नदी और तालाब के पानी की यदि तुलना करें तो नदी का पानी तालाब के पानी की तुलना में अधिक स्वच्छ होता है क्योंकि वह निरंतर बहता रहता है जबकि ठहराव के कारण तालाब का पानी सड़ जाता है और वह बीमारी फैलाता है। कहते हैं परिवर्तन का दूसरा नाम जीवन है यदि जीवन में परिवर्तन स्वीकार न हो तो जीवन का ठहराव जीना दूभर कर देता है। वैसे तो हमारे विद्वजनों, महापुरुषों ने सदैव यही ज्ञान दिया है कि हमें समय के अनुसार अपने विचारों में परिपक्वता लाना चाहिए, यदि समय के साथ नहीं चले तो पीछे रह जाएँगे, पर क्या यह बात सिर्फ हमारे रीति-रिवाजों और परंपराओं के लिए ही होनी चाहिए? क्या सिर्फ पुरानी मान्यताएँ ही हमारे विकास में बाधक हैं?
मैं समझती हूँ कि जिस प्रकार घिसी-पिटी रूढ़ियाँ समाज के विकास में रुकावट हैं उसी प्रकार हमारी न्याय व्यवस्था, हमारा घिसा-पिटा संविधान देश के विकास के मार्ग में सबसे बड़ा अवरोध है। इसके साथ ही किसी एक ही विचारधारा के अनुयायी को कानून का रक्षक बना कर देश और देश की संस्कृति की बरबादी का तमाशा देखते रहना कहाँ तक न्याय संगत है।
क्या यह विचारणीय नहीं कि किसी देश का संविधान किसी एक धर्म के लिए कुछ तो दूसरे धर्म के लिए कुछ और हो? फिर यह न्याय संगत कैसे हो सकता है? क्या यह न्याय है कि कानून पुरुष के लिए कुछ और स्त्री के लिए कुछ और हो?
क्या ऐसा देश आगे बढ़ सकता है जिसके नागरिक देश को, देश के सम्मान स्वरूप राष्ट्र ध्वज को अपमानित करते हैं और फिर समाज के हीरो बन जाते हैं? क्या ऐसा कानून मान्य होना चाहिए जो देश के रक्षक सेना के हाथ बाँधता हो और उन्हीं रक्षकों पर पत्थर बरसाने वालों को शरण और सुरक्षा देता हो?
जब न्यायालय में न्यायाधीश ही किसी व्यक्ति विशेष, धर्म विशेष के अनुयायी हों तो उनसे न्याय की अपेक्षा रखना मूर्खता ही है और जब संविधान किसी समुदाय विशेष को अनैतिक रूप से संरक्षण प्रदान करने लगे तो देश का भविष्य अंधकारमय होता है। ऐसा संविधान तालाब के सड़े हुए कीचड़युक्त पानी की तरह ही होता है और समय की माँग और देश के विकास को ध्यान में रखते हुए ऐसे संविधान में समय-समय पर परिवर्तन करते रहना आवश्यक है।
#मालतीमिश्रा
मैं समझती हूँ कि जिस प्रकार घिसी-पिटी रूढ़ियाँ समाज के विकास में रुकावट हैं उसी प्रकार हमारी न्याय व्यवस्था, हमारा घिसा-पिटा संविधान देश के विकास के मार्ग में सबसे बड़ा अवरोध है। इसके साथ ही किसी एक ही विचारधारा के अनुयायी को कानून का रक्षक बना कर देश और देश की संस्कृति की बरबादी का तमाशा देखते रहना कहाँ तक न्याय संगत है।
क्या यह विचारणीय नहीं कि किसी देश का संविधान किसी एक धर्म के लिए कुछ तो दूसरे धर्म के लिए कुछ और हो? फिर यह न्याय संगत कैसे हो सकता है? क्या यह न्याय है कि कानून पुरुष के लिए कुछ और स्त्री के लिए कुछ और हो?
क्या ऐसा देश आगे बढ़ सकता है जिसके नागरिक देश को, देश के सम्मान स्वरूप राष्ट्र ध्वज को अपमानित करते हैं और फिर समाज के हीरो बन जाते हैं? क्या ऐसा कानून मान्य होना चाहिए जो देश के रक्षक सेना के हाथ बाँधता हो और उन्हीं रक्षकों पर पत्थर बरसाने वालों को शरण और सुरक्षा देता हो?
जब न्यायालय में न्यायाधीश ही किसी व्यक्ति विशेष, धर्म विशेष के अनुयायी हों तो उनसे न्याय की अपेक्षा रखना मूर्खता ही है और जब संविधान किसी समुदाय विशेष को अनैतिक रूप से संरक्षण प्रदान करने लगे तो देश का भविष्य अंधकारमय होता है। ऐसा संविधान तालाब के सड़े हुए कीचड़युक्त पानी की तरह ही होता है और समय की माँग और देश के विकास को ध्यान में रखते हुए ऐसे संविधान में समय-समय पर परिवर्तन करते रहना आवश्यक है।
#मालतीमिश्रा
इसीलिए न्यायालय में निर्णय होता है, न्याय हुआ ये नहीं कहा जाता है
जवाब देंहटाएंसंविधान में भी समय के साथ बदलाव जरुरी है
विचारणीय प्रस्तुति
कविता जी आपकी टिप्पणी मेरे लिए प्रोत्साहन है बहुत-बहुत आभार आपका।
हटाएंसार्थक और सटीक विश्लेषण किया है
जवाब देंहटाएंबढ़िया आलेख
सादर
आप सम विद्वजन की उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया पाकर प्रयास सार्थक हुआ सर। बहुत-बहुत आभार।
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