रविवार

मुक्तक

मुक्तक
कहीं पर शंख बजते है, कहीं आजान होते हैं।
मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे यहाँ की शान होते हैं।।
जहाँ नदियों का संगम भी प्रेम संदेश देता है।
धर्म के नाम पर झगड़े,क्यों सुबहोशाम होते हैं।।

वही धरती वही अंबर, खेत खलिहान होते हैं।
वही झोंके पवन के हैं, जो सबको प्राण देते हैं।।
वर्षा की वही रिमझिम,सभी के मन को भाती है
वही धरती है गुणवंती, जहाँ गुणवान होते हैं।।

एक माँ के सभी बेटे, उसी की जान होते हैं।
धरा ए हिंद की संतति इसकी पहचान होते हैं।।
दिलों में फिर हमारे क्यों, दरारें आज आईझ हैं।
सभी अपनों के रहते भी क्यों तन्हा आज होते हैं।।

वही सूरज वही चंदा, सभी के साथ होते हैं।
वही नदियाँ वही सागर, वही दिन-रात होते हैं।।
वही परिवेश सबका है, जहाँ जीते व मरते हैं
हिन्द के टुकड़े करने के क्यों सपने संजोते हैं।

मनोहारी हँसी तेरी, खुशी दिल में जगाती है
निराशा की घनी बदली, चुटकियों में भगाती है।
तुम्हारी मुस्कराहट पे, करूँ कुर्बान अपनी जाँ
यही टूटे दिलों के जख्म पर मरहम लगाती है।।

सितारों की चमक फीकी, जवानी हार जाती है
करे रोशन जमाने को, शमा खुद को जलाती है।               
नहीं कोई सिवा तेरे, हमारे प्यार के काबिल
पतंगे की यही बातें, जमाने को लुभाती हैं।।


धरती की कोमल हरियाली यहाँ सब को लुभाती है।
उजड़ी सूनी हुई धरती किसी के मन न भाती है।।
जगत का है यही आधार यही सबका सहारा है।
इस पर निर्भर सभी प्राणी सभी के काम आती है।।

मालती मिश्रा 'मयंती'

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