बुधवार

चाह मेरे मन की

संसार की बगिया का मैं भी खिलता हुई प्रसून हूँ
मैं भी सुंदर और सुरभित नवल प्रफुल्लित मुस्कान हूँ
उपवन में सौरभ फैलाने को मैं भी तैयार हूँ
अनचाहे भँवरों सैय्यादों की नजरों का शिकार हूँ
तोड़ने को डाली से बढ़ते हाथ बारंबार हैं
हर हाथ मुझको मसल कर फेंकने को तैयार है
पा जाऊँ गर मैं अपने माली की ममता और दुलार 
मिटा दूँ मैं हर बाधा और भँवरों का अनाचार 
फैलाऊँ मैं भी सौरभ फिर हर घर के हर आँगन में
हर हृदय हो सुरभित खुशियों से यही चाह मेरे मन में।
मालती मिश्रा


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