पूरे साल में एक दिन ऐसा आता है,
जब इस युग का शिक्षक सम्मान पाता है।
व्यवस्था और सिस्टम के हाथों
बँधे हुए हैं उसके भाव,
शिक्षा कैसे देनी है
यह तय करना भी नहीं उसके हाथ।
अन्यथा पूरे वर्ष मूक प्राणी की भाँति
व्यवस्था का हुकुम बजाता है,
जैसा चाहे जितना चाहे
वो बस उतना ही पढ़ाता है।
खरीदार बने विद्यार्थी
व्यापारी (विद्यालय संस्थापक) भाव लगाता है,
इन दोनों के बीच में
शिक्षक ही बिक जाता है।
बिके हुए से दास की भाँति
अधिकार न कोई जताता है,
सम्मान पाना तो दूर की बात
स्वाभिमान भी बचा न पाता है।
औपचारिकता निभाने के लिए ही
इस दिन भीतर का मानव जाग जाता है,
जिसको सदा बस नौकर समझा
वो ही आज शिक्षक नजर आता है।
मालती मिश्रा
शिक्षक बने रहना आज के ज़माने में सरल नहीं ...
जवाब देंहटाएंब्लॉग पर आने और अनमोल प्रतिक्रिया के लिए आभार कविता रावत जी। यह सत्य है कि शिक्षक को पग-पग पर संघर्ष करना पड़ता है और फिर भी उसका उद्देश्य(प्रभावी शिक्षण का) पूर्ण नही होता तो वह आहत और निराश ही होता है।
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