सोमवार

सीमा के प्रहरी महाराज पुरु

 सीमा के प्रहरी 'महाराज पुरु'


भारत का इतिहास अपने कई ऐसे महान शासकों के गौरव से आलोकित रहा है, जिनके शौर्य और पराक्रम का लोहा पूरी दुनिया ने माना। ऐसे ही महान शासकों में एक नाम पुरुवंशी महाराज पुरुषोत्तम अर्थात् पुरु का लिया जाता है। जिन्हें यूनानी इतिहासकार पोरस कहते हैं।

महाराज पुरु का विशाल साम्राज्य पंजाब में झेलम से लेकर चेनाब नदी तक था, जिसकी राजधानी मौजूदा लाहौर के आस-पास थी। चारों ओर से नदियों से घिरा होने के कारण पौरव राज्य सुरक्षित तथा व्यापारिक दृष्टि से समृद्ध था। जिसके कारण इस राज्य की सामरिक स्थितियाँ अत्यधिक सुदृढ़ थीं। पुरु का कार्यकाल 340 ईसा पूर्व से 315 ईसा पूर्व के मध्य माना जाता है। 

महाराज पुरु ऐसे महान राजा थे, जो सिर्फ अपने राज्य की ही नहीं अपितु पूरे देश की सुरक्षा के लिए समर्पित थे। जिन्होंने अपनी कुशल रणनीति और पराक्रम से विश्वविजय का सपना लेकर निकले मकदूनिया के अभिमानी और क्रूर शासक सिकंदर की विजय यात्रा पर विराम लगाकर उसे वापस भागने पर विवश कर दिया।

विश्वविजय का लक्ष्य लेकर निकले सिकंदर का स्वागत पुरु से शत्रुता रखने वाले तक्षशिला के राजा आम्भीराज ने किया और पौरव राज्य पर आक्रमण करने में उसकी सहायता भी की। सम्राट पुरु को हराए बिना सिकंदर आगे नहीं बढ़ सकता था। वह उनकी वीरता और रणनीतिक कौशल के विषय में सुन चुका था। अत: संधि करना अधिक उचित जाना। इस कार्य की दुरुहता को जानकर वह स्वयं दूत बनकर पौरव राज्य के दरबार में पहुँच गया। 

महाराज पुरु की पारखी दृष्टि ने उसे पहचान कर भी दूत का पूरा सम्मान दिया। सिकंदर ने कहा- "सम्राट सिकंदर विश्वविजय के लिए निकले हैं और राजा-महाराजाओं के सिर पर पैर रखकर चल सकने में समर्थ हैं, वही सम्राट सिकंदर आपसे मित्रता करना चाहते हैं।" सिकंदर की बात सुनकर महाराज पुरु बोले- "राजदूत! हम पहले देश के पहरेदार हैं बाद में किसी के मित्र, और फिर देश के दुश्मनों से मित्रता कैसी! शत्रुओं से तो हम रणभूमि में तलवारें लड़ाना ही पसंद करते हैं।" यह सुनकर सिकंदर नि:शब्द हो गया।

महाराज पुरु ने उसे ससम्मान भोज के लिए आमंत्रित किया। उसकी थाली में सोना, चाँदी, हीरे, मोती आदि परोसा गया। यह देखकर सिकंदर विस्मित हो गया। महाराज पुरु बोले- "खाइए सिकंदर! इससे अधिक कीमती भोजन प्रस्तुत करने में हम असमर्थ हैं, सोने-चाँदी के प्रति आपकी भूख देखकर ही हमने आपके लिए यह कीमती भोजन बनवाया।" 

अपने पहचाने जाने पर सिकंदर बंदी बनाए जाने के डर से घबरा गया किन्तु महाराज पुरु ने उसे बिना कोई क्षति पहुँचाए ससम्मान उसकी सेना तक भिजवा दिया। 

महाराज पुरु अपने क्षेत्र की प्राकृतिक और भौगोलिक स्थिति तथा झेलम नदी की प्रकृति को भली-भाँति जानते थे, तदनुरूप वह झेलम के तट पर सिकंदर के स्वागत के लिए तत्पर थे।

छ: महीने के अवलोकन और आम्भीराज की सहायता से निरंतर प्रयास के पश्चात् सिकंदर अपनी सेना के साथ झेलम नदी को पार कर सका। नदी के दूसरी ओर अब उसका सामना एक ऐसे महावीर से था जो हार का स्वाद नहीं जानता था। देशभक्ति, पराक्रम और आत्मविश्वास जिसके प्रथम अस्त्र थे।


सिकंदर की सेना संख्या की दृष्टि से विशाल थी किन्तु राजा पुरु के कुशल नेतृत्व में उनकी सेना संख्या में कम होने के बाद भी अपार शक्तिशाली थी। महाराज पुरु जानते थे कि युद्ध हुआ तो अत्यधिक नरसंहार होना निश्चित है, इसलिए अनावश्यक नरसंहार को टालने हेतु उन्होंने सिकंदर को द्वंद्व युद्ध का निमंत्रण दिया ताकि बिना रक्तपात ही जय-पराजय का निर्णय हो जाए परंतु उनके इस वीरतापूर्ण चुनौती को सिकंदर ने स्वीकार नहीं किया।

युद्ध का विगुल फूँका जा चुका था। महाराज पुरु ने अपने प्रशिक्षित हाथियों की सेना को सिकंदर की सेना के सामने पहली पंक्ति में खड़ा कर दिया। सिकंदर का सामना इससे पहले कभी हस्तिसेना से नहीं हुआ था। अत: वह हाथियों के संगठन को देखकर हैरान था। 

सेना को महाविनाश का आदेश देकर राजा पुरु अपनी गज सेना के साथ यवनी सेना पर टूट पड़े। आदेश मिलते ही पोरस के सैनिकों और हाथियों ने जो विनाश मचाना शुरु किया कि सिकन्दर और उसके सैनिक बस देखते ही रह गए।

भीषण युद्ध के दौरान महाराज पोरस का अचूक भाला सिकंदर के अश्व बुकिफाइलस (संस्कृत-भवकपाली) को लगा और वह सिकंदर को लिए हुए वहीं धराशायी हो गया। यूनानी सेना ने ऐसा दृश्य अपने संपूर्ण युद्धकाल में नहीं देखा था। 

सिकंदर के धरती पर गिरते ही तीर की गति से महाराज पुरु हाथ में तलवार लिए हुए उसके सामने थे। प्रहार के लिए उठे उनके हाथ अपनी कलाई पर बंधे उस धागे को देखकर रुक गए जिसे युद्धक्षेत्र में सिकंदर की दुर्बल स्थिति को जानकर उसकी पत्नी ने उसके प्राणों की रक्षा के लिए महाराज पुरु को बाँधा था और उनसे उसके प्राण न लेने का वचन लिया था। सिकंदर की पत्नी को दिए वचन का पालन करते हुए उन्होंने उसे जीवनदान देकर छोड़ दिया। 

अपनी सेना के टूटे हुए मनोबल और विद्रोह की सुगबुगाहट को भाँप कर सिकन्दर ने वापस लौटने में ही अपनी भलाई समझा।

महाराज पुरु के पराक्रम के समक्ष उस क्रूर और महत्वाकांक्षी आक्रमणकारी को हार मानना पड़ा, जिसे ईरान, फारस जैसे कई शक्तिशाली राज्य भी रोक नहीं पाए। ऐसे वीर सपूतों के कारण ही हमारा देश सदैव गौरवान्वित रहा है।

मालती मिश्रा 'मयंती'

चित्र - साभार गूगल से


सूचना - मेरे द्वारा लिखी गई यह ऐतिहासिक कहानी हमारे देश के के लिए अपना सर्वस्व आहूत कर देने वाले इक्यावन गौरवशाली पूर्वजों को समर्पित पुस्तक 'इनसे हैं हम' में संकलित हैं, जिसे देश के इक्यावन साहित्यकारों से इतिहास के गर्भ से खोज कर निकाला है।  मेरी राय है कि इस पुस्तक को सभी को पढ़ना चाहिए ताकि हम और हमारी वर्तमान और आगामी पीढ़ी अब तक के भ्रमित करने वाले इतिहास की सच्चाई को पहचाने और सत्य से परिचित होकर अपने देश के महान विभूतियों को सम्मान दे सके।

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️




गुरुवार

मेरे रोम-रोम में भारत है..

 मेरे रोम-रोम में भारत है..

मेरे रोम-रोम में भारत है, 

हर धड़कन में जन गण मन,

बना रहे सम्मान देश का, 

कर दूँ अर्पण तन-मन -धन।


आँख उठाकर देखेगा जो, 

दुर्भावना धारण कर

नहीं देखने लायक होगा, 

फिर कुछ भी वह जीवन भर,


वीर जवान हैं इसके प्रहरी, 

पहरा देते सीमा पर

तज मोह अपनी माता का,  

हुए कुर्बान भारत माँ पर।


हाथों में उठाए ध्वज देश का, 

गाते हैं मिल जन-गण-मन,

बना रहे सम्मान देश का, 

कर दूँ अर्पण तन-मन-धन।


*मालती मिश्रा 'मयंती'*✍️

चित्र- साभार गूगल से


रविवार

पावन उद्देश्य की पहल है- 'इनसे हैं हम'

 पावन उद्देश्य की पहल है- 'इनसे हैं हम'





हमारे देश की सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक और भौगौलिक आजादी को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाले इक्यावन गौरवशाली पूर्वजों की गौरवगाथा को प्राप्त करके अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रही हूँ।

जिस प्रकार समस्त वसुधा को आलोकित करने के लिए सूर्य के प्रकाश, भवन को आलोकित करने के लिए दीप के प्रकाश और मन को आलोकित करने के लिए ज्ञान के प्रकाश की आवश्यकता होती है उसी प्रकार समाज और देश को आलोकित करने के लिए सुदृढ़, सर्वमान्य संस्कृति की आवश्यकता होती है और हमारा देश अपनी इसी अलौकिक सांस्कृतिक खूबियों और  समृद्धिशाली सभ्यता के कारण सदियों से विदेशी आक्रांताओं, लुटेरों की लोलुप आकांक्षाओं का केन्द्र रहा है। 

देश की अखण्डता और गौरवशाली संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए समय-समय पर भारत माँ के वीर सपूतों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर करके अपने जीवन को स्वतंत्रता प्राप्ति के यज्ञ में आहूत कर दिया, हम सदैव उन महान विभूतियों के ऋणी रहेंगे। 

नि:संदेह हमारे देश का इतिहास बहुत समृद्ध है किन्तु दुर्भाग्यवश उस समृद्धि के महानायकों की शौर्यगाथाएँ समय के गर्त में दफन होकर रह गईं और जितनी जानकारी उपलब्ध है वह अपूर्ण और निराशाजनक है। देश के वंशज अपने पूर्वजों के शौर्य और उनके बलिदानों से अनभिज्ञ रहें, यह बहुत ही दुर्भाग्य पूर्ण है। हमारे जिन पूर्वजों के कारण वर्तमान समय में हमारा अस्तित्व है, हम अधिकारपूर्वक स्वयं को इस देश का अटूट हिस्सा मानते हैं, उन्हीं शौर्यवान पूर्वजों की शौर्यगाथाओं को नितांत योजनाबद्ध रूप से दबा दिया गया और इतिहास में जो भी दर्शाया गया वह नकारात्मक और निराशाजनक छवि को ही प्रस्तुत करता है तथा अधिकतर महापुरुषों के विषय में तो ज्ञात ही नहीं हो सका। किन्तु जिस प्रकार बादलों के टुकड़े सूर्य को अपने पीछे छिपाकर भी उसकी किरणों के प्रकाश को फैलने से नहीं रोक पाते, उसी तरह उन महान पूर्वजों की शौर्यगाथाओं का आलोक भी आखिर समय के बादलों के पीछे से झाँकने लगा और भा०ज०म० के संरक्षक आ० राजेन्द्र अग्रवाल जी की सोच को मूर्त रूप देने के लिए आ० धर्मचन्द्र पोद्दार जी के मार्गदर्शन में देश के इक्यावन प्रांतों से इक्यावन प्रबुद्ध लेखकों ने हजारों वर्ष पुराने इतिहास को खंगालने का प्रयास किया, तथा डॉ० अवधेश कुमार 'अवध' जी के कुशल संपादन में 'इनसे हैं हम' का उद्भव हुआ। सह संपादक नितु सिंह नव्या और मुख पृष्ठ सज्जा के लिए आ० अवनीत कौर दीपाली जी का सहयोग प्रशंसनीय है। आ० अवधेश कुमार 'अवध' जी की कृपा से मुझे भी इस महती प्रयास में यूनानी इतिहासकारों द्वारा महिमामंडित सिकंदर के भारत को पददलित करके इस महान देश पर शासन करने के कुत्सित मंशाओं और प्रयासों पर विराम लगाकर उसे वापस लौटने पर विवश करने वाले पौरववंशी राजा महाराज पुरुषोत्तम के गौरवशाली जीवन पर, 'सीमा के सजग प्रहरी महाराज पुरु' शीर्षक के माध्यम से प्रकाश डालकर अपना आंशिक योगदान देने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। अपने देश के इन महान विभूतियों के त्याग और बलिदान को बच्चा-बच्चा जाने, इसी पावन उद्देश्य की पहल है 'इनसे हैं हम'। 

पुस्तक का परिचय देते हुए प्रधान संपादक डॉ० अवधेश कुमार 'अवध' लिखते हैं कि "लगभग सात लाख लोगों की सीधी कुर्बानी और उनसे जुड़े असंख्य लोगों के अहर्निश तप-त्याग का प्रतिफल आजादी के रूप में मिला। भारत के विगत ढाई हजार साल के इतिहास पर निष्पक्ष दृष्टि डालने से ज्ञात होता है कि हमारे महानायक पूर्वजों की शौर्यगाथा का आंकलन सर्वथा उचित तरीके से नहीं किया गया है। कोई न कोई ऐसी शक्ति रही जिसने किसी पूर्वाग्रह वश महान पूर्वजों की छवि को नकारात्मक कलेवर में प्रस्तुत किया या उल्लेखनीय नहीं समझा। बहुधा जिन उद्देश्यों के लिए कुर्बानियाँ दी गईं, प्रायः उत्तराधिकारी भटकते हुए देखे गए। इसी मानसिक यंत्रणा से सम्यक मुक्ति का एक प्रयास है, 'इनसे हैं हम'।"

हमारी नव पीढ़ी को हमारे पूर्वजों के ऐतिहासिक संघर्ष, एकता, विद्धता और कर्मठता का पाठ पढ़ाने हेतु इन अनमोल विभूतियों के बारे में अवगत करवाने के लिए यह पुस्तक मील का पत्थर साबित होगी।

इस पुस्तक के माध्यम से आगामी पीढ़ी इतिहास के गर्त में छिपे महान विभूतियों के शौर्यगाथाओं से परिचित हो सके, इस उद्देश्य पूर्ति के लिए संपादक मंडल तथा इससे जुड़े सभी लेखक/लेखिका सतत प्रयत्नशील हैं। इसी क्रम में यह पुस्तक प्रधानमंत्री कार्यालय और राष्ट्रपति भवन में भी अपना स्थान बना चुकी है तथा जगह-जगह शिक्षा विभाग से जुड़े प्रतिनिधियों की उपस्थिति में इसका लोकार्पण किया गया तथा इसे अधिकाधिक लोगों तक पहुँचाने के लिए सतत प्रयत्नशील हैं। यह पुस्तक सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दूसरे कुछ देशों में भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवा चुकी है, अपने गौरवशाली इतिहास को जानने की तीव्र उत्कंठा के फलस्वरूप माँग इतनी बढ़ गई कि इस पुस्तक का पहला संस्करण (एडिशन) समाप्त हो चुका तथा दूसरे की तैयारी चल रही है। ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि इस पुस्तक में वर्णित महापुरुषों की जीवनगाथा को पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जा सकता है, जो कि हम सभी के लिए हर्षोल्लास का विषय है। इक्यावन लेखक/लेखिकाओं की साहित्यिक खोज की यज्ञाहुति का प्राकट्य यह महान पुस्तक राष्ट्र निर्माण के विराट यज्ञ में सच्चाई की परम आहुति है जिससे हमारे आने वाले भविष्य के कर्णधार अवश्य प्रेरित होंगे।

मालती मिश्रा 'मयंती'

malti3010@gmail.com


शनिवार

खौफ की वो रात

 खौफ की वो रात..



दूर-दूर तक खाली सड़क थी, कहीं-कहीं बर्फ जमी हुई और कहीं पिघलती हुई, दायीं ओर बादलों की चादर ओढ़े ऊँचे-ऊँचे पहाड़ और पहाड़ों से चादर खींचकर नीचे की ओर भागते-उतरते पेड़-पौधे और झाड़ियाँ। ऐसा लगता मानों बादलों और धुँध के चादर के छोटे-छोटे टुकड़े उनके भी हाथ में आ गए हैं। वहीं सड़क के दो-तीन मीटर की दूरी पर बायीं ओर गहरी घाटी में रुई के बड़े-बड़े फाहे पेड़ों और झाड़ियों को ढके हुए उन्हें काँपने से बचाने का असफल प्रयास कर रहे हैं। अँधेरा गहराता जा रहा था, देखते ही देखते आसमान में तारों के जमघट ने चाँद को घेर लिया। चमकती चाँदनी में सड़क पर भी जगह-जगह जमी हुई बर्फ झिलमिला रही थी, ऐसे में भी इक्का-दुक्का गाड़ियाँ ही वहाँ से कभी-कभी गुजर रही थीं, कहीं-कहीं लोग गाड़ी रोककर खुशनुमा मौसम का आनंद ले रहे थे। अक्षत गाड़ी को साठ-सत्तर की स्पीड से भगा रहा था। स्टीरियो में गाना बज रहा था...

हम जो चलने लगे, चलने लगे हैं ये रास्ते.... हाँ..हाँ हाँ..हाँ... हाँ.. चलने लगे...

"स्पीड कम करो बेबी, डर लग रहा है टायर स्लिप हो गया तो.." अक्षत के गले में बाँहें डालकर उसके कंधे पर सिर रखते हुए नियति बोली। 

"कुछ नहीं होगा जान, तू मेरे पास है तो मैं अपने लिए तुझे कुछ होने ही नहीं दे सकता।" अक्षत उसके गाल पर किस करते हुए बोला। 

"सच में मैं बहुत लकी हूँ बेबी, तुम मुझे पहले क्यों नहीं मिले?" कहते हुए नियति ने उसके गाल पर किस कर लिया। 

"सीधी राह पर चलते-चलते पहले किसी गलत मोड़ पर मुड़ गया था जानू और उसे ही अपनी मंजिल मान लिया, जब तक आँखें खुली, बहुत देर हो चुकी थी।" कहते हुए वह जैसे कहीं खो सा गया। कुछ देर तक एक गहरा सन्नाटा सा घिर गया दोनों के बीच।

"क्या हुआ बेबी कहाँ खो गए?" नियति ने उसे झिंझोड़ते हुए कहा।

"क..कहीं नहीं, अपनी जान के साथ रहते हुए उसमें खोने की बजाय मैं और कहाँ खो सकता हूँ!! हमारा ये हनीमून बहुत ही इंट्रेस्टिंग होने वाला है, हमारे एक-एक पल को जी भर के जीना चाहता हूँ मैं, हम इन सात दिनों में इतना प्यार करेंगे कि किसी ने सात जन्मों में भी न किया हो, तू भी करेगी न यति?" अक्षत ने भावुक होते हुए कहा।

"करोगे से क्या मतलब है बेबी! अभी नहीं करते क्या? मैं तो अब भी तुम्हें प्यार करती हूँ, बल्कि प्यार करती थी इसीलिए तो शादी की।" नियति ने उसे अपनी बाँहों में और जोर से भींचते हुए कहा।


"वो तो है ही लेकिन..!!"

💠"लेकिन ये तो सिर्फ जिस्मानी प्यार की बात कर रहा है.." स्टीरियो पर बजता गाना बंद हो गया और उसमें एक सरसराती हुई आवाज गूँजी।

स्टेयरिंग पर अक्षत के हाथ काँप उठे और गाड़ी सड़क से बायीं ओर झाड़ियों को रौंदकर वापस सड़क पर आ गई। नियति चीख पड़ी, अक्षत के पैर यकायक ब्रेक पर चिपक गए और सन्नाटे को चीरती हुई एक तेज आवाज के साथ गाड़ी रुक गई। 


अक्षत और नियति दोनों ही हैरानी से इधर उधर देख रहे थे, नियति गाड़ी में पीछे आँखे फाड़कर ऐसे ध्यान से देख रही थी जैसे कोई सुई खोज रही हो।


"तुम ठीक तो हो न यति?" अक्षत ने उसके सिर पर हाथ रखते हुए कहा।


"ह...हाँ..और त..तुम?" 

"मैं..मैं भी ठीक हूँ। क्या तुमने भी वो आवाज़ सुनी, जो मैंने सुनी?" उसकी आवाज में डर के मारे कँपकँपाहट झलक रही थी।


"हाँ..मैंने भी सुनी पर यहाँ तो क..कोई नहीं है।" नियति बोली।


"अक्षत स्टीरियो के बटन दबा-दबाकर कभी बैकवर्ड तो कभी फॉरवर्ड करता ताकि उस आवाज को फिर से सुन सके लेकिन उसे गानों के अलावा कोई और आवाज सुनाई नहीं पड़ी। 

न जाने क्यों वो सरसराती हुई आवाज भी उसे जानी-पहचानी सी लग रही थी, लेकिन किसकी!!!!

वह समझ नहीं पा रहा था। 

"होटल अभी और कितनी दूर है बेबी? अब तो जल्द से जल्द पहुँचना चाहती हूँ।" नियति ने कहा। 

"बस पहुँचने ही वाले हैं।" कहते हुए अक्षत ने फिर से गाड़ी की स्टेयरिंग संभाली। नियति भी संभलकर बैठ गई। उनकी गाड़ी एक बार फिर सुनसान राह पर चल पड़ी। नियति अभी भी सहमी हुई थी। अचानक अक्षत के चेहरे पर घबराहट दिखाई देने लगी, उसे देखकर ऐसा लग रहा था जैसे उसे स्टेयरिंग को घुमाने के लिए बहुत ताकत लगानी पड़ रही है, उसे देखकर नियति घबरा गई और उसको पकड़ते हुए बोली- "क..क्या हुआ बेबी...तुम घबराए हुए क्यों हो?"

तभी उसे जोर का झटका लगा और वह कार के दरवाजे से टकराई। वह घबराई आँखों से अक्षत को देख रही थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसने उसे क्यों धकेला...


उधर अक्षत अपनी पूरी ताकत से गाड़ी को काबू में करने की कोशिश कर रहा था लेकिन गाड़ी ने सड़क छोड़कर अलग ही दिशा पकड़ ली थी। पेड़ों के बीच झाड़ियों को रौंदती हुई काली अंधेरी राह पर उनकी कार किधर को ले जा रही थी, उन्हें कुछ पता न था। 

"प्लीज़.. प्लीज़ बेबी क्या हो गया है तुम्हें प्लीज़ रोको..." नियति गिड़गिड़ाने लगी। 

अचानक गाड़ी में जोर से ब्रेक लगाने की आवाज आई और गाड़ी जहाँ की तहाँ रुक गई।  अक्षत ने एक लंबी साँस छोड़ी जैसे कितनी ही देर से साँस रोककर बैठा था। नियति की तो साँसें ही अटक गई थीं, वह डर से काँप रही थी।

अचानक कार की हेड लाइट बंद हो गई।

चारों ओर घुप्प अंधेरा फैला था, पेड़ों के पत्तों से छनकर कहीं-कहीं चाँदनी के छोटे-छोटे टुकड़े बिखरे हुए थे लेकिन हवा के जोर से पत्तों की सरसराहट और नीचे बिखरे सूखे पत्तों की खड़खड़ाहट वातावरण को भयावह बना रहे थे। नियति ने डर के मारे अक्षत का हाथ जोर से पकड़ लिया। 

अक्षत ने होटल में फोन करने के लिए मोबाइल निकाला लेकिन मोबाइल का सिग्नल गायब था। तभी उन्हें कुछ दूरी पर कोई साया दिखाई दिया। 

"शायद वहाँ कोई है।" कहकर उसने अपनी साइड का दरवाजा खोला और बाहर निकल आया। वह मदद पाने की उम्मीद से तेजी से उस साए की ओर बढ़ा, नियति गाड़ी में हैरान-परेशान सी बैठी रह गई, उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी कि वह बाहर निकले। तभी उसकी ओर के दरवाजे के शीशे पर किसी महिला का साया नजर आया। वह जोर से चीख पड़ी। दरवाजा अपने आप खुल गया और एक काला, जला हुआ, बड़े-बड़े नाखूनों वाला हाथ उसकी ओर बढ़ा, हाथ से धुआँ निकल रहा था, उसमें जहाँ-तहाँ चिंगारियाँ हवा लगते ही दहक उठतीं। नियति घबराकर पीछे खिसकने लगी और वह हाथ उसकी ओर बढ़ने लगा, पीछे खिसकते-खिसकते वह ड्राइविंग सीट पर पहुँच गई, डर के मारे उसने आँखें बंद कर लीं तभी उसे अपने कंधे पर जलन महसूस हुई जैसे किसी ने जलता हुआ तारकोल डाल दिया हो, वह जोर से चीखी...उसके चीखते ही कंधे पर जैसे नाखून चुभे और किसी ने उसे जोर से खींचकर बाहर ला पटका। रात के सन्नाटे को चीरती हुई उसकी चीख गूँज उठी और अगले ही पल वह बेहोश हो गई।

****


💠💠२

नियति की चीख सुनकर अक्षत पीछे मुड़ा ही था कि तभी उसे उस दिशा से चीख सुनाई पड़ी जिधर वह साया दिखाई दिया था। वह मुड़ा और उसी ओर भागा। परंतु उसे दूर-दूर तक अंधेरे के सिवा कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। अचानक कुछ दूरी से सूखे पत्तों पर किसी के चलने की आवाज आई, वह उस दिशा में नजरें गड़ाकर देखने लगा लेकिन कोई दिखाई नहीं दे रहा था। तभी उसके आगे कुछ मीटर की दूरी पर एक पेड़ की डाली जोर से हिली और साँय की आवाज करती हुई हवा उसके कानों में कुछ कहती हुई गुजर गई..मैं यहाँ हूँ... 

अक्षत चौंककर इधर-उधर देखने लगा। अपने दायीं ओर उसे धुएँ का गुबार उठता दिखाई दिया...इस ठंडी रात में भी वह डर से पसीने-पसीने हो रहा था।

"बेबी कहाँ हो, प्लीज़ हेल्प मी!!" धुएँ के पीछे से उसे नियति की आवाज आई। वह उस ओर दौड़ पड़ा। तभी उसका पैर किसी रस्सी जैसी चीज में फँसा और वह धड़ाम से मुँह के बल गिरा। इससे पहले कि वह उठ पाता उसके पैर में फँसी रस्सी पीछे की ओर खिंचने लगी जैसे कोई खींच कर ले जा रहा हो। वह दहशत से चीख रहा था, उसका एक पैर हवा में एक-डेढ़ फीट ऊँचा उठा हुआ था और वह पीठ के बल पत्तों पर घिसटता जा रहा था। वहीं कहीं दूर से नियति के पुकारने की आवाज आ रही थी। 

क..क..कौन हो त..तुम? सामने क्क्यों नहीं आते? छ..छोड़ दो..." वह चिल्लाया।


तभी उसकी रस्सी ढीली हो गई और पैर जोर से जमीन पर गिरा, जैसे उसका कहा मानकर रस्सी छोड़ दिया हो। वह डरते हुए खड़ा हुआ और इधर-उधर देखने लगा परंतु दूर-दूर तक सिवाय अंधेरे और जगह-जगह छिटकती चाँदनी के और कुछ नजर नहीं आ रहा था। वह अपनी गाड़ी के पास वापस जाना चाहता था लेकिन उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह किस दिशा से आया था। अकस्मात् उसके पैर धरती से ऊपर उठने लगे, वह चीख पड़ा। देखते ही देखते वह धरती से पाँच फीट ऊपर हवा में तैर रहा था, डर के मारे वह पसीने से भीग चुका था, तभी उसे जलने की गंध आने लगी। "प्लीज़! कौन हो तुम..? छोड़ दो मुझे... आखिर मैंने क्या बिगाड़ा है तुम्हारा..." चमड़ी जलने की गंध बढ़ते-बढ़ते एकदम पास आती जा रही थी और उसके नथुनों में समाती जा रही थी, उसका साँस लेना मुश्किल हो गया। 

तभी उसके सामने भक्क से रोशनी हुई और देखते-देखते वह रोशनी धुएँ में परिवर्तित होने लगी। अगले ही पल धुएँ में से जलती हुई मानवाकृति बाहर निकली। वह कोई स्त्री थी, आग की लपटों में घिरी हुई वह दोनों बाहें फैलाए अक्षत की ओर बढ़ी, "बेबी मुझे बचाओ, मैं..मैं मर जाऊँगी..प्लीज़ मुझे बचाओ.." रोती-चीखती हुई वह उससे मदद माँग रही थी।

"यति...यति..कोई है..?? बचाओ! बचाओ मेरी यति को.." अक्षत हवा में झूलते हुए बेबस महसूस कर रहा था। जलती हुई वह स्त्री ठीक उसके सामने आ गई, वह पूरी तरह जल चुकी थी अब उसके सामने स्त्री के आकार में एक दहकता हुआ कोयला खड़ा था। जिसमें से चिंगारियाँ उड़ रही थीं। 

"क..कौन हो तुम?? मुझे नीचे उतारो।" अक्षत समझ गया कि वह नियति नहीं थी, इसलिए गिड़गिड़ा उठा। उस जली हुई आकृति ने अपना हाथ आगे बढ़ाया, वह पीछे हटना चाहता था, लेकिन पैर धरती पर न होने के कारण हट नहीं पा रहा था। उस जले हुए हाथ ने उसे कंधे से पकड़ लिया। अक्षत को ऐसा लगा जैसे किसी ने जलते हुए अंगारे उसके कंधे पर पलट दिए हों। वह जलन से चीख उठा। उस स्त्री ने उसे कंधे से पकड़कर जोर से नीचे पटका लेकिन दहशत के मारे जमीन पर गिरने से पहले ही बेहोश हो चुका था।

***


अक्षत को दूर से कुछ आवाजें आ रही थीं, शायद कोई उसे पुकार रहा था,

"अरे भाई साहब होश में आइए, होश में आइए भाई..ओ भाई साहब!!" 

कोई अन्य व्यक्ति कह रहा था कि "अरे पानी डालो भई कोई उन मैडम को भी होश में लाओ!"

तभी एक और आवाज आई..

"मैं पुलिस को फोन करता हूँ..." उसे ये सब आवाजें बड़ी दूर से सुनाई पड़ रही थीं, वह आँखें खोलना चाहता था लेकिन खोल ही नहीं पा रहा था, उसके हाथ पैर भी नहीं हिल पा रहे थे, उसे महसूस हुआ मानो उसके चेहरे पर झुकी कोई खूबसूरत सी लड़की उसे एकटक देख रही थी, अजीब सी कशिश थी उसकी आँखों में। धीरे-धीरे वह चेहरा उसके जाने-पहचाने चेहरे में बदलने लगा.... 

"त...तुम" कहते हुए वह झटके से उठ बैठा।


सुबह का उजाला फैल चुका था। उसे कुछ लोगों ने घेर रखा था, वह अपनी गाड़ी में ड्राइविंग सीट पर और नियति उसके बगल वाली सीट पर ही बैठी थी लेकिन वह अब भी शायद बेहोश थी। वह आश्चर्य से गर्दन इधर-उधर घुमाकर देखने लगा। "म..मैं यहाँ कैसे..." वह बोला।

ये तो आपको ही पता होगा भाई साहब, हम लोग तो यहाँ से गुजर रहे थे तो आपकी गाड़ी रास्ते से उतरी देखकर मदद करने के इरादे से यहाँ रुक गए, पंद्रह-बीस मिनट से आप दोनों को उठाने की कोशिश कर रहे हैं पर!. खैर आप होश में तो आए मैडम तो अभी भी बेहोश हैं। एंबुलेंस आती ही होगी। 

पानी के छींटे मारकर नियति को भी होश  में लाया गया। होश में आते ही वह चीखकर  अक्षत से लिपट गई और फूट-फूटकर रोने लगी। अक्षत ने फोन करके होटल से गाड़ी मँगवाई और दोनों होटल पहुँचे। 


****

आधुनिक रूप से सुसज्जित कमरे में पहुँचकर भी अक्षत और नियति बुझे-बुझे से थे, अक्षत को रह-रहकर वही चेहरा याद आ रहा था, जो उसके ऊपर झुका हुआ था। "न..नहीं..ये मेरा वहम है..तुम यहाँ नहीं हो सकतीं।" वह अपने-आप से बड़बड़ाया। "बेबी! क्या तुम भी वही सोच रहे हो जो मैं सोच रही हूँ?" नियति बोली।

"तुम क्या सोच रही हो?" अक्षत बोला।

"यही कि हमने यहाँ आकर शायद गलती कर दी।" नियति बोली।

"नहीं, हमने कोई ग़लती नहीं की, ये सब हमारा वहम भी हो सकता है, या रास्ते में उस जगह कोई प्रॉब्लम हो भी, तो इसका ये मतलब नहीं कि हमारा फैसला गलत है।" अक्षत नियति के साथ-साथ खुद के मन को भी तसल्ली दे रहा था।

"लेकिन मुझे बहुत डर लग रहा है।" कहते हुए नियति अक्षत के पास सिमट आई। 

"डरो मत, चलो हम फ्रैश होकर नीचे कैफेटेरिया में चलते हैं तो तुम्हारा मन भी बहल जाएगा।" अक्षत ने कहा। 

"हूँ मैं कपड़े निकालती हूँ तब तक तुम नहा लो।" कहकर नियति बैग खोलने लगी और अक्षत बाथरूम में चला गया। 

थोड़ी ही देर में उसने बाथरूम का दरवाजा थोड़ा सा खोलकर, आवाज लगाकर नियति से कपड़े माँगे। नियति उसे कपड़े देने लगी तो शरारत भरी मुस्कान तैर गई अक्षत के होंठों पर, उसने कपड़े पकड़ने की बजाय उसका हाथ पकड़कर अंदर खींच लिया, एक जला हुआ वीभत्स चेहरा हँसते हुए उसके सामने था। वह चीखकर पीछे हटा लेकिन तब तक नियति उसके ऊपर आ पड़ी। वह डर के मारे उसकी ओर देख ही नहीं रहा था और उसके चीखने से हैरान नियति उसे इस प्रकार डरते देखकर हँस पड़ी। 

"तुम...तुम जाओ यहाँ से?" अक्षत उसकी ओर देखे बिना बोला।

"क्यों रोमांस नहीं करोगे? पहले तो खुद ही खींचा और अब ऐसे डर रहे हो जैसे मैं कोई भूत हूँ!" नियति हँसते हुए बोली। 

उसने अक्षत का कंधा पकड़कर अपनी ओर घुमाया और उसे तौलिया देते हुए बोली- "जल्दी से बाहर आ जाओ मुझे भी नहाना है। कहकर वह बाहर आ गई। डर से अक्षत के पैर काँप रहे थे, उसने जल्दी-जल्दी कपड़े पहने और बाथरूम से बाहर आ गया। 

नियति नहाकर जब बाहर आई तो देखा कि वह नाश्ता कमरे में ही मँगवा चुका था। 

"हम तो कैफेटेरिया जा रहे थे न! फिर ये सब यहाँ क्यों मँगवाया?" उसने पूछा।

"बहुत थक गया हूँ जान, अभी नाश्ता करके आराम कर लेते हैं, बाद में जाएँगे बाहर।" कहकर उसने नियति को वहीं बैठा लिया और नाश्ता करने लगा। हमेशा रोमांटिक मूड में रहने वाला अक्षत आज बिल्कुल बदला-बदला सा लग रहा था। वह नियति की ओर देख भी नहीं रहा था। रात की बात से परेशान है, यही सोचकर नियति बिना कुछ बोले नाश्ता करने लगी। 

****

अक्षत और नियति होटल के पीछे उस हरे-भरे पार्क नुमा जगह पर थे जहाँ से नीचे जाती हुई रंग-बिरंगे जंगली फूलों से भरी, दूर तक फैली हुई खाई थी और खाई के उस पार पहाड़ों के पीछे छिपते हुए सूरज की लाली से सिंदूरी होती पहाड़ी चोटियों की सुंदरता बरबस ही लोगों को अपनी ओर आकृष्ट कर रही थी। नियति का हाथ पकड़े अक्षत एक बेंच पर बैठा पहाड़ी की ओर एकटक देखते हुए कहीं खोया था, अचानक उसके कान के पास सरसराहट सी हुई, वह चौंक कर उस ओर देखने लगा..

"मैं यहीं हूँ.." उसके कान में किसी ने फुसफुसाकर कहा।

"क..कौन हो..?" वह घबराकर खड़ा हो गया और अपने चारों ओर देखने लगा। नियति उसे हैरानी से देख रही थी।

अक्षत को अपने सामने चार-पाँच मीटर की दूरी पर सफेद साड़ी में लिपटी एक लड़की दिखाई दी, जो उसे देखकर मुस्कुरा रही थी। उसके लंबे खुले हुए बाल कमर से नीचे तक लटक रहे थे। वह बेहद सुंदर लग रही थी लेकिन अक्षत को जिस तरह देख रही थी उससे उसके पूरे शरीर में मानों चींटियाँ सी रेंग गईं, वह इस ठंडे मौसम में भी पसीने से भीग गया। 

"आओ...मेरे पास आओ.। अक्षत को दूर खड़ी उस लड़की की आवाज अपने कानों में सरसराती हुई सी सुनाई दी। वह अपनी जगह निश्चेष्ट सा खड़ा रहा तभी उस लड़की का हाथ उसकी ओर बढ़ने लगा और धीरे-धीरे रबड़ की तरह बढ़ते हुए उसके बेहद करीब आ गया। वह वहाँ से भाग जाना चाहता था, लेकिन जैसे ही पीछे मुड़ा उसके सामने वही लंबे बालों वाली लड़की धू-धू कर जल रही थी...

"नहीं...बचाओ..कोई बचाओ उसे.." वह चीखने लगा।

अचानक आग बुझ गई और उस लड़की का तन कहीं-कहीं से दहकता हुआ कोयला बन गया जिसमें से चिंगारी उड़ रही थी और कहीं-कहीं मांस पिघलकर टपक रहा था। बाल अब भी धू-धू करके जल रहे थे। उसने अपने जलकर पिघलते हुए हाथ अक्षत की ओर बढ़ा दिए...

"नहीं.. नहीं..दूर रहो म..मुझसे..दूर..दूर रहो.." कहते हुए वह पीछे खिसकने लगा।

"आओ...आ जाओ..क्या तुम अब मुझे प्यार नहीं करते.. देखो..मैंने तुम्हारे लिए..अपनी दुनिया जला डाली..मेरे..बच्चे..हमारे प्यार की भेंट चढ़ गए, आ जाओ...हम तीनों तुम्हारा इंतज़ार कर रहे हैं.." कहती हुई वह लड़की उसकी ओर बढ़ रही थी..


"न.. नहीं..तुम..तुम जाओ..बच.. बचाओ..!" कहते हुए वह पीछे खिसक रहा था।


"बेबी रुको, क्या हो गया है तुम्हें? यहाँ कोई नहीं है.. प्लीज़ रुको!" कहते हुए नियति उसकी ओर दौड़ी। वहाँ शाम का नजारा देखने आए सभी पर्यटक उसे हैरानी से देख रहे थे, उनमें से किसी को भी अक्षत के आसपास कोई दिखाई नहीं दे रहा था। 

नियति ने दौड़कर उसको पकड़ना चाहा पर उसे जोर का झटका लगा जैसे किसी ने उसे धक्का दिया हो, वह दूर जा गिरी। 

वह जलकर पिघलता हुआ हाथ अक्षत की गर्दन तक पहुँच गया, जैसे ही उसने उसके कंधे पर हाथ रखा पिघला हुआ मांस उसके कंधे पर फैल गया और उसमें से मांस जलने की दुर्गंध उसके नथुनों में भर गई। वह माँस फैलते हुए उसके पूरे शरीर को ढकने लगा, वह चीखने लगा, चीखते हुए वह पीछे खाई की ओर तेजी से खिसकने लगा। पागलों की तरह अपने शरीर पर बहते माँस को अपने दोनों हाथों से पोंछ रहा था, लेकिन वह तो बढ़ता ही जा रहा था। पीछे खिसकते हुए वह खाई में गिरने ही वाला था, तभी किसी ने उसका हाथ पकड़ कर खींच लिया। 

"क्या हो गया है आपको, आप किससे डर रहे हैं?" उसे बचाने वाले व्यक्ति ने पूछा। वह बदहवास-सा अपने चारों ओर देख रहा था, वह जली हुई लड़की वहाँ नहीं थी, फिर उसने महसूस किया कि जलने की दुर्गंध भी नहीं आ रही तो वह जल्दी-जल्दी अपनी कमीज, अपने कंधे और पैर सब देखने लगा पर सब कुछ सामान्य था कहीं कुछ भी वैसा नहीं था जो अभी उसने देखा था। नियति उसके सामने खड़ी रोते हुए उसे देख रही थी। 


"थैंक्यू.. थैंक्यू सर आपने इन्हें बचा लिया।" उसने उस व्यक्ति के सामने हाथ जोड़ दिए।  

"कोई बात नहीं, रात हो चुकी है आप इन्हें ले जाइए, इन्हें आराम की जरूरत है।" कहकर वह व्यक्ति अपने बच्चों के पास चला गया। 

कमरे में आकर नियति ने उसे बैठने के लिए कहकर कॉल करके कॉफी और कुछ खाने के लिए मँगवाया। 

थोड़ी देर में दरवाजे की बेल बजी, नियति वॉशरूम में थी तो अक्षत ने उठकर दरवाजा खोला। कॉफी और स्नैक्स ट्रॉली में रखे स्टाफ का लड़का अंदर आया। वह कॉफी मेज पर रखते हुए अक्षत ओर देखते हुए मुस्कुरा रहा था, उसकी ओर देखते ही अक्षत को उसकी आँखें जानी-पहचानी सी लगीं लेकिन उसकी मुस्कान देखकर उसके अंदर तक कंपकंपी दौड़ गई।

"पहचाना...?" लड़की की आवाज गूँज उठी।

वह झटके से खड़ा हो गया, वह लड़का एकदम से लड़की में बदल गया। 

"क्या हुआ...इतनी जल्दी भूल गए...? उसने सरसराती हुई आवाज में कहा।

उसे देखते ही वह पसीने से नहा गया, उसके हाथ-पैर काँपने लगे, लड़की का अधजला चेहरा बहुत ही भयावह लग रहा था।

उसने अक्षत की गर्दन पकड़ी और ऊपर उठाते हुए बोली- "मुझे मारकर तुम खुश नहीं रह सकते अश्विन, तुम्हें भी हमारे पास आना ही होगा...!"

उसकी चीख सुनकर नियति बाहर आई, अक्षत का सिर छत से छू रहा था वह हवा में लटका हुआ चीख रहा था, उसकी नाक से खून बह रहा था और जोर-जोर से पैर झटक रहा था। उसकी हालत देखकर नियति चीखते हुए बाहर भागी। अगले ही पल कमरे में होटल स्टाफ के कुछ लोग और पास के कमरे में रहने वाले लोग भी मौजूद थे। 

सभी उसको ऐसे छत से चिपके देख हैरान थे, अचानक वह जोर से दीवार से जा टकराया, उसका चेहरा लहूलुहान हो गया। नियति दौड़कर उसके आगे आ गई और हाथ जोड़कर घुटनों पर बैठते हुए गिड़गिड़ा पड़ी, "म..मैं नहीं जानती तुम कौन हो, देख भी नहीं सकती, लेकिन प्लीज इसे छोड़ दो.." 

"छोड़ दूँ!! इसने छोड़ा मुझे? तुझे भी नहीं छोड़ेगा..." एक फुँफकारती हुई आवाज कमरे में गूँज उठी। वहाँ खड़े सभी ने वह आवाज सुनी और आश्चर्य से इधर-उधर देखने लगे।

"अरु..मुझे माफ़..कर दो..मैंने तुम्हारी..जान ली..मुझे माफ़.." अक्षत गिड़गिड़ाते हुए कहा रहा था। 

"माफ़?? तेरे माफी माँगने से मेरे बच्चे वापस आ जाएँगे...? मेरा टूटा विश्वास जुड़ जाएगा..?? मेरा परिवार..मेरी जिंदगी..मेरी इज्जत, मेरा आत्म सम्मान..ये सब वापस मिल जाएगा..? बोल अश्विन!! बता सबको..बता कि तू अक्षत नहीं अश्विन है..अपराधी है..!!" गुर्राती हुई आवाज गूँजी कमरे में।


ह..हाँ मैं..मैं अश्विन हूँ..अक्षत नहीं..मैंने अपनी पत्नी और बच्चों को मरने के लिए मजबूर किया..मैं..मैं नियति को भी कुछ दिनों बाद... छोड़ देने वाला था..मैंने अपनी...पत्नी को...बच्चों को जल..कर मरने के.. लिए मजबूर किया..।" कहते हुए अश्विन बेहोश हो गया। 

वहाँ मौजूद सभी लोग हक्का-बक्का से एक-दूसरे का चेहरा देख रहे थे। 

"अश्विन!!!" नियति होंठों ही होंठों में बुदबुदाई और बेसुध-सी बैठी शून्य में न जाने क्या देख रही थी।

अक्षत को अस्पताल ले जाया गया और वहाँ से उसे पुलिस गिरफ्तार करके ले गई। नियति के पिता उसे वापस अपने साथ ले गए।


मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

मंगलवार

अधूरी कसमें (कहानी संग्रह) की समीक्षा

 “मैं दूसरी बिंदू नहीं बन सकती, इसलिए जा रही हूँ” -मालती मिश्रा



(पुस्तक समीक्षा)

अधूरी कसमें- मालती मिश्रा (9891616087)                    

ISBN No. : 978-81-909863-0-4                        

प्रकाशक :  नारायणी साहित्य अकादमी                     

संस्करण :  2020                           


यह वर्तमान समय की माँग है अथवा विकसित या विकासशील दृष्टिकोण की पहचान, जिसके चलते सृजनशील व्यक्तित्व का धनी व्यक्ति अपनी सृजनशीलता के माध्यम से बहुआयामी जीवन को दर्शाता है। वह जीवन को एकपक्षीय अथवा एकांगी दृष्टिकोण से नहीं देखता। यदि देखता भी है तो कमोबेश अन्य पक्ष तो वह दर्शाता ही है। कुछ ऐसे ही सृजनशील व्यक्तित्व की धनी हैं मालती मिश्रा। जो बहुत कुछ को एक साथ लेकर चलना पसंद करती हैं। साथ ही अपनी सृजनात्मकता को लेकर उनका मानना है कि “मेरी लेखनी अभी अपरिपक्व है, इसे परिपक्व बनाने और इसे धार देने का प्रयास कर रही हूँ।” यह सोच ही उन्हें निरंतर आगे बढ़ा रही हैं, क्योंकि परिपक्वता जैसी स्थिति मानव जीवन में शायद हो ही नहीं सकती। कितना कुछ जानने एवं समझने के पश्चात् भी बहुत कुछ ऐसा होता है जो अबूझ ही रहता है। प्रवीणता की कोई सीमा नहीं होती, वह असीम है। हर अवस्था में सीखने के लिए कुछ न कुछ शेष रहता ही है। 

इस कहानी संग्रह में संग्रहित 13 कहानियाँ 141 पृष्ठों में फैली हुई हैं। इनमें से पाँच कहानियाँ जैसे आंदोलन, निशि, आखिरी रास्ता, आखिरी इम्तहान एवं लीला भाभी मात्र 17 पृष्ठ ही घेरती हैं। शेष आठ कहानियाँ 124 पृष्ठों का विस्तार लिए हुए हैं। इन्हें आठ नहीं बल्कि सात कहानियाँ कहना ही उचित होगा क्योंकि प्रथम एवं अंतिम कहानी के रूप में अधूरी कसमें ही दो भागों में रखी गई है। इन सात कहानियों का कलेवर अधिक विस्तृत होने पर भी पाठकों की रूचि को बनाए रखता है। पाठकों को बाँधे रखने में सफल है। इसे देख यह भाव मन में अनायास ही घर कर जाता है कि कहानीकार आगे उपन्यास-सृजन की दिशा में अवश्य अग्रसर होगी। 

    कहानी विधा की सभी विशेषताएँ तो इन कहानियों में हैं ही, साथ ही और भी कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जिन पर चर्चा अपेक्षित है। प्रथम तो ये किसी कहानी आन्दोलन अथवा किसी तथाकथित मानक विचारधारा को लेकर नहीं चलतीं। जीवन को जैसा है वैसा ही देखती हैं उस पर अपने या किसी अन्य दृष्टिकोण का आवरण नहीं चढ़ातीं। कहानी को अपनी ओर से कोई मोड़ देना यहाँ जरूरी नहीं समझा गया। इस दृष्टि से कहानी के पात्र ही नहीं कहानी भी स्वयं अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखती है। 

    प्रेम जैसे अमिट, अमर भाव को लेकर कहानीकार ने अधूरी कसमें, वो खाली बेंच, वो कौन थी, सवालों की परिधि जैसी कहानियाँ लिखीं। इन कहानियों के पात्र परिस्थितियों के हाथों विवश भले ही हों किंतु प्रेम भाव को तो उत्कर्ष पर ले ही जाते हैं। इसे ऐसे भी कहा जा सकता हैं कि वे प्रेम करते नहीं बल्कि प्रेम को जीते हैं। अधूरी कसमें के अपरा एवं नीलेश, वो खाली बेंच कहानी का समरकांत, वह कौन थी की पंखी, सवालों की परिधि के किशोर एवं आस्था आदि पात्र हर स्थिति में प्यार को जीते हैं, साथी के साथ न होने पर भी वे इस प्रेम-पुष्प को कुम्हलाने नहीं देते। इनमें भी पंखी तो अनूठी है। जो प्राण जाने के पश्चात् भी इस भाव को जीवित रखती है। 

कहानीकार का सौंदर्यबोध भी गजब का है। वर्तमान समय में जहाँ सौंदर्य बाहरी या कास्मेटिक्स, पाउडर एवं क्रीम आदि के बिना अधूरा लगता है वहीं इन कहानियों में सौंदर्य पूर्णतः नैसर्गिक रूप में उभरा है। स्त्री की देहयाष्टि एवं अंगों से उत्पन्न सौंदर्य, उसके रंग से उत्पन्न सौंदर्य एवं उसके सामान्य पहनावे एवं भाव-भंगिमाओं से उत्पन्न सौंदर्य का वैविध्य यहाँ देखा जा सकता है। रंगों के मिश्रण एवं संयोजन से उत्पन्न सौंदर्य को भी वे सफलतापूर्वक दर्शाती है। प्राकृतिक सौंदर्य भी विशेष रूप से सूर्य के अस्तांचलगामी सिन्दूरी रूप को भी दर्शाने का कोई अवसर वे हाथ से जाने नहीं देतीं। 

मेहमान एक रात की, चुनाव, आंदोलन, आखिरी रास्ता, आखिरी इम्तहान, लीला भाभी एवं बाल विवाह समस्या प्रधान कहानियाँ है। सामान्य से लेकर जीवन की विशेष समस्याओं को यहाँ अच्छे से उठाया गया है। चुनाव कहानी आजादी के बाद से चले आ रहे राजनैतिक परिदृश्य को इस एक वाक्य में सफलता पूर्वक दर्शा जाती है। “अब भइया कोई कितनो हाथ-पाँव मार ले, जीत तो बलवंत चौधरी की होयगी अरे जब से हम होश संभाले हैं न... तब से किसी अउर को तो देखा ही नहीं गाँव का परधान। पहले उसके दादा परधान थे, फिर उनके बाप भए अउर उनके बाद फिर बलवंत चौधरी।” भारतीय राजनीती में फल-फूलकर वटवृक्ष बन चुके वंशवाद को यहाँ दर्शाया गया है। किंतु भारतीय विशेषकर ग्रामीण मतदाताओं के दृष्टिकोण में आ रहे परिवर्तन की ओर भी इसी कहानी की यह पंक्ति इशारा करती है “भइया तुम ई बात तो ठीक कर रहे हो कि आस-पास के अउर गाँव की तरक्की हमारे गाँव से ज्यादा भई है”। अर्थात् वोट अब विकास के नाम पर भी पड़ेंगे।  

स्त्री शिक्षा को लेकर भी कहानीकार सजग है। इसी कहानी का एक पात्र कहता है “चुपकर बेवकूफ! आज के जमाने में भी लड़कियों को अनपढ़ रखने की वकालत कर रहा है”। रामधनी क्रोध में बिफऱ पड़ा”। इसी प्रकार बाल विवाह कहानी भी अपने आप में बेजोड़ है। स्त्री की बदली सोच, एवं एक प्रकार से उसे पूर्ण व्यावहारिक होते हुए यहाँ दर्शाया गया है। वह समस्या को लेकर परेशान होने, रोने-बिलखने तक ही स्वयं को सीमित न रखकर उसका समाधान करने की दिशा में भी अग्रसर है एवं समाधान को धरातल पर लाने में भी सफल होती है। इसे इस पंक्ति के माध्यम से जाना जा सकता है “मैं दूसरी बिंदू नहीं बन सकती, इसलिए जा रही हूँ”। पढ़ी-लिखी पत्नी के होने पर पति में उपजी कुण्ठा आदि भी यहाँ दिखती है। 

स्त्री से जुड़ी अन्य महत्वपूर्ण समस्याओं को भी यह कहानी सफलतापूर्वक दर्शाती है। परिवार में जहाँ एक ओर बहू के लिए घूँघट की अनिवार्यता आज भी कुछ क्षेत्रों में कमोबेश बनी हुई है वही उसे शौचालय के लिए बाहर खुले में ही जाना पड़ता है। इस समस्या के अन्य पक्षों की ओर भी यह कहानी संकेत कर जाती है। 

अपने परिवेश से पूर्णतः संबद्ध कहानीकार वर्तमान को साथ लेकर चलती हैं। विकृत राजनीति से प्रेरित घटनाक्रम से स्वयं को अछूता नहीं रखतीं। आन्दोलन कहानी तथाकथित किसान आन्दोलन की पोल खोल कर रख देती है। जब उसका प्रमुख पात्र कहता है “हम बर्बाद होई गए हरि की माँ, ई किसान आन्दोलन ही हम किसानों के जान की दुश्मन हो गई, अरे हमें का लेना देना ई सबसे लेकिन नहीं, ई नेता लोगन अपने-अपने गुण्डा छोड़ रक्खे हैं, जबरजस्ती हम लोगन के सब्जी, फल सब छीन के सड़क पर फेंक रहे हैं, और हमें धमका के मारपीट के भेज दिये।" हरखू कहते-कहते बिलख कर रोने लगा। उसे अपनी सारी जरूरतें और सपने किसान आन्दोलन की भेंट चढ़ते दिखाई दे रहे थे। भाषा-शैली को लेकर भी कहानीकार पूर्णतः सजग है। भाषा का प्रवाहमान एवं पात्रानुकूल रूप यहाँ देखने को मिलता है। 

अंततः यह कहा जा सकता है कि जो पाठक जीवन के विविध आयामों को एक साथ देखना पसंद करते हैं, वर्तमान परिवेश को गहराई से जानना चाहते हैं, सौंदर्य को वास्तविक रूप में देखना जिनकी प्राथमिकता है उन्हें आगे आकर इस ‘अधूरी कसमें’ कहानी संग्रह को हाथों-हाथ लेकर कहानीकार को आगे भी सृजन जारी रखने के लिए प्रेरित करना चाहिए।  


समीक्षक

डॉ. पवन कुमार पाण्डे

असिस्टेंट प्रोफेसर ऑफ हिन्दी

गवर्नमेंट डिग्री कॉलेज भैंसा, निर्मल

पता H.No. 7-1-372

Godown road Nizamabad

Telangana state

Pin code 503001

9848781540

pandeypavan67@gmail.com

रविवार

संस्कारों का पतन नहीं है फेमिनिज्म

 कहानी- *संस्कारों का पतन नहीं है फेमिनिज़्म*

गाड़ी धीरे-धीरे सरकते हुए प्लेटफार्म पर रुक गई। सभी यात्री जल्दी-जल्दी अपने भारी-भरकम लगेज़ के साथ एक-दूसरे को धकियाते हुए उतरने लगे। वह सबके पीछे-पीछे चलती हुई कंपार्टमेंट के दरवाजे तक आई और प्लेटफ़ॉर्म की भीड़ देखकर मन ही मन घबराने लगी। यहाँ एक प्लेटफार्म पर भीड़ में इतने लोग थे, जितने कि उसके पूरे गाँव में नहीं होंगे। 

'क्या वह यहाँ के इस भाग-दौड़ भरे वातावरण में सामंजस्य बैठा पाएगी?? कहीं यहाँ की भीड़ में उसके सपने दम तो नहीं तोड़ देंगे?? आखिर वह है ही क्या.….गाँव की एक मामूली लड़की! जो शहर के रहन-सहन से सर्वथा अनभिज्ञ थी।' 


ऐसे ही न जाने कितने प्रश्नों के जाल में उलझी हुई वह गाड़ी से उतरी। एक छोटे से गाँव से आँखों में बड़े-बड़े सपने लिए हुए वह इस महानगर में आई और डरी-सहमी सी उसने प्लेटफार्म पर कदम रखा। 

गाँव का एक युवक मनीष यहाँ रहता था, बाबा ने उसकी मदद से कॉलेज में अपनी अपनी इकलौती बिटिया मालविका का एडमिशन करवा दिया था। मालविका के डॉक्टर बनने का सपना बाबा ने अपनी जिंदगी का मकसद बना लिया था। आखिर उसके अलावा माँ-बाबा का और कोई था भी नहीं, वही उनकी बेटी और बेटा दोनों है और उनके बुढ़ापे की लाठी भी। उसे शहर के बड़े कॉलेज में एडमिशन दिलवाने, हॉस्टल, अच्छे कपड़े और पुस्तकों आदि का भारी-भरकम खर्च उठाना बाबा के वश की बात न थी, लेकिन उनकी बिटिया शहर में हीन भावना से ग्रस्त न हो इसके लिए उन्होंने एक बीघा खेत बेच दिया और उससे मिले पैसों से सारी व्यवस्था किया। 


"हे मालविका डर तो नहीं लग रहा?" 

मनीष ने उसका बैग लेते हुए कहा।


"न.. नहीं, मतलब..थोड़ी घबराहट तो हो..रही है!" उसने थूक सटककर गला तर करने की नाकाम कोशिश करते हुए कहा।

उसकी मनोस्थिति जानकर मनीष ने उसे पानी पिलाया और उसे अपने फ्लैट पर ले गया।


"बाबा ने कहा था कि तुम हॉस्टल में मेरे रहने की व्यवस्था कर दोगे!" उसने हिचकिचाते हुए कहा।


"वो सब हो जाएगा, पहले मैं तुम्हें अपने दोस्तों से मिलवाता हूँ" 

मनीष ने सिगरेट का लंबा कश लेते हुए कहा।


"छि: तुम सिगरेट पीते हो? गाँव में तो कभी नहीं देखा पीते हुए।" मालविका बुरा सा मुँह बनाते हुए बोली।


"जैसा देश वैसा भेष, सुना है न! ये हमें बहुत कूल बनाता है। छोड़ो तुम नहीं समझोगी।" मनीष ने कंधे उचकाकर कहा। 


कुछ देर बाद दोनों एक फ्लैट के दरवाजे पर खड़े थे। 

दरवाजा खोलने वाली लड़की को देखकर मालविका हैरान रह गई, उसकी नजरें शर्म से जमीन में ऐसे गड़ीं कि चाहकर भी किसी की ओर देख नहीं पा रही थी। वह लड़की माइक्रो मिनी स्कर्ट और छोटा सा टॉप पहने हुए थी। कमरे में उसी के जैसी और भी दो लड़कियाँ और दो लड़के थे। उनका पहनावा भी उसे बेहूदा लग रहा था। लेकिन वे सभी तथाकथित अमीर घरों के लड़के-लड़कियाँ थे और उनका मित्र बनना मनीष के लिए सौभाग्य की बात थी। 


मालविका कॉलेज में हॉस्टल में हर जगह अन्य छात्र-छात्राओं की नजरों में अपने लिए उपेक्षा देखती तो मन ही मन अपने ग्रामीण अंचल से होने को कोसने लगी। 

मनीष और उसके साथियों ने उसे समझाना शुरु किया कि यदि वह चाहे तो सबकी नजर में सम्मान पा सकती है। इसके लिए उसे अपने विचारों को भी बड़ा करना होगा और जैसा कि रेलवे स्टेशन पर ही मनीष ने कहा था कि 'जैसा देश वैसा भेष' उसको भी अपनी वेशभूषा में परिवर्तन लाना आवश्यक था। लीज़ा और माया, हैरी यानि हरीश), सैम यानि समर और मनी यानि मनीष यही सब उसके दोस्त बने। 


"देख मालविका, तेरे जैसी लड़कयाँ पूरे कपड़ों में अपनी मर्यादा को लपेटे और कांधों पर संस्कारों का बोझ लिए माता-पिता और खानदान के मान-सम्मान का बोझ सिर पर लादे चलती हैं, इसलिए न कभी नजरें उठा पाती हैं न सिर, सिर झुकाकर हमेशा पुरुषों के पीछे-पीछे चलने की आदत होती है और फिर कहती हैं कि हमें बराबरी का अधिकार नहीं मिलता। इतने पिछड़े विचारों के साथ कोई आगे कैसे बढ़ सकता है और जो स्वयं पिछड़ा हो वो समाज में विकास की क्रांति लाना तो छोड़ो अपना विकास भी कैसे कर सकता है। इसलिए अपने संकुचित विचारों को विस्तार की उड़ान देनी आवश्यक है।"


बार-बार हर छोटी- छोटी बात या घटना पर समझाने का परिणाम यह निकला कि समय के साथ चलते हुए सभी के साथ तालमेल बिठाने के लिए उसने भी बड़ा नाम बनाने के लिए अपने नाम के अक्षरों को कम कर दिया और मालविका से मिली बन गई। 

विचारों का दायरा बढ़ाने के लिए वस्त्रों के दायरे सिमटने लगे, कक्षा में, कॉलेज प्रांगण में, हॉस्टल में लोगों की नजरों में सम्मान पाने के लिए अपनी नजरों की शर्म और अपने माता-पिता के मान का ख्वाब छूट गया। कोई उसकी हँसी न उड़ाए इसलिए उसने सिगरेट का धुआँ उड़ाना शुरू कर दिया और जब इतना सब भी कम पड़ने लगा तो उस कमी को पूरा करने के लिए दोस्तों के साथ पैग भी बनने लगे। 


वहाँ गाँव में बाबा खेत बेच-बेचकर बिटिया रानी के लिए पैसे भेजते और बिटिया रानी बेब्स बनकर बाबा के अरमानों को फेमिनिज्म का अर्थ समझे बिना ही फेमिनिज्म की आग में झोंकती रही। 

अब वह गाँव की भोली-भाली मालविका नहीं बल्कि तेज-तर्रार मिली थी। अब वह न तो सड़क पर चलते हुए ट्रैफिक से डरती थी न ही भीड़भाड़ में मनचलों के धक्का मारने से, बल्कि अब तो सड़क पर उसे किसी गाड़ी के सामने आने से भी डर नहीं लगता, वह जानती है कि गाड़ी वाला उसे मरने नहीं देगा, वह गाड़ी में ब्रेक मारेगा और फिर वह उसे मारेगी। 

क्या मजाल है जो कोई लड़का उसे धक्का मारे! बल्कि अब तो वही धकियाते हुए चलेगी और कोई कुछ बोला तो छेड़छाड़ का आरोप लगाकर हवालात की हवा और लात दोनों खिलवाएगी।

अब उसके लिए लड़का-लड़की में कोई अंतर नहीं रह गया था, अब वह बराबरी का झंडा लेकर जो चल रही थी। पढ़ने से अधिक ध्यान इस बात का रहता कि मार्केट में कौन सा नया ब्रांड आया है या कैंपस में फैशन अपडेट क्या है। गाँव में दिन-रात धूप-छाँव देखे बिना बाबा अपनी हड्डियाँ गला रहे थे कि एक दिन बिटिया बड़ी डॉक्टर बनकर आएगी तब उनकी कमरतोड़ मेहनत का प्रतिफल मिल जाएगा। उनके बिके हुए खेतों का संताप खत्म हो जाएगा। 


उनका इंतजार पूरा हुआ लेकिन कुछ अलग ही कलेवर में.. 

एक दिन मनीष के बाबा ने आकर बताया कि उनकी बेटी ने किसी रईसजादे को बलात्कार के आरोप में गिरफ्तार करवा दिया है। बाबा के पैरों तले से मानो किसी ने धरती खींच ली हो, उनकी बेटी के साथ ये क्या हो गया.... पहले से ही बीमार चल रही माँ रो-रोकर अस्पताल पहुँच गई। जैसे-तैसे कर्जा लेकर बाबा शहर पहुँचे तो बेटी के रंग-ढंग देखकर उनकी लाठी भी उनके शरीर का बोझ नहीं उठा पाई। मिली और उसके दोस्तों ने उन्हें संभाला और उन्हें उस कमरे में ले गए जिसमें से अभी-अभी शराब-सिगरेट और अंत:वस्त्रों को ठिकाने लगाकर उनकी गंध मिटाने के लिए रूम फ्रेशनर का स्प्रे किया गया था। 


बाबा अब अपनी बेटी को घर ले जाना चाहते थे, वह जानते थे कि उस बलात्कारी रईसजादे से मुकदमा लड़ना उनके बूते की बात नहीं लेकिन मिली ने उन्हें अपनी मजबूती का ज्ञान कराया और समझा-बुझाकर उन्हें वापस भेज दिया। गाँव में भी न्यूज़ चैनलों पर और सोशल मीडिया पर लोगों ने मालविका को मिली बनी हुई देखा था, इसलिए बाबा के लिए उनकी सांत्वना भरी आँखों में कुछ और भी होता था जिसे बाबा बर्दाश्त नहीं कर पाते थे और धीरे-धीरे पति-पत्नी का घर से निकलना लगभग बंद ही हो गया।


अचानक एक दिन सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हो गया जिसमें मिली अपने दोस्तों के सामने टशन मार रही थी कि उसने बदला लेने के लिए उस रईसजादे पर झूठा आरोप लगाकर उसे अच्छा सबक सिखाया। अब कोई उसको हल्के में नहीं लेगा। वीडियो गाँव के कुछ युवकों ने देखा और फिर यह बात जंगल के आग की तरह आसपास के गाँवों में भी फ़ैल गई। 

दूसरे दिन मिली के पास फोन आया कि माँ-बाबा ने फाँसी लगाकर उसके सपने के हवन कुंड में अपने प्राणों की आहुति दे दी। वह लड़खड़ाकर वहीं धम्म से बैठ गई। 

कुछ देर बाद गाँव जाने के लिए माया उसके पुराने बैग में से वही कपड़े निकाल रही थी, जिन्हें लेकर मिली गाँव से शहर आई थी। 


"सोच ले मिली गाँव में तू लोगों का सामना कर पाएगी? वहाँ के लोग यहाँ तक कि पुलिस भी तेरा फेमिनिज्म नहीं समझेंगे, उन पर इसका कोई असर नहीं होगा। अभी भी समय है सोच ले..." मनीष बोला।


"अब समय रहा ही कहाँ मनीष, अब तो सब खत्म हो गया, काश! कि मैं आँखें खोलकर रखती और समझ पाती कि किसी शब्द का सही अर्थ जाने बिना मैं उसके पीछे ऐसे भागूँगी तो एक दिन समाज तो छोड़ो अपनी नज़र में ही नहीं उठ पाऊँगी। 

काश! मैंने सिर्फ अपने लक्ष्य पर ध्यान दिया होता, काश! मैं समझ पाई होती कि

नारीवाद पुरुष और महिला के बीच प्राकृतिक अंतर को मिटाने की बात नहीं करता, यह पुरुषों के दमन की बात भी नहीं करता। बल्कि यह सभी के बराबर सामाजिक अधिकारों की बात करता है न कि इसकी आड़ में किसी को नीचा दिखाने की। नारीवाद का अर्थ संस्कारों का पतन नहीं बल्कि संस्कारों और समाज के प्रति सभी के दायित्व निर्वहन की समान भागीदारी का होना है। काश! समय रहते अपने अधूरे ज्ञान को पूर्णता दे पाती, अधूरा ज्ञान अज्ञान से अधिक खतरनाक होता है। इस अधूरे ज्ञान ने ही फेमिनिज्म के चेहरे को भयावह कर दिया।"

मालती मिश्रा 'मयंती'



शुक्रवार

मकरसंक्रांति

 मकरसंक्रांति 




हमारे देश में मनाए जाने वाले सभी त्योहारों के पीछे न सिर्फ धार्मिक एवं पौराणिक मान्यताएँ होती हैं बल्कि इन सभी त्योहारों के पीछे सामाजिक, वैज्ञानिक, आयुर्वेदिक और स्वास्थ्य संबंधी कारण भी जुड़े होते हैं।

हम सभी इनके पीछे जुड़े कारणों की जानकारी के अभाव में इन्हें सिर्फ धर्म से जोड़ते हैं।

ऐसा ही पर्व है मकरसंक्रांति। मकरसंक्रांति हर वर्ष माघ माह में सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने पर मनाया जाता है। किसी विद्वान ने कहा है- 

‘‘माघ मकरगत रबि जब होई। 

तीर्थपतिहिं आव सब कोई।।’

अंग्रेजी तिथि के अनुसार यह हर वर्ष १४ जनवरी को आता है। जब सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण में आता हैं, तभी मकरसंक्रांति का पर्व मनाया जाता है। देवताओं के दिनों की गणना इसी दिन से आरंभ होती होती है। इस दिन को मोक्ष प्राप्ति का दिन भी माना जाता है। महाभारत कथा के अनुसार कुरुश्रेष्ठ भीष्म पितामह ने भी अपने प्राण त्यागने के लिए इसी दिन की प्रतीक्षा की थी ताकि उन्हें मोक्ष मिल सके। 

पौराणिक मान्यता के अनुसार सूर्य के उत्तरायण में प्रवेश करने के बाद ही गंगा जी अपने उद्गम स्थान से निकलकर भागीरथ का अनुसरण करते हुए कपिल मुनि के आश्रम से होते हुए सागर में जाकर मिली थीं, इसीलिए इस दिन गंगा स्नान का भी विशेष महत्व है।

मकरसंक्रांति के दिन प्रातःकाल निरोगी काया के लिए पवित्र नदियों मुख्यत: गंगा नदी में स्नान करके तन को स्वच्छ, पवित्र और निरोगी करने का प्रचलन है। कहीं-कहीं शरीर पर गुड़ और तिल का लेप/उबटन लगाकर स्नान करने की प्रथा है।कहते हैं कि तिल और गुड़ आयुर्वेदिक औषधि का कार्य करते हैं इससे शरीर निरोगी होता है। जो लोग किन्हीं कारणों से गंगा स्नान नहीं कर पाते वे घर में ही नहाने के पानी में गंगाजल और तिल डालकर स्नान करते हैं।

स्नान के पश्चात् सूर्यदेव की पूजा अर्चना करके सूर्यदेव को अर्घ्य दिया जाता है, अर्घ्य के लिए लोटे के जल में तिल, लाल पुष्प, अक्षत, सुपारी और लाल वस्त्र या कलावा डालते हैं। 

पूजा अर्चना के पश्चात् दान-पुण्य की प्रथा है।‌ अन्नदान को श्रेष्ठ दान माना जाता है तथा तिल और गुड़ के दान को पवित्र और पुण्य दायक माना जाता है, इसीलिए लोग कच्ची खिचड़ी, तिल, गुड़ और वस्त्रों का दान करते हैं।

तिल और गुड़ का इस पर्व में विशेष महत्व है, नहाने से पहले तिल गुड़ का उबटन लगाते हैं, नहाने के पानी में तिल डालते हैं, खाने में तिल के तेल का प्रयोग किया जाता है। तिल और गुड़ का आयुर्वेदिक महत्व भी है, गुड़ खाने से पाचन शक्ति में वृद्धि होती है, जिससे पेट संबंधी बीमारी से मुक्ति मिलती है। तिल त्वचा और पेट दोनों के लिए लाभदायक होने के साथ हड्डियों के लिए भी वरदान स्वरूप है। 

इसके साथ ही हवन में भी तिल और गुड़ की आहुति की परंपरा है।


इस पर्व को देश के अलग-अलग क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न नाम से भिन्न-भिन्न रूप में मनाया जाता है। उत्तर भारत में इस पर्व को मकरसंक्रांति तथा गुजरात में उत्तरायण के नाम से जाना जाता है। उत्तराखंड में इसे उत्तरायणी, गढ़वाल में खिचड़ी संक्रांति तथा असम में बिहू के नाम से जाना जाता है। केरल में यह त्योहार पोंगल के नाम से तीन दिवस तक बड़े ही धूमधाम और पारंपरिक रूप से मनाया जाता है। 


उत्तर प्रदेश के कुछ प्रांतों तथा बिहार में इस दिन नई फसल के चावल और दाल को मिलाकर खिचड़ी बनाया जाता है, देवताओं को खिचड़ी का भोग लगाया जाता है, कच्ची खिचड़ी का दान दिया जाता है तत्पश्चात् स्वयं खिचड़ी खाने की प्रथा है, इसलिए इस पर्व को खिचड़ी के नाम से जानते हैं। उत्तर भारत में इसे मकरसंक्रांति तथा गुजरात में उत्तरायण के नाम से जाना जाता है। 

पंजाब में इस पर्व को लोहड़ी के नाम से जाना जाता है तथा एक रात्रि पूर्व मनाया जाता है। वहाँ इस दिन से नव वर्ष का आरंभ माना जाता है तथा नई फसल की कटाई प्रारंभ करते हैं। नई फसल के प्रतीक स्वरूप मक्के के फूले, मूंगफली, गुड़ और तिल की रेवड़ियाँ आदि अग्नि देव को समर्पित करके नाच-गा कर धूमधाम से यह त्योहार मनाया जाता है।


सूर्य के दक्षिणायन से उत्तरायण में प्रवेश करने पर ऋतु में भी सकारात्मक परिवर्तन आता है। इसी दिन से प्रकाश में वृद्धि और तिमिर का ह्रास होता है अर्थात् दिन बड़े और रातें छोटी होने लगती हैं। सूर्य के उत्तरी गोलार्ध में प्रवेश के कारण उसके ताप में वृद्धि होने लगती है, फलस्वरूप सर्दी कम होने लगती है, जिसके कारण सर्दी से जकड़े हुए तन में स्फूर्ति जाग्रत होती है, आलस्य समाप्त होता है और क्रियाशीलता बढ़ने लगती है। 

मालती मिश्रा 'मयंती'


भारतीय पर्वों का महत्व

 पर्वों का महत्व 


मानव शरीर भी एक मशीन होता है, यह भी मशीनों की भाँति कार्य करता है किन्तु मशीन और मनुष्य में बहुत बड़ा अंतर होता है वह अंतर है- भावनाओं का, अहसासों का, सोचने-समझने, महसूस करने और निर्णय लेने की शक्ति का। मशीनों में ये गुण नहीं हुआ करते इसीलिए वे निर्जीव और मनुष्य सजीव होता है। 

अब यदि भावनाएँ हैं महसूस करने की शक्ति है तो वह निर्जीव मशीनरी की तरह अनवरत किसी कार्य को नहीं कर सकता, वह थकेगा भी और ऊबेगा भी, अपने शरीर और दिमाग को आराम देगा तभी उसकी कार्यक्षमता बरकरार रहेगी। वैसे तो आराम के अन्य कई तरीके हैं लेकिन समय-समय पर आने वाले पर्व-उत्सव मानव मन को एक विलक्षण ऊर्जा देकर जाते हैं, इसीलिए तो हमारे देश में पर्वों की संख्या इतनी अधिक है फिर भी हर पर्व को उसी नए जोश और उल्लास से मनाते हैं और ऐसा करके आगे के लिए भी नई ऊर्जा और स्फूर्ति से भर जाते हैं।‌ भारत देश में लगभग २००० पर्व मनाए जाते हैं और हर एक पर्व/त्योहार के पीछे धार्मिक, पौराणिक, सामाजिक मान्यता होने के साथ आयुर्वेदिक और वैज्ञानिक आधार भी होता है। प्रत्येक त्योहार आपसी सौहार्द्र का प्रतीक होता है और परोक्ष/अपरोक्ष रूप से इनके सकारात्मक प्रभाव ही देखे जाते हैं।

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️


रविवार

मनहरण घनाक्षरी


 माना हम डूब गए, दुख के भँवर बीच

आया नहीं कोई जो कि, हमको उबार ले।


सुख में सभी थे साथी, कुत्ते, बिल्ली, घोड़े हाथी,

दुख में अकेले फिरे, मन में गुबार ले।


कहाँ-कहाँ भटके हैं, कैसे बतलाएँ हम

हर पल व्याकुल कि, गलती सुधार लें।


संध्या-प्रात, दिवा-निशि, हरपल चाहा यही,

पकड़ के हाथ कोई, मुझको उबार ले।

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️