शुक्रवार

कहाँ जा रहे आज के बच्चे

 कहाँ जा रहे आज के बच्चे (4/5/22)  


प्रातःकालीन निर्मलता की चादर ओढ़े धरती पर नाजुक कोपलों पर झिलमिलाते पावन ओस की बूँदों की तरह निर्मल, निश्छल और कोमल होता है बचपन, जो उदीयमान बाल सूर्य की शांत नर्म और रुपहली किरणों के स्पर्श से मोती की मानिंद जगमगा उठता है और हवा के थपेड़े से बिखर कर अपना अस्तित्व मिटा बैठता है। बाल्यावस्था वह अवस्था है जब बच्चे का मन कोरे कागज सा होता है, जो चाहो जैसा चाहो उसे वैसा ही बनाया जा सकता है। इसके लिए बच्चे को विशेष देखभाल के साथ-साथ स्वस्थ वातावरण की भी आवश्यकता होती है किन्तु वर्तमान समय में विशेष देखभाल तो संभव है लेकिन स्वस्थ वातावरण का मिलना अपने-आप में एक चुनौती है। आधुनिक परिवेश में जहाँ भौतिकवाद का बोलबाला है ऐसी स्थिति में समाज में सम्मानजनक और सुविधाजनक जीवन जीने के लिए आर्थिक स्थिति का मजबूत होना अहम् हो गया है। रहन-सहन से लेकर आने वाली पीढ़ियों के भविष्य निर्माण तक में प्रतियोगिता सर्वव्यापी है। ऐसी परिस्थिति में अपनी गृहस्थी को सुचारू और सुनियोजित रूप से चलाने के लिए पति-पत्नी दोनों ही आर्थिक उत्सर्जन में सहभागिता सुनिश्चित करते हैं, जिसके कारण उन्हें अक्सर परिवार से अलग एकल परिवार के रूप में रहना पड़ता है। वहीं दूसरी ओर कुछ आधुनिकता के शिकार तथा कुछ घरों में स्थान के अभाव के कारण भी एकल परिवार में रहने को प्राथमिकता देते हैं। ऐसी परिस्थितियों में जो सबसे अधिक प्रभावित होता है वह है बच्चों का जीवन। 

पहले बच्चा परिवार में दादा-दादी, नाना-नानी के साथ रहता था विभिन्न रिश्तों में घिरा होता था तो रिश्तों के महत्व को समझता और सामंजस्य बिठाना सीखता था। बड़ों का आदर छोटों से स्नेह करने का आदी होता था, वहीं दादी-नानी की कहानियों से स्वस्थ मनोरंजन और ज्ञान पाता था। पौराणिक और ऐतिहासिक कहानियों से अपनी संस्कृति से परिचित होता था। घरों से बाहर अन्य बच्चों के साथ खेलता था तो वह शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ होता था और साथ ही उसमें आपसी मेलजोल, सहयोग और अनुशासन के गुणों का विकास होता था। सही मायने में संयुक्त परिवार में ही बच्चा सही देखभाल और परवरिश प्राप्त करता था, विभिन्न रिश्ते-नातों से परिचित होता था तथा सभी रिश्तों के साथ सामंजस्य बिठाना सीखता था, किन्तु जैसे-जैसे हम आधुनिकता की दौड़ में शामिल होते गए वैसे-वैसे अपनों से दूर और एकाकी होते गए। आज सब कुछ मशीनी हो गया है यहाँ तक कि बच्चों का पालन-पोषण भी। एकल परिवार में जहाँ पति-पत्नी दोनों कामकाजी होते हैं वहाँ पत्नी को या कहूँ कि माँ को बच्चों की देखभाल करने का समय नहीं होता। समय के साथ समाज में तालमेल बिठाने के लिए तथा बच्चों के सुरक्षित भविष्य के लिए यह आवश्यक भी हो चला है और इसीलिए माँ को बच्चे को आया के भरोसे या क्रच में छोड़ना पड़ता है। बच्चे से दिनभर की दूरी और समय तथा पूरा प्यार न दे पाने का अपराधबोध माता-पिता को बच्चों के प्रति अति  संरक्षात्मक बना देता है और इस अपराध बोध से निकलने के लिए वह बच्चे की हर उचित-अनुचित माँगों को पूरा करते हैं। फलस्वरूप बच्चा जिद्दी और लापरवाह बन जाता है, आवश्यक नहीं कि सभी बच्चे या सभी माता-पिता ऐसे ही हों परंतु यदि 10-20 प्रतिशत भी होते हैं तो भी यह चिंताजनक है। 

आज के समय में शिक्षण पद्धति भी बच्चों को तकनीक का आदी बना रहा है। शिक्षा के दौरान बच्चों से नेट से सामग्री की खोज करवाना, क्रिया-कलाप आदि में नेट का प्रयोग आजकल शिक्षा का अभिन्न हिस्सा बन गया है और जो बच्चा यह नहीं कर पाता वह अन्य बच्चों के बीच हीन महसूस करता है, अतः आधुनिक शिक्षा में तकनीक का प्रयोग करना आना बेहद आवश्यक है। दूसरी ओर बच्चा माता-पिता के कार्यों को बाधित न करे इसलिए माता-पिता द्वारा इन्हें तब से ही मोबाइल पकड़ा दिया जाता है, जब इन्होंने बोलना भी ठीक से नहीं सीखा होता। थोड़ा और बड़ा होगा तो टैबलेट्स और फिर लैपटॉप दे देते हैं। 

घर में बड़े-बुजुर्गों का अभाव, सुरक्षा की दृष्टि से तथा समय के अभाव के कारण बाहर न खेलने की मजबूरी, ऐसी अवस्था में टेलीविजन, फोन, लैपटॉप आदि ही साथ देते हैं। माता पिता के पास बच्चों के साथ खेलने का समय नहीं होता तो बच्चा फोन में गेम खेलता है, पढ़ाने का समय नहीं तो बच्चा इंटरनेट से ढूँढ़ कर पढ़ने लगा, ऐसे में वह इंटरनेट से उचित-अनुचित के ज्ञान के अभाव में हानिकारक विज्ञापनों और भी ऐसी चीजें देखता है जो उसके अबोध मन को दिशाहीन कर सकती हैं। कदम-कदम पर प्रतियोगिता भरी जिंदगी में ट्यूशन, ट्रेनिंग आदि के जरिए बच्चे को प्रतियोगिताओं को पास करने लायक तो बना दिया जाता है पर एक सहृदय, संस्कारी, संवेदनशील, छोटे-बड़ों व स्त्रियों का सम्मान, तथा अपनी संस्कृति से जुड़ा हुआ, परंपराओं का निर्वहन करने वाला व्यक्ति नहीं बना पाते क्योंकि बच्चे के माता-पिता को बच्चे का भविष्य सिर्फ अधिकाधिक धन कमाने में दिखाई देता है, इसलिए उन्हें अपने बच्चे को आर्थिक दौड़ में आगे रहने वाला धावक बनाना होता है और इसके लिए स्वयं पैसा कमाने की भाग-दौड़ में उनके पास बच्चे के लिए समय ही नहीं होता। ऐसी स्थिति में हम उम्मीद करते हैं कि हर बच्चा संस्कृति से प्यार करने वाला हो, गुरुजनों तथा बड़ों का सम्मान करने वाला हो....वस्तुतः हमारी ऐसी अपेक्षाएँ निराधार हैं, हम उन बच्चों से ये अपेक्षा कैसे कर सकते हैं जिन्हें ऐसी शिक्षा ऐसी परवरिश दी ही नहीं गई। यानि जो बीज हमने बोये ही नहीं उसकी फसल काटना चाहते हैं। हम कहते तो हैं कि आजकल के बच्चे कहाँ जा रहे हैं? क्या भविष्य होगा इनका और देश का, परंतु हमें यह देखने की आवश्यकता है कि हम बच्चों को क्या दे रहे हैं।

चित्र साभार- गूगल से

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

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