शुक्रवार

माँ बिन मायका

माँ बिन मायका
वही बरामदा है और बरामदे में बिछा हुआ तख्त भी वही है, जो आज से कई साल पहले भी हुआ करता था और उस पर बैठी देविका आज भी अपने मायके से ससुराल जाने को तैयार बैठी थी पर आज यहाँ के दृश्य के साथ-साथ रिश्ते, रिश्तेदार, भावनाएँ और सोच सब बदल चुके थे। दो साल पहले जब वह यहाँ से विदा हो रही थी तब माँ को बीमार हालत में छोड़कर जा रही थी, जाते-जाते बार-बार अपनी भाभियों से भाई से गिड़गिड़ाते हुए कहा था कि माँ की तबियत की खबर उसे देते रहें। सबने उसे सांत्वना भी दिया था। बाबू जी से भी यही कह कर गई थी वह, पर तबियत की खबर देना तो दूर, माँ इस दुनिया को ही छोड़ गईं और किसी ने उसे बताने की जरूरत नहीं समझी।
वह जब भी मायके आती तो माँ उसे इसी बरामदे में या बाहर चौक में बैठी मिलतीं, चूँकि उसके आने का समय सुबह का ही होता था और अक्सर वह सर्दियों में ही आती थी तो माँ कभी अलाव के पास बाबूजी के साथ बैठी हाथ सेंकती मिलतीं, तो कभी चाय पीती या कुछ और काम करती हुई। वह जैसे ही बड़े से गेट पर आकर खड़ी होती तो माँ-बाबूजी उसे स्तब्ध होकर ऐसे टकटकी लगाए देखते रहते जैसे उन्हें अपनी आँखों पर विश्वास ही न हो रहा हो। उन्हें लगता कि अगर वो पलकें झपकाएँगे तो वह गायब हो जाएगी। जब उन्हें उसके आने का पूरी तरह विश्वास हो जाता तो माँ अपने घुटनों के दर्द को भूलकर वहाँ से उठकर तेजी से चलकर आने की कोशिश करतीं , उन्हें ज्यादा न चलना पड़े इसलिए वह भी जल्दी-जल्दी चलकर माँ के पास पहुँच जाती और उनके गले लग जाती। माँ की बाँहों में सिमटकर वह फिर छोटी सी बच्ची बन जाती। मन करता कि अब वह कभी उनसे अलग न हो। फिर माँ उसका बैग उठाने के लिए बढ़तीं पर 'मैं खुद रख दूँगी न तुम परेशान मत हो', कहकर वह बैग उठाकर लाकर बरामदे में इसी तख्त पर रख देती थी। माँ अलाव के पास उसके लिए बिड़वा (सूखे पुआल से बना बैठने का आसन) रख देतीं और किसी को भेजकर बहू को चाय-नाश्ता लाने को कहलवा देती थीं। वह जब तक यहाँ रहती माँ की दुनिया उसके और बच्चों के आसपास घूमती। वह कभी उसे अकेली नहीं छोड़तीं, उसके बच्चों ने कुछ खाया या नहीं? उन्हें कोई परेशानी तो नहीं, उनको कुछ नया खाने का मन तो नहीं, बस हमेशा हर तरह से इसी कोशिश में रहतीं कि शहर से आई उनकी बेटी और बच्चों को कोई परेशानी न हो। यहाँ घर में सभी हैंडपंप के ताजे पानी से नहाते थे पर देविका और बच्चों को पानी गर्म करके नहाने की आदत थी, इसलिए माँ ईंटों को जोड़कर चूल्हा बनाती थीं और उसपर इनके नहाने के लिए खुद पानी गर्म करती थीं।
जब वह वापस जाने की बात माँ को बताती थी कि फलाँ दिन को उसे जाना है तो वह उसे उदास होकर पहले चुपचाप देखतीं फिर कहतीं "क्या इतनी जल्दी जाना जरूरी है, कुछ दिन और नहीं रुक सकतीं?"
"रिज़र्वेशन है माँ, बच्चों की पढ़ाई का भी नुकसान होगा।" कहकर वह नजरें झुका लेती, उस समय उनकी आँखों की बेबस नमी उससे सहन नहीं होती थी। उनकी आँखों में न जाने कैसी गहरी उदासी और शायद उसके लिए कुछ न कर पाने की छटपटाहट होती थी, जो कि देविका को भीतर तक हिला देती थी। एक बार माँ ने कहा भी था कि नाना के खेतों के बिकने के बाद उसे भी एक लाख रूपए देंगी और बाबूजी भी यहाँ प्रॉपर्टी में भाइयों के बराबर हिस्सा तो नहीं दे पाएँगे पर कुछ रूपए जरूर देंगे उसका अधिकार नहीं मारेंगे।" तब उसने माँ से यही कहा था कि उसे कुछ नहीं चाहिए, रिश्तों में प्यार बना रहे, बस यही उसके लिए जरूरी है। पर माँ ने कहा, "जो जिसका है वो तो देना ही है, हम ज्यादा तो नहीं कर सकते पर थोड़ा-बहुत जितना कर सकते हैं वो तो करेंगे ही।" पर उसने महसूस किया था कि माँ अपने बेटों के सामने उसके अधिकार की बातें नहीं कर पाती थीं, कारण वह भी जानती है कि गाँवों में आज भी बेटियों को मायके की जमीन-जायदाद में हिस्सा नहीं दिया जाता, इसीलिए माँ कहने में झिझकती थीं और यही कारण था कि उसने भी कभी नहीं सोचा कि वह भाइयों से हिस्सा ले परंतु माँ तो बस ममता लुटाने पर आए तो सागर की गहराई कम पड़ जाए, लेकिन ममता के अधीन उनकी बेबस आँखें देखकर कभी-कभी तो उसे माँ पर भी गुस्सा आता, मन करता कि कह दे कि "जब इतना चाहती हो मुझे तो बेटों के बराबर अधिकार देने में और उनके समक्ष बोलने में डरती क्यों हो?" लेकिन अच्छा ही है कभी नहीं बोली।
जिस दिन उसे वापस जाना होता तब बरामदे में रखे इसी तख्त पर बैठकर कपड़े बैग में रखती और माँ गुड़, मुरमुरे, अचार, घी और न जाने क्या-क्या लाकर उसके लिए रखने लगतीं तब उसे बार-बार मना करना पड़ता था कि कैसे इतना सबकुछ ले जाएगी। उनका वश चलता तो वह गेहूँ, चावल, दाल भी बाँध देतीं। उसी तख्त पर बैठी बहुओं से सामान मँगवा-मँगवा कर रखती जातीं, कभी-कभी हाथ जहँ के तहँ रुक जाते और उसे एकटक देखने लगतीं जैसे उसकी छवि को आँखों में बसा लेना चाहती हों। फिर बाबूजी के दिए पैसे तो उसे देतीं ही और अपने पास जोड़कर रखे चार-पाँच हजार रुपए उसे और देतीं। उस समय उन्हें देखकर ऐसा लगता जैसे वह अपनी बेटी को न जाने क्या-क्या और कितना दे देना चाहती हैं पर फिर भी उन्हें कम लग रहा है। उसके बच्चों को गाँव के कपड़े पसंद नहीं आएँगे इसलिए उनके कपड़ों के पैसे अलग और आशीर्वाद के पैसे अलग से देती थीं। गाँव में रहते हुए भी वह अपनी बेटी-दामाद और उनके बच्चों के लिए खुलकर खर्च करती थीं।
उसे लगता है कि शायद यही कारण होगा कि भाईयों ने माँ की बीमारी की खबर उसे नहीं दी कि कहीं माँ ने उसे वह सब देने की बात कर दी, जो वो देना चाहती हैं, तो ऐसी स्थिति में वह मना नहीं कर पाएँगे, इसलिए उसको न बताने में ही भलाई समझा। उसे किसी अन्य से उनकी बीमारी की खबर मिली और वह भागती चली आई थी। भाई से तो जब भी फोन पर बात होती तो वह 'माँ ठीक हैं' कहता और उनके आस-पास न होने का बहाना बनाकर बाद में बात करवाने का वादा करके फोन रख देता और फिर दुबारा फोन ही नहीं करता था। माँ इस दुनिया को छोड़ गईं पर उसके भाइयों ने
उसे बताने की आवश्यकता नहीं समझी।
उनकी तेरहवीं से दो-तीन दिन पहले उसे पट्टीदार के ही किसी अन्य सदस्य ने फोन करके बताया अन्यथा वह इस बात से अंजान ही रहती कि अब उसके सिर से ममता का साया हट चुका है। वह बहुत तड़पी थी, जितना माँ के जाने से रोई थी उतना ही अपनी उपेक्षा के दर्द से बिलखी थी। जमीन-जायदाद धन-दौलत तो उसे कभी चाहिए ही नहीं थे पर उससे तो उसके बेटी होने का अधिकार भी छीन लिया गया था और वह कुछ न कर सकी।
उसने फ़ैसला कर लिया था कि अब वह कभी नहीं जाएगी वहाँ। आखिर अब उसका है भी क्या वहाँ? माँ थीं वो चली गईं। फिर क्रोध थोड़ा शांत हुआ तो उसने खुद को समझाया कि बाबूजी हैं, उसे जाना चाहिए उनके पास। आखिर वो भी तो अकेले हो गए होंगे, पता नहीं उनकी कैसी हालत होगी और उनसे पूछना भी तो है कि भाईयों ने नहीं बताया तो वो भी तो बता सकते थे।
वह बाबूजी मिलने अकेली आई और तब उन्हें अकेले इसी तख्त पर लेटे पाया। उसे देखते ही बाबूजी रो पड़े और उन्हें फूट-फूटकर रोते देख देविका खुद को भी रोक नहीं पाई, वह भी रो पड़ी थी। बाद में उन्होंने उसे बताया कि उसके भाइयों ने उनसे झूठ बोला था कि उन्होंने उसे माँ के गोलोक गमन की सूचना दे दी थी। उनको तो यही लगता था कि देविका सबकुछ जानने के बाद भी नहीं आई। उसने सभी को दोषी ठहराते हुए पहली बार कठोर शब्दों में फटकारा था, पहली बार घर की बड़ी बेटी होने के अधिकार से डाँटा था और तब किसी ने फोन खराब होने और किसी ने फोन नं० न मिलने के अविश्वसनीय बहाने बनाए थे।
देविका को माँ के बगैर घर काटने को दौड़ता महसूस हो रहा था। हालांकि अब तो उसका एक भाई भी पुराने वाले घर से यहीं इस नए घर में रहने लगा था ताकि रात को बाबूजी को अकेले न रहना पड़े, तब भी देविका के लिए एक-एक दिन काटना मुश्किल हो रहा था। जैसे पहले माँ उसका ख्याल रखा करती थीं इस बार बाबू जी ने रखा और उन्होंने भी वही दोहराया जो माँ कहा करती थीं कि उसे उसका अधिकार मिलना चाहिए। उन्होंने कहा कि वह माँ की अंतिम इच्छा जरूर पूरी करेंगे और उन्होंने मौसी के बेटे से इसकी बात भी कर ली है। देविका को महसूस हुआ कि उसके बाबूजी के स्वभाव में पहले से कितना अधिक परिवर्तन आ गया है। माँ के रहते वह कभी नहीं पूछते थे कि उसने खाना खाया या नहीं, उसे किसी चीज की आवश्यकता तो नहीं! या शायद जरूरत ही नहीं पड़ी, उन्हें पता होता था कि माँ खुद से पहले उसका ध्यान रखती थीं और अब माँ के अभाव में वह माँ के हिस्से की जिम्मेदारी भी स्वत: निभाने लगे। शायद उन्हें अपने बहू-बेटों की लापरवाही का भी बोध था, इसीलिए वह ज्यादा सजग हो गए थे।
वापस जाने का समय आया तो फिर वही बरामदा और वही तख्त, पर वहाँ जल्दी-जल्दी उसके लिए ज्यादा से ज्यादा चीजें देने को लालायित माँ नहीं थीं। बाबूजी उससे दो कदम की दूरी पर कुर्सी पर बैठे थे, वह अपने कपड़े बैग में रख रही थी पास ही दोनों भाभियाँ खड़ी थीं, पर आज उसे भेंट में देने के लिए उनके पास चंद रुपयों के अलावा कुछ न था। जब भाभियों ने उसे पैसे देना चाहा तो उसने मना किया पर बाबूजी की ओर देखकर उसे लगा कि उन्हें दुख होगा अगर वह खाली हाथ चली गई तो, इसलिए जब भाभी ने दुबारा आग्रह किया तो उसने चुपचाप रुपए पकड़ लिए। फिर बाबूजी ने भी अपनी जेब से रुपए निकाल कर उसे दिए तो उसे माँ की वही आदत याद आ गई जब वह उनके दिए गए पैसों में अपने पास से भी मिलातीं फिर देती थीं। उसने भरी आँखों से बाबूजी के धुँधलाते चेहरे की ओर देखते हुए चुपचाप रुपए ले लिए और भाई के साथ गाड़ी की ओर बढ़ गई। बाबूजी भी बाहर तक उसे छोड़ने आए और अपना और बच्चों का ख्याल रखने की हिदायत के साथ उसे आते रहने को कहा और भाई ने गाड़ी आगे बढ़ा दी।
ज्यों-ज्यों गाड़ी पगडंडी की ओर आगे बढ़ती जाती बाबूजी की आकृति और धुँधली होती जाती, माँ के अभाव में उसे आज घर का वह बड़ा सा गेट कितना सूना निर्जीव प्रतीत हो रहा था। 'माँ बिन मायका' उसके मुँह से अनायास ही निकला और पलकों के बाँध को तोड़कर आँसुओं की बूँदें गालों पर ढुलक आईं।

अपने घर पहुँच कर उसने अपने सकुशल पहुँचने की खबर बाबूजी को फोन करके दे दिया था। उसके बाद वह इंतजार करती रही कि शायद कभी भाई का फोन आए या भाभी फोन करके उसकी कुशलक्षेम पूछेंगी, पर ऐसा अवसर कभी नहीं आया। उसने भी सोच लिया कि अब वह भी फोन नहीं करेगी पर दूसरे ही पल बाबूजी का मुर्झाया चेहरा ध्यान आ गया और उसने सोचा कि आखिर इसमें उनकी क्या गलती हो सकती है, उन्हें तो शायद नंबर भी नहीं पता होगा और ऐसा ख्याल आते ही उसने अपने बाबूजी के मोबाइल पर ही फोन किया और फिर काफी देर तक उनसे बात की। उसका फोन आने से बाबूजी भी बहुत खुश हुए, जैसे पहले माँ होती थीं। अब तो वह फोन पर वो उससे घर-परिवार और फसल की बातें भी करने लगे थे जबकि पहले वह उसके बारे में माँ से ही पूछा करते थे, उससे तो बस हालचाल पूछ कर फोन रख देते थे।
अब देविका का नियम बन गया था कि हफ्ते-दस दिन में एक बार बाबू जी को फोन जरूर कर लेती थी और उनसे बात करके उसे तसल्ली मिल जाती थी। बीच में कई बार तो ऐसा भी हुआ जब उनका नंबर नहीं लगा तो उसने अपने भाई के मोबाइल पर भी फोन करके बाबूजी से बात की परंतु कभी भी उसके भाइयों या भाभियों ने उसे अपनी तरफ से फोन करने की औपचारिकता भी नहीं की। समय अपनी गति से आगे बढ़ता रहा और एक समय ऐसा भी आया जब उसने अपने बाबूजी को फोन किया पर उन्होंने फोन नहीं उठाया, उसने सोचा शायद फोन दूर रखा होगा इसलिए पता नहीं चला होगा, वह बाद में कर लेगी। परंतु कुछ घंटों बाद फोन करने पर फिर उन्होंने नहीं उठाया। उसे उनकी कही बात ध्यान आई कि पहले भी कई बार उनको फोन की घंटी धीमी होने के कारण सुनाई नहीं पड़ी थी तब उसने ही चाचा के लड़के को फोन किया था कि बाबूजी के मोबाइल में वैल्यूम बढ़ाने को कहा था। उसके बाद तो कभी ऐसा नहीं हुआ था कि फोन न उठाया हो। शायद इस बार भी ऐसा ही कुछ हुआ होगा। उसने अपने भाई को फोन किया कि वह उनसे उसकी बात करवा दे तो भाई ने कहा कि वह कहीं दूर किसी और गाँव में आया हुआ है, घर पहुँचकर बात करवा देगा। फिर वह इंतजार करती रही पर उसके भाई का फोन नहीं आया। इसी प्रकार कभी वह खुद फोन करने की कोशिश करती और कभी भाई से बात करवाने को कहती और वह नए-नए बहाने बनाकर टाल देता। लगभग एक महीना हो गया पर देविका अपने बाबूजी से बात नहीं कर पाई। अब उसको बेचैनी होने लगी कि कहीं  उनकी तबियत तो खराब नहीं हो गई? इन लोगों ने तो माँ के देहांत की खबर भी नहीं दी थी, तो अब कहीं.... नहीं नहीं...मेरे बाबूजी को कुछ नहीं हो सकता। वह बिल्कुल स्वस्थ होंगे। वह अपने मन को बहला लेती, उसने सोचा इस बार इतने दिनों से बात नहीं हुई तो हो सकता है कि वह खुद फोन कर लें। पहले भी एक बार कई दिनों तक बात नहीं हो पाई थी फिर जब भाई के मोबाइल पर फोन करके बात की थी तो उन्होंने ने बताया था कि शायद उनके मोबाइल का बैलेंस खत्म हो गया है, वह बाजार नहीं जा सके इसलिए रीचार्ज़ नहीं करवा पाए अब तक, तो देविका ने तुरंत ऑनलाइन उनका मोबाइल रीचार्ज करवा दिया था और उनको उन्हीं के मोबाइल पर फोन करके बताया कि अब उन्हें रीचार्ज के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं।  बाबूजी बड़े खुश हुए थे, हो सकता है कि इस बार भी कुछ ऐसा ही हो....पर फिर भी बहुत समय हो गया। इसी उधेड़-बुन में दो-चार दिन और निकल गए और अब देविका ने गाँव जाने का फैसला कर लिया।
उसने ट्रेन के रिजर्वेशन करवाने के लिए अपने पति से कहा कि 'जितनी जल्दी का टिकट मिल सके वो बुक करवा दें।' पर शायद किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। ,
दोपहर के तीन या चार बज रहे थे कि देविका का मोबाइल बज उठा, उसे लगा बाबूजी का फोन होगा उसने तुरंत उठा लिया पर अंजाना नंबर देखकर फोन काटने ही जा रही थी कि शायद 'कोई काम का फोन हो', यही सोचकर उसने फोन उठाया और उसके हैलो बोलते ही दूसरी ओर से उसके चचेरे भाई की आवाज आई और उसने बताया कि बाबूजी उसे छोड़कर हमेशा के लिए जा चुके हैं। वह निश्चेष्ट होकर बैठी रह गई, उसे समझ नहीं आया कि क्या करे या क्या कहे...उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था, अभी माँ को गए एक साल भी नहीं हुआ और अब बाबूजी भी उसे छोड़कर चले गए...पर कैसे? क्या वो बीमार थे? इसीलिए फोन नहीं उठा रहे और किसी ने उसे खबर नहीं की जैसे माँ के समय नहीं किया था। उसके दिमाग में आँधी सी चल रही थी, जीभ मानों तालू से चिपक गई वह बहुत कुछ बोलना चाहती थी पर होंठ हिलकर शांत हो गए। दूसरी ओर से आवाज आ रही थी कि "दीदी तुम आ रही हो न? तुम्हारा इंतज़ार करें?" "ह..हाँ" बस इतना ही बोल सकी वह और फोन बिना काटे रख दिया और उसी समय बस से ही गाँव के लिए निकल पड़ी।
रात भर का सफर उसे सदियों सा लग रहा था, बस अपने निर्धारित समय से दो-ढाई घंटे देर से पहुँची। इस बीच उसके भाई और चचेरे भाई के कई बार फोन आ चुके थे। अधिक देर होती देख भाई ने उसे बस स्टेशन से लाने के लिए मोटर साइकिल से चचेरे भाई को भेज दिया ताकि जल्दी आ सके। मोटर साइकिल से उतर कर वह दौड़ती-भागती घर में घुसी,

 बाबूजी की अंतिम विदाई की तैयारी हो चुकी थी, सबकी आँखें उसके इंतजार में मुख्य द्वार पर टिकी थीं पर उनमें न माँ की आँखें थीं और न ही बाबूजी की उस भीड़ में भी आज वह अकेली थी। बाबूजी के चेहरे से कपड़ा हटाकर उसे अंतिम दर्शन करने के लिए कहा गया। मंझली भाभी ने कुछ पैसे लाकर उसके हाथ में दिए कि वह अर्थी पर चढ़ा दे, तभी उसकी बड़ी भाभी उसके गले लगकर रोने लगी और उधर सभी लोग बाबूजी की अर्थी उठाकर मुख्य द्वार से बाहर निकल गए। वह तो बाबूजी को अभी ठीक से देख भी नहीं पाई थी, उन्हें जी भर कर देखना चाहती थी, भाभी को कंधे से पकड़कर अपने-आप से अलग किया और रोती हुई बाहर की ओर भागी। गाँव व परिवार की अन्य महिलाएँ भी थीं जो अर्थी के पीछे-पीछे चल रही थीं, गाँव के नुक्कड़ पर जाकर उसने उनके अंतिम दर्शन करके भाभी द्वारा दिए गए पैसे चढ़ाए और एक हारी हुई जुआरी की भाँति अपना सबकुछ गँवाकर खाली दामन लिए बेबस अपने सिर से बाप का साया हटते देखती रही।
थके हुए भारी कदमों से वह भी भाभियों, चाचियों और बुआ के साथ घर में लौट आई। रोते हुए उसने अपनी चाची से कहा कि इन लोगों में से किसी ने उसे एक फोन तक नहीं किया, नहीं तो वह बाबू जी से उनके जीते-जी मिल लेती। यह बताते हुए वह इस बात से अंजान थी कि उसकी बड़ी भाभी को उसका खुद से अलग करना बहुत बुरा लग गया था। वो  सभी को बता रही थीं कि किस प्रकार उन्होंने बाइस दिनों तक अस्पताल में बाबूजी की सेवा की और उनके पति ने कितना खर्च किया। देविका का मन कर रहा था कि वह अभी यहाँ से वापस चली जाए, अब उसका यहाँ कुछ भी नहीं है पर वह ऐसा नहीं कर सकती थी, इसलिए उसे रुकना पड़ा।
वही घर था वही बरामदा, वही आँगन और घर में रिश्तेदारों की भीड़, पर देविका बेहद अकेली थी, उसके लिए यह घर तो अब उस मंदिर के समान था जिसमें उसके भगवान की मूर्तियाँ ही न हों। इस खाली चारदीवारी में सिवाय घुटन के कुछ भी नहीं था। उसकी भाभियों को उससे बोलने की पता नहीं फुरसत नहीं थी या बड़ी भाभी को खुश करने का प्रयास था। बुआ और मौसी ही थीं जो उसके पास बैठतीं उससे बातें करतीं। अब तो गाँव की औरतें भी उसकी ओर देखतीं तो उनकी नजरों में उसके लिए सहानुभूति होती, जैसे कह रही हों- "बेचारी का मायका खत्म हो गया।" उसके लिए अब एक-एक दिन काटना मुश्किल हो रहा था। बड़ी भाभी और भाई उससे दूर-दूर ही रहते, न जाने क्यों?
तेरहवीं संपन्न होते ही दूसरे ही दिन वह अपने घर जाने के लिए तैयार हो गई, रुकने के लिए चाची, बुआ, मौसी और मौसी की बहू ने कहा पर जिन्हें कहना चाहिए था उन्हें शायद डर था कि उनके कह देने से हो सकता है एक-दो दिन और रुक जाए, इसलिए उन्होंने नहीं कहा।
वह एक बार फिर वहीं बरामदे में बिछे उसी तख्त पर बैठी थी, बुआ, मौसी की बहू और छोटी मौसी उसके पास ही बैठी थीं। बुआ पूछ रही थीं "तैयारी कर ली?"
हाँ। उसने कहा।
"खाना खाया?" उन्होंने पूछा।
"हाँ सुबह खाया था।" उसने कहा।
"सुबह नहीं हम दोपहर की बात कर रहे हैं।" उन्होंने कहा।
"मुझे भूख नहीं है।" उसने कहा, जबकि सच यह था कि उसे भूख लग रही थी पर खाने के लिए किसी पूछा नहीं था और वह खुद खाना लेकर एक बार के लिए दोषी नहीं बनना चाहती थी।
"अरे भूख कैसे नहीं, शाम हो रही है। मैं लाती हूँ खाना।" कहते हुए मौसी की बहू उठ कर उस कमरे में गई जहाँ खाना व मिठाइयाँ रखी हुई थीं।
"मिठाई दिया तुम्हें खाने को और ले जाने के लिए रखा?" बुआ ने पूछा।
"नहीं मैं कुछ नहीं ले जाऊँगी।"
"अरे कल तक बाल्टी भर-भर कर मिठाइयाँ थी, बड़ी वाली के मायके वाले गए तो पता नहीं कि उसने सारी वहाँ भेज दी या फिर कहीं छिपा दिया पर कमरे में अब कोई मिठाई नहीं है।" मौसी की बहू ने बाहर आते हुए कहा।
"भाई बड़ी चालाक हैं ये बहुएँ। कोई खा न लें इसलिए छिपा दिया और अपने मायके वालों को ही देंगीं। इकलौती ननद के लिए भी अब कुछ नहीं है इनके पास।" बुआ गुस्से को भीतर ही भीतर पीती हुई बोलीं।
"आप नाहक परेशान हो रही हो, मैं तो वैसे भी कुछ नहीं लेकर जाने वाली हूँ। कहते हुए उसे माँ की याद आ गई कि कैसे माँ उसके लिए न जाने क्या-क्या बाँधने को तैयार रहती थीं जब-जब वह ससुराल जाती थी। तभी उसकी मंझली भाभी आई और उससे पूछा- "दीदी मुरमुरे और गुड़ रख दें ले जाओगी?" 
"नहीं, मैं कुछ नहीं ले जाऊँगी।" उसने कहा।
"गुड़ क्यों मिठाई नहीं बची है क्या?" बुआ बोलीं।
"हाँ थोड़ी है, आप कहो तो रख दूँ दीदी।" भाभी उसकी ओर देखते हुए बोली।
"नहीं, मैं कुछ भी लेकर नहीं जाऊँगी, किसी को मेरे लिए परेशान होने की आवश्यकता नहीं है।" उसने कठोरता से इतनी तेज आवाज में कहा ताकि उसकी आवाज बरामदे के दूसरे छोर पर बैठे उसके बड़े भाई-भाभी को सुनाई पड़ सके।
उसने अपनी बेटी से पर्स मँगवाया और उसमें से पैसे निकाल कर अपनी भाभी को दिया यह कहते हुए कि बाबूजी की अंतिम यात्रा में मेरे द्वारा जो पैसे चढ़ाए गए वो मेरे ही होने चाहिए, इसलिए ये पैसे तुम्हें रखने ही पड़ेंगे। इस प्रकार उसने यह जता दिया कि अब वे लोग उसे बोझ न समझें, वह उनका एक भी पैसा अपने लिए नहीं लेगी।
शाम को वह जाने लगी तो मंझली भाभी ने सभी के समक्ष औपचारिकता पूरी करते हुए कहा कि "आती रहना दीदी, माँ-बाबूजी नहीं हैं तो क्या हम तो हैं।" पर उसने कुछ नहीं कहा, पर उसके दिल से जरूर आवाज आई कि तुम एक बार फोन करोगी तो मैं भागी चली आऊँगी। उसे पता था कि अब कोई उसे फोन नहीं करेगा, उसके पास फोन आने तो तभी बंद हो गए थे जब माँ बीमार पड़ीं।
आज उसकी आँखें फिर भर आईं, चाहकर भी वह अपने आँसू रोके न सकी पर वहाँ कोई न था जिसके कंधे पर वह सिर रखकर रो पाती, उसने तुरंत हाथ में पकड़े रुमाल से अपना चेहरा साफ किया और बाहर आ गई।  घर की चौखट से बाहर पैर रखते ही उसे लगा कि अब उसका मायका खत्म हो गया। उसका बचपन, उसकी जवानी सब पीछे उस चारदीवारी में छूट गया, बस अगर कुछ रह गया है तो वो हैं यादें। अंतिम बार वह जी भर कर अपने जीवन के उस हिस्से को देख लेना चाहती थी जो कल से उसके लिए अंजान हो जाने वाले हैं।
देविका भाई की गाड़ी में बैठ गई और गाड़ी चल पड़ी। वह तब तक अपने उस घर को अपनी आँखों से दूर होते हुए देखती रही जब तक कि गाड़ी गाँव के आखिरी छोर के नुक्कड़ तक पहुँचकर मुड़ नहीं गई। उसका मन बार-बार कर रहा था कि वह गाड़ी से उतर कर भाग कर वापस जाए और अपने घर की दीवार से लिपट जाए। मन उस घर की माटी को चूमने को मचल रहा था, जिसमें उसके माँ-बाबूजी की खुशबू बसी है, पर यह इच्छा अब सिर्फ उसकी कल्पनाओं में ही पूरी हो सकती है।
भाई उसे बस-स्टेशन पर छोड़कर वापस जाने लगा तभी हर बार की भाँति इस बार भी वह बोलने वाली थी कि 'माँ-बाबूजी का ख्याल रखना।' पर मुँह से 'माँ' निकलते ही उसे याद आ गया कि अब घर पर उसके लिए फिक्रमंद होने वाली माँ नहीं हैं और न ही बाबूजी। याद आते ही वह चुप हो गई। भाई भी शायद समझ गया, इसलिए बिना कुछ बोले चला गया।

देविका बस से वापस अपनी ससुराल आ गई। और दूसरे ही दिन वह एक फाइल लेकर अपने वकील से मिलने पहुँच गई। काफी देर तक उससे बात करने के उपरांत घर वापस आ गई। लगभग एक हफ्ते के बाद फोन करके उसने अपने वकील को घर बुलाया। वकील को घर आया देखकर राकेश को आश्चर्य हुआ। वह पूछ बैठा, "देविका वकील को क्यों बुलाया है?"
"राकेश बताती हूँ, पर वादा करो मेरे काम में बाधा नहीं डालोगे।" वह बोली।
"तुम्हें ऐसा क्यों लगता है कि मैं तुम्हारे काम में बाधा डालूँगा?" राकेश बोला।
"राकेश! भगवान ने हमें एक बेटा और एक बेटी देकर हमारा परिवार पूरा कर दिया है, दोनों हमारे लिए बराबर हैं, है न?" वह बोली।
"हाँ, पर मैं समझा नहीं, तुम ऐसा क्यों कह रही हो?"
"वो इसलिए क्योंकि हम नहीं जानते कि हमारे बाद भी हमारी बेटी का मायका सुरक्षित रहेगा ही, इसकी कोई गारंटी तो नहीं है न? इसलिए मैंने इस घर का आधा हिस्सा हमारी बेटी के नाम करके उसका मायका सुरक्षित कर दिया, अब प्रॉपर्टी के कारण ही सही, पर रिश्ते और दोनों जीवित रहेंगे।
राकेश नि:शब्द हो देविका का चेहरा देखता रहा इस समय उसके चेहरे को देखकर यह अनुमान लगाना मुश्किल था कि उसके मन में क्या चल रहा है, वह भावशून्य सी फाइल के पन्ने पलट-पलट कर देख रही थी।

चित्र...साभार..गूगल से
मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

13 टिप्‍पणियां:

  1. आँखें नम हो गई मालती जी ।बहुत मार्मिक कहानी है ।कहीं न कहीं इसमें समाज की कड़वी सच्चाई के दर्शन होते हैं।

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    1. अपना कीमती समय देकर कहानी को पढ़ने और प्रतिक्रिया से अवगत कराने के लिए हार्दिक आभार सुधा जी।

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  2. अनीता जी कहानी पसंद करने और चर्चा में शामिल करके सूचित करने के लिए हार्दिक आभार।

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  3. आपने तो रुला ही दिया मालती जी । बहुत ही हृदयस्पर्शी कहानी है ।

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    1. शुभा जी कहानी पढ़ने और पसंद करने के लिए बहुत-बहुत आभार

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  4. संवेदना से ओतप्रोत कहानी दिल को छू गई मालती जी बधाई आपको

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    1. कहानी पसंद करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद आ० रतनलाल जी

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  5. बहुत ही हृदयस्पर्शी कहानी....

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  6. मन को नम कर गयी कहानी
    बहुत खूब

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    1. आ० आपकी प्रतिक्रिया स्वरूप उत्साहवर्धन पाकर मैं कृतज्ञ हुई, बहुत-बहुत धन्यवाद।

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  7. हृदय स्पर्शी कथा, जैसे यथार्थ ।
    बेमिसाल बेहतरीन।

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    1. आ० आपकी टिप्पणी से कलम ऊर्जावान हुई, लेखन सार्थक हुआ, आभार आपका।

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