शुक्रवार

यादों की दीवारों पर

यादों की दीवारों पर लिखी वो अनकही सी कहानी
जिसे न जाने कहाँ छोड़ आई ये जवानी
कच्चे-पक्के मकानों के झुरमुटों में खोया सा बचपन
यादों के खंडहरों में दबा सोया-सा बचपन
न जाने कब खो गई दुनिया की भीड़ में
वो गाती गुनगुनाती संगीत सी सुहानी
यादों की दीवारों.....

मकानों के झुरमुटों से निकलती सूनी सी वो राहें
बुलाती हैं मानो आज भी फैलाकर अपनी बाहें
वहीं से निकल दूर तलक जाती लंबी-सी सड़क
जो दूर होते-होते खो जाती है किसी अंजाने मोड़ पर
जीवन जहाँ था वहाँ पसरी है अब वीरानी
यादों की दीवारों.......

जेठ की दुपहरी में ठंडी छाँह खोजती वो सड़क
किनारे खड़े वृक्षों की भी रह गई अस्थियाँ दुर्बल
सड़क के उसी मोड़ पर खो गए वो अल्हड़
चहकते पल
अनजानी गलियों में भटकती-सी चाहतों की रवानी
जर्जर काँधों पर ले जाती यादों की गठरी पुरानी
यादों की दीवारों.....

अपनी कंकरीली पथरीली टूटी-फूटी जर्जर-सी काया में
समेटे हुए असंख्य असीम यादों की परत दर परत
वो सड़क जो हमराही थी जीवन की धूप-छाँव में
अपने पत्थर हृदय में समेटे कुछ अनकही कहानी
कुछ हँसती कुछ आँसू से दामन भिगोती जवानी
यादों की दीवारों....

दिलों  में पलते अनकहे सहमे से सपने
आँखों से बहते अविरल ज़ज्बातों के झरने
अधरों पर तैरते पल-पल अल्फ़ाज़ अनसुने
कानों में सरगोशियाँ कर जाती कोई मीठी याद पुरानी
सड़क जो सुनाती बीते पलों की अनकही कहानी
यादों की दीवारों.....
मालती मिश्रा

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