रविवार

नारी तू खुद को क्यों
इतना दुर्बल पाती है,
क्यों अपनी हार का जिम्मेदार
तू औरों को ठहराती है।
महापराक्रमी रावण भी
जिसके समक्ष लाचार हुआ,
धर्मराज यमराज ने भी
अपना हथियार डाल दिया।
वही सीता सावित्री बनकर
तू जग में गौरव पाती है,
पर क्यों इनके पक्ष को तू
सदा कमजोर दिखाती है।
माना कि युग बदल गया
कलयुग की कालिमा छाई है,
पर नारी भी तो त्याग घूँघट को
देहरी से बाहर आई है।
जिस अधम पुरुष से हार के तू
दुर्गा का नाम लजाती है,
क्या भूल गई ये अटल सत्य
उसे तू ही धरा पर लाती है।
सतयुग की काली चंडी तू
तो आज की लक्ष्मीबाई है।
तू उसकी ही प्रतिछाया है
जो महिषासुर मर्दिनी कहाती है,
मर्द बनी मर्दानों में ये
उनको धूल चटाती है,
और आज खड़ी तू बिलख रही
मदद की गुहार लगाती है।
क्यों नराधम के हाथ उठने के लिए
और तेरे बस जुड़ने के लिए।
जिन हाथों को जोड़ कर विनती करती
क्यों उनको नहीं उठाती है,
एकबार खोल तू हाथ अपने
तो देख कैसे शक्ति समाती है,
जो तमाशबीन बन देख रहे
कैसे उनको भी साथ तू पाती है।
जो करता मदद स्वयं की है
उसके पीछे दुनिया आती है,
बन सक्षम अब तू बढ़ आगे
नारी में ही शक्ति समाती है।
मालती मिश्रा

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर मालती जी....नारी में ही शक्ति समाती हैं

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  2. बहुत सुंदर मालती जी....नारी में ही शक्ति समाती हैं

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    1. ब्लॉग पर आपका स्वागत है शकुंतला जी, प्रोत्साहन के लिए आभार।

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