रविवार

स्त्री विमर्श

स्त्री-विमर्श

नारी, स्त्री, महिला, वनिता आदि-आदि नामों से पुकारी जाने वाली नारी आज न जाने कितने लोगों के शोध का विषय बनी हुई है क्यों??
क्योंकि आज भी यह एक अबूझ पहेली है। यह हर क्षेत्र में अपनी क्षमता को सिद्ध करती जा रही है, फिर भी यह कमजोर है, शोषित है! इसीलिए इसकी यही परिस्थितियाँ इसके विषय में अधिक से अधिक जानने की जिज्ञासा को जन्म देती हैं, जानना चाहते हैं कि किस क्षेत्र में स्त्रियों की स्थिति कैसी है? भिन्न-भिन्न क्षेत्रों की स्त्रियों की स्थितियों में कितनी भिन्नताएँ और समानताएँ होती हैं आदि। दरअसल शोध का विषय स्त्री नहीं, शोध का विषय उसकी स्थिति है...शोध का विषय यह है कि धैर्यवान, सहनशील, उदारमना, शारीरिक और मानसिक रूप से समर्थ होने के बाद भी स्त्री को कमजोर क्यों समझा जाता है? क्यों उसे कभी पिता तो कभी भाई, कभी पति तो कभी पुत्र के सहारे की आवश्यकता होती है?
विचारणीय है कि जो स्त्री आज समाज के सभी सम्मानित पदों पर आसीन है, जो घर की रसोई से लेकर चाँद तक पर अपनी सफलता के झंडे गाड़ चुकी है, जो एक ओर शांति दूत मदर टेरेसा सम स्नेहमयी तो दूसरी ओर रानी लक्ष्मी बाई सी शक्तिशाली है वही आज संरक्षणात्मक स्थिति में है वो भी तब जब हमारा समाज, हमारा कानून उसे बराबर का अधिकार देता है।
यदि हम अपना इतिहास उठाकर देखें तो पता चलता है कि वैदिक काल की स्त्री भी पुरुषों के समान समर्थ थी, वह यज्ञादि कार्यों से निवृत्त होकर युद्ध के मैदान में जाती थी। वैदिक नारी कहती है- "अहमस्मि सहमाना' अर्थात् मैं शत्रु का पराभव करने में समर्थ हूँ। तैत्तिरीय संहिता में तो यहाँ तक कहा गया है -"इन्द्राणी वै सैनायै देवता।"
वैदिक स्त्री वीरांगना है, घोरा है, अजेया है, इसका उद्घोष है कि मैं शत्रु रहित हूँ, शत्रु संहारिका हूँ, विजयनी हूँ।"
वेदों में स्त्री शिक्षा पर इतना अधिक बल दिया गया है कि विद्या और वाणी की देवी सरस्वती को माना गया है, वेद मंत्रों की ऋषिकाएँ हैं। वैदिक संस्कृति में कन्या को बोझ नहीं बल्कि परिवार का धन माना जाता था, कन्या को स्वयंवर विधि के द्वारा कई योग्य युवाओं में से अपने लिए अपनी पसंद से जीवनसाथी चुनने का अधिकार प्राप्त था।
अथर्ववेद में तो गृहस्थाश्रम रूपी यज्ञ में स्त्री का स्थान ब्रह्मा का है। जैसे यज्ञ में ब्रह्मा ही मुख्य होता है तथा अध्वर्यु होता उद्गाता सभी को उसका आदेश मानना होता है, उसी प्रकार गृहस्थ में स्त्री का आदेश सभी को स्वीकार करना होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि स्त्री को वेदों में महत्वपूर्ण स्थान दिया है। पर्दाप्रथा का सर्वथा अभाव था, अथर्ववेद में नवविवाहिता वधू के लिए कहा गया है कि 'वधू जैसे ही ग्राम में प्रवेश करती है तब पितर लोग का आह्वान किया जाता था कि 'आओ सब मिलकर देखो और अपना आशीर्वाद प्रदान करो।' ऋग्वेद में भी कई मंत्रों से ज्ञात होता है कि स्त्रियाँ अपनी इच्छानुसार भ्रमणादि करने के लिए स्वतंत्र थीं, बौद्धायन तथा आपस्तम्ब ने गार्गी आदि अनेक आचार्याओं का उल्लेख किया है जो प्रसिद्ध विद्वानों से शास्त्रार्थ और चर्चा करती थीं। स्त्रियों को उस समय संपत्ति, शिक्षा, राजनैतिक, यज्ञादि का समान अधिकार था। चारों वेदों में लगभग ७०० मंत्र स्त्री विषयक हैं।

वैदिक युग के पश्चात् भी समाज में स्त्रियों का स्थान सम्मान जनक था, उन्हें स्वयंवर का अधिकार था, पुरुष के समकक्ष समझा जाता था।
प्राचीन भारत में भी पर्दा प्रथा थी, परंतु वहाँ घूँघट का अर्थ मुख ढँकना नहीं अपितु सिर को साड़ी या चुनरी से ढँकना था, जो कि स्त्री और पुरुष दोनों के लिए अनिवार्य था और यह बंधन नहीं बल्कि सम्मान-सूचक था। स्त्रियाँ साड़ी-चुनरी से सिर को ढँककर रखती थीं और पुरुष मुकुट-पगड़ी आदि से सिर को ढँकते थे।

पर्दा प्रथा या घूँघट प्रथा पर भगवान् श्रीराम का यह वचन बहुत ही महत्त्वपूर्ण, प्राचीन और आधुनिक परिवेश का समन्वय है -
न गृहाणि न वस्त्राणि न प्रकारस्त्रिरस्क्रिया।
नेदृशा राजसत्कारा वृत्तयावरणं स्त्रिया:।। वाल्मीकिरामायण ६/११४/२७
अर्थात् -'घर, वस्त्र और चारदीवारी आदि वस्तुएँ स्त्री के लिए परदा नहीं हुआ करतीं। इस तरह लोगों को दूर हटाने (किसी स्त्री के समाज में आने पर पुरुषों को वहाँ से हटा देना ,जिससे वे पुरुष उस स्त्री को न देख सकें) का जो निष्ठुरतापूर्ण व्यवहार है, ये भी स्त्री के लिए आवरण या पर्दे का काम नहीं देते हैं। पति से प्राप्त होने वाले सत्कार तथा नारी के अपने सदाचार, ये ही उसके लिये आवरण अर्थात् पर्दा है।'
पर्दा और घूँघट प्रथा का वर्तमान स्वरूप तो मुग़लों की देन है, हमारे देश में मुगलों के आगमन के साथ ही धीरे-धीरे महिलाओं की स्थिति दयनीय होती गई। घर की स्त्रियों के मान-सम्मान की रक्षा हेतु उन्हें घरों के भीतर रखा जाने लगा तथा पर्दा प्रथा, जौहर, सती-प्रथा जैसी कुरीतियों का प्रारंभ हो गया और समाज में स्त्रियों की दशा बद से बदतर होने लगी।
भारतीय संस्कृति में तो नारी का स्थान सदैव पूजनीय माना जाता रहा है, कहा गया है-
*यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता* अर्थात् जहाँ नारी की पूजा होती है वहाँ देवताओं का निवास होता है।
हमारी संस्कृति में माँ का स्थान पिता से भी ऊँचा माना गया है, परंतु व्यवहार में देखा जाए तो नारी पर अन्याय, शोषण के अनेक उदाहरण मिलते हैं। ऐसा समय भी आया जब भारतीय संस्कृति छिन्न-भिन्न हो गई और उसकी जगह रूढ़िवादी विचारधारा ने समाज को विकृत कर दिया। सामंती युग में तो स्त्रियों के प्रति अत्यंत विकृत दृष्टिकोण व्याप्त हो गया और यही वास्तव में देश के बहुमुखी पतन का काल था। इसका आंकलन हम उस समय के साहित्य को देखकर कर सकते हैं, भक्तिकाल के कवि, संत, समाज-सुधारक उदारमना संत कबीरदास ने तो नारी को ठगिनी, माया, नर्क का द्वार, अपनी छाया से भुजंग जैसे विषधर को भी अंधा कर देने वाली बताया
"नारी की झाँई पड़े अन्धा होत भुजंग।"
भक्तिकाल के बाद आए रीतिकाल ने तो नारी को मन बहलाने की वस्तु मात्र बना दिया, यह युग नारी के लिए पतन का युग बन गया, इस युग के साहित्य में उसका ऐसा चित्रण किया गया मानो वह उपभोग या क्रय-विक्रय की वस्तु हो, कविताओं में प्रेम के स्थान पर कामुकता और विलासिता ने जगह बना लिया था।
समाज में तरह-तरह की विकृतियाँ व्याप्त हो चुकी थीं।
स्त्रियों को शिक्षा के अधिकार से वंचित करके तो उनको वैसे ही मानसिक रूप से गुलाम बनाए रखने का मार्ग प्रशस्त हो चुका था। पति के मरणोपरांत पत्नी को पति के शव के साथ चिता मैं जलकर मरने को प्रोत्साहित किया जाता था। बाल-विवाह के कुचक्र में फंसी लड़की यदि बाल-विधवा हो जाती तो उसका पुनर्विवाह नहीं हो सकता था तथा नाना प्रकार की सामाजिक यातनाओं का दंश झेलते हुए वैधव्य जीवन काटना होता था। पुरुष-प्रधान समाज की स्थापना हो चुकी थी और स्त्रियों ने मूक रहकर शोषण सहना स्वीकार कर लिया था, इसीलिए जब 1817 में आंशिक रूप से सती-प्रथा विरोधी कानून बना था तो बंगाल में इसके विरुद्ध आंदोलन हुआ था उन्नीसवीं सदी के अंत से बीसवीं सदी के प्रारंभ में जब स्त्री शिक्षा प्रारंभ हुई थी, उस समय लड़कियों का विद्यालय जाना उनके और उनके परिवार के लिए किसी छोटे-मोटे युद्ध में जाने से कम  संघर्षपूर्ण नहीं होता था।
1850 के बाद उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में आधुनिक युग के कवियों, समाज-सुधारकों, विचारकों ने तत्कालीन सामंतयुगीन सामाजिक और साहित्यिक प्रवृत्तियों का प्रबल विरोध किया और इस बात को स्वीकार किया गया कि नारी समाज का महत्वपूर्ण भाग है उसे सामंती रूढ़ियों और शिकंजों से मुक्त किए बिना समाज व देश की मुक्ति संभव नहीं।
किसी भी देश की सामाजिक व मानसिक उन्नति का अनुमान हम उस देश-काल की स्त्रियों की स्थिति से लगा सकते हैं, नारी समाज  देश का आधा भाग होती है, जब तक समाज में महिलाएँ भी पुरुषों के समान सुरक्षित, समर्थ और शक्तिशाली नहीं होंगी तब तक समाज में संतुलन नहीं होगा और असंतुलित समाज या देश का सकारात्मक उत्थान संभव नहीं।
गुप्त जी 1914 में प्रकाशित महत्वपूर्ण काव्य 'भारत-भारती' में आधुनिक महिलाओं की उन्नति पर अत्यधिक बल देते हुए देश में शिक्षा के व्यापक स्तर पर प्रसार की बात करते हुए कहते हैं कि "हमारी शिक्षा तब तक कोई काम नहीं आएगी, जब तक महिलाएँ शिक्षित नहीं होंगी, यदि पुरुष शिक्षित हो गए और महिलाएँ अनपढ़ रह गईं तो हमारा समाज ऐसे शरीर की तरह होगा जिसका आधा हिस्सा लकवे से बेकार है।"
तब स्त्री को इस योग्य बनाने का अभियान चलाया गया कि वह पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर चलने में सक्षम हो सके। इसके लिए एक ओर विभिन्न संस्थाओं के द्वारा जनता को सामाजिक बुराइयों के प्रति जागरूक करने का काम किया गया, तो दूसरी ओर भारतेन्दु हरिश्चंद्र और उनके साथी लेखकों द्वारा अपने नाटकों, निबंधों और काव्यों के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार किया गया। आधुनिक युग के सुधार आंदोलनों पर यदि दृष्टिपात करें तो पाएँगे कि उस समय के अधिकांश सुधार आंदोलन नारी-उत्थान से संबंधित थे जैसे- पर्दा-प्रथा, सती-प्रथा, शिशु-कन्या-हत्या, बाल-विवाह आदि।
उस समय का ये संघर्ष आज हमें मामूली लग सकता है किन्तु उस देश-काल के नजरिए से सोचें तो यह बहुत ही दुरुह व संघर्षपूर्ण कार्य था।
धीरे-धीरे ये कुरीतियाँ तो समाप्त हो गईं परंतु पितृसत्तात्मक समाज का चलन खत्म नहीं हुआ और स्त्री-पुरुष के अंतस में जो स्त्रियों को पुरुषों से कमतर या उनके अधीन मानने की धारणा समा चुकी है, वह अब भी निरापद कायम है। आज भी कानूनी रूप से समान अधिकारों के आवरण में समानता लुप्त है,  हमारे देश में अभी भी महिला और पुरुष की साक्षरता दर समान नहीं है एक सैंपल सर्वे के रिपोर्ट के अनुसार पुरुषों की साक्षरता दर ८३ प्रतिशत है तो महिलाओं की ६७ प्रतिशत, अर्थात् अभी भी पुरुषों की तुलना में १६ प्रतिशत महिलाएँ अशिक्षित हैं। विभिन्न संथानों में कार्यरत महिलाओं को पुरुषों के समान कार्य, समान पद के लिए समान वेतन नहीं प्राप्त होता।
आज स्त्री समर्थ होने के बाद भी यही मानती है कि शादी से पहले पिता शादी के बाद पति और वृद्धावस्था में पुत्र के बिना उसका कोई अस्तित्व नहीं। अभी भी लड़की के विवाह का फैसला भी पिता ही लेता है। दाह संस्कार पुत्र ही करता है। पिता की संपत्ति में कानूनन बराबर अधिकार होने के बाद भी बेटियों को उनके अधिकारों से वंचित रखा जाता है। संपत्ति में हिस्सा लेने के उपरांत भाइयों-भाइयों का रिश्ता तो बना रह सकता है परंतु यदि बहन को हिस्सा देना पड़े तो भाई-बहन का रिश्ता दांव पर लग जाता है। कहते हैं स्त्री ही स्त्री की शत्रु होती है, स्त्रियों को पीछे धकेलने में स्त्रियों का योगदान सर्वाधिक होता है। कौन से कार्य लड़कों के हैं और कौन से कार्य लड़कियों के इसका निर्धारण घर में ही माँ तथा अन्य बड़े बुज़ुर्गों द्वारा कर दिया जाता है और इसी मानसिकता के साथ बेटियों की परवरिश की जाती है कि उन्हें घर के सारे काम करने आने चाहिए क्योंकि उनका प्रथम कार्यक्षेत्र घर की चारदीवारी के भीतर होता है, वह चाहे बाहर नौकरी पेशा ही क्यों न हों किन्तु घर के भीतर के सारे काम, परिवार के सदस्यों की देख-रेख आदि उनका उत्तरदायित्व है वहीं दूसरी ओर लड़कों को इस सीख के साथ बड़ा किया जाता है कि उनका कार्यक्षेत्र सिर्फ घर से बाहर है।
आज भी समाज में संस्कार, लज्जा, चरित्र आदि को संभालने का उत्तरदायित्व सिर्फ स्त्री का माना जाता है। यदि स्त्री अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाना चाहे तो मर्यादा रूपी हथियार दिखा कर उसकी आवाज दबा दी जाती है। यूँ तो बेटा-बेटी समान हैं परंतु बेटियों को संस्कारों का पाठ पढ़ाते समय बेटों को वही पाठ पढ़ाने की प्रथा अब भी नहीं है, आज भी समाज में स्त्रियों को सीता, सावित्री जैसी पौराणिक आदर्शों का उदाहरण देकर उनकी सोच को दायरों में सीमित करने का प्रयास किया जाता है किन्तु पुरुषों से राम बनने की अपेक्षा नहीं की जाती। यदि कोई लावारिस नवजात शिशु पाया जाता है तो उँगली सिर्फ माँ पर उठाई जाती है, पिता के विषय में तो कोई सोचता ही नहीं।
हम आधुनिक समाज में जी रहे हैं और आज स्त्रियों ने धरती से अंतरिक्ष तक हर क्षेत्र में अपनी योग्यता को सिद्ध किया है, फिर भी देर रात अकेली घर से बाहर जाते हुए वह डरती है, क्योंकि आज भी स्त्री पुरुषों की नजर में भोग्या बनी हुई है। आधुनिकता का दंभ भरने वाला हमारा समाज आज भी स्त्री को वह सम्मान वह अधिकार नहीं दे पाया जिसका वर्णन हमारे वेदों और प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। इसका कारण यही है कि पुरुष समाज अपना सत्तात्मक दंभ छोड़ना नहीं चाहता, इसीलिए स्त्री जब भी अधिकारों के लिए सजग हुई तभी पुरुषों की नजर से विलग हुई, जब भी इसने सिर उठाने का प्रयास किया पुरुष का अहंकार  आहत हुआ, जब भी स्त्री ने कमर सीधा कर सीधे खड़े होने की कोशिश की पुरुष को अपनी कमर झुकती महसूस हुई, जब भी इसने धरती पर अपने पैर जमाना चाहा पुरुषों को अपने पैरों तले की धरती खिसकती दिखाई दी और जब भी स्त्री ने अपना मौन तोड़ा तभी पुरुष वर्ग को अपने अस्तित्व पर खतरा मंडराता नजर आया।
ऐसा ही होता है जब हम किसी के अधिकारों पर जबरन आधिपत्य जमा कर बैठे होते हैं, तो उसकी तनिक सी सतर्कता हमारे कान खड़े कर देती है और हर जायज क्रियाकलाप भी हमें नागवार गुजरती है।

मालती मिश्रा 'मयंती'

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