'धूमिल होते धार्मिक त्योहार'
हमारा देश 'त्योहारों का देश' कहा जाता है, सत्य भी है क्योंकि यहाँ धार्मिक मान्यताओं के आधार पर बहुत से तीज-त्योहार मनाए जाते हैं, हमारे प्रत्येक त्योहार के पीछे धार्मिक मान्यता होती है, यह तो हम जानते हैं किन्तु प्रत्येक मान्यता के पीछे वैज्ञानिक कारण भी होते हैं; इस बात से सर्वथा अंजान होते हुए भी हम अपने धार्मिक मान्यताओं को महत्व देते हुए पूर्ण आस्था के साथ सभी रीति-रिवाजों, नियमों का पालन करते हुए अपने त्योहारों को मनाते हैं। हमारे सभी त्योहार परिवार को एक साथ मिलजुल कर रहने तथा सामाजिक दायित्व निभाते हुए समाज में भी घुलमिल कर रहने का संदेश देते हैं, इसीलिए तो त्योहारों को मनाने की विधियाँ ऐसी होती हैं जिसमे समाज और परिवार के सभी सदस्यों की सहभागिता होती है जैसे दीपावली के त्योहार पर भी कुम्हार के घर से दीये तो लुहार के घर से लोहे का औजार, हरिजन, नापित का भी महत्व और फिर पूजन के लिए ब्राह्मण की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार परिवार के भी प्रत्येक सदस्य अपने-अपने भाग का कार्य करते हुए त्योहारों को मनाते हैं, जिससे सभी में आपस में प्रेम-सद्भाव बना रहता था। किन्तु अब ऐसा नहीं है। समाज विकास पथ पर अग्रसर है और विकास की इस दौड़ में धन और भौतिक साधनों को अधिक महत्व दिया जाता है। आवश्यकता की सभी चीजें बाजार में मिलती हैं तथा 'पैसा फेंको तमाशा देखो' वाली कहावत को चरितार्थ करती हैं। जिसके कारण आपस में प्रेम-सहयोग के स्थान पर आर्थिक प्रतिस्पर्धा का जन्म हुआ जिसके चलते व्यक्ति अधिकाधिक धन को प्राप्त करने की दौड़ में शामिल हो गया और वह श्रम तथा आपसी प्रेम से ज्यादा पैसों को महत्व देने लगा।
आजकल समाजिक और पारिवारिक स्वरूप में भी परिवर्तन आया है, संयुक्त परिवार का स्थान एकल परिवारों ने ले लिया है। हमारे त्योहार परिवार के सभी सदस्यों को तथा आस-पड़ोस को एक साथ मिलजुल रहने की प्रेरणा देते हैं किन्तु आजकल इसके विपरीत एकल परिवारों की बहुलता होने तथा बढ़ती मँहगाई व आर्थिक प्रतिस्पर्धा के कारण पति-पत्नी दोनों का ही कामकाजी होना आवश्यक हो गया है, जिससे समयाभाव के कारण लोग न सिर्फ आस-पड़ोस से कटकर अपने आप में ही सिमटते जा रहे हैं बल्कि अपने ही नज़दीकी रिश्तेदारों से भी बचते हैं क्योंकि रिश्तेदारी निभाते हुए समय, श्रम और धन तीनों की आवश्यकता होती है और आजकल व्यक्ति ये तीनों ही बचाने का मार्ग खोजता है, जिसके कारण न तो वे अपने धार्मिक त्योहारों को अधिक समय दे पाते और न ही बच्चों में उन संस्कारों का विकास कर पाते जो उन्हें उनकी परंपराओं से जोड़े रखे।
ऐसी स्थिति में बच्चों का झुकाव मनोरंजन की ओर होता है और वह अपनी परंपराओं, धार्मिक मान्यताओं या अन्य किसी भी प्रकार की जानकारी के लिए टेलीविजन और सोशल मीडिया पर आश्रित हो जाते हैं। अतः परिणामस्वरूप तरह-तरह की भ्रामक तथ्यों का शिकार हो जाते हैं। उन्हें सही ज्ञान न मिलकर विपरीत तथा नकारात्मक बातों की जानकारी प्राप्त होती है जिससे वे अपनी परंपराओं से दूर होते जा रहे हैं। साथ ही अति आधुनिकता के मारे माता-पिता भी त्योंहारों को सिर्फ औपचारिकता निर्वहन के लिए धार्मिक आस्था के रूप में न देखते हुए इन्हें उत्सव के रूप में मनाते हैं, जिससे हमारी नई पीढ़ी धार्मिक त्योहारों के वास्तविक स्वरूप व इनके पीछे के उद्देश्य से अनभिज्ञ रह जाती है।
महानगरों में रोजमर्रा के भागमभाग भरी और उबाऊ जिंदगी से कुछ समय के लिए यह त्योहार मानसिक संतोष तो प्रदान करते हैं परंतु ऐसी स्थिति में इनको मनाते समय धार्मिक आस्था को कम और दिखावा और मनोरंजन को अधिक महत्व दिया जाता है। अतः कहना अतिश्योक्ति न होगी कि विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक कारणों से धीरे-धीरे हमारे त्योहारों का वास्तविक स्वरूप धूमिल होता जा रहा है जिससे हमारी नई पीढ़ी इसके वास्तविक स्वरूप से अंजान तथा परंपराओं से विमुख होती जा रही है।
मालती मिश्रा 'मयंती'
हमारा देश 'त्योहारों का देश' कहा जाता है, सत्य भी है क्योंकि यहाँ धार्मिक मान्यताओं के आधार पर बहुत से तीज-त्योहार मनाए जाते हैं, हमारे प्रत्येक त्योहार के पीछे धार्मिक मान्यता होती है, यह तो हम जानते हैं किन्तु प्रत्येक मान्यता के पीछे वैज्ञानिक कारण भी होते हैं; इस बात से सर्वथा अंजान होते हुए भी हम अपने धार्मिक मान्यताओं को महत्व देते हुए पूर्ण आस्था के साथ सभी रीति-रिवाजों, नियमों का पालन करते हुए अपने त्योहारों को मनाते हैं। हमारे सभी त्योहार परिवार को एक साथ मिलजुल कर रहने तथा सामाजिक दायित्व निभाते हुए समाज में भी घुलमिल कर रहने का संदेश देते हैं, इसीलिए तो त्योहारों को मनाने की विधियाँ ऐसी होती हैं जिसमे समाज और परिवार के सभी सदस्यों की सहभागिता होती है जैसे दीपावली के त्योहार पर भी कुम्हार के घर से दीये तो लुहार के घर से लोहे का औजार, हरिजन, नापित का भी महत्व और फिर पूजन के लिए ब्राह्मण की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार परिवार के भी प्रत्येक सदस्य अपने-अपने भाग का कार्य करते हुए त्योहारों को मनाते हैं, जिससे सभी में आपस में प्रेम-सद्भाव बना रहता था। किन्तु अब ऐसा नहीं है। समाज विकास पथ पर अग्रसर है और विकास की इस दौड़ में धन और भौतिक साधनों को अधिक महत्व दिया जाता है। आवश्यकता की सभी चीजें बाजार में मिलती हैं तथा 'पैसा फेंको तमाशा देखो' वाली कहावत को चरितार्थ करती हैं। जिसके कारण आपस में प्रेम-सहयोग के स्थान पर आर्थिक प्रतिस्पर्धा का जन्म हुआ जिसके चलते व्यक्ति अधिकाधिक धन को प्राप्त करने की दौड़ में शामिल हो गया और वह श्रम तथा आपसी प्रेम से ज्यादा पैसों को महत्व देने लगा।
आजकल समाजिक और पारिवारिक स्वरूप में भी परिवर्तन आया है, संयुक्त परिवार का स्थान एकल परिवारों ने ले लिया है। हमारे त्योहार परिवार के सभी सदस्यों को तथा आस-पड़ोस को एक साथ मिलजुल रहने की प्रेरणा देते हैं किन्तु आजकल इसके विपरीत एकल परिवारों की बहुलता होने तथा बढ़ती मँहगाई व आर्थिक प्रतिस्पर्धा के कारण पति-पत्नी दोनों का ही कामकाजी होना आवश्यक हो गया है, जिससे समयाभाव के कारण लोग न सिर्फ आस-पड़ोस से कटकर अपने आप में ही सिमटते जा रहे हैं बल्कि अपने ही नज़दीकी रिश्तेदारों से भी बचते हैं क्योंकि रिश्तेदारी निभाते हुए समय, श्रम और धन तीनों की आवश्यकता होती है और आजकल व्यक्ति ये तीनों ही बचाने का मार्ग खोजता है, जिसके कारण न तो वे अपने धार्मिक त्योहारों को अधिक समय दे पाते और न ही बच्चों में उन संस्कारों का विकास कर पाते जो उन्हें उनकी परंपराओं से जोड़े रखे।
ऐसी स्थिति में बच्चों का झुकाव मनोरंजन की ओर होता है और वह अपनी परंपराओं, धार्मिक मान्यताओं या अन्य किसी भी प्रकार की जानकारी के लिए टेलीविजन और सोशल मीडिया पर आश्रित हो जाते हैं। अतः परिणामस्वरूप तरह-तरह की भ्रामक तथ्यों का शिकार हो जाते हैं। उन्हें सही ज्ञान न मिलकर विपरीत तथा नकारात्मक बातों की जानकारी प्राप्त होती है जिससे वे अपनी परंपराओं से दूर होते जा रहे हैं। साथ ही अति आधुनिकता के मारे माता-पिता भी त्योंहारों को सिर्फ औपचारिकता निर्वहन के लिए धार्मिक आस्था के रूप में न देखते हुए इन्हें उत्सव के रूप में मनाते हैं, जिससे हमारी नई पीढ़ी धार्मिक त्योहारों के वास्तविक स्वरूप व इनके पीछे के उद्देश्य से अनभिज्ञ रह जाती है।
महानगरों में रोजमर्रा के भागमभाग भरी और उबाऊ जिंदगी से कुछ समय के लिए यह त्योहार मानसिक संतोष तो प्रदान करते हैं परंतु ऐसी स्थिति में इनको मनाते समय धार्मिक आस्था को कम और दिखावा और मनोरंजन को अधिक महत्व दिया जाता है। अतः कहना अतिश्योक्ति न होगी कि विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक कारणों से धीरे-धीरे हमारे त्योहारों का वास्तविक स्वरूप धूमिल होता जा रहा है जिससे हमारी नई पीढ़ी इसके वास्तविक स्वरूप से अंजान तथा परंपराओं से विमुख होती जा रही है।
मालती मिश्रा 'मयंती'
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