सोमवार

पुराना फर्नीचर

पुराना फर्नीचर

धूल झाड़ते हुए सुहासिनी देवी के हाथ एकाएक रुक गए जिस फर्नीचर पर अभी वह जोर-जोर से कपड़ा मार रही थीं, उनके हाथ अब उसी फर्नीचर को बड़े प्यार से सहला रहे थे। ये वही  फर्नीचर थे जिसे उन्होंने अपने कड़की के दिनों में भी एक-एक पैसा जोड़कर खरीदा था। उस समय इन्हीं फर्नीचर्स की वजह से घर की शोभा कितनी बढ़ गई थी। वो खुद भी तो तब इस घर की शान हुआ करती थीं पर अब...सोचते हुए वह अतीत की गहराइयों में डूबती चली गईं......
जब रवींद्र और सुहासिनी अपने जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए संघर्ष कर रहे थे।  रवींद्र की दस वर्षीय बेटी आयुषी और छः साल का बेटा सनी के साथ चार लोगों का परिवार था इनका। वह घर से एक किलोमीटर से भी कम की दूरी पर ही एक छोटी सी कुरियर कंपनी में नौकरी करता था।
कमरे का किराया और बच्चों की स्कूल फीस तथा घर-गृहस्थी के अन्य खर्चों को सुचारू रूप से चलाने के लिए अकेले रवीन्द्र का वेतन पर्याप्त नहीं था, इसलिए सुहासिनी ने भी एक छोटे से स्कूल में पढ़ाना शुरू कर दिया लेकिन स्कूल की बहुत थोड़ी सी तनख्वाह और रवींद्र की तनख्वाह मिलाकर भी परिवार का निर्वाह हो पाना मुश्किल हो रहा था। सुहासिनी से यह परेशानी देखी नहीं जाती, उसे हमेशा यही डर सताता कि कहीं रवींद्र बच्चों की पढ़ाई न छुड़वा दे। बहुत सोचने के बाद उसने कहीं और नौकरी करने का निर्णय लिया। फिर रवींद्र के साथ जाकर वह किसी रिटेल कंपनी में इंटरव्यू देकर आई और वहाँ उसका चयन हो गया।
उसको सुबह नौ बजे आउटलेट पर पहुँचना होता था और शाम को छ: बजे छुट्टी होती थी परंतु शाम के उस समय ग्राहकों की भीड़ अधिक होने के कारण कभी सात तो कभी आठ भी बज जाते थे निकलने में। किन्तु इसके बावजूद आर्थिक तंगी की विवशता के कारण उसे यह नौकरी तो करनी ही थी। सवेरे ही बच्चों को नाश्ता करवाकर उनका लंच देकर स्कूल भेज देती और पूरे दिन के लिए उनके तथा रवींद्र के लिए खाना बनाकर रसोई में ढँक कर रख देती। घर की साफ-सफाई करके अपना लंच लेकर वह आठ बजे काम पर निकल जाती थी। रवींद्र उसके जाने के बाद नौ बजे तक सोकर उठता और नहा-धोकर तैयार होता तथा रसोई में रखा नाश्ता खाता और पौने दस बजे वह भी अपनी नौकरी पर चला जाता। दोपहर को जब बच्चे घर आते तभी वह भी घर आता। आयुषी से खाना गर्म करवाता और फिर बच्चों के साथ ही लंच करता और एक-डेढ़ घंटे आराम करके फिर काम पर चला जाता। बच्चे शाम को रवींद्र के आने तक घर में अकेले रहते थे। दस साल की छोटी सी आयुषी ही छ: साल के सनी को संभालती। वह छोटी होने के बावजूद इतनी समझदार थी कि न तो खुद घर से बाहर जाती थी और न ही सनी को जाने देती दोनों घर में ही खेलते रहते या सो जाते।
सुहासिनी शाम को आने के बाद सबके कपड़े धोती खाना बनाती, बच्चों को पढ़ाती और सबको खाना खिलाकर बर्तन और रसोई साफ करके सबेरे के लिए सब्जी काटती, बच्चों के स्कूल यूनिफॉर्म प्रेस करके तब रात के ग्यारह-बारह बजे तक सोने जाती। उसकी पूरी दिनचर्या मशीनी हो गई थी। जब-तब वह खीझती थी, बच्चों को समय न दे पाने की वजह से खुद को अपराधी महसूस करती थी पर कुछ न कर पाने के कारण बेबसी से भीतर ही भीतर छटपटाती थी। वह रवींद्र को कहीं और नौकरी ढूँढ़ने के लिए कहती पर हमेशा ही उसे निराशा हाथ लगती। रवींद्र के सपने बड़े थे परंतु न जाने क्यों वह यह नौकरी छोड़ना नहीं चाहता था। वह जानता था कि कहीं और नौकरी ढूँढ़ेगा तो शायद इतने आराम की नौकरी नहीं मिलेगी। यहाँ पैसे भले ही कम थे पर आराम बहुत था और इसीलिए वह सुहासिनी को तरह-तरह से जवाब देकर चुप करवा देता पर कहीं और नौकरी नहीं ढूँढ़ता।
इसी तरह लगभग एक साल होने को आए, परंतु उनके घर की आर्थिक स्थिति ज्यों की त्यों बनी रही। सुहासिनी नौकरी छोड़ना चाहते हुए भी नहीं छोड़ सकती थी क्योंकि रवींद्र की आय अब भी उतनी ही थी परंतु शायद भगवान ने सुहासिनी की प्रार्थना सुन ली और वह कुरियर कंपनी बंद हो गई। अब रवींद्र के लिए दूसरी नौकरी ढूँढ़ना आवश्यक हो गया। परंतु उसे कोई जल्दी नहीं थी आखिर पत्नी का सहारा तो था ही। वह नौकरी तो खोज रहा था परंतु बड़े आराम से, उसका अधिकांश समय घर पर ही बीतता लेकिन इससे भी सुहासिनी को कोई आराम नहीं था। वह पहले की ही भाँति सारे कामों का बोझ अकेले कंधों पर उठाए रही।
वह तो पूरा दिन आउटलेट पर होती इधर रवींद्र घर पर आयुषी से कभी खाना तो कभी पानी माँगता परंतु कभी नहीं सोचा कि बच्ची छोटी है तो अपने कार्य उसे स्वयं कर लेने चाहिए। जब बच्चों के खेलने का समय होता तो उन्हें बैठाकर समझाता रहता। समय धीरे-धीरे बीतता रहा रवीन्द्र की नौकरी बदली और समय भी पर बच्चों के बड़े होने के साथ-साथ आवश्यकताएँ भी बढ़ती गईं। आवश्यकताओं को देखते हुए सुहासिनी कभी नौकरी नहीं छोड़ पाई। ऐसा नहीं कि उसने कोशिश न की हो, उसने बच्चों की देखभाल के लिए नौकरी छोड़ी भी लेकिन फिर आर्थिक तंगी के कारण पुन: करनी पड़ी। जिस समय माँ को घर पर रहकर बच्चों के साथ समय बिताना चाहिए उनसे बातें करनी चाहिए उस समय वह घर से बाहर होती, हाँ कई बार रवींद्र जरूर घर पर जल्दी होता और ऐसे में उसके चाय पानी खाने की सारी जरूरतें आयुषी देखती। सुहासिनी को जब-तब दुख होता कि उसकी बच्ची बेचारी अपना बचपन नहीं जी पाई, इतनी छोटी सी उम्र में ही वह घर के अधिकतर काम संभालती है, पर वह विवश हो जाती। जब ऑफिस का इतना काम होता कि उसे घर पर भी करना पड़ता और वह समय नहीं निकाल पाती, तब बेचारी बच्ची को ही घर संभालना पड़ता। वह जब भी अपनी इस मशीनी जिंदगी से हताश होती तो बस यही सोचकर अपने-आप को समझा लेती कि बस कुछ सालों की ही बात है, आयुषी की पढ़ाई पूरी होते ही वह भी कोई जॉब करने लगेगी तब उनकी सारी परेशानी खत्म हो जाएगी और वह नौकरी छोड़कर घर में रहने लगेगी और इसी उम्मीद में बच्चों का भविष्य बनाने के लिए वह शारीरिक शक्ति सीमा को भूल सशक्त मनोबल के सहारे सदैव एक कमाऊ पत्नी और कमाऊ माँ बनी रही।

वह आर्थिक रुप से आत्मनिर्भर और सशक्त महिला तो बन गई पर घर की गृहलक्ष्मी मात्र नाम के लिए रह गई।
अब तो रवींद्र की ज़बान पर हमेशा आयुषी का ही नाम होता, खाना चाहिए तो आयुषी, चाय चाहिए तो आयुषी, कपड़े चाहिए तो आयुषी। साप्ताहिक छुट्टी के दिन सुहासिनी घर पर होती फिरभी रवींद्र को कुछ भी चाहिए होता तो आयुषी को ही आवाज लगाता, फिर वह चाहे पढ़ रही हो या अभी-अभी काम करके थोड़ा आराम कर रही हो पर उसकी आवाज सुन उसे सब छोड़कर भागना ही पड़ता। सुहासिनी की उपस्थिति और अनुपस्थिति अब रवींद्र के लिए मायने नहीं रखती थी। उसको देख-देखकर सनी भी अपनी हर जरूरत के लिए आयुषी पर निर्भर हो गया। धीरे-धीरे समय बीतता रहा बच्चे बड़े हो गए और आयुषी पढ़ाई के साथ-साथ घर के कामों में भी दक्ष हो गई। सुहासिनी भी उसपर निर्भर हो चुकी थी। परंतु उसे सबका आयुषी पर निर्भर होना अच्छा नहीं लगता। उसे अपनी नगण्यता चुभने लगी, आखिर है तो वह घर की मालकिन ही न! पर मालकिन जैसा रहा क्या उसके जीवन में! वह चाहती थी कि काश पति और बच्चों के जीवन में वह फिर से अपना वही स्थान बना पाती! पर जानती थी कि यह इतना आसान नहीं और शायद संभव ही नहीं। अपनी गृहस्थी की गाड़ी को पटरी पर लाने की कोशिश में उसके रिश्ते हाथ से फिसल गए। रवींद्र अब अच्छा-खासा कमाने लगा है तो अब आर्थिक समस्या तो है नहीं, इसलिए अब अपने रिश्ते ही संभालने का प्रयास करती हूँ, ऐसा सोचकर उसने नौकरी छोड़ दी और घर पर रहने लगी। शुरू के एक-दो हफ्ते तो सुकून का अहसास हुआ, लंबे अरसे के बाद बेफिक्र होकर सोना और सुबह बेफिक्र होकर उठना अच्छा लगा परंतु धीरे-धीरे अपनी आत्मनिर्भरता की कमी खलने लगी। जब छोटी-छोटी जरूरतों के लिए रवींद्र से पैसे माँगने पड़ते तब ऐसा महसूस होता जैसे उसका खर्च भारी पड़ रहा है। वर्षों से आत्मनिर्भरता के कारण माँगने की आदत भी तो नहीं रही, इसलिए जो अन्य पत्नियों के लिए शायद साधारण सी बात हो, वही सुहासिनी के लिए असहनीय लग रही थी, फिरभी उसने तय कर लिया कि चाहे जो भी हो, अब वह घर पर ही रहेगी।
शाम को जब सुहासिनी रसोई में थी तब बेटे-बेटी और पिता के बीच न जाने किस बात को लेकर सलाह मशविरा चल रहा था, सुहासिनी सुनना चाहती थी कि वो क्या बात कर रहे हैं परंतु उसने सोचा अगर वे उसे बताना ही चाहते तो ड्राइंग-रूम में बैठकर उसके सामने बात करते पर उसने कई बार महसूस किया है कि जब वह ड्रॉइंग रूम में होती है तो वो तीनों बेडरूम में होते हैं और जब वह बेडरूम में होती है तब वे सब ड्रॉइंग रूम में होते हैं। वह बहुत दुखी होती है पर फिर खुद को ही समझा लेती है कि सालों से उन लोगों को उसके बिना एक साथ रहने की आदत पड़ गई है तो अब इतनी जल्दी नहीं छूटेगी। अत: उनके बीच जाकर बातें न सुनकर रवींद्र के बाहर चले जाने के बाद सुहासिनी ने बेटी से पूछ ही लिया "क्या बात हो रही थी पापा से?"
"अरे कुछ नहीं ममा वो पापा को अपने दोस्त के बेटे के लिए उपहार देना है बस उसी के बारे में बात हो रही थी।"
"ओह अच्छा।" कहती हुई सुहासिनी मायूस सी दूसरे कमरे में चली गई। अब वह इस काबिल भी नहीं कि किसी काम में उससे सलाह मशविरा किया जाय। सोचते हुए वह धम्म से सोफे पर बैठ गई। थोड़ी देर बाद रवींद्र घर वापस आया और कहीं जाने की तैयारी करते हुए बोला- "आयुषी मेरा रूमाल दे दे।" सुहासिनी आयुषी की ओर देखने लगी।  "हाँ देती हूँ" कहकर आयुषी उठकर चली गई। रुमाल पकड़ते हुए रवींद्र ने पूछा- "मेरे कपड़े तैयार कर दिए?"
"अभी कर दूँगी।" आयुषी बोली।
"कपड़े! क्यों कहीं जाना है क्या?" सुहासिनी ने चौंककर पूछा।
"कल पापा को कोलकाता जाना है।" आयुषी बोली। सुहासिनी को ऐसा लगा जैसे किसी ने उसके गाल पर जोर का तमाचा मारा हो। वह उठकर अपने कमरे में चली गई।
"ये ले पैसे संभालकर रख दे और ये घर खर्च के लिए।" रवींद्र आयुषी की ओर पैसे बढ़ाते हुए बोले। वहीं पास बैठी सुहासिनी कनखियों से आयुषी के हाथ में पकड़े पैसों को देखती है फिर उसके चेहरे की ओर देखती है।
"दीदी मुझे कल पिकनिक जाना है कुछ पैसों की जरूरत है।" सनी ने कहा।
"मैं दे देती हूँ, सुहासिनी ने कहना चाहा पर न जाने क्या सोचकर रुक गई।
उसे ऐसा लग रहा था कि शायद अब इस घर में उसकी कोई जरूरत नहीं है।
कभी-कभी वह सोचती कि रवींद्र की जिंदगी में अब क्या अस्तित्व है मेरा? घर के किसी कोने में अनचाहे सामान की तरह पड़ी रहती हूँ।

अब तो उसने घर के किसी भी अहम् कार्य में उससे पूछना भी बंद कर दिया है और अगर वह खुद कुछ बोलती है तो उसपर भड़क जाता है, बच्चों के सामने ही उसपर चीखता है। यह भी नहीं सोचता कि उसके ऐसे व्यवहार से वह कितनी आहत होती होगी। घर से जुड़ा काम हो या बिजनेस से, उसकी राय या उसका होना न होना कोई मायने नहीं रखता।
आज रवींद्र के बिजनेस से जुड़े कुछ लोग आ रहे हैं घर पर, उसने आयुषी से बैठक वाले कमरे को साफ करने के लिए कहा। तो वह उस पुराने फर्नीचर पर पड़े कपड़े, अखबार और बैग आदि हटाने लगी तो सुहासिनी ने पूछा- क्या हुआ कोई आ रहा है क्या?
"हाँ, कुछ क्लाइंट्स हैं।" उसने कहा।
"ठीक है तू जाकर और काम देख ले, मैं साफ करती हूँ, ये कवर लेती जा और दूसरे कवर दे जा।" कहकर सुहासिनी सोफे को झाड़ने लगीं।
तभी रवींद्र आया और बोला- "कैसी बनी घूम रही हो, कपड़े बदल लो, थोड़ा हुलिया सुधार लो हमारे क्लाइंट आ रहे हैं और तुम्हें हस्ताक्षर करने आना होगा, तो ऐसे आओगी क्या?"
सुहासिनी अविश्वसनीय नजरों से रवींद्र की ओर देखने लगी, फिर थोड़ी संयत हुई और पुराने फर्नीचर को देखा और मुस्कुराते हुए उसे सहलाते हुए बुदबुदाईं, "आज हमारे भी दिन फिर गए, चलो आज हम दोनों ही कपड़े बदल लेते हैं।"

मालती मिश्रा 'मयंती'✍️

2 टिप्‍पणियां:

  1. पहले जमाने की बात और थी।आजकल तो मैंने कई घरों में यह देखा है कि बेटी तक माँ को नहीं समझ पाती।माँ पढ़ी लिखी समझदार हो तब भी बेटी से यह सुनने को मिल जाता है कि तुम छोड़ो,तुम्हें कुछ नहीं मालूम।माँ के त्याग और तपस्या को भूल जाते हैं।आजकल की कड़वी सच्चाई बयान करती शानदार सशक्त कहानी

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    1. बहुत-बहुत आभार आ० आपकी टिप्पणी से लेखन सार्थक हुआ।

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