स्त्री हूँ
स्त्री ही रहूँगी
पुरुष नहीं बनना मुझको
हे पुरुष!
नाहक ही तू डरता है
असुरक्षित महसूस करता है
मेरे पुरुष बन जाने से।
सोच भला...
एक सुकोमल
फूल सी नारी
क्या कंटक बनना चाहेगी
अपने मन की सुंदरता को
क्यों कर खोना चाहेगी?
ममता भरी हो जिस हृदय में
क्या द्वेष पालना चाहेगी
दुश्मन पर भी दया दिखाने वाली
कैसे निष्ठुर बन जाएगी
बाबुल का आँगन छोड़ के भी
दूजों को अपनाया जिसने
ऐसे वृहद् हृदय को क्यों
संकुचन में वो बाँधेगी
पुरुष मैं बनना चाहूँ
ये भ्रम है तेरे मन का
या फिर यह मान ले तू
डर है तेरे अंदर का
क्योंकि
मैं देहरी के भीतर ही
तुझको सदा सुहाती हूँ
देहरी से बाहर आते ही
रिपु दल में तुझको पाती हूँ
मैंने तो कदम मिला करके
बस साथ तेरा देना चाहा
कठिन डगर पर हाथ थाम के
मार्ग सरल करना चाहा
पर तेरे अंतस का भय
मेरा भाव समझ न सका
मेरे बढ़ते कदमों को
अपने साथ नहीं समक्ष समझा
सहयोग की भावना को
प्रतिद्वंद्व का नाम दिया
अहंकार में डूबा पौरुष
लेकर कलुषित भाव मन में
अपने मन की कालिमा
मेरे दामन पर पोत दिया
कभी वस्त्रों की लंबाई
कभी ताड़ता अंगों को
अपने व्यभिचारी भावों पर
नहीं नियंत्रण खुद का है
दोष लगाता नारी पर
खुद को देख न पाता है
जो कालिमा मुझ पर पोत रहा
वो उपज तेरे हृदय की है
मैं नारी थी
नारी हूँ
नारी ही रहना मुझको
बाधाओं को तोड़ लहर सी
खुद अपना मार्ग बनाना मुझको
क्योंकि मैं स्त्री हूँ
पुरुष नहीं बनना मुझको।
मालती मिश्रा 'मयंती'✍️
बहुत बहुत खूबसूरत भावाभिव्यक्ति मालती जी 💐💐💐🎉बधाई हो इस सुन्दर सृजन के लिए
जवाब देंहटाएंआत्मीय आभार सुधा जी।
हटाएंLajawab prastuti
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंबहुत खूसूरत रचना।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
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