ओस की गीली चादर सुखाने लगा है,
सूरज देखो मुखड़ा दिखाने लगा है |
पत्तों पे बिखरे पड़े हैं ओस के जो मोती,
अरुण उनकी शोभा बढ़ाने लगा है |
शीत लहरों से छिपाते थे मुखड़ा जो पंखों में,
वो खगकुल भी खुश होकर गाने लगा है |
ठंड से ठिठुर रजाई से झाँकता था जो शिशु वृंद,
वो भी सर्दी को अँगूठा दिखाने लगा है |
धरा को सजा के रंग-बिरंगे फूलों से,
मौसम भी खुशियाँ दर्शाने लगा है |
पीने को फूलों का मृदुल मधु रस,
मधुकर भी देखो मँडराने लगा है |
प्रकृति का श्रृंगार करने को देव-मानव,
धरा पे हरी चादर बिछाने लगा है |
वसुधा ने ओढ़ी सरसों की पीली चूनर,
पवन दे-देकर थपकी मुस्कुराने लगा है |
हरी चूनर में पिरो के रंग-बिरंगे फूलों के मोती,
धरा को दुल्हन सी सजाने लगा है |
स्वागत में वर वसंत के मदमस्त उपवन,
भीनी-भीनी खुशबू बिखराने लगा है ||
मालती मिश्रा
nice poem
जवाब देंहटाएंमातृत्व की तैयारी
धन्यवाद अजय यादव जी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद अजय यादव जी
जवाब देंहटाएंप्रकृति की रमणीयता का बिल्कुल सजीव चित्रण कर दिया है मालती जी । बहुत मनोरम रचना है।
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत आभार मनीष जी
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत आभार मनीष जी
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