लॉकडाउन में महिलाओं की स्थिति
सोशल मीडिया के दौर में लॉकडाउन पर भी तरह-तरह के विचार तरह-तरह के अनुभव जानने को मिल रहे हैं। सोचती हूँ यही लॉकडाउन अगर अब से दस-पंद्रह वर्ष पहले होता तो उस समय कैसा अनुभव होता। लोग तब भी घरों में ही रहने पर विवश होते जैसे कि आज हैं लेकिन घरों के भीतर के दृश्य अलग होते।
उस समय लॉकडाउन होता तो पूरा परिवार सिर्फ शारीरिक ही नहीं मानसिक रूप से भी घर के भीतर होता, लोग आपस में ही गप-शप करते, आराम करते खेलते वैचारिक भेद होने पर लड़ते फिर मान-मनुहार कर एक हो जाते। जैसे भी होता पर साथ होते परंतु आजकल लॉकडाउन होने पर भी घर के भीतर रहते हुए भी क्या घर के हर सदस्य एक साथ रहते हैं? यह सोचने की बात है।
आजकल लॉकडाउन है तो क्या हुआ! घर के हर सदस्य के हाथ में स्मार्ट फोन होता है, चाहे एक ही कमरे में चार सदस्य बैठे हों पर चारों ही अपने-अपने फोन के सहारे कहीं और ही व्यस्त होते हैं। कोई मूवी देख रहा होता है तो कोई दोस्तों के साथ गप-शप करने में व्यस्त होता है। कोई टिक-टॉक देख रहा होता है तो कोई टिक-टॉक पर वीडियो बना रहा होता है। कवि-कवयित्रियों के तो ऑनलाइन गोष्ठियाँ भी होती हैं जिनमें घंटों-घंटों तक व्यस्त रहते हैं, समय कब निकल जाता है पता ही नहीं चलता। किन्तु इन दोनों ही समय काल में घर की महिलाओं की स्थिति समान होने में कोई संशय नहीं है।
माना कि समय बदल गया विचारों में परिवर्तन आया है, लोगों की सोच का दायरा अब पहले की तुलना में अधिक विस्तृत हुआ है। अब नारी जाति को समान अधिकार दिए जाने पर अधिकतर लोगों को कोई आपत्ति नहीं होती, 'बेटा-बेटी एक समान' के सिद्धांत पर जो चल पड़ा है हमारा समाज, किन्तु यह समानता कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित है। आज की स्त्री घर से बाहर निकलकर पुरुषों के समकक्ष कार्य कर रही है। हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है और अपनी योग्यता को सिद्ध कर रही है, यदि सही मायने में देखें तो स्त्रियों ने तो पुरुषों की बराबरी कर ली परंतु पुरुष अपनी सीमा से बाहर निकलकर स्त्रियों की बराबरी नहीं कर पाए हैं। इस लॉक डाउन ने जहाँ परिवार के सदस्यों को एक साथ घर पर रहकर पूरे परिवार को एक साथ समय बिताने का अवसर दिया है वहीं स्त्रियों के कार्यों को दोगुना बढ़ा दिया है। सोशल मीडिया पर लोग तरह-तरह के वीडियो बनाकर डाल रहे हैं, जिसमें पुरुष घर में पत्नी के साथ किचन में सहायता कर रहे हैं या घर की सफाई आदि कर रहे हैं। कई बार सोशल मीडिया पर पढ़ने को भी मिलता है जिसमें कुछ महिलाएँ अपनी प्रसन्नता प्रकट कर रही हैं कि लॉकडाउन के समय उनके पति अति उदार हो गए हैं और घर के कार्यों में उनकी सहायता करते हैं। देख-सुन कर बहुत अच्छा लगता है कि चलिए एक तो अच्छा काम हुआ कि इस लॉक डाउन ने पुरूष वर्ग को महिलाओं के प्रति उदार बना दिया परंतु अगर सत्य देखेंगे तो ऐसे पुरुषों की संख्या नाम मात्र ही होगी सच्चाई तो यह है कि लॉकडाउन ने महिलाओं के कार्यों को दो-तीन गुना अधिक बढ़ा दिया है।
लॉकडाउन के कारण किसी की मानसिकता नहीं बदली है बल्कि पुरुषों की यह सोच कि 'घर के कार्य करना सिर्फ स्त्रियों का उत्तरदायित्व है' उन्हें उदार नहीं बनने देती। लॉक डाउन से पहले घर के पुरुष ऑफिस और बच्चे स्कूल चले जाते थे तब महिलाओं के किचन का कार्य निश्चित रहता था कि सुबह नाश्ता दोपहर को लंच शाम को चाय नाश्ता और रात को डिनर बनाना है। इसके साथ घर के अन्य जो कार्य हैं वो तो हैं ही परंतु लॉकडाउन के समय जब बच्चे पति सब पूरे दिन घर पर हैं और उनकी कोई मदद भी नहीं मिलनी है तब स्त्री पूरे दिन किचन में होती है, हर समय घर के हर सदस्य की नई-नई फरमाइशें होती हैं, जिन्हें वह पूरा करती ही है साथ में नौकरानी नहीं आ रही तो बर्तन, कपड़े सफाई सभी काम दोगुने हो गए हैं। पति महोदय कभी मूवी देखते हुए पकौड़े माँगेंगे तो बच्चों को मोमोज़ चाहिए, किसी की कुछ मांग होती है तो किसी की कुछ अन्य। इनको बनाने में ऊर्जा और समय जो लगता है वो तो है ही साथ ही सफाई और बर्तन का काम दोगुना हो जाता है। तो लॉकडाउन में स्त्रियों को आराम मिल गया है या पतियों को पत्नियों की व्यस्तता का अहसास हो गया है, ऐसा कहने वालों को एक बार पुन: अपने चारो ओर नजर दौड़ाने की आवश्यकता है। इसके साथ ही महिलाएँ इस समय घरेलू हिंसा की शिकार अधिक हो रही हैं, लॉकडाउन के कारण उन्हें न तो कानूनी सहायता मिल पा रही और न ही पारिवारिक और सामाजिक।
इस प्रकार हमारे समाज में शिक्षित वर्ग के एक बेहद छोटे हिस्से में मुख्यत: युवा वर्ग की सोच में कुछ परिवर्तन अवश्य आया है, परंतु यह संख्या आंशिक है। इसके अतिरिक्त वही ढाक के तीन पात वाली स्थिति है। जिस समाज में लड़कों को बचपन से ही घुट्टी के साथ यह विचार उनके मस्तिष्क में डाला जाता हो कि वह लड़कियों से श्रेष्ठ हैं, के काम करना उनका उत्तरदायित्व नहीं है, वहाँ एक छोटा सा लॉकडाउन क्या यह सोच बदल पाने में समर्थ होगा? संभवतः नहीं।
मालती मिश्रा 'मयंती'✍️
सोशल मीडिया के दौर में लॉकडाउन पर भी तरह-तरह के विचार तरह-तरह के अनुभव जानने को मिल रहे हैं। सोचती हूँ यही लॉकडाउन अगर अब से दस-पंद्रह वर्ष पहले होता तो उस समय कैसा अनुभव होता। लोग तब भी घरों में ही रहने पर विवश होते जैसे कि आज हैं लेकिन घरों के भीतर के दृश्य अलग होते।
उस समय लॉकडाउन होता तो पूरा परिवार सिर्फ शारीरिक ही नहीं मानसिक रूप से भी घर के भीतर होता, लोग आपस में ही गप-शप करते, आराम करते खेलते वैचारिक भेद होने पर लड़ते फिर मान-मनुहार कर एक हो जाते। जैसे भी होता पर साथ होते परंतु आजकल लॉकडाउन होने पर भी घर के भीतर रहते हुए भी क्या घर के हर सदस्य एक साथ रहते हैं? यह सोचने की बात है।
आजकल लॉकडाउन है तो क्या हुआ! घर के हर सदस्य के हाथ में स्मार्ट फोन होता है, चाहे एक ही कमरे में चार सदस्य बैठे हों पर चारों ही अपने-अपने फोन के सहारे कहीं और ही व्यस्त होते हैं। कोई मूवी देख रहा होता है तो कोई दोस्तों के साथ गप-शप करने में व्यस्त होता है। कोई टिक-टॉक देख रहा होता है तो कोई टिक-टॉक पर वीडियो बना रहा होता है। कवि-कवयित्रियों के तो ऑनलाइन गोष्ठियाँ भी होती हैं जिनमें घंटों-घंटों तक व्यस्त रहते हैं, समय कब निकल जाता है पता ही नहीं चलता। किन्तु इन दोनों ही समय काल में घर की महिलाओं की स्थिति समान होने में कोई संशय नहीं है।
माना कि समय बदल गया विचारों में परिवर्तन आया है, लोगों की सोच का दायरा अब पहले की तुलना में अधिक विस्तृत हुआ है। अब नारी जाति को समान अधिकार दिए जाने पर अधिकतर लोगों को कोई आपत्ति नहीं होती, 'बेटा-बेटी एक समान' के सिद्धांत पर जो चल पड़ा है हमारा समाज, किन्तु यह समानता कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित है। आज की स्त्री घर से बाहर निकलकर पुरुषों के समकक्ष कार्य कर रही है। हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है और अपनी योग्यता को सिद्ध कर रही है, यदि सही मायने में देखें तो स्त्रियों ने तो पुरुषों की बराबरी कर ली परंतु पुरुष अपनी सीमा से बाहर निकलकर स्त्रियों की बराबरी नहीं कर पाए हैं। इस लॉक डाउन ने जहाँ परिवार के सदस्यों को एक साथ घर पर रहकर पूरे परिवार को एक साथ समय बिताने का अवसर दिया है वहीं स्त्रियों के कार्यों को दोगुना बढ़ा दिया है। सोशल मीडिया पर लोग तरह-तरह के वीडियो बनाकर डाल रहे हैं, जिसमें पुरुष घर में पत्नी के साथ किचन में सहायता कर रहे हैं या घर की सफाई आदि कर रहे हैं। कई बार सोशल मीडिया पर पढ़ने को भी मिलता है जिसमें कुछ महिलाएँ अपनी प्रसन्नता प्रकट कर रही हैं कि लॉकडाउन के समय उनके पति अति उदार हो गए हैं और घर के कार्यों में उनकी सहायता करते हैं। देख-सुन कर बहुत अच्छा लगता है कि चलिए एक तो अच्छा काम हुआ कि इस लॉक डाउन ने पुरूष वर्ग को महिलाओं के प्रति उदार बना दिया परंतु अगर सत्य देखेंगे तो ऐसे पुरुषों की संख्या नाम मात्र ही होगी सच्चाई तो यह है कि लॉकडाउन ने महिलाओं के कार्यों को दो-तीन गुना अधिक बढ़ा दिया है।
लॉकडाउन के कारण किसी की मानसिकता नहीं बदली है बल्कि पुरुषों की यह सोच कि 'घर के कार्य करना सिर्फ स्त्रियों का उत्तरदायित्व है' उन्हें उदार नहीं बनने देती। लॉक डाउन से पहले घर के पुरुष ऑफिस और बच्चे स्कूल चले जाते थे तब महिलाओं के किचन का कार्य निश्चित रहता था कि सुबह नाश्ता दोपहर को लंच शाम को चाय नाश्ता और रात को डिनर बनाना है। इसके साथ घर के अन्य जो कार्य हैं वो तो हैं ही परंतु लॉकडाउन के समय जब बच्चे पति सब पूरे दिन घर पर हैं और उनकी कोई मदद भी नहीं मिलनी है तब स्त्री पूरे दिन किचन में होती है, हर समय घर के हर सदस्य की नई-नई फरमाइशें होती हैं, जिन्हें वह पूरा करती ही है साथ में नौकरानी नहीं आ रही तो बर्तन, कपड़े सफाई सभी काम दोगुने हो गए हैं। पति महोदय कभी मूवी देखते हुए पकौड़े माँगेंगे तो बच्चों को मोमोज़ चाहिए, किसी की कुछ मांग होती है तो किसी की कुछ अन्य। इनको बनाने में ऊर्जा और समय जो लगता है वो तो है ही साथ ही सफाई और बर्तन का काम दोगुना हो जाता है। तो लॉकडाउन में स्त्रियों को आराम मिल गया है या पतियों को पत्नियों की व्यस्तता का अहसास हो गया है, ऐसा कहने वालों को एक बार पुन: अपने चारो ओर नजर दौड़ाने की आवश्यकता है। इसके साथ ही महिलाएँ इस समय घरेलू हिंसा की शिकार अधिक हो रही हैं, लॉकडाउन के कारण उन्हें न तो कानूनी सहायता मिल पा रही और न ही पारिवारिक और सामाजिक।
इस प्रकार हमारे समाज में शिक्षित वर्ग के एक बेहद छोटे हिस्से में मुख्यत: युवा वर्ग की सोच में कुछ परिवर्तन अवश्य आया है, परंतु यह संख्या आंशिक है। इसके अतिरिक्त वही ढाक के तीन पात वाली स्थिति है। जिस समाज में लड़कों को बचपन से ही घुट्टी के साथ यह विचार उनके मस्तिष्क में डाला जाता हो कि वह लड़कियों से श्रेष्ठ हैं, के काम करना उनका उत्तरदायित्व नहीं है, वहाँ एक छोटा सा लॉकडाउन क्या यह सोच बदल पाने में समर्थ होगा? संभवतः नहीं।
मालती मिश्रा 'मयंती'✍️