घायल होती मानवता
चीख पड़ी है,
जाति-धर्म बन आपस में
रोज लड़ी है।
लालच का चारा नेता
ने जब डाला,
मीन बनी जनता उसकी
मति हर डाला।
बनकर दीमक चाट रहे
नींव घरों की,
वही बन गए आस सभी
खेतिहरों की।
मज़लूमों की चीख नहीं
पड़े सुनाई,
अब वही दुखियों के बने
बाप व माई।।
मालती मिश्रा 'मयंती'
बहुत ही सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंसादर आभार अभिलाषा जी
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर 👌
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत आभार अनीता सैनी जी
हटाएंhttps://deepakkumarkohli.blogspot.com/2017/09/blog-post_72.html?m=1
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार लोकेश नदीश जी
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी यह प्रस्तुति BLOG "पाँच लिंकों का आनंद"
( http://halchalwith5links.blogspot.in ) में
गुरुवार 20 दिसम्बर 2018 को प्रकाशनार्थ 1252 वें अंक में सम्मिलित की गयी है।
प्रातः 4 बजे के उपरान्त प्रकाशित अंक अवलोकनार्थ उपलब्ध होगा।
चर्चा में शामिल होने के लिए आप सादर आमंत्रित हैं, आइयेगा ज़रूर।
सधन्यवाद।
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ...सटीक...।
जवाब देंहटाएंसामायिक परिदृश्य पर करारा व्यंग मीता और साथ ही बेबसी सार्थक चिंतन देती रचना।
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