सकल दिवा के अनवरत सफर से
थककर दिनेश चला सिंधु के अंक में
शांत सिंधु के अविरल निर्मल नीर में
अब भी प्रकाशित दिनकर का भाल है
अंबर का वसन मटमैला हो चला
पर कंचन आभा अब भी बेमिसाल है
उदधि थाल में प्रकाशित लौ सूर्य की
लहर-लहर लहरों की अद्भुत ये चाल है
उदय सिंधु से अस्त सिंधु तक
संध्या ने ओढ़ा स्वर्णिम सी शॉल है
दिनकर के प्रीत से कुछ रंग ले चली
जल में बह रही नौका उड़ रहा पाल है
आड़ी-टेढ़ी जैसे-तैसे लहरों संग हिलकोरें लेती
बढ़ती चली जा रही नैया की मदमस्त चाल है
विस्तृत वितान तले जलराशि अपार है
चला तन्हा अकेले मन में अनेकों सवाल है
अनुपम सौंदर्य की छटा लाई संध्या सुंदरी
प्रकृति को लुभाने को बिछाया ये जाल है
मालती मिश्रा
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