले जाती यादों की गठरी पुरानी
यादों की दीवारों.....

अपनी कंकरीली पथरीली टूटी-फूटी जर्जर-सी काया में
समेटे हुए असंख्य असीम यादों की परत दर परत
वो सड़क जो हमराही थी जीवन की धूप-छाँव में
अपने पत्थर हृदय में समेटे कुछ अनकही कहानी
कुछ हँसती कुछ आँसू से दामन भिगोती जवानी
यादों की दीवारों....

दिलों  में पलते अनकहे सहमे से सपने
आँखों से बहते अविरल ज़ज्बातों के झरने
अधरों पर तैरते पल-पल अल्फ़ाज़ अनसुने
कानों में सरगोशियाँ कर जाती कोई मीठी याद पुरानी
सड़क जो सुनाती बीते पलों की अनकही कहानी
यादों की दीवारों.....
मालती मिश्रा

रविवार

राजनीतिक मानवाधिकार

राजनीतिक मानवाधिकार
'मानवाधिकार' यह शब्द सुनने में पढ़ने में बहुत अच्छा लगता है पर जब यही शब्द हमारे हितों के मार्ग को अवरुद्ध करने लगे तो इसकी सारी मिठास कड़वाहट में तब्दील हो जाती। आजकल 'मानवाधिकार 'सहिष्णुता-असहिष्णुता' जैसे शब्द सिर्फ़ वोट-बैंक के लिए प्रयोग किए जाते हैं। अधिकार चाहे व्यक्तिगत हो या सामाजिक यदि पूर्णतया बंधनमुक्त या पूर्णतः बंधन में बँधा हुआ हो तो समाज और देश दोनों के लिए घातक होता है। समाज में जब तक सभी अधिकार सबके लिए समान नहीं होंगे तब तक विकास का सपना अधूरा ही रहेगा।
हमारे देश में तो दशकों से तुष्टिकरण की भयंकर बीमारी ने इसप्रकार अपने पैर जमा लिए हैं कि स्वयं को समाज का ठेकेदार समझने वालों को अधिकार भी सिर्फ उनके ही नजर आते हैं जिनसे उनको अपना स्वार्थ सिद्ध होता हुआ नजर आता हो। मानवाधिकार जैसे शब्दों का प्रयोग भी वर्गविशेष के लिए होता है।

यदि अतीत में झाँकें तो कुछ साल पहले तक दुर्गा पूजा पश्चिम बंगाल का मुख्य त्योहार हुआ करता था और आज हर वर्ष दुर्गा पूजा के लिए वहाँ के नागरिकों को संघर्ष करना पड़ता है। आज वहाँ का मुख्य त्योहार मुहर्रम है। क्या ये मानवाधिकार का हनन नहीं?
मानवाधिकार सभी मानव मात्र के लिए होता है किसी हिन्दू या मुसलमान के लिए नहीं फिरभी हमारे देश के नेताओं को एक अखलाक की हत्या तो दिखाई पड़ती है परंतु पश्चिम बंगाल में मरते बेघर होते सैकड़ों हजारों हिन्दू नहीं।
दुर्गापूजा के समय हिन्दुओं को पंडाल खड़े करने से रोका जाता है और दर्जनों घटनाओं में दुर्गा पूजा विसर्जन यात्राओं पर हमले होते हैं। इस वर्ष भी दुर्गा पूजा पर राज्य सरकार द्वारा ही व्यवधान उत्पन्न करने का प्रयास किया गया।

अनेक ग्रामों में, हिन्दुओं की सम्पत्ति को नष्ट किये जाने, महिलाओं के उत्पीड़न, मंदिरों तथा मूर्तियों को भ्रष्ट करने की घटनाओं आदि के परिणामस्वरूप हिन्दू समाज इन क्षेत्रों से पलायन करने को विवश हो रहा है, ऐसी ही एक घिनौनी घटना में, पिछले वर्ष 10 अक्तूबर को नदिया जिले के हंसकाली थाना अंतर्गत दक्षिण गांजापारा क्षेत्र में एक दलित नाबालिग बालिका मऊ रजक पर उसके घर में ही हमला करके उसकी हत्या कर दी गई।

तमिलनाडु, केरल एवं कर्नाटक सहित दक्षिण भारत के विभिन्न राज्यों में रा. स्व. सेवक संघ, विहिप, भाजपा एवं हिन्दू मुन्नानी के अनेक कार्यकर्ताओं पर आक्रमण हुए हैं। कुछ स्थानों पर संघ कार्यकर्ताओं की हत्या, करोड़ों रुपयों की सम्पत्ति का विनाश एवं हिन्दू महिलाओं पर अत्याचार हुए हैं, कर्नाटक में एक संघ स्वयंसेवक की व्यस्त सड़क पर दिनदहाड़े हत्या, कर्नाटक में बंगलूरू के अलावा मुडबिदरी, कोडागु एवं मैसूर में जेहादी तत्वों द्वारा कई हिन्दू कार्यकर्ताओं की हत्याएँ हुई हैं।

जिस देश में एक मुस्लिम की हत्या पर विश्व स्तर पर हाहाकार मच जाता है उसी देश में सैकड़ों-हजारों की संख्या में मरते हुए हिन्दुओं को न अंधी मीडिया देख पाती और न ही मानवाधिकार का रोना रोने वाले तथाकथित समाज के ठेकेदार नेता।
रोहिंग्या मुसलमानों का पक्ष लेती जो पार्टियाँ भी मानवाधिकार का खोल लेकर खड़ी हैं वो रोहिंग्या के द्वारा किए गए हिन्दुओं के सामूहिक नरसंहार को न ही देख रहीं और न देखना चाहतीं, उन्हें कैराना और कश्मीर से विस्थापित होते हुए हिन्दुओं का न तो दर्द दिखाई दिया न अधिकार। जिस प्रकार ये मानवभक्षी रोहिंग्या के मानवाधिकार के लिए लड़ रहे हैं, उसी प्रकार हिन्दुओं के अधिकारों के लिए भी लड़ते तो देश में समानाधिकार कायम हो पाता। पर इस प्रकार के दोहरे रवैये ने तो सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या हिन्दुओं का मानवाधिकार नहीं होता या वो मानव की श्रेणी में ही नहीं आते। क्यों हमारे देश में कानून के द्वारा भी पक्षपात पूर्ण व्यवहार किया जाता है? हिन्दुओं के सभी अधिकार संविधान के अनुसार और मुस्लिम के अधिकार उनकी शरिया के अनुसार... जो देश पर फिर से राज करने का सपना देख रहे हैं वो भी देश के विकास के विषय में सोचने की बजाय मात्र एक वर्ग के तुष्टिकरण के विषय में सोचते हैं।
मालती मिश्रा

मंगलवार

जिस प्रकार खरगोश से आसमान गिरने की खबर सुनकर जंगल के सभी जानवर उसके पीछे-पीछे भागने लगे वही हाल हमारे देश के बुद्धिजीवियों का भी है और मीडिया के तो कहने ही क्या.....
कोई भी खबर मिली नहीं कि हमारे देश के बुद्धिजीवी बिना सोचे समझे अपनी कलम का जादू दिखाना शुरू कर देते हैं, देश के जागरूक नागरिक का दिखावा करते हुए भूल जाते हैं कि सिक्के के दोनों पहलुओं को जानकर ही उनपर राय देना जागरूक नागरिक का कर्तव्य है।
मालती मिश्रा

बुधवार

हिंदी हमारी भाषा है.....

हिंदी हमारी भाषा है.....
हिंदी हमारी भाषा है 
मेरी प्रथम अभिलाषा है,
भारत देश के गरिमा की 
यही परिष्कृत परिभाषा है।
हिंदी हमारी भाषा है..

जिसको अपनी भाषा का 
ज्ञान नहीं सम्मान नहीं,
बेड़ियों में बँधी हुई
उसकी हर प्रत्याशा है।
हिंदी हमारी भाषा है..

पर भाषा पर संस्कृति से
इसको कोई गुरेज़ नहीं,
हर भाषा-शब्द आकर इसमें
लवण सदृश घुल जाता है।
हिंदी हमारी भाषा है..

हिन्दुस्तान की जान है हिंदी
हम सबका अभिमान है हिंदी,
आओ सब मिल गर्व से बोलें
यही भविष्य की आशा है।
हिंदी हमारी भाषा है..

अपने-पराए के भेद-भाव का
इसमें कोई भाव नहीं
नुक्ता जो क़दमों में पड़ी हुई
उसको मस्तक पे सजाता है।
हिंदी हमारी भाषा है..

सबको संग ले चलने वाली
क्षेत्रीय भाषाओं में घुलने वाली
देश का हर भाषा-भाषी
इससे खुद जुड़ जाता है।
हिंदी हमारी भाषा है..
मालती मिश्रा

शुक्रवार

धार्मिक कानून और देश

धार्मिक कानून और देश
दरअसल हम अभी भी परदेशी ही हैं, सिर्फ किसी देश में पैदा हो जाने मात्र से हम उस देश के या वह देश हमारा नहीं हो जाता। जब तक हम देश को भली-भाँति जान नहीं लेते जब तक  उसकी संस्कृति उसकी शक्ति या दुर्बलता हमारे भीतर रच बस नहीं जाती तब तक हम उसके नही हो सकते। देश में बहुत से ऐसे जड़ पदार्थ हैं और हम भी उन्हीं की भाँति मात्र एक जड़ पदार्थ बनकर रह रहे हैं, देश ने हमें नही अपनाया न हमने देश को। हम यहाँ पैदा जरूर हुए परंतु इसकी मिट्टी की सोंधी खुशबू हमारी आत्मा में न बस सकी, हम यहाँ के जड़त्व के मोहपाश में बँधे होकर इसे अपना कहने लगे हैं। जो हमें लुभाते हैं और हम उसी के वशीभूत हो उसे पाने की लालसा में देश को अपना कहने लगते हैं। जो मोह से अभिभूत है वही चिरकाल का परदेशी है। वह नहीं समझता कि वह कहाँ है, किसका है?
जो हमें प्यारा होता है, जो हमारा होता है या हम जिसके होते हैं, उसकी हर अच्छाई-बुराई को हम दिल से अपनाते हैं। उसके सम्मान के लिए कुछ भी कर गुजरने को तत्पर रहते हैं परंतु इसी देश में जन्म लिया इसकी माटी का तिलक किया,  आज भी इसके प्रति अपनी अखंड भावना दर्शाने से डर लगता है।
हर देश के नागरिक को अपने देश और राष्ट्रगान के प्रति श्रद्धा होती है परंतु हमारे देश में ही किसी खास संप्रदाय के लोगों को राष्ट्रगान गाने की इज़ाजत उनका ही धर्म नहीं देता। कहते हैं कि शरिया कानून उन्हें जन गण मन और वंदेमातरम् गाने की इज़ाजत नहीं देता है, फिर सवाल यह उठता है कि जन-गण-मन और वंदेमातरम् जिस देश की आत्मा हैं आपका कानून आपको उस देश में रहने की इज़ाजत कैसे देता है? भारत माता की धरती पर जन्म लेकर इसे ही अपनी कर्मभूमि बनाने वाले को 'भारत माता की जय' बोलने से कौन-सा कानून रोकता है। कौन-सा कानून है जो माँ को माँ का सम्मान देने से रोकता हो? यदि कोई धर्म मनुष्य को मानव-धर्म निभाने से रोकता है तो वह धर्म नहीं। हर धर्म व्यक्ति को पहले इंसान बाद में हिंदू या मुसलमान बनाता है।
किसी भी देश में रहने वाले हर नागरिक का प्रथम कर्तव्य अपनी मातृभूमि के प्रति समर्पण और उसका सम्मान होना चाहिए, धर्म और मज़हब दूसरे स्थान पर होते हैं। यदि हमें अपने ईश्वर की आराधना के लिए अपनी अधिकृत भूमि और बेफिक्री और सुकून के दो पल ही न मिलें तो धर्म के प्रति कर्तव्य कहाँ निभाएँगे?
हमारा घर हमारा देश तब ही हमारा होता है जब हम तन-मन से उसके होते हैं जब हमारे देश की मिट्टी की खुशबू हमारी आत्मा में बसती है और अनायास ही हमारे मुँह से ही नहीं दिल से निकलता है "वंदेमातरम्" तब हम इस देश के हो पाते हैं। तब हम इसके हो पाते हैं जब सिर्फ हम इसमें नहीं बल्कि यह हममें बसता है, अन्यथा तो हम पैदा होकर परदेशी बनकर रहते हुए पशुओं के समान अपना भरण-पोषण करते हुए एक दिन परदेशी ही बनकर चले जाएँगे और सवाल रह जाएगा धार्मिक कानून बड़ा या देश........
मालती मिश्रा

शनिवार

अंधभक्ति

अंधभक्ति
हमारा देश महाशक्ति होने का दावा करता है..किस आधार पर? जहाँ एक बाबा के अंध भक्तों की गुंडागर्दी नहीं रोकी जा सकी! आखिर इन बाबाओं को इतना शक्तिशाली बनाता कौन है? हमारे आपके बीच से ही आम लोग जो अज्ञानता वश ढोंगी गुरुओं में ही भगवान होने का भ्रम पाल लेते हैं और फिर आँखें मूंद कर इनका अनुसरण करते हैं। यह अंध भक्ति और अज्ञानता ही है जो देश को आगे नहीं बढ़ने दे रहा, कहीं लोग आँख बंद कर के किसी ढोंगी गुरु के प्रति आस्था प्रदर्शन करते हुए अमानवीयता की सीमा लांघ जाते हैं तो कहीं लोग किसी राजनीतिक पार्टी की सदियों तक आँखें बंद करके भक्ति करते हैं और परिणामस्वरूप उनकी अमानुषता का भी कोई जायज कारण ढूँढ़ लेते हैं। ऐसे लोगों को परिवर्तन पसंद नहीं आता, हर एक पायदान पर हर एक घटना में अपने पुराने दिनों की दुहाई देते हुए उनमें अच्छाइयाँ दिखाने का प्रयास करते हैं। ऐसी स्थिति में वो भूल जाते हैं कि बीते समय को सिर्फ उन्होंने नहीं औरों ने भी जिया है, सच्चाई से बाकी भी वाकिफ़ हैं।
यह अंधा विश्वास ही है जो कोई भी बाबा बनने का ढोंग रचाकर स्वयं को गरीबों का मसीहा जता कर लोगों की सोच पर लोगों की आस्था पर कब्जा कर लेता है और लाखों की तादात में चेले-चपाटे की फौज तैयार कर लेता है और इतना शक्तिशाली बन जाता है कि उसे कानून का भी भय नहीं होता और निर्भय होकर ईश्वर को शारीरिक, आर्थिक और सामाजिक करता है। वोटों के लालच में राजनीतिक पार्टियाँ भी इन्हें भारी मात्रा में चढ़ावे चढ़ाती हैं इसीलिए जब ऐसे बाबाओं के विरोध में कोई फैसला लेना हो तो ये पार्टियाँ पंगु बनी नजर आती हैं।
ऐसे छद्म वेशी गुरुओं को पनपने ही न देना हम आम नागरिकों के हाथ में होता है, हमें पता होना चाहिए कि हमे ईश्वर प्राप्ति का मार्ग दिखाने वाला कोई भौतिक भोगी गुरु नहीं हो सकता, हमें पता होना चाहिए कि जिसका मन राम में रम जाता है वो ऐशो-आराम और लग्ज़री लाइफ से कोसों दूर होता है। यदि किसी के पास अरबों-खरबों की सम्पत्ति भक्तों के जरिए आती है तो वह आस्था का व्यापारी हो सकता है प्रभु का अनुरागी नहीं। ऐसे ढोंगी बाबा सिर्फ गुंडे पालते हैं इनकी भक्ति करने वाला या तो अराजक मानसिकता वाला गुंडा हो सकता है या महामूर्ख।
अंत में बस इतना ही कि ईश्वर प्राप्ति के लिए मन में ईश्वर के प्रति आस्था जगाएँ कोई ढोंगी जो स्वयं धन प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त कर रहा है वह किसी को ईश्वर प्राप्ति का मार्ग कैसे दिखा सकता है?
मालती मिश्रा

मंगलवार


जिस देश की धरती शस्य-श्यामला
हृदय बहे गंग रसधार
जिसके सिर पर मुकुट हिमालय
सागर रहा है पैर पखार
स्वर्ग बसा जिसकी धरा पर
सुरासुर करते जिसका यश गान
जिस धरा पर पाकर जन्म हुए
आर्यभट्ट चाणक्य महान
उस देश को न झुकने देंगे
उस देश को न मिटने देंगे
प्रणों की आहुति भी देंगे
बचाने को इसका सम्मान
मालती मिश्रा

रविवार

गरिमामयी पद के गरिमाहीन पदाधिकारी

गरिमामयी पद के गरिमाहीन पदाधिकारी
 देश के दूसरे सर्वोच्च पद पर आसीन पदाधिकारी उप-राष्ट्रपति मो० हामिद अंसारी ने पद छोड़ते समय जो कुछ भी कहा नि:संदेह उससे राष्टृवादी लोगों के हृदय को ठेस लगी होगी। उन्होंने अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर फिर ऐसा बयान दिया जो उनके पद की गरिमा को धूमिल करता है। उनके कथनानुसार हमारे देश में आज अल्पसंख्यक असुरक्षित है। पिछले दस वर्षों से इस पद पर बने रहने के बावजूद कई बार विवादित बयान देने के बावजूद, देश के राष्ट्रध्वज को सम्मान न देने के बावजूद वह आज तक उसी पद पर उतना ही सम्मान पाते रहे हैं फिर भी उन्हें अल्पसंख्यक यानी अपने धर्म के लोग डरे हुए नजर आ रहे हैं। कमाल की बात तो यह है कि वह अल्पसंख्यक सिर्फ मुस्लिम समुदाय के लोगों को ही मानते हैं, जैन, पारसी, ईसाई आदि उन्हें अल्पसंख्यक नहीं लगते। उनकी दृष्टि में देश में इतनी असहिष्णुता थी फिर भी वह अपने पद अपने अधिकारों के मोह का त्याग नहीं कर पाए, यदि वास्तव में उन्हें अपने समुदाय के लोग डरे सहमें नजर आ रहे थे और वह पदासीन रहते हुए कुछ नहीं कर सकते थे तो क्यों नहीं अपने पद से त्यागपत्र दे कर अपनी आवाज उठाई? पर उनका अब ऐसा बयान देना एक अलग ही खेल दर्शाता है। अब वह समुदाय विशेष को डराकर अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं। जिस देश में रहते हैं, जिस देश का नमक खाते हैं और पूरी सुरक्षा और सुख-सुविधाओं का भोग करते हैं उसी देश के राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान को सम्मान नहीं देते फिर भी वही देश इन्हें सिर आँखों पर बिठाता है; फिर भी इनका अस्तित्व खतरे में है! फिर भी देश में असहिष्णुता है!!
क्या ऐसे बोल बोल कर ये स्वयं देश के लोगों में एक समुदाय विशेष के लिए जहर नहीं घोल रहे? जो लोग आपस में जाति-धर्म को भूल कर भाईचारे की भावना से रहते हैं उनमें ये परस्पर भेदभाव और असुरक्षा की भावना को जन्म दे रहे हैं।
समझ नहीं आता कि ऐसी विचारधारा के व्यक्ति को ऐसे उज्ज्वल पद पर क्या सिर्फ पद की गरिमा को धूमिल करने के लिए बैठाया गया या फिर यह कहूँ कि इन्हें भी सिर्फ पूर्वजों के नाम उनके कार्यों का सहारा मिला और इन्होंने भी नेहरू परिवार की तरह सिर्फ पूर्वजों के नाम के सहारे देशहित की आड़ में सिर्फ अपना स्वार्थ सिद्ध किया। आज सिर्फ एक ही प्रश्न बार-बार समक्ष होता है कि कब तक पूर्वजों के स्वतंत्रता आंदोलन में सहयोग देने के नाम पर ये वंशज देश को खोखला करते रहेंगे और हम इमोशनल फ़ूल बनते रहेंगे। किस शास्त्र में लिखा है कि यदि दादा-परदादा देशभक्त हों तो पोते-परपोते देशद्रोही नहीं हो सकते?
आखिर कब तक यह देश गरिमामयी पदों के गरिमाहीन पदाधिकारियों के बोझ तले दबा रहेगा?  कब तक??
मालती मिश्रा

शनिवार

बहुत याद आता है गुजरा जमाना

बहुत याद आता है गुजरा जमाना
बहुत याद आता है गुजरा जमाना

वो अल्हड़ औ नटखट सी बचपन की सखियाँ
वो गुड्डा और गुड़िया की शादी की बतियाँ
वो पलभर में झगड़ना रूठना और मनाना
बहुत याद आता है गुजरा जमाना.......

वो गाँव की चौड़ी कहीं सँकरी सी गलियाँ 
वो गलियों में छिप-छिप के सबको चिढ़ाना
वो दादा जी का छड़ी दिखाकर डराना
बहुत याद आता है गुजरा जमाना....

वो मन भाती दुल्हन की बजती पायलिया
वो शर्माती आँखों को ढँकती चुनरिया
वो देखने को उसको बहाने बनाना
बहुत याद आता है गुजरा जमाना....

वो बाबा की लाठी को चुपके से उठाना
दिखा करके उनको वो दूर से चिढ़ाना 
वो उनके झूठे गुस्से पर तालियाँ बजाना
बहुत याद आता है गुजरा जमाना.....

वो खेतों-खलिहानों की मीठी सी यादें
वो गन्ने की ढेरी पर जागी सी रातें
वो मस्ती में कोल्हू के बैलों संग चलते जाना
बहुत याद आता है गुजरा जमाना.....

वो ओस में भीगी खेतों की हरियाली
वो बेमौसम बारिश कराती सी डाली
वो कोहरे की चादर में खेतों का छिप जाना
बहुत याद आता है गुजरा जमाना........

वो पनघट पर हँसती चहकती सी गोरी
वो नदिया की कल-कल ज्यों गाती सी लोरी
वो पानी में कागज की नावों का चलाना
बहुत याद आता है गुजरा जमाना........

वो बारिश के पानी में मेढक की टर-टर
वो खेतों से आती सी झींगुर की झर-झर
वो बारिश में हरियाली का नहाकर निखर जाना
बहुत याद आता है गुजरा जमाना.....

वो बारिश के पानी का घुटनों तक भर आना
पानी में उतर कर तैराकी दिखाना
वो अल्हड़ से बचपन का उसमें नहाना
बहुत याद आता है गुजरा जमाना.......

मालती मिश्रा

गुरुवार

आशा की किरन

आशा की किरन

इक आशा की किरण पाने को
अंधकार में भटक रही है,
आँखों में उदासी के बादल
मसि बन अश्रु बिखर रही है।

शब्द-शब्द में पीर बह रही 
खामोशियाँ चीत्कार कर रहीं 
पीड़ा किसी को दिखा न सके जो 
वो शब्दों में हाहाकार कर रही।

जुबाँ खामोशी की चादर ओढ़े
अधरों पर निःशब्दता का पहरा
आँखों का असफल प्रयास भी
पलकों तक आकर ठहरा।

अनकहे अनसुने शब्दों में
हाहाकार सुनाई देता,
शांत नयन में झिलमिल करते
अपरिमित व्याकुलता देखा।

सूना दर्पण जीवन का
हर गुजरे पड़ाव बताता है,
कोरे कागज का रीतापन
अकथ्य कथा सुनाता है।

अधर सकुचाने लगे जब 
ज़ज़्बात घबराने लगे,
हिय की सब आकुलता 
तब नयन बतलाने लगे।

मुस्कुराते अधरों के पीछे
उदासी की बदली घिर आई
चहकती खनकती सी हँसी में
मन की चीख पड़ती है सुनाई।

मालती मिश्रा

रविवार

अस्तित्व

अस्तित्व
शय्या पर पड़ी शिथिल हुई काया
जो सबको है भूल चुकी,
अपनों के बीच अनजान बनी
अपनी पहचान भी भूल चुकी।
तैर रही कोई चाह थी फिरभी
बेबस वीरान सी आँखों में,
लगता जीवन डोर जुड़ी हो
खामोश पुकार थी टूटती सांसों में।
ढूँढ रहीं थीं कोई अपना
लगे कोई जाना-पहचाना,
हर एक चेहरे को किताब मान
पढ़ने को दिल में था ठाना।
अंजाने से चेहरों में थी 
तलाश किसी अपने की,
मानो अब भी बची हुई थी 
इक आस किसी सपने की।
तभी किन्हीं अनसुने कदमों की 
आहट से भाव बदलते देखा,
मुरझाए मृतप्राय हो चुके
चेहरे पर उमंग खिलते देखा।
देख नहीं पाई थीं जो
सचेत सजग जागती इंद्रियाँ,
सुप्तप्राय इंद्रियों को उस
आगंतुक की राह तकते देखा।
चमक उठीं वीरान सी आँखें
अधरों में कंपन थिरक उठा,
अंजाने हो चुके चेहरों में
बेटी का चेहरा जब मुखर हुआ।
टूट गया बाँध सब्र का
अश्रुधार बस बह निकली,
क्षीण हो चुकी काया की बेबसी
बिन बोले सब कह निकली।
माँ की अनकही अनसुनी बेबसी
बेटी के हृदय को चीर गए,
उसकी आँखों में तैर गई बेबसी
कैसे वह माँ का पीर हरे।
जो ईश हमारी सदा रही
जो सदा रही है सर्वश्रेष्ठा,
व्याधियों के वशीभूत हो
उसकी काया हुई परहस्तगता।
पुत्री उसे कैसे देखे अशक्त
जो उसमें भरती थी शक्ति सदा,
जिसने किया मार्ग प्रशस्त सदा
जिससे उसका अस्तित्व रहा।
बन ज्योति जीवन में दमकती जो रही
बन मुस्कान अधरों पर थिरकती जो रही,
वह निर्मम व्याधियों के शिकंजे में फँसी
निरीह निर्बल अशक्त हुई।
गर रही न कल ममता उसकी
अस्तित्व मेरा भी खत्म अहो,
डोर जुड़ी जिससे है मेरी
वह बाँधूँगी फिर किस ठौर कहो।।
मालती मिश्रा

गुरुवार

एकाधिकार

आज एक बेटी कर्तव्यों से मुख मोड़ आई है
दर्द में तड़पती माँ को बेबस छोड़ आई है।
बेटी है बेटी की माँ भी है माँ का दर्द जानती है
माँ के प्रति अपने कर्तव्यों को भी खूब मानती है
बेटों के अधिकारों के समक्ष खुद को लाचार पाई है
दर्द में तड़पती माँ को बेबस छोड़ आई है।

अपनी हर संतान पर माँ का स्नेह बराबर होता है
पर फिर भी बेटों का मात-पिता पर एकाधिकार होता है
जिसको अपने हिस्से का निवाला खिलाया होता है
उसके ही अस्तित्व को जग में पराया बनाया होता है
कब बेटी ने स्वयं कहा कि वह पराई है
दर्द में तड़पती माँ को बेबस छोड़ आई है।
मालती मिश्रा

एक लंबे अंतहीन सम इंतजार के बाद 
आखिर संध्या का हुआ पदार्पण
सकल दिवा के सफर से थककर
दूर क्षितिज के अंक समाने
मार्तण्ड शयन को उद्धत होता
अवनी की गोद में मस्तक रख कर
अपने सफर के प्रकाश को समेटे
तरंगिनी में घोल दिया
प्रात के अरुण की लाली से जैसे
संध्या की लाली का मेल किया
धीरे-धीरे पग धरती धरती पर
यामिनी का आगमन हुआ
जाती हुई प्रिय सखी संध्या से
चंद पलों का मिलन हुआ
तिमिर गहराने लगा
निशि आँचल लहराने लगा
अब तक अवनी का श्रृंगार 
दिनकर के प्रकाश से था
अब कलानिधि कला दिखलाने लगा
निशि के स्याम रंग आँचल में
जगमग तारक टाँक दिया
काले लहराते केशों में 
चंद्र स्वयं ही दमक उठा
अवनी का आँचल रहे न रिक्त
ये सोच जुगनू बिखेर दिया
टिमटिमाते जगमगाते तारक जुगनू से
धरती-अंबर सब सजा दिया
कर श्रृंगार निशि हुई पुलकित
पर अर्थहीन यह सौंदर्य हुआ
मिलन की चाह प्रातः दिनकर से
उसका यह स्वप्न व्यर्थ हुआ।
मालती मिश्रा

सोमवार

गाँवों की सादगी खो गई

गाँवों की सादगी खो गई
शहरों की इस चकाचौंध में 
गाँवों की सादगी ही खो गई
जगमग करते रंगीन लड़ियों में
अंबर के टिमटिमाते तारे खो गए।

लाउड-स्पीकर की तेज ध्वनि में
अपनापन लुटाती पुकार खो गई
डीजे की तेज कर्कश संगीत में
ढोल और तबले की थाप खो गई।

प्रतिस्पर्धा की होड़ में देखो
आपस का प्रेम-सद्भाव खो गया
भागमभाग भरे शहरों में
गाँवों का मेल-मिलाप खो गया।

मोटर-गाड़ियों के तेज हॉर्न में
बैलों के गले की घंटी खो गई
ए०सी०, कूलर की हवा में देखो
प्राकृतिक शीतल बयार खो गई।

नही रही पनघट की रौनक
नदिया का वो तीर खो गया
वहाँ खड़े वृक्षों को़े उर में
सिसक-सिसक कर पीर खो गया।

हल काँधे पर रख कर के
गाता हुआ किसान खो गया
गोधूलि की बेला में बजता
मीठा-मीठा तान खो गया।
मालती मिश्रा

शनिवार

चलता चल राही...


जीवन की राहें हैं निष्ठुर
चलना तो फिर भी है उनपर
अपने कर्मों से राहों के
काँटे चुन और चलता चल
चलता चल राही चलता चल...

मार्ग में तेरे बाधा बनकर
विशाल पर्वत भटकाएँगे,
कर्मयोग से प्रस्तर को
पिघलाकर नदी बहाता चल
चलता चल राही चलता चल...

सूरज की जलती किरणें
झुलसाएँगी तेरा तन-मन
अथक परिश्रम से तू राही
श्वेद के घन बरसाता चल
चलता चल राही चलता चल...

वृक्षों की शीतल छाया
पथ में ललचाएँगे तेरा मन
अपने वट की शीतलता तू
औरों के लिए लुटाता चल
चलता चल राही चलता चल...
मालती मिश्रा
चित्र- साभार... गूगल

गुरुवार

अधिकारों की सीमा...


अधिकारों की सीमा....
सभी को अपनी बात रखने का अधिकार होना चाहिए
पर किसी की भावना पर नहीं प्रहार होना चाहिए
देश और धर्म के लिए संतुलित व्यवहार होना चाहिए
अधिकारों के लिए निश्चित एक दीवार होना चाहिए
एक वर्ग का संरक्षण दूसरे पर नहीं अत्याचार होना चाहिए
देश के विकास में योग्यता बस हथियार होना चाहिए
मानव मन में मानव के लिए प्रेम-सत्कार होना चाहिए
अभिव्यक्ति  के नाम नही व्यभिचार होना चाहिए
देशद्रोह के लिए निर्धारित दण्ड व्यवधान होना चाहिए
मातृभूमि, मातृभाषा के सम्मान का संविधान होना चाहिए
सिर्फ मानवताधारी के लिए मानवाधिकार होना चाहिए
देशद्रोहियों के लिए बस गोलियों की बौछार होनी चाहिए।
अधिकारों की भी सीमा स्वीकार होना चाहिए।
मालती मिश्रा
चित्र-....साभार गूगल से



बुधवार

✅हिंदी विभाग, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के सौजन्य से.......
 Ek Fauji ki request per yeh forwarded msg. zaroor padhen
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कोर्ट मार्शल"
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आर्मी कोर्ट रूम में आज एक
केस अनोखा अड़ा था
छाती तान अफसरों के आगे
फौजी बलवान खड़ा था

बिन हुक्म बलवान तूने ये
कदम कैसे उठा लिया
किससे पूछ उस रात तू
दुश्मन की सीमा में जा लिया

बलवान बोला सर जी! ये बताओ
कि वो किस से पूछ के आये थे
सोये फौजियों के सिर काटने का
फरमान कोन से बाप से लाये थे

बलवान का जवाब में सवाल दागना
अफसरों को पसंद नही आया
और बीच वाले अफसर ने लिखने
के लिए जल्दी से पेन उठाया

एक बोला बलवान हमें ऊपर
जवाब देना है और तेरे काटे हुए
सिर का पूरा हिसाब देना है

तेरी इस करतूत ने हमारी नाक कटवा दी
अंतरास्ट्रीय बिरादरी में तूने थू थू करवा दी

बलवान खून का कड़वा घूंट पी के रह गया
आँख में आया आंसू भीतर को ही बह गया

बोला साहब जी! अगर कोई
आपकी माँ की इज्जत लूटता हो
आपकी बहन बेटी या पत्नी को
सरेआम मारता कूटता हो

तो आप पहले अपने बाप का
हुकमनामा लाओगे ?
या फिर अपने घर की लुटती
इज्जत खुद बचाओगे?

अफसर नीचे झाँकने लगा
एक ही जगह पर ताकने लगा

बलवान बोला साहब जी गाँव का
ग्वार हूँ बस इतना जानता हूँ
कौन कहाँ है देश का दुश्मन सरहद
पे खड़ा खड़ा पहचानता हूँ

सीधा सा आदमी हूँ साहब !
मै कोई आंधी नहीं हूँ
थप्पड़ खा गाल आगे कर दूँ
मै वो गांधी नहीं हूँ

अगर सरहद पे खड़े होकर गोली
न चलाने की मुनादी है
तो फिर साहब जी ! माफ़ करना
ये काहे की आजादी है

सुनों साहब जी ! सरहद पे
जब जब भी छिड़ी लडाई है
भारत माँ दुश्मन से नही आप
जैसों से हारती आई है

वोटों की राजनीति साहब जी
लोकतंत्र का मैल है
और भारतीय सेना इस राजनीति
की रखैल है

ये क्या हुकम देंगे हमें जो
खुद ही भिखारी हैं
किन्नर है सारे के सारे न कोई
नर है न नारी है

ज्यादा कुछ कहूँ तो साहब जी
दोनों हाथ जोड़ के माफ़ी है
दुश्मन का पेशाब निकालने को
तो हमारी आँख ही काफी है

और साहब जी एक बात बताओ
वर्तमान से थोडा सा पीछे जाओ

कारगिल में जब मैंने अपना पंजाब
वाला यार जसवंत खोया था
आप गवाह हो साहब जी उस वक्त
मै बिल्कुल भी नहीं रोया था

खुद उसके शरीर को उसके गाँव
जाकर मै उतार कर आया था
उसके दोनों बच्चों के सिर साहब जी
मै पुचकार कर आया था

पर उस दिन रोया मै जब उसकी
घरवाली होंसला छोड़ती दिखी
और लघु सचिवालय में वो चपरासी
के हाथ पांव जोड़ती दिखी

आग लग गयी साहब जी दिल
किया कि सबके छक्के छुड़ा दूँ
चपरासी और उस चरित्रहीन
अफसर को मै गोली से उड़ा दूँ

एक लाख की आस में भाभी
आज भी धक्के खाती है
दो मासूमो की चमड़ी धूप में
यूँही झुलसी जाती है

और साहब जी ! शहीद जोगिन्दर
को तो नहीं भूले होंगे आप
घर में जवान बहन थी जिसकी
और अँधा था जिसका बाप

अब बाप हर रोज लड़की को
कमरे में बंद करके आता है
और स्टेशन पर एक रूपये के
लिए जोर से चिल्लाता है

पता नही कितने जोगिन्दर जसवंत
यूँ अपनी जान गवांते हैं
और उनके परिजन मासूम बच्चे
यूँ दर दर की ठोकरें खाते हैं..

भरे गले से तीसरा अफसर बोला
बात को और ज्यादा न बढाओ
उस रात क्या- क्या हुआ था बस
यही अपनी सफाई में बताओ

भरी आँखों से हँसते हुए बलवान
बोलने लगा
उसका हर बोल सबके कलेजों
को छोलने लगा

साहब जी ! उस हमले की रात
हमने सन्देश भेजे लगातार सात

हर बार की तरह कोई जवाब नही आया
दो जवान मारे गए पर कोई हिसाब नही आया

चौंकी पे जमे जवान लगातार
गोलीबारी में मारे जा रहे थे
और हम दुश्मन से नहीं अपने
हेडक्वार्टर से हारे जा रहे थे

फिर दुश्मन के हाथ में कटार देख
मेरा सिर चकरा गया
गुरमेल का कटा हुआ सिर जब
दुश्मन के हाथ में आ गया

फेंक दिया ट्रांसमीटर मैंने और
कुछ भी सूझ नहीं आई थी
बिन आदेश के पहली मर्तबा सर !
मैंने बन्दूक उठाई थी

गुरमेल का सिर लिए दुश्मन
रेखा पार कर गया
पीछे पीछे मै भी अपने पांव
उसकी धरती पे धर गया

पर वापिस हार का मुँह देख के
न आया हूँ
वो एक काट कर ले गए थे
मै दो काटकर लाया हूँ

इस ब्यान का कोर्ट में न जाने
कैसा असर गया
पूरे ही कमरे में एक सन्नाटा
सा पसर गया

पूरे का पूरा माहौल बस एक ही
सवाल में खो रहा था
कि कोर्ट मार्शल फौजी का था
या पूरे देश का हो रहा था ?

Dosto, Ek Baar.. इसे इतना फैला दो की सारे नेता को कुछ शर्म आयेे की फौजियों का आत्मविश्वास न गिराए

friends प्यार की शेर शयरी बहुत शेयर किया हैं.... जरा इसे भी इतना शेयर कर दो की
जाग उठे आज के नेता और जवान की रूह देश के लिए।।

जय हिन्द..!!!

मंगलवार

पृथ्वीराज..."एक अनकही दास्तां" (संस्मरण)

पृथ्वीराज..."एक अनकही दास्तां" (संस्मरण)
'पृथ्वीराज'...."एक अनकही दास्तां" (संस्मरण)

बात कोई सन् 1985-86 की है, उस दिन दोपहर से ही घर के बड़ों के व्यवहार कुछ अलग दिखाई दे रहे थे, कभी माँ दादी से धीरे-धीरे बातें करतीं और हम बच्चों को पास आते देखकर चुप हो जातीं। कभी चाची और छोटी दादी आपस में खुसर-पुसर करते दिखाई देते। जिधर देखो उधर ही कुछ अलग ही सुगबुगाहट सी नजर आ रही थी पर कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आखिर हो क्या रहा है? क्यों ये लोग आपस में खुसर-पुसर करते हैं और हम लोगों को देखते ही चुप हो जाते हैं? अभी थोड़ी देर पहले बाबूजी आए थे और इस भरी दोपहरी में फिर पता नहीं कहाँ चले गए। और हाँ शायद वो माँ से शरबत बनवा कर ले गए थे या फिर पानी और उसके साथ कुछ मीठा। पर ऐसा तो सिर्फ मेहमानों की आवभगत के लिए ही किया जाता है और जब से बाबूजी गए हैं तभी से घर की औरतों के बीच ये सुगबुगाहट सी शुरू हो गई है। जब बच्चों से कुछ छिपाने की कोशिश की जाए और ये कोशिश बच्चों की नजर में आ जाए तो बालमन उस बात को जानने के लिए व्यग्र हो उठता है, मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। जब मैं अपनी तरकीबें लगाकर हार चुकी और मुझे कुछ पता नहीं चला तो आखिर में मैंने माँ से पूछ ही लिया- "माँ बाबूजी कहाँ गए हैं?"
कहीं नहीं बस वहीं गाँव के बाहर पीपल के नीचे बैठे हैं।" माँ ने बताया।
"पर वहाँ हैं तो पानी लेकर क्यों गए हैं?" मेरी जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी।
"अरे होंगे गाँव के और लोग, दोपहर है गर्मी है तो प्यास लगी होगी इसलिए ले गए।" माँ ने खीजते हुए कहा।
पर मैं माँ के जवाब से संतुष्ट नहीं हुई, मुझे पता है कि इस समय तो रोज बाबूजी सोते हैं और आज वो न सिर्फ बाहर हैं शायद किसी की मेहमान नवाजी कर रहे हैं, परंतु यदि मेहमान है तो घर पर क्यों नहीं आया? मेरे मस्तिष्क में सवालों की संख्या बढ़ती जा रही थी।
"पर माँ! वहाँ और लोग भी तो होंगे जिनके घर वहीं पास में हैं, तो उनके घर से क्यों नहीं पानी मँगवा लिया?" मैंने एक और सवाल दागा माँ की ओर।
माँ झुंझला गईं और झिड़क कर बोलीं-"मुझे क्या पता क्यों नहीं मँगवाया, क्यों यहाँ ही पानी लेने आए? जब तुम्हारे बाबूजी आ जाएँ तो उनसे ही पूछना।"
अब आगे कुछ भी पूछने का मैं साहस न कर सकी और यह जानते हुए भी कि माँ मुझसे कुछ छिपा रही हैं मेरे पास बाबूजी का इंतजार करने के अलावा कोई अन्य रास्ता न था।
माँ की झिड़की खाकर मैं भाइयों के साथ खेलने चली गई और हम लोग फिर से खेल में ऐसे खोए कि सबकुछ भूल गए। बाबूजी आए या नहीं ये जानना भी याद नहीं रहा। जेठ की तपती दुपहरी में इंसान हों या जानवर, बड़े हों या छोटे सब ठंडी और छायादार जगह ढूँढ़ते हैं फिर चाहे वो खेलने के लिए ही क्यों न हो! और ऐसे में बगीचे से अच्छी जगह खेलने के लिए और कहाँ हो सकती है; इसीलिए हम बच्चे भी खेलने के लिए गाँव से कोई दो-ढाई सौ मीटर दूर बगीचे में पहुँच गए खेलने। हमारा वह बगीचा मध्यम आकार का एक घना छायादार बगीचा था। इसमें गाँव के कई परिवारों के पेड़ थे इसलिए यह किसी का अकेले का नहीं था। लोग फसल की कटाई के समय यहीं खलिहान बना लेते और सीजन के अनुसार गेहूँ या धान की बड़ी-बड़ी ढेरियाँ लगी होती थीं। वैसे तो इस बगीचे में महुआ, अमरूद, बबूल, शीशम, केले आदि कई तरह के पेड़ थे लेकिन सबसे अधिक आम के पेड़ों थे जिसके कारण इतनी तेज धूप होने के बाद भी बगीचे में कहीं भी धूप नहीं होती थी। बगीचे के दक्षिण पश्चिम कोने में हमारा ट्यूबवेल था वहीं एक कुआँ था और इंजन को रखने और छोटे-मोटे सामान रखने के लिए एक छोटी सी झोपड़ी थी, झोपड़ी में एक चारपाई हमेशा बिछी रहती थी। कोई भी दोपहर को यहाँ आराम कर लिया करता या रात को ट्यूबवेल की रखवाली करने के लिए घर से जो भी आता वो इसी चारपाई पर सोता था। कुएँ से पानी निकालने के लिए एक बाल्टी और रस्सी हमेशा कुएँ के पास रखी होती थी ताकि कोई राहगीर यदि प्यासा हो तो वह अपने लिए पानी निकाल सके। हम भी जब बगीचे में खेलने जाते तो ट्यूबवेल पर जरूर जाते। आज भी मैंने सोचा था कि पहले थोड़ी देर ट्यूबवेल के पास केले के पेड़ों के बीच छोटे-छोटे खेतों में बनी क्यारियों में घूमूँगी फिर बाद में खेलूँगी
अभी हमने बगीचे में प्रवेश किया ही था कि दूर से ही मुझे ट्यूबवेल पर कुछ चहल-पहल सी दिखाई दी। वहाँ चारपाई झोपड़ी के बाहर ही बिछी हुई थी और कई लोग वहाँ बैठे थे। कई लोगों ने सफेद कुर्ता-पायजामा पहना हुआ था। कितने लोग हैं यह मैं जान पाती उससे पहले ही बाबूजी की कड़कती हुई आवाज मेरे कानों में पड़ी "कहाँ चले आ रहे हो इस दोपहरी में, चलो वापस जाओ और जाकर घर पर आराम करो। जब देखो बस खेलते रहना है।" हमारे पैर आवाज सुनते ही जैसे धरती से चिपक गए, किसकी मजाल थी जो बाबूजी की अवज्ञा करता! हम सभी यंत्रचालित से मुड़े और जिस फुर्ती से गए थी उसी फुर्ती से वापस घर की ओर भागे और घर पहुँचकर ही दम लिया। अब मुझे अपने इस सवाल का जवाब तो मिल चुका था कि बाबूजी कहाँ हैं? पर एक अन्य सवाल था कि आखिर वो कैसे मेहमान थे जो घर नहीं आए? हम बच्चे जानवरों की घारी (जानवर बाँधने की जगह) में जाकर बैठ गए और अब हमारी चर्चा शुरू हो गई कि आखिर बाबूजी बगीचे में क्यों मेहमान नवाजी कर रहे हैं.....
"अरे, देखा नहीं कई लोग हैं न! इसीलिए। अब इतने लोगों को घर पर कहाँ बैठाते?" मेरे बाबूजी के चचेरे भाई यानि मेरे चाचा जो मुझसे दो-ढाई साल ही बड़े होंगे बोले।
"हाँ, लेकिन वो सब लोग मेहमान थोड़े ही हैं, उनमें तो बहुत से लोग गाँव के हैं।" पड़ोस में रहने वाले एक बच्चे ने कहा।
"तुम्हें कैसे पता?" मेरे भाई ने जिज्ञासावश पूछा।
"काहे हम पहचानते नहीं क्या!" कहते हुए उसने कई लोगों के नाम गिनवा दिए। यह सत्य है कि मैं गाँव के लोगों को उसके जितना नहीं पहचानती थी क्योंकि मैं तो अभी कुछ महीनों से वहाँ रह रही थी जबकि वह तो अपने जन्म से ही सबको जानता था।
ओह! तो इसका मतलब कि वो जो भी मेहमान हैं वो किसी एक घर के नहीं बल्कि कई लोगों के जानने वाले होंगे, इसीलिए वो वहाँ रुके हैं ताकि सब लोग एक साथ मिल बैठ कर बातचीत कर सकें।" मैंने बुद्धिमत्ता दिखाते हुए कहा।
"हाँ...हाँ..सही बात है" एक साथ कई बच्चे बोले।
"लेकिन बाबूजी ने हमें क्यों वहाँ से भगा दिया?" मेरे भाई ने सशंकित होते हुए कहा।
"अरे! तुझे पता नहीं क्या बाबूजी की आदत, हम लोग वहाँ खेलते तो शोर होता, और तू तो जानता है कि किसी के सामने शोर बाबूजी को बिल्कुल पसंद नहीं, इसीलिए पहले ही भगा दिया।" मैंने अपना बड़प्पन दिखाते हुए कहा।
"अच्छा ही तो हुआ न कि पहले ही भेज दिया, बाद में डाँटकर सबके सामने से भगाते तो कितनी बेइज़्ज़ती होती न!" एक अन्य बच्चे ने कहा।
"हाँ...सही बात है।" सभी ने अपनी सहमति जताई।
तभी माँ आ गईं और बोलीं- "चलो जाकर थोड़ी देर सब सो जाओ फिर टूशन (ट्यूशन) जाना है।"
हम सब अनमने भाव से उठकर अपने-अपने घरों को चल दिए, पर मन में एक संतोष कि हम सबने एक पहेली सुलझा ली है माँ के न बताने के बाद भी।
पर समझ नहीं आ रहा था कि इसमें छिपाने जैसी क्या बात थी? माँ हमें बता देतीं तो क्या हो जाता? खैर कोई बात नहीं, अब मन हल्का हो चुका था, अब मैं चैन से सो सकती थी।
.............................................................

शाम के कोई साढ़े चार- पाँच बज रहे थे, मैं पड़ोस के घर में अन्य बच्चों के साथ ट्यूशन पढ़ रही थी। हमारे स्कूल के ही एक मास्टर सा'ब हमारे गाँव में आकर उन बच्चों को मुफ्त में ट्यूशन पढ़ाते थे, जो पढ़ाई में कमजोर थे और उन्हें घर में कोई पढ़ाने वाला न था। वैसे तो मैं पढ़ाई में होशियार थी पर घर में मुझे पढ़ाने वाला कोई न था इसलिए माँ मुझे भी भेज दिया करती थीं ताकि अपना समय खेल में बर्बाद करने की बजाय कुछ देर वहाँ बैठकर मैं भी कुछ सीख लिया करूँगी।
मास्टर जी हमें गणित के सवाल समझा रहे थे कि तभी 'धाँय' की एक जोरदार आवाज सुनाई दी। हम सभी डर गए, उस घर की सभी औरतें सहम गईं आखिर ये कैसी आवाज थी? सब एक-दूसरे का मुँह देख रहे थे तभी एक महिला भागती हुई आई... और हाँफते हुए बोली- "ग..गोली चली है।"
क्या..कहाँ?... सबके सब हक्का-बक्का से एक-दूसरे का मुँह देख रहे थे।
हम बच्चे भयभीत होकर मास्टर जी को देखने लगे। मास्टर जी हमारी मनोदशा समझ चुके थे इसलिए हमें साहस बँधाते हुए बोले-"आप लोग डरो मत, यहाँ कोई नहीं आ रहा है, और पता नहीं इस बात में कितनी सच्चाई है? हम अभी देखकर आते हैं।" कहते हुए मास्टर जी खड़े ही हुए थे कि तभी एक साथ धांय-धांय की दो-तीन आवाजें आईं।
"मास्टर सा'ब आप अभी यहीं रहिए, गाँव के बाहर डाकू हैं जो गोली चला रहे हैं, वो लोग पृथ्वीराज को मारने आए हैं।" एक अन्य बुज़ुर्ग महिला ने आते हुए कहा।
"हमें घर जाना है।" रुआँसे होकर एक साथ कई बच्चों ने कहा।
मेरा घर तो बराबर में ही था बस बरामदे से उतरकर दाएँ हाथ पर आठ-दस मीटर चलकर मैं अपने बरामदे में पहुँच सकती थी इसलिए मास्टर जी ने मेरे कहने पर मुझे भेज दिया और बाकी बच्चों को बाद में खुद ही उनके घरों तक छोड़कर आए।
जहाँ घर के सभी बड़े चिंतित और भयभीत दिखाई दे रहे थे वहीं बच्चे भय से अधिक रोमांचित थे, कम से कम मैं तो थी। मेरा मन ये सोचकर रोमांचित हो रहा था कि पता नहीं ये पृथ्वीराज कौन है? कैसा दिखता होगा? नाम सुनकर मस्तिष्क में जो छवि बनती है वो एक लंबे-चौड़े, बलिष्ठ कद्दावर व्यक्ति की बनती है, पता नहीं आज वो बचेगा भी या नहीं? बीच-बीच में थोड़ी-थोड़ी देर में गोलियों की आवाजें आतीं, कभी लगातार कई-कई फायर होते कभी थोड़ा रुक-रुक कर। तभी माँ घबराई हुई जल्दी-जल्दी आईं।  दादी, छोटी दादी और मंझली चाची मानो उन्हीं का इंतजार कर रही थीं....
"क्या हुआ?" दादी ने लपक कर माँ के कंधे पकड़ते हुए पूछा।
"क्या बताएँ वो लोग वहीं हैं, वो बगीचे में से आ रहे थे, आधे रास्ते तक आ गए थे लेकिन तभी किसी डाकू ने देख लिया और चिल्लाकर गाली देते हुए बोला कि वापस चला जा नहीं तो गोली मार देंगे।" माँ बोलते-बोलते मानों रो पड़ीं। अब तक मैं भी समझ चुकी थी कि मेरे बाबूजी अभी तक बगीचे में ही हैं और अब वह वहीं फँस चुके हैं, चाहते हुए भी आ नहीं सकते।
"तब क्या किया बाबू ने?" दादी ने घबराकर पूछा।
"क्या करते हमने भी वहीं पीपल के पेड़ के नीचे से ही चिल्लाकर कहा कि वापस चले जाएँ और उधर से ही दक्षिण दिशा की तरफ जाकर तालाब की तरफ से आ जाएँ वो बेचारे वापस चले गए।" माँ ने चिंतित स्वर में कहा।
"चारों ओर मुए धाँय-धाँय गोली चला रहे हैं आदमी जाए तो किधर जाए?" छोटी दादी ने बड़बड़ाते हुए कहा।
"घर के सभी आदमी तो बाहर ही हैं, भगवान सबको सही-सलामत रखे।" मँझली चाची हाथ जोड़कर आसमान की ओर देखते हुए मानों भगवान से प्रार्थना करती हुई बोलीं।
अब तक तो मुझे भी डर लगने लगा था। भगवान बाबूजी को सही-सलामत रखना, मैं मन ही मन भगवान से प्रार्थना करने लगी।

माँ बेचैन होकर कभी गाँव के बाहर तक जातीं परंतु आगे न जा पातीं और वापस लौट आतीं, उनकी बेचैनी हमें और अधिक परेशान कर रही थी। तभी गाँव के दूसरे किनारे से कोई महिला जल्दी-जल्दी आईं और बताया कि डाकू नदी के घाट पर पीपल के पेड़ के पास वाले बगीचे में हैं और पृथ्वीराज को मार दिया और बड़े खुश होकर जयकारे लगा रहे थे। "मार दिया"......यह सुनकर सिर्फ माँ ही नहीं वहाँ मैज़ूद सभी स्त्रियाँ सकते में थीं और तो और मैं भी। जिसे मैं जानती नहीं जिसे कभी देखा नहीं जिसका नाम भी अभी कुछ देर पहले ही सुना था उसके मरने की खबर सुनकर न जाने क्यों बहुत बुरा लगा। शायद इसलिए क्योंकि मैं जानती नहीं थी कि 'पृथ्वीराज' कौन था?

करीब आधे घंटे बाद ही बाबूजी गाँव के बाहर की ओर से घूमकर विपरीत दिशा (पूरब) की ओर से घर आ गए। अब हम लोगों का भय कम हुआ परंतु अभी भी चाचा-चाची खेतों में थे पर कम से कम मुझे उनके विषय में पता न था, लेकिन घर के बड़े अभी भी कुछ चिंतित थे। फिर से गोलियाँ चलने की आवाजें आईं।
"अभी तो कोई कह रहा था कि पृथ्वीराज को मार दिया तो अभी तक तसल्ली नहीं हुई उन कमबख्तों को" दादी बड़बड़ाईं।
"आखिर ये सब हो क्या रहा है कौन लोग हैं ये सब जो गोली चला रहे हैं?" माँ ने बाबूजी से पूछा।
"वो पृथ्वीराज के दुश्मन गिरोह वाले हैं, किसी ने जाकर उन्हें खबर दे दी कि पृथ्वीराज यहाँ हैं तो बस वो लोग आ गए उन्हें मारने।" बाबूजी ने कहा।
"तो वो भी कोई कम है...वो नहीं मार सकते थे उन डाकुओं को!" छोटी दादी ने कहा।
"वो आठ लोग हैं और पुलिस की वर्दी पहन कर आए हैं, आज सवेरे ही पृथ्वीराज के घर पर पुलिस का छापा पड़ा था इसलिए तो वो घर से भाग कर यहाँ बगीचे में आकर बैठे थे, अब उन्हें बदमाशों को पुलिस की वर्दी में देखा तो वो समझे कि वे सब पुलिस वाले हैं इसीलिए वो सिर्फ अपनी जान बचाने के लिए पेड़ की आड़ लेते हुए बगीचे से बाहर निकल गए। जब तक उन्हें पता चला कि वो बदमाश हैं तब तक वो लोग फैल चुके थे। पहले पता होता तो उनके पास ग्यारह राउंड की रायफल थी वो वहीं ढेर कर देते सबों को पर बाद में एक-दो फायर ही किया सिर्फ अपने भागने के लिए।" बाबूजी ने बताया।
"जब वो बगीचे में आकर बैठे तो तुम क्यों गए उन डाकू-लुटेरों के साथ बैठने? अपनी जान के भी लाले पड़ गए थे। जैसों के साथ बैठोगे वैसे ही समझे जाओगे न!" माँ ने क्रोधित होते हुए कहा।
"अरे मैं कौन-सा जानबूझ कर गया था! वो तो दोपहर घूमते हुए ट्यूबवेल पर चला गया को पहले से ही वहाँ पर पृथ्वीराज, उनके जानने वाले दो लोग, प्रधान और बड़े पुरवा के चौधरी दो-तीन और लोगों के साथ बैठे थे तो हम भी वहीं चौधरियों के साथ बैठ गए। हमें क्या पता था कि ऐसा भी कुछ हो सकता है।" बाबूजी ने सफाई देते हुए कहा।
"अच्छा ये बताओ वो देखने में कैसे हैं?" छोटी दादी ने उत्सुकता वश पूछा।
"लंबे-चौड़े तो हैं पर एक पैर में कोई कमी है तो लँगड़े हैं।" बाबूजी ने बताया।
तभी हमारे पुरवा (मोहल्ला) से दूसरे पुरवा पर जाने वाली पगडंडी पर दो-तीन लोग इतनी तेज-तेज गालियाँ देते हुए आ रहे थे कि उनकी आवाज हमारे घर तक आ रही थी। पड़ोस की ताई ने बताया कि पुरवा पर ये लोग लोगों के घरों में पृथ्वीराज को ढूँढ़ रहे हैं वो नही मिले तो ये कह रहे हैं कि गाँव वालों ने ही छिपाया है। इसीलिए तिलमिलाए हुए हैं। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि सच क्या है और झूठ क्या है? कोई कहता कि पृथ्वीराज मर चुका है तो कोई कहता कि उसको दूसरों के घरों में ढूँढ़ा जा रहा है।
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धीरे-धीरे सांझ का धुँधलका घिरने लगा, गोलियों की आवाजें आनी बंद हो गई थीं, दोनों चाचा और छोटी चाची भी घर आ गए थे। वे दोनों गाँव के उत्तर की ओर करीब एक-डेढ़ किलोमीटर दूर नदी के किनारे हमारे खेत हैं, उन्हें जोतने के लिए गए थे, छोटी चाची भी बाद में वहीं गईं थीं और उनके वापस आने से पहले ही गोलियाँ चलनी शुरु हो गईं इसलिए वहीं रुकना पड़ा। छोटे चाचा ने बताया कि एक गोली तो उनके दोनों पैरों के बीच से होती हुई निकली थी। तभी मँझले चाचा ने बताया कि एक गोली उनके कान के पास से निकली वो लोग तो आज बाल-बाल बचे हैं, बहुत से लोग अपने-अपने खेतों में थे कोई भी किसी की गोली का शिकार हो सकता था। जब गोली चलने लगी तो सभी अपने-अपने हल-बैलों के साथ भागने लगे, तभी उनमें से किसी बदमाश ने चिल्लाकर कहा कि "जो जहाँ है वहीं लेट जाओ तो किसी को कुछ नहीं होगा, भागोगे तो किसी को भी गोली लग सकती है। हम लोग वहीं अपने बैलों के साथ खड़े रहे।
अब तक गाँव के दो-तीन लोग और आ गए थे हमारे घर। अब बाहर ही दो खाटों पर बैठकर चर्चा चल रही थी कि किस प्रकार क्या-क्या हुआ...वे लोग भी वहीं खेतों में थे, सभी अपनी जान बचाने के लिए भगवान को धन्यवाद कर रहे थे।
"आखिर उन बदमाशों को पता कैसे चला कि पृथ्वीराज यहाँ हैं?" उनमें से एक व्यक्ति ने कहा।
"पता नहीं भाई लेकिन किसी ने खबर की ही होगी और पृथ्वीराज तो पता लगा ही लेंगे, छोड़ेंगे नहीं उसे, अब उसकी तो मौत आई ही समझो।" दूसरे व्यक्ति ने कहा।
"पर हमने तो सुना है कि वो मारे गए! वो लोग वहाँ घाट वाले बगीचे में उनको मारकर जयकारा लगा रहे थे।" दादी बीच में बोल पड़ीं।
सबकुछ मेरे लिए इतना रोमांचित था कि डर जाने कहाँ गायब हो गया था, कोई फिक्र भी नहीं थी क्योंकि परिवार के सभी सदस्य घर आ चुके थे। मास्टर जी भी फायरिंग बंद होने के बाद गाँव के दूसरी ओर से अपने गाँव जा चुके थे। क्योंकि अब सबकुछ अपनी जगह स्थिर और सही-सलामत था तो उस घटना की चर्चा सुनना मेरे लिए किसी परी-कथा से कम न था; लिहाज़ा मैं भी वहीं पास में बिछी चारपाई पर बैठी सबकी बातें सुन रही थी।
"अरे इतना आसान है क्या पृथ्वीराज को मारना!" उनमें से एक बुज़ुर्ग से दिखने वाले व्यक्ति ने इतने फख्र से गर्दन ऊँची करके कहा मानों अपनी ही वीरता की दास्तां सुना रहे हों। उन्होंने बताया कि बगीचे में से पृथ्वीराज पहले पेड़ों की आड़ लेकर बाहर निकलते हुए गन्ने के खेत में छिपे, वहाँ से उन्होंने दो-तीन फायर भी किया लेकिन वे बदमाश बगीचे के दूसरी तरफ थे इसलिए किसी को गोली नहीं लगी। फिर गन्ने के खेतों में से होते हुए वो नदी के किनारे से होते हुए घाट वाले बगीचे के दूसरी ओर (उत्तर दिशा में) एक गन्ने के खेत में छिप गए लेकिन उन्हें पता था कि वो वहाँ ज्यादा देर सुरक्षित नहीं रह सकते इसलिए उन्होंने अपनी लुंगी कुछ गन्नों से लपेट दी और उसके पत्तों पर अपनी टोपी इस प्रकार रख दी कि खेत के बाहर से इसप्रकार दिखाई दे मानों पृथ्वीराज खुद बैठे हैं और खुद विपरीत दिशा में निकल गए। बदमाशों को जब खेत में उनकी लुंगी और टोपी की हल्की झलक दिखाई दी तो उन्होंने वही समझा जो पृथ्वीराज उन्हें समझाना चाहते थे; फिर क्या था ताबड़तोड़ गोलियाँ चलाकर छलनी कर दिया और खुश होकर जयकारे लगाने लगे। पर जब खेत में जाकर देखा तो समझ गए कि यहाँ भी पृथ्वीराज ने उन्हें बेवकूफ बनाया है। उधर पृथ्वीराज पुरवा के किसी किसान के बैलों के पीछे-पीछे छिपते हुए गाँव में घुस गए और सुना है कि वहीं से साड़ी पहनकर निकल गए।
"पर सुना है कि दो-तीन लोग मारे गए हैं!" बाबूजी ने कहा।
"हाँ बाबू वहीं नदी के घाट पर जो पीपल का पेड़ है उसी के नीचे तीन लोगों को मारा है।" छोटे चाचा ने सहमे हुए लहजे में कहा। मैंने अनुमान लगाया कि चाचा लोगों ने तो जरूर देखा होगा, आखिर वो लोग उधर से ही तो आए होंगे और कोई दूसरा तो रास्ता भी नहीं है। "रात हो गई है नहीं तो अबतक तो पुलिस आ गई होती, अब तो सबेरे ही आएगी।" उनमें से ही एक व्यक्ति ने कहा।
रात का अंधेरा इतना गहन था मानों चंद्रमा भी डर कर छिप गया है, हाथ को हाथ सुझाई नहीं दे रहा था, आकाश में तारे तो झिलमिला रहे थे किंतु वो भी अस्तित्वहीन से प्रतीत हो रहे थे; अबतक तो गाँव में लोग खा-पीकर सोने का उपक्रम करने लग जाते हैं परंतु आज तो जैसे किसी को खाने-पीने की सुध ही नहीं थी। 'पृथ्वीराज' जिसे कल तक गाँव में कोई जानता भी न था शायद कोई इक्का-दुक्का लोग ही जानते होंगे, जिसका काम समाज और कानून की नजर में असामाजिक और गैरकानूनी था, वो आज बिना कुछ किए कुछ ही देर में हीरो बन गया और गाँव का बच्चा-बच्चा आज उसकी ही चर्चा में व्यस्त है। भूख या नींद तो लोगों को याद भी नहीं, हमारे घर में भी अभी तक चूल्हा नहीं जला था।
गाँव के बच्चे-बच्चे को पता था कि गाँव के बाहर कुछ ही मीटर की दूरी पर तीन मृत शरीर पड़े हुए हैं...वो भी गोलियों से छलनी तो भला किसे भूख लगती और कैसे नींद आती! अनकहा, अदृश्य भय तो सभी में व्याप्त था। मैंने माँ को कहते सुना कि बेचारे वो जोगी लोग कैसे सोएँगे जो गाँव के उसी किनारे पर रहते हैं जिधर लाशें पड़ी थीं। सभी की बातें सुनते-सुनते मुझे कब नींद ने अपने आगोश में ले लिया पता न चला।

सूरज ऊपर तक चढ़ आया था, पेड़ की छाँव में होने के कारण धूप मुझपर नहीं पड़ रही थी इसीलिए मैं आज रोज की अपेक्षा अधिक देर से उठी, जब मैं उठी तो देखा सभी अपने-अपने कार्य में व्यस्त थे, दादी के साथ दो-तीन और बुज़ुर्ग महिलाएँ थीं, मुझे उनकी बातों से लगा कि शायद वे कहीं जाने की बात कर रही थीं, मैं झट से चारपाई से उतरी और दौड़कर दादी के पास पहुँच गई...
"दादी आप कहाँ जा रही हो?" मैंने उनका हाथ पकड़कर पूछा।
"कहीं नहीं बिटिया तुम जाओ दातुन-वातुन करके नाश्ता कर लो हम अभी आ जाएँगे।" दादी ने समझाया। पर मैं कहाँ मानने वाली थी, मुझे ध्यान आया रात को दादी कह रही थीं कि अब तो सुबह ही देखेंगे कि बदमाशों ने किनको मारा है..अब मुझे पता चल गया था कि दादी वहीं जा रही थीं। मेरे अबोध मन में उस समय किसी का मृत शरीर देखना भी रोमांचक लग रहा था, भय और शोक से परे मैं उत्साहित हो रही थी; यह भी नहीं जानती थी कि आखिर वहाँ मैं क्या देखने को लालायित हूँ? क्या किसी की हत्या के उपरांत उनके मृत शरीर को देखना भी रोमांचक हो सकता है? मैं खुद इन सब बातों से अनभिज्ञ थी मुझको बस देखना था कि कल किसे मारा गया और गोली लगने के बाद ज़ख्म कितना गहरा होता है? या फिर शायद कुछ और जो मुझे खुद नहीं पता....
मैं फिर बोली-"आप घाट पर जा रही हो न डाकुओं की लाश देखने? मुझे पता है, मैं भी चलूँगी।"
"ये नहीं मानेगी, चलो!" कहते हुए दादी मेरा हाथ पकड़ कर चल पड़ीं।
मैं दादी की उँगली थामे चल दी, गाँव के बाहर आते-आते दो और महिलाएँ हमारे साथ जुड़ गईं। हम लोग पगडंडी से होते हुए गए, जिस पर से कल बदमाशों ने बाबूजी को वापस बगीचे की तरफ मुड़ने को कहा था। कुछ दूर जाकर पगडंडी का 'टी प्वाइंट' आता है एक हिस्सा दक्षिण की ओर जाता है जहाँ हमारा बगीचा था जिसमें कल पृथ्वीराज और गाँव के अन्य लोगों के साथ बाबूजी भी बैठे थे, तो दूसरा हिस्सा उत्तर दिशा की ओर जाता है जिधर वो छोटा सा बगीचा है जो नदी के किनारे है और बगीचे और नदी के बीच ही एक पुराना पीपल का पेड़ है।
हम लोग उसी ओर मुड़ गए। वहाँ से गाँव के अन्य लोग भी लाशें देखकर आ रहे थे और जिस प्रकार उन्होंने दादी व अन्य स्त्रियों से उन लाशें का जिक्र किया कि सुनकर ही उनके वीभत्स रूपों का एक खाका सा मस्तिष्क में खिंच गया। हम लोग वहाँ पहुँचे गाँव से देखने आने वालों का ताँता सा लगा हुआ था। पीपल के ठीक नीचे जो घाट के सीध वाली जगह पर एक बुज़ुर्ग व्यक्ति की मृत देह थी, गोरा रंग, बाल चांदी की तरह सफेद, अच्छा-खासा लंबा और स्वस्थ शरीर एक आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी थे। वो साइकिल पर थे, उनकी जाँघ में गोली लगी थी और वो उसी तरह गिर पड़े थे, साइकिल उनके पैर में ही फँसी हुई थी। किसी ने बताया कि ये व्यक्ति एकडंगी गाँव अपनी बेटी की ससुराल से आ रहे थे। बदमाशों ने इन्हें रोककर पूछा कहाँ से आ रहे हो तो इन्होंने बता दिया फिर उनमें से किसी बदमाश ने इनका नाम पूछा तो इन्होंने अपना नाम 'कपिल देव' बताया। पृथ्वीराज भी एकडंगी के ही हैं और उनके पिता का नाम भी कपिल है इसीलिए बदमाशों ने इन्हें पृथ्वीराज का पिता समझकर गोली मार दिया। गोली जाँघ में लगी थी लेकिन रात भर उसी हालत में पड़े रहने के कारण अधिक खून बह जाने के कारण यह मर गए। मुझे लगा कि काश इन्हें शाम को ही कोई उठाकर अस्पताल ले गया होता तो ये बच जाते। उन्हीं से दो तीन कदम पहले एक नवयुवक का मृत शरीर पड़ा था, उसके कनपटी  में गोली आरपार हो गई थी, सुराख में से चींटों का आवागमन हो रहा था। एक व्यक्ति ने बताया कि यह लड़का कल या परसों ही कानपुर से आया है इसका अभी कल ही तिलक हुआ है, शादी होने वाली थी। पृथ्वीराज से इसकी पुरानी जान-पहचान थी, जब इसने सुना कि पृथ्वीराज यहाँ आए हैं तो उनसे मिलने आया था, बेचारा ये कोई डाकू-बदमाश नहीं था लेकिन मौत इसे यहाँ खींच लाई। इसके मिन्नतें करने के बाद भी कि यह कोई डाकू-बदमाश नहीं है उन बदमाशों ने इसे नहीं बख्शा। उन्होंने यह कहकर कि "पृथ्वीराज का हर चहीता हमारा दुश्मन है" इसे गोली मार दिया। वहाँ से कोई पाँच-छः कदम उत्तर की ओर जो रास्ता जाता है वहाँ एक और मृत देह थी किंतु मेरी दृष्टि दूर से ही उस पर पड़ी और उसकी विक्षिप्त दशा देखकर मेरी चीख निकल गई, मैंने दादी की कमर दोनों हाथों से जकड़ लिया और अपना मुँह उनके पेट में दुबका लिया, दादी मेरे सिर पर सांत्वना वाला हाथ फेरने लगीं। उसी व्यक्ति ने बताया कि यह व्यक्ति तो इस गन्ने के खेत में छिपा था लेकिन क्योंकि गन्ने के पौधे अभी छोटे-छोटे और थोड़े बिरड़ (दूर-दूर) हैं इसीलिए उन लोगों ने देख लिया और इसे खेत से निकाल कर सामने खड़ा करके इसपर रायफल दाग दिया। काफी नज़दीक से और रायफल से मारे जाने के कारण उस व्यक्ति के पेट के अंदर का सबकुछ (आंतें, फेफड़े आदि) बाहर आ गया था। अब मुझसे वहाँ नहीं रुका जा रहा था, सारा उत्साह, सारा रोमांच काफ़ूर हो चुका था। मैं दादी को खींचने लगी कि घर चलो....

हम घर तो आ गए पर मेरे आँखों के समक्ष बार-बार उन्हीं मृतकों के चेहरे और उनकी विक्षिप्त दशा घूमने लगते। मैं अपने भाइयों और अन्य बच्चा मंडली के साथ खेलने में रोज की तरह मशगूल न हो सकी, खेलते हुए भी हमारे कान खड़े रहते कि कौन क्या बात कर रहा है? हम बच्चे उस घटना और घटना से जुड़े हर व्यक्ति के बारे में सबकुछ जान लेना चाहते थे। इसी कोशिश में पता चला कि पुलिस वाले हमारे गाँव की ईमानदारी की तारीफ कर रहे थे। जो बुज़ुर्ग व्यक्ति अपनी बेटी की ससुराल से आ रहे थे उनकी धोती के छोर में चाँदी के कई सिक्के थे जो कमर में खोंसे हुए थे, पुलिस वालों का कहना था कि गाँव वाले चाहते तो वो सिक्के निकाल लेते किसी को क्या पता चलता! "ईमानदारी!" बाबूजी ने बड़े ही व्यंग्य भरे लहजे में कहा- डर के मारे किसी की हिम्मत नहीं हुई वहाँ जाने की नहीं तो चाँदी के सिक्के क्या साइकिल घड़ी और जेबों के रूपए-पैसों का भी पता न चलता।"
"हाँ बाबू बात तो सही है, किसकी हिम्मत होती उस भयानक रात में वहाँ जाने की।" चाचा जी ने कहा।
"सोचो वो बेचारा बुड्डा खून बहने के कारण मर गया नहीं तो जाँघ में गोली लगने से वो मरता क्या? पर पुलिस तक रात को नहीं आई कि उठाकर ले जाती।" बाबूजी की आवाज में क्रोध था।
"आखिर पृथ्वीराज के यहाँ होने की खबर किसने दी होगी उन बदमाशों को?" बहुत देर से चुप बैठे छोटे बाबा जी ने कहा।
"रामसिंह ने।" बाबूजी ने कहा।
रामसिंह! लोगों के मुख पर आश्चर्य साफ देखा जा सकता था, या तो वे लोग रामसिंह को जानते नहीं या इस बात से अचंभित थे कि बाबूजी को कैसे पता?
बाबूजी ने बताया कि उन्हें किसी चौधरी से पता चला कि रामसिंह हमारे गाँव से कोई दो-ढाई किलोमीटर दूर एक गाँव में रहता है, वो पृथ्वीराज की पहचान का है। जब उसे पृथ्वीराज के यहाँ होने का पता चला तो वो मिलने आया और ये कहकर कि घर पर आम रखे हुए हैं मैं लेकर आता हूँ, चला गया। उसके पास घोड़ा है इसलिए उसे देर नहीं लगी उसी घोड़े से जाकर उसने दुश्मन गिरोह को खबर कर दी।
"लेकिन वो यहाँ क्यों आया? पहले ही जाकर खबर कर सकता था।" एक व्यक्ति ने कहा।
"हाँ, पर वो पहले खुद आश्वस्त हो जाना चाहता होगा।" बाबूजी ने कहा।
"चौधरी को ये सब कैसे पता?" बाबा जी कहा।
"पता नहीं " बाबूजी ने कहा।
"अब पृथ्वीराज बदला तो लेंगे, छोड़ेंगे नहीं। वो गद्दारी करने वाले को छोड़ दें, उनमें से नहीं हैं।"  गाँव के एक अन्य बुज़ुर्ग ने कहा।


इस घटना को बमुश्किल एक चार-पाँच दिन ही हुए होंगे रात के आठ-नौ बज रहे थे, बाबूजी कभी इतनी रात तक बाहर नहीं रहते थे लेकिन आज पता नहीं क्यों अभी तक नहीं आए थे। माँ ने बाबूजी के चचेरे भाई (जो कि मुझसे थोड़े ही बड़े थे) को उन्हें ढूँढ़कर बुला लाने के लिए भेजा था। मन से अभी पिछला भय निकला भी न था फिर इतनी रात तक बाहर रहना किसको नहीं डरा देता। तरह-तरह की आशंकाएँ मन में जन्म लेने लगीं तभी बाबूजी आ गए।
"इतनी रात तक कहाँ थे? पता है न टाइम ठीक नहीं है" दादी ने बोला।
"अरे जान तो लो पहले कि देर कहाँ हो गई फिर बोलना" बाबूजी की आवाज में अजीब सा उत्साह झलक रहा था जैसे कोई जीत हुई हो।
"कहाँ हो गई देर तुम ही बता दो।" माँ ने कहा।
हम लोग सब वहीं खलिहान में थ्रेसर के पास बैठे थे (यह खलिहान हमारे घर के दाईं ओर जिनके घर मैं ट्यूशन पढ़ रही थी उनके घर के सामने ही है) अभी से कोई आधा-पौन घंटा पहले पृथ्वीराज आए, सफेद ऊँचे शानदार घोड़े पर सवार थे। हम लोगों को देखकर वहीं रुक गए और उतरकर घोड़े की पीठ थपथपाते हुए गर्व से गर्दन तान कर बोले- "रामसिंह का घोड़ा है, मैं ले आया। वो गद्दार तो डर के मारे घर छोड़कर तब से ही भागा हुआ है, आज मैं चाहता तो उसका सबकुछ लूट सकता था।"
"तो क्या आपने लूटा नहीं?" हमने पूछा तो उन्होंने बताया- "कहाँ! रामसिंह की बीवी ने सारे गहने निकाल कर हमारे सामने रख दिया लेकिन उसकी बेटी रोने लगी, मैंने पूछा तो कहने लगी कि ये गहने मेरी ससुराल के हैं। मैंने कहा- जो तेरी ससुराल के हैं वो ले ले तो कहने लगी सारे हैं फिर मैंने कहा मैं तो यहाँ रामसिंह से बदला लेने आया था उसकी बेटी से नहीं जैसे मेरी बेटी वैसे रामसिंह की बेटी, ले जा सारे गहने, मैं सिर्फ उसका घोड़ा लेकर जा रहा हूँ पर उससे कह देना मैं उसे छोड़ूँगा नहीं।" पृथ्वीराज ने कहा। और जाते-जाते वो ये भी कहकर गए कि वो इस गाँव का अहसान कभी नहीं भूलेंगे। और डाकुओं से इस गाँव को बचाना अब उनकी जिम्मेदारी है।
ये सुनकर न जाने क्यों उस दिन मेरे मन में एक डाकू के लिए सम्मान उत्पन्न हुआ और साथ ही एक सवाल भी कि एक अच्छे हृदय का व्यक्ति होते हुए भी वह आखिर एक डाकू क्यों बना?
उस समय डाकुओं का प्रकोप चारों ओर व्याप्त था। गाँव के पुरुषों ने समूह बनाए हुए थे और क्रम के अनुसार एक-एक समूह पूरी-पूरी रात जाग कर पहरा देता था। क्योंकि बाबूजी अपनी सर्विस के कारण गाँव में नहीं रहते थे तो हमारे घर से पैसे, उपले आदि दिए जाते थे। हमारे गाँव के आस-पास का कोई भी गाँव डकैती की चपेट में आने से बचा न था लेकिन एक इकलौता हमारा गाँव बचा रह गया था। मैंने गाँव की औरतों को बातें करते सुना था कि पृथ्वीराज के कारण ही हमारा गाँव बच गया। उन्होंने ही कहा था कि जिसने भी इस गाँव की ओर नजर डाली मैं वो गिरोह ही खत्म कर दूँगा। वो अपनी जान बचाने के लिए इस गाँव का अहसान मानते हैं और इसीलिए हमारा गाँव बचा हुआ है।

धीरे-धीरे हम बच्चों की दिनचर्या पहले की तरह सामान्य होने लगी किंतु एक चीज थी जो अब तक असामान्य थी और पता नहीं कब तक असामान्य बनी रहने वाली थी.... 'वो जगह' जहाँ पर उन तीन व्यक्तियों की हत्या हुई थी। सुना था कि वो तीनो ही ब्राह्मण थे और गाँव वालों का कहना था कि यदि ब्राह्मण की इसप्रकार अकाल मृत्यु होती है तो उसकी आत्मा भटकती है, फिर वहाँ तो पीपल का पेड़ भी था, गाँव के बच्चों ने ये कहकर और अधिक डरा दिया था कि उस पेड़ पर पहले से एक पुराना भूत रहता है अब तो चार भूत हो जाएँगे। उस समय मेरे बालमन पर इन बातों का इतना गहरा असर हुआ कि मैंने अकेले उस रास्ते से जाना ही छोड़ दिया। दूर से ही उस जगह को देखकर भयभीत हो जाती।
सालों तक यह भय मेरे मन में व्याप्त रहा और साथ ही यह सवाल कि पृथ्वीराज आखिर डाकू क्यों बने?
मालती मिश्रा