रविवार

मन की बात

अच्छे वक्ता अच्छे श्रोता 
और अच्छे निर्णायक हैं 
अमानुषता के समाज में 
मानवता के परिचायक हैं 
देते उत्तम शिक्षा सबको 
सबके दिलों पर छाए हैं 
बना माध्यम रेडियो को 
'मन की बात' बताए हैं 
करो विकास गाँवों का 
किसानों को राह दिखाते हैं 
ग्राम-विकास में देश का हित है 
सबको ये समझाते हैं 
चिड़ियों के दाना-पानी का भी 
प्रबंध करवाते हैं
छोटे-छोटे बच्चों को भी 
ये सत्कर्म सिखाते हैं 
पहुँच शिखर पर भी ये 
अपनी धरती पर पैर टिकाए हैं 
गरीबों के उद्धार के पथ पर
जनता का ध्यान दिलाए हैं 
जल का महत्व जल की सुरक्षा
सबको ये समझाते हैं 
जल संचय के नए-नए 
युक्ति ये बतलाते हैं 
देश में आय के नए-नए 
उपाय लेकर आते हैं 
पर्यटन-भ्रमण के विस्तृत
लाभों पर ध्यान आकृष्ट करवाते हैं
पाकर जिनको धन्य हुए हम
वो देश का मान बढ़ाते हैं 
न सिर्फ देश के भीतर लोगों
वो विश्व के नेता कहलाते हैं ।।

साभार....मालती मिश्रा

बुधवार

आओ सब मिल खेलें होली



आओ सब मिल खेलें होली 
खुशियों से सब भर लें झोली
लाल,गुलाबी,नीले,पीले 
खुशियों के सब रंग सजीले 
खेलो होरी ऐसे प्यारे 
खुशियों से सब हों मतवारे 
जाति-धर्म का भेद मिटा कर
प्रेम के रंग मे खेलें होली 
कहीं किसी का हृदय न दूखे 
आनंद भरी हो सबकी झोली 
प्रेम और सद्भाव का रंग हो 
स्नेह और एकता का पानी 
उड़े जब चहुँ दिशि ये रंग 
मिट जाए आपस की जंग 
उल्लास की कचरी सद्भाव की गुझिया
मिल कर खाएँ हर्ष की भजिया
खेल-खेल में रखें ध्यान 
पानी का न हो नुकसान
द्वेष घृणा सब आज मिटा दो
होलिका के संग इन्हें जला दो
मन मुदित हो बोले बारंबार
सुरक्षित हो सबका त्योहार 

होली की ढेरों बधाइयों के साथ....
मालती मिश्रा

रविवार

ये अंधा कानून है...

ये अंधा कानून है...
हमारे देश का कानून
है कितना निष्पक्ष महान
एक तराजू में ही तोले
चाहे हो जेब कतरा कोई साधारण
या हो देशद्रोही कन्हैया और अनिर्बान

हमारे देश में न्यायालय को न्याय का मंदिर माना जाता है, न्यायालय में सुनाए गए फैसले को सर्वोपरि माना जाता है, कानून को सबके लिए समान बताया गया है...और सच भी है ऐसी समानता और कहीं देखने को नहीं मिलेगी कि किसी नारी का बलात्कार किया जाता है उसकी अस्मत लूट ली जाती तो जुर्म साबित होने पर (जो कि साबित होने में सालों लग जाते हैं) हमारा कानून आज से कुछ साल पहले तक 7 साल की सजा सुनाता है वहीं 700₹ लूटने के अपराध में (10 नवंबर 2009) जुर्म साबित होने पर मुजरिम को 7 साल की कैद (जुलाई 2010) की सजा सुनाई जाती है।  ( हिंदुस्तान पेज 9, 9 सितंबर 2013, हाईकोर्ट में न्यायमूर्ति एस पी गर्ग ने निचली अदालत की सजा रखी बरकरार ) है न सबके लिए समान कानून...... 
समानता का ऐसा उदाहरण और कहाँ देखने को मिलेगा? जिस देश में स्त्री को देवी माना जाता है उसी देश में सरेआम उसका सामूहिक बलात्कार किया जाता है और पीड़िता द्वारा पहचाने जाने के बाद, चश्मदीद गवाह की गवाही के बाद भी आरोपी को अपना पक्ष रखकर झूठे सबूत और गवाह पैदा करके बचने का अवसर दिया जाता है, ऐसे में यदि पीड़िता बच जाती है तो हर सुनवाई पर अदालत में मानसिक बलात्कार की प्रताड़ना झेलती है और यदि मर चुकी होती है तो उसके परिजन इस प्रताड़ना के शिकार होते हैं, न्याय पाने के लिए दर-दर की ठोकरें खाते हैं पर न्याय नही मिलता, जहाँ एक ओर अदालत में सजा सुनाई जाती है तो दूसरी ओर अपराधी को बचने का समय भी दिया जाता है, पर क्या करें हमारे देश का कानून है ही इतना महान और रहम दिल यहाँ तो अस्मत पर हमला स्त्री के हो या देश के.... कानून तो आँखों पर पट्टी बाँधे काले दिल वाले काले कोटधारियों के इशारों का गुलाम मात्र नजर आने लगा है। मुझे पता है कि कानून का सम्मान करना चाहिए और ऐसा नही कहना चाहिए, परंतु मैं कहना चाहूँगी कि मैं कानून का सम्मान करती हूँ इसीलिए बहुत दुख होता है यह देखकर जब कोई बड़ा अपराधी कानून के पैंतरों का प्रयोग करके कानून की ही आँखों में धूल झोंककर आज़ाद हो जाता है और फिर कानून का ही मखौल उड़ाता है। आज हमारे देश में यही तो हो रहा है इसीलिए अपराधियों के हौसले बुलंद हैं, उन्हें सशर्त जमानत पर छोड़ दिया जाता है और वो बाहर आकर झूठ को सच और सच को झूठ बनाने में तल्लीन हो जाते हैं। सबूत देखकर भी जिन अपराधियों को जबरन गिरफ्तार न करके उन्हें आत्मसमर्पण का मौका दिया जाता है वो क्यों डरेंगे कानून से? 
बहुत अजीब लगता है ये देखकर कि देश विरोधी गतिविधियाँ होती देखकर भी अपराधियों के साथ कितना नर्म रवैया होता है कानून का और जब जनता के विरोध के चलते गिरफ्तारी होती भी है तो सबूतों की सत्यता जब तक प्रमाणित न हो जाए तब तक के लिए आजाद कर दिया जाता है, उन्हें हिरासत में रखते हुए भी तो सत्यता की जाँच की जा सकती है परंतु नहीं सब रसूख की बात है।
ऐसा नहीं कि मैं कानून का सम्मान नहीं करती परंतु जब निष्पक्षता का हृास होते हुए देखती हूँ तो बहुत दुख होता है। कहते हैं कानून की नजर में सब समान हैं परंतु ये कैसी समानता है कि एक गरीब का अपराध कानून को नजर आता है और एक अमीर का नही?  सत़्य तो ये है कि अपराध की संगीनता वकीलों या यूँ कहूँ कि नोटों की गड्डियों द्वारा तय होता है तो ये गलत न होगा। यदि ऐसा ही चलता रहा तो अभी तो राजनीतिज्ञों और धनवानों के द्वारा कानून का मखौल बनाया जा रहा है धीरे-धीरे आम जनता भी इसी दौड़ में शामिल हो जाएगी।


मंगलवार

जीवन एक इम्तहान है....

दुनिया की भीड़ में
रोज मर्रा की भागमभाग मे
हमारा रिश्ता न जाने कहाँ खो गया
सूर्य की लाली लाती थी जो मुस्कान
वो लाली वो मुस्कान 
सूरज की आखिरी किरण बन गए
सदा के लिए लबों से जुदा हो गए
जीवन एक इम्तहान है 
मानकर चले थे 
पर्चा था कठिन हल न हुए
मेहनत और लगन सब धरे रह गए
बातें तो बहुत मचलती हैं दिल में 
लबों तक आते ही खो जाती हैं शून्य में
अनदेखी-अनजानी सी कोई दीवार
खड़ी हो गई है हमारे दरमियाँ 
चाहा बहुत कि गिरा दें इसे 
पर सहारा देने वाले हाथ 
न जाने कहाँ खो गए 





शनिवार

कन्हैया माँगे गरीबी से आजादी

कन्हैया माँगे गरीबी से आजादी
एक समय था कि समाज के आम लोग स्वयं को राजनीति से दूर रखने में ही अपनी शराफत समझते थे, कहा जाता था कि राजनीति एक दलदल है उसमें जो उतर गया वो बुराइयों से अछूता नहीं रह सकता।हमारे माननीय मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी राजनीति को काली और गंदी कहा था परंतु क्या हुआ स्वयं इसी राजनीति में आए और इसकी कालिमा को और गहरी कर दिया। आजकल सर्व साधारण लोग भी राजनीति को सफलता की सीढ़ी मान बैठे हैं और इस सफलता की ऊँचाई पर पहुँचने की चाह में इतने गिरते चले जाते हैं कि कब राष्ट्रद्रोही बन जाते हैं उन्हें यह जानने की आवश्यकता ही महसूस नहीं होती और चंद सत्ता की भूखी राजनीतिक पार्टियाँ ऐसे लोगों को अपनी कुर्सी तक पहुँचने का चारा बना लेते हैं, इसके लिए वे इन्हें सारी सुविधाएँ, सुरक्षा मुहैया करवाती हैं और ये मूर्ख सपनों के आसमान में उड़ने लगते हैं।
कन्हैया वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इसका जीता जागता उदाहरण है, न ही उसे ये पता है कि वो चारा मात्र बन रहा है और न ही उसे ये पता कि दिल्ली ने एक केजरी पैदा करके काफी कुछ सिर्फ एक साल में भुगत लिया है अब दूसरा केजरी तो पैदा नहीं होने देगी।
कन्हैया की मूर्खता का अंदाजा उसके भाषण से भी लगाया जा सकता है। वह मोदी जी से कह रहा है...हम क्या मांगे आज़ादी..
आज़ादी वह भी गरीबी से...क्या इस मूर्ख को यह नहीं पता कि इस देश को गरीबी मोदी जी ने नहीं, साठ साल के कांग्रेस शासन ने दी है। यह गरीबी इसकी आँखों पर लालच की पट्टी बाँधने वाले बिहार के लालू-नीतीश ने दी है। बल्कि मैं कहूँगी कि जिस गरीबी की तुम बात कर रहे हो,वह किसी और ने नहीं तुम्हारे ही वामपंथी नेताओं ने दी है। जिन्हें तुम अपना आदर्श मानते हो। यदि तुम्हारी अक्ल से कुछ देर के लिए लालच का परदा हट सके तो एक बार गौर से बंगाल, बिहार जैसे राज्यों की तरफ देखो...तुम्हें सब समझ आ जाएगा। इस देश की गरीबी मोदी की देन नहीं है। इस देश की गरीबी तुम जैसे मूर्ख लड़को की देन है। जो मेहनत करने के बजाए...कैंपस में नारे लगाने में अपनी शान समझते हैं। तुम जैसों को गरीबी से लड़ना नहीं है। उसे पालना, पोसना और बड़ा करना है ताकि तुम कल नेता बन सको। तुम्हें तुम्हारी गरीबी की इतनी ही चिंता होती तो कॉलेज खत्म होने के बाद तुम कैंपस में नेतागीरी नहीं कर रहे होते। तुममें गरीबी से लड़ने की समझ होती तो कैंपस में लेदर का जैकिट और जींस की पैंट पहनकर स्टाईल मारने की जरूरत नहीं होती। तुम्हें गरीबी इतनी ही डसती तो तुम गांधी की तरह अपने कपड़े अब तक दान कर चुके होते। तुम चाहते तो किसी होटल, दुकान, मॉल या शो रूम में पार्ट टाइम काम कर रहे होते। महीना दर महीना अपने मां-पिता को चार पैसे भेज रहे होते। लेकिन नहीं... जेएनयू की सारी मुफ्त सुविधाएं पाकर तुम मगरूर हो गए हो। तुम्हें काहे की गरीबी कि चिंता। गरीबी से तुम नहीं बल्कि आम करदाता लड़ रहे हैं। जो अपना टैक्स इसलिए कटवा रहे हैं ताकि गरीब घर से आए बच्चों को अच्छी से अच्छी शिक्षा मिल सके। ताकी पढ़-लिखकर वो गरीबी के नारे नहीं बल्कि उसे दूर करने के उपाय बता सकें और अपने साथ इस देश की भी गरीबी दूर कर सकें।
असल बात तो यह है कि तुम्हें गरीबी से कोई लेना देना नहीं है। तुम्हें तो गरीबी के नाम पर अपना लाल परचम लहराना है ताकी अगले सौ सालों तक तुम इस देश में गरीब और गरीबी को बनाए रख सको। यदि तुम्हें गरीबी की इतनी ही चिंता है तो अपने नज़दीकी बैंक शाखा में जाओ। वहां से स्टार्टअप इंडिया, स्टैंडअप इंडिया जैसी सरकारी योजना का लाभ उठाओ। लोन के लिए अप्लाई करो। काम करो। अपना एक व्यवसाय खड़ा करो। चार गरीबों को नौकरियां दो। ये कैंपस में खड़े होकर नारे लगाने से गरीबी दूर होने वाली नहीं है। शायद तुम नहीं जानते कि गरीबी का एक नारा सौ गरीबो को जन्म देता है। कहां तो तुम कहते हो कि गरीबों को भीख नहीं रोज़गार चाहिए। यदि ऐसा है तो एक बार फिर अपने बिहार, अपने बंगाल की तरफ देखो। क्यों वहां से सारे कल कारखाने तबाह कर दिए गए। पूछो अपने आकाओं से कि क्या उन्होंने ऐसा कर गरीबी खत्म की या उसे बढ़ाया।
जीवन में कुछ सकारात्मक सोचो। लाल सलाम कहने भर से गरीबी दूर हो जाती तो अब तक बंगाल तरक्की के रास्ते पर होता। लाल सलाम कहने भर से गरीबी से जंग जीती जाती तो इस दुनिया की आधे से अधिक आबादी लाल होती। सूरज भी लाल निकलता और बसंत का रंग भी लाल कहा जाता।  चीन का लाल झण्डा भी आज दुनिया में लाल सलाम की वजह से नहीं अपने औद्योगिक विकास की वजह से बुलंद है।
हंसी तो तब आती है जब तुम गरीबी से ल़ड़ने के लिए राहुल और केजरीवाल जैसे नेताओं के साथ खड़े होते हो। ऐसे नेता जिन्होंने कभी गरीबी का ओर-छोर तक देखा नहीं है। जिन्हे ये भी नहीं पता कि भूख-प्यास किस चिड़िया का नाम है, जो गरीबों के साथ खुद को खाना खाते हुए दिखाने के लिए स्टूडियो में झोपड़ी का सेट लगवाकर शूटिंग करता है और मीडिया में फैलाता है कि गरीब किसान के साथ खाना खाया, जिन्हें नहीं मालूम की कड़कड़ाती ठंड में बिना कपड़े के कैसे रात गुजारी जाती है। तुम ऐसे नेताओं के साथ गरीबी की जंग लड़ना चाहते हो?
अब भी वक्त है सम्हल जाओ। तुम नहीं जानते कि तुम्हारे ये गरीबी के नारे तुम्हारे आकाओं को कितना आनंद देते हैं। तुम्हें तुम्हारे भूखे पेट की इतनी ही चिंता है तो अपने ही नेता राजब्बर से उस ढ़ाबे का पता पूछो जहां 5 रुपए में भर पेट खाना मिलता है।
सरकार, मंत्री, सन्तरी, पुलिस, विपक्ष सभी  कन्हैया में इतने व्यस्त है कि पकिस्तान को खुद बताना पड़ रहा है भाई आंतकी भेजे है ,फुर्सत मिले तो देख लेना।
3000 रुपये कमाने वाली गरीब माँ का बेटा कन्हैया, जब 75लाख वकीलों की फीस देने के बाद सशर्त जमानत लेकर 30लाख की फॉर्चूनर से तिहाड़ से बाहर आता है तब कसम कजरी की, अपने देश की गरीबी पर इतराने को जी चाहता है!
मात्र 8300 लोगो द्वारा चुना गया छात्र नेता 125 करोड़ लोगो द्वारा चुने गये प्रधानमंत्री का मजाक उड़ाता है और मिडिया उसका सीधा प्रसारण करता है और कितनी आजादी चाहिये ?
अंत में यही कहना चाहूँगी कि यदि गरीबी ऐसी ही बेबस होती है, यदि गरीबी को बड़े-बड़े नेताओं द्वारा इतना ही सम्मान,इतनी प्राथमिकता मिलती है तो क्यों कोई गरीबी छोड़ना चाहेगा???
यदि JNU में गरीबों को इतना सम्मान मिलता है तो क्यों कोई गरीब छात्र जे एन यू छोड़ना चाहेगा?? वहीं रहेगा, गरीब बना रहेगा, नेतागिरी करेगा पर गरीबी को गले लगा कर रखेगा ।

शुक्रवार

नही चाहिए कानून की पट्टी


अब कानून की आँखों से पट्टी हटा ही देना चाहिए
कानून को लोगों की आँखें पढ़ना भी आना चाहिए
कन्हैया सम गद्दारों की गद्दारी भी दिखना चाहिए
क्योंकि कानून के कुछ रखवाले कांग्रेसी 
तो कुछ पीमचिदंबरम् होते है
जिनके पापों का बोझ निर्भया जैसे ढोते हैं 
माना कि कानून के समक्ष सब एक बराबर होते हैं 
पर किसने कहा कि काले कोट में श्वेत हृदय ही होते हैं 
हमने तो कानून को व्यापार करते देखा है 
नोटों की हरी गड्डी पर काले कोट बिकते देखा है 

मालती मिश्रा

बुधवार

न्यायालय जो भारत की संप्रभुता का संरक्षक है


न्यायालय जो लोकतंत्र की मर्यादा का रक्षक है 
न्यायालय जो भारत की संप्रभुता का संरक्षक है 
न्यायालय जो घावों पर औषधि का लेप लगाता है
 न्यायालय जो पीड़ित को सच्चा इंसाफ दिलाता है
उसी न्याय के मंदिर पर कीचड़ फेंका शैतानों ने 
ओवैसी ने जूता मारा थूक दिया केजरीवालों ने 
जिस मेमन के तार जुड़े थे पाकिस्तानी गलियों में 
जिस मेमन का दाम लगा था दाऊद की रंगरलियों में 
जो मेमन दहशत गर्दों का प्यारा राजदुलारा था 
जो मेमन मुंबई नगरी का कातिल था हत्यारा था 
उस मेमन की फाँसी को नाजायज बोला जाता है 
न्यायालय के निर्णय को मजहब से तौला जाता है 
लोमड़ियाँ भी मुँह में देखो घास दबाए बैठी हैं 
साँपों की औलादें अमृत कलश सजाए बैठी हैं 
सदा बाबरी पर रोए न बोले मथुरा काशी पर 
अफज़ल गुरु पर बोले न बोले सरबजीत की फाँसी पर
अफजल की सजाए मौत को जो हत्या बतलाते हैं 
संसद के हमलावर को जो शहीद कह बुलाते हैं 
खुद के राष्ट्रद्रोह को विचाराभिव्यक्ति बता करके 
मातृभूमि के टुकड़े करने का वो स्वप्न सजाते हैं 
कौए का अंडा इनको अखरोट दिखाई देता है 
भारत की हर परंपरा में खोट दिखाई देता है 
खून मुगलिया जिनके अंदर उनका गौरव गान नहीं 
बजरंगी को छोड़ो ये तो ढंग के भाई जान नहीं 

अज्ञात (copied)

सोमवार

डर बना दलित


आज चारों ओर राजनीति के चलते 'दलित' शब्द छाया हुआ है....इस माहौल ने मुझे मेरा बचपन याद दिला दिया, जहाँ पहली बार दलित बनाम उच्च वर्ग की परिस्थितियों मेरा आमना-सामना हुआ और मैंने जाना कि यदि आज के समय में भी शोषण हो रहा है तो शोषित वर्ग काफी हद तक स्वयं भी जिम्मेदार है शोषण का।
आज से कोई बीस-इक्कीस साल पहले की बात है माँ की तबियत खराब होने के कारण मुझे उनके साथ रहने के लिए अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़कर गाँव जाना पड़ा ताकि घर के छोटे-मोटे कार्यों में उनकी मदद कर सकूँ और उनकी सेहत का भी ध्यान रखूँ....बचपन से अभी तक मैंने पापा के साथ रहकर शहर में ही पढ़ाई की थी, बता दूँ कि मेरे पापा कानपुर में सरकारी विभाग में कार्यरत थे इसलिए मैं और मेरे भाई सब उनके साथ रहकर ही शिक्षा ग्रहण कर रहे थे, चूँकि गाँव में भी हमारी पुस्तैनी जमीन व खेत थे तो माँ अधिकतर गाँव में ही रहती थीं|
खैर मैं माँ के साथ पढ़ाई छोड़कर आ तो गई परंतु मेरा मन तो मेरी किताबों में ही रहता था और माँ-पापा दोनों को पढ़ाई के प्रति मेरी रूचि ज्ञात थी इसलिए पढ़ाई बीच में रोककर उन्हें भी अच्छा नहीं लग रहा था| ये साल तो मेरे लिए बेकार हो ही गया जैसे-तैसे कुछ महीने बीत गए,स्कूलों का नया सत्र शुरू होने वाला था मैं माँ को छोड़कर जा भी नही सकती थी और हमारे गाँव के आस-पास कोई ऐसा स्कूल भी नहीं था जहाँ मैं पढ़ सकती, बड़े स्कूल इतनी दूर थे कि मैं अकेली नहीं जा सकती थी....इसलिए पापा ने मुझे अपने एक दूर के रिश्तेदार के घर रहने के लिए भेज दिया और वहाँ पास में ही एक इंटर मीडियट स्कूल में ग्यारहवीं में मेरा दाखिला करवा दिया, पहले तो मैं पढ़ाई के लिए सिर्फ माँ से दूर रहती थी अब माँ-पापा दोनों से दूर होना पड़ा, माँ ने मुझे समझाया कि मुझे परेशान नहीं होना चाहिए क्योंकि अब तो मैं हर सप्ताह उनसे मिल सकती हूँ....
मैं अपने डर को मन के किसी कोने में दबाए डरी सहमी आ गई अपने घर से दूर एक अंजान गाँव अंजाने लोगों के बीच....उन लोगों से मैं पहले कभी नहीं मिली थी, सभी चेहरे मेरे लिए नए थे, नया रहन-सहन, नया परिवेश....ये गाँव हमारे गाँव से काफी अलग सा प्रतीत हो रहा था, यहाँ के लोगों की मानसिकता भी ज्यादा संकीर्ण थी या फिर ऐसा भी हो सकता है कि मैं अपने गाँव में ज्यादा आजाद महसूस करती थी वहाँ के खेत, बगीचे, पेड़,पौधे,नदी,तालाब,पशु,पक्षी सभी से अपनत्व महसूस करती थी इसलिए...और यहाँ सभी मेरे लिए अंजान और पराए थे, मेरा रहन-सहन और भाषा भी शहरी था जो यहाँ के लोगों के लिए नया था इसीलिए इनके साथ घुलने-मिलने में मुझे काफी समय लगा....वैसे भी मैं यहाँ पढ़ने आई थी तो मेरा पूरा ध्यान पढ़ाई पर ही केंद्रित था|
वहाँ रहते हुए मुझे ज्ञात हुआ कि मैं अपने गाँव और उस गाँव में इतना अंतर क्यों महसूस करती हूँ....जिस घर में मैं रहती थी उस घर के मुखिया एक प्राइमरी स्कूल के प्रधानाध्यापक थे, उनकी दो बेटियाँ दोनों शादीशुदा थीं, बड़ी बेटी ससुराल में रहती थी जबकि छोटी बेटी का अभी तक गौना नहीं हुआ था उसकी उम्र यही कोई बारह-तेरह वर्ष होगी....मास्टर जी के दो बेटे थे एक बड़ी बेटी से छोटा और एक सबसे छोटा....
स्कूल के प्रधानाध्यापक होने के बावजूद मास्टर जी ने अपनी एक भी बेटी को स्कूल नहीं भेजा जबकि दोनो बेटों को पढ़ा रहे थे....मैं ये तो नहीं कहूँगी कि मैंने ऐसा भेदभाव कभी नहीं देखा परंतु एक शिक्षित व्यक्ति से ऐसा भेदभाव मेरे लिए अपेक्षित नहीं था, वो कहते हैं न कि 'जाके पाँव न फटे बिवाई वो क्या जाने पीर पराई' मैंने इस तरह का यानी बेटे-बेटी का भेदभाव कभी अपने घर में नहीं देखा था तो मुझे ये सब बहुत ही बुरा लगता, रह-रह कर मेरे मन में बगावत जन्म लेती परंतु फिर ध्यान आ जाता कि मैं पराई हूँ और यहाँ सिर्फ पढ़ने के लिए आई हूँ, मैं अब अपनी पढ़ाई में कोई बाधा नहीं आने देना चाहती थी इसलिए चुप रह जाती....धीरे-धीरे समय के साथ-साथ मेरी दोस्ती उस घर की लड़कियों के साथ-साथ आस-पड़ोस की लड़कियों से भी हो गई, अब मेरा समय अच्छी तरह कटने लगा, अब मेरी भाषा हमारे बीच रुकावट नहीं बनती सबको मेरी और मुझे सबकी बातें खूब अच्छी तरह समझ में आतीं, करीब चालीस-पैंतालीस लड़कों के बीच मेरी कक्षा में पढ़ने वाली मेरे अलावा सिर्फ चार ही छात्राएँ थीं जो ठाकुर परिवारों से आती थीं, उनके अलावा दूसरी अन्य कक्षाओं की लड़कियाँ भी ठाकुरों या ब्राह्मणों के परिवारों से ही आती थीं, पूरे स्कूल में सिर्फ दो ही लड़कियाँ ऐसी थीं जो दलित यानि हरिजन परिवार की थीं....अब तक मैं ये समझ चुकी थी कि वहाँ पर सिर्फ ऊँची जाति के घरों की ही लड़कियाँ पढ़ती थीं इसीलिए जिस घर में मैं रहती थी उस घर की ही नहीं बल्कि पूरे गाँव की लड़कियों के लिए स्कूल सिर्फ सपना ही था.....
उस गाँव के आस-पास के गाँव ठाकुरों और ब्राहमणों के गाँव थे..मास्टर जी की छोटी बेटी से मुझे उस गाँव व आसपास के गाँवों के कुछ किस्से कहानियाँ भी धीरे-धीरे पता चलने लगे, जिससे मुझे ये ज्ञात हुआ कि इस गाँव के लोग ठाकुरों से भयभीत होते हैं, उसने मुझे बताया कि इस गाँव के बहुत से घरों में अब भी देसी शराब की भट्टी लगती है और आस-पास के गाँव के कुछ ठाकुर शराब पीने उन घरों में आते हैं, साथ ही वो मुझे ये भी बताती कि किस ठाकुर का चक्कर गाँव की किस हरिजन लड़की से है।
एक दिन उसने एक आदमी की ओर इशारा करते हुए मुझे दिखाया, दीदी देखो वो लूला पता है एकबार एक ठाकुर ने उसकी पूरी गर्दन ही काट दी थी।
क्या?? फिर वो जिंदा कैसे बचा? मैंने आश्चर्य से पूछा।
उसने अपने एक हाथ से ही अपने गले में पड़ा अंगोछा अपनी गर्दन में लपेटा और दौड़ता हुआ पुलिस स्टेशन चला गया, पुलिस वाले उसे तुरंत अस्पताल ले गए और वह बच गया। उसने बताया
फिर उस ठाकुर का क्या हुआ, उसे पुलिस ने पकड़ा या नहीं? मैंने पूछा। मुझे लगा था कि शायद ठाकुर होने के नाते पुलिस वालों ने उसका ही साथ दिया होगा।
पुलिस वालों ने तीन दिन तक उसके घर को घेर रखा था, वो अपने घर के बाहर ही तीन दिनों तक पेड़ के ऊपर चढ़ा रहा, फिर चौथे दिन पकड़ा गया। उसने बताया
पर उसने गला क्यों काटा था उस बेचारे का? मैंने उत्सुकतावश पूछा।
उसकी लड़की के कारण, उसकी लड़की बहुत सुंदर थी न और ये लूला उसे घर से निकलने नहीं देता था, बस इसीलिए गुस्से में उसे जान से मारने की कोशिश की थी। उसने बताया
सचमुच इस उच्च वर्ग के कारण कितने असुरक्षित थे यहाँ के लोग।कैसे डरकर जी रहे थे
हालाँकि मैं किसी हरिजन लड़की को व्यक्तिगत तौर पर नहीं जानती थी फिर भी लड़की होने के नाते मुझे बहुत बुरा लगता था साथ ही आश्चर्य भी होता था कि इतनी छोटी सी उम्र में इस लड़की में कितनी परिपक्वता है, कितना कुछ जानती है गाँव के विषय में? मैं उससे कहती कि लोग क्यों सहन करते हैं इन ठाकुरों को? क्यों घुसने देते हैं अपने गाँव में? हमारे गाँव में तो ऐसा नहीं होता, वहाँ तो कोई किसी के दबाव में नहीं रहता...पर जो जवाब मुझे मिला सुनकर मैं हैरान थी...उसने कहा कि ऐसा हुआ तो इनके शराब कौन खरीदेगा? यानि वो लोग ठाकुरों को सिर्फ इसलिए नहीं रोक सकते थे क्योंकि उन्हें अपनी शराब बेचनी थी फिर चाहे घर का सम्मान बचे या न बचे....सचमुच मेरे तो पैरों तले जमीन ही खिसक गई, कैसी सोच है इस गाँव के लोगों की इसी कारण यह गाँव इतना पिछड़ा हुआ है, ऐसा नहीं है कि शराब का धंधा सिर्फ हरिजनों के घरों में होता था कुछ हमारी यानि पिछड़े वर्गों में भी होता था और शाम को औरतें भी पीकर एक-दूसरे पर इस तरह गालियों की बौछार करती थीं कि सुनने वाला शर्मसार हो जाए.....
मैं उस गाँव में रह जरूर रही थी परंतु ये डर या दासता के भाव मेरे आसपास भी नहीं फटकते, मैं जैसे कानपुर में आजाद खयालों के साथ जीती थी वैसे ही यहाँ भी रहने लगी, अपनी ठाकुर सहेलियों के घरों पर मेरा आना-जाना होने लगा, कभी-कभी उनके साथ बाजार भी जाने लगी...पर अच्छा ये हुआ कि मुझे किसी ने कभी रोका भी नहीं, क्यों.....पता नहीं, पर जिन मास्टर जी ने अपनी बेटियों को कभी कोई आजादी नहीं दी उन्होंने मुझे कभी ठाकुरों के गाँव में भी जाने से नहीं रोका...शायद जिस तरह से मुझे उनकी मानसिकता ज्ञात हो गई थी उन्हें भी मेरी सोच का परिचय मिल चुका था परंतु दूसरों की सोच का क्या करें किसी के दिमाग में घुसकर उसकी सोच तो नहीं बदली जा सकती...
हमारे यानि मास्टर जी के घर के सामने सरकारी नल था नल के बाद काफी बड़े-बड़े दो-तीन खेत और फिर पतली सी पगडंडी, खेतों के मेड़ से होकर उस पगडंडी से ही मैं स्कूल जाती थी, मेरी तीन सहेलियाँ और आसपास के गाँव के ठाकुरों और ब्राह्मणों के लड़के भी उसी राह से स्कूल जाते थे, जाहिर है मेरा घर स्कूल से ज्यादा करीब था...
साथ के गाँव से आने वाले कुछ लड़कों को शायद गलतफहमी हो गई कि जिस प्रकार वहाँ की छोटी जाति की लड़कियाँ उन लोगों से डरती हैं या उनकी फब्तियाँ सुनकर अनसुना कर देती हैं मैं भी उसी गाँव से आती हूँ तो मैं भी उनके जैसी ही भीरु हूँगी....सुबह-सुबह मैं खेतों के मेड़ों से होती हुई पगडंडी पर पहुँची कि तभी पीछे से लड़कों के बोलने की आवाज आई जो शायद मुझे ही कुछ कह रहे थे, मैं पीछे नहीं मुड़ी परंतु आवाज से पहचान गई कि एक तो मेरी ही कक्षा का लड़का था दूसरा किसी अन्य कक्षा में पढ़ने वाला छात्र....मुझ पर फब्ती कसने वाला लड़का दूसरा था, मेरा मन हुआ कि मैं अभी यहीं इसरी खबर लूँ पर मुझे स्कूल के लिए देर हो रही थी तो मैं चुपचाप चलती रही...मेरी कक्षा में पढ़ने वाले लड़के ने शायद जानबूझ कर अपनी रफ्तार बढ़ा ली और वो दोनों आगे निकल गए...
स्कूल में पूरे दिन मेरे कानों में उसकी वो गंदी फब्ती और छिछोरी सी हँसी पिघले शीशे की भाँति चुभती रही, कक्षा में जब भी उसके दोस्त को देखती मन करता कि अभी जाकर उसको झाड़ दूँ पर मैं माहौल खराब नहीं करना चाहती थी....खैर छुट्टी हुई मैं अपनी एक सहेली के साथ घर की ओर चल पड़ी उसका घर रास्ते में ही पड़ता था तो उसको छोड़ मैं अकेली घर की ओर धीरे-धीरे आ रही थी,  इस समय मेरा मनो मस्तिष्क बिल्कुल शांत था पता नहीं क्यों मैं सुबह की सारी बातें भूल चुकी थी....अचानक मेरी नजर उन दोनों लड़कों पर पर पड़ी जो सुबह मुझपर फब्तियाँ कस रहे थे....वो मुझसे काफी आगे थे इसलिए मैंने अपनी चाल तेज कर दी और लगभग दौड़ते हुए उन दोनों के करीब पहुँच गई, इत्तफाक से यह वही जगह थी जहाँ सुबह वो लोग मुझपर हँस रहे थे.....मैने पीछे से ही आवाज दी रुको.....दोनों ने एक साथ मुड़कर देखा, तबतक मैं उन दोनों के सामने पहुँच चुकी थी...हाँ अब बोल सुबह क्या कह रहा था? मैं बोली
मतलब....उस दूसरे लड़के ने पूछा
मतलब भी मैं ही समझाऊँगी तुझे कमीने...मैंने गुर्राते हुए कहा
देख गाली मत दे वर्ना...मेरी कक्षा में पढ़ने वाला लड़का बोला
वर्ना क्या, तभी मेरे ही गाँव का एक दस-बारह साल का लड़का वहाँ से गुजरा मैने अपनी किताबें उसे पकड़ा दीं और फिर बोली.. बोल न वर्ना क्या? तू कुछ भी बोले मैं तुझे गाली भी नही दूँ....
तुझे पता नहीं है ये कौन है...उसने कहा
एक तो गंदी-गंदी फब्तियाँ कसता है फिर धमकी देखती हूँ तू क्या कर लेगा बोलते हुए मैने उसे जोरदार थप्पड़ जड़ दिया...कुछ देर को सन्नाटा सा छा गया फिर एकाएक जैसे मेरा सहपाठी चेतनावस्था में आ गया
तेरी इतनी हिम्मत कि तू इसपर हाथ उठाए रुक अभी बताता हूँ...कहता हुआ वह खेत में घुस गया और सरसों का एक मोटा सा पौधा उखाड़ कर उस लड़के के हाथ में देते हुए बोला...ले तू मार
अच्छा..मारेगा...हिम्मत है तो हाथ लगा के दिखा, आज तुझे यहीं न खत्म कर दिया तो....मैं भी गुस्से से दहाड़ती हुई बोली, हालाँकि भीतर से मैं भी डर रही थी परंतु ये भी सोच रही थी कि सामने घर है शायद कोई देख ले और मदद को आ जाए...परंतु यदि कोई नहीं भी आया तो भी अगर इसने मुझे हाथ भी लगाया तो मैं भी आज इसे छोड़ूँगी नहीं....मेरा गुस्सा मेरे डर पर हावी हो गया और शायद मेरे क्रोध को वो दोनों भाँप गए इसलिए 'देख लेंगे तुझे' की धमकी देते हुए चले गए...मैंने भी राहत की साँस ली और विजयी भाव लिए घर आ गई और सारी घटना मास्टर जी की बड़ी बेटी को कह सुनाई।
पर मुझे आश्चर्य हुआ जब वो उन लड़कों पर नाराज होने की बजाय उलटा मुझे ही नसीहत देने लगीं,
तुम्हें अनसुना कर देना चाहिए था, तुम्हें नहीं पता वो लोग कितने बुरे हैं उनसे जितना बचकर रहो उतना ही अच्छा है, उनसे झगड़ा मोल लेना मतलब खुद को मुसीबत में डालना, उन्होंने कहा।
ये सब सुनकर डर लगने की बजाय मेरा गुस्सा और अधिक बढ़ गया मैं सोचने लगी कि ये लोग कितना डरते हैं और यही वजह है कि ये ऊँची जाति के लोग इनपर हावी होते हैं, दरअसल बड़े वो लोग नहीं बड़ा इनके मन के भीतर बैठा डर है। मैं यहाँ ऐसे डरपोक लोगों के बीच सुरक्षित कैसे हो सकती हूँ, ये तो मेरा पक्ष भी नहीं ले सकते, अतः मैने सोच लिया कि अब जो भी होगा उसका सामना मैं स्वयं करूँगी और मैने बोल दिया कि जो भी होगा देखा जाएगा मैं आप लोगों की तरह डरकर किसी की बदतमीजी को बर्दाश्त नहीं कर सकती।
पर दीदी जिसकी तुम बात कर रही हो मुझे पता है उसका एक परिवार का ही भाई लगता है उसकी दुकान वहीं तुम्हारे स्कूल से कुछ आगे जाकर बाजार में है, अगर रास्ते में उन लोगों ने तुम्हें परेशान करने की कोशिश की तो ? पास ही बैठी पड़ोस की लड़की ने कहा।
अब तो जो होगा देखा जाएगा, कहती हुई मैं अंदर चली गई, पर डर मुझे भी लग रहा था कि कहीं इन लोगों की बात सच निकली तो? मेरे तो पापा भी यहाँ नहीं हैं और इन लोगों से मैं मदद की उम्मीद नही कर सकती, ये पहले से ही इतने डरे हुए हैं, पर फिर ये सोचकर अपने भीतर साहस जुटा लेती कि मेरे माँ-पापा ने मुझे डरना नहीं सिखाया है फिर दूर ही सही वो हमेशा मेरे साथ हैं।
 अगले दिन स्कूल जाते हुए मुझे रास्ते में डर लग रहा था जब तक मैं अपनी सहेली के घर के पास तक नहीं पहुँची तब तक बार-बार पीछे मुड़-मुड़कर देखती रही कि कहीं कोई पीछा तो नहीं कर रहा??? स्कूल पहुँची तो पता चला कि वो दोनो ही लड़के स्कूल नहीं आए थे, मैं फिलहाल कुछ समय के लिए आश्वस्त हो गई। शाम को घर वापस आई तो पता चला कि वो लड़का और उसकी बहन घर पर लड़ने आए थे, मास्टर जी की बड़ी बेटी ने उन्हे ये कहकर वापस भेज दिया कि जब मैं घर पर आजाऊँ तब आएँ।
तुम्हें पता है वो धमकी दे रही थी कि हमारा इकलौता भाई है, हम पंडित हैं किसी नीची जाति की लड़की के हाथ मार खाकर अपनी बेइज्जती नहीं करवाने वाले, हम चुप नहीं बैठेंगे। दीदी ने एक सांस में बोल दिया।
अच्छा फिर आपने क्या कहा? मैने पूछा
हमने भी कह दिया कि वो भी अपने खानदान में इकलौती बेटी है, शहर में पली-बढ़ी है, ऊँच-नीच तो जानती ही नहीं, उसने भी कहा है कि वो किसी की बदतमीजी बर्दाश्त नहीं करेगी इसलिए जब वो घर पर हो तभी आना और उसी से सीधे बात कर लेना। मास्टर जी की बड़ी बेटी ने बताया।
आपने ठीक कहा अब आने दो मैं ही उनसे बात करूँगी, समझते क्या हैं अपने आप को। मैं बोली
दूसरे दिन फिर मैं उसी प्रकार डरती हुई स्कूल गई और वो दोनो ही लड़के फिर स्कूल से नदारद, घर आई तो पता चला कि फिर उसकी बहन आई थी और दीदी ने उसे फिर यही कहा कि आप स्कूल के समय पर आए हो वो स्कूल की छुट्टी नहीं करती, अब इंतजार करो उससे बात करके ही जाना। पर वो रुकी नही बाद में आऊँगी कहकर चली गई।
तो क्या मैं कल छुट्टी कर लूँ, बात कर ही लेती हूँ उससे, मैँ भी तो देखूँ कितनी बड़ी तीसमार खाँ है वो। मैंने कहा
नहीं उसे बात करना ही होगा तो वो खुद शाम को आएगी, तुम क्यों अपनी पढ़ाई का नुकसान करोगी। वैसे भी मुझे लगता नहीं कि वो तुम्हारा सामना करना चाहती है, बस अपनी झूठी शान दिखाने के लिए चली आती है, अगर उसे बात ही करनी होती तो उसे भी तो पता है कि तुम कब घर पर मिल सकती हो, पर नहीं...जानबूझ कर ऐसे समय पर आई जब तुम स्कूल में थीं। दीदी ने कहा।
आज उनकी आवाज में आत्मविश्वास और साहस झलक रहा था, आज वो पहले वाली डरी सहमी मास्टर जी की बेटी नहीं लग रही थीं, मुझे उनका ये बदलाव देखकर अच्छा लगा।
धीरे-धीरे समय बीतता गया बात आई-गई हो गई मेरा भय भी पूरी तरह समाप्त हो गया, मेरा वो सहपाठी अब मुझसे नजरें नही मिलाता था, वही लड़के अब भी राह में मुझे मिलते पर अब मुझपर फब्ती कसने का साहस नहीं करते।
एक दिन पड़ोस की लड़की ने पूछ ही लिया-दीदी अब वो लड़का कुछ नहीं कहता आपको?
उसे पता चल गया कि उसका पाला किसी ऐसी-वैसी लड़की से नहीं झाँसी की रानी से पड़ा है, बोलेगा कैसे। मुझसे पहले दीदी ही बोल पड़ीं
मेरे चेहरे पर एक विजयी मुस्कान तैर गई.... मैं समझ चुकी थी कि मनुष्य किसी अन्य से नहीं स्वयं अपने मन के भीतर बैठे डर से ही हारता है।
(कथा पूर्णतः सत्य घटना पर आधारित)

साभार....मालती मिश्रा

शनिवार

सत्ता की सीढ़ी

सत्ता की सीढ़ी
आज जब हर तरफ दलित-दलित का शोर सुनाई पड़ रहा है 'दलित' सिर्फ एक राजनीतिक शब्द बन कर रह गया है, जो लोग दलित वर्ग के हितैशी बने घूम रहे हैं उन्हें तो दलित का 'द' भी पता न होगा....उन्हें कैसे पता होगा कि दलित किस प्रकार जीते हैं उनकी परेशानियाँ कैसी होती हैं उनका रहन-सहन कैसा होता है? बस पुस्तकों में पढ़ लेने मात्र से किसी वर्ग विशेष के विषय में गहराई से नहीं जाना जा सकता हाँ राजनीति जरूर की जा सकती है| यदि वो दलित वर्ग की कठिनाइयों व उनकी पीड़ा से अवगत ही हैं और सचमुच ही उनका निवारण करना चाहते तो साठ-पैंसठ सालों का समय बहुत होता है किसी वर्ग विशेष की स्थिति को सुधारने के लिए... परंतु यदि आज तक दलित सिर्फ दलित ही है तो कम से कम जो पहले सत्ता में रह चुके हैं उन्हें इस विषय में कुछ कहते हुए सोच कर ही बोलना चाहिए परंतु नही....इस सारे ड्रामे के निर्माता, निर्देशक, फाइनेंसर, संवाद लेखक सब तो वही हैं, क्योंकि समाज को बाँटकर दुबारा सत्ता में वापस आने के लिए यही रास्ता उन्हें उचित लगा या यूँ कह लें कि लोगों को इतना अवसर नही देना चाहते कि उनकी दृष्टि इनकी काली करतूतों पर पड़े...इसलिए समाज को गुमराह करने का ये एक तरीका मात्र है....
आज देशद्रोह का परचम लहराने वाले को देश का हीरो बनाकर पेश किया जा रहा है इसलिए नहीं कि वो दलित है, बल्कि इसलिए क्योंकि देश की व्यवस्था को डगमगाने का जरिया है, इसलिए कि उसके कंधे पर बंदूक रखकर सरकार पर निशाना साधा जा सके, इसलिए भी कि समाज को दलित, जनरल यानि उच्च और निम्न की श्रेणी में बाँटा जा सके....और ये कहना गलत न होगा कि काफी हद तक कामयाबी भी मिली है इन स्वार्थी काली राजनीति करने वालों को....
पहले कोई एक ही राजनीतिक पार्टी देश पर सालों निष्कंटक राज्य करती है उसे ये सत्य तो ज्ञात था ही कि कभी न कभी तो जनता जागेगी और उससे उसके कामों का हिसाब माँगेगी इसलिए उसने देश के विकास से ज्यादा अपने विकास और कन्हैया, केजरी, हार्दिक पटेल जैसे असामाजिक तत्वों का विकास करने में ध्यान दिया और ऐसे कार्यों के लिए जेएनयू जैसी संस्था का प्रयोग किया गया.....ये सब आम जनता को दिखाई पड़ रहा है कि किस प्रकार उस देश में जहाँ सड़क पर दुर्घटना हो जाने पर एक व्यक्ति तड़पते हुए दम तोड़ देता है परंतु लोग तमाशा देखते हुए निकल जाते हैं और उसकी मदद को आगे नहीं आते वहीं पर एक बेहद साधारण से छात्र का इतना साहस होता है कि वो हमारे ही देश के खिलाफ नारे लगाता है और उसके समर्थन में लाखों लोग खड़े हो जाते हैं, वो साधारण छात्र महँगे वकीलों, महँगी गाड़ी तथा वी आई पी की भाँति सुविधाएँ प्राप्त करता है, तो फिर क्या ये सब सिर्फ इसलिए कि वो दलित है?
या इसलिए की वो किसी बड़ी हस्ती की डूबती नाव का पतवार है....
आज देश में बहस का मुद्दा कन्हैया नहीं, बहस का मुद्दा कोई दलित भी नहीं बल्कि मुद्दा सिर्फ ये है कि क्या जनता सिर्फ भावनाओं में बह कर ऊँच-नीच में बँटकर इन सत्ता के लोभियों की लालच का शिकार होगी या फिर खुद की समझदारी का प्रयोग करते हुए ऐसे लोगों को मुँहतोड़ जवाब देकर ये बताएगी कि हम तुम्हारे घिनौने साजिश का शिकार नहीं होने वाले....

मंगलवार

आरक्षण का हथियार

आरक्षण का हथियार

माँ-बाबा की सिखाई बातों को 
मैंने आँख बंद कर स्वीकार किया 
सारा दिन सारी रातों को 
पढ़ने में ही गुजार दिया 
खेलकूद और मौज-मस्ती ने 
मुझे भी खूब रिझाया था 
पर मेहनत करके ही जीतोगे 
मैंने मूलमंत्र ये पाया था 
बाबा की बस एक बात 
मैने जीवन में उतारा था 
जीवन गर मौज में जीना है 
तो अभी मौज का त्याग करो 
शिक्षारूपी क्रीडाक्षेत्र में 
हर संभव जीत का प्रयास करो 
ध्यान रहे कि जीवन में 
हक किसी का मत हरना 
आरक्षण के खैरात की खातिर
स्वाभिमान को आहत मत करना 
जाग-जाग कर रातों को मैंने 
नींदों का व्यापार किया 
बारी आई लाभ कमाने की तो 
आरक्षण ने बाजी मार लिया 
जीवन की रणभूमि में 
आरक्षण का हथियार चला
मेहनत और गुणवत्ता के शस्त्रों को 
बेरहमी से नकार दिया 
सज्जनों की कही बातें 
मुझको याद फिर आती हैं 
अयोग्यता बैठी कुर्सी तोड़े 
योग्यता हुकुम बजाती है |
मालती