'दलित' यह एक ऐसा शब्द है जिसने देश को बाँटना शुरू कर दिया है, अब से कुछ वर्ष पहले तक लोग अपनी एक अलग पहचान बनाने के लिए संघर्ष करते थे लोग चाहते थे कि उन्हें उनके नाम से जाना जाए, इसके लिए उन्हें कठोर परिश्रम, अनगिनत मुश्किलों का सामना भी करना पड़ता था किंतु जब वो समाज में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो जाते तो जो संतुष्टि उन्हें प्राप्त होती उसकी अनुभूति अवर्णनीय होती....निःसंदेह कठोर परिश्रम के बाद प्राप्त सफलता का अलग ही सुख होता है | मेरा अनुभव कहता है कि हर व्यक्ति को अपनी व्यक्तिगत पहचान अधिक प्रिय होती है, कोई भी व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत पहचान खोकर एक वर्ग विशेष के नाम से पहचाने जाने को अधिक सम्माननीय नहीं समझता और सम्मान किसे प्रिय नहीं होता? हममें से अधिकतर लोगों ने अपने विद्यार्थी जीवन में महादेवी वर्मा की एक कृति पढ़ी होगी 'गिल्लू' जिसमें लेखिका ने गिलहरी के बच्चे को पाला और उसको नाम दिया 'गिल्लू' | एक स्थान पर लिखा है 'गिल्लू' जो अब तक जातिवाचक था 'गिल्लू' नाम मिलते ही व्यक्तिवाचक हो गया' इसे पढ़कर वास्तव में ऐसा महसूस होता है कि गिल्लू अपने समकक्ष प्राणियों यानि अन्य गिलहरियों से श्रेष्ठ हो गया है| विचारणीय है कि जब एक बेजुबान अदना से जीव मात्र के लिए उसका व्यक्तिगत नाम इतना महत्वपूर्ण हो सकता है तो मनुष्य के लिए क्यों नही? परंतु आजकल तो एक अलग ही लहर चल पड़ी है- 'दलित' कहलाने की... यदि समाज में किसी व्यक्ति को दलित कह कर संबोधित किया जाय तो उस दलित को बहुत बुरा लगेगा, उसे समाज के किसी अधिकार से वंचित रखा जाय तो यह निःसंदेह शोषण कहलाएगा|
यदि हम आज से कुछ दशक पहले का इतिहास देखें तो पाएँगे कि उस समय समाज में छुआछूत बहुत व्याप्त था, लोग निम्न जाति के लोगों को छूते नहीं थे यदि गलती से छू गए तो शुद्धिकरण आदि किया करते थे...शिक्षा के समान अवसर प्राप्त नहीं थे जिसके कारण आर्थिक स्थिति भी दयनीय होती थी, समाज मे इनकी दशा बेहद दयनीय होती थी, उस समय सचमुच ही ये निम्न श्रेणी के लोग दलित ही होते थे किंतु बदलते समय के साथ-साथ इनके भाग्य भी बदले और कानून के बदलाव तथा सरकार के प्रयासों से इन पिछड़े और दलितों के जीवन में बदलाव आया गाँव से लेकर शहर, शिक्षा से लेकर रोजगार सभी क्षेत्रों में इनकी भागीदारी को समानता के स्तर पर रखा गया बल्कि यदि सामान्य श्रेणी से ऊपर कहा जाय तो भी गलत न होगा क्यों कि सामान्य श्रेणी के लोग इनके आरक्षित स्थानों में अपनी शिरकत नहीं कर सकते जबकि ये अपने आरक्षण और उससे बाहर दोनों ही जगह अपने पैर पसार सकते हैं,
आज स्थिति यह है कि SC,ST,OBC, पिछड़ा,दलित आदि कहकर कोई किसी को संबोधित नहीं कर सकता क्योंकि ऐसा करने से वह व्यक्ति अपमानित महसूस करता है, किंतु सोचने की बात है कि जिस नाम से पुकारे जाने पर व्यक्ति स्वयं को अपमानित महसूस करता है, जहाँ फायदा उठाने की बारी आती है वहाँ बड़ी शान के साथ उसी नाम का प्रयोग करता है....
आज राजनीति में भी इन नामों का हुकुम के इक्के की तरह प्रयोग हो रहा है, अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए तथा मौजूदा सरकार को विकास के कार्य करने से रोकने के लिए और उसे बदनाम करने के लिए समाज को दलित, सवर्ण, अल्पसंख्य व पिछड़े वर्ग के नाम पर बाँटा जा रहा है और जनता है जो मूर्ख बन रही है या फिर चंद नोटों के लालच में भीड़ का हिस्सा बन जाती है......
जब कोई व्यक्ति स्वयं को दलित कहे जाने पर अपमानित महसूस करता है तो दलित के नाम पर सुविधाएँ लेने व आरक्षण आदि लेने में क्यों अपमान महसूस नहीं होता ? इसका अर्थ तो यही हुआ कि या तो इस 'दलित' शब्द का प्रयोग सिर्फ राजनीतिक पार्टियों द्वारा इन्हें अपने स्वार्थ रूपी मछली का चारा बनाने के लिए किया जाता है या फिर जो इस नाम से अतिरिक्त सुविधाएँ लेना चाहते हैं उनकी रीढ़ की हड्डी है ही नहीं अर्थात् मान-अपमान से उन्हें कोई सरोकार नहीं बस स्वार्थ पूर्ति एकमात्र लक्ष्य होता है और ऐसे लोग समाज के लिए दीमक के समान होते हैं परंतु जितना मैं जानती हूँ ये सभी राजनीतिक पार्टियों द्वारा दिग्भ्रमित होते हैं इसलिए जबतक समाज में व्यक्ति में जागरूकता नहीं आएगी देश की विकास की गति में अपेक्षित तीव्रता नहीं आएगी|
मालती मिश्रा
सर्वथा सत्य- गीतांजलि
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