बढ़ती असहिष्णुता के कारण और निवारण
वसुधैव कुटुंबकम् की मान्यता का अनुसरण करने वाले हमारे देश में अनेक विविधताओं के बाद भी सांस्कृतिक सह अस्तित्व की विशेषताएँ देखी जा सकती हैं।
यहाँ के लोग नए परिवेश के साथ आसानी से सिर्फ घुल-मिल ही नहीं जाते, बल्कि उनकी विशिष्टताओं को अंगीकार कर अपनी जीवनशैली में अपना भी लेते हैं। यही कारण है कि सहनशीलता, भाईचारा, धैर्य जैसे गुण हमेशा से हम भारतीयों की खासियत रहे हैं।
किन्तु वर्तमान समय में यदि हम अपने चारों ओर दृष्टिपात करें तो बेहद निराशा जनक परिस्थिति दिखाई देती है। पारिवारिक हो, सामाजिक हो या धार्मिक हर स्तर पर धैर्य और सहनशीलता का ह्रास होता जा रहा है।
ऐसा नहीं है कि असहिष्णुता हमारे व्यवहार की अचानक पैदा हो गई कोई नई उपज है।
बल्कि पारिवारिक या सामाजिक स्तर पर यह पहले भी यदा-कदा देखने को मिल जाती थी लेकिन इसके बावजूद यह आम जन की मानसिकता पर हावी नहीं थी।
किन्तु आज हर स्तर पर यह असहिष्णुता हमारी सोच और हमारे व्यवहार को अपनी गिरफ्त में लेती जा रही है।
लोगों के बर्दाश्त करने की क्षमता घटती जा रही है और छोटी-छोटी बातों में लोग अपना आपा खो दे रहे हैं। जो बातें या स्थितियाँ उनको पसंद नहीं आतीं या उनकी इच्छाओं और उम्मीदों के प्रतिकूल होती हैं ऐसी किसी भी बात या घटना के प्रति वे कई बार उचित-अनुचित सोचे बिना ही इतनी तीखी प्रतिक्रिया दे देते हैं, जो उस छोटी सी बात या घटना के लिए आवश्यक नहीं थी और ऐसी प्रतिक्रियाएँ सिर्फ दूसरों के ही नहीं बल्कि अपनों के प्रति भी देखने को मिलती हैं।
जिसके कारण न सिर्फ माहौल तनावपूर्ण हो जाता है बल्कि आपसी रिश्तों में कड़वाहट उत्पन्न होती है और आपसी सौहार्द्र खत्म हो जाता है।
अक्सर ऐसी खबरें देखने-पढ़ने को मिलती हैं
सड़क पर एक वाहन के दूसरे वाहन से हल्का सा छू जाने भर से हाथा-पाई हो जाती है, कभी-कभी तो जान से मार देने की घटनाएँ भी सामने आई हैं।
आजकल तो रोजमर्रा के जीवन में भी ऐसी घटनाएँ देखी जाती हैं कि पीछे से हॉर्न बजाने वाली गाड़ी को भीड़ की वजह से यदि रास्ता नहीं मिल पाया, तो वह अपशब्द बोलते और घूरते हुए ऐसे आगे निकलता है जैसे आगे वाले ने रास्ता न देकर कितना बड़ा अपराध कर दिया हो।
कक्षा में डाँट देने या सजा दे देने पर विद्यार्थी ने बाहर जाकर शिक्षक को गोली मार दिया।
पिता ने पुत्र को गेम खेलने से मना किया तो पुत्र उसकी हत्या कर देता है।
पैसों के लिए घर के बुजुर्गो की हत्या कर देना आम घटना हो चुकी है
कोई मेरी गाड़ी को बार-बार ओवरटेक कैसे कर सकता है। इस बात से क्रोधित होकर आगे जाने वाली गाड़ी पर गोलियों की बौछार कर देना..
ऐसी खबरों को पढ़ कर 'विजय दान देथा' की वर्षों पुरानी कहानी 'अनेकों हिटलर' की याद ताजा हो गई। उन्होंने इस कहानी में चित्रित किया है कि गाँव के एक सम्पन्न और दबंग परिवार के तीन भाई नया-नया ट्रैक्टर खरीद कर हँसी-ठिठोली करते हुए शान से घर लौट रहे थे। रास्ते में एक साइकिल वाला एक-दो बार उनके ट्रैक्टर से आगे निकल जाता है। यह ट्रैक्टर चलाने वालों की बर्दाश्त से बाहर था कि साइकिल वाले ने कैसे उनको पीछे करने की हिमाकत कर दी। इसी आक्रोश में उन लोगों ने उसे ट्रैक्टर से कुचल दिया।
दशकों पुरानी यह कहानी आज हमारे समक्ष जीवंत रूप में दिखाई देती है।
ऐसी घटनाओं को देखते हुए समझा जा सकता है कि किसी से अपनी उम्मीद के अनुसार व्यवहार न होते देखकर प्रतिक्रिया स्वरूप बगैर उचित-अनुचित की परवाह किये ही परिस्थिति की माँग से ज्यादा तीखी और आक्रामक प्रतिक्रिया कर देना ही असहिष्णुता है। यहाँ तक कि ऐसे लोग समाज द्वारा स्वीकृत मानकों को भी लाँघ जाते हैं, जबकि समान परिस्थिति में अधिकांश लोग शांत और सहज बने रहते हैं।
ऐसे धैर्य खो चुके लोगों को थोड़ा विरोध भी उनके आत्मसम्मान और प्रभुत्व को आहत कर देता है और भविष्य को लेकर वे आशंकित हो जाते हैं। सही-गलत की सोच से परे वे आत्मकेंद्रित हो जाते हैं और उनकी संवेदनशीलता दूसरों के प्रति घट जाती है, फलस्वरूप वो दूसरे के द्वारा किए गए व्यवहार के आशय और भावों को समझ नहीं पाते और ऐसा कुछ कर बैठते हैं जो उन्हें नहीं करना चाहिए।
ऐसी अवस्था में व्यक्ति आंतरिक संवेगों से अधिक प्रभावित होता है, जिससे उसमें संवेगात्मक अस्थिरता और उत्तेजना देखी जाती है। कुछ समय के लिये उसका विवेक क्षीण पड़ जाता है और सही-गलत, नैतिक-अनैतिक का ज्ञान समाप्त हो जाता है। दूसरों के प्रति घटी हुई संवेदनशीलता और उत्तेजना की अवस्था, दोनों मिल कर उसे असहिष्णु बना देते हैं।
मनोविज्ञान की दृष्टि से असहिष्णुता के अनेक कारणों में प्रमुख हैं, पहचान और प्रभाव की चाहत, बढ़ती महत्वाकांक्षा, बढ़ता मानसिक तनाव, रिश्तों का सिकुड़ता दायरा, सामाजीकरण का सिमटना, रिश्तो में नफा-नुकसान का आंकलन, संवाद में कमी, बेरोक-टोक वाला व्यक्तिगत जीवन, घटती संवेदनशीलता, मीडिया का बढ़ता प्रभाव इत्यादि।
यह देखा जाता है कि मीडिया भी आपराधिक और नकारात्मक खबरों को ही ज्यादा दर्शाती है जबकि ऐसी परिस्थिति में बुद्धिजीवियों और मीडिया दोनों का उत्तरदायित्व है कि ऐसी स्थिति में वे समाज सुधार की सिर्फ चर्चा न करें, बल्कि जमीनी स्तर पर लोगों के सामने ऐसे सकारात्मक उदाहरण बार-बार पेश करें जो उनके इर्द-गिर्द ही घट रहे हैं लेकिन सनसनीखेज नहीं होने के कारण उन पर किसी का ध्यान नहीं जाता।
साहित्यकारों को भी इस दिशा में सकारात्मक पहल करने की आवश्यकता है, प्रेमचंद की कहानी "ईदगाह" जैसी प्रेरणाप्रद कहानियों के समान अन्य सकारात्मक संदेश से लगातार प्रेरित करने का प्रयास करते रहना चाहिए।
यह भी आवश्यक है कि लोग मोबाइल, टी.वी., इन्टरनेट की दुनिया और एयरकंडिशनर के आरामदेह कमरे से निकल कर दूसरों से संवाद बनाएँ।
आपस की बढ़ती दूरियों, अविश्वास, प्रतिस्पर्धा और बदले की भावना से प्रेरित इस दौर से ऊबे और घबराए आम लोगों को आपसी संवाद की तथा एक दूसरे के भावों को समझने और महसूस करने की आवश्यकता है, जिसके लिए जरूरत है कि लोग चेतन स्तर पर अपनों की सीमा को बढ़ा कर आसपास, पड़ोस, मित्र, रिश्तेदार, कुछ परिचित और अपरिचित तक ले जाएँ, जिससे उनके आपसी संपर्क का दायरा बढ़ेगा।
दिल में दबी बातों को साझा कर बोझिल मन को सुकून मिलता है। सिर रख कर रोने वाले कंधे मिलते हैं। खुशी और उपलब्धियों को बाँटने वाले लोग मिलते हैं। बस जरूरत है अपने अहम को छोड़ दूसरों की तरफ हाथ बढ़ाने की।
इसके साथ ही अपने आधुनिक व्यस्तता भरे जीवन में भी बच्चों की परवरिश पर माता-पिता को व्यक्तिगत तौर पर ध्यान देना होगा। उनमें हार स्वीकार करने और "ना" सुनने की क्षमता विकसित करनी होगी। उनमें यह भाव जगाना होगा कि पढ़ाई सिर्फ व्यक्तिगत उपलब्धियाँ हासिल करने, ऊँचे पदों पर जाने और पैसा कमाने के लिए ही नहीं की जाती, बल्कि समाज और राष्ट्र के विकास में योगदान देने के लिए भी की जाती है। ऊँचाई पर पहुँचने के लिए शॉर्टकट छोड़कर सीढ़ी-दर-सीढ़ी मिली छोटी-छोटी सफलताओं में खुश होने की आदत को विकसित करना होगा।
जीवन की आपाधापी में बढ़ती उम्र के साथ जो शौक अधूरे रह गए, उन्हें नए सिरे से जीवित करना चाहिए, इससे नई ऊर्जा का उत्सर्जन होता है। आजकल हमारी आदत बन चुकी है कि हर कार्य को लाभ-हानि की तुला में रखकर सोचते हैं, जबकि हमें इस लाभ-हानि को छोड़कर सिर्फ अपने शौक पूरे करने के लिए भी अपने पसंदीदा कार्यों को कुछ समय देना चाहिए, इससे मानसिक तनाव से मुक्ति मिलेगी और व्यक्ति के मन में दबी बहुत सारी ग्रंथियाँ खुल जाएँगी और कई चीजों के प्रति उनकी स्वीकार्यता बढ़ जाएगी और आपसी सौहार्द्र विकसित होगा।
चित्र साभार - गूगल से
मालती मिश्रा
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