प्रिय पाठक अब तक आपने पढ़ा कि अरुंधती ट्रेन में अपनी बर्थ पर पैर फैलाकर बैठ गई और डायरी खोलकर पढ़ने लगी... डायरी के पहले पन्ने पर ही लिखा था..
अब गतांक से आगे....
"बची न वजह अब जीने की कोई
फिर भी घूँट-घूँट साँसों को
पिए जा रही हूँ..
जिए जा रही हूँ
जिए जा रही हूँ.."
यह कैसी जीवन यात्रा है! जो सर्वथा औचित्यहीन है, अस्तित्वहीन है, जो न चलती है न थमती है। ऐसा जीवन जो दुनिया के लिए नहीं है फिर भी इन हवाओं में उसके साँसों की सरगोशी है। बहुधा हम मानवीय जीवन यात्रा को प्रकृति की निरंतरता से जोड़ने का प्रयास करते हैं..कहते हैं कि सूरज उदय होता हैै तो अस्त भी होता है, दिन के उजाले के बाद रात का अंधकार और गहन अंधकार के बाद सुबह का सूर्योदय अवश्य होता है, उसी प्रकार जीवन में सुख और दुख की निरंतरता बनी रहती है परंतु आज स्वयं को देख रही हूँ तो सोचती हूँ क्या ये निरंतरता अब मेरे जीवन में संभव है? क्या अब तक ये निरंतरता सचमुच थी? अगर थी.. तो मुझे अंधकार के पीछे की प्रकाशित किरणें क्यों नहीं दिखाई दीं? आज मेरी शारीरिक और मानसिक स्थिति जिस मोड़ पर है, उसी मोड़ पर उसकी भी थी.. नहीं..नहीं..ईश्वर न करे वैसी स्थिति किसी के जीवनकाल में आए...
इंसान शारीरिक व्याधि से लड़ सकता है, मानसिक और सामाजिक संघर्षों पर विजित हो सकता है परंतु वह रिश्तों और विश्वास की व्याधियों से नहीं लड़ सकता, यही तो जाना है मैंने। उसने सोचा ही नहीं होगा कि एक बड़ी जंग जीतते ही वह इस प्रकार हार जाएगी। उसने बड़ी बीमारी को हरा दिया था पर अपने दिल से, अपने रिश्तों से, अपनी ममता से और स्वयं से हार गई।
उसकी दास्तां है ही ऐसी कि जो सुन ले भीतर तक हिल जाए, भगवान दुश्मन को भी ऐसे दिन न दिखाए। मेरा तो उससे कोई व्यक्तिगत या सामाजिक रिश्ता न होते हुए भी एक ऐसा रिश्ता जुड़ गया जो इन सबसे अधिक गहरा और अपनेपन का हो गया, वो है सम-व्याधिक रिश्ता, एक ऐसा रिश्ता जिसमें हम बिना बताए एक दूसरे की शारीरिक और मानसिक पीड़ा को समझ सकते हैं, महसूस कर सकते हैं। इसके साथ रिश्ते की गहराई का एक और कारण है कि हम दोनों ने अपने सबसे करीबी रिश्ते से विश्वासघात का आघात झेला है..पर सोचती हूँ तो महसूस कर पाती हूँ कि नहीं उसका दर्द मुझसे कहीं अधिक, सहनशक्ति के परे था और मुझसे दुगना...हाँ मुझसे दुगना था या शायद कई गुना अधिक..जिसका अनुमान लगा पाना असंभव है, इसीलिए तो वह आज भी भटक रही है, आज भी तड़प रही है। इस संसार को छोड़कर भी छोड़ नहीं पाई, उसकी आत्मा घायल हुई है, वह विश्वासघात के उस जख्म से उठने वाली टीस को हर पल महसूस करती है। काश! मैं उसके लिए कुछ कर पाती, काश!!"
"मम्मा काश कि मैं आपका दर्द दूर कर पाती, काश! मैं आपको आपकी खुशियाँ लौटा पाती..." डायरी पढ़ते हुए अलंकृता बुदबुदाई और आँखों से निकलकर गालों पर ढुलक आए आँसुओं को हथेली से पोंछकर आगे पढ़ने लगी।
"इतना तो समझ गई हूँ कि वह विश्वासघात के दर्द से जितना तड़प रही है, उस दर्द को किसी से न बाँट पाने के दर्द से भी उतना ही तड़प रही है। शायद यही कारण है कि वह आज भी रो-रोकर अपने दर्द को आँसुओं में बहाने की कोशिश करती रहती है।
शायद मैं पहली इंसान हूँ जिसे उसने अपना हमराज बनाया लेकिन उसके जख्मों की टीस मुझसे सहन नहीं हो रही, उसकी हर बात से मुझे अनिरुद्ध की बेवफ़ाई, उनका विश्वासघात याद आ रहा है और ऐसा महसूस हो रहा है जैसे सब कुछ मेरे साथ ही घटित हो रहा हो... आखिर कोई कितना बर्दाश्त कर सकता है... कैसे???"
उसकी कहानी जानकर यह विश्वास करना मुश्किल हो रहा है कि वह वही अरुंधती है जो उसके स्वयं के बताने के अनुसार बहुत ही निडर, साहसी, खुले विचारों की, अत्यंत मेधावी, आत्मविश्वास से भरी हुई और कभी ग़लत बात को बर्दाश्त न करने वाली हुआ करती थी। लेकिन अविश्वास का कोई कारण भी नहीं है..."
वह एक मध्यमवर्गीय परिवार में दो सगे और पाँच चचेरे भाइयों की इकलौती बहन थी। पिता सत्येंद्र प्रसाद सरकारी कर्मचारी थे इसलिए बचपन से ही उसने कभी अभाव नहीं देखा था। वह मात्र तीन या चार वर्ष की अबोध बालिका थी जब सत्येंद्र प्रसाद ने उसे स्कूल भेजना शुरू किया था। वह नहीं चाहते थे कि उनके बच्चे उनकी तरह अनपढ़ रहें। पहले तो गाँव के ही कुछ सहकर्मी मित्रों ने उन्हें समझाने की कोशिश की कि लड़की जात को पढ़ाने का कोई लाभ नहीं आखिर उसे चूल्हा-चौका ही तो करना है। परंतु उन्होंने किसी की एक न सुनी और अरुंधती की पढ़ाई जारी रखा। बाद में उन्हीं सहकर्मियों ने भी उनका अनुसरण किया और अपनी बेटियों को स्कूल भेजने लगे। उनमें एक हरिजन सहकर्मी भी थे, उनकी इकलौती बेटी इमली अरुंधती की बहुत अच्छी सहेली बन गई।
दोनों साथ ही स्कूल आते-जाते, एक साथ बैठते और साथ में ही लंच करते। अरुंधती उसे अपनी सबसे अच्छी सहेली मानती थी जबकि अरुंधती से तो कक्षा की सभी लड़कियाँ दोस्ती करना चाहती थीं। वो थी ही ऐसी...अत्यंत मेधावी थी सभी विषयों में कक्षा के अन्य बच्चों से आगे रहती बिल्कुल बिंदास, चुलबुली और निडर। पढ़ाई में तो आगे थी ही स्कूल में होने वाले सभी कार्यक्रम चाहे वह एन. सी. सी. से संबंधित हो चाहे सांस्कृतिक हो, वह बढ़-चढ़कर भाग लेती, इसीलिए सभी अध्यापकों की चहीती भी थी। एक और बहुत बड़ी खूबी थी उसमें कि वह किसी की बुराई पीठ पीछे न करके उसके सामने ही करती थी। कभी-कभी उसकी सहेलियाँ उसे समझातीं कि ऐसा मत किया करो नहीं तो सब तुमसे चिढ़ने लगेंगे। तब उसका जवाब होता "जो मेरी सच में दोस्त होंगी वो नहीं चिढ़ेंगी, मैं किसी की बुराई पीठ पीछे करके उसकी छवि नहीं खराब करती, सामने से कहती हूँ किसी को अच्छा लगे या बुरा।" बच्चे तो बच्चे वह तो बड़ों को भी नहीं छोड़ती थी। उसके अंग्रेजी के अध्यापक कुछ बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते थे। उनकी एक बुरी आदत थी कि जिन्हें वह ट्यूशन पढ़ाते थे उन बच्चों को अपने विषय के परीक्षा के प्रश्न-पत्र में आने वाले सभी प्रश्न पहले ही बताकर उनके अभ्यास करवा दिया करते थे। यह बात अन्य बच्चों को पता चल जाती थी तो स्वाभाविक है कि उन्हें बुरा लगता था पर सब मन मसोस कर रह जाने के अलावा कुछ कर नहीं पाते थे। एक बार परीक्षा चल रही थी, उस दिन भूगोल विषय की परीक्षा थी। अरुंधती जिस परीक्षा कक्ष में बैठी थी, उसमें उन्हीं मास्टर जी की ड्यूटी थी। परीक्षा के दौरान मास्टर जी के ट्यूशन के किसी बच्चे ने उनसे किसी प्रश्न का उत्तर पूछा तो उन्होंने बताया। अरुंधती की आदत थी कि परीक्षा के समय वह किसी से बात नहीं करती थी, उसे जितना आता था उतना ही करती पर न किसी से पूछती और न ही बताती। पर जब उसने मास्टर जी को बताते हुए देखा तो उससे रहा नहीं गया, उसे न जाने क्या सूझा कि उसने भी मास्टर जी से एक प्रश्न पूछा। मास्टर जी ने कहा कि "यह मेरा विषय नहीं है इसलिए मुझे नहीं पता।"
"लेकिन सर अगर आप को नहीं आता तो दूसरे बच्चों को कैसे बता रहे हैं?" उसने कहा।
"तुम चुप रहो और पूछने की बजाय चुपचाप परीक्षा दो, पढ़कर नहीं आईं क्या?" मास्टर जी ने कह तो दिया पर उन्हें कहाँ पता था कि किससे उलझ गए।
"सर ये तो गलत है न कि आप एक बच्चे को बता कर चीटिंग करवा रहे हैं और मुझे डाँट रहे हैं। या तो सबको बताइए या किसी को भी मत बताइए।" उसने कहा।
"तुम बहुत बहस कर रही हो, मैं उत्तर पुस्तिका छीन कर घर भेज दूँगा तब समझ में आएगा कि टीचर से बहस का नतीजा क्या होता है।"
मास्टर जी ने क्रोध में आकर कहा।
"सर छीन लीजिए, अब मैं भी नकल करूँगी वो भी कॉपी से और आप छीनिए ताकि मैं प्रिंसिपल सर से शिकायत कर सकूँ कि आप कैसे अपने ट्यूशन के बच्चों को बताते हैं और प्रश्न-पत्र भी लीक करते हैं।" आवेश में आकर बोलती हुई वह उठी और कक्षा से बाहर रखे अपने बस्ते से भूगोल की कॉपी निकाल कर अपनी सीट पर बैठकर उसे डेस्क के ऊपर रखकर खोल लिया और लिखने लगी। मास्टर जी ने तो सोचा भी नहीं होगा कि उनको छठीं कक्षा की एक छोटी सी बच्ची से ऐसा जवाब मिल सकता है। वह झल्लाकर बाहर चले गए और किसी और अध्यापक को भेज दिया। उनके जाते ही अरुंधती ने कॉपी बंद करके खिड़की से बाहर की तरफ रखे बैग पर रख दिया और चुपचाप लिखने लगी। यह बात सबको पता थी कि उसे नकल की जरूरत नहीं थी पर जब मेहनत करने वाले से ज्यादा अच्छे नंबर उन लोगों के आएँ जो उसके हकदार नहीं होते तब मन आहत होता है और ऐसा बार-बार होता आ रहा था इसीलिए उसके सब्र का बाँध टूट गया और वह न चाहते हुए भी धृष्टता कर बैठी। परंतु मास्टर जी को एक बात बखूबी समझ आ गई थी कि वो ग़लत बात बर्दाश्त नहीं कर सकती चाहे मास्टर जी उसके लिए उसे सजा ही क्यों न दे दें।
सत्रह वर्ष पूर्व अपनी मम्मी के द्वारा अचेतन अवस्था में लिखे गए पन्नों में से यह पहला पन्ना था जिसे अलंकृता बार-बार पढ़ती है।
आगे के पन्नों में क्या लिखा है जानने के लिए हमारे साथ बने रहिए। अगला भाग अगले सप्ताह...
क्रमशः
चित्र साभार- गूगल से
मालती मिश्रा 'मयंती'