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सीमा के प्रहरी महाराज पुरु

 सीमा के प्रहरी 'महाराज पुरु'


भारत का इतिहास अपने कई ऐसे महान शासकों के गौरव से आलोकित रहा है, जिनके शौर्य और पराक्रम का लोहा पूरी दुनिया ने माना। ऐसे ही महान शासकों में एक नाम पुरुवंशी महाराज पुरुषोत्तम अर्थात् पुरु का लिया जाता है। जिन्हें यूनानी इतिहासकार पोरस कहते हैं।

महाराज पुरु का विशाल साम्राज्य पंजाब में झेलम से लेकर चेनाब नदी तक था, जिसकी राजधानी मौजूदा लाहौर के आस-पास थी। चारों ओर से नदियों से घिरा होने के कारण पौरव राज्य सुरक्षित तथा व्यापारिक दृष्टि से समृद्ध था। जिसके कारण इस राज्य की सामरिक स्थितियाँ अत्यधिक सुदृढ़ थीं। पुरु का कार्यकाल 340 ईसा पूर्व से 315 ईसा पूर्व के मध्य माना जाता है। 

महाराज पुरु ऐसे महान राजा थे, जो सिर्फ अपने राज्य की ही नहीं अपितु पूरे देश की सुरक्षा के लिए समर्पित थे। जिन्होंने अपनी कुशल रणनीति और पराक्रम से विश्वविजय का सपना लेकर निकले मकदूनिया के अभिमानी और क्रूर शासक सिकंदर की विजय यात्रा पर विराम लगाकर उसे वापस भागने पर विवश कर दिया।

विश्वविजय का लक्ष्य लेकर निकले सिकंदर का स्वागत पुरु से शत्रुता रखने वाले तक्षशिला के राजा आम्भीराज ने किया और पौरव राज्य पर आक्रमण करने में उसकी सहायता भी की। सम्राट पुरु को हराए बिना सिकंदर आगे नहीं बढ़ सकता था। वह उनकी वीरता और रणनीतिक कौशल के विषय में सुन चुका था। अत: संधि करना अधिक उचित जाना। इस कार्य की दुरुहता को जानकर वह स्वयं दूत बनकर पौरव राज्य के दरबार में पहुँच गया। 

महाराज पुरु की पारखी दृष्टि ने उसे पहचान कर भी दूत का पूरा सम्मान दिया। सिकंदर ने कहा- "सम्राट सिकंदर विश्वविजय के लिए निकले हैं और राजा-महाराजाओं के सिर पर पैर रखकर चल सकने में समर्थ हैं, वही सम्राट सिकंदर आपसे मित्रता करना चाहते हैं।" सिकंदर की बात सुनकर महाराज पुरु बोले- "राजदूत! हम पहले देश के पहरेदार हैं बाद में किसी के मित्र, और फिर देश के दुश्मनों से मित्रता कैसी! शत्रुओं से तो हम रणभूमि में तलवारें लड़ाना ही पसंद करते हैं।" यह सुनकर सिकंदर नि:शब्द हो गया।

महाराज पुरु ने उसे ससम्मान भोज के लिए आमंत्रित किया। उसकी थाली में सोना, चाँदी, हीरे, मोती आदि परोसा गया। यह देखकर सिकंदर विस्मित हो गया। महाराज पुरु बोले- "खाइए सिकंदर! इससे अधिक कीमती भोजन प्रस्तुत करने में हम असमर्थ हैं, सोने-चाँदी के प्रति आपकी भूख देखकर ही हमने आपके लिए यह कीमती भोजन बनवाया।" 

अपने पहचाने जाने पर सिकंदर बंदी बनाए जाने के डर से घबरा गया किन्तु महाराज पुरु ने उसे बिना कोई क्षति पहुँचाए ससम्मान उसकी सेना तक भिजवा दिया। 

महाराज पुरु अपने क्षेत्र की प्राकृतिक और भौगोलिक स्थिति तथा झेलम नदी की प्रकृति को भली-भाँति जानते थे, तदनुरूप वह झेलम के तट पर सिकंदर के स्वागत के लिए तत्पर थे।

छ: महीने के अवलोकन और आम्भीराज की सहायता से निरंतर प्रयास के पश्चात् सिकंदर अपनी सेना के साथ झेलम नदी को पार कर सका। नदी के दूसरी ओर अब उसका सामना एक ऐसे महावीर से था जो हार का स्वाद नहीं जानता था। देशभक्ति, पराक्रम और आत्मविश्वास जिसके प्रथम अस्त्र थे।


सिकंदर की सेना संख्या की दृष्टि से विशाल थी किन्तु राजा पुरु के कुशल नेतृत्व में उनकी सेना संख्या में कम होने के बाद भी अपार शक्तिशाली थी। महाराज पुरु जानते थे कि युद्ध हुआ तो अत्यधिक नरसंहार होना निश्चित है, इसलिए अनावश्यक नरसंहार को टालने हेतु उन्होंने सिकंदर को द्वंद्व युद्ध का निमंत्रण दिया ताकि बिना रक्तपात ही जय-पराजय का निर्णय हो जाए परंतु उनके इस वीरतापूर्ण चुनौती को सिकंदर ने स्वीकार नहीं किया।

युद्ध का विगुल फूँका जा चुका था। महाराज पुरु ने अपने प्रशिक्षित हाथियों की सेना को सिकंदर की सेना के सामने पहली पंक्ति में खड़ा कर दिया। सिकंदर का सामना इससे पहले कभी हस्तिसेना से नहीं हुआ था। अत: वह हाथियों के संगठन को देखकर हैरान था। 

सेना को महाविनाश का आदेश देकर राजा पुरु अपनी गज सेना के साथ यवनी सेना पर टूट पड़े। आदेश मिलते ही पोरस के सैनिकों और हाथियों ने जो विनाश मचाना शुरु किया कि सिकन्दर और उसके सैनिक बस देखते ही रह गए।

भीषण युद्ध के दौरान महाराज पोरस का अचूक भाला सिकंदर के अश्व बुकिफाइलस (संस्कृत-भवकपाली) को लगा और वह सिकंदर को लिए हुए वहीं धराशायी हो गया। यूनानी सेना ने ऐसा दृश्य अपने संपूर्ण युद्धकाल में नहीं देखा था। 

सिकंदर के धरती पर गिरते ही तीर की गति से महाराज पुरु हाथ में तलवार लिए हुए उसके सामने थे। प्रहार के लिए उठे उनके हाथ अपनी कलाई पर बंधे उस धागे को देखकर रुक गए जिसे युद्धक्षेत्र में सिकंदर की दुर्बल स्थिति को जानकर उसकी पत्नी ने उसके प्राणों की रक्षा के लिए महाराज पुरु को बाँधा था और उनसे उसके प्राण न लेने का वचन लिया था। सिकंदर की पत्नी को दिए वचन का पालन करते हुए उन्होंने उसे जीवनदान देकर छोड़ दिया। 

अपनी सेना के टूटे हुए मनोबल और विद्रोह की सुगबुगाहट को भाँप कर सिकन्दर ने वापस लौटने में ही अपनी भलाई समझा।

महाराज पुरु के पराक्रम के समक्ष उस क्रूर और महत्वाकांक्षी आक्रमणकारी को हार मानना पड़ा, जिसे ईरान, फारस जैसे कई शक्तिशाली राज्य भी रोक नहीं पाए। ऐसे वीर सपूतों के कारण ही हमारा देश सदैव गौरवान्वित रहा है।

मालती मिश्रा 'मयंती'

चित्र - साभार गूगल से


सूचना - मेरे द्वारा लिखी गई यह ऐतिहासिक कहानी हमारे देश के के लिए अपना सर्वस्व आहूत कर देने वाले इक्यावन गौरवशाली पूर्वजों को समर्पित पुस्तक 'इनसे हैं हम' में संकलित हैं, जिसे देश के इक्यावन साहित्यकारों से इतिहास के गर्भ से खोज कर निकाला है।  मेरी राय है कि इस पुस्तक को सभी को पढ़ना चाहिए ताकि हम और हमारी वर्तमान और आगामी पीढ़ी अब तक के भ्रमित करने वाले इतिहास की सच्चाई को पहचाने और सत्य से परिचित होकर अपने देश के महान विभूतियों को सम्मान दे सके।

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️




2 टिप्‍पणियां:

  1. बेनामी06 फ़रवरी, 2023

    इतिहास की बहुत सी सच्चाई ऐसी हैं जिनसे लोग परिचित नहीं हैं। आज तक बच्चे गलत इतिहास ही पढ़ते रहे हैं। उन तक सच्चाई पहुँचाने के लिए इस पुस्तक को पढ़ना जरूरी है। मैंने भी इस पुस्तक में प्रथम आदिवासी क्रान्तिकारी तिलका माँझी के बारे में लिखा है।

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