सुनो-गुनो-फिर बुनो
दीपक ने आते ही खुशी से उछलते हुए अपनी माँ को धन्यवाद कहा और अपना बस्ता जगह पर रखा। उसको खुश देखकर प्रज्ञा भी खुश हो गई। उसे ऐसे खुश देखे हुए कई दिन हो गए थे। उसका बेटा दसवीं कक्षा का होनहार विद्यार्थी है, वह पिछले कुछ वर्षों से लगातार अपनी कक्षा में प्रथम आता है। प्रत्येक विषय में उसके अच्छे प्रदर्शन और उसके विनम्र स्वभाव के कारण वह अपने सभी अध्यापकों का भी प्रिय छात्र है। किन्तु पिछले तीन दिनों से वह कुछ उखड़ा-उखड़ा और खोया-खोया सा दिखाई दे रहा है। मम्मी-पापा ने जानने की कोशिश की तब उसने जो कारण बताया उसे सुनकर प्रज्ञा मुस्कुराने लगी। उसको मुस्कुराते देख दीपक आँखों में प्रश्नचिह्न लिए उसे ही देखने लगा, तब उसने कहा- "बेटा सही-गलत का आंकलन किए बिना सिर्फ इतना ही कहूँगी कि पहले सुनो, फिर गुनो अर्थात् चिंतन करो तत्पश्चात् बुनो अर्थात् हर एक की बात ध्यान से सुनकर खुद की बुद्धि का प्रयोग करते हुए उसका मंथन करो तत्पश्चात् उसमें से अपशिष्ट अर्थात् अनुचित या त्रुटिपूर्ण को त्यागकर ग्रहण करने योग्य को ग्रहण करके अपने शब्दजाल बुनो। फिर देखना तुम्हारी सारी निराशा खत्म हो जाएगी।
प्रज्ञा की इस बात से उसे यह दोहा भी याद आ गया-
निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय।
बिन साबुन पानी बिना, निर्मल करे सुभाय।
और उसने तुरंत ही अपनी कक्षा में आए अंग्रेजी के नए अध्यापक द्वारा कही गई बात को सोचना शुरू किया। उन्होंने दीपक को एक गलती पर नसीहत दी थी कि विषय को रटना छोड़कर समझना शुरू करो, रटकर परीक्षा में अच्छे अंक तो लाए जा सकते हैं परंतु वह जीवन की परीक्षा में निरर्थक है। तत्पश्चात् उन्होंने दूसरे ही दिन दीपक से लेफ्टिनेंट की स्पेलिंग पूछा, जिसे दीपक नहीं बता पाया। मास्टर जी ने सभी छात्रों को एक संकेत दिया- *झूठी-तू-दस-चीटी* और कहा कि अब बताओ। कोई नहीं बता पाया लेकिन दीपक कॉपी के पृष्ठ पर लिखकर कुछ देर तक समझता रहा और फिर बताया- Lieutenant. अध्यापक ने उसे शाबाशी दी और हमेशा सबकी बातों को ध्यान से सुनकर धैर्य खोए बिना चिंतन-मनन करने की नसीहत दी। आज दीपक जान गया कि बुजुर्गों ने यूँ ही नहीं कहा- *सुनो-गुनो-बुनो*
मालती मिश्रा 'मयंती'✍️
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