सोमवार

सौतेली मां


सौतेली माँ
अनु आज छः महीने बाद ससुराल से आई है, घर में माँ के अलावा कोई नहीं है, फिरभी चारों ओर अपनापन बिखरा हुआ है। बेटी के लिए तो मायके की मिट्टी के कण-कण में ममता का अहसास होता है। न जाने क्यों शादी से पहले तो ऐसा अहसास कभी नहीं हुआ था अनु को जैसा अब हो रहा था। पहले तो अपने माँ-बाबा और भाई तक ही उसकी दुनिया सिमट गई थी, चाचा का परिवार, बाबा के चाचा का परिवार सब थे, सबसे लगाव भी था पर उनमें से किसी के होने न होने से अधिक फर्क नहीं पड़ता था परंतु अब ऐसा महसूस होता है कि सब अपने ही तो हैं, काश सब एक साथ मिलकर रहते तो कितना अच्छा होता, लेकिन उसे पता है कि ऐसा संभव नहीं क्योंकि ससुराल जाने के कारण भावनाएँ सिर्फ उसकी बदली हैं, औरों की नहीं। कितना सूना-सूना सा लग रहा था घर, सब अपने-अपने घरों में व्यस्त थे, वैसे तो अनु का परिवार छोटा नहीं है, बाबा तीन भाई और एक बहन हैं, बाबा के चाचा-चाची और उनके दो बेटे अर्थात् कुल पाँच भाई हैं, दादी, माँ बाबा, और चार चाचा-चाची उनके बच्चे, कुल मिलाकर भरा-पूरा परिवार है पर संयुक्त नहीं है। बँटवारा हो चुका है सभी अपने-अपने घरों तक ही सिमट गए हैं, कुल मिलाकर 'मैं' अधिक बलवान है।

कई महीने बाद आई अनु को अपने मायके में बहुत कुछ बदला-बदला सा लग रहा था, पापा के चाचा जो कि पापा के हमउम्र हैं उनसे अब बोल-व्यवहार सब बंद है और यह बात अनु को पता थी कि छोटे दादा-दादी अब उसके परिवार के किसी भी सदस्य से नहीं बोलते, न अनु की दादी से न ही दोनों चाचा-चाची और मम्मी-पापा से। उनके बड़े बेटे यानि पापा के चचेरे भाई जो कि उम्र में अनु से दो-तीन साल ही बड़े होंगे, उनकी शादी भी हो चुकी है। परिवार की अनबन के कारण नई बहू के आने से घर में जो रौनक होनी चाहिए वो भी नहीं है। चाचा-चाची के परिवार अपने-अपने घरों में, अनु का परिवार अपने घर तथा छोटे दादा-दादी का घर इनके घरों के बीच में। अजीब सा मायूसी भरा माहौल लग रहा था घर का। अक्टूबर का महीना था, न अधिक गर्मी थी न ही ठंड थी। अनु मम्मी के साथ बरामदे में बैठी बातें कर रही थी तभी उसकी नजर सामने बरामदे में मिट्टी के तेल की ढिबरी की मद्धिम रोशनी में घूँघट में बैठी दुल्हन पर पड़ी, जो मिट्टी के चूल्हे पर खाना बना रही थी। अनु मम्मी से कुछ पूछना ही चाहती थी कि तभी छोटी दादी कमरे से बाहर आती दिखाई दीं। वह बरामदे में आकर चूल्हे के पास ही बैठ गईं और खाना बनाने में बहू की मदद करने लगीं, कम से कम अनु जहाँ बैठी थी वहाँ से तो ऐसा ही प्रतीत हो रहा था कि वो बड़े प्रेम से बातें कर रही हैं और साथ ही  उसकी मदद भी कर रही हैं। उसे अपनी आँखों पर विश्वास नही हो रहा था कि दादी अपनी बड़ी बहू के साथ इतने प्यार से! आखिर उससे रहा नहीं गया तो उसने मम्मी से पूछ ही लिया- "वो दादी की बड़ी बहू ही हैं न, जिसके साथ वो खाना बनवा रही हैं।"
"हाँ, क्यों..विश्वास नहीं हो रहा?" मम्मी बोलीं।
"अरे मम्मी कैसे विश्वास होगा, जो बेटे को पेट भर खाना देना तो छोड़ो सीधे मुँह बात भी नहीं करती थीं, वो उसी बेटे की पत्नी से इतने प्यार से पेश आ रही हैं, कैसे विश्वास होगा।" अनु को यह सब चमत्कार सा लग रहा था।
"तुम्हारी छोटी दादी हम लोगों से नहीं बोलतीं बेटा, इसलिए बहू को प्यार जता करके अपने साथ मिलाए रखना चाहती हैं। उन्हें ये डर सताता होगा कि अगर उन्होंने उसे प्यार से नहीं रखा तो वो हम लोगों से बोलने लगेगी और जब वो हमसे बोलने लगेगी तो हम लोग उनकी बहू को उनके खिलाफ भड़का न दें, इसीलिए वो उसके साथ वैसे पेश नहीं आतीं जैसे बेटे के साथ आती थीं, बल्कि उम्मीद से ज्यादा ही प्यार लुटाती हैं ताकि अगर कोई इनके सौतेले पन को उससे कहे तो भी उसे विश्वास न हो।"

"चलो अच्छी बात है प्रतिस्पर्धा हो या डर, जिस भी कारण से हो, यही अच्छा है कि उस बेचारी को इनके सौतेलेपन का शिकार नहीं होना पड़ा।" अनु बोली।

"हाँ लेकिन दिखावा कब तक चलेगा?" जो सौतेलापन ये बेटे के बचपन से लेकर जवानी तक नहीं मिटा पाईं, छोटे से बच्चे को देखकर कभी इनका दिल नहीं पिघला, अब चार दिन पहले आई बहू को देखकर इतना प्यार बरस रहा है कि वो सौतेलापन खत्म हो गया मानो, पर क्या ऐसा संभव है?" मम्मी बोलीं।

"इसमें कोई कर भी क्या सकता है, जैसा चल रहा है चलने दो, सही क्या है ये तो शब्द चाचा भी बताएँगे ही अपनी पत्नी को।" अनु बोली।

"बताने की नौबत ना ही आए तो अच्छा है, ऐसे ही सब ठीक हो जाए। कम से कम वो बच्ची तो खुश रहेगी, जो अभी-अभी अपना घर छोड़कर आई है। अच्छा तुम बैठो मैं अभी थोड़ी देर में आती हूँ।" मम्मी बोलीं और उठकर रसोई में चली गईं।

छोटी दादी अपनी बहू के साथ ऐसे प्यार से घुलमिल कर खाना बनाने में मदद कर रही थीं कि उन्हें देखकर कोई ये नहीं सोच सकता था कि कभी यही अपने बड़े बेटे को पेट भर खाना तक नहीं देती थीं, अनु को अभी भी वो दिन याद है जब एक बार उसने शब्द चाचा को अनाज की डेहरी के ऊपर कई दिनों से रखी सूखी रोटी चबाते देखकर पूछा कि "इसे क्यों खा रहे हो, सूख चुकी है ये।" तब उन्होंने ये नहीं कहा कि उन्हें भूख लगी है बल्कि अपनी भूख छिपाते हुए हँसते हुए ये जवाब दिया कि "कभी खा के देखना कितना अच्छा लगता है बिल्कुल पापड़ जैसा, मेरा पापड़ खाने का मन कर रहा था इसलिए इसे खा रहा हूँ।" अनु समझ गई थी कि वो भूखे थे पर किसी से कहकर अपनी सौतेली माँ के क्रोध का शिकार नहीं बनना चाहते थे। शब्द चाचा अनु से बस दो-तीन साल ही बड़े थे इसलिए वे साथ-साथ ही खेलते-कूदते थे। अनु की पढ़ाई समय से शुरू हो गई थी इसलिए वह शब्द चाचा से एक कक्षा आगे थी, अतः अपनी पिछले सत्र की किताबें, जमेट्री बॉक्स और कभी-कभी बैग भी चाचा को दे दिया करती और उसे ऐसा करने से कोई नहीं रोकता। कितनी बार तो शब्द चाचा के साथ अच्छा व्यवहार न करने के कारण छोटी दादी से अनु की मम्मी की लड़ाई भी हो जाया करती थी, वैसे भी पूरे परिवार में उनके सामने ही उनकी गलतियों के लिए टोकने की हिम्मत सिर्फ अनु के मम्मी पापा की ही होती थी, इसलिए जब कभी दादी शब्द चाचा पर हाथ उठातीं या शिकायत लगाकर दादा जी से पिटवातीं तब मम्मी से सहन नहीं होता और वो उन्हें बचाने के लिए बोल पड़तीं फिर कहा-सुनी होना तो तय था और फिर हर बात की बाल की खाल निकाली जाती पर जो भी हो मम्मी या पापा दोनों जब तक घर पर होते तब तक शब्द चाचा के ठाट होते पर इनकी अनुपस्थिति में बेचारे डर के मारे काँपते थे। उम्र के साथ-साथ सिर्फ शरीर ही नहीं बल्कि सोच-समझ का दायरा भी बढ़ा, सहनशक्ति के साथ ही रक्षा का भाव भी जागृत हुआ और चाचा में बड़े बेटे की जिम्मेदारी की भावना भी जागी और वो कमाने लगे। जब बेटा पैसा कमाकर माँ के हाथों में देने लगा तो माँ को उस सौतेले बेटे के पैसों में सगे जितना प्यार नजर आने लगा तो उन्होंने अपने सौतेले बर्ताव को संस्कार सिखाने हेतु उठाए गए सख्त कदमों की खोल में ढँक दिया और शत-प्रतिशत कामयाब भी रहीं। काफी समय बाद शहर से कमाकर आए बेटे पर माँ के क्षणिक प्यार सत्कार और फिक्रमंदी का असर कुछ यूँ हुआ कि बेटा उनका सौतेलापन तो भूल ही गया साथ ही खुद की सुरक्षा में उनकी माँ की नजरों में बुरे बनने वाले अनु के मम्मी-पापा को ही शत्रु समझने लगा।
अब वही शब्द काका हैं जो कभी अनु के शहर से आने पर सबसे ज्यादा खुश होते थे, क्योंकि उन्हें न सिर्फ अनु की साल भर पढ़ी गईं पर संभाल कर रखने के कारण बिल्कुल नई जैसी दिखने वाली किताबें, जमेट्री बॉक्स मिलते थे बल्कि कभी-कभी मम्मी द्वारा उनके लिए खरीदे गए कपड़े और मम्मी-पापा की सुरक्षा भी मिलती थी। परंतु आज वह मम्मी-पापा से बोलने की भी आवश्यकता नहीं समझते। उनके इस बर्ताव से होने वाले दुख को मम्मी ने भले ही हृदय में ज़ब्त कर लिया हो पर उनकी बातों से कभी-कभी वह छलक ही पड़ता है।

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

2 टिप्‍पणियां:

  1. समय के साथ बदलते रिश्ते यही तो होता है।
    जीवन के यथार्थ बयान करती बहुत अच्छी कहानी।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. उत्साहवर्धन करती आपकी प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार आ० श्वेता जी

      हटाएं

Thanks For Visit Here.