रविवार

अरु.. (भाग-१)

उपन्यास...


इस उपन्यास के माध्यम से आइए चलते हैं अरुंधती के साथ उसके सफर पर.. 

दिसंबर की कड़ाके की सर्द शाम थी अभी सिर्फ छ: बजे थे लेकिन ऐसा प्रतीत हो रहा था कि बहुत रात हो गई है। सड़क के मध्य डिवाइडर पर लगे बिजली के खंभों में लगे मरकरी की दूधिया रोशनी और गाड़ियों की हेड लाइट्स न सिर्फ आसमान में इक्का-दुक्का चमकते तारों को धुंधला कर रही थी बल्कि चंद्रमा के अस्तित्व को भी नकार रही थी। कुछ तो सर्दी का असर और कुछ शनिवार होने के कारण अन्य दिनों की तुलना में सड़क पर ट्रैफिक कुछ कम था इसलिए अनिरुद्ध अस्सी की गति से कार ड्राइव कर रहा था। 
"अभी और कितनी दूर है अनिरुद्ध?" बगल में बैठी सौम्या ने कहा।
"हाँ डैड, हम तो बैठे-बैठे थक गए।" पीछे की सीट पर बैठी अट्ठारह वर्षीया अलंकृता बोली।
"अरे तो कोई भी अच्छी चीज पाने के लिए थोड़ा कष्ट तो उठाना पड़ता है ना! है ना डैड?" अलंकृता के साथ बैठी उसकी छोटी बहन अस्मिता बोली। अस्मिता की उम्र बारह वर्ष थी लेकिन घर में सबसे छोटी होने के कारण उसमें बचपना कुछ ज्यादा ही था। सभी उसे अस्मि कहकर बुलाते थे।
"बिल्कुल बेटे, इन दोनों माँ-बेटी को कहाँ पता है ये बात।" अनिरुद्ध ने अपनी बेटी का हौसला बढ़ाते हुए कहा तो अस्मि ने अपने दाएँ हाथ से अपनी कॉलर उठाकर बड़े रौब से अलंकृता की ओर देखा। 
थोड़ी ही देर में उनकी कार दिल्ली के वसंत कुंज जैसे पॉश एरिया में एक बंगले के सामने खड़ी थी। कॉलोनी के गेट से बंगले तक स्ट्रीट लाइट की दूधिया रोशनी में नहाए हुए सड़क के दोनों ओर की हरियाली और तेज हवा की साँय-साँय के साथ पत्तों की खड़खड़ाहट उस पर सर्दी के कारण चारों ओर फैला सन्नाटा माहौल में अजीब सी भयावहता का अहसास करा रहा था। सर्द अंधेरे में सिमटा छोटा सा बंगला, एक ओर पार्किंग, सामने और बायीं ओर से लॉन की आगोश में शांति से अपने नए मालिक का स्वागत करने को तत्पर था। लॉन के पेड़ों की परछाई बंगले के अस्तित्व को रहस्यमयी बना रही थीं। 
"डैड! अगर हम यहाँ दिन में आते तो ज्यादा अच्छा होता ना?" अलंकृता ने धीमी आवाज में कहा। 

"डर लग रहा है आपको?" अनिरुद्ध ने मुस्कुराते हुए कहा।

"नहीं.. लेकिन इस अंधेरे में तो हम ठीक से कुछ देख भी नहीं पाएँगे और अगर लाइट ठीक नहीं हुई तो..." अपने डर को छिपाने का असफल प्रयास करती हुई वह बोली। 

"डोंट वरी लाइट वगैरा सब चेक करवा लिया है, तुम लोग चलो मैं गाड़ी पार्क करके आता हूँ।" अनिरुद्ध ने बंगले का गेट खोलते हुए कहा।  
सौम्या ने गर्दन घुमाकर कर आसपास का जायजा लिया। उसके बंगले के लॉन की दीवार के बाहर एक फुटपाथ और उसके बाद पार्क था पार्क का गेट फुटपाथ पर ही खुलता था। पार्क के दूसरी ओर भी बिल्कुल ऐसा ही बंगला था, उसकी खिड़कियों से छनकर प्रकाश बाहर आ रहा था। ऐसा ही बंगला दूसरी ओर भी था। सौम्या ने पहली बार ध्यान दिया वहाँ आसपास ऐसे ही कई बंगले थे और खिड़कियों से छनकर आती रोशनी बता रही थी कि सिर्फ इस बंगले के अलावा बाकी सभी बंगलों में परिवार रहते हैं। अब वह आश्वस्त होकर अस्मि का हाथ पकड़े बंगले के अंदर आई। अब तक अनिरुद्ध भी गाड़ी पार्क करके अंदर आ चुका था। बरामदे की सीढ़ियाँ चढ़कर जब तक तीनों दरवाजे तक पहुँचे अनिरुद्ध ने मुख्य दरवाजे का ताला खोलकर बड़े से दरवाजे को जोर से अंदर ढकेला। चर्र की आवाज के साथ दरवाजा खुल गया। सामने घुप्प अंधेरा था, हाथ को हाथ सुझाई नहीं दे रहा था। मोबाइल का टॉर्च जलाकर उसने बिजली का स्विच ऑन कर दिया। एकाएक तेज रोशनी पूरे हॉल में फैल गई। बड़े से हॉल के बीचों-बीच बड़े-बड़े कार्टन में पैक उनका सामान रखा हुआ था। सोफे कुर्सियाँ सब चादरों से ढके हुए थे, दायीं ओर थोड़ी ऊँचाई पर बरामदे नुमा जगह पर डाइनिंग टेबल था और वहाँ ही रसोईघर था। हॉल से बायीं ओर दो कमरे थे जिनका दरवाजा बंद था। 
हॉल से सीढ़ियाँ ऊपर को जा रही थीं। अनिरुद्ध सौम्या को नीचे के कमरे दिखा रहा था, अलंकृता और अस्मि ने ऊपर सभी कमरे खोलकर उनकी बत्तियाँ जला दीं और घूम-घूमकर कहाँ क्या होगा, कौन सा कमरा किसका होगा इस पर चर्चा कर रहे थे। 

"कैसा लगा घर बच्चों?" अनिरुद्ध ने ऊपर आते हुए कहा।

"बहुत अच्छा है डैड, हम दोनों को बहुत पसंद आया।" अस्मि खुशी से चहकते हुए बोली। 

"तो अब चलो कुछ खा-पीकर काम में लग जाओ, सामान लगाने हैं न, हमारे पास तो बस आज की रात और कल का दिन ही है, परसों मुझे ऑफिस ज्वाइन करना है और आपकी मम्मी को आप लोगों के लिए स्कूल ढूँढ़कर एडमिशन करवाना है।" अनिरुद्ध ने कहा।

"लेकिन डैड स्कूल तो आपने पहले से ही ढूँढ़ रखा है न?" अलंकृता ने कहा। 

"हाँ..हाँ ढूँढ़ रखा है पर मैं देखकर ही निर्णय लूँगी, और तुम्हारे लिए कॉलेज भी तो देखना है। अब चलो सब खाना खाते हैं।" कहकर सौम्या सीढ़ियों की ओर चल दी। 

रसोई को प्रयोग के लायक थोड़ा साफ करके सौम्या ने अपने साथ लाया हुआ खाना गर्म किया और डाइनिंग टेबल साफ करके उस पर खाना लगा दिया। सबने हँसते-बातें करते हुए खाना खाया और फिर सामान लगाने में व्यस्त हो गए।
निर्धारित समय के अंदर सभी काम पूरे कर लिए थे अनिरुद्ध और सौम्या ने। तीन दिन हो गए थे उन्हें आए हुए और तभी से बिना रुके लगातार काम करते-करते सौम्या थक चुकी थी। थकान के कारण आज उसे नौ बजे ही नींद आ गई और बच्चों को खाना खिलाकर रसोई साफ किए बिना ही वह सो गई।

सौम्या सोते-सोते कसमसाई जैसे कोई सपना देख रही हो, उसे प्यास से गला सूखता हुआ महसूस हुआ और उसकी आँख खुल गई। उसने पलट कर देखा अनिरुद्ध गहरी नींद में सो रहा था। वह उठी और साइड टेबल पर से पानी का जग उठाकर गिलास में पानी डालने लगी पर जग में पानी नहीं था। पानी लेने के लिए वह नीचे रसोई में गई तभी उसे किसी के सिसकने की आवाज आई। जीरो वॉट के बल्ब की मद्धिम रोशनी में वह नजरें गड़ाकर इधर-उधर देखने लगी पर उसे कोई दिखाई नहीं दिया। सिसकियों की आवाज तेज होती जा रही थी, उसने ध्यान से सुना यह किसी महिला के रोने की आवाज थी। वह बिना पानी लिए हॉल में आ गई और जब उसे कोई दिखाई नहीं दिया तो वह तेज-तेज चलते हुए ऊपर अलंकृता के कमरे के बाहर पहुँच गई। कहीं अलंकृता ही तो नहीं रो रही! सोचते हुए उसने दरवाजे को हल्के से धकेला। दरवाजा खुल गया। अलंकृता तो गहरी नींद में सो रही थी। अपने मन की तसल्ली के लिए वह बेड के पास गई और धीरे से उसके चेहरे से रजाई सरकाकर देखा। उसे गहरी नींद में सोते देखकर उसने संतुष्ट होकर लंबी साँस ली और कमरे का दरवाजा पहले की तरह लगाकर बाहर आ गई। किसी महिला की सिसकियाँ उसे अब भी सुनाई दे रही थीं लेकिन यह आवाज कहाँ से आ रही थी यह उसे समझ नहीं आ रहा था। उसने अपनी संतुष्टि के लिए अस्मि को भी देखा पर वह भी गहरी नींद में सो रही थी। अब उसे थोड़ा डर लगने लगा था, प्यास से गला भी सूख रहा था पर अब रसोई में जाने का साहस नहीं हो रहा था। वह जल्दी से अपने कमरे में गई और अनिरुद्ध को जगाने लगी। 
"अनिरुद्ध उठो.. अनिरुद्ध...!" 

"क्या है यार क्यों नींद खराब कर रही हो!" अनिरुद्ध नींद में ही बड़बड़ाते हुए बैठ गया।

"कोई रो रहा है?" उसने धीमी आवाज में कहा।

"क्या! कौन रो रहा है?" एक पल में ही अनिरुद्ध की नींद ऐसे खुल गई जैसे कभी सोया ही न हो।

"सुनो उसकी सिसकियों की आवाज, कोई औरत है। बहुत देर से उसके रोने की आवाज आ रही है पर कोई दिखाई नहीं दे रहा।" वह इतने धीरे बोल रही थी जैसे उसे डर हो कि उसकी आवाज अनिरुद्ध के अलावा कोई और न सुन ले।

"क्या कह रही हो, मुझे कोई आवाज नहीं सुनाई दे रही।" अनिरुद्ध ने कहा।

"ध्यान से सुनो न! मैं झूठ नहीं बोल रही, सच में किसी के रोने की आवाज आ रही है।" सौम्या परेशान होकर बोली। 

"सौम्या सुनो..सुनो कभी-कभी ऐसा होता है कि हम कोई सपना देख लेते हैं और फिर जागने के बाद भी हमें सपने में देखे या सुनी गई आवाजों के सुनाई देने का भ्रम होता है। तुम सो जाओ सचमुच कोई आवाज नहीं आ रही है।" अनिरुद्ध उसको दोनों कंधों से पकड़कर समझाते हुए बोला।
शायद अनिरुद्ध सही कह रहा है, हो सकता है कि मैंने कोई सपना ही देखा होगा। उसने सोचा और लेट गई लेकिन प्यास से उसका गला अब भी सूख रहा था।
"अनिरुद्ध प्लीज रसोई से पानी ला दो, म..मुझे डर लग रहा है।" उसने कहा। 
"ठीक है तुम बैठो मैं लाता हूँ पानी।" कहकर वह नीचे चला गया। सौम्या की नजर दीवार घड़ी पर गई, रात के दो बज रहे थे। अनिरुद्ध पानी लेकर आया और गिलास में डालकर उसे दिया। पानी पीकर वह लेट गई, रोने की आवाज धीरे-धीरे धीमी होते-होते बंद हो गई। बहुत देर तक करवटें बदलते रहने और अपने-आप से सवाल-जवाब करते रहने के बाद आखिर सौम्या भी सो गई। 
क्रमशः
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चित्र साभार- गूगल 
मालती मिश्रा 'मयंती'




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