मंगलवार

जाग री तू विभावरी

 जाग री तू विभावरी..

ढल गया सूर्य संध्या हुई 

अब जाग री तू विभावरी 


मुख सूर्य का अब मलिन हुआ 

धरा पर किया विस्तार री

लहरा अपने केश श्यामल 

तारों से उन्हें सँवार री 

ढल गया सूर्य संध्या हुई 

अब जाग री तू विभावरी 


पहने वसन चाँदनी धवल 

जुगनू से कर सिंगार री 

खिल उठा नव यौवन तेरा

नैन कुसुम खोल निहार री 

ढल गया सूर्य संध्या हुई 

अब जाग री तू विभावरी 


चंचल चपला नवयौवना 

तू रूप श्यामल निखार री

मस्तक पर मयंक शोभता

धरती पर कर उजियार री

अंबर थाल तारक भर लाइ

कर आरती तू विभावरी


ढल गया सूर्य संध्या हुई 

अब जाग री तू विभावरी


मालती मिश्रा, दिल्ली✍️

8 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 01.10.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
    धन्यवाद
    दिलबागसिंह विर्क

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  2. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" गुरुवार 01 अक्टूबर 2020 को साझा की गयी है............ पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" गुरुवार 01 अक्टूबर 2020 को साझा की गयी है............ पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  4. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" गुरुवार 01 अक्टूबर 2020 को साझा की गयी है............ पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  5. वाह! सुंदर सुरीला चित्रण ।

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