अक्सर समाचार-पत्रों में, टी०वी० समाचार में ये पढ़ने और देखने को मिलते हैं कि बेटे ने बूढ़े माँ-बाप को घर से निकाल दिया, या माँ-बाप को प्रताड़ित करते हैं या वृद्धाश्रम में छोड़ दिया आदि-आदि।
सचमुच बहुत ही दुःख की बात है जो माता-पिता अपना खून-पसीना एक कर न जाने कितनी मुश्किलों का सामना करते हुए अपनी औलादों की परवरिश करते हैं उनकी औलादें जब फर्ज पूरा करने का समय आता है तो अपनी जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ाने के लिए इतना अशोभनीय कृत्य करते हैं। ऐसी खबरें तो आएदिन सुनने को मिलती हैं। परंतु कभी ऐसी खबर सुनने को नहीं मिलती कि रीति-रिवाजों और रूढ़ियों में अंधे होकर माता-पिता ने अपनी ऐसी औलादों को घर से निकाल दिया या उसे जिंदगी भर अपमानित करते रहे जो अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को बार-बार अपमानित होने के बाद भी पूरी करने की कोशिश करता रहा, किंतु माँ-बाप या स्वार्थी भाई-बहनों के व्यवहार में खून के रिश्ते ने कभी जोर नहीं मारा। विचार या पसंद भिन्न होने के उपरांत तो जन्म देने वाली माता के प्रेम में भी स्वार्थ आ जाता है।
अक्सर माता-पिता को कहते सुना जाता है कि "हम जो कुछ भी कर रहे हैं अपने बच्चों के लिए ही तो कर रहे हैं, हमारी सबसे बड़ी पूँजी हमारे बच्चे हैं या बच्चों से बढ़कर हमारे लिए दुनिया में कुछ नहीं या बच्चों की खुशी में ही हमारी खुशी है" आदि। परंतु जब मैं समाज की ओर देखती हूँ तो मुझे माता-पिता की ये बातें बिल्कुल खोखली लगती हैं। आजकल अधिकतर माता-पिता का ये अगाढ़ प्रेम तब तक ही दिखाई देता है जब तक बच्चा छोटा और मासूम होता है, जब तक बच्चे की मासूम तोतली बातें उन्हें लुभाती हैं बस तब तक ही उनका प्रेम भी निस्वार्थ निष्पक्ष (सभी बच्चों के लिए समान) और निश्छल होता है। क्योंकि तब तक वो बच्चे को अपने तरीके से अपनी पसंद और अपनी सहूलियतों से पालते हैं।
जब तक बच्चा छोटा होता है तब तक जो माता-पिता उसके लिए निःस्वार्थ भाव से जान तक देने को तैयार होते हैं वही माता-पिता बच्चों के बड़ा होने पर भूल जाते हैं कि यह वही बच्चा है जिसकी खुशी में उन्हें अपनी खुशी दिखाई देती थी, यदि बड़ा होकर वो बच्चा अपनी खुशी के कोई ऐसा फैसला ले लेता है जिसमें माता-पिता की पसंद शामिल नहीं होती तो वही माता-पिता अपने उसी जान से प्यारे बच्चे को दूध से मक्खी की तरह निकाल फेंकते हैं जैसे कभी उससे उनका कोई रिश्ता रहा ही न हो। तब वो अपनी बड़ी-बड़ी निस्वार्थ बातों को भूल जाते हैं। वो यह नहीं सोचते कि यदि उन्होंने बच्चे की खुशी ही सर्वोपरि रखी है तो अब उन्हें अपने ही बच्चे की खुशियों से तकलीफ क्यों होने लगी?
फिर सही क्या है???
क्या बच्चे को उन्होंने अपनी खुशी के लिए पाला? यदि हाँ तो छुटपन से ही बच्चे के दिमाग में ये क्यों डालते हैं कि वो अपनी औलाद की खुशी और उसके सुखी जीवन के लिए कुछ भी करेंगे.. ऐसे माता-पिता यह समझ नहीं पाते कि उनकी इस कृत्य से उनकी ही दूसरी संतानें अपने ही भाई या बहन के खिलाफ अपने माता-पिता के कान भरकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने लगते हैं क्योंकि कहा गया हैै 'बाप बड़ा न भैया सबसे बड़ा रुपैया' आजकल धन-दौलत जायदाद के लिए भाई भाई का गला काटने को तैयार है, फिर यदि ये मौका माता-पिता ही दे देंगे फिर तो ऐसे मौकापरस्त भाई-बहनों की 'चाँदी ही चाँदी' है। 'हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा' न उन्हें प्रॉपर्टी के लिए भाई से लड़ना पड़ेगा न किसी की नजर में आएँगे बस माँ-बाप को भड़का कर अपना उल्लू सीधा करते हैं। ऐसे होते हैं आजकल के खून के रिश्ते।
दूसरी तरफ कुछ ऐसे माँ-बाप भी होते हैं जो अौलाद के प्रेम में उसके अनैतिक कार्यों में भी उसका साथ देते हैं जो संपूर्णतः गलत है क्योंकि सही-गलत का ज्ञान कराना भी माता-पिता का ही काम है।
मैं यह नहीं कहती कि सभी माता-पिता ऐसे ही होते हैं परंतु मेरी बातों से इंकार भी नही किया जा सकता कि बहुत से माता-पिता ऐसे ही होते है।
और दुःख की बात ये है कि वही माता-पिता अपनी एक संतान की सभी गलतियों को नजर अंदाज कर दूसरी संतान की छोटी-छोटी गलतियों को भी महत्वपूर्ण बना देते हैं।
किंतु ऐसा होना लाजिमी है यदि सबकुछ सही होगा तो ये कलयुग न होगा, ऐसे ही होते हैं-
"कलयुग के खून के रिश्ते"
मालती मिश्रा
सचमुच बहुत ही दुःख की बात है जो माता-पिता अपना खून-पसीना एक कर न जाने कितनी मुश्किलों का सामना करते हुए अपनी औलादों की परवरिश करते हैं उनकी औलादें जब फर्ज पूरा करने का समय आता है तो अपनी जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ाने के लिए इतना अशोभनीय कृत्य करते हैं। ऐसी खबरें तो आएदिन सुनने को मिलती हैं। परंतु कभी ऐसी खबर सुनने को नहीं मिलती कि रीति-रिवाजों और रूढ़ियों में अंधे होकर माता-पिता ने अपनी ऐसी औलादों को घर से निकाल दिया या उसे जिंदगी भर अपमानित करते रहे जो अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को बार-बार अपमानित होने के बाद भी पूरी करने की कोशिश करता रहा, किंतु माँ-बाप या स्वार्थी भाई-बहनों के व्यवहार में खून के रिश्ते ने कभी जोर नहीं मारा। विचार या पसंद भिन्न होने के उपरांत तो जन्म देने वाली माता के प्रेम में भी स्वार्थ आ जाता है।
अक्सर माता-पिता को कहते सुना जाता है कि "हम जो कुछ भी कर रहे हैं अपने बच्चों के लिए ही तो कर रहे हैं, हमारी सबसे बड़ी पूँजी हमारे बच्चे हैं या बच्चों से बढ़कर हमारे लिए दुनिया में कुछ नहीं या बच्चों की खुशी में ही हमारी खुशी है" आदि। परंतु जब मैं समाज की ओर देखती हूँ तो मुझे माता-पिता की ये बातें बिल्कुल खोखली लगती हैं। आजकल अधिकतर माता-पिता का ये अगाढ़ प्रेम तब तक ही दिखाई देता है जब तक बच्चा छोटा और मासूम होता है, जब तक बच्चे की मासूम तोतली बातें उन्हें लुभाती हैं बस तब तक ही उनका प्रेम भी निस्वार्थ निष्पक्ष (सभी बच्चों के लिए समान) और निश्छल होता है। क्योंकि तब तक वो बच्चे को अपने तरीके से अपनी पसंद और अपनी सहूलियतों से पालते हैं।
जब तक बच्चा छोटा होता है तब तक जो माता-पिता उसके लिए निःस्वार्थ भाव से जान तक देने को तैयार होते हैं वही माता-पिता बच्चों के बड़ा होने पर भूल जाते हैं कि यह वही बच्चा है जिसकी खुशी में उन्हें अपनी खुशी दिखाई देती थी, यदि बड़ा होकर वो बच्चा अपनी खुशी के कोई ऐसा फैसला ले लेता है जिसमें माता-पिता की पसंद शामिल नहीं होती तो वही माता-पिता अपने उसी जान से प्यारे बच्चे को दूध से मक्खी की तरह निकाल फेंकते हैं जैसे कभी उससे उनका कोई रिश्ता रहा ही न हो। तब वो अपनी बड़ी-बड़ी निस्वार्थ बातों को भूल जाते हैं। वो यह नहीं सोचते कि यदि उन्होंने बच्चे की खुशी ही सर्वोपरि रखी है तो अब उन्हें अपने ही बच्चे की खुशियों से तकलीफ क्यों होने लगी?
फिर सही क्या है???
क्या बच्चे को उन्होंने अपनी खुशी के लिए पाला? यदि हाँ तो छुटपन से ही बच्चे के दिमाग में ये क्यों डालते हैं कि वो अपनी औलाद की खुशी और उसके सुखी जीवन के लिए कुछ भी करेंगे.. ऐसे माता-पिता यह समझ नहीं पाते कि उनकी इस कृत्य से उनकी ही दूसरी संतानें अपने ही भाई या बहन के खिलाफ अपने माता-पिता के कान भरकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने लगते हैं क्योंकि कहा गया हैै 'बाप बड़ा न भैया सबसे बड़ा रुपैया' आजकल धन-दौलत जायदाद के लिए भाई भाई का गला काटने को तैयार है, फिर यदि ये मौका माता-पिता ही दे देंगे फिर तो ऐसे मौकापरस्त भाई-बहनों की 'चाँदी ही चाँदी' है। 'हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा' न उन्हें प्रॉपर्टी के लिए भाई से लड़ना पड़ेगा न किसी की नजर में आएँगे बस माँ-बाप को भड़का कर अपना उल्लू सीधा करते हैं। ऐसे होते हैं आजकल के खून के रिश्ते।
दूसरी तरफ कुछ ऐसे माँ-बाप भी होते हैं जो अौलाद के प्रेम में उसके अनैतिक कार्यों में भी उसका साथ देते हैं जो संपूर्णतः गलत है क्योंकि सही-गलत का ज्ञान कराना भी माता-पिता का ही काम है।
मैं यह नहीं कहती कि सभी माता-पिता ऐसे ही होते हैं परंतु मेरी बातों से इंकार भी नही किया जा सकता कि बहुत से माता-पिता ऐसे ही होते है।
और दुःख की बात ये है कि वही माता-पिता अपनी एक संतान की सभी गलतियों को नजर अंदाज कर दूसरी संतान की छोटी-छोटी गलतियों को भी महत्वपूर्ण बना देते हैं।
किंतु ऐसा होना लाजिमी है यदि सबकुछ सही होगा तो ये कलयुग न होगा, ऐसे ही होते हैं-
"कलयुग के खून के रिश्ते"
मालती मिश्रा
Thanks for information
जवाब देंहटाएंThanks for information
जवाब देंहटाएंसच कहा कलयुग मैं रिश्तों और जज्बातों का वजूद कम होता ही जा रहा है।
जवाब देंहटाएंआभार मनीष जी नमन
हटाएंसत्य है आजकल महत्वाकांक्षाओं तथा लालच ने रिश्तों की मधुरता को समाप्त कर दिया है
आभार मनीष जी नमन
हटाएंसत्य है आजकल महत्वाकांक्षाओं तथा लालच ने रिश्तों की मधुरता को समाप्त कर दिया है
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंYeh sach kafi najdeek se absorb kiya hai..
हटाएंYeh sach kafi najdeek se absorb kiya hai..
हटाएंव्यक्ति अपना मुकाम स्वयं बनाता है और अपना महत्व स्वयं खोता भी है
हटाएंव्यक्ति अपना मुकाम स्वयं बनाता है और अपना महत्व स्वयं खोता भी है
हटाएंकलयुग मैं रिश्तों का वजूद कम होता ही जा रहा है।
जवाब देंहटाएंजी बिल्कुल सत्य कहा आपने, धन्यवाद
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