आज चारों ओर राजनीति के चलते 'दलित' शब्द छाया हुआ है....इस माहौल ने मुझे मेरा बचपन याद दिला दिया, जहाँ पहली बार दलित बनाम उच्च वर्ग की परिस्थितियों मेरा आमना-सामना हुआ और मैंने जाना कि यदि आज के समय में भी शोषण हो रहा है तो शोषित वर्ग काफी हद तक स्वयं भी जिम्मेदार है शोषण का।
आज से कोई बीस-इक्कीस साल पहले की बात है माँ की तबियत खराब होने के कारण मुझे उनके साथ रहने के लिए अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़कर गाँव जाना पड़ा ताकि घर के छोटे-मोटे कार्यों में उनकी मदद कर सकूँ और उनकी सेहत का भी ध्यान रखूँ....बचपन से अभी तक मैंने पापा के साथ रहकर शहर में ही पढ़ाई की थी, बता दूँ कि मेरे पापा कानपुर में सरकारी विभाग में कार्यरत थे इसलिए मैं और मेरे भाई सब उनके साथ रहकर ही शिक्षा ग्रहण कर रहे थे, चूँकि गाँव में भी हमारी पुस्तैनी जमीन व खेत थे तो माँ अधिकतर गाँव में ही रहती थीं|
खैर मैं माँ के साथ पढ़ाई छोड़कर आ तो गई परंतु मेरा मन तो मेरी किताबों में ही रहता था और माँ-पापा दोनों को पढ़ाई के प्रति मेरी रूचि ज्ञात थी इसलिए पढ़ाई बीच में रोककर उन्हें भी अच्छा नहीं लग रहा था| ये साल तो मेरे लिए बेकार हो ही गया जैसे-तैसे कुछ महीने बीत गए,स्कूलों का नया सत्र शुरू होने वाला था मैं माँ को छोड़कर जा भी नही सकती थी और हमारे गाँव के आस-पास कोई ऐसा स्कूल भी नहीं था जहाँ मैं पढ़ सकती, बड़े स्कूल इतनी दूर थे कि मैं अकेली नहीं जा सकती थी....इसलिए पापा ने मुझे अपने एक दूर के रिश्तेदार के घर रहने के लिए भेज दिया और वहाँ पास में ही एक इंटर मीडियट स्कूल में ग्यारहवीं में मेरा दाखिला करवा दिया, पहले तो मैं पढ़ाई के लिए सिर्फ माँ से दूर रहती थी अब माँ-पापा दोनों से दूर होना पड़ा, माँ ने मुझे समझाया कि मुझे परेशान नहीं होना चाहिए क्योंकि अब तो मैं हर सप्ताह उनसे मिल सकती हूँ....
मैं अपने डर को मन के किसी कोने में दबाए डरी सहमी आ गई अपने घर से दूर एक अंजान गाँव अंजाने लोगों के बीच....उन लोगों से मैं पहले कभी नहीं मिली थी, सभी चेहरे मेरे लिए नए थे, नया रहन-सहन, नया परिवेश....ये गाँव हमारे गाँव से काफी अलग सा प्रतीत हो रहा था, यहाँ के लोगों की मानसिकता भी ज्यादा संकीर्ण थी या फिर ऐसा भी हो सकता है कि मैं अपने गाँव में ज्यादा आजाद महसूस करती थी वहाँ के खेत, बगीचे, पेड़,पौधे,नदी,तालाब,पशु,पक्षी सभी से अपनत्व महसूस करती थी इसलिए...और यहाँ सभी मेरे लिए अंजान और पराए थे, मेरा रहन-सहन और भाषा भी शहरी था जो यहाँ के लोगों के लिए नया था इसीलिए इनके साथ घुलने-मिलने में मुझे काफी समय लगा....वैसे भी मैं यहाँ पढ़ने आई थी तो मेरा पूरा ध्यान पढ़ाई पर ही केंद्रित था|
वहाँ रहते हुए मुझे ज्ञात हुआ कि मैं अपने गाँव और उस गाँव में इतना अंतर क्यों महसूस करती हूँ....जिस घर में मैं रहती थी उस घर के मुखिया एक प्राइमरी स्कूल के प्रधानाध्यापक थे, उनकी दो बेटियाँ दोनों शादीशुदा थीं, बड़ी बेटी ससुराल में रहती थी जबकि छोटी बेटी का अभी तक गौना नहीं हुआ था उसकी उम्र यही कोई बारह-तेरह वर्ष होगी....मास्टर जी के दो बेटे थे एक बड़ी बेटी से छोटा और एक सबसे छोटा....
स्कूल के प्रधानाध्यापक होने के बावजूद मास्टर जी ने अपनी एक भी बेटी को स्कूल नहीं भेजा जबकि दोनो बेटों को पढ़ा रहे थे....मैं ये तो नहीं कहूँगी कि मैंने ऐसा भेदभाव कभी नहीं देखा परंतु एक शिक्षित व्यक्ति से ऐसा भेदभाव मेरे लिए अपेक्षित नहीं था, वो कहते हैं न कि 'जाके पाँव न फटे बिवाई वो क्या जाने पीर पराई' मैंने इस तरह का यानी बेटे-बेटी का भेदभाव कभी अपने घर में नहीं देखा था तो मुझे ये सब बहुत ही बुरा लगता, रह-रह कर मेरे मन में बगावत जन्म लेती परंतु फिर ध्यान आ जाता कि मैं पराई हूँ और यहाँ सिर्फ पढ़ने के लिए आई हूँ, मैं अब अपनी पढ़ाई में कोई बाधा नहीं आने देना चाहती थी इसलिए चुप रह जाती....धीरे-धीरे समय के साथ-साथ मेरी दोस्ती उस घर की लड़कियों के साथ-साथ आस-पड़ोस की लड़कियों से भी हो गई, अब मेरा समय अच्छी तरह कटने लगा, अब मेरी भाषा हमारे बीच रुकावट नहीं बनती सबको मेरी और मुझे सबकी बातें खूब अच्छी तरह समझ में आतीं, करीब चालीस-पैंतालीस लड़कों के बीच मेरी कक्षा में पढ़ने वाली मेरे अलावा सिर्फ चार ही छात्राएँ थीं जो ठाकुर परिवारों से आती थीं, उनके अलावा दूसरी अन्य कक्षाओं की लड़कियाँ भी ठाकुरों या ब्राह्मणों के परिवारों से ही आती थीं, पूरे स्कूल में सिर्फ दो ही लड़कियाँ ऐसी थीं जो दलित यानि हरिजन परिवार की थीं....अब तक मैं ये समझ चुकी थी कि वहाँ पर सिर्फ ऊँची जाति के घरों की ही लड़कियाँ पढ़ती थीं इसीलिए जिस घर में मैं रहती थी उस घर की ही नहीं बल्कि पूरे गाँव की लड़कियों के लिए स्कूल सिर्फ सपना ही था.....
उस गाँव के आस-पास के गाँव ठाकुरों और ब्राहमणों के गाँव थे..मास्टर जी की छोटी बेटी से मुझे उस गाँव व आसपास के गाँवों के कुछ किस्से कहानियाँ भी धीरे-धीरे पता चलने लगे, जिससे मुझे ये ज्ञात हुआ कि इस गाँव के लोग ठाकुरों से भयभीत होते हैं, उसने मुझे बताया कि इस गाँव के बहुत से घरों में अब भी देसी शराब की भट्टी लगती है और आस-पास के गाँव के कुछ ठाकुर शराब पीने उन घरों में आते हैं, साथ ही वो मुझे ये भी बताती कि किस ठाकुर का चक्कर गाँव की किस हरिजन लड़की से है।
एक दिन उसने एक आदमी की ओर इशारा करते हुए मुझे दिखाया, दीदी देखो वो लूला पता है एकबार एक ठाकुर ने उसकी पूरी गर्दन ही काट दी थी।
क्या?? फिर वो जिंदा कैसे बचा? मैंने आश्चर्य से पूछा।
उसने अपने एक हाथ से ही अपने गले में पड़ा अंगोछा अपनी गर्दन में लपेटा और दौड़ता हुआ पुलिस स्टेशन चला गया, पुलिस वाले उसे तुरंत अस्पताल ले गए और वह बच गया। उसने बताया
फिर उस ठाकुर का क्या हुआ, उसे पुलिस ने पकड़ा या नहीं? मैंने पूछा। मुझे लगा था कि शायद ठाकुर होने के नाते पुलिस वालों ने उसका ही साथ दिया होगा।
पुलिस वालों ने तीन दिन तक उसके घर को घेर रखा था, वो अपने घर के बाहर ही तीन दिनों तक पेड़ के ऊपर चढ़ा रहा, फिर चौथे दिन पकड़ा गया। उसने बताया
पर उसने गला क्यों काटा था उस बेचारे का? मैंने उत्सुकतावश पूछा।
उसकी लड़की के कारण, उसकी लड़की बहुत सुंदर थी न और ये लूला उसे घर से निकलने नहीं देता था, बस इसीलिए गुस्से में उसे जान से मारने की कोशिश की थी। उसने बताया
सचमुच इस उच्च वर्ग के कारण कितने असुरक्षित थे यहाँ के लोग।कैसे डरकर जी रहे थे
हालाँकि मैं किसी हरिजन लड़की को व्यक्तिगत तौर पर नहीं जानती थी फिर भी लड़की होने के नाते मुझे बहुत बुरा लगता था साथ ही आश्चर्य भी होता था कि इतनी छोटी सी उम्र में इस लड़की में कितनी परिपक्वता है, कितना कुछ जानती है गाँव के विषय में? मैं उससे कहती कि लोग क्यों सहन करते हैं इन ठाकुरों को? क्यों घुसने देते हैं अपने गाँव में? हमारे गाँव में तो ऐसा नहीं होता, वहाँ तो कोई किसी के दबाव में नहीं रहता...पर जो जवाब मुझे मिला सुनकर मैं हैरान थी...उसने कहा कि ऐसा हुआ तो इनके शराब कौन खरीदेगा? यानि वो लोग ठाकुरों को सिर्फ इसलिए नहीं रोक सकते थे क्योंकि उन्हें अपनी शराब बेचनी थी फिर चाहे घर का सम्मान बचे या न बचे....सचमुच मेरे तो पैरों तले जमीन ही खिसक गई, कैसी सोच है इस गाँव के लोगों की इसी कारण यह गाँव इतना पिछड़ा हुआ है, ऐसा नहीं है कि शराब का धंधा सिर्फ हरिजनों के घरों में होता था कुछ हमारी यानि पिछड़े वर्गों में भी होता था और शाम को औरतें भी पीकर एक-दूसरे पर इस तरह गालियों की बौछार करती थीं कि सुनने वाला शर्मसार हो जाए.....
मैं उस गाँव में रह जरूर रही थी परंतु ये डर या दासता के भाव मेरे आसपास भी नहीं फटकते, मैं जैसे कानपुर में आजाद खयालों के साथ जीती थी वैसे ही यहाँ भी रहने लगी, अपनी ठाकुर सहेलियों के घरों पर मेरा आना-जाना होने लगा, कभी-कभी उनके साथ बाजार भी जाने लगी...पर अच्छा ये हुआ कि मुझे किसी ने कभी रोका भी नहीं, क्यों.....पता नहीं, पर जिन मास्टर जी ने अपनी बेटियों को कभी कोई आजादी नहीं दी उन्होंने मुझे कभी ठाकुरों के गाँव में भी जाने से नहीं रोका...शायद जिस तरह से मुझे उनकी मानसिकता ज्ञात हो गई थी उन्हें भी मेरी सोच का परिचय मिल चुका था परंतु दूसरों की सोच का क्या करें किसी के दिमाग में घुसकर उसकी सोच तो नहीं बदली जा सकती...
हमारे यानि मास्टर जी के घर के सामने सरकारी नल था नल के बाद काफी बड़े-बड़े दो-तीन खेत और फिर पतली सी पगडंडी, खेतों के मेड़ से होकर उस पगडंडी से ही मैं स्कूल जाती थी, मेरी तीन सहेलियाँ और आसपास के गाँव के ठाकुरों और ब्राह्मणों के लड़के भी उसी राह से स्कूल जाते थे, जाहिर है मेरा घर स्कूल से ज्यादा करीब था...
साथ के गाँव से आने वाले कुछ लड़कों को शायद गलतफहमी हो गई कि जिस प्रकार वहाँ की छोटी जाति की लड़कियाँ उन लोगों से डरती हैं या उनकी फब्तियाँ सुनकर अनसुना कर देती हैं मैं भी उसी गाँव से आती हूँ तो मैं भी उनके जैसी ही भीरु हूँगी....सुबह-सुबह मैं खेतों के मेड़ों से होती हुई पगडंडी पर पहुँची कि तभी पीछे से लड़कों के बोलने की आवाज आई जो शायद मुझे ही कुछ कह रहे थे, मैं पीछे नहीं मुड़ी परंतु आवाज से पहचान गई कि एक तो मेरी ही कक्षा का लड़का था दूसरा किसी अन्य कक्षा में पढ़ने वाला छात्र....मुझ पर फब्ती कसने वाला लड़का दूसरा था, मेरा मन हुआ कि मैं अभी यहीं इसरी खबर लूँ पर मुझे स्कूल के लिए देर हो रही थी तो मैं चुपचाप चलती रही...मेरी कक्षा में पढ़ने वाले लड़के ने शायद जानबूझ कर अपनी रफ्तार बढ़ा ली और वो दोनों आगे निकल गए...
स्कूल में पूरे दिन मेरे कानों में उसकी वो गंदी फब्ती और छिछोरी सी हँसी पिघले शीशे की भाँति चुभती रही, कक्षा में जब भी उसके दोस्त को देखती मन करता कि अभी जाकर उसको झाड़ दूँ पर मैं माहौल खराब नहीं करना चाहती थी....खैर छुट्टी हुई मैं अपनी एक सहेली के साथ घर की ओर चल पड़ी उसका घर रास्ते में ही पड़ता था तो उसको छोड़ मैं अकेली घर की ओर धीरे-धीरे आ रही थी, इस समय मेरा मनो मस्तिष्क बिल्कुल शांत था पता नहीं क्यों मैं सुबह की सारी बातें भूल चुकी थी....अचानक मेरी नजर उन दोनों लड़कों पर पर पड़ी जो सुबह मुझपर फब्तियाँ कस रहे थे....वो मुझसे काफी आगे थे इसलिए मैंने अपनी चाल तेज कर दी और लगभग दौड़ते हुए उन दोनों के करीब पहुँच गई, इत्तफाक से यह वही जगह थी जहाँ सुबह वो लोग मुझपर हँस रहे थे.....मैने पीछे से ही आवाज दी रुको.....दोनों ने एक साथ मुड़कर देखा, तबतक मैं उन दोनों के सामने पहुँच चुकी थी...हाँ अब बोल सुबह क्या कह रहा था? मैं बोली
मतलब....उस दूसरे लड़के ने पूछा
मतलब भी मैं ही समझाऊँगी तुझे कमीने...मैंने गुर्राते हुए कहा
देख गाली मत दे वर्ना...मेरी कक्षा में पढ़ने वाला लड़का बोला
वर्ना क्या, तभी मेरे ही गाँव का एक दस-बारह साल का लड़का वहाँ से गुजरा मैने अपनी किताबें उसे पकड़ा दीं और फिर बोली.. बोल न वर्ना क्या? तू कुछ भी बोले मैं तुझे गाली भी नही दूँ....
तुझे पता नहीं है ये कौन है...उसने कहा
एक तो गंदी-गंदी फब्तियाँ कसता है फिर धमकी देखती हूँ तू क्या कर लेगा बोलते हुए मैने उसे जोरदार थप्पड़ जड़ दिया...कुछ देर को सन्नाटा सा छा गया फिर एकाएक जैसे मेरा सहपाठी चेतनावस्था में आ गया
तेरी इतनी हिम्मत कि तू इसपर हाथ उठाए रुक अभी बताता हूँ...कहता हुआ वह खेत में घुस गया और सरसों का एक मोटा सा पौधा उखाड़ कर उस लड़के के हाथ में देते हुए बोला...ले तू मार
अच्छा..मारेगा...हिम्मत है तो हाथ लगा के दिखा, आज तुझे यहीं न खत्म कर दिया तो....मैं भी गुस्से से दहाड़ती हुई बोली, हालाँकि भीतर से मैं भी डर रही थी परंतु ये भी सोच रही थी कि सामने घर है शायद कोई देख ले और मदद को आ जाए...परंतु यदि कोई नहीं भी आया तो भी अगर इसने मुझे हाथ भी लगाया तो मैं भी आज इसे छोड़ूँगी नहीं....मेरा गुस्सा मेरे डर पर हावी हो गया और शायद मेरे क्रोध को वो दोनों भाँप गए इसलिए 'देख लेंगे तुझे' की धमकी देते हुए चले गए...मैंने भी राहत की साँस ली और विजयी भाव लिए घर आ गई और सारी घटना मास्टर जी की बड़ी बेटी को कह सुनाई।
पर मुझे आश्चर्य हुआ जब वो उन लड़कों पर नाराज होने की बजाय उलटा मुझे ही नसीहत देने लगीं,
तुम्हें अनसुना कर देना चाहिए था, तुम्हें नहीं पता वो लोग कितने बुरे हैं उनसे जितना बचकर रहो उतना ही अच्छा है, उनसे झगड़ा मोल लेना मतलब खुद को मुसीबत में डालना, उन्होंने कहा।
ये सब सुनकर डर लगने की बजाय मेरा गुस्सा और अधिक बढ़ गया मैं सोचने लगी कि ये लोग कितना डरते हैं और यही वजह है कि ये ऊँची जाति के लोग इनपर हावी होते हैं, दरअसल बड़े वो लोग नहीं बड़ा इनके मन के भीतर बैठा डर है। मैं यहाँ ऐसे डरपोक लोगों के बीच सुरक्षित कैसे हो सकती हूँ, ये तो मेरा पक्ष भी नहीं ले सकते, अतः मैने सोच लिया कि अब जो भी होगा उसका सामना मैं स्वयं करूँगी और मैने बोल दिया कि जो भी होगा देखा जाएगा मैं आप लोगों की तरह डरकर किसी की बदतमीजी को बर्दाश्त नहीं कर सकती।
पर दीदी जिसकी तुम बात कर रही हो मुझे पता है उसका एक परिवार का ही भाई लगता है उसकी दुकान वहीं तुम्हारे स्कूल से कुछ आगे जाकर बाजार में है, अगर रास्ते में उन लोगों ने तुम्हें परेशान करने की कोशिश की तो ? पास ही बैठी पड़ोस की लड़की ने कहा।
अब तो जो होगा देखा जाएगा, कहती हुई मैं अंदर चली गई, पर डर मुझे भी लग रहा था कि कहीं इन लोगों की बात सच निकली तो? मेरे तो पापा भी यहाँ नहीं हैं और इन लोगों से मैं मदद की उम्मीद नही कर सकती, ये पहले से ही इतने डरे हुए हैं, पर फिर ये सोचकर अपने भीतर साहस जुटा लेती कि मेरे माँ-पापा ने मुझे डरना नहीं सिखाया है फिर दूर ही सही वो हमेशा मेरे साथ हैं।
अगले दिन स्कूल जाते हुए मुझे रास्ते में डर लग रहा था जब तक मैं अपनी सहेली के घर के पास तक नहीं पहुँची तब तक बार-बार पीछे मुड़-मुड़कर देखती रही कि कहीं कोई पीछा तो नहीं कर रहा??? स्कूल पहुँची तो पता चला कि वो दोनो ही लड़के स्कूल नहीं आए थे, मैं फिलहाल कुछ समय के लिए आश्वस्त हो गई। शाम को घर वापस आई तो पता चला कि वो लड़का और उसकी बहन घर पर लड़ने आए थे, मास्टर जी की बड़ी बेटी ने उन्हे ये कहकर वापस भेज दिया कि जब मैं घर पर आजाऊँ तब आएँ।
तुम्हें पता है वो धमकी दे रही थी कि हमारा इकलौता भाई है, हम पंडित हैं किसी नीची जाति की लड़की के हाथ मार खाकर अपनी बेइज्जती नहीं करवाने वाले, हम चुप नहीं बैठेंगे। दीदी ने एक सांस में बोल दिया।
अच्छा फिर आपने क्या कहा? मैने पूछा
हमने भी कह दिया कि वो भी अपने खानदान में इकलौती बेटी है, शहर में पली-बढ़ी है, ऊँच-नीच तो जानती ही नहीं, उसने भी कहा है कि वो किसी की बदतमीजी बर्दाश्त नहीं करेगी इसलिए जब वो घर पर हो तभी आना और उसी से सीधे बात कर लेना। मास्टर जी की बड़ी बेटी ने बताया।
आपने ठीक कहा अब आने दो मैं ही उनसे बात करूँगी, समझते क्या हैं अपने आप को। मैं बोली
दूसरे दिन फिर मैं उसी प्रकार डरती हुई स्कूल गई और वो दोनो ही लड़के फिर स्कूल से नदारद, घर आई तो पता चला कि फिर उसकी बहन आई थी और दीदी ने उसे फिर यही कहा कि आप स्कूल के समय पर आए हो वो स्कूल की छुट्टी नहीं करती, अब इंतजार करो उससे बात करके ही जाना। पर वो रुकी नही बाद में आऊँगी कहकर चली गई।
तो क्या मैं कल छुट्टी कर लूँ, बात कर ही लेती हूँ उससे, मैँ भी तो देखूँ कितनी बड़ी तीसमार खाँ है वो। मैंने कहा
नहीं उसे बात करना ही होगा तो वो खुद शाम को आएगी, तुम क्यों अपनी पढ़ाई का नुकसान करोगी। वैसे भी मुझे लगता नहीं कि वो तुम्हारा सामना करना चाहती है, बस अपनी झूठी शान दिखाने के लिए चली आती है, अगर उसे बात ही करनी होती तो उसे भी तो पता है कि तुम कब घर पर मिल सकती हो, पर नहीं...जानबूझ कर ऐसे समय पर आई जब तुम स्कूल में थीं। दीदी ने कहा।
आज उनकी आवाज में आत्मविश्वास और साहस झलक रहा था, आज वो पहले वाली डरी सहमी मास्टर जी की बेटी नहीं लग रही थीं, मुझे उनका ये बदलाव देखकर अच्छा लगा।
धीरे-धीरे समय बीतता गया बात आई-गई हो गई मेरा भय भी पूरी तरह समाप्त हो गया, मेरा वो सहपाठी अब मुझसे नजरें नही मिलाता था, वही लड़के अब भी राह में मुझे मिलते पर अब मुझपर फब्ती कसने का साहस नहीं करते।
एक दिन पड़ोस की लड़की ने पूछ ही लिया-दीदी अब वो लड़का कुछ नहीं कहता आपको?
उसे पता चल गया कि उसका पाला किसी ऐसी-वैसी लड़की से नहीं झाँसी की रानी से पड़ा है, बोलेगा कैसे। मुझसे पहले दीदी ही बोल पड़ीं
मेरे चेहरे पर एक विजयी मुस्कान तैर गई.... मैं समझ चुकी थी कि मनुष्य किसी अन्य से नहीं स्वयं अपने मन के भीतर बैठे डर से ही हारता है।
(कथा पूर्णतः सत्य घटना पर आधारित)
साभार....मालती मिश्रा
0 Comments:
Thanks For Visit Here.