सोमवार

मैं खो गई

आज देखी तुम्हारी
हँसती खिलखिलाती
बचपन की तस्वीर
और आँखों में तैर गया
तुम्हारा वही खुशमिजाज
आज का चेहरा
बिल्कुल भी तो नहीं बदली तुम
हाँ..
पर मैं बदल गई
खो गई कहीं जीवन के झंझावातों में
निर्जीव रिश्तों के शव को
कांधे पर ढोते हुए
भूल गई अपना ही
मुस्कुराता चेहरा
भूल गई कैसी होती है
विशुद्ध हँसी
अब तो मुस्कराहट के साथ
टूटे दिल के जख्म रिसते हैं
और हर हँसी के साथ आँसू
बन लहू साथ बहता है
डरती हूँ हँसते हुए
क्योंकि आँसू जो छिपाने होते हैं
सभी को अपने आँसुओं का
पता नहीं बता सकती
क्योंकि सुना है कि
मेरे खारे आँसुओं से
मेरे अपने ही खार खाए बैठे हैं
ऐसा लगता है
मुझसे बेजार हुए बैठे हैं
मेरे अंतस की धरती
सूख चली है
मेरे मन का आसमां
हो गया है सूना
भटक रही हूँ भूखी-प्यासी
निर्जन बीहड़ सूखे से अंतस में
दूर-दूर जहाँ तक है नजर जाती
बस पाती हूँ तन्हा खुद को
ये धरती ये अंबर
ये नदियाँ ये सागर
ये चंदा ये सूरज
ये तारे ये जुगनू
ये कलियाँ और काँटे
ये फूल और पत्ते
ये बहारें ये पतझड़
ये धूप और छाँव
ये बरखा और पवन
ये दिन और रात
ये इंसानों की भीड़
और पंछियों की चहक
सब हँस रहे हैं मुझ पर
बस मैं नहीं हँस पाती
देखो कोशिश कर रही हूँ
पर मेरा चेहरा बिगड़ने लगा
अधर काँपने लगे
आँखें...
आँखें बरस पड़ीं
नहीं ये हँसी मेरी खातिर नहीं
ये बस तुम पर ही जँचती है
बस तुम पर
क्योंकि तुम्हारी हँसी
देती है खुशी तुम्हारे अपनों को
इसलिए ये बेहद कीमती है
इसे यूँ ही सजाए रखना
अपने अधरों पर
मैं..
मेरे अपने?
कौन है?
मैं तन्हा
नितांत अकेली
मेरे आँसू ही हैं
मेरे सखा सहेली।

©मालती मिश्रा 'मयंती'✍️



4 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद मार्मिक
    क्या खूब कहा है कि
    तुम्हारी हँसी तुम्हारे अपनों को खुशी देती है
    मेरे आँसू तनहा
    मेरे ही सखी सहेली हैं
    दिल के कोरे कागज पर ये सारी व्यथा बताई है
    न जाने कितनों की व्यथा इस रचना में दर्शाई है

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    1. आपकी उत्साहजनक टिप्पणी के लिए बहुत-बहुत आभार आ०।

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