रविवार

संस्कारों का पतन नहीं है फेमिनिज्म

 कहानी- *संस्कारों का पतन नहीं है फेमिनिज़्म*

गाड़ी धीरे-धीरे सरकते हुए प्लेटफार्म पर रुक गई। सभी यात्री जल्दी-जल्दी अपने भारी-भरकम लगेज़ के साथ एक-दूसरे को धकियाते हुए उतरने लगे। वह सबके पीछे-पीछे चलती हुई कंपार्टमेंट के दरवाजे तक आई और प्लेटफ़ॉर्म की भीड़ देखकर मन ही मन घबराने लगी। यहाँ एक प्लेटफार्म पर भीड़ में इतने लोग थे, जितने कि उसके पूरे गाँव में नहीं होंगे। 

'क्या वह यहाँ के इस भाग-दौड़ भरे वातावरण में सामंजस्य बैठा पाएगी?? कहीं यहाँ की भीड़ में उसके सपने दम तो नहीं तोड़ देंगे?? आखिर वह है ही क्या.….गाँव की एक मामूली लड़की! जो शहर के रहन-सहन से सर्वथा अनभिज्ञ थी।' 


ऐसे ही न जाने कितने प्रश्नों के जाल में उलझी हुई वह गाड़ी से उतरी। एक छोटे से गाँव से आँखों में बड़े-बड़े सपने लिए हुए वह इस महानगर में आई और डरी-सहमी सी उसने प्लेटफार्म पर कदम रखा। 

गाँव का एक युवक मनीष यहाँ रहता था, बाबा ने उसकी मदद से कॉलेज में अपनी अपनी इकलौती बिटिया मालविका का एडमिशन करवा दिया था। मालविका के डॉक्टर बनने का सपना बाबा ने अपनी जिंदगी का मकसद बना लिया था। आखिर उसके अलावा माँ-बाबा का और कोई था भी नहीं, वही उनकी बेटी और बेटा दोनों है और उनके बुढ़ापे की लाठी भी। उसे शहर के बड़े कॉलेज में एडमिशन दिलवाने, हॉस्टल, अच्छे कपड़े और पुस्तकों आदि का भारी-भरकम खर्च उठाना बाबा के वश की बात न थी, लेकिन उनकी बिटिया शहर में हीन भावना से ग्रस्त न हो इसके लिए उन्होंने एक बीघा खेत बेच दिया और उससे मिले पैसों से सारी व्यवस्था किया। 


"हे मालविका डर तो नहीं लग रहा?" 

मनीष ने उसका बैग लेते हुए कहा।


"न.. नहीं, मतलब..थोड़ी घबराहट तो हो..रही है!" उसने थूक सटककर गला तर करने की नाकाम कोशिश करते हुए कहा।

उसकी मनोस्थिति जानकर मनीष ने उसे पानी पिलाया और उसे अपने फ्लैट पर ले गया।


"बाबा ने कहा था कि तुम हॉस्टल में मेरे रहने की व्यवस्था कर दोगे!" उसने हिचकिचाते हुए कहा।


"वो सब हो जाएगा, पहले मैं तुम्हें अपने दोस्तों से मिलवाता हूँ" 

मनीष ने सिगरेट का लंबा कश लेते हुए कहा।


"छि: तुम सिगरेट पीते हो? गाँव में तो कभी नहीं देखा पीते हुए।" मालविका बुरा सा मुँह बनाते हुए बोली।


"जैसा देश वैसा भेष, सुना है न! ये हमें बहुत कूल बनाता है। छोड़ो तुम नहीं समझोगी।" मनीष ने कंधे उचकाकर कहा। 


कुछ देर बाद दोनों एक फ्लैट के दरवाजे पर खड़े थे। 

दरवाजा खोलने वाली लड़की को देखकर मालविका हैरान रह गई, उसकी नजरें शर्म से जमीन में ऐसे गड़ीं कि चाहकर भी किसी की ओर देख नहीं पा रही थी। वह लड़की माइक्रो मिनी स्कर्ट और छोटा सा टॉप पहने हुए थी। कमरे में उसी के जैसी और भी दो लड़कियाँ और दो लड़के थे। उनका पहनावा भी उसे बेहूदा लग रहा था। लेकिन वे सभी तथाकथित अमीर घरों के लड़के-लड़कियाँ थे और उनका मित्र बनना मनीष के लिए सौभाग्य की बात थी। 


मालविका कॉलेज में हॉस्टल में हर जगह अन्य छात्र-छात्राओं की नजरों में अपने लिए उपेक्षा देखती तो मन ही मन अपने ग्रामीण अंचल से होने को कोसने लगी। 

मनीष और उसके साथियों ने उसे समझाना शुरु किया कि यदि वह चाहे तो सबकी नजर में सम्मान पा सकती है। इसके लिए उसे अपने विचारों को भी बड़ा करना होगा और जैसा कि रेलवे स्टेशन पर ही मनीष ने कहा था कि 'जैसा देश वैसा भेष' उसको भी अपनी वेशभूषा में परिवर्तन लाना आवश्यक था। लीज़ा और माया, हैरी यानि हरीश), सैम यानि समर और मनी यानि मनीष यही सब उसके दोस्त बने। 


"देख मालविका, तेरे जैसी लड़कयाँ पूरे कपड़ों में अपनी मर्यादा को लपेटे और कांधों पर संस्कारों का बोझ लिए माता-पिता और खानदान के मान-सम्मान का बोझ सिर पर लादे चलती हैं, इसलिए न कभी नजरें उठा पाती हैं न सिर, सिर झुकाकर हमेशा पुरुषों के पीछे-पीछे चलने की आदत होती है और फिर कहती हैं कि हमें बराबरी का अधिकार नहीं मिलता। इतने पिछड़े विचारों के साथ कोई आगे कैसे बढ़ सकता है और जो स्वयं पिछड़ा हो वो समाज में विकास की क्रांति लाना तो छोड़ो अपना विकास भी कैसे कर सकता है। इसलिए अपने संकुचित विचारों को विस्तार की उड़ान देनी आवश्यक है।"


बार-बार हर छोटी- छोटी बात या घटना पर समझाने का परिणाम यह निकला कि समय के साथ चलते हुए सभी के साथ तालमेल बिठाने के लिए उसने भी बड़ा नाम बनाने के लिए अपने नाम के अक्षरों को कम कर दिया और मालविका से मिली बन गई। 

विचारों का दायरा बढ़ाने के लिए वस्त्रों के दायरे सिमटने लगे, कक्षा में, कॉलेज प्रांगण में, हॉस्टल में लोगों की नजरों में सम्मान पाने के लिए अपनी नजरों की शर्म और अपने माता-पिता के मान का ख्वाब छूट गया। कोई उसकी हँसी न उड़ाए इसलिए उसने सिगरेट का धुआँ उड़ाना शुरू कर दिया और जब इतना सब भी कम पड़ने लगा तो उस कमी को पूरा करने के लिए दोस्तों के साथ पैग भी बनने लगे। 


वहाँ गाँव में बाबा खेत बेच-बेचकर बिटिया रानी के लिए पैसे भेजते और बिटिया रानी बेब्स बनकर बाबा के अरमानों को फेमिनिज्म का अर्थ समझे बिना ही फेमिनिज्म की आग में झोंकती रही। 

अब वह गाँव की भोली-भाली मालविका नहीं बल्कि तेज-तर्रार मिली थी। अब वह न तो सड़क पर चलते हुए ट्रैफिक से डरती थी न ही भीड़भाड़ में मनचलों के धक्का मारने से, बल्कि अब तो सड़क पर उसे किसी गाड़ी के सामने आने से भी डर नहीं लगता, वह जानती है कि गाड़ी वाला उसे मरने नहीं देगा, वह गाड़ी में ब्रेक मारेगा और फिर वह उसे मारेगी। 

क्या मजाल है जो कोई लड़का उसे धक्का मारे! बल्कि अब तो वही धकियाते हुए चलेगी और कोई कुछ बोला तो छेड़छाड़ का आरोप लगाकर हवालात की हवा और लात दोनों खिलवाएगी।

अब उसके लिए लड़का-लड़की में कोई अंतर नहीं रह गया था, अब वह बराबरी का झंडा लेकर जो चल रही थी। पढ़ने से अधिक ध्यान इस बात का रहता कि मार्केट में कौन सा नया ब्रांड आया है या कैंपस में फैशन अपडेट क्या है। गाँव में दिन-रात धूप-छाँव देखे बिना बाबा अपनी हड्डियाँ गला रहे थे कि एक दिन बिटिया बड़ी डॉक्टर बनकर आएगी तब उनकी कमरतोड़ मेहनत का प्रतिफल मिल जाएगा। उनके बिके हुए खेतों का संताप खत्म हो जाएगा। 


उनका इंतजार पूरा हुआ लेकिन कुछ अलग ही कलेवर में.. 

एक दिन मनीष के बाबा ने आकर बताया कि उनकी बेटी ने किसी रईसजादे को बलात्कार के आरोप में गिरफ्तार करवा दिया है। बाबा के पैरों तले से मानो किसी ने धरती खींच ली हो, उनकी बेटी के साथ ये क्या हो गया.... पहले से ही बीमार चल रही माँ रो-रोकर अस्पताल पहुँच गई। जैसे-तैसे कर्जा लेकर बाबा शहर पहुँचे तो बेटी के रंग-ढंग देखकर उनकी लाठी भी उनके शरीर का बोझ नहीं उठा पाई। मिली और उसके दोस्तों ने उन्हें संभाला और उन्हें उस कमरे में ले गए जिसमें से अभी-अभी शराब-सिगरेट और अंत:वस्त्रों को ठिकाने लगाकर उनकी गंध मिटाने के लिए रूम फ्रेशनर का स्प्रे किया गया था। 


बाबा अब अपनी बेटी को घर ले जाना चाहते थे, वह जानते थे कि उस बलात्कारी रईसजादे से मुकदमा लड़ना उनके बूते की बात नहीं लेकिन मिली ने उन्हें अपनी मजबूती का ज्ञान कराया और समझा-बुझाकर उन्हें वापस भेज दिया। गाँव में भी न्यूज़ चैनलों पर और सोशल मीडिया पर लोगों ने मालविका को मिली बनी हुई देखा था, इसलिए बाबा के लिए उनकी सांत्वना भरी आँखों में कुछ और भी होता था जिसे बाबा बर्दाश्त नहीं कर पाते थे और धीरे-धीरे पति-पत्नी का घर से निकलना लगभग बंद ही हो गया।


अचानक एक दिन सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हो गया जिसमें मिली अपने दोस्तों के सामने टशन मार रही थी कि उसने बदला लेने के लिए उस रईसजादे पर झूठा आरोप लगाकर उसे अच्छा सबक सिखाया। अब कोई उसको हल्के में नहीं लेगा। वीडियो गाँव के कुछ युवकों ने देखा और फिर यह बात जंगल के आग की तरह आसपास के गाँवों में भी फ़ैल गई। 

दूसरे दिन मिली के पास फोन आया कि माँ-बाबा ने फाँसी लगाकर उसके सपने के हवन कुंड में अपने प्राणों की आहुति दे दी। वह लड़खड़ाकर वहीं धम्म से बैठ गई। 

कुछ देर बाद गाँव जाने के लिए माया उसके पुराने बैग में से वही कपड़े निकाल रही थी, जिन्हें लेकर मिली गाँव से शहर आई थी। 


"सोच ले मिली गाँव में तू लोगों का सामना कर पाएगी? वहाँ के लोग यहाँ तक कि पुलिस भी तेरा फेमिनिज्म नहीं समझेंगे, उन पर इसका कोई असर नहीं होगा। अभी भी समय है सोच ले..." मनीष बोला।


"अब समय रहा ही कहाँ मनीष, अब तो सब खत्म हो गया, काश! कि मैं आँखें खोलकर रखती और समझ पाती कि किसी शब्द का सही अर्थ जाने बिना मैं उसके पीछे ऐसे भागूँगी तो एक दिन समाज तो छोड़ो अपनी नज़र में ही नहीं उठ पाऊँगी। 

काश! मैंने सिर्फ अपने लक्ष्य पर ध्यान दिया होता, काश! मैं समझ पाई होती कि

नारीवाद पुरुष और महिला के बीच प्राकृतिक अंतर को मिटाने की बात नहीं करता, यह पुरुषों के दमन की बात भी नहीं करता। बल्कि यह सभी के बराबर सामाजिक अधिकारों की बात करता है न कि इसकी आड़ में किसी को नीचा दिखाने की। नारीवाद का अर्थ संस्कारों का पतन नहीं बल्कि संस्कारों और समाज के प्रति सभी के दायित्व निर्वहन की समान भागीदारी का होना है। काश! समय रहते अपने अधूरे ज्ञान को पूर्णता दे पाती, अधूरा ज्ञान अज्ञान से अधिक खतरनाक होता है। इस अधूरे ज्ञान ने ही फेमिनिज्म के चेहरे को भयावह कर दिया।"

मालती मिश्रा 'मयंती'



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