*वो नहीं आया*
ठीक-ठीक तो याद नहीं पर नवंबर या दिसंबर का महीना था रात के करीब साढ़े दस-ग्यारह बजे रहे थे, वैसे तो मार्केट में होने के कारण हमारी गली में दस बजे तक लोगों का आना-जाना लगा ही रहता है पर ठण्ड अधिक होने के कारण उस दिन गली सुनसान हो गई थी, मैं और मेरी दोनों बेटियाँ सोने की तैयारी कर रहे थे हम रजाई में लेटे-लेटे बातें कर रहे थे कि तभी बाहर से किसी पिल्ले के रोने की आवाज आई, पहले एक-दो बार तो सुनकर अनसुना किया पर वह हमारे गेट के पास ही रोए जा रहा था। बड़े-बुजुर्गों से सुना है कि कुत्ते-बिल्ली का रोना अच्छा नहीं होता, मेरे पतिदेव बिजनेस के काम से शहर से बाहर गए हुए थे, अतः मन में अजीब-अजीब से ख़याल आने लगे। मन तो कर रहा था कि उसे अपने घर के सामने से भगा दूँ पर ठंड की वजह से उठने में आलस आ रहा था। अब उसका रोना बीच-बीच में बंद हो जाता फिर धीरे-धीरे किकियाने की सी आवाज आती, अब तक यह स्पष्ट हो गया था कि वह कोई पिल्ला है, उसकी आवाज से ऐसा लग रहा था कि उसे चोट लगी होगी, काफी देर तक यही उपक्रम चलता रहा तो बेटी बोली- "मम्मी एक बार देख लेते हैं न! पता नहीं बेचारे को क्या हुआ है?"
"देखना तो मैं भी चाहती थी पर इतनी रात को गेट खोलना भी तो सुरक्षित नहीं था, डर भी लग रहा था कि कोई गेट के पास दीवार से लगकर खड़ा हुआ तो! वैसे भी आजकल आएदिन समाचारों में ऐसी खबरों ने दहशत का माहौल बना दिया है फिर घर में यदि मेरे पति देव होते तो शायद इतना डर नहीं लगता, हो सकता है उनके घर में न होने की बात किसी और को भी पता हो? ऐसे खयालों ने और अधिक भीरु बना दिया था। खैर बेटी के कहने से मैं उठी और हम दोनों गेट के पास गए, हमारा लोहे का गेट है जिसमें से आरपार देखा जा सकता है अतः हमने बिना गेट खोले इधर-उधर देखा पर कुछ भी नजर नहीं आया, फिर मैंने गेट खोला तो देखा कि दाहिनी ओर नीचे सीढ़ियों के पास एक गंदा सा मरियल सा पिल्ला, जिसके पैर कीचड़ से सने हुए थे, काँप रहा था रह-रहकर कूँ कूँ की आवाज़ निकालता। मेरी छोटी बेटी को वैसे भी जानवरों के बच्चों को देखकर बहुत दया आती है... मुझे याद है कुछ साल पहले एक गाय के बछड़े को गली से चिल्लाते हुए अकेले जाते देख यह कहकर कि "इसकी मम्मी नहीं मिल रही बेचारा खो गया है अपनी मम्मी को ढूँढ़ रहा है।" वो फूट-फूटकर रोई थी। आज भी उसकी स्थिति कुछ वैसी ही लगी। आखिर वह बोल ही पड़ी- "मम्मी बेचारे को पता नहीं क्या हुआ, ये कहाँ जाएगा?" मैं समझ चुकी थी कि उसे ठंड लग रही है, भूखा भी हो सकता है, गंदा होने के कारण छूना नहीं चाहती थी पर वहाँ मरने के लिए भी नहीं छोड़ना चाहती थी, मैंने बेटी से अपनी पुरानी शॉल मँगवाई और उसी के सहारे उसे पकड़कर ऊपर ले आई, वैसे मुझे उसके काटने का डर भी लग रहा था, पर सोचा कि इस जानवर को भी शायद यह समझ आ जाएगा कि मैं इसकी सहायता कर रही हूँ। उसे गेट के पास रखकर बेटी से दूध गरम करके लाने को कहा वह दूध को हल्का सा गरम करके कटोरी में लेकर आई, वह भूखा भी था इसलिए तुरंत दूध पी लिया। अब मैंने वहीं गेट के पास बोरी बिछाकर बैठा दिया और ऊपर से शॉल डाल दिया। वह अभी भी काँप रहा था पर उम्मीद थी कि थोड़ी देर में शॉल की गरमाहट से ठीक हो जाएगा इसी उम्मीद से हम अंदर जाने लगे, बड़ी बेटी अंदर गई पर मेरे जाने से पहले ही वह पिल्ला अंदर चला गया। मैंने उसे बाहर निकाला और फिर जैसे ही अंदर जाने के लिए पैर बढ़ाती वह मेरे पैर के नीचे से मुझसे पहले ही अंदर होता। हमें उसकी चालाकी पर हँसी भी आ रही थी, उसकी दयनीय दशा पर दया भी आ रही थी पर अगर उसे अंदर रखते तो वो घर में गंदगी फैलाता इसका भी डर था, समझ नहीं आ रहा था क्या करें...कुछ देर के लिए तो यह अंदर जाना-बाहर आना खेल सा बन गया पर ऐसा कब तक चलता! मैंने अपने हसबेंड को फोन करके उन्हें सारी बात बताई और उस पिल्ले की चतुराई भी तो उन्होनें सलाह दी कि उसे गेट के अंदर आने दूँ और किसी छोटी रस्सी से अंदर ही गेट से बाँध दूँ। हमें यह बात जँच गई, अब मैंने सोचा कि अगर गेट के पास उसने टॉयलेट भी कर लिया तो कोई बात नहीं पानी डालकर साफ हो जाएगा, अतः उसे गेट से बाँध दिया और बोरी पर बैठाकर शॉल से ढक दिया। उसे मानो असीम आनंद की प्राप्ति हो गई, उसने आवाज तक नहीं की चुपचाप ऐसा सोया कि हम बिस्तर पर पड़ते ही सो गए हमें उसकी एकबार भी आवाज नहीं आई।
सुबह साढ़े छः -सात बजे मेरी नींद खुली रविवार था, उठने की जल्दी नहीं थी इसलिए मैं रजाई में ही दुबकी रही अचानक मुझे पिल्ला याद आया और मैं झटके से उठ बैठी। उसकी आवाज नहीं आ रही थी, रात की उसकी दशा याद आते ही लगा कि कहीं मर तो....मैंने तुरंत बेटियों को जगाया और पिल्ले की याद दिलाई। वो दोनों जो रोज कई-कई बार जगाने से भी नहीं जागती आज एकबार में ही उठकर बैठ गईं हम तीनों कमरे से निकले देखा वो चुपचाप टहल रहा था। मैंने गेट खोला कि अब इसे बाहर निकाल दूँ, मुझे लगा कि यह जाना नहीं चाहेगा पर गेट खोलते ही वह बाहर निकल कर सीढ़ियों से नीचे गली में उतरने लगा, हम माँ बेटी खुश हो गए कि चलो इसने परेशान नहीं किया घर भी गंदा नहीं किया। वह आखिरी सीढ़ी उतर कर दो कदम चला और फिर वहीं लघुशंका से निवृत्त हुआ फिर मुड़ा और सीढ़ियाँ चढ़ने लगा, हम हैरान थे कि यह इसलिए नीचे गया था और हम क्या समझ रहे थे...तभी अखबार वाला आया और उसे देखते ही पिल्ले ने भौंकना शुरु कर दिया, हमने उसे फिर दूध पिलाया और सोचा कि अब चला जाय इसलिए भगाने की कोशिश भी की पर वह वहीं गेट पर डटा रहा गली में हमारे घर के सामने से जो भी निकलता उस पर जोर-जोर से भौंकता, अब क्या! वह वहीं गेट पर हमारे साथ था हम उसका वो घर की सुरक्षा का अधिकार भाव देख-देख अभिभूत हो रहे थे, वह हमारी थोड़ी सी देखभाल के लिए हमारे प्रति अपनी कृतज्ञता दर्शाते हुए हमारे घर की चौकीदारी कर रहा था। उसे भौंकते देख आने-जाने वाले पीछे मुड़-मुड़कर देखते। कुछ देर के बाद उसे छोड़ने के लिए ही मेरी बेटी सीढ़ियों से नीचे उतर कर एक ओर को जाने लगी वह भी पीछे-पीछे गया फिर वह भाग कर वापस आई तो उतनी ही तेजी से वह भी आ गया। अब बेटी पुनः गई पर थोड़ी तेजी से ताकि दूरी बनी रहे और वह भी पीछे-पीछे जाने लगा, हमारे घर में आगे-पीछे दोनों गलियों में गेट है अतः आगे जाकर दूसरी गली के लिए मुड़कर जैसे ही अगले गेट पर आने के लिए गली में दाहिनी ओर मुड़ी बाँई ओर से कुछ लड़के आ रहे थे वह पिल्ला फिर स्वामिभक्ति दिखाते हुए उन पर जोर-जोर से भौंकने लगा और उसकी व्यस्तता का लाभ उठाकर बेटी वहाँ खड़ी गाड़ियों के पीछे से छिपती-छिपाती अगले गेट से घर में आ गई।
हमने चैन की साँस ली कि अब धूप निकल रही है वह कहीं भी चला जाएगा। थोड़ी देर के बाद बाहर फिर से भौंकने की आवाज आई तो मैं दौड़कर गेट के पास आई और देखा कि वह गेट के बाहर ही धूप में बैठा है और गली से निकलने वाले किसी के ऊपर भौंक रहा था। मन अजीब सी बेबसी से भर गया.. काश हमारे घर में इतनी जगह होती कि हम इसे पाल पाते, पर पालतू जानवर रखना अपने आप में बहुत बड़ी जिम्मेदारी का काम होता है जिसमें हम सक्षम नहीं। इसलिए मैं चुपचाप अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गई। काफी देर के बाद देखा तो वह वहाँ से जा चुका था, बेटी ने बताया कि हमारे घर के सामने जो फ्लैट बन रहा है, उसमें से सीमेंट और कंकड़ आदि गिर कर उसे लग रहे थे, इसीलिए वो चला गया। उसे तो हम भी भगाना ही चाहते थे पर फिरभी उसका जाना अच्छा नहीं लगा, खयाल आया कि क्या वो अब हमारा घर भूल जाएगा या शाम को फिर आएगा....मन के किसी कोने में उसका इंतजार था कि शायद शाम को जब ठंड लगे तो वो फिर आए...शाम हुई...रात भी हो गई...पर वो नहीं आया...शायद वो समझ गया था कि हम उसे भगाना चाहते थे।
मालती मिश्रा 'मयंती'
ठीक-ठीक तो याद नहीं पर नवंबर या दिसंबर का महीना था रात के करीब साढ़े दस-ग्यारह बजे रहे थे, वैसे तो मार्केट में होने के कारण हमारी गली में दस बजे तक लोगों का आना-जाना लगा ही रहता है पर ठण्ड अधिक होने के कारण उस दिन गली सुनसान हो गई थी, मैं और मेरी दोनों बेटियाँ सोने की तैयारी कर रहे थे हम रजाई में लेटे-लेटे बातें कर रहे थे कि तभी बाहर से किसी पिल्ले के रोने की आवाज आई, पहले एक-दो बार तो सुनकर अनसुना किया पर वह हमारे गेट के पास ही रोए जा रहा था। बड़े-बुजुर्गों से सुना है कि कुत्ते-बिल्ली का रोना अच्छा नहीं होता, मेरे पतिदेव बिजनेस के काम से शहर से बाहर गए हुए थे, अतः मन में अजीब-अजीब से ख़याल आने लगे। मन तो कर रहा था कि उसे अपने घर के सामने से भगा दूँ पर ठंड की वजह से उठने में आलस आ रहा था। अब उसका रोना बीच-बीच में बंद हो जाता फिर धीरे-धीरे किकियाने की सी आवाज आती, अब तक यह स्पष्ट हो गया था कि वह कोई पिल्ला है, उसकी आवाज से ऐसा लग रहा था कि उसे चोट लगी होगी, काफी देर तक यही उपक्रम चलता रहा तो बेटी बोली- "मम्मी एक बार देख लेते हैं न! पता नहीं बेचारे को क्या हुआ है?"
"देखना तो मैं भी चाहती थी पर इतनी रात को गेट खोलना भी तो सुरक्षित नहीं था, डर भी लग रहा था कि कोई गेट के पास दीवार से लगकर खड़ा हुआ तो! वैसे भी आजकल आएदिन समाचारों में ऐसी खबरों ने दहशत का माहौल बना दिया है फिर घर में यदि मेरे पति देव होते तो शायद इतना डर नहीं लगता, हो सकता है उनके घर में न होने की बात किसी और को भी पता हो? ऐसे खयालों ने और अधिक भीरु बना दिया था। खैर बेटी के कहने से मैं उठी और हम दोनों गेट के पास गए, हमारा लोहे का गेट है जिसमें से आरपार देखा जा सकता है अतः हमने बिना गेट खोले इधर-उधर देखा पर कुछ भी नजर नहीं आया, फिर मैंने गेट खोला तो देखा कि दाहिनी ओर नीचे सीढ़ियों के पास एक गंदा सा मरियल सा पिल्ला, जिसके पैर कीचड़ से सने हुए थे, काँप रहा था रह-रहकर कूँ कूँ की आवाज़ निकालता। मेरी छोटी बेटी को वैसे भी जानवरों के बच्चों को देखकर बहुत दया आती है... मुझे याद है कुछ साल पहले एक गाय के बछड़े को गली से चिल्लाते हुए अकेले जाते देख यह कहकर कि "इसकी मम्मी नहीं मिल रही बेचारा खो गया है अपनी मम्मी को ढूँढ़ रहा है।" वो फूट-फूटकर रोई थी। आज भी उसकी स्थिति कुछ वैसी ही लगी। आखिर वह बोल ही पड़ी- "मम्मी बेचारे को पता नहीं क्या हुआ, ये कहाँ जाएगा?" मैं समझ चुकी थी कि उसे ठंड लग रही है, भूखा भी हो सकता है, गंदा होने के कारण छूना नहीं चाहती थी पर वहाँ मरने के लिए भी नहीं छोड़ना चाहती थी, मैंने बेटी से अपनी पुरानी शॉल मँगवाई और उसी के सहारे उसे पकड़कर ऊपर ले आई, वैसे मुझे उसके काटने का डर भी लग रहा था, पर सोचा कि इस जानवर को भी शायद यह समझ आ जाएगा कि मैं इसकी सहायता कर रही हूँ। उसे गेट के पास रखकर बेटी से दूध गरम करके लाने को कहा वह दूध को हल्का सा गरम करके कटोरी में लेकर आई, वह भूखा भी था इसलिए तुरंत दूध पी लिया। अब मैंने वहीं गेट के पास बोरी बिछाकर बैठा दिया और ऊपर से शॉल डाल दिया। वह अभी भी काँप रहा था पर उम्मीद थी कि थोड़ी देर में शॉल की गरमाहट से ठीक हो जाएगा इसी उम्मीद से हम अंदर जाने लगे, बड़ी बेटी अंदर गई पर मेरे जाने से पहले ही वह पिल्ला अंदर चला गया। मैंने उसे बाहर निकाला और फिर जैसे ही अंदर जाने के लिए पैर बढ़ाती वह मेरे पैर के नीचे से मुझसे पहले ही अंदर होता। हमें उसकी चालाकी पर हँसी भी आ रही थी, उसकी दयनीय दशा पर दया भी आ रही थी पर अगर उसे अंदर रखते तो वो घर में गंदगी फैलाता इसका भी डर था, समझ नहीं आ रहा था क्या करें...कुछ देर के लिए तो यह अंदर जाना-बाहर आना खेल सा बन गया पर ऐसा कब तक चलता! मैंने अपने हसबेंड को फोन करके उन्हें सारी बात बताई और उस पिल्ले की चतुराई भी तो उन्होनें सलाह दी कि उसे गेट के अंदर आने दूँ और किसी छोटी रस्सी से अंदर ही गेट से बाँध दूँ। हमें यह बात जँच गई, अब मैंने सोचा कि अगर गेट के पास उसने टॉयलेट भी कर लिया तो कोई बात नहीं पानी डालकर साफ हो जाएगा, अतः उसे गेट से बाँध दिया और बोरी पर बैठाकर शॉल से ढक दिया। उसे मानो असीम आनंद की प्राप्ति हो गई, उसने आवाज तक नहीं की चुपचाप ऐसा सोया कि हम बिस्तर पर पड़ते ही सो गए हमें उसकी एकबार भी आवाज नहीं आई।
सुबह साढ़े छः -सात बजे मेरी नींद खुली रविवार था, उठने की जल्दी नहीं थी इसलिए मैं रजाई में ही दुबकी रही अचानक मुझे पिल्ला याद आया और मैं झटके से उठ बैठी। उसकी आवाज नहीं आ रही थी, रात की उसकी दशा याद आते ही लगा कि कहीं मर तो....मैंने तुरंत बेटियों को जगाया और पिल्ले की याद दिलाई। वो दोनों जो रोज कई-कई बार जगाने से भी नहीं जागती आज एकबार में ही उठकर बैठ गईं हम तीनों कमरे से निकले देखा वो चुपचाप टहल रहा था। मैंने गेट खोला कि अब इसे बाहर निकाल दूँ, मुझे लगा कि यह जाना नहीं चाहेगा पर गेट खोलते ही वह बाहर निकल कर सीढ़ियों से नीचे गली में उतरने लगा, हम माँ बेटी खुश हो गए कि चलो इसने परेशान नहीं किया घर भी गंदा नहीं किया। वह आखिरी सीढ़ी उतर कर दो कदम चला और फिर वहीं लघुशंका से निवृत्त हुआ फिर मुड़ा और सीढ़ियाँ चढ़ने लगा, हम हैरान थे कि यह इसलिए नीचे गया था और हम क्या समझ रहे थे...तभी अखबार वाला आया और उसे देखते ही पिल्ले ने भौंकना शुरु कर दिया, हमने उसे फिर दूध पिलाया और सोचा कि अब चला जाय इसलिए भगाने की कोशिश भी की पर वह वहीं गेट पर डटा रहा गली में हमारे घर के सामने से जो भी निकलता उस पर जोर-जोर से भौंकता, अब क्या! वह वहीं गेट पर हमारे साथ था हम उसका वो घर की सुरक्षा का अधिकार भाव देख-देख अभिभूत हो रहे थे, वह हमारी थोड़ी सी देखभाल के लिए हमारे प्रति अपनी कृतज्ञता दर्शाते हुए हमारे घर की चौकीदारी कर रहा था। उसे भौंकते देख आने-जाने वाले पीछे मुड़-मुड़कर देखते। कुछ देर के बाद उसे छोड़ने के लिए ही मेरी बेटी सीढ़ियों से नीचे उतर कर एक ओर को जाने लगी वह भी पीछे-पीछे गया फिर वह भाग कर वापस आई तो उतनी ही तेजी से वह भी आ गया। अब बेटी पुनः गई पर थोड़ी तेजी से ताकि दूरी बनी रहे और वह भी पीछे-पीछे जाने लगा, हमारे घर में आगे-पीछे दोनों गलियों में गेट है अतः आगे जाकर दूसरी गली के लिए मुड़कर जैसे ही अगले गेट पर आने के लिए गली में दाहिनी ओर मुड़ी बाँई ओर से कुछ लड़के आ रहे थे वह पिल्ला फिर स्वामिभक्ति दिखाते हुए उन पर जोर-जोर से भौंकने लगा और उसकी व्यस्तता का लाभ उठाकर बेटी वहाँ खड़ी गाड़ियों के पीछे से छिपती-छिपाती अगले गेट से घर में आ गई।
हमने चैन की साँस ली कि अब धूप निकल रही है वह कहीं भी चला जाएगा। थोड़ी देर के बाद बाहर फिर से भौंकने की आवाज आई तो मैं दौड़कर गेट के पास आई और देखा कि वह गेट के बाहर ही धूप में बैठा है और गली से निकलने वाले किसी के ऊपर भौंक रहा था। मन अजीब सी बेबसी से भर गया.. काश हमारे घर में इतनी जगह होती कि हम इसे पाल पाते, पर पालतू जानवर रखना अपने आप में बहुत बड़ी जिम्मेदारी का काम होता है जिसमें हम सक्षम नहीं। इसलिए मैं चुपचाप अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गई। काफी देर के बाद देखा तो वह वहाँ से जा चुका था, बेटी ने बताया कि हमारे घर के सामने जो फ्लैट बन रहा है, उसमें से सीमेंट और कंकड़ आदि गिर कर उसे लग रहे थे, इसीलिए वो चला गया। उसे तो हम भी भगाना ही चाहते थे पर फिरभी उसका जाना अच्छा नहीं लगा, खयाल आया कि क्या वो अब हमारा घर भूल जाएगा या शाम को फिर आएगा....मन के किसी कोने में उसका इंतजार था कि शायद शाम को जब ठंड लगे तो वो फिर आए...शाम हुई...रात भी हो गई...पर वो नहीं आया...शायद वो समझ गया था कि हम उसे भगाना चाहते थे।
मालती मिश्रा 'मयंती'
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 29.11.2018 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3170 में दिया जायगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
सादर आभार आ० दिलबाग विर्क जी
हटाएंMam very nice......
जवाब देंहटाएंAashi here (your student)
Thankyou Aashi, I'm happy to see you here.
हटाएंWowww....
जवाब देंहटाएंVery nice ...thankss
Thankyou so much.
हटाएंबहुत सुंदर संस्मरण है..सजीवता से चित्रित.. भावपूर्ण चलचित्र मालती जी...अच्छा लगा👌
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत आभार आ० श्वेता जी।😊
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार 30 नवंबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
धन्यवाद आ० श्वेता जी😊
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंसादर आभार आ० अनुराधा जी
हटाएंवाह!!बहुत खूब!
जवाब देंहटाएंसादर आभार आ० शुभा जी, आपके उत्साहवर्धक शब्दों का निःसंदेह लेखनी की निरंतरता में योगदान होगा। 🙏धन्यवाद
हटाएंसुंदर संस्मरण
जवाब देंहटाएंसादर आभार आदरणीय
हटाएंVery sweet story. I have also adog but now become very weak
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