रविवार

राह तुम्हारी तकते कान्हा......

राह तुम्हारी तकते कान्हा
मैने अपना स्वत्व मिटाया,
काठ सहारा लेते-लेते 
काठ-सी ह्वै गई काया।
नीर बहा-बहा कर दिन-रैना
शुष्क हो गईं अँखियाँ,
तुम बिन सुने कौन मेरी बानी
कासे करूँ मैं बतियाँ।
बिन बोले बिन मुख खोले
शुष्क पड़ गई जिह्वा,
कर्णों का उपयोग नहीं है
प्रकृति का स्पंदन व्यर्थ हुआ।
नीर-समीर को मैं न जानूँ
मेरे तो सब तुम ही हो,
भूख-प्यास और धड़कन साँस
सब अहसास तुम्हीं तो हो।
कानों में चुभती थी मेरे नटवर
जब कोकिल कुहुक सुनाती थी,
विरह की अग्नि जलाती थी जब
वर्षा रिमझिम आती थी।
सूरज की वो मधुर किरणें
बिछोह के तीर चुभाते थे,
फूलों पर भँवरों की गुंजन
तोरी मीठी बतियाँ याद दिलाते थे,
मंद-मंद पुरवा की पवन
हौले से कुछ कह जाती थी,
शीतलता भी उसकी मुझे न भाती
जब तुम्हारी सुगंध न लाती थी।
वसंत की मनभावन सुंदरता
मुझको बड़ा खिझाती थी,
हार-सिंगार किये कोई बाला
अँखियाँ सह न पाती थीं।
बाट जोहन को तुम्हारी कान्हा
मैने सबकुछ छोड़ दिया,
वृक्ष सहारा लेकर मैंने
खुद को उससे जोड़ लिया।
एक झलक को तुम्हरे मधुसूदन
नयना हुए अति भारी,
मेरा संताप मिटाते-मिटाते
मुझसम प्रकृति हुई अब सारी।
मालती मिश्रा

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर कविता बधाई हो

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    1. संतोष कुमार जी ब्लॉग पर स्वागत है आपका। बहुत-बहुत धन्यवाद, आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए अनमोल है।

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    2. संतोष कुमार जी ब्लॉग पर स्वागत है आपका। बहुत-बहुत धन्यवाद, आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए अनमोल है।

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 05 सितम्बर 2016 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. मेरी रचना को शामिल करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया।

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    2. मेरी रचना को शामिल करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया।

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  3. उत्तर
    1. बहुत-बहुत आभार आपकी टिप्पणी से निःसंदेह मेरी को प्रोत्साहन मिलेगा।

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    2. बहुत-बहुत आभार आपकी टिप्पणी से निःसंदेह मेरी को प्रोत्साहन मिलेगा।

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