मंगलवार

अधूरी कसमें (कहानी संग्रह) की समीक्षा

 “मैं दूसरी बिंदू नहीं बन सकती, इसलिए जा रही हूँ” -मालती मिश्रा



(पुस्तक समीक्षा)

अधूरी कसमें- मालती मिश्रा (9891616087)                    

ISBN No. : 978-81-909863-0-4                        

प्रकाशक :  नारायणी साहित्य अकादमी                     

संस्करण :  2020                           


यह वर्तमान समय की माँग है अथवा विकसित या विकासशील दृष्टिकोण की पहचान, जिसके चलते सृजनशील व्यक्तित्व का धनी व्यक्ति अपनी सृजनशीलता के माध्यम से बहुआयामी जीवन को दर्शाता है। वह जीवन को एकपक्षीय अथवा एकांगी दृष्टिकोण से नहीं देखता। यदि देखता भी है तो कमोबेश अन्य पक्ष तो वह दर्शाता ही है। कुछ ऐसे ही सृजनशील व्यक्तित्व की धनी हैं मालती मिश्रा। जो बहुत कुछ को एक साथ लेकर चलना पसंद करती हैं। साथ ही अपनी सृजनात्मकता को लेकर उनका मानना है कि “मेरी लेखनी अभी अपरिपक्व है, इसे परिपक्व बनाने और इसे धार देने का प्रयास कर रही हूँ।” यह सोच ही उन्हें निरंतर आगे बढ़ा रही हैं, क्योंकि परिपक्वता जैसी स्थिति मानव जीवन में शायद हो ही नहीं सकती। कितना कुछ जानने एवं समझने के पश्चात् भी बहुत कुछ ऐसा होता है जो अबूझ ही रहता है। प्रवीणता की कोई सीमा नहीं होती, वह असीम है। हर अवस्था में सीखने के लिए कुछ न कुछ शेष रहता ही है। 

इस कहानी संग्रह में संग्रहित 13 कहानियाँ 141 पृष्ठों में फैली हुई हैं। इनमें से पाँच कहानियाँ जैसे आंदोलन, निशि, आखिरी रास्ता, आखिरी इम्तहान एवं लीला भाभी मात्र 17 पृष्ठ ही घेरती हैं। शेष आठ कहानियाँ 124 पृष्ठों का विस्तार लिए हुए हैं। इन्हें आठ नहीं बल्कि सात कहानियाँ कहना ही उचित होगा क्योंकि प्रथम एवं अंतिम कहानी के रूप में अधूरी कसमें ही दो भागों में रखी गई है। इन सात कहानियों का कलेवर अधिक विस्तृत होने पर भी पाठकों की रूचि को बनाए रखता है। पाठकों को बाँधे रखने में सफल है। इसे देख यह भाव मन में अनायास ही घर कर जाता है कि कहानीकार आगे उपन्यास-सृजन की दिशा में अवश्य अग्रसर होगी। 

    कहानी विधा की सभी विशेषताएँ तो इन कहानियों में हैं ही, साथ ही और भी कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जिन पर चर्चा अपेक्षित है। प्रथम तो ये किसी कहानी आन्दोलन अथवा किसी तथाकथित मानक विचारधारा को लेकर नहीं चलतीं। जीवन को जैसा है वैसा ही देखती हैं उस पर अपने या किसी अन्य दृष्टिकोण का आवरण नहीं चढ़ातीं। कहानी को अपनी ओर से कोई मोड़ देना यहाँ जरूरी नहीं समझा गया। इस दृष्टि से कहानी के पात्र ही नहीं कहानी भी स्वयं अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखती है। 

    प्रेम जैसे अमिट, अमर भाव को लेकर कहानीकार ने अधूरी कसमें, वो खाली बेंच, वो कौन थी, सवालों की परिधि जैसी कहानियाँ लिखीं। इन कहानियों के पात्र परिस्थितियों के हाथों विवश भले ही हों किंतु प्रेम भाव को तो उत्कर्ष पर ले ही जाते हैं। इसे ऐसे भी कहा जा सकता हैं कि वे प्रेम करते नहीं बल्कि प्रेम को जीते हैं। अधूरी कसमें के अपरा एवं नीलेश, वो खाली बेंच कहानी का समरकांत, वह कौन थी की पंखी, सवालों की परिधि के किशोर एवं आस्था आदि पात्र हर स्थिति में प्यार को जीते हैं, साथी के साथ न होने पर भी वे इस प्रेम-पुष्प को कुम्हलाने नहीं देते। इनमें भी पंखी तो अनूठी है। जो प्राण जाने के पश्चात् भी इस भाव को जीवित रखती है। 

कहानीकार का सौंदर्यबोध भी गजब का है। वर्तमान समय में जहाँ सौंदर्य बाहरी या कास्मेटिक्स, पाउडर एवं क्रीम आदि के बिना अधूरा लगता है वहीं इन कहानियों में सौंदर्य पूर्णतः नैसर्गिक रूप में उभरा है। स्त्री की देहयाष्टि एवं अंगों से उत्पन्न सौंदर्य, उसके रंग से उत्पन्न सौंदर्य एवं उसके सामान्य पहनावे एवं भाव-भंगिमाओं से उत्पन्न सौंदर्य का वैविध्य यहाँ देखा जा सकता है। रंगों के मिश्रण एवं संयोजन से उत्पन्न सौंदर्य को भी वे सफलतापूर्वक दर्शाती है। प्राकृतिक सौंदर्य भी विशेष रूप से सूर्य के अस्तांचलगामी सिन्दूरी रूप को भी दर्शाने का कोई अवसर वे हाथ से जाने नहीं देतीं। 

मेहमान एक रात की, चुनाव, आंदोलन, आखिरी रास्ता, आखिरी इम्तहान, लीला भाभी एवं बाल विवाह समस्या प्रधान कहानियाँ है। सामान्य से लेकर जीवन की विशेष समस्याओं को यहाँ अच्छे से उठाया गया है। चुनाव कहानी आजादी के बाद से चले आ रहे राजनैतिक परिदृश्य को इस एक वाक्य में सफलता पूर्वक दर्शा जाती है। “अब भइया कोई कितनो हाथ-पाँव मार ले, जीत तो बलवंत चौधरी की होयगी अरे जब से हम होश संभाले हैं न... तब से किसी अउर को तो देखा ही नहीं गाँव का परधान। पहले उसके दादा परधान थे, फिर उनके बाप भए अउर उनके बाद फिर बलवंत चौधरी।” भारतीय राजनीती में फल-फूलकर वटवृक्ष बन चुके वंशवाद को यहाँ दर्शाया गया है। किंतु भारतीय विशेषकर ग्रामीण मतदाताओं के दृष्टिकोण में आ रहे परिवर्तन की ओर भी इसी कहानी की यह पंक्ति इशारा करती है “भइया तुम ई बात तो ठीक कर रहे हो कि आस-पास के अउर गाँव की तरक्की हमारे गाँव से ज्यादा भई है”। अर्थात् वोट अब विकास के नाम पर भी पड़ेंगे।  

स्त्री शिक्षा को लेकर भी कहानीकार सजग है। इसी कहानी का एक पात्र कहता है “चुपकर बेवकूफ! आज के जमाने में भी लड़कियों को अनपढ़ रखने की वकालत कर रहा है”। रामधनी क्रोध में बिफऱ पड़ा”। इसी प्रकार बाल विवाह कहानी भी अपने आप में बेजोड़ है। स्त्री की बदली सोच, एवं एक प्रकार से उसे पूर्ण व्यावहारिक होते हुए यहाँ दर्शाया गया है। वह समस्या को लेकर परेशान होने, रोने-बिलखने तक ही स्वयं को सीमित न रखकर उसका समाधान करने की दिशा में भी अग्रसर है एवं समाधान को धरातल पर लाने में भी सफल होती है। इसे इस पंक्ति के माध्यम से जाना जा सकता है “मैं दूसरी बिंदू नहीं बन सकती, इसलिए जा रही हूँ”। पढ़ी-लिखी पत्नी के होने पर पति में उपजी कुण्ठा आदि भी यहाँ दिखती है। 

स्त्री से जुड़ी अन्य महत्वपूर्ण समस्याओं को भी यह कहानी सफलतापूर्वक दर्शाती है। परिवार में जहाँ एक ओर बहू के लिए घूँघट की अनिवार्यता आज भी कुछ क्षेत्रों में कमोबेश बनी हुई है वही उसे शौचालय के लिए बाहर खुले में ही जाना पड़ता है। इस समस्या के अन्य पक्षों की ओर भी यह कहानी संकेत कर जाती है। 

अपने परिवेश से पूर्णतः संबद्ध कहानीकार वर्तमान को साथ लेकर चलती हैं। विकृत राजनीति से प्रेरित घटनाक्रम से स्वयं को अछूता नहीं रखतीं। आन्दोलन कहानी तथाकथित किसान आन्दोलन की पोल खोल कर रख देती है। जब उसका प्रमुख पात्र कहता है “हम बर्बाद होई गए हरि की माँ, ई किसान आन्दोलन ही हम किसानों के जान की दुश्मन हो गई, अरे हमें का लेना देना ई सबसे लेकिन नहीं, ई नेता लोगन अपने-अपने गुण्डा छोड़ रक्खे हैं, जबरजस्ती हम लोगन के सब्जी, फल सब छीन के सड़क पर फेंक रहे हैं, और हमें धमका के मारपीट के भेज दिये।" हरखू कहते-कहते बिलख कर रोने लगा। उसे अपनी सारी जरूरतें और सपने किसान आन्दोलन की भेंट चढ़ते दिखाई दे रहे थे। भाषा-शैली को लेकर भी कहानीकार पूर्णतः सजग है। भाषा का प्रवाहमान एवं पात्रानुकूल रूप यहाँ देखने को मिलता है। 

अंततः यह कहा जा सकता है कि जो पाठक जीवन के विविध आयामों को एक साथ देखना पसंद करते हैं, वर्तमान परिवेश को गहराई से जानना चाहते हैं, सौंदर्य को वास्तविक रूप में देखना जिनकी प्राथमिकता है उन्हें आगे आकर इस ‘अधूरी कसमें’ कहानी संग्रह को हाथों-हाथ लेकर कहानीकार को आगे भी सृजन जारी रखने के लिए प्रेरित करना चाहिए।  


समीक्षक

डॉ. पवन कुमार पाण्डे

असिस्टेंट प्रोफेसर ऑफ हिन्दी

गवर्नमेंट डिग्री कॉलेज भैंसा, निर्मल

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Godown road Nizamabad

Telangana state

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2 टिप्‍पणियां:

  1. बेनामी18 जनवरी, 2023

    समीक्षक ने सार्थक समीक्षा की है। ये बात मैं दावे से इसलिए कह सकती हूँ क्योंकि मैंने मालती जी की ये कहानियाँ पढ़ी हैं। भाषा और भावों पर सुदृढ़ पकड़ है। जो इस पुस्तक को एक बार पढ़ना शुरु करेगा,पूरा पढ़े बिना नहीं रह पाएगा।
    राधा गोयल, विकासपुरी,दिल्ली

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    1. आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया नई ऊर्जा देती है आ० 🙏बहुत-बहुत धन्यवाद 😊

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