प्रिय पाठक!
प्रथम भाग में आपने पढ़ा कि सौम्या को किसी स्त्री के सिसकने की आवाज आती है और वह डर जाती है। धीरे-धीरे आवाज आनी बंद हो जाती है और बहुत प्रयत्न करके वह भी नींद के आगोश में समा जाती है....
अब आगे...अलार्म की आवाज सुनकर उसकी नींद खुली। सुबह के छः बज रहे थे, उसे ध्यान आया कि उसने रात को रसोई भी साफ नहीं किया था, बच्चों के स्कूल जाने से पहले उसे रसोई साफ करके नाश्ता तैयार करना है। वह हड़बड़ाकर जल्दी से उठी और बालों का जूड़ा बनाते हुए लगभग भागती हुई नीचे आई। रसोई में जाने से पहले वह कॉमन वॉश रूम की ओर मुड़ गई क्योंकि जल्दबाजी में वह वॉशरूम जाना भी भूल गई थी। जैसे ही उसने वॉशरूम की बत्ती जलाई उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं। वह पीछे मुड़कर कभी ऊपर की ओर बच्चों के कमरों की ओर देखती तो कभी इधर-उधर देखती पर बच्चों के कमरों का दरवाजा बंद था और नीचे हॉल में भी कोई नहीं था, फिर वॉशरूम में कौन आया?? उसका दिमाग घूम गया..ऐसा लग रहा था जैसे अभी-अभी किसी ने वॉशरूम के फर्श को धोकर वाइपर लगाया है, उसकी नजर ऊपर गई, शावर भी गीला था। तो क्या कोई नहाकर गया है यहाँ से? वह उल्टे पाँव रसोई में आ गई और रसोई की हालत देखते ही ठिठक गई। उसने तो रात को रसोई साफ ही नहीं किया था, सारे बर्तन फैले हुए थे..फिर साफ किसने किया? सबकुछ अपनी जगह पर था, स्लैब चमक रहा था जैसे अभी कोई साफ करके गया हो।
अलंकृता..हाँ.. उसी ने किया होगा..। सोचते हुए वह फिर ऊपर गई और अलंकृता के कमरे में झाँककर देखा, वह सो रही थी। 'कोई बात नहीं, जब उठेगी तब पूछूँगी।' सोचते हुए वह अपने कमरे में आ गई और अलमारी में से कपड़े लेकर वॉशरूम में चली गई।
अनिरुद्ध और दोनों बच्चों को नाश्ता परोसते हुए सौम्या ने अलंकृता से पूछा- "कृति आज तू सुबह जल्दी उठ कर नहा-धोकर फिर क्यों सो गई?"
"क्या! जल्दी उठी, मैं?..और नहा-धोकर फिर सो गई! आप भी ना मम्मी, अरे मजाक भी ऐसा करती हो जिस पर बिल्कुल हँसी नहीं आती।" अलंकृता पहले तो हैरान हुई फिर सौम्या की बात को मजाक समझकर बोली।
"तूने सुबह मेरे उठने से पहले रसोई नहीं साफ की?" अब सौम्या अनजाने भय से आशंकित हो उठी थी।
"मम्मी आप क्या कह रही हो? मैं आज तक कभी आपसे पहले जागी हूँ जो आज जागकर रसोई साफ कर दूँगी?"
"आज रात से तुम्हारी मम्मी को अजीब-अजीब से सपने आ रहे हैं, तुम लोग इन बातों पर ध्यान मत दो नाश्ता खत्म करो तो मैं तुम्हें स्कूल छोड़ दूँ।" अनिरुद्ध ने सौम्या की ओर देखते हुए कहा। सौम्या बच्चों को डराना नहीं चाहती थी इसलिए वह चुप हो गई।
बच्चों के जाने के बाद वह फिर से बचे हुए कार्टन में से एक को खोलकर उसमें से डेकोरेशन का सामान निकालकर स्टोर रूम में रखने लगी। तभी अलमारी के ऊपर रखा एक प्लास्टिक का अटैचीनुमा बॉक्स गिर पड़ा। सौम्या ने उसे उठा कर फिर से वहीं ऊपर रखना चाहा लेकिन वह बॉक्स खुल गया और उसमें रखा सामान बिखर गया। एक और काम बढ़ जाने के अहसास से ही वह खीझ गई और उसे ज्यों का त्यों छोड़कर बाहर आ गई और दूसरे बॉक्स खोलकर उनके सामान लगाने लगी। उसके दिमाग में अब भी बार-बार यही प्रश्न घूम रहा था कि रसोई और वॉशरूम किसने साफ किया? पर उसके पास इसका कोई जवाब नहीं था।
सौम्या को पढ़ने में रुचि थी इसलिए उसके पास तरह-तरह की पुस्तकों का संग्रह था। ये आखिरी कार्टन पुस्तकों का बचा हुआ था, लेकिन इसे उठाकर ले जाना उसके लिए संभव नहीं था। उसने थोड़ी-थोड़ी पुस्तकें ले जाना उचित समझा। उसने पहले जाकर स्टडी रूम का दरवाजा खोला। यह कमरा मध्यम आकार का था।
दरवाजे वाली दीवार पर बुक शेल्फ बने थे जिनमें पुस्तकों का अच्छा-खासा संग्रह था। नीचे की तरफ केबिनेट बने हुए थे। दरवाजे के ठीक सामने लगभग आधी दीवार में शो-केस था जिसमें कई शील्ड, सर्टिफिकेट, मोमेंटो आदि रखे थे। बैठकर पढ़ने के लिए मेज और दो कुर्सियाँ थीं। सौम्या अब जितना उठा सकती थी उतनी ही पुस्तकें लाकर मेज पर रखती जाती ताकि जब सारी पुस्तकें आ जाएँगी तब एक साथ ही उन्हें लगाएगी।
शाम हो गई, बच्चे स्कूल और कॉलेज से आकर सो गए थे, सौम्या ने उन दोनों को जगाकर पढ़ने के लिए कहा और खाना बनाने की तैयारी करने लगी।
मॉम! स्टडी टेबल पर तो आपने पुस्तकों की इमारत बना रखी है, फिर हम वहाँ कैसे पढ़ें?" अस्मि ने कहा।
"बेटा आज आप लोग अपने कमरे में मैनेज कर लो, कल मैं सारी पुस्तकें रख दूँगी।" सौम्या ने कहा और खाना बनाने में व्यस्त हो गई। बच्चों के साथ खाना खाकर उसने रसोई साफ की और अपने कमरे में जाते हुए बच्चों के कमरे में झाँककर देखा, दोनों सो रही थीं।
अनिरुद्ध आज ऑफिस के किसी काम से आउट ऑफ स्टेशन गया है। सौम्या को नींद नहीं आ रही थी तो वह शॉल लपेटती हुई बालकनी में आकर खड़ी हो गई और अतीत के पथरीले पथ पर ख्यालों के अश्व निर्बाध दौड़ने लगे....
आज वह अपने शारीरिक व्याधि से मुक्त हो चुकी है, कैंसर ने शरीर के जिस अंग को सड़ा दिया था उसे काटकर शरीर से अलग कर दिया गया पर अब उस कैंसर रूपी रिश्ते का क्या करे जो सड़ चुका है, जिसे वह न तो अपना पा रही है न ही काटकर अलग कर पा रही है। हर पल हर घड़ी उस मृतप्राय रिश्ते के बोझ तले दबी घुटती रहती है उसकी आँखों के समक्ष रह-रहकर वो दृश्य घूमने लगता है, जिसने उसके रिश्ते को, उसके विश्वास को लहुलुहान कर दिया था। उसकी आँखें भर आईं, सीने में अजीब सा दर्द हुआ और वह सिसक पड़ी, तभी हवा के झोंके संग उड़ता हुआ एक पीत वर्ण पत्ता आकर उसके गाल पर ऐसे चिपक गया मानो उसके आँसू पोंछते हुए कह रहा हो 'मत रो पगली, मुझे देख मैं भी तो अपनी शाख से विलगित हो गया, पर रोया नहीं बल्कि खुद को हालातों पर छोड़ दिया। तू तो इंसान है, सशक्त है, फिर क्यों नहीं बनाती नए आयाम? क्यों जी रही है भूत में? थाम वर्तमान की उँगली और रच डाल अपना नया भविष्य।'
उसने अपने गीले कपोल से वह पत्ता हटाया और उसे हाथ में पकड़ कर अपलक निहारने लगी। वह मुरझाया हुआ सा पीला पत्ता अपनी चमक, हरियाली और ताजगी खो चुका था इसीलिए अपनी शाख से अलग कर दिया गया परंतु मैं तो अब मुरझाई, कांतिहीन और कुरूप हुई हूँ पर अपनी शाख से तो वर्षों पहले अलग कर दी गई। बस मैं ही जबरन उस शाख से लिपटी रही और जान ही न पाई कि मैं कब की त्यागी जा चुकी हूँ। सोचते हुए उसके हाथ से पत्ता कब छूटकर गिर गया उसे पता ही न चला। उसे अपने पैर बेजान और उसके शरीर का बोझ उठाने में असक्षम से महसूस हुए, वह वहीं रखी कुर्सी पर धम्म से बैठ गई। यह वही अनिरुद्ध है जो उसे हर हाल में खुश रखना चाहता था, कभी उसकी आँखों में आँसू नहीं देख पाता था, आज उसी ने उसे हमेशा के लिए रोने के लिए छोड़ दिया। वह कुर्सी पर पीछे की ओर सिर टिकाकर आँखें बंद करके बैठ गई और धीरे-धीरे अतीत की गहराइयों में खोने ही लगी थी कि अचानक उसे महसूस हुआ कि कहीं से किसी के जोर-जोर से रोने की आवाज आ रही थी। आज यह आवाज कल से अधिक तेज और स्पष्ट थी। उसे डर लगने लगा इसलिए वह उठी और आकर चुपचाप लेट गई। रोने की आवाज लगातार आ रही थी, उसे ऐसा लगा जैसे कोई उसके कमरे में झाँककर गया है। अब उससे रहा नहीं गया, कहीं बच्चों के कमरे में तो नहीं गया कोई! वह उठी और शॉल ओढ़ती हुई बाहर आई। उसने बच्चों के कमरों में जाकर देखा, वो दोनों गहरी नींद में सो रहे थे। किसी स्त्री के सिसकने की आवाज लगातार आ रही थी। जीरो वॉट के बल्ब की मद्धिम रोशनी में उसे ऊपर कॉरीडोर में और नीचे हॉल में कहीं कोई दिखाई नहीं दिया। उसने बाहर की बत्तियाँ जला दीं और आवाज की दिशा में चलती हुई स्टोर रूम के बाहर पहुँच गई। स्टोर रूम का दरवाजा खुला था, पर ये कैसे हो सकता है? उसे याद है कि उसने दरवाजा बाहर से बंद किया था फिर इसे खोला किसने? सिसकने की आवाज लगातार आ रही थी। सौम्या भीतर जाने का साहस नहीं कर पा रही थी लेकिन ऐसे किसी को रोते सुनकर अनसुना भी तो नहीं कर सकती थी। उसने हिम्मत करके दरवाजे पर खड़े होकर अंदर की ओर दरवाजे के बगल में लगे स्विच बोर्ड को टटोलकर बत्ती जला दी। पूरा कमरा रोशनी में नहा गया। वह वहीं खड़ी होकर बड़े ध्यान से इधर-उधर नजरें दौड़ाते हुए वहाँ रखे सामानों के पीछे देखने की कोशिश कर रही थी पर कहीं कोई नहीं था तभी अचानक उसे याद आया कि यहाँ तो बॉक्स का सामान फैला हुआ था!!! 'य..ये कैसे हो सकता है... व..वो बॉक्स कहाँ गया?' वह अपने-आप से ही बड़बड़ाई और कमरे में नजर दौड़ाने लगी तो यह देखकर और अधिक चौंक गई कि वह बॉक्स तो उसी स्थान पर रखा हुआ है जहाँ पहले था।
"ये किसने किया होगा?" उसके मुँह से निकला। तभी उसे ध्यान आया कि रोने की आवाज तो बंद हो चुकी थी। उसने बाहर निकलते हुए बत्ती बंद कर दिया और कमरे का दरवाजा बंद करके कॉरीडोर की बत्तियाँ भी बंद कर दीं और अपने कमरे में चली गई।
उसकी आँखों से नींद अब उड़ चुकी थी, कानों में वही सिसकियाँ गूँज रही थीं, मन ही मन अब डर लग रहा था कि कहीं यह घर भूतिया तो नहीं?? यह ख्याल आते ही वह झटके से उठ बैठी।
"धत् मैं भी क्या-क्या सोचने लगी!" अगले ही पल अपने सिर पर हल्के से धौल जमाते हुए वह बड़बड़ाई।
"भूत-प्रेत वो भी आज के जमाने में! जहाँ इंसानों को रहने की जगह नहीं मिल रही वहाँ बेचारे भूत-प्रेत कैसे रहेंगे? मैं आज के जमाने की पढ़ी-लिखी महिला होकर भी क्या सोचने लगी! सच कहते हैं कि अगर दिमाग पर डर हावी हो जाए तो इंसान कुछ भी सोचने लग जाता है।" वह मुस्कुराते हुए अपने-आप से ही बड़बड़ाई।
उसने दीवार घड़ी पर नज़र डाली, साढ़े तीन बजे रहे थे। 'नींद तो अब आएगी नहीं, क्यों न स्टडी रूम ही साफ कर लूँ।' सोचते हुए वह उठी और स्टडी रूम की ओर चल दी। वहाँ शेल्फ में पहले से रखी पुस्तकों को साफ करके दूसरी ओर की शेल्फ में लगाने लगी, तभी उसे एक पुरानी डायरी मिली। उसने डायरी को बड़े ध्यान से देखा, जहाँ दूसरी पुस्तकों पर धूल जमी हुई थी वहीं इस डायरी पर धूल का एक कण भी नहीं था, जैसे किसी ने अभी ही इसे झाड़ पोंछ कर रखा हो। जिज्ञासा वश वह वहीं बैठकर डायरी के पन्ने पलटने लगी...
पहले पन्ने पर ही लिखा था...
"अनकही बातें कई...
जो सदा मेरे दिल में रहीं,
आज उतार रही पन्नों पर
जो शायद कभी न जाएँ पढ़ी
बातें...जो मेरी अपनी हैं...
दूजे से बाँट सकती नहीं,
मुस्कुराहटों की है जो चिलमन
वो चिलमन हटा सकती नहीं..."
पंक्तियों को पढ़ते ही सौम्या आगे पढ़ने से खुद को रोक नहीं पाई और उसकी उँगलियों ने स्वत: पन्ना पटल दिया...
"नैतिकता अनैतिकता के दो राहे पर अटकी मेरी यह जीवन गाथा कब पूर्णतः अनैतिक हो गई मैं खुद भी न समझ सकी। लाख कोशिश की, अपनी पूरी क्षमता लगा दी यहाँ तक कि अपना तन-मन दोनों इस नैतिकता पर न्योछावर कर दिया पर आज खाली, कुरूप और व्याधियुक्त तन लिए नितांत शून्य मन के साथ अपनी दोनों खाली हथेलियाँ अपने समक्ष पसारे सोच रही हूँ कि जिस नैतिकता का बीजारोपण करने का भ्रम पाल रखा था वो कहाँ है...आज तो मैं स्वयं को भुजाहीन पाती हूँ, जो मेरा गर्व था वो खंडित ही नहीं हुआ बल्कि नैतिकता के दाह संस्कार में धुआँ बनकर उड़ गया। पीछे मुड़कर देखती हूँ तो खुद को दीन-हीन लाचार सी सुनसान सड़क के किनारे खड़े उस वृक्ष की भाँति पाती हूँ, जो निर्जन मार्ग पर सूखी टहनियों, सूखे दरख्त के रूप में खड़ा है। जिस पर न तो नैतिकता के पत्ते हैं न संस्कारों के फल, जो न तो पक्षियों को आश्रय देने में समर्थ है, न ही थके मांदे पथिकों को दो पल की छाँव। सोचती हूँ कि क्या अर्थ रह जाता है उस वृक्ष का? क्यों निरर्थक ही स्थान घेरे खड़ा है? हाँ..उसके समक्ष दो-तीन नव पल्लवित और युवा होते वृक्ष जरूर उस स्थान के खाली होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं, तो क्यों न मुझे उस स्थान को खाली कर देना चाहिए।"
'कितना दर्द है, ऐसा लगता है कि एक-एक शब्द दिल की गहराई से निकालकर आँसुओं में भिगो कर पन्ने पर उतारे गए हैं।' सोचते हुए उसने पन्ना पलटा..
क्रमशः
मालती मिश्रा 'मयंती'
चित्र- साभार... गूगल से
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