मकरसंक्रांति
हमारे देश में मनाए जाने वाले सभी त्योहारों के पीछे न सिर्फ धार्मिक एवं पौराणिक मान्यताएँ होती हैं बल्कि इन सभी त्योहारों के पीछे सामाजिक, वैज्ञानिक, आयुर्वेदिक और स्वास्थ्य संबंधी कारण भी जुड़े होते हैं।
हम सभी इनके पीछे जुड़े कारणों की जानकारी के अभाव में इन्हें सिर्फ धर्म से जोड़ते हैं।
ऐसा ही पर्व है मकरसंक्रांति। मकरसंक्रांति हर वर्ष माघ माह में सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने पर मनाया जाता है। किसी विद्वान ने कहा है-
‘‘माघ मकरगत रबि जब होई।
तीर्थपतिहिं आव सब कोई।।’’
अंग्रेजी तिथि के अनुसार यह हर वर्ष १४ जनवरी को आता है। जब सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण में आता हैं, तभी मकरसंक्रांति का पर्व मनाया जाता है। देवताओं के दिनों की गणना इसी दिन से आरंभ होती होती है। इस दिन को मोक्ष प्राप्ति का दिन भी माना जाता है। महाभारत कथा के अनुसार कुरुश्रेष्ठ भीष्म पितामह ने भी अपने प्राण त्यागने के लिए इसी दिन की प्रतीक्षा की थी ताकि उन्हें मोक्ष मिल सके।
पौराणिक मान्यता के अनुसार सूर्य के उत्तरायण में प्रवेश करने के बाद ही गंगा जी अपने उद्गम स्थान से निकलकर भागीरथ का अनुसरण करते हुए कपिल मुनि के आश्रम से होते हुए सागर में जाकर मिली थीं, इसीलिए इस दिन गंगा स्नान का भी विशेष महत्व है।
मकरसंक्रांति के दिन प्रातःकाल निरोगी काया के लिए पवित्र नदियों मुख्यत: गंगा नदी में स्नान करके तन को स्वच्छ, पवित्र और निरोगी करने का प्रचलन है। कहीं-कहीं शरीर पर गुड़ और तिल का लेप/उबटन लगाकर स्नान करने की प्रथा है।कहते हैं कि तिल और गुड़ आयुर्वेदिक औषधि का कार्य करते हैं इससे शरीर निरोगी होता है। जो लोग किन्हीं कारणों से गंगा स्नान नहीं कर पाते वे घर में ही नहाने के पानी में गंगाजल और तिल डालकर स्नान करते हैं।
स्नान के पश्चात् सूर्यदेव की पूजा अर्चना करके सूर्यदेव को अर्घ्य दिया जाता है, अर्घ्य के लिए लोटे के जल में तिल, लाल पुष्प, अक्षत, सुपारी और लाल वस्त्र या कलावा डालते हैं।
पूजा अर्चना के पश्चात् दान-पुण्य की प्रथा है। अन्नदान को श्रेष्ठ दान माना जाता है तथा तिल और गुड़ के दान को पवित्र और पुण्य दायक माना जाता है, इसीलिए लोग कच्ची खिचड़ी, तिल, गुड़ और वस्त्रों का दान करते हैं।
तिल और गुड़ का इस पर्व में विशेष महत्व है, नहाने से पहले तिल गुड़ का उबटन लगाते हैं, नहाने के पानी में तिल डालते हैं, खाने में तिल के तेल का प्रयोग किया जाता है। तिल और गुड़ का आयुर्वेदिक महत्व भी है, गुड़ खाने से पाचन शक्ति में वृद्धि होती है, जिससे पेट संबंधी बीमारी से मुक्ति मिलती है। तिल त्वचा और पेट दोनों के लिए लाभदायक होने के साथ हड्डियों के लिए भी वरदान स्वरूप है।
इसके साथ ही हवन में भी तिल और गुड़ की आहुति की परंपरा है।
इस पर्व को देश के अलग-अलग क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न नाम से भिन्न-भिन्न रूप में मनाया जाता है। उत्तर भारत में इस पर्व को मकरसंक्रांति तथा गुजरात में उत्तरायण के नाम से जाना जाता है। उत्तराखंड में इसे उत्तरायणी, गढ़वाल में खिचड़ी संक्रांति तथा असम में बिहू के नाम से जाना जाता है। केरल में यह त्योहार पोंगल के नाम से तीन दिवस तक बड़े ही धूमधाम और पारंपरिक रूप से मनाया जाता है।
उत्तर प्रदेश के कुछ प्रांतों तथा बिहार में इस दिन नई फसल के चावल और दाल को मिलाकर खिचड़ी बनाया जाता है, देवताओं को खिचड़ी का भोग लगाया जाता है, कच्ची खिचड़ी का दान दिया जाता है तत्पश्चात् स्वयं खिचड़ी खाने की प्रथा है, इसलिए इस पर्व को खिचड़ी के नाम से जानते हैं। उत्तर भारत में इसे मकरसंक्रांति तथा गुजरात में उत्तरायण के नाम से जाना जाता है।
पंजाब में इस पर्व को लोहड़ी के नाम से जाना जाता है तथा एक रात्रि पूर्व मनाया जाता है। वहाँ इस दिन से नव वर्ष का आरंभ माना जाता है तथा नई फसल की कटाई प्रारंभ करते हैं। नई फसल के प्रतीक स्वरूप मक्के के फूले, मूंगफली, गुड़ और तिल की रेवड़ियाँ आदि अग्नि देव को समर्पित करके नाच-गा कर धूमधाम से यह त्योहार मनाया जाता है।
सूर्य के दक्षिणायन से उत्तरायण में प्रवेश करने पर ऋतु में भी सकारात्मक परिवर्तन आता है। इसी दिन से प्रकाश में वृद्धि और तिमिर का ह्रास होता है अर्थात् दिन बड़े और रातें छोटी होने लगती हैं। सूर्य के उत्तरी गोलार्ध में प्रवेश के कारण उसके ताप में वृद्धि होने लगती है, फलस्वरूप सर्दी कम होने लगती है, जिसके कारण सर्दी से जकड़े हुए तन में स्फूर्ति जाग्रत होती है, आलस्य समाप्त होता है और क्रियाशीलता बढ़ने लगती है।
मालती मिश्रा 'मयंती'
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