गया सूर्य लुप्त हुई किरणें
अंबर गोद समाया
मातु क्षितिज ले रही बलाएँ
सुत मेरा घर आया
अपनी आभा आप समेटे
पर्वत शिखर सजाए,
सजी सिंदूरी प्रकृति सुहानी
जन-जन के मन भाए।
घिरने लगा तिमिर चहुँदिश में
अपना जाल बिछाए,
खग-विहग और पशु कानन से
लौट-लौट घर आए।
लगी सजाने रजनी आँचल
तारक चंद्र लगाए,
जगमग जुगनू भर मुट्ठी में
धरती पर बिखराए।
धरा गगन पर निरखि तमस को
विभावरी मुस्काए,
कटि में बाँधी पवन झकोरे
लहराए बलखाए।
मालती मिश्रा 'मयंती'✍️
नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में शुक्रवार 14 फरवरी 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
रवीन्द्र सिंह यादव जी आभार
हटाएंसुन्दर नवगीत...
जवाब देंहटाएंवाह!!!
बहुत-बहुत आभार सुधा जी
हटाएंप्रकृति को मानो साथ साथ जिया हो।
जवाब देंहटाएंगज़ब की रचना।
आइयेगा- प्रार्थना
बहुत-बहुत धन्यवाद रोहितास जी
हटाएंरचना को अंक में शामिल करने और सूचित करने के लिए बहुत-बहुत आभार आ० अनीता सैनी जी।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंजी बहुत-बहुत धन्यवाद
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंजी धन्यवाद
हटाएंबहुत सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्धन के लिए बहुत-बहुत आभार आ०
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