रविवार

मनहरण घनाक्षरी


 माना हम डूब गए, दुख के भँवर बीच

आया नहीं कोई जो कि, हमको उबार ले।


सुख में सभी थे साथी, कुत्ते, बिल्ली, घोड़े हाथी,

दुख में अकेले फिरे, मन में गुबार ले।


कहाँ-कहाँ भटके हैं, कैसे बतलाएँ हम

हर पल व्याकुल कि, गलती सुधार लें।


संध्या-प्रात, दिवा-निशि, हरपल चाहा यही,

पकड़ के हाथ कोई, मुझको उबार ले।

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

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