"मैं पहले सोचती थी कि आत्महत्या करने वाले कायर होते हैं वो अपनी सारी जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ाकर मर जाते हैं। अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने की खातिर परिस्थितियों से लड़ते हुए जूझते हुए जीना बहुत मुश्किल होता है न! लेकिन आज मुझे समझ आ रहा है कि मैं ग़लत थी, आत्महत्या करना उतना भी आसान नहीं जितना मैं सोचती थी। आत्महत्या करने के लिए अपने बेहद अपनों से मोह को त्यागना पड़ता है, अपने ही अंश अपनी संतानों के वर्तमान और भविष्य की चिंता त्यागकर उनसे विमुख होना पड़ता है, हमारे बाद वो कितना तड़पेंगे, जीने के लिए पल-पल कितने संघर्षों से कितने तानों फिक्र और प्रताड़नाओं से गुजरना पड़ेगा, इस खयाल को मन से निकालना पड़ता है। फूलों की तरह सहेजकर रखे गए बच्चों के जीवन का हर क्षण काँटों भरा हो जाएगा, उनका भविष्य अँधेरे में डूब जाएगा, ऐसी चिन्ताओं से मुक्त होना पड़ता है इसीलिए आज मैं आत्महत्या करना चाहती हूँ पर माँ हूँ न! बच्चों को ऐसे भँवर में छोड़कर मरने का साहस नहीं जुटा पा रही हूँ। मैं मर गई तो मेरे बच्चे किसके सहारे जिएँगे! उस इंसान के, जो भेड़ की खाल में भेड़िया है? मेरे बच्चों की फ़िक्र मुझे मरने नहीं दे रही और इस इंसान का धोखा, उसकी बेशर्मी और मेरे टूटे विश्वास, तार-तार हो चुके दिल का जख्म मुझे जीने नहीं दे रहे।
पढ़ते-पढ़ते उसे ऐसा लगा जैसे उसके गालों पर गरम-गरम नमी ढुलक रही है। उसने झट से अपनी हथेलियों से अपने आँसू पोंछे और डायरी बंद कर दी। वह डायरी लेकर अपने बेडरूम में आ गई। बेडरूम की बालकनी का दरवाजा खोलकर भोर की छिटकती लाली को निहारने लगी।
यह नयनाभिराम सुबह हृदय में उल्लास भरने के लिए परिपूर्ण थी, रात्रि का गमन और अरुणोदय की बेला धरती पर मद्धिम सा धुँधलका और अंबर में अरुण की छिटकती लाली दोनों मिलकर एक अनुपम सौंदर्य उत्पन्न कर रहे थे। सोने पर सुहागा ये कि मंद-मंद पवन की शीतलता जहाँ शरीर में हल्की सी सर्द लहर दौड़ा देती वहीं अरुणोदय की छटा देखकर ही उसकी आने वाली मीठी सी गुनगुनी धूप का अहसास ही शरीर में मीठी सी गरमाहट उत्पन्न कर देता।
अपने बेडरूम की बालकनी में खड़ी-खड़ी वह कभी आसमान में उड़ते पक्षियों के झुंड देखती कभी बिल्डिंगों से निकलकर सोसायटी के गेट तक जाती सड़क के दोनों ओर मस्तक ऊँचा किए खड़े रहने वाले वृक्षों को मस्ती से झूमते देखती। सूर्योदय की आवभगत को आतुर सड़क के किनारे पार्क में खिले रंग-बिरंगे पुष्पों को देखकर उनका सौंदर्य अपने भीतर महसूस करने का प्रयास करते हुए सोच रही थी कि 'ये रंग-बिरंगे फूल, ये कोमल हरियाली और हर एक परिस्थिति के अनुसार अपने को ढाल लेने वाले ये वृक्ष, यही सब तो मेरे लिए प्रेरणा स्रोत हैं, मुझे सिखाते हैं कि परिस्थितियाँ कैसी भी हों डटकर उनका सामना करना चाहिए।'
तभी उसकी नजर उस डहलिया के फूल पर पड़ी, जिसका आधा हिस्सा सूखा हुआ था। वह अन्य फूलों के समक्ष कुरूप सा महसूस हो रहा था, उसमें उसे अपना अक्श नजर आया और सोचने लगी कि 'मैं भी तो उसी की मानिंद हूँ, अपूर्ण और कुरूप काया साथ ही विश्वासघात के आघात से आहत। मैं अपने शारीरिक अधूरेपन को तो बर्दाश्त कर लूँ पर रिश्ते के अधूरेपन को बर्दाश्त करने की क्षमता कभी-कभी कम पड़ जाती है। शरीर की कुरूपता रिश्तों की कुरूपता से अधिक पीड़ादायी नहीं होती। विश्वासघात के वार से जख्मी सड़ चुके रिश्तों से रिसता मवाद रह-रहकर दिल में जहर फैलाने लगता है और यही जहर मन को इतनी पीड़ा पहुँचाता है कि वह असहनीय हो जाता है, ऐसी परिस्थिति में उस जहर को आँखों के रास्ते बाहर निकालने के लिए एकांत तलाशना ही पड़ता है।'
सोचते हुए उसे अपने गालों पर ढुलक आए आँसुओं को उसने तुरंत अपनी दोनों हथेलियों से उसे साफ कर लिया अपनी आँखों को भी पोंछा ताकि उनमें नमी न रह जाए। वह नहीं चाहती थी कि उसके बच्चे उसके कभी न भरने वाले घावों की ताजगी को महसूस कर सकें।
अपनी ओर से ध्यान हटते ही उसका ध्यान हाथ में पकड़ी डायरी पर गया और उसे देखते हुए सोचने लगी कि क्या हुआ होगा उसके साथ, जिसकी यह डायरी है? सोचते हुए सौम्या वहीं कुर्सी पर बैठ गई और अगला पन्ना पलटा, जैसे ही पढ़ना शुरू किया वहाँ लिखे सारे शब्द धुआँ बनकर उड़ने लगे। वह जिस क्रम में शब्दों को पढ़ती उसी क्रम में उसके देखने से पहले वे शब्द एक के बाद एक धुआँ बन उड़ने लगे। वह अवाक् सी बैठी बस देखती ही रह गई। उसे समझ नहीं आ रहा था कि यह हो क्या रहा था! ऐसा तो उसने न कभी देखा न सुना था। आखिर किसकी डायरी है यह? कौन है जो नहीं चाहती कि मैं यह डायरी पढ़ूँ?💐💐💐💐
अभी वह भय और असमंजस की स्थिति में निष्चेष्ट सी बैठी ही थी कि तभी डायरी उसके हाथ की पकड़ से निकलकर ऊपर उठने लगी और देखते ही देखते हवा में तैरने लगी। वह सौम्या के सिर के ऊपर दाएँ से बाएँ तैर रही थी लेकिन उसे पकड़ने के लिए सौम्या जैसे ही हाथ बढ़ाती वह और ऊपर उठ जाती। सर्दी के मौसम में भी वह डर के मारे पसीने-पसीने हो रही थी। उसने तिरछी नजर से कमरे की ओर देखा, वह वहाँ से भाग जाना चाहती थी पर अपनी जगह से हिलने का साहस नहीं जुटा पा रही थी।
जैसे-तैसे उसने हिम्मत बटोरा और कुर्सी पीछे खिसका कर उठी ही थी कि तभी उसे उसी कमरे में किसी स्त्री के सिसकने की आवाज सुनाई देने लगी। वह एकदम झटके से खड़ी तो हो गई पर अपनी जगह से हिल नहीं सकी। उसका दिल उसकी पसलियों में जोर-जोर से ठोकरें मार रहा था, साँसों की गति बढ़ गई थी। नथुने ऐसे फूल-पिचक रहे थे जैसे सीने में धौंकनी चल रही हो।
सिसकने की आवाज तेज होती जा रही थी, बहुत मुश्किल से अपने काँपते हाथ-पैरों पर काबू करने की कोशिश करते हुए सौम्या कंपकंपाती आवाज में बोली- "क..क..क्कौन..ह..ह्हो..त..त्..तुम, कक्क्या..च्चाहती हो?"
सिसकियों की आवाज बंद हो गई और कमरे में एक सरसराती सी आवाज आई……
"यह मेरा घर है..ये मेरी डायरी है...तेरी हिम्मत कैसे हुई इसे हाथ लगाने की?"
"ल्लेकिन ह..हमने इस घ..घ्घर को खरीदा ह्है, त..तो अब तो य..य्यह घ्घर हमारा ह..हुआ ना?" सौम्या बहुत साहस करके बोली।
"नहीं..इस घर में कोई नहीं रह सकता..इस घर में खुशियाँ कभी नहीं आ सकतीं..जिस घर में मैं खून के आँसू रोई हूँ वहाँ कोई हँस कैसे सकता है?? मैं ऐसा होने नहीं दूँगी। चली जा यहाँ से...चली जा..." आवाज एकदम से तेज और तेज होती जा रही थी, सौम्या कुर्सी धकेलकर बेतहाशा वहाँ से भागी। भागती हुई वह सीधे अलंकृता के कमरे में आकर काउच पर धम्म से गिर पड़ी। अस्मि और अलंकृता रजाई की गर्माहट में गहरी नींद में सो रहे थे। उसकी साँसें धौंकनी की मानिंद चल रही थीं, कभी इस तरह की चीजों को न मानने वाली सौम्या को अपनी ही आपबीती पर विश्वास नहीं हो रहा था। उसने अपनी बाँह पर चुटकी काटकर देखा कि कहीं वह सपना तो नहीं देख रही। वह उठकर बच्चों के पास गई और ध्यान से उन्हें देखा फिर आश्वस्त होकर वापस वहीं काउच पर लेट गई। नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी, उसके कान किसी भी आहट को सुनने के लिए सतर्क थे। मन में न जाने कितने सवाल उभर रहे थे, जिनके जवाब उसके पास नहीं थे। 'आखिर कौन होगी वह स्त्री जिसकी आत्मा मरने के बाद भी रो रही है...ऐसा कौन सा गम होगा उसे कि वह उसके दर्द से मुक्त नहीं हो पाई...और क्या चाहती है वह...हमें यहाँ से भगाना चाहती तो हमारे आते ही हमें सताना शुरू कर देती, पर उसने ऐसा नहीं किया...उसने बच्चों को भी नहीं डराया...सिर्फ मुझे ही क्यों उसके होने का आभास होता है..और अब तो उसने बात भी की...वो चाहती तो डायरी का एक भी पन्ना ना पढ़ने देती पर ऐसा भी नहीं हुआ...फिर क्या चाहती है वह? आखिर क्या चाहती है???' ऐसे ही न जाने कितने प्रश्न उसके दिमाग में हथौड़े की तरह वार कर रहे थे। बैठे-बैठे उसने दो घंटे बिता दिए, अब उसके सिर में बहुत तेज दर्द हो रहा था। वह उठी और चाय बनाने के उद्देश्य से रसोई की ओर चल दी।
चाय का पानी गैस पर रखकर वह शेल्फ से चीनी और चायपत्ती के डब्बे निकाल ही रही थी तभी उसे हॉल के वॉशरूम से शॉवर चलने की आवाज आई और घबराहट में चायपत्ती का डिब्बा उसके हाथ से छूट गया। वह जाकर वॉशरूम में देखना चाहती थी पर साहस नहीं जुटा पाई। उसने गैस की नॉब बंद किया और तेजी से ऊपर बच्चों के कमरे में चली गई और पुनः काउच पर लेट गई।
"क्या हुआ मम्मी, आप यहाँ क्यों लेटी हुई हैं?" उसके पैरों की आहट से अलंकृता की आँख खुल गई और उसे ऐसे लेटी हुई देखकर उसने आँखें मलते हुए पूछा।
"कुछ नहीं बेटा वो आँख खुल गई तो फिर नींद ही नहीं आ रही थी इसलिए यहाँ चली आई। सोचा थोड़ी देर यहीं तुम लोगों के पास ही लेट जाऊँ।" सौम्या सच बताकर अपनी बेटी को परेशान नहीं करना चाहती थी।
अलंकृता के जागने के पश्चात् सौम्या नीचे आ गई, उसके पैर स्वत: वॉशरूम की ओर उठ गए। वॉशरूम का फर्श रोज की तरह गीला था जैसे किसी ने अभी-अभी वाइपर से पानी खींचा हो।
वह चुपचाप रसोई में चली गई और साफ-सफाई में व्यस्त हो गई परंतु उसका दिमाग उन्हीं घटनाओं में ही उलझा हुआ तरह-तरह की कहानियाँ गढ़कर उसे उस स्त्री से जोड़ने की कोशिश कर रहा था और कभी वह अपनी परिस्थितियों पर भी विचार करने को विवश हो जाती। क्या उसका बच्चों के साथ यहाँ रहना उचित होगा? लेकिन अगर यहाँ नहीं रहेगी तो कहाँ जाएगी? सोच-सोच कर उसके सिर का दर्द बढ़ गया था, उसने गोली खाई और अनिरुद्ध को फोन करके सारी बात बताकर उसे जल्द से जल्द वापस आने के लिए कहा।
"ठीक है मैं शाम तक आता हूँ।" कहकर उसने फोन काट दिया।
सौम्या शाम सात-आठ बजे तक अनिरुद्ध के आने का इंतजार करती रही फिर समझ गई कि वह आज नहीं आने वाला है। वह खुद को ही कोसने लगी कि आखिर उसने मान भी कैसे लिया कि अनिरुद्ध उसकी किसी परेशानी से परेशान होगा! उसका सारा प्यार और परवाह तो बस बच्चों को दिखाने के लिए ही होता है। सोचते हुए उसकी आँखें बरस पड़ीं और वह अतीत की अंधेरी गलियों में भटकने लगी। जबसे अनिरुद्ध और उसका विवाह हुआ, तब से ही उसने कदम-कदम पर अनिरुद्ध का साथ दिया, उसे ही अपनी दुनिया बना लिया। जब उसकी नौकरी छूटी और वह हताश होने लगा तब उसने प्राइवेट स्कूल में अध्यापिका की नौकरी कर ली तथा बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाने लगी। उसके ऊपर काम का चाहे कितना भी दबाव होता पर घर के कामों में अनिरुद्ध ने कभी हाथ नहीं बँटाया, जबकि आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपैया वाली कहावत को हमेशा चरितार्थ करता था। पूरे दिन मशीन की भाँति बिना रुके काम करते-करते वह शाम तक थक कर चूर होती और ऐसे में अनिरुद्ध की अपनी फरमाइशें अलग। कभी-कभी उसकी शारीरिक और मानसिक अवस्था इतनी दुरुह हो जाती कि वह बिस्तर पर लेटते ही सो जाती। अनिरुद्ध नौकरी करता था तो ऑफिस जाने से पहले और आने के बाद एक गिलास पानी तक खुद लेकर नहीं पीता था, जबकि सौम्या घर-बाहर दोनों जगह के काम संभालती थी लेकिन अनिरुद्ध ने कभी उसकी शारीरिक और मानसिक दशा को समझने की कोशिश नहीं की बल्कि उसमें ही कमियाँ निकालने लगा और बात-बात पर उस पर चिल्लाना और लड़ना शुरू कर दिया। वह बात-बात पर उस पर चिल्लाता, यहाँ तक कि बच्चों का भी लिहाज नहीं करता था उनके सामने ही उस पर चिल्लाने लगता था। उसके इस व्यवहार से सौम्या धीरे-धीरे अपना आत्मविश्वास खोती जा रही थी, वह अनिरुद्ध के समक्ष कुछ बोलते हुए भी हिचकिचाने लगी कि पता नहीं किस बात पर वह चिल्लाने लगे। बच्चों के सामने उसका चिल्लाना सौम्या को हजार मौत मारता था, वह शर्म से नजरें चुराने लगती और जब आँसू नहीं रोक पाती तो बाथरूम में जाकर मुँह दबाकर रो लेती। अब यही उसकी नियति बन गई थी। लड़-झगड़कर दोनों अलग-अलग सोने लगते और साल-छ: महीने अलग ही सोते जब तक कि सौम्या खुद ही उसे वापस साथ में सोने को नहीं कहती।
उसे आश्चर्य भी होता कि जो व्यक्ति अपनी शारीरिक भूख के लिए उससे लड़ता था वह अब महीनों उसे छूता तक नहीं था। पर वह जब अनिरुद्ध से यह पूछती थी तो वह कहता कि "तुमने आदत डाल दी।"
उसकी मानसिक व्यथा ने धीरे-धीरे कब शारीरिक व्याधि का रूप ले लिया उसे पता ही न चला। उसकी तो यह आशा भी मर गई कि बीमार होने पर उसका पति उससे उसका हाल पूछेगा या उसके लिए चिंतित होगा।
वह स्वयं ही अस्पतालों के चक्कर लगाने लगी, तरह-तरह की जाँच हुई पर अनिरुद्ध ने कभी उससे नहीं पूछा कि वह अस्पताल क्यों जाती है या उसे क्या परेशानी है? शारीरिक व्याधि से ज्यादा तो उसे उपेक्षा और तिरस्कार के अहसास ने तोड़ दिया। जाँच का परिणाम आने के बाद कैंसर का पता चला पर अनिरुद्ध के माथे पर शिकन तक नहीं आया लेकिन समाज में अपनी शाख बनाए रखने और बच्चों की खुशी के लिए उसने उसका पूरा इलाज करवाया। वह उसे अस्पताल लेकर जाता लेकिन कभी उससे सहानुभूति के दो शब्द नहीं बोला। बच्चों को खुश करने के लिए उन्हें बुलाकर उनसे उनकी माँ का हाल पूछता पर खुद कभी नजर भरकर उसकी ओर नहीं देखता था। बीमारी से लड़ने की जद्दोजहद में ही सौम्या ने अनिरुद्ध और अपनी सहेली रेणुका को ऐसी अवस्था में देख लिया कि उसके पैरों तले की जमीन खिसक गई। उसे वर्षों से अपने मन में उठने वाले सारे सवालों के जवाब एक ही पल में मिल गए। वह लड़खड़ा कर गिर गई पर अनिरुद्ध ने उसे संभालने की भी जहमत नहीं उठाई। बल्कि अपनी इस चरित्रहीनता का आरोप भी सौम्या पर ही डाल दिया।
वह दहाड़ मारकर रोना चाहती थी पर बच्चों के सामने उनके पिता का घिनौना चेहरा लाने का साहस नहीं जुटा पा रही थी। अनिरुद्ध की तरह वह अपना जमीर नहीं मार पा रही थी। उस समय अनिरुद्ध ने उससे वादा किया कि वह बच्चों को कुछ न बताए, उसका इलाज वह पहले की ही भाँति करवाएगा और घर भी चलाएगा परंतु रेणुका को नहीं छोड़ सकता। जो रिश्ता हाथ से फिसलकर किसी और के दामन में जा गिरा था उसे पाने की आस उसने भी छोड़ दिया और तब से ही बच्चों के लिए जीना शुरू कर दिया। जब दर्द अपनी सीमा तोड़ देता है तब वह अकेले किसी कमरे में या वॉशरूम में एकांत का सहारा लेकर सारा गुबार निकाल लेती है और फिर बच्चों के सामने सामान्य हो जाती है। सिर्फ वही जानती है कि अनिरुद्ध हफ्ते के पाँच दिन ऑफिस टूर के बहाने रेणुका के साथ रहता है। बच्चों की नजर में वह अब भी एक आदर्श पति और आदर्श पिता है।
"मम्मी! अस्मि पढ़ नहीं रही है, अभी भी मोबाइल पर गेम खेल रही है।" अलंकृता की आवाज सुनकर सौम्या अतीत की रेखा पार करके वर्तमान में आ गई और बच्चों के पास स्टडी रूम की ओर भागी, वह बच्चों को वहाँ अकेले नहीं छोड़ सकती थी।
उसके पहुँचने से पहले ही अस्मि मोबाइल बंद करके एक ओर रख चुकी थी और पढ़ने लगी। सौम्या ने चुपचाप मोबाइल अपने पास रख लिया और वहीं कुर्सी खींचकर बैठ गई। थोड़ी देर के बाद अलंकृता बोली-
"मम्मी खाना नहीं बनेगा क्या?"
"हाँ क्यों नहीं, लेकिन मैं सोच रही थी कि क्यों नहीं तुम लोग वहीं हॉल में या अपने कमरे में बैठकर पढ़ते! मेरा भी मन लगा रहता।" वह बोली।
अलंकृता ने बड़े ध्यान से उसे देखा, जैसे उसके ऐसा कहने के पीछे का मकसद जानना चाहती हो और उदास होकर बोली, "डैड नहीं हैं इसलिए आप अकेलापन महसूस कर रही हो न?"
"अरे नहीं बच्चा, मैं तो बस यूँ ही कह रही थी, यहाँ बैठकर पढ़ो या वहाँ क्या फर्क पड़ता है! टी. वी. भी नहीं चल रहा है तो व्यवधान भी नहीं होगा। वैसे अगर तुम्हारी बात पर गौर करें तो फिर यही कहूँगी कि चहल-पहल किसे अच्छी नहीं लगती।" उसने मुस्कुराते हुए कहा।
दोनों बच्चे उसके साथ ही नीचे आ गए और हॉल में बैठकर पढ़ने लगे। अब वह निश्चिंतता से खाना बना सकती थी।
कुछ देर के बाद तीनों ने साथ बैठकर खाना खाया। गपशप थी कि खत्म ही नहीं हो रही थी। स्कूल और नए दोस्तों के बारे में बातें करते-करते अस्मि को नींद आने लगी। दोनों बहनें कमरे में जाकर सो गईं। बर्तन और रसोई साफ करके सौम्या भी अपने कमरे में जाकर सो गई।
क्रमशः
मालती मिश्रा 'मयंती'
आपकी रचना चर्चा मंच ब्लॉग पर रविवार 16 जुलाई 2023 को
जवाब देंहटाएं'तिनके-तिनके अगर नहीं चुनते तो बना घोंसला नहीं होता (चर्चा अंक 4672)
अंक में शामिल की गई है। चर्चा में सम्मिलित होने के लिए आप भी सादर आमंत्रित हैं, हमारी प्रस्तुति का अवश्य अवलोकन कीजिएगा।
कहानी को चर्चा मंच पर शामिल करने और सूचित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद रवींद्र सिंह जी🙏
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